पुलकेशिन् द्वितीय, 610-642 ई. (Pulakeshin II, 610-642 AD)

पुलकेशिन् द्वितीय चालुक्य वंश का महानतम् शासक था। वह कीर्तिवर्मन प्रथम का पुत्र था जिसने अपने चाचा मंगलेश तथा उसके समर्थकों की हत्याकर वातापी के चालुक्य वंश की गद्दी पर अधिकार किया था। पुलकेशिन् द्वितीय का हैदराबाद का ताम्रपात्रभिलेख शक संवत् 534 (612 ई.) का है जो उसके शासनकाल के तीसरे वर्ष का है, इसलिए पुलकेशिन् द्वितीय का राज्यारोहण 610 ई. में माना जा सकता है।

बादामी का चालुक्य वंश: आरंभिक शासक (Chalukya Dynasty of Badami: Early Rulers)

पुलकेशिन् द्वितीय की उपलब्धियाँ (Achievements of Pulakeshin II)

पुलकेशिन् वातापी का स्वामी तो हो गया था, किंतु गृहयुद्ध के कारण चालुक्य राज्य में चारों ओर अराजकता और अव्यवस्था फैल गई थी। ऐहोल प्रशस्ति के अनुसार जब मंगलेश का छत्र भंग हुआ, तब संसार अरिकुल के अंधकार से ढँक गया और पुलकेशिन् द्वितीय ने अपने प्रताप-प्रभाव से उसे प्रकाशित किया-

तावत्तच्छत्रभंगे जंगदखिलमरात्यन्धकारोपरूद्धं।

यस्यासद्धाप्रतापधुति………………..आसीत्प्रभातम्।।

संभवतः चालुक्य राज्य की अव्यवस्था का लाभ उठाकर कुछ सामंत अपनी स्वतंत्रता घोषित करने लगे थे और आप्पायिक तथा गोविंद जैसे पड़ोसी चालुक्य राज्य पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहे थे। परंतु सौभाग्य से पुलकेशिन् द्वितीय असाधारण वीरता और साहस से संपन्न था। उसने अपने बाहुबल और कूटनीति से न केवल समस्त शत्रुओं का दमन कर चालुक्य साम्राज्य की प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित किया, बल्कि अपनी अनेकानेक विजयों के द्वारा चालुक्य राज्य का चतुर्दिक् विस्तार भी किया।

पुलकेशिन् द्वितीय की विजयें (Pulakeshin II’s Conquests)

चालुक्य राजसिंहासन ग्रहण करने के समय पुलकेशिन् द्वितीय के समक्ष दो समस्याएँ थी- एक तो आंतरिक शत्रुओं से चालुक्य राज्य की रक्षा और दूसरे साम्राज्य के अधीनस्थ प्रांतों, जो संकटकाल में उसके अधिकार से निकल गये थे, उन पर पुनः अधिकार स्थापित करना। पुलकेशिन् ने सर्वप्रथम राजधानी में अपनी स्थिति को सुदृढ़ किया, इसके बाद उसने अपने दिग्विजय अभियान का आरंभ किया जिसका विवरण ऐहोल प्रशस्ति में मिलता है।

आप्यायिक एवं गोविंद: ऐहोल प्रशस्ति से पता चलता है कि सर्वप्रथम पुलकेशिन् ने भीमा (भीमरथी) नदी के उत्तर में आप्पायिक को परास्त किया तथा उसके सहयोगी गोविंद को अपनी ओर मिला लिया। संभवतः पुलकेशिन् द्वितीय की व्यस्तता का लाभ उठाकर आप्पायिक और गोविंद अपनी हस्ति सेना सहित भीमा (भीमरथी) नदी के उत्तरी किनारे तक बढ़ आये थे जिससे वातापि और उसके आस-पास के क्षेत्र के लिए खतरा उत्पन्न हो गया था जिसे पुलकेशिन् ने अपनी कूटनीति और वीरता से निष्फल कर दिया-

लाध्वकालं भुवमुपगते जेतु माप्यायिकाख्ये।

गोविन्दे च द्विरदिनिकरैरूतराभौमरथ्याः।।

यस्मानीकैयुधिभयरसज्ञा ज्ञात्वमेकं प्रयात।

स्तत्राताम्रभफलमुपकृतस्यापरेणापिसघः।।

संभवतः आप्पायिक और गोविंद दोनों दक्षिणी महाराष्ट्र के स्थानीय शासक थे और वातापी को अधिकृत कर साम्राज्य स्थापित करने का सपना देख रहे थे। पुलकेशिन् द्वितीय ने अपनी भेदनीति के सहारे गोविंद से मित्रता स्थापित कर ली और आप्पायिक को देश से निष्कासित कर दिया।

कदंब राज्य की विजय: इसके बाद पुलकेशिन् का बनवासी के कदंबों के साथ संघर्ष हुआ। कीर्त्तिवर्मा के समय में ही कदंब राज्य पर चालुक्यों का अधिकार हो गया था। किंतु ऐसा लगता है कि गृहयुद्ध से उत्पन्न राजनैतिक अराजकता लाभ उठाकर कदंबों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी।

ऐहोल प्रशस्ति के अनुसार पुलकेशिन ने कदंब राज्य पर आक्रमण कर बनवासी नगर का विध्वंस कर दिया। लेख में इस घटना का काव्यात्मक विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखा गया है कि बनवासी का वैभव इंद्रपुरी के समान था और वरदा नदी की ऊँचे तरंगों पर कूजते हंसों की मेखला उसकी शोभा बढ़ाती थी। जब पुलकेशिन् की सेनारूपी समुद्र द्वारा चारों ओर से घेरा गया तो बनवासी का भूमि दुर्ग समुद्र में एक टापू की भाँति दिखाई देने लगा। इस प्रकार कदंबों के विरूद्ध पुलकेशिन का अभियान पूर्णतया सफल रहा तथा कदंब राज्य वर्धमान चालुक्य साम्राज्य का अंग बन गया।

पुलकेशिन् के कदंब विजय की पुष्टि इस बात से भी होती है कि इसी समय के आस-पास कदंब वंश के शासक इतिहास से ओझल हो जाते हैं। पुलकेशिन् ने कदंब राज्य को अपने सामंतों आलुपों तथा सेनुकों (सेंद्रकों) में बाँट दिया। आलुपों को कदंब मंडल दिया गया जिसमें कदंब राज्य का अधिकांश भाग शामिल था, जबकि सेनुकों (सेंद्रकों) को बनवासी का नगर क्षेत्र मिला।

आलुप एवं गंग: कदंबों पर अधिकार करने के बाद पुलकेशिन् द्वितीय ने आलुपों एवं पश्चिमी गंगों के विरुद्ध अभियान किया। ऐहोल प्रशस्ति के अनुसार ‘उसने आलुपों तथा गंगों को अपनी आसन्न सेवा का अमृतपान कराया था।’

आलुप कर्नाटक राज्य के दक्षिणी कनारा जिले में शासन कर रहे थे। कुछ विद्वानों का मानना है कि आलुप कदंबों के सामंत थे और पुलकेशिन् द्वितीय के हाथों कदंबों की पराजय के बाद उन्होंने पुलकेशिन् की अधीनता स्वीकार कर ली थी। कुछ विद्वान कुंदवर्मरस को आलुप वंश का शासक मानते हैं जिसे पुलकेशिन् ने कदंब मंडल सौंपा था।

गंगों का अभिप्राय यहाँ तालकांड के गंग से है जिनका राज्य ‘भागवाह्यि’ नाम से जाना जाता था। संभवतः पुलकेशिन् द्वारा पराजित गंग शासक दुर्विनीत था जिसने अपनी कन्या का विवाह पुलकेशिन् से किया था। पुलकेशिन् के पुत्र विक्रमादित्य प्रथम का जन्म इसी राजकुमारी से हुआ था।

कोंकण के मौर्यों की विजय: आलुपों एवं पश्चिमी गंगों की विजय के बाद पुलकेशिन् द्वितीय ने कोंकण प्रदेश पर आक्रमण किया जहाँ मौर्यों का शासन था। कोंकण के मौर्य बड़ी आसानी से पराजित हो गये। ऐहोल प्रशस्ति के अनुसार कोकण प्रदेश में मौर्यरूपी लघु जलाशय प्रचंड सेनारूपी जलराशि द्वारा बहा दिया गया। इसके बाद पुलकेशिन् ने कोंकण की राजधानी पुरी, जिसे ‘पश्चिमी समुद्र की लक्ष्मी’ कहा गया है, के ऊपर सैकड़ों नौकाओं के साथ आक्रमण किया। पुरी की पहचान मुंबई के निकट एलीफैंटा द्वीप पर स्थित धारपुरी से की जाती है। संभवतः धारपुरी पर पुलकेशिन् के आक्रमण का मुख्य उद्देश्य व्यापारिक मार्गों पर नियंत्रण करना था क्योंकि उस समय यह एक समृद्ध नगरपत्तन था।

लाट, मालव और गुर्जर प्रदेश: ऐहोल लेख से पता चलता है कि कोंकण विजय के पश्चात् लाट, मालव तथा गुर्जर प्रदेशों ने बिना युद्ध किये पुलकेशिन् की अधीनता स्वीकार कर ली और ये तीनों राज्य पुलकेशिन् समक्ष सामंतों की भाँति आचरण करने लगे।

लाट राज्य दक्षिणी गुजरात में किम नदी के दक्षिण स्थित था। इसकी राजधानी नवसारिका (बड़ौदा स्थित नौसारी) में थी। वहाँ अधिकार करने के बाद पुलकेशिन् ने अपने ही वंश के किसी राजकुमार को लाट प्रदेश का शासक नियुक्त किया था। 643 ई. के कैरा अभिलेख से ज्ञात होता है कि चालुक्यवंशीय विजयवर्मराज गुजरात में प्रांतीय शासक के रूप में शासन कर रहा था। इस राजकुमार को संभवतः पुलकेशिन् द्वितीय ने ही लाट का प्रांतीय शासक नियुक्त किया था।

ऐहोल लेख के अनुसार मालव भी पुलकेशिन् द्वितीय की अधीनता मानते थे। किंतु नीलकंठ शास्त्री के अनुसार इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि मालवा कभी पुलकेशिन् के अधीन था। संभवतः मालवा क्षेत्र बल्लभी के मैत्रक राज्य में शामिल था और यहाँ के शासक ने हर्ष से भयभीत होकर पुलकेशिन् की अधीनता स्वीकार कर ली। गुर्जर संभवतः भड़ौच के गुर्जरों से संबंधित थे जिनका राज्य किम तथा माही नदियों के बीच स्थित था।

वास्तव में तत्कालीन राजनीतिक दृष्टि से लाट, गुर्जर एवं मालव राज्यों की स्थिति विशेष महत्वपूर्ण थी। इस समय दक्षिण में पुलकेशिन् द्वितीय तथा उत्तर में हर्ष विस्तारवादी नीति का पालन कर रहे थे। पुलकेशिन् ने हर्ष के पहले ही इन राज्यों को अपने अधीन कर लिया, जिसके फलस्वरूप चालुक्य साम्राज्य की उत्तरी सीमा माही नदी तक विस्तृत हो गई।

हर्ष के साथ युद्ध: जिस समय दक्षिणापथ में पुलकेशिन् द्वितीय अपनी शक्ति का विस्तार कर रहा था, उसी समय उत्तरी भारत में हर्षवर्धन अनेक राजाओं को जीतकर उन्हें अपने अधीन करने में व्यस्त था। हर्ष की विजयों के फलस्वरूप उसके राज्य की पश्चिमी सीमा नर्मदा नदी तक पहुँच गई थी। फलतः दक्षिण और उत्तर भारत के दोनों महत्वाकांक्षी शासकों में युद्ध होना स्वाभाविक था। फलतः हर्ष और पुलकेशिन् के बीच नर्मदा नदी के तट पर युद्ध हुआ, जिसमें हर्ष की पराजय हुई।

हर्ष के विरूद्ध सफलता पुलकेशिन् द्वितीय की महानतम सामरिक उपलब्धि थी। इसलिए इस युद्ध का उल्लेख ऐहोल प्रशस्ति के साथ-साथ कल्याणी के चालुक्यों तथा कुछ राष्ट्रकूट अभिलेखों में भी मिलता है। पुलकेशिन् द्वितीय की ऐहोल प्रशस्ति से पता चलता है कि ‘अतुलित वैभव समृद्धियुक्त सामंत समूह के मुकुटमणियों से चमत्कृत चरण कमल हर्ष युद्ध में आहत असंख्य हस्ति सेना के आतंक से हर्षरहित हो गया। अपार ऐश्वर्य द्वारा पालित सामंतों की मुकुट-मणियों की आभा से आच्छादित जिसका चरणकमल युद्ध में हाथियों की सेना के मारे जाने के कारण भयानक दिखाई दे रहा था। ऐसे हर्ष के आनंद को उसने (पुलकेशिन् ने) भय से विगलित कर दिया-

अपरिमितविभूतिसफीतसामन्तसेनामकुटमणिमयूखाक्कान्तपादारविन्दः

युधिपतितगजेन्द्रानीकवीभत्सभूतोभयविगलितहर्षाेयेन चकारिहर्षः।।

ऐहोल प्रशस्ति के विवरण से स्पष्ट है कि इस संघर्ष में हर्ष की सेना के बहुत से हाथी मारे गये और इस वीभत्स दृश्य से हर्ष भयभीत हो गया था। ह्वेनसांग की ‘जीवनी’ से भी ज्ञात होता है कि ‘हर्ष (शीलादित्य) अपार सेना के साथ दक्षिण की ओर बढ़ा, किंतु दक्षिणापथ स्वामी को अधिकृत करने में असफल रहा। यद्यपि उसने पंचभारत से सेना तथा सभी देशों के सर्वश्रेष्ठ सेनानायकों को एकत्रित किया था।’ वातापी के अन्य लेखों से भी पता चलता है कि संपूर्ण उत्तरापथ के अधिपति हर्षवर्धन को पराजित करने के पश्चात् पुलकेशिन् द्वितीय ने अपना दूसरा नाम ‘परमेश्वर’ रखा।

कुछ विद्वान् पुलकेशिन् द्वितीय द्वारा हर्ष की पराजय की बात स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार ऐहोल लेख के रचयिता रविकीर्ति का विवरण एकांगी है। ह्वेनसांग के कथन से मात्र यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हर्ष पुलकेशिन् को अपने अधीन नहीं कर सका तथा उसने दक्षिण की ओर उसका प्रसार रोक दिया था। सुधाकर चट्टोपाध्याय का विचार है कि तत्कालीन भारत के इन दो महान् राजाओं के बीच होने वाला यह अकेला अथवा अंतिम युद्ध नहीं था। उनके संघर्ष बाद में भी जारी रहे और 643 ई. में हर्ष का कांगोद पर आक्रमण पुलकेशिन् के विरुद्ध उसकी एक मोर्चाबंदी ही थी। इस युद्ध (कांगोद) को जीतकर हर्ष ने अपनी पुरानी पराजय का बदला चुकाया तथा पुलकेशिन् के कुछ प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।

हर्ष-पुलकेशिन् युद्ध की तिथि: हर्ष-पुलकेशिन् युद्ध की तिथि के संबंध में विवाद है। फ्लीट जैसे कुछ इतिहासकार इस युद्ध की तिथि 612 ई. अथवा इसके कुछ पूर्व मानते हैं। पुलकेशिन् के 612 ई. के हैदराबाद के दानपत्रलेख से पता चलता है कि पुलकेशिन् द्वितीय ने अनेक युद्धों के विजेता एक शासक को जीतकर ‘परमेश्वर’ नाम धारण किया था। इस लेख में उसके जिस शत्रु का उल्लेख हुआ है, उससे तात्पर्य हर्षवर्द्धन से ही है। अतः यह युद्ध 613 ईस्वी के पहले हुआ होगा। ह्वेनसांग के विवरण से भी पता चलता है कि हर्ष 612 ई. तक अपना सारा युद्ध समाप्त कर चुका था। इससे स्पष्ट है कि वह 612 ई. तक हर्ष-पुलकेशिन् युद्ध हो चुका था।

किंतु अधिकांश विद्वान इस मत से सहमत नहीं हैं। हैदराबाद दान-पत्र (612 ई.) में जिस शत्रु-शासक का उल्लेख है, वह हर्ष नहीं हो सकता। यदि उसका तात्पर्य हर्ष से होता तो उसके नाम का उल्लेख अवश्य मिलता। पुलकेशिन् का राज्याभिषेक 610 ई. में हुआ था। इसके पूर्व वह अपने चाचा मंगलेश के साथ गृहयुद्व में उलझा हुआ था। शासक बनने के बाद भी पुलकेशिन् की प्रारंभिक स्थिति बहुत सुदृढ़ नहीं थी और उसे दक्षिण की कई प्रबल शक्तियों से युद्ध करना पड़ा था। इसलिए राजा होने के दो ही वर्षों में वह हर्ष जैसे प्रबल शत्रु का सामना करने की स्थिति में नहीं था। पुलकेशिन् की ‘परमेश्वर’ की उपाधि का हर्ष पराजय से कोई संबंध नहीं है। ह्वेनसांग के विवरण के आधार पर हर्ष के युद्धों का कालक्रम निश्चित करना तर्कसंगत नहीं है क्योंकि मा-त्वान्-लिन् के अनुसार हर्ष ने 618 से 627 ई. तक कई युद्ध किये थे।

अल्तेकर का विचार है कि हर्ष पुलकेशिन् युद्ध 630 से 634 ईस्वी के बीच कभी लड़ा गया था। इसका एक कारण यह है कि वलभी का युद्ध 630 ई. के पहले नहीं हो सकता और यह युद्ध उसी का परिणाम था। पुनः पुलकेशिन् के 630 ई. के लोहनारा से प्राप्त लेख में उसके द्वारा पराजित जिन शत्रुओं का उल्लेख मिलता है, उनमें हर्ष का नाम नहीं है। चूंकि 634 ई. के ऐहोल अभिलेख में इस युद्ध का उल्लेख मिलता है। इसलिए इस युद्ध की तिथि 630 ई. से 634 ई. के बीच मानी जा सकती है। आर.सी. मजूमदार का अनुमान है कि यह संघर्ष नर्मदा नदी के काफी उत्तर में स्थित किसी स्थान पर हुआ रहा होगा।

त्रिमहाराष्ट्रकों पर अधिकार: हर्ष से निपटने के बाद पुलकेशिन् ने पश्चिमी दक्कन की ओर ध्यान दिया। ऐहोल लेख के अनुसार उसने त्रिमहाराष्ट्रकों पर अधिकार कर लिया था। लेख के अनुसार उच्चकुलोत्पन्न, गुणों से परिपूर्ण, धर्ममार्ग से प्राप्त प्रभुशक्ति, मंत्रशक्ति और उत्साहशक्ति से विभूषित शक्रतुल्य (इंद्र के समान) पुलकेशिन् ने 99000 गाँवों वाले तीन महाराष्ट्रों का आधिपत्य प्राप्त किया। तीन महाराष्ट्रकों का समीकरण सुनिश्चित नहीं है। डी.सी. सरकार के अनुसार तीन महाराष्ट्रों से अभिप्राय महाराष्ट्र, कोंकण तथा कर्नाटक के प्रदेशों से है, जबकि कुछ दूसरे विद्वान् इसका आशय विदर्भ, वडनाल तथा महाराष्ट्र से ग्रहण करते हैं। नीलकंठ शास्त्री का विचार है कि संभवतः 99000 गाँव नर्मदा तथा ताप्ती नदियों के बीच के भूभाग में फैले हुए थे।

पूर्वी दकन के राज्यों की विजय: तीन महाराष्ट्रकों पर अधिकार करने के बाद पुलकेशिन् ने अपने छोटे भाई विष्णुवर्धन को ‘युवराज’ घोषित किया और उसके ऊपर अपनी राजधानी का भार सौंपकर स्वयं पूर्वी दक्कन की विजय के लिए निकल पड़ा। ऐहोल प्रशस्ति से पता चलता है कि पुलकेशिन् द्वितीय के युद्धों से भयाक्रांत होकर कोसल तथा कलिंग ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

कोसल के अंतर्गत मध्य प्रदेश के आधुनिक रायपुर एवं बिलासपुर जिलों के अतिरिक्त उड़ीसा राज्य का संभलपुर जिला भी शामिल था। पुलकेशिन् के आक्रमण के समय वहाँ किसी पांड्यवंशीय राजा का शासन था। दिनेशचंद्र सरकार ने चालुक्यों द्वारा पराजित कोसल नरेश का समीकरण महाराज बालार्जुन (शिवगुप्त) से किया है।

ऐहोल प्रशस्ति के अनुसार पुलकेशिन् द्वितीय ने अपने विजयाभियान के क्रम में कलिंग देश के पूर्वी गंग राज्य को भी पराजित किया, जिसकी राजधानी कलिंगनगर (गंजाम जनपद में स्थित वर्तमान मुखलिंगम्) थी। पराजित गंग शासक के नाम तथा उसके समीकरण पर विद्वानों में विवाद है।

आंध्र देश की विजय: पुलकेशिन् द्वितीय की विजयवाहिनी पूर्वी समुद्रतट के क्षेत्रों में क्रमशः आगे बढ़ती हुई आंध्र राज्य में प्रविष्ट हुई तथा उसने राजधानी पिष्टपुर (गोदावरी जनपद में समुद्रतट पर स्थित वर्तमान पीठापुरम्) पर आक्रमण कर दिया। यहाँ विष्णुकुंडिन वंश का शासन था जो काफी शक्तिशाली थे। पुलकेशिन् द्वितीय ने कुनाल (कोलर) झील के तट पर एक कड़े मुकाबले के बाद विष्णुकुंडिनवंशीय आंध्र शासकों की शक्ति का विनाश किया।

चालुक्य अभिलेखों में कहा गया है कि युद्ध में मारे गये सैनिकों के खून से झील का पानी लाल (लोहित) हो गया था। इस पराजित आंध्र नृपति की पहचान संदिग्ध है। दिनेशचंद्र सरकार इसकी पहचान विक्रमेंद्रवर्मन तृतीय (720- 630 ई.) से करते हैं, किंतु कुछ विद्वान इस आंध्र शासक की पहचान इंद्रवर्मन् से करना अधिक समीचीन मानते हैं।

आंध्र देश पर पुलकेशिन् द्वितीय के विजय की पुष्टि 631 ई. के कोप्परम अभिलेख से भी होती है जिसमें उसके अनुज तथा आंध्र देश के नवनियुक्त शासक विष्णुवर्धन द्वारा कर्मराष्ट्र (नेल्लोर तथा गंदुर के कुछ क्षेत्र) में दिये गये भूमिदानों का उल्लेख है। संभवतः इसीलिए लोहनेर लेख में पुलकेशिन् द्वितीय को ‘पूर्व एवं पश्चिम पयोधि का स्वामी’ कहा गया है।

पूर्वी चालुक्य राजवंश की सथापना: पुलकेशिन् द्वितीय ने शक्तिशाली आंध्रों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के बाद अपने अनुज विष्णुवर्धन को आंध्र राज्य का शासक नियुक्त किया। पुलकेशिन् द्वितीय के शासनकाल के अंतिम वर्षों में संभवतः 632 ई. के लगभग विष्णुवर्धन ने अपनी स्वतंत्रता घोषित करके पिष्ठपुर में एक नये चालुक्य राजवंश की स्थापना की, जिसे ‘पूर्वी चालुक्य राजवंश’ कहते हैं। इस नये स्वतंत्र राज्य की राजधानी वेंगी को बनाया गया और कालांतर में यही राजवंश ‘वेंगी के पूर्वी चालुक्य वंश’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार पूर्वी चालुक्य राज्य की स्थापना पुलकेशिन् द्वितीय के राज्यकाल की महत्वपूर्ण घटना थी।

पल्लव राज्य पर प्रथम आक्रमण: विष्णुकुंडिनों के आंध्र राज्य के दक्षिण में सिंहविष्णुवंशीय पल्लवों का राज्य था जहाँ शक्तिशाली महेंद्रवर्मन् प्रथम शासन कर रहा था। महत्वाकांक्षी पुलकेशिन् द्वितीय ने क्रमशः आगे बढ़ते हुए महेंद्रवर्मन् पर आक्रमण कर दिया और सफलतापूर्वक राज्य के आंतरिक भाग तक पहुँच गया। ऐहोल प्रशस्ति में इस युद्ध का काव्यात्मक वर्णन करते हुए कहा गया है कि युद्ध में चालुक्य सेना के पदतल से उठने वाले धूलकणों से वैभवशाली पल्लव नरेश की कांति धूमिल हो गई और उसे भागकर काँची के दुर्ग की दीवार के पीछे मुँह छिपाना पड़ा। प्रशस्ति में आगे कहा गया है कि पुलकेशिन् सूर्य के समान था जिसके समक्ष पल्लवों की सेना ओंस के समान थी-

उद्धृतामलचामरध्वजशतच्छात्रान्धकारैर्व्वलैः

शौर्याेत्साहरसोद्धतारिमथनैम्मौलादिभिः षड्विधैः।

आक्रान्तात्मबलोन्नतिबलरजः सञ्छत्र कांचीपुरः,

प्राकारान्तरित प्रतापमकरोद्यः पल्लवानाम्पतिम्।।

पल्लवानीकनीहार तुहिनेतरदीधितिः।।

इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि पुलकेशिन् द्वितीय पल्लव शासक महेंद्रवर्मन् के विरूद्ध पूर्णतया सफल रहा और उसने पल्लव राज्य के कुछ उत्तरी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था।

किंतु परवर्ती पल्लव शासक नंदिवर्मन् के शासनकाल के कुशाक्कुडि लेख से पता चलता है कि महेंद्रवर्मन् प्रथम ने काँची के सन्निकट पुल्लूर के मैदान में अपने प्रतिद्वंद्वी शत्रुओं को परास्त किया था (पुल्लूर द्विषतामविशेषान्)। यद्यपि यह निश्चित नहीं है कि कशाक्कुडि अभिलेख में उल्लिखित पुल्लूर के युद्ध में महेंद्रवर्मन् प्रथम द्वारा पराजित प्रमुख शत्रु-कुल पुलकेशिन् द्वितीय था या गंग आदि पल्लवों के परंपरागत शत्रु।

लगता है कि महेंद्रवर्मन् प्रथम की शक्ति चालुक्यों के प्रारंभिक युद्धों से नष्ट नहीं हुई थी और वह अपनी राजधानी लौटकर पुनः अपन शक्ति को सुदृढ़ करने में जुट गया था। कुछ ही समय बाद उसने काँची की ओर बढ़ती हुई पुलकेशिन् द्वितीय की सेना को पुल्ललूर के मैदान में पराजित कर दिया और चालुक्य सेना को कावेरी नदी के उस पार चोलों, केरलों तथा पांड्यों की ओर मोड़ दिया था। इस प्रकार कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि महेंद्रवर्मन् प्रथम ने पेल्ललूर के मैदान में पुलकेशिन् द्वितीय को पराजित करके उसे पल्लव राज्य के भीतर और आगे बढ़ने से रोक दिया तथा उसके द्वारा अपहृत किये गये उत्तरी पल्लव-क्षेत्रों को जीतकर पुनः अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया।

जो भी हो, इस युद्ध से पल्लवों और चालुक्यों के बीच उस लंबे संघर्ष की शुरूआत हुई जो आगामी कई पीढ़ियों तक चलता रहा। नीलकंठ शास्त्री के अनुसार दक्षिण भारत में यह संघर्ष एक प्रमुख ऐतिहासिक घटना थी। इसके बाद यह नियम-सा बन गया कि कर्नाटक और तमिल देश के शासक एक-दूसरे को सहन करने को तैयार नहीं थे और आपस में लड़ते रहे। आंध्र तथा मैसूर के राजा कभी अपने तो कभी अपने स्वामी के हित के लिए कभी इस ओर से तो कभी उस ओर से संघर्ष में भाग लेते रहे।

इस प्रकार चालुक्य पल्लवों की राजधनी काँची पर तो अधिकार नहीं कर सके, लेकिन उनकी राजधानी के आंतरिक भाग तक पहुँच अवश्य गये थे। संभवतः यही कारण है कि ऐहोल लेख में पुलकेशिन् द्वितीय को पल्लवों के विरूद्ध सफलता का श्रेय दिया गया है जबकि पुल्ललूर के युद्ध में पराजित होने के कारण पल्लचों को इसके विरूद्ध सफलता का श्रेय दिया गया है।

ऐहोल प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि पल्लवों के विरूद्ध इस तात्कालिक सफलता के बाद पुलकेशिन् द्वितीय ने कावेरी पार कर चोल, केरल तथा पांड्यों के साथ मित्रता स्थापित की। संभवतः इस मैत्री का उद्देश्य पल्लवों के विरूद्ध एक सुदृढ़ संगठन तैयार करना था।

इस प्रकार दक्षिणापथ को आक्रांत करने के बाद पुलकेशिन् द्वितीय बादामी वापस लौट गया। दक्षिणपथ के विरूद्ध यह अभियान 630 ई. के आसपास किया गया होगा क्योंकि इस तिथि के लोहनेर लेख में पुलकेशिन् द्वितीय को ‘पूरब एवं पश्चिमी पयोधि का स्वामी’ कहा गया है।

पल्लव राज्य पर द्वितीय आक्रमण: पुलकेशिन् द्वितीय अगल दस वर्ष तक उत्तर भारत की राजनीति में व्यस्त रहा, लेकिन काँची के विरूद्ध उसकी अपूर्ण सफलता उसे रह-रहकर कचोटती रही। इस बीच महेंद्रवर्मन् की मृत्यु के बाद उसका पुत्र नंदिवर्मन् पल्लव राज्य का शासक बन चुका था। नंदिवर्मन् चालुक्य खतरों से पूरी तरह सावधान था और उनका सामना करने के लिए उसने सिंहल देश के निष्कासित शासक मानवर्मा से भी सहयोग लिया। इस प्रकार चालुक्य और पल्लव दोनों अपनी-अपनी शक्ति को सुदृढ़ कर उचित अवसर की प्रतीक्षा में थे।

पल्लव-चालुक्य संघर्ष का दूसरा चरण तब शुरू हुआ जब पल्लव शासक ने चालुक्यों के अधीन बाणों को अपने अधीन कर लिया और उसके प्रत्युत्तर में पुलकेशिन् ने बाणों पर आक्रमण कर उन्हें पूरी तरह नष्ट-भ्रष्ट कर अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। पुलकेशिन् ने पल्लवों को दंडित करने के लिए काँची के विरूद्ध प्रयाण किया। नरसंहवर्मन् अपने पिता (महेंद्रवर्मन प्रथम) की पराजय का प्रतिशोध लेने के लिए पहले से ही तैयार बैठा था। उसने पुलकेशिन् का बड़ी वीरता से सामना किया और पुलकेशिन् को हार का सामना करना पड़ा। कूरम अभिलेख के अनुसार नरसिंहवर्मन प्रथम ने परियाल, शूरमार तथा मणिमंगलम् आदि के युद्धों में पुलकेशिन् को बुरी तरह पराजित किया और शक्तिशाली पल्लव-राजवंश की कीर्ति को पुनर्स्थापित किया।

नरसिंहवर्मन् प्रथम की उत्साहित सेना ने शिरुत्तोंडर के नायकत्व में चालुक्यों की राजधानी वातापी पर आक्रमण करके उसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। अपनी राजधानी वातापी की सुरक्षा में युद्धरत पराक्रमी पुलकेशिन् द्वितीय संभवतः पल्लव सेनानायकों द्वारा युद्धक्षेत्र में ही मारा गया। पल्लवों की इस सफलता के संबंध में पल्लव अभिलेखों में वर्णित है कि जैसे ऋषि अगस्त्य ने प्रतापी वातापी (राक्षस) का विनाश किया था, उसी प्रकार नरसिंहवर्मन् प्रथम ने शक्तिशाली वातापी (बादामी) नगरी को विनष्ट कर दिया था। स्वयं नरसिंहवर्मन् के तेरहवें शासनवर्ष के एक खंडित लेख, जो मल्लिकार्जुनदेव मंदिर के पीछे एक शिलाखंड पर उत्कीर्ण है, से पता चलता है कि इस महान विजयप के उपलक्ष्य में नरसिंहवर्मन ने ‘वातापीकोंड’ (वातापी का विजेता) की उपाधि धारण की थी। संभवतः नरसिंहवर्मन् तथा पुलकेशिन् द्वितीय के बीच दूसरा चालुक्य-पल्लव संघर्ष 641 ई. के बाद एवं 643 ई. के पूर्व किसी समय हुआ रहा होगा।

राजनयिक संबंध: पुलकेशिन् द्वितीय एक महान् शासक और विजेता होने के साथ ही साथ एक कुशल राजनेता भी था जिसके भारत के बाहर ईरानी राजदरबार से अच्छे राजनयिक संबंध थे। ईरानी यात्री तबरी के अनुसार ईरानी सम्राट खुसरो द्वितीय ने अपने राज्यकाल के 36वें वर्ष (625-26 ई.) में भारतीय सम्राट के एक दूतमंडल का स्वागत किया था जो अपने राजा का एक पत्र, एक हाथी तथा अन्य बहुत-सी बहुमूल्य वस्तुएँ लेकर गया था।

तबरी ने भारतीय राजा का नाम प्रमेश अर्थात् परमेश या परमेश्वर लिखा है जो पुरालेखीय साक्ष्यों के अनुसार पुलकेशिन् द्वितीय का ही उपनाम या दूसरा नाम था। इसके बदले खुसरो ने भी अपना दूतमंडल भेजा होगा, किंतु तबरी ने इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। फर्ग्युसन महोदय के अनुसार, ‘इन दूतमंडलों का चित्रण अजंता की गुफा नं. 1 के भित्तिचित्रों में हुआ है। इस गुफा की छत पर अंकित एक चित्र में खुसरो एवं उसकी पत्नी शीरी का चित्रण है जबकि दूसरे चित्र में पुलकेशिन् खुसरो के राजदूत से भेंट करता हुआ चित्रित किया गया है।

पुलकेशिन् द्वितीय की उपाधियाँ: पुलकेशिन् द्वितीय ने सत्याश्रय, वल्लभ तथा श्रीपृथ्वीवल्लभ के अतिरिक्त महाराजाधिराज, परमेश्वर एवं भट्टारक आदि उपाधियाँ धारण की थी। लोहनेर अभिलेख में उसे परमभागवत कहा गया है। लगभग 32 वर्ष के घटनापूर्ण शासन के बाद 642 ई. में इस महान चालुक्य सम्राट के जीवन का अंत हुआ।

पुलकेशिन् द्वितीय की उपलब्धियों का मूल्यांकन (Evaluation of Achievements of Pulakeshin II)

पुलकेशिन् द्वितीय भारत के प्रतापी शासकों में शीर्षस्थ स्थान रखता है। वह न केवल वातापि के चालुक्यों में सर्वश्रेष्ठ, प्रबल पराक्रमी तथा महान् शासक था अपितु उसकी गणना भारत के महानतम् सम्राटों में की जा सकती है। उसने उत्तराधिकार में प्राप्त छोटे से चालुक्य राज्य को अपने बाहुबल एवं प्रताप से विंध्यक्षेत्र से दक्षिण भारत में कावेरी नदी के तट तक विस्तृत करके ‘दक्षिणापथेश्वर’ की उपाधि को सार्थक किया था।

उसने उत्तर-भारतीय राज्यों पर एकछत्र प्रभुत्व रखने वाले कान्यकुब्जेश्वर हर्षवर्धन के ‘सकलभारतेश्वर’ बनने की महत्वाकांक्षा एवं सामरिक अभियानों को न केवल अवरुद्ध कर दिया, अपितु उत्तरापथेश्वर हर्षवर्धन के अपरिमित हर्ष को समरभूमि में बिखेर कर उन्हें हर्षरहित कर दिया था। उसने आंध्र प्रदेश में चालुक्यों की पूर्वी शाखा मार्ग भी प्रशस्त किया जिसकी स्थापना उसके भाई कुब्ज विष्णुवर्द्धन ने की।

अपने लगभग 32 वर्षीय दीर्घकालीन शासनकाल में यद्यपि पुलकेशिन् द्वितीय अधिकतर सामरिक अभियानों में ही व्यस्त रहा तथापि उसने देशांतरों के साथ मैत्रीपूर्ण राजनयिक तथा व्यापारिक संबंध स्थापित करने में सफलता प्राप्त की थी। भारत के बाहर ईरान में खुसरो द्वितीय के दरबार में भी उनका सम्मान हुआ। ह्वेनसांग ने अपने भारत-प्रवास के समय चालुक्यों की राजधानी वातापी तक के दक्षिण भारतीय क्षेत्रों में भ्रमण किया था। उसके विवरणों में पुलकेशिन् द्वितीय कालीन चालुक्य-प्रशासन, आर्थिक समृद्धि, धार्मिक स्थिति तथा कलात्मक निर्माणादि का विशद् उल्लेख मिलता है।

बादामी का चालुक्य वंश: आरंभिक शासक (Chalukya Dynasty of Badami: Early Rulers)

पुलकेशिन् द्वितीय के बाद वातापी के चालुक्य (Chalukya of Vatapi After Pulakeshin II)

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