पांड्य राजवंश या मदुरा के पांड्य (Pandyan Dynasty or Pandyas of Madurai)

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मदुरा के पांड्य

सुदूर दक्षिण भारत में तमिल प्रदेश के प्रारंभिक राजवंशों में चेरों और चोलों के बाद तीसरा राज्य पांड्यों का था, जो प्रारंभ में दक्षिणी बेलारु नदी से कैप कोमरिन तक तथा पूर्व में कोरोमंडल तट से ग्रेट हाईवे तक विस्तृत था, जिसमें मदुरा, तिन्नेवल्ली तथा त्रावनकोर के कुछ भाग सम्मिलित थे। इसकी राजधानी मदुरा थी।

पांड्यों की उत्पत्ति विवादग्रस्त है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पांड्य कौरकै के तीन भाइयों, जिन्होंने पांड्य, चोल तथा चेर राज्यों की स्थापना की थी, के वंशज थे। एक दूसरी परंपरा में इन्हें पांडवों अथवा चंद्रमा से संबंधित बताया गया है। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी के अनुसार पांड्य मूलतः तो द्रविड़ जाति के थे, लेकिन आर्यों द्वारा दक्षिणी भारत में आर्य धर्म एवं संस्थाओं की प्रतिष्ठा बढ़ाने के फलस्वरूप उन्होंने अपना संबंध महाभारत के वीरों से जोड़ने का प्रयास किया था।

पांड्य राजवंश का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। तमिल भाषा की प्राचीनतम् रचना ‘संगम साहित्य’ से पांड्य राजवंश के प्राचीन इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ता है। पांड्यों का उल्लेख रामायण, महाभारत, कात्यायन के महाभाष्य, अर्थशास्त्र, मेगस्थनीज, अशोक के शिलालेखों तथा एरियन, प्लिनी एवं स्ट्रैबो जैसे क्लासिकल लेखकों के विवरणों में मिलता है। महाभारत में इनकी गणना दक्षिण के जनपदों में की गई है। पांड्य शासक युधिष्ठिर की सभा में बैठते थे और सैनिकों के साथ उसकी सेवा में आये थे। महाभारत के अनुसार इनके रथ पर सागर के चिह्न से युक्त ध्वजा फहराती रहती थी। पांड्य शासकों द्वारा द्रोणाचार्य पर आक्रमण करने का भी उल्लेख मिलता है। रामायण के अनुसार पांड्यों की राजधानी अत्यंत समृद्ध थी। कात्यायन भी पांड्यों से परिचित थे। महावंश से ज्ञात होता है कि श्रीलंका के एक शासक विजय ने बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् किसी पांड्य राजकुमारी से विवाह किया था। अर्थशास्त्र में पांड्यकावट में मिलने वाले मोती का उल्लेख मिलता है।

मेगस्थनीज लिखता है कि पांड्य देश में स्त्रियों का शासन था। उसके अनुसार पांड्य नाम हेराक्लीज की पुत्री पंडाइया के नाम पर पड़ा था। प्लिनी भी पांड्य देश में स्त्रियों के शासन की बात करता है। स्ट्रैबो के अनुसार रोमन शासक अगस्टस सीजर के पास किसी पांड्य शासक ने 20 ईसापूर्व में एक राजदूत भेजा था। पेरिप्लस ऑफ द इरीथ्रियन सी तथा टालमी के भूगोल मे भी पांड्य नगरों की चर्चा की गई है। खारवेल के हाथीगुम्फा लेख से पता चलता है कि कलिंगराज ने अपने शासनकाल के बारहवें वर्ष में पांड्य नरेश को पराजित कर 1,100 मुक्ता एवं मणिरत्नों का उपहार प्राप्त किया था। किंतु ईस्वी सन् तक पांड्यों के संबंध में इन छिटपुट उल्लेखों के अलावा कोई ऐसी सूचना नहीं मिलती, जिसके आधार पर इनका कोई क्रमबद्ध इतिहास प्रस्तुत किया जा सके।

पांड्य राजवंश के प्राचीन इतिहास को तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है- पांड्यों के प्रथम चरण का उत्कर्ष संगम काल में हुआ। दूसरे चरण का उत्कर्ष छठी शती ईस्वी के अंतिम दश में कंडुगोन के समय (590-620 ई.) में हुआ, जिसने कलभ्रों की शक्ति को समाप्त कर प्रथम पांड्य साम्राज्य की स्थापना की। तीसरे चरण में मारवर्मन् सुंदरपांड्य ने 1216 ईस्वी मे द्वितीय पांड्य साम्राज्य की स्थापना की, जो लगभग सत्रहवीं शती ईस्वी के मध्य तक चलता रहा।

पाड्य राजवंश का राजनीतिक इतिहास

संगमयुगीन पांड्य राज्य

संगम साहित्य से पता चलता है कि प्रथम शताब्दी ईस्वी में तमिल प्रदेश का तीसरा राज्य पांड्यों का था, जो कावेरी के दक्षिण में स्थित था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि इस राजवंश की राजधानी मदुरा कीमती मोतियों, उच्चकोटि के वस्त्रों एवं विकसित वाणिज्य और व्यापार के लिए प्रसिद्ध था। संगम साहित्य शिलप्पदिकारम्, मणिमैकले तथा भांगुड़ी मरुदन द्वारा रचित मदुरैकांजी से तलैयालंगानम् नेडुंजेलियन के पूर्व शासन करने वाले संगम युग के नेड्डियोन, नेडिडुंजेलियन जैसे कुछ पांड्य शासकों के नाम मिलते हैं, किंतु उनका क्रमबद्ध इतिहास नहीं मिलता।

नेडियोन

संगम युग के तीन पांड्य शासकों में प्रथम शासक नेडियोन था, किंतु इसकी ऐतिहासिकता संदिग्ध है। इसकी उपलब्धियों एवं कार्यों का वर्णन शिव की पवित्र क्रीड़ाओं और वेल्विकुडि तथा सिन्नमनूर के ताम्रपत्रों में वर्णित पांड्यों की पारंपरिक कथाओं में मिलता है। परंपरा के अनुसार नेडियोन ने ही पहरुली नामक नदी को अस्तित्व प्रदान किया और सागर पूजा की प्रथा आरंभ की थी।

मुदकुडमी ‘पलशालै’

पांड्य शासकों में दूसरा शासक मुदकुडमी ‘पालशालै’ था, किंतु आठवीं शती ईस्वी के वेल्विकुडि ताम्रलेख में मुदकुडमी को पांड्य वंश का प्रथम ऐतिहासिक शासक बताया गया है। इसके संबंध में अनेक कविताएँ भी मिलती हैं। इसके विषय में कहा गया है कि यह विजित राज्यों के साथ अत्यंत क्रूरता का व्यवहार करता था। संभवतः इसने अनेक यज्ञों का अनुष्ठान किया था, इसलिए इसने ‘पालशालै’ की उपाधि धारण की थी। पालशालै का अर्थ होता है-बहुत से यज्ञों वाला कक्ष। इस नरेश को ‘परमेश्वर’ की उपाधि भी दी गई थी।

नेडुंजेलियन

पांड्य राजवंश का तीसरा शासक नेडुंजेलियन था। इस शासक के विषय में अधिक कुछ ज्ञात नहीं है। इसकी उपाधि से लगता है कि इसने किसी आर्य सेना के विरुद्ध सैनिक सफलता मिली थी। नेडुंजेलियन बाद वाले इसी नाम के एक दूसरे पांड्य शासक से इसी उपाधि के कारण भिन्न माना जाता है।

नेडुंजेलियन की उदारता और दानशीलता की बड़ी प्रशंसा की गई है। शिलप्पदिकारम् से पता चलता है कि इसी शासक ने कण्णगी के निर्दोष पति कोवलन को मृत्यदंड दिया था, जिसके प्रायश्चित स्वरूप इसने आत्महत्या कर लिया था।

तलैयालंगानम् नेडुंजेलियन

पांड्य शासकों में सर्वाधिक ख्यातिनामा तलैयालंगानम् का नेडुंजेलियन था। इसका समय 210 ईस्वी के लगभग माना जाता है। कहा जाता है कि सिंहासनारोहण के समय यह अल्पायु था, जिसका लाभ उठाकर चेर, चोल तथा पाँच अन्य राजाओं ने मिलकर उसके राज्य पर आक्रमण किया और उसकी राजधानी मदुरा को घेर लिया। किंतु वीर और साहसी नेडुंजेलियन ने शत्रुओं का डटकर सामना किया और उन्हें खदेड़ते हुए चोल राज्य की सीमा में घुस गया। उसने तलैयालंगानम् (तंजौर) के युद्ध में अपने शत्रुओं को पराजित किया और चेर शासक शेय (जिसका शरीर हाथी के समान था) को बंदी बना लिया। इस युद्ध में विजय के बाद नेडुंजेलियन ने ‘तलैयालंगानम्’ की उपाधि धारण की थी। इसके बाद नेडुंजेलियन ने कोंग तथा निडूर के विरुद्ध अभियान किया और कोंगु के राजा आदिगन तथा निडूर के राजा एव्वि को बुरी तरह पराजित किया। एव्वि को पराजित करने के पश्चात् इसने मिललै और मुट्टुरु मंडलों पर अधिकार कर लिया।

एक शासक एवं विजेता होने के साथ-साथ नेडुंजेलियन कवियों एवं विद्वानों का आश्रयदाता, धर्मपरायण एवं प्रजावत्सल शासक भी था। उसने मांगुदि मरुदन, नक्कीरर तथा उसके पिता एवं कल्लाडवार जैसे अनेक कवियों एवं विद्वानों को संरक्षण दिया था।

वैदिक धर्म के अनुयायी इस नरेश ने अनेक यज्ञों का अनुष्ठान किया था। एक कवि मडुवेल्लिले के अनुसार कृषक और व्यापारी नेडुंजेलियन के प्रति निष्ठावान थे। कहा जाता है कि इसकी सेना में मोतियों तथा मछलियों वाले समुद्रतट के निवासी सैनिकों के रूप में कार्य करते थे। इसकी पुष्टि मदुरैक्कंजि की एक कविता से होती है, जिसमें आलंगानम् के युद्ध की चर्चा की गई है और जिसके संयोजक को कोरकै का स्वामी तथा दक्षिणी परदवार का युद्धस्वामी बताया गया है।

नेडुंजेलियन संगमयुगीन पांड्य वंश का अंतिम ज्ञात शासक है। इसके अंत के साथ ही पांड्यों का इतिहास भी तिमिराच्छादित हो जाता है। आंध्र साम्राज्य के प्रसार और पह्लवों के उत्कर्ष से इनकी प्रगति धीमी पड़ गई। छठी शती ईस्वी में कलभ्रों ने पांड्यों के क्षेत्रों पर अधिकार स्थापित कर लिया। इसके बाद, पांड्यों का पुनः अभ्युदय सातवीं शताब्दी ईस्वी में हुआ और प्रथम पांड्य साम्राज्य की स्थापना हुई।

प्रथम पांड्य साम्राज्य

कलभ्रों ने पांड्यों के शासित क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। पांड्य शासक नेडुंजडैयन (765-815 ई.) के शासनकाल के तीसरे वर्ष में निर्गत वेल्विकुडि अनुदानपत्र से पता चलता है कि पल्यागमुदकुडमि परुवलुदि पांड्याधिराज ब्रह्मदेय के रूप में वेल्विकुडि गाँव एक ब्राह्मण को दान किया था। बाद में कलभ्रण नामक एक कलि राजा ने उस भूमि पर अधिकार कर लिया और गाँव को अपने राज्य में मिला लिया। इसके बाद कडुंगोन नामक पांड्य राजा ने पुनः उस क्षेत्र पर अधिकार स्थापित किया। इस विवरण से स्पष्ट है कि मुकुडुमी के बहुत बाद कलभ्रों ने पांड्य देश पर अधिकार किया था। किंतु कलभ्र अधिक दिनों तक पांड्य देश पर शासन नहीं कर सके और छठी शताब्दी ईस्वी के अंतिम दशक में कडुंगोन ने कलभ्रों की शक्ति को नष्ट कर पुनः स्वतंत्र पांड्य राज्य की स्थापना की।

कंडुगोन (590-620 ई.)

प्रथम पांड्य साम्राज्य वास्तविक संस्थापक कंडुगोन (590-620 ई.) था, जिसने 590 ई. के लगभग कलभ्रों को पराजित कर पुनः पांड्य राजवंश की सत्ता स्थापित की। वेल्विकुडि अभिलेख में कंडुगोन को कलभ्रों के अलावा कई अन्य शत्रुओं को पराजित करने का श्रेय दिया गया है और कहा गया है कि इसने अन्य शासकों को, जो पृथ्वी पर शासन करने का दावा करते थे, नष्ट कर पांड्य शक्ति का पुनरुद्धार किया। कंडुगोन ने लगभग 25-30 वर्षों तक शासन किया। इसके बाद इसका पुत्र मारवर्मन् अवनिशूलमणि पांड्य राजगद्दी पर बैठा।

मारवर्मन् अवनिशूलमणि (620-645 ई.)

कंडुगोन के उत्तराधिकारी पुत्र मारवर्मन् अवनिशूलमणि ने 620 ई. से लेकर 645 ई. तक शासन किया। इसके शासनकाल की घटनाओं के विषय में कोई जानकारी नहीं है। संभवतः वह अपने पैतृक राज्य को सुरक्षित बनाये रखने में सफल रहा था। इसके बाद इसका पुत्र जयंतवर्मन् शेंदन् 645 ई. में पांड्य राजसिंहासन पर बैठा।

जयंतवर्मन् शेंदन् (645-670 ई.)

पांड्य राजवंश का तीसरा शासक जयंतवर्मन् शेंदन् (645-670 ई.) था। शेंदन् को एक कुशल योद्धा एवं न्यायी शासक बताया गया है। इसकी सबसे महत्वपूर्ण सफलता चेर राज्य की विजय थी, जिसके उपलक्ष्य में इसने ‘वानवन’ उपाधि धारण की थी क्योंकि चेर शासक वानवन की उपाधि का धारण करते थे।

संभवतः जयंतवर्मन् शेंदन् के शासनकाल में ही ह्वेनसांग दक्षिण भारत आया था क्योंकि 640 ई. में वह पल्लवों को राजधानी काँची में था। चीनीयात्री के अनुसार पांड्यदेश में, जिसे वह मलयकूट कहता है, बौद्ध मत का हृास हो चुका था और इसके मंदिर खंडहर हो चुके थे। हिंदू देवी-देवताओं के मंदिरों की संख्या बहुत अधिक थी। यहाँ के निवासी पढ़ने-लिखने में अधिक रुचि नहीं रखते थे और मोतियों का व्यापार करते थे। पेरियपुराण से ज्ञात होता है कि सातवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य पांड्य राज्य के उत्तरी पूर्वी क्षेत्रों में भयंकर अकाल पड़ा था और शैव संत अप्पर तथा सम्बन्दर ने इस संकट से मुक्ति दिलाई थी। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि ह्वेनसांग ने भी अपनी यात्रा के दौरान पांड्य राज्य में पड़े भीषण अकाल की ओर संकेत किया है, किंतु वास्तव में मूल जीवनी में ह्वेनसांग ने जिस अकाल की चर्चा की है, उसका संबंध सिंहल के अकाल से है, पांड्य राज्य के अकाल से नहीं।

जयंतवर्मन् शेंदन् को तिरुनेल्वेलि जिले के कलैय डिक्कुरिचि में एक शैलकृत मंदिर के निर्माण का श्रेय दिया जाता है। इसने संभवतः 645 ई. से 670 ई. तक शासन किया था। इसके बाद इसका पुत्र अरिकेशरि मारवर्मन् पांड्य राज्य का उत्तराधिकारी हुआ।

अरिकेशरी मारवर्मन् (670-700 ई.)

जयंतवर्मन् शेंदन् का पुत्र और उत्तराधिकारी अरिकेशरी मारवर्मन् 670 ई. में पांड्य राजवंश का शासक हुआ। अरिकेशरी मारवर्मन् के समय से पांड्यों का इतिहास अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट होने लगता है। वेल्विकुडि दानपत्र से पता चलता है कि अरिकेशरी मारवर्मन् ने केरलों को पालि, नेल्वेलि और सेन्निलम् के युद्धों में पराजित किया और परवस तथा कुरुनाडु पर अधिकार कर लिया। सिन्नमनूर लेख के अनुसार परांकुश ने विल्वरों (केरलों) को नेल्वेलि में पराजित किया। कुरुनाडु तथा नेल्वेलि का उल्लेख त्रावनकोर अभिलेख में भी मिलता है। किंतु इन स्थानों की निश्चित पहचान नहीं हो सकी है। नेल्वेलि की पहचान तिन्नेवल्ली से की जा सकती है और परवस संभवतः तटीय प्रदेश में रहने वाले मछुआरों की कोई जाति थी।

पांड्यों की साम्राज्यवादी नीति के कारण इनका पल्लवों से संघर्ष होना स्वाभाविक था। पांड्य नरेश अरिकेशरी मारवर्मन् ने पल्लवों के विरुद्ध चालुक्य शासक विक्रमादित्य प्रथम से संधि की और संभवतः पल्लव नरेश परमेश्वरवर्मन् को पराजित किया था।

कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि अरिकेशरी मारवर्मन् ही पारंपरिक पांड्य शासक कूण है, जो पहले जैन धर्मानुयायी था, किंतु बाद में संत सम्बन्दर के प्रभाव से शैव हो गया था। इस धर्मपरिवर्तन के बाद उसने 8,000 जैनधर्मावलंबियों को मौत के घाट उतरवा दिया था। इस शासक का विवाह एक चोल राजकुमारी से हुआ था। कहा जाता है कि उसी ने संत सम्बन्दर को मदुरा बुलाया था। किंतु इस मत की सत्यता संदिग्ध है। अरिकेशरी मारवर्मन् ने संभवतः 670 ई. से 710 ई. तक शासन किया था।

कोच्चडैयन ‘रणधीर’ (710-735 ई.)

पांड्य इतिहास में ‘रणधीर’ नाम से प्रसिद्ध कोच्चडैयन अरिकेशरी मारवर्मन् का पुत्र था, जो 710 ई. में पांड्य वश की राजगद्दी पर बैठा। इसकी ‘दानवन’ तथा ‘सेम्बियन’ उपाधियों से लगता है कि इसने चेरों और चोलों को पराजित किया था। इसकी ‘मदुरकरनाटकन’ और ‘कोंगर्कोमान्’ उपाधि से भी स्पष्ट है कि इसने अपनी सैनिक विजयों के बाद इन राज्यों में पांड्य शक्ति का प्रसार किया था।

वेल्विकुडी लेख से सूचित होता है कि कोच्चडैयन ने मंगलापुरम् के महारथों (मराठों) को पराजित किया था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार महारथों से तात्पर्य बादामी के चालुक्यों से है। किंतु नीलकंठ शास्त्री मंगलापुरम् की पहचान मंगलोर से करते हैं। इसके बाद कोच्चड्डैयन ‘रणधीर’ ने संभवतः कोंगू प्रदेश तक पांड्य राज्य का विस्तार किया, जिस पर चालुक्य शासक विजयादित्य का अधिकार था।

कहा जाता है कि कोच्चड्डैयन ने तिरुनेल्वेलि तथा त्रावनकोर के बीच पहाड़ी प्रदेश पर शासन करने वाले आय नामक शासक को मरुदूर नामक स्थान पर पराजित कर अपनी अधीनता मानने के लिए विवश किया। मरुदूर की स्थिति दक्षिणी त्रावनकोर के कुरुनाडु में मानी जाती है। कोच्चडैयन को शेंगयूं और उदकोदु विजय का भी श्रेय दिया गया है, किंतु इन स्थानों की पहचान नहीं हो सकी है। कोच्चडैयन ने संभवतः 735 ई. तक शासन किया।

मारवर्मन् राजसिंह प्रथम (735-765 ई.)

कोच्चडैयन का उत्तराधिकारी मारवर्मन् राजसिंह प्रथम हुआ। वह भी अपने पिता के समान एक शक्तिशाली राजा था। मारवर्मन् राजसिंह प्रथम के समय में पल्लव शासक नंदिवर्मन् द्वितीय और उसके चचेरे भाई चित्रमाय में गद्दी के लिए संघर्ष छिड़ गया। राजसिंह प्रथम ने चित्रमाय का साथ दिया। वेल्विकुडि अनुदानलेख के अनुसार इसने पल्लवमल्ल को पराजित किया था (पलांयते पल्लवमल्लभूपतिः)। इस लेख से पता चलता है कि इसने पल्लवों को नेडुवयल करुमंडै, मणैकुरिचि, कोदुम्बालूर, तिरुमंगै, पूवलूर आदि कई युद्धों में पराजित कर पल्लव सेना के बहुत से हाथियों तथा घोड़ों को छीन लिया और नंदिवर्मन् द्वितीय को कुंभकोणम् के निकट नंदिग्राम में बंदी बना लिया था।

किंतु नंदिवर्मन् के सेनापति उदयचंद्र ने कुंभकोणम् के घेरे को तोड़कर अपने शासक को मुक्त करा लिया और चित्रमाय तथा राजसिंह दोनों को पराजित कर नंदिवर्मन् को पुनः प्रतिष्ठित किया। संभवतः पल्लवों के विरुद्ध अपनी विजय के उपलक्ष्य में ही राजसिंह ने ‘पल्लवभंजन’ की उपाधि धारण की थी, जिसका उल्लेख मद्रास म्यूजियम दानपत्र में भी मिलता है।

यद्यपि मारवर्मन् राजसिंह प्रथम के पिता के समय में कोंगू प्रदेश पर पांड्य सत्ता स्थापित हो चुकी थी। संभवतः पांड्यों को पल्लवों के साथ युद्ध में व्यस्त देखकर कोंगू प्रदेश में विद्रोह हुआ, जिसे राजसिंह ने सफलतापूर्वक दबा दिया। इसके बाद इसने कोंगु की ओर बढ़ते हुए पेरियलूर के युद्ध में अपने शत्रुओं को पराजित कर कावेरी नदी को पार किया और त्रिचनापल्ली तथा तंजोर की सीमा पर स्थित मलकोंगम् पर अधिकार कर लिया। वहाँ का राजा मालवराज पराजित हुआ और उसने अपनी एक कन्या का विवाह राजसिंह के साथ कर दिया। इसके बाद पांड्य शासक पांडिक्कोडुमुडि तक पहुँच गया। इस प्रकार पांड्यों का कोंगु और उसके आगे के प्रदेशों पर अधिकार हो गया।

राजसिंह की इस साम्राज्यवादी नीति के विरुद्ध उत्तर के गंग शासक श्रीपुरुष ने चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मन् द्वितीय के साथ मिलकर एक मोर्चा बनाया। किंतु राजसिंह ने 750 ई. के लगभग गंगों तथा चालुक्यों की संयुक्त सेनाओं को वेणवै के युद्ध में पराजित कर दिया। बाद में पांड्य शासक ने गंगनरेश ने संधि कर ली और अपने पुत्र जटिल परांतक (नेडुंजडैयन) का विवाह गंग नरेश की पुत्री से कर दिया। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि पांड्य मारवर्मन् राजसिंह प्रथम ने स्वयं गंग राजकुमारी से विवाह किया था।

राजसिंह को वेल्विकुडि दानपत्र में गोसहस्त्र, हिरण्यगर्भ एवं तुलाभार जैसे दान संपन्न करने तथा कूडल, वंजि तथा कोलि के राजप्रासादों के जीर्णोद्धार का श्रेय दिया दिया गया है। राजसिंह प्रथम ने अनुमानतः 735 ई. से 765 ई. तक शासन किया।

नेडुंजडैयन या वरगुण प्रथम (765-815 ई.)

राजसिंह के बाद उसका पुत्र वरगुण प्रथम राजा हुआ, जो नेडुंजडैयन, जटिल परांतक, वरगुण महाराज, मारंजडैय्यन आदि नामों से प्रसिद्ध है।

नेडुंजडैयन अपने वंश का एक प्रतापी शासक था। इसके शासनकाल के तीसरे वर्ष से लेकर तैतालीसवें वर्ष तक के लेख मिले हैं, जिसके आधार पर माना जाता है कि इसने लगभग पचास वर्ष तक शासन किया था।

इसके शासनकाल के तीसरे वर्ष के वेल्विकुडि अनुदान लेख में इसके पूर्वजों की उपलब्धियों का वर्णन मिलता है। इसमें कलभ्रों द्वारा पांड्य राज्य पर आक्रमण से लेकर कडुंगोन, अवनिशूलमणि शेंदन, अरिकेशरि मारवर्मन् तथा कोच्चडैयन की उपलब्धियों का विवरण मिलता है।

वेल्विकुडि अनुदानलेख के अनुसार नेडंजडैयन ने कावेरी के दक्षिणी तट पर स्थित तंजोर के समीप पेण्णागडम् के युद्ध में काडवों (पल्लवों) को पराजित किया और तिरुनेल्वेलि और त्रावनकोर के बीच शासन करने वाले उनके सहयोगी आयोवेल की सम्मिलित सेनाओं को पराजित किया। अनुदानलेख के अनुसार इस युद्ध के बाद नेडुंजडैयन ने उस गाँव के दान का नवीनीकरण किया, जो कलभ्रों के समय में बाधित हो गया था।

मद्रास संग्रहालय में सुरक्षित दानपत्रों से पता चलता है कि नेडुंजडैयन (वरगुण) ने उत्तरी पश्चिम की ओर तगडूर के आदिगेमानकुल के शासक आदिगैमान को कावेरी के उत्तरी तट पर स्थित अयिरवेलि, आयिरूर तथा पुगलियूर (पुगलूर) के युद्धों में पराजित किया और घोड़ों के सहित उसके रथों पर अधिकार कर लिया। नीलकंठ शास्त्री का अनुमान है कि इस युद्ध में आडिगैमान को कोंगु, केरल तथा पल्लव शासकों का भी सहयोग मिला था, किंतु नेडुंजडैयन (वरगुण) ने एक-एक करके सभी राजाओं को पराजित कर दिया। जटिल ने पश्चिमी कोंगु के शासक को उसके हाथियों सहित बंदी बनाकर मदुरा भेज दिया और पूरे कोंगु प्रदेश पर अधिकार कर लिया। कोंगु प्रदेश पर उसके अधिकार की पुष्टि इससे हो जाती है कि इसने वहाँ कांचिवय्पेरुर में एक मंदिर का निर्माण करवाया और ‘परमवैष्णव’ की उपाधि धारण की थी।

नेडुंजडैयन (वरगुण प्रथम) ने वेलूर, विलिनम्, पुलिगिरे में शत्रुओं को पराजित कर दक्षिणी त्रावनकोर में स्थित वेणाद पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार विभिन्न स्थानों को जीतता हुआ पांड्य शासक पल्लव राज्य के इडिवै (तंजोर जिला) तक पहुँच गया। तिरुचिरापल्ली अभिलेख के अनुसार नेडुंजडैयन ने तोंडैनाडु में अपना शिविर लगाया था।

नेडुंजडैयन (वरगुण प्रथम) ने तिन्नेवल्ली तथा त्रावनकोर के बीच स्थित मलैनाद के आय वंश के शासक शडैयन करुनंदन के विरुद्ध 788 ई. में अभियान किया। नेडुंजडैयन का यह अभियान सफल रहा और उसने अरिवियूरक्कोट्टै (अरिवियर के किले) को पूर्णतया नष्ट कर दिया।

इस प्रकार नेडुंजडैयन अर्थात् वरगुण ने पांड्य शक्ति का विस्तार किया, जिसके फलसवरूप पांड्य साम्राज्य कावेरी नदी के दक्षिण में एक समुद्रतट से दूसरे समुद्रतट तक विस्तृत हो गया। इसमें तंजोर, तिरुचिरापल्ली, सलेम, कोयम्बटूर तथा दक्षिणी त्रावनकोर के कुछ क्षेत्र सम्मिलित थे।

नेडुंजडैयन (वरगुण प्रथम) कला एवं साहित्य का उदार संरक्षक भी था। वेल्विकुडि अनुदानलेख के अनुसार इसने एक पांड्य शासक द्वारा दिये गये एक ग्रामदान का नवीनीकरण किया था। इसने करवंडपुरम् का दुर्गीकरण करवाया, कांची वायप्पेरूर में एक विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया और ‘परमवैष्णव’ की उपाधि धारण की। त्रिचनापल्ली तथा अंबासमुद्रम् लेखों से ज्ञात होता है कि इसने अनेक शैव मंदिरों को भी दान दिया था। तिरुवेंदूर से प्राप्त इसके तेरहवें वर्ष के एक लेख के अनुसार इसने कुमार के मंदिर में पूजा के लिए दान दिया था।

नेडुंजडैयन (वरगुण प्रथम) विद्या-प्रेमी होने के साथ-साथ विद्वानों का आश्रयदाता भी था। इसने विद्वानों को आश्रय देने के उपलक्ष्य में ‘पंडितवत्सल’ की उपाधि धारण की थी। कुछ इतिहासकार इसे शैव संत माणिक्कवाशगर से भी संबंधित करते हैं। इसका शासनकाल 765 ई. से 815 ई. तक माना जाता है।

श्रीमार श्रीवल्लभ (815-862 ई.)

नेडुंजडैयन (वरगुण प्रथम) का पुत्र एवं उत्तराधिकारी श्रीमार श्रीवल्लभ 815 ई. में पांड्य राजवंश की गद्दी पर बैठा। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि इसका सिंहासनारोहण 885 ई. में हुआ था।

श्रीमार श्रीवल्लभ एक पराक्रमी और साम्राज्यवादी शासक था, जिसने अपनी विजयों के उपलक्ष्य में ‘एकवीर’ तथा ‘परचक्रकोलाहल’ ‘अवनिपशेखर’ जैसी भारी-भरकम उपाधियाँ धारण की थी। इसके शासनकाल की घटनाओं के संबंध में में दलवयपुरम् तथा बृहत् शिन्नमनूर ताम्रलेखों और महावंश से सूचनाएँ मिलती हैं।

बृहत् शिन्नमनूर लेख के अनुसार इसने माया पांड्य, केरल, सिंहल, पल्लव तथा वल्लभ राजाओं को जीतकर समस्त पृथ्वी को अपने छत्र के नीचे ला दिया। इसी अभिलेख से ज्ञात होता है कि इस शासक ने कृष्णूर, विलिनम् तथा सिंहल में विजय प्राप्त की और गंग, पल्लव, चोल, कलिंग, मगध आदि के संघ को कुंभकोणम् के युद्ध में पराजित किया। अपनी सामरिक उपलब्धियों के उपलक्ष्य में इसने ‘परचक्रकोलाहल’ की उपाधि धारण की थी। किंतु कृष्णूर, विलिनम् तथा केरल के विजयों का समर्थन किसी अन्य स्रोत से नहीं होता है।

किंतु पल्लवों के विरुद्ध श्रीमार श्रीवल्लभ की सफलता अस्थायी सिद्ध हुई। पल्लव शासक दंतिवर्मन् के शासन के अंतिम वर्षों में उसके पुत्र नंदिवर्मन् तृतीय ने पांड्यों के विरुद्ध गंगों, चोलों, राष्ट्रकूटों आदि का एक संयुक्त मोर्चा बनाया, जिसमें संभवतः श्रीलंका का शासक भी सम्मिलित था। इस संयुक्त मोर्चे ने नंदिवर्मन् तृतीय के नेतृत्व में तेल्लारु के युद्ध में पांड्य नरेश श्रीमार को पराजित किया। नंदिवर्मन् तृतीय ने इस विजय के उपलक्ष्य में ‘तेल्लारेरिंद’ की उपाधि धारण की। किंतु इस पराजय से पांड्यों को कोई विशेष हानि नहीं हुई और तंजोर का क्षेत्र उनके अधिकार में बना रहा।

महावंश से पता चलता है कि श्रीमार श्रीवल्लभ ने सिंहल (श्रीलंका) पर भी दो बार आक्रमण किया था। उसने पहले आक्रमण के दौरान सिंहल शासक सेन प्रथम ( 831-851 ई.) को महातलित के युद्ध में पराजित कर मलय देश में शरण लेने पर बाध्य किया। विजयी पांड्य सेना ने सिंहल के उत्तरी प्रदेशों को तहस-नहस कर दिया और उसकी राजधानी पर अधिकार कर लिया। बाद में जब सेन प्रथम ने श्रीमार श्रीवल्लभ की अधीनता स्वीकार कर ली, तो उसका राज्य वापस कर दिया गया।

सेन प्रथम के बाद उसका भतीजा सेन द्वितीय (851-885 ई.) सिंहल की राजगद्दी पर बैठा। इसी समय पांड्य देश के एक असंतुष्ट राजकुमार माया पांड्य, जो संभवतः श्रीमार का ही पुत्र था और श्रीमार द्वारा अपने सौतेले भाई को युवराज बना देने के कारण उससे असंतुष्ट था, ने सिंहल के राजा सेन द्वितीय से श्रीमार के विरुद्ध सहायता माँगी। सेन द्वितीय ने माया पांड्य तथा पल्लवों के साथ मिलकर पांड्य राज्य पर आक्रमण किया और राजधानी मदुरा को घेर लिया। श्रीमार आक्रमणकारियों का सामना नहीं कर सका और युद्ध-क्षेत्र से भाग खड़ा हुआ। कहा जाता है कि उसने अपनी पत्नी के साथ आत्महत्या कर ली थी। सिंहल नरेश ने पांड्य राजधानी को लूटा और श्रीमार के पुत्र वरगुण द्वितीय को पांड्य राजगद्दी पर बैठाकर सिंहल लौट गया। इस प्रकार यद्यपि श्रीमार का अंत दुखद रहा, फिर भी, उसने अपने साम्राज्य को सुरक्षित बनाये रखने का हरसंभव प्रयास किया। श्रीमार श्रीवल्लभ की मृत्यु संभवतः 862 ई. में हुई थी।

वरगुण द्वितीय (862-880 ई.)

श्रीमार की मृत्यु के बाद उसके पुत्र वरगुण द्वितीय (वरगुणवर्मन् द्वितीय) को पल्लव और सिंहल राजाओं ने पांड्य राजवंश की गद्दी पर प्रतिष्ठित किया था। संभवतः वरगुण को प्रारंभ में चोल नरेश विजयालय से युद्ध करना पड़ा क्योंकि 850 ई. के लगभग चोल शासक विजयालय ने मुत्तरैयर से तंजोर छीन लिया था, जो पांड्यों के अधीन थे।

वरगुण ने अपने संरक्षक पल्लव नरेश की सहायता से चोल विजयालय पर आक्रमण की योजना बनाई। वरगुण और पल्लवों की संयुक्त सेना कावेरी नदी के तट पर स्थित इडवै तक पहुँच गई। किंतु इसी बीच नंदिवर्मन् द्वितीय की मृत्यु के बाद पल्लव राज्य में नृपतुंग और अपराजित के बीच सिंहासन के लिए गृहयुद्ध आरंभ हो गया।

वरगुण ने अपने मित्र नृपतुंग का पक्ष लिया, जबकि सिंहल, चोल तथा पश्चिमी गंग अपराजित के साथ थे। उदयेंदिरम् ताम्रपत्र से पता चलता है कि दोनों पक्षों के बीच 880 ई. के लगभग कुंभकोणम् के समीप श्रीपुरम्बियम् का निर्णायक युद्ध हुआ, जिसमें पांड्य पराजित हुए और गंगनरेश पृथ्वीपति मारा गया-

यः श्री पुरम्बियमहाहवमूर्धिधीरः, पाण्ड्येश्वरं वरगुणं सहसा विजित्य।

कृत्वार्श्यक्तमपराजित शब्दमात्म, प्राणव्ययेन सुहृद स्त्रिदिवजगाम।।

श्रीपुरम्बियम् में पराजित होने के बाद पांड्यों की शक्ति कमजोर हो़ गई। अब पांड्य राज्य कावेरी के दक्षिण में सिमट कर रह गया और शेष भाग पर चोल आदित्य प्रथम ने अधिकार कर लिया। इसी समय वरगुण के छोटे भाई परांतक वीरनारायण ने वरगुण द्वितीय को अपदस्थ कर सिंहासन पर अधिकार कर लिया।

परांतक वीरनारायण शदैयन (880-900 ई.)

परांतक, जिसे वीरनारायण के नाम से भी जाना जाता है, अपने भाई वरगुण द्वितीय से भी अधिक योग्य शासक था। इसके शासनकाल के दलवयपुरम् लेख से पता चलता है कि इसने अकेले ही उग्र नामक राजा को खरगिरि के पास पराजित किया, पेण्णागदम् को ध्वस्त किया और कोंगू में युद्ध किया। नीलकंठ शास्त्री का विचार है कि उसका कोंगू में चोलों के साथ युद्ध हुआ था, किंतु लगता है कि उसे चोलों के विरूद्ध सफलता नहीं मिल सकी।

बृहत् शिन्नमनूर लेख के अनुसार ‘परांतक’ वीरनारायण ने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया और बाह्मणों को भूमिदान दिया था। इसका विवाह केरल (चेर) राजकुमारी श्रीवानवन महादेवी से हुआ था, जिसके नाम पर उसने तिरुनेल्वेलि में स्थित एक गाँव का नाम शेरमादेवी रखा था। परांतक ने संभवतः 900 ई. तक शासन किया था।

मारवर्मन् राजसिंह द्वितीय (900-920 ई.)

परांतक वीरनारायण के बाद उसका पुत्र मारवर्मन् राजसिंह द्वितीय लगभग 900 ई. में पांड्य राजगद्दी पर बैठा, जो वानवन महादेवी से उत्पन्न हुआ था। मारवर्मन् राजसिंह ने विकटपाटव, श्रीकांत, राजशिखामणि तथा मंदरगौरव की उपाधि धारण की थी। बृहत् शिन्नमनूर दानपत्र इसके शासनकाल के सोलहवें वर्ष में निर्गत किया गया था।

मारवर्मन् राजसिंह द्वितीय को उलप्पिलिमंगलम् में अनेक शत्रुओं से युद्ध करने, तंजोर शासक का विरोध करने, कोडम्बालूर में विजय प्राप्त करने तथा वज्जि के विनाश करने का श्रेय दिया गया है। संभवतः इन युद्धों के संदर्भ में राजसिंह द्वितीय का चोलों से भी संघर्ष हुआ था, जिसमें प्रारंभ में उसे कुछ सफलता भी मिली थी।

किंतु बाद में आदित्य प्रथम के उत्तराधिकारी चोल परांतक प्रथम ने 910 ई. के आसपास पांड्य शासक मारवर्मन् राजसिंह द्वितीय पर आक्रमण कर पांड्यों की राजधानी मदुरा पर अधिकार कर लिया और इस विजय के उपलक्ष्य में उसने ‘मधुरांतक’ अथवा ‘मदुरैकोंड’ की उपाधि धारण की।

पराजित पांड्य शासक मारवर्मन् राजसिंह ने सिंहल शासक कस्सप पंचम से सहायता माँगी और दोनों ने चोल राज्य पर आक्रमण कर दिया। उदयेंदिरम् लेखों से पता चलता है कि चोल परांतक प्रथम की सेना ने पांड्य तथा सिंहल की संयुक्त सेनाओं को वेल्लूर के युद्ध में निर्णायक रूप से पराजित कर दिया-

यस्यप्रताप दहनेन परीयभाणस्तत्तापशान्ति निवकर्तु मनास्सवेगः।

सद्यस्समुद्रमविशन्निजराज लक्ष्मीं पृथ्वींकुलक्रमागतां च विहाय पांड्यः।।

यस्यकोपदहनो दहिन्द्विषश्शान्तिमापन समुदवारिणि।

शस्त्र कृत्त हतसिंहलांग्ता नेत्रवारिणि शमज्जगाम च।।

इस विजय के उपलक्ष्य में चोल शासक ने ‘मदुरैयुमइलुमम्कोंड’ (मदुरा और श्रीलंका का विजेता) की उपाधि धारण की। यह पटना संभवतः 915-920 ई. के आसपास की है। लेख से पता चलता है कि राजसिंह युद्ध-भूमि से भाग खड़ा हुआ और पांड्यों के बड़ी संख्या में सैनिक, हाथी तथा घोड़े नष्ट हो गये। मारवर्मन् ने पहले श्रीलंका में शरण ली, किंतु वहाँ उसे अपने राजमुकुट और धन से भी हाथ धोना पड़ा। अंततः वह भागकर अपने ननिहाल (केरल शासक) चला आया।

कहा जाता है कि 920 ई. के लगभग चोल परांतक ने राजसिंह द्वितीय पर पुनः आक्रमण किया और उसे पराजित कर राज्य से बाहर कर दिया। चोल शासक ने मदुरा में अपना अभिषेक करने का निश्चय किया और राजसिंह द्वितीय के राजमुकुट के लिए चोल सैनिकों का एक दल सिंहल भेजा। किंतु इस अभियान में चोल असफल रहे। श्रीलंका के तत्कालीन शासक उदय चतुर्थ ने चोलों को पराजित कर दिया। इस प्रकार मारवर्मन् राजसिंह द्वितीय के समय पांड्य पूरी तरह से असफल रहे और अंततः वे चोलों के अधीन हो गये।

पांड्य राजवंश या मदुरा के पांड्य (Pandya dynasty or Pandyas of Madura)
पांड्य साम्राज्य का विस्तार
प्रथम पांड्य साम्राज्य का अवसान

राजसिंह मारवर्मन् द्वितीय के बाद उसके पुत्र वीरपांड्य के समय पांड्यों की शक्ति में पुनः वृद्धि हुई। पांड्यों ने 949 ई. में तक्कोलम् के युद्ध में चोल शासक गंडरादित्य को पराजित कर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। इस विजय के उपलक्ष्य में वीरपांड्य ने ‘चेरंतलैकोंडकोविरपांडन’ की उपाधि धारण की। इतिहासकारों का अनुमान है कि वीरपांड्य ने जिस चोल शासक का शिरश्छेदन किया था, वह गंडरादित्य या सुंदरचोल परांतक द्वितीय रहा होगा।

किंतु पांड्य इस स्वतंत्रता अधिक दिन तक उपभोग नहीं कर सके। गंडरादित्य के तीसरे उत्तराधिकारी सुंदरचोल (परांतक द्वितीय) ने पांड्यों की शक्ति को कुचलने के लिए सैनिक अभियान किया। पूर्व की तरह सिंहल नरेश महिंद चतुर्थ ने पांड्यों का सहायता की। करंदै ताम्रपत्रों के अनुसार चेबुर के युद्ध में चोल सेना ने वीरपांड्य को बुरी तरह पराजित किया और वीरपांड्य को भागकर सह्याद्रि की चोटियों में शरण लेनी पड़ी। लीडेन अनुदानपत्रों में कहा है कि चेवूर के युद्ध में परांतक ने शत्रुओं के हाथियों में किये गये धावों से खून की नदियाँ बहा दी और उसके पुत्र आदित्य किशोरावस्था में ही युद्ध में वीरपांड्य के साथ उसी प्रकार लड़ा, जिस प्रकार सिंह शावक हाथी के साथ खेलता है। तिरुवलंगाडु ताम्रपत्रों के अनुसार सुंदरचोल के पुत्र आदित्य द्वितीय ने वीरपांड्य का सिर काट लिया और इसके फलस्वरूप ‘पांड्यकोंड’ की उपाधि धारण की। नीलकंठ शास्त्री का अनुमान है कि तिरुवालंगाडु ताम्रपत्रों में लीडेन ताम्रपत्रों की घटना का ही अलंकारिक भाषा में वर्णन किया गया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि चोलों ने पांडयों को निर्णायक रूप से पराजित किया और पांड्य राजवंश की स्वाधीनता अंत कर दिया। इसके बाद बारहवीं शताब्दी तक पांड्य शासक चोल राजाओं की अधीनता में शासन करते रहे।

चोलों के अधीन पांड्य शासक अपनी स्वतंत्रता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे, किंतु उन्हें सफलता नहीं मिल सकी। तिरुवालंगाडु ताम्रपत्रों से पता चलता है कि 994 ई. के आसपास चोल शासक राजराज प्रथम ने पांड्य राज्य पर आक्रमण कर वहाँ के राजा अमरभुजंग को बंदी बना लिया और पांड्य राज्य पर अधिकार कर लिया।

राजराज प्रथम के उत्तराधिकारी राजेंद्र चोल (1014-1044 ई.) के समय में भी पांड्यों को चोलों का आधिपत्य स्वीकार करना पड़ा। तिरुवलंगाडु ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि राजेंद्र चोल ने अपने शासन के दसवें वर्ष पांड्य राज्य पर अधिकार कर लिया और पांड्य नरेश अगस्त्य पहाड़ियों की ओर भाग गया। इस विजय के बाद राजेंद्र चोल ने अपने पुत्र जटावर्मन् सुंदरचोल को पांड्य राज्य का उपराजा नियुक्त किया। संभवतः राजेंद्र चोल के शासनकाल के अंतिम वर्षों में सुंदरपांड्य के नेतृत्व में पांड्य और केरल के शासकों ने चोलों के विरुद्ध विद्रोह किया, किंतु उन्हें सफलता नहीं मिली।

राजेंद्र चोल के उत्तराधिकारी राजाधिराज (1044-54 ई.) के समय में मानाभरण वीरकेरलन तथा सुंदरपांड्य नामक पांड्य शासकों ने चोलों के विरूद्ध विद्रोह किया, जिसका चोल शासक ने दमन कर दिया। कहा जाता है कि राजाधिराज के पुत्र चोल वीरराजेंद्र (1062-1067 ई.) में पांड्य राजा वीरकेशरी की हत्या कर दी थी। इस प्रकार पांड्य शासक बार-बार शक्तिशाली चोलों के समक्ष पराजित होते रहे।

अधिराजेंद्र (1067-1070 ई.) के शासनकाल में चोल राज्य में उत्पन्न आंतरिक अराजकता का लाभ उठाकर पांड्यों ने पुनः अपनी स्वतंत्रता स्थापित करने का प्रयास किया। इस समय पांड्य राज्य में जटावर्मन् श्रीवल्लभ शासन कर रहा था, जो चोल कुलोत्तुंग प्रथम का समकालीन था। विक्रमशोला से पता चलता है कि कुलोत्तुंग प्रथम ने पांड्यों के मत्स्य को पराजित किया था। इसके शासनकाल के पाँचवें वर्ष के एक लेख के अनुसार पांड्य शासक के भूमि पर पड़े सिर को चीलें खा रही थीं। एक अन्य लेख के अनुसार कुलोत्तुंग प्रथम ने पाँच पांड्य शासकों को पराजित किया था। कुलोत्तुंग की ‘पांड्यकुलांतक’ उपाधि से भी स्पष्ट है कि उसे पांड्यों के विरुद्ध सफलता मिली थी। किंतु इन पराजयों के बावजूद पांड्य श्रीवल्लभ ने तिन्नेवली और मदुरा में स्वतंत्र पांड्य राज्य की स्थापना करने में सफल रहा।

जटावर्मन् श्रीवल्लभ के बाद मारवर्मन् त्रिभुवन चक्रवर्तिन् पराक्रम पांड्यदेव ने शासन किया। यह भी कुलोत्तुंग प्रथम का समकालीन था, किंतु इसके विषय में कुछ अधिक जानकारी नहीं है। इसके बाद मारवर्मन् पराक्रम पांड्य ने शासन किया।

मारवर्मन् पराक्रम पांड्य के विषय में कहा जाता है कि इसने चेरों पर विजय प्राप्त की थी और उनसे कर वसूल किया था। इसे कूपम के शासक को पराजित करने और विलिंच, कांडलूर तथा शालै के दुर्गों को विजित करने का श्रेय दिया गया है। कहा जाता है कि इसने दक्षिण कलिंग और तेलिंग भीम को भी पराजित किया था।

पराक्रम पांड्यदेव के पश्चात् मारवर्मन् श्रीवल्लभ ने शासन किया। इसका पुत्र कुलशेखर था। कुलशेखर और पराक्रम पांड्य के बीच होने वाले उत्तराधिकार युद्ध में चोलों तथा सिंहल के शासक ने भी भाग लिया, जिसका उल्लेख महावंश में मिलता है। उत्तराधिकार युद्ध में चोल राजाधिराज द्वितीय ने कुलशेखर की सहायता की और श्रीलंका के शासक पराक्रमबाहु ने पराक्रम पांड्य की। किंतु श्रीलंका की सेना, जो लंकापुर के नेतृत्व में भेजी गई थी, के पांड्य राज्य में पहुँचने के पहले ही चोलों की सहायता से कुलशेखर ने पराक्रम पांड्य को पराजित कर उसे मार डाला और मदुरा पर अधिकार कर लिया था। सिंहल सेनापति लंकापुर ने कुलशेखर की सेनाओं को पराजित किया और कुलशेखर के स्थान पर वीरपांड्य नामक एक अन्य राजकुमार को मदुरा की राजगद्दी पर बैठा दिया। कुलशेखर ने चोल शासक कुलोतुंग से सहायता माँगी, किंतु लंकापुर ने पुनः दोनों को सम्मिलित सेनाओं को पराजित कर दिया और वीरपांड्य लंकापुर के संरक्षण में शासन करने लगा। किंतु महावंश का यह विवरण अतिशयोक्तिपूर्ण है क्योंकि अभिलेखों से पता चलता है कि कुलशेखर ने चोलों की सहायता से लंकापुर और उसके सहायक सेनापति जयद्रथ को पराजित कर श्रीलंका भगा दिया और इसके बाद लगभग एक दशक तक मदुरा पर शासन करता रहा।

कुलशेखर के बाद विक्रमपांड्य गद्दी पर बैठा, किंतु इसके शासन-ग्रहण का वीरपांड्य ने विरोध किया, जिससे पांड्य राज्य में पुनः उत्तराधिकार का युद्ध आरंभ हो गया। इस समय चोल नरेश कुलोत्तुंग तृतीय का शासन था। पांड्यों के उत्तराधिकार का युद्ध में पुनः चोलों और श्रीलंका के शासकों ने हस्तक्षेप किया। श्रीलंका के शासक ने विद्रोही वीरपांड्य का साथ दिया और चोल शासक कुलोत्तुंग तृतीय ने विक्रमपांड्य का। इस संदर्भ में कुलोत्तुंग को तीन बार वीरपांड्य से युद्ध करना पड़ा। कुलोत्तुंग तृतीय के शासनकाल के नवे वर्ष के चिदंबरम लेख से ज्ञात होता है कि तिरुवेंदगम के युद्ध में उसने वीरपांड्य को पराजित कर विक्रमपांड्य को मदुरा की गद्दी पर बैठाया। इसके शासनकाल के ग्यारहवें वर्ष के एक लेख में दावा किया गया है कि चोलों ने वीरपांड्य के पुत्र की नाक काट ली और मदुरा पर विक्रमपांड्य को प्रतिष्ठित किया। इस सफलता के उपलक्ष्य में कुलोत्तुंग ने मदुरा में अपना ‘विजयस्तंभ’ स्थापित किया था। इसके बाद कुलोत्तुंग ने नेट्टूर के युद्ध में पुनः वीरपांड्य को पराजित किया। कहते हैं कि बाद में चोल शासक ने उसे कुछ प्रदेशों पर शासन करने अनुमति प्रदान कर दी थी। पांड्यों पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में ही कुलोत्तुंग ने ‘मदैयिम पांडिनमुडितलैयम् कोंडरुलिन’ (मदुरा और पांड्य शासक का राजमुकुट सहित सिर लेकर प्रसन्न होने वाला) की उपाधि धारण की थी।

पांड्यों को चोलों से ही नहीं, बल्कि होयसलों से भी पराजित होना पड़ा था। 1173 ई. के एक अभिलेख में होयसल शासक वीरबल्लाल द्वितीय को ‘पांड्यकुल के लिए वज्र’ कहा गया है। कहा जाता है कि 1177 ई. में उसने कामदेव नामक एक पांड्य शासक को पराजित किया था। बल्लाल द्वितीय तथा उसके पुत्र को क्रमशः ‘पांड्यगजकेसरि’ तथा ‘पांड्यकुलखंडन’ कहा गया है।

विक्रमपांड्य के बाद पांड्य राजाओं का वंशक्रम सुनिश्चित नहीं है। इसके उत्तराधिकारियों के लेखों में पाँच पांड्य और तीन पांड्य पदावलियों का प्रयोग मिलता है, जिससे लगता है कि विक्रमपांड्य के उत्तराधिकारी कई पांड्य राज्यों में विभाजित हो गये थे।

विक्रम पांड्य के बाद संभवतः जटावर्मन् कुलशेखर 1190 ई. में पांड्य राजगद्दी संभाली। इसने कुलोत्तुंग तृतीय की अधीनता मानने से इनकार कर दिया, जिसके कारण कुलोत्तुंग तृतीय ने 1205 ई. के लगभग मदुरा पर आक्रमण कर उसे तहस-नहस कर दिया। किंतु पराजित जटावर्मन् ने शीघ्र ही अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। जटावर्मन् की कलिंगरायन, मलवरायन तथा राजगंभीर जैसी उपाधियों से लगता है कि उसे कलिंग और मलय के विरूद्ध सफलता प्राप्त की थी। इसके लेख मदुरा, रामनाड, तिन्नेवल्ली तथा त्रावनकोर से मिले हैं, जो इन प्रदेशों पर इसके अधिकार के सूचक हैं।

जटावर्मन् कुलशेखर अपने शासनकाल में अपने भाई अथवा पुत्रः मारवर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम को युवराज बना दिया था, जो 1216 ई. इसकी मृत्यु के बाद पांड्य वंश का शासक हुआ और द्वितीय पांड्य साम्राज्य की स्थापना की।

द्वितीय पांड्य साम्राज्य

मारवर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम (1216-1238 ई.)

द्वितीय पांड्य साम्राज्य का संस्थापक मारवर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम (1216-1238 ई.) था, जो जटावर्मन् कुलशेखर का भाई अथवा पुत्र था। जटावर्मन् ने अपने शासनकाल के अंतिम दिनों में इसे स्वयं युवराज नियुक्त कर दिया था, जिसके कारण उसकी मृत्यु के बाद यह पांड्य राज्य का उत्तराधिकारी हुआ।

मारवर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम एक सुयोग्य शासक सिद्ध हुआ, जिसने अपनी शक्ति को सुदृढ़ कर पांड्य शक्ति का पुनरुद्धार किया। इसके बाद लगभग एक शताब्दी तक पांड्यों ने द्रविड़ प्रदेश की राजनीति को निर्णायक रूप से प्रभावित किया।

चोलों पर प्रथम आक्रमण

मारवर्मन् सुंदरपांड्य के शासनकाल के तीसरे वर्ष के एक में इसके लिए शोणाडुवलगिय रुलिय उपाधि का प्रयोग किया गया है। इससे लगता है कि 1219 ई. के कुछ पहले इसने चोल राज्य पर आक्रमण किया था। इसके शासनकाल के सातवें वर्ष के तिरुप्परंकणरम् अभिलेख के अनुसार इसने कुलोत्तुंग तृतीय तथा उसके पुत्र राजराज प्रथम को पराजित किया और उरैयूर तथा तंजोर को जलाकर चोल साम्राज्य के कुछ प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। इसके बाद इसने मुंडिकोंड शोलपुरम् में स्थित चोलों के सहस्त्रस्तंभीय भवन में अपना वीराभिषेक करवाया और ‘शोणाडुवलगियरुलिय’ की उपाधि धारण की। पराजित चोल शासक कुलोत्तुंग तृतीय ने होयसल शासक बल्लाल तृतीय से सहायता माँगी। फलतः बल्लाल ने चोलों की सहायता के लिए अपने पुत्र नरसिंह द्वितीय के नेतृत्व में एक सेना भेजी। संभवतः चोलों और होयसलों की संयुक्त सेना ने पांड्यों को पराजित कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप मारवर्मन् सुंदरपांड्य ने चोलों के अधिकृत क्षेत्रों को वापस कर दिया। अब चोल पांडयों के अधीन सामंत के रूपमें शासन करने लगे। इसके बाद, मारवर्मन् सुंदरपांड्य ने पुदुकोट्टे में अपना सैनिक शिविर लगाया और कोंगु प्रदेश के शासक को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया।

चोलों से पुनः संघर्ष

कुलोतुंग के बाद चोल राजराज तृतीय ने न केवल पांड्यों से की गई संधि को तोड़ दिया और वार्षिक देना बंद कर दिया, बल्कि पांड्य राज्य पर आक्रमण भी कर दिया। मारवर्मन् सुंदरपांड्य ने राजराज तृतीय को पराजित कर चोल राज्य में लूटपाट की। पराजित राजराज तृतीय को उसके एक सेनापति कोप्पेरुजिंग ने बंदी बना लिया। चोलों पर पांडयों ने यह आक्रमण 1223 से 1235 ई. के बीच किसी समय किया होगा। चोल शासकों की अपील पर होयसल शासक नरसिंह द्वितीय ने न केवल राजराज तृतीय को कोप्पेरुजिंग से मुक्त कराया, बल्कि कावेरी नदी के तट पर महेंद्रमंगलम् के युद्ध में पांडृयों को पराजित कर उसे चोल राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दिया। बाद में, पांड्यों, चोलों और होयसलों के बीच संधि हो गई और उनमें आपस में वैवाहिक संबंध स्थापित हुए। मारवर्मन् सुंदरपांड्य ने अपना विवाह होयसल शासक सोमेश्वर की बहन के साथ किया। मारवर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम तथा राजराज तृतीय दोनों के उत्तराधिकारियों ने सोमेश्वर को ‘मामडि’ कहा है।

कहा जाता है कि 1223 ई. के आसपास उड़ीसा की एक सेना ने चोल राज्य पर आक्रमण किया, किंतु मारवर्मन् सुंदर पांड्य ने 1225 ई. में उन्हें चोल राज्य से बहिष्कृत कर दिया। यद्यपि मारवर्मन् सुंदरपांड्य को चोलों के विरुद्ध सफलता नहीं मिली और उसका चोल प्रदेशों पर आधिपत्य स्थापित करने का सपना पूरा नहीं हुआ, फिर भी उसने पांड्य साम्राज्य को पूर्णतया स्थिरता प्रदान की। उसके लेख तिरुचिरापल्ली, तंजोर, पुटुकोट्टे, मदुरा तथा तिरुनेल्वेलि से मिले हैं, जिससे स्पष्ट है कि इन क्षेत्रों पर उसका अधिकार था।

अपनी सफलताओं के उपलक्ष्य में मारवर्मन् सुंदर पांड्य ने अतिशयपांड्यदेव, कलियुगदाम तथा शोणाकोंडन की उपाधियाँ धारण की थी। इसके शासनकाल में ही तिरुत्तंगाल के विष्णु पेरुमाल मंदिर के गर्भगृह, अर्धमंडप और महामंडप निर्मित किये गये थे। ‘कलियुगराम’ तथा ‘कच्चिवलंगुमपेरुमाल’ उपाधि वाले कुछ ताँबे के सिक्के भी मिले हैं, जिन्हें मारवर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम का बताया जाता है। सुंदरपांड्य ने लगभग 1238 ई. तक शासन किया था।

जटावर्मन् कुलशेखर द्वितीय (1238 ई.)

मारवर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम के बाद संभवत: जटावर्मन् कुलशेखर द्वितीय ने कुछ समय तक शासन किया। किंतु इसके संबंध में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि जटावर्मन् कुलशेखर की मृत्यु मारवर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम के समय में ही हो गई थी। उसकी मृत्यु के बाद सुंदरपांड्य प्रथम ने सुंदरपांड्य द्वितीय को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया होगा।

मारवर्मन् सुंदरपांड्य द्वितीय (1238-1251 ई.)

जटावर्मन् कुलशेखर की मृत्यु के बाद उसका उत्तराधिकारी मारवर्मन् सुंदरपांड्य द्वितीय 1238 ई. में पांड्य राज्य की गद्दी पर बैठा, जो दुर्बल और भीरु शासक था। इसके तेरह वर्षों (1238-1251 ई.) के शासनकाल में पांड्य राज्य में अशांति एवं असफलता फैली रही। इसकी दुर्बलता का लाभ उठाकर राजेंद्रचोल तृतीय ने पुनः पांड्यों को चोलों की अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। राजेंद्र तृतीय के एक लेख में उसे ‘पांड्यमणिमुकुटसिरमंडनपडित’ और त्रिपुरांत से मिले एक दूसरे लेख में ‘इरुवरपांडमुडित्तलैकोंडरुलिन’ की उपाधि प्रदान की गई है। स्रोतों से पता चलता है कि राजेंद्र तृतीय ने दो पांड्यों को पराजित किया था! यद्यपि पांड्य शासकों की विस्तृत सूचना नहीं मिलती है, किंतु दोनों पांड्य शासकों में एक मारवर्मन् सुंदरपांड्य द्वितीय रहा होगा। इस प्रकार चोल पांड्यों को पराजित करने में सफल हुए थे। संभवतः होयसलों ने भी पांड्यों के क्षेत्रों को छीन लिया था, क्योंकि 1250 ई. के आसपास होयसलों का एक उच्च सैन्याधिकारी पांड्य राज्य के तिरुनेल्वेलि में उपस्थित था। मारवर्मन् सुंदरपांड्य ने लगभग 1251 ई. तक राज्य किया। इसके बाद जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम पांड्य राजगद्दी पर बैठा।

जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम (1251-1268 ई.)

जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम (1251-1268 ई.) अपने वंश का योग्य एवं महान् शासक सिद्ध हुआ, जिसके पांड्य शक्ति का पुनः उत्थान हुआ। इस शक्तिशाली नरेश ने चेरों, होयसलों तथा चोलों की शक्ति का विनाश किया और उत्तरी सिंहल तक अपनी विजय-पताका फहराई। इसने काँची पर अधिकार कर लिया और काकतीय नरेश गणपति को भी पराजित किया। इसने चोल तथा कोंगू दोनों राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया और मैसूर के अतिरिक्त संपूर्ण दक्षिणी भारत पर शासन किया। विजित प्रदेशों से उसे अतुल संपत्ति मिली, जिससे उसने श्रीरंगम् और चिदंबरम् के मंदिरों का विवर्धन किया।

जटावर्मन् सुंदर पांड्य प्रथम ने अपने शासनकाल में ही अपने पुत्र मारवर्मन् कुलशेखर प्रथम को युवराज नियुक्त कर दिया था, जो उसके शासन संचालन में सक्रिय सहयोग करता रहा। जटावर्मन् सुंदर पांड्य प्रथम के संबंध में विस्तार से जानने के लिए पढें-

मारवर्मन् कुलशेखर (1270-1310 ई.)

जटावर्मन् सुंदरपांड्य के बाद मारवर्मन् कुलशेखर (1268-1310 ई.) राजा बना। उसने होयसल नरेश रामनाथ और राजेंद्र चोल तृतीय दोनों को 1279 ई. में पराजित किया। इस प्रकार कुलशेखर चोल प्रदेश और रामनाथ द्वारा शासित होयसल के तमिल जिलों का एकछत्र शासक बन गया। उसने केरल में एक विद्रोह का दमन किया। यही नहीं, कुलशेखर ने अपने मंत्री आर्यचक्रवर्ती के नेतृत्व में एक सेना सिंहल देश पर आक्रमण करने के लिए भेजी, जिसने वहाँ के शासक धुवनायकबाहु को पराजित किया। इसके बाद बीस वर्षों तक सिंहल पांड्य राज्य का एक अधीनस्थ प्रांत बना रहा।

कुलशेखर के शासनकाल तक पांड्य राज्य अक्षुण्ण बना रहा। इसका शासनकाल आर्थिक दृष्टि से समृद्धि का काल था। इसके समय (1293 ई.) में वेनिस के प्रसिद्ध यात्री मार्कोपोलो ने पांड्य देश की यात्रा की थी और उसने कुलशेखर के सुशासन और राज्य की समृद्धि की प्रशंसा की है। मार्कोपोलो के अनुसार पांड्य राज्य में अच्छी किस्म के मोती और जवाहरात मिलते थे। यहाँ के शासक के पास एक भरा पूरा खजाना और बड़ी सेना थी। यहाँ का व्यापार-वाणिज्य विकसित था और राज्य की ओर से विदेशी व्यापारियों तथा यात्रियों को काफी सुविधाएँ दी जाती थीं। इस राज्य का कैल (कायल) नगर ऐश्वर्य एवं वैभव से परिपूर्ण था। मारवर्मन् कुलशेखर प्रथम के संबंध में विस्तार से जानने के लिए पढें-

उत्तराधिकार का युद्ध और पांड्य साम्राज्य का विघटन

मुस्लिम इतिहासकार वस्सफ के अनुसार सुंदर पंडी (जटावर्मन् सुंदरपांड्य तृतीय) कुलशेखर का ज्येष्ठ तथा औरस पुत्र था और तिरापडी (वीरपांड्य) उसकी उपपत्नी से उत्पन्न हुआ था। कुलशेखर का झुकाव वीरपांड्य की ओर अधिक था और वह उसी को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। इसीलिए उसने वीरपांड्य को 1295-96 ई. में ही प्रशासन से संबद्ध कर लिया था, जबकि जटावर्मन् सुंदर तृतीय को यह दायित्व 1303 ई. में दिया गया। पिता के इस पक्षपातपूर्ण रवैये से असंतुष्ट सुंदरपांड्य तृतीय ने 1310 ई. में अपने पिता की हत्या कर दी और राजगद्दी पर अधिकार कर लिया।

कुलशेखर की हत्या से असंतुष्ट कुछ अधिकारी और सामंत सुंदरपांड्य तृतीय के विरुद्ध होकर वीरपांड्य का साथ देने लगे। इस प्रकार दोनों भाइयों के बीच गद्द़ी के लिए युद्ध छिड़ गया। पहली लड़ाई तलची नामक स्थान में हुई, किंतु कोई निर्णय नहीं हो सका। कुछ दिनों बाद वीरपांड्य ने एक दूसरे युद्ध में सुंदरपांड्य तृतीय को पराजित कर दिया। इस प्रकार कुलशेखर के दुखद अंत के बाद वीरपांड्य तृतीय पांड्य राजगद्दी पर बैठा।

किंतु जटावर्मन् सुंदरपांड्य तृतीय अपनी पराजय को सहन नहीं कर सका और उसने राजगद्दी प्राप्त करने के लिए दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी से सहायता माँगी। सुल्तान अलाउद्दीन ने 1310 ई. में अपने सेनापति मलिक काफूर को पांड्य राज्य पर आक्रमण करने को भेजा। आक्रमणकारियों ने मदुरा नगर को लूटकर ध्वस्त कर दिया और मलिक काफूर भारी संपत्ति लेकर दिल्ली लौट गया। इसके बाद पांड्य राज्य की स्थिति कमजोर हो गई।

चौदहवीं शती के प्रारंभ में केरल के राजा रविवर्मन् ने वीरपांड्य तथा सुंदरपांड्य दोनों को पराजित किया। तुगलक शासन में भी पांड्य राज्य पर तुर्कों ने आक्रमण किये और लूटपाट की। कुछ समय के लिए इसे दिल्ली सल्लनत का अंग बना लिया गया। इस प्रकार क्रमशः पांड्य राज्य का पतन हो गया।

कुछ इतिहासकारों का विचार है कि अलाउद्दीन खिलजी ने सुंदर पांड्य के आग्रह पर ही पांड्य राज्य पर आक्रमण करने के लिए काफूर को दक्षिण भेजा था। किंतु ए.के. मजूमदार जैसे इतिहासकार मानते हैं कि पांड्य शासक दिल्ली नहीं गया था, बल्कि उस समय काफूर स्वयं दक्षिण में विद्यमान था और सुंदरपांड्य ने वहीं उससे भेंट की थी। जो भी हो, 1310 ई. में मलिक काफूर के नेतृत्व में दिल्ली सल्तनत की सेना दक्षिण पहुँच गई। मलिक काफूर के आने की सूचना पाते ही वीरपांड्य भाग गया। काफूर ने मदुरा पहुँच कर नगर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। फरिश्ता के अनुसार मलिक काफूर सेतुबंध रामेश्वर (सेतुबंध रामेश्वरम्) तक गया और वहाँ एक मंदिर तुड़वा कर उसके स्थान पर एक मस्जिद का निर्माण करवाया था। किंतु किसी अन्य मुस्लिम इतिहासकार ने इस घटना का उल्लेख नहीं किया है। फरिश्ता के अनुसार मारव (पांड्य) विजय के फलस्वरूप मलिक काफूर को 512 हाथी, 5,000 घोड़े तथा 500 मिले थे। वास्तव में मलिक काफूर का पांड्य राज्य पर आक्रमण एक धावा मात्र था, जिसका उद्देश्य केवल लूटपाट ही था।

मलिक काफूर के दिल्ली लौटने के बाद भी दोनों भाइयों में उत्तराधिकार का युद्ध चलता रहा। वीर पांड्य ने सुंदरपांड्य के कुछ प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। पांड्य राज्य की आंतरिक दुर्व्यवस्था का लाभ उठाकर केरल के शासक रविवर्मन् कुलशेखर ने पांड्य राज्य पर आक्रमण कर दिया, जिसमें वीरपांड्य और सुंदरपांड्य दोनों पराजित हुए। वीरपांड्य ने भागकर कोंकण की वनस्थली में शरण ली और सुंदरपांड्य ने काकतीय शासक गणपति प्रतापरुद्र के यहाँ।

रविवर्मन् ने 1312-13 ई. में वेगवती नदी के तट पर अपना अभिषेक किया। सुंदरपांड्य के आग्रह पर काकतीय शासक गणपति प्रतापरुद्र ने नेल्लोर मुम्पिदि नायक के नेतृत्व में 1317 ई. में एक बड़ी सेना उसकी सहायता के लिए भेजी, जिसने केरल के शासक रविवर्मन् कुलशेखर और वीरपांड्य दोनों को पराजित किया। इसके बाद, काकतीय सेनापति ने वीर धवलपतनम् में सुंदरपांड्य तृतीय का पांड्य राजगद्दी पर अभिषेक किया।

अलाउद्दीन खिलजी के पुत्र एवं उत्तराधिकारी

कुतबुद्दीन मुबारक खिलजी ने 1318 ई. में खुसरो खाँ के नेतृत्व में पांड्यों के विरुद्ध पुनः एक सेना भेजी, किंतु मुस्लिम आक्रमणकारी के पहुँचने के पहले ही दोनों पांड्य अपनी संपत्ति और परिवार के साथ भाग गये।

इसके बाद, 1319 ई. के बाद से सुंदरपांड्य के संबंध में कोई सूचना नहीं है। बाद में, वीरपांड्य ने उदय मार्तंडवर्मन् तथा संभवतः होयसल शासक वीरबल्लाल के साथ संधि कर रविवर्मन् कुलशेखर को पराजित कर अपने राज्य के उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया था।

तुगलक वंश के शासनकाल में भी पांड्यों को विदेशी आक्रमणों का सामना करना पड़ा। गयासुद्दीन तुगलक के आदेश पर 1323 ई. में उसके पुत्र उलुग खाँ ने पुनः माबर पर आक्रमण किया। तुगलक सेना ने माबर पर विजय प्राप्त की और पांड्य शासक पराक्रमपांड्य को बंदी बना लिया। इस प्रकार माबर दिल्ली सल्तनत का अंग बन गया।

किंतु तुगलक अधिक दिनों तक पांड्य राज्य पर अधिकार कायम न रख सके। 1334 ई. में उसके एक सूबेदार जलालुद्दीन बहमनशाह ने तुगलकों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और मदुरा में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया।

मदुरा खोने के बावजूद अनेक पांड्य शासक चौदहवीं शती इस्वी के मध्यकाल से लेकर सत्रहवीं शती ईस्वी तक इसके आसपास के क्षेत्रों पर शासन करते रहे, जिनमें जटावर्मन् पराक्रमपांड्य (1315 ई. से 1347 ई.) के लेख तिन्नेवल्ली, मदुरा, रामनाथ तथा तंजोर और पुडुकोट्टै से मिले हैं। मारवर्मन् कुलशेखर (1315 ई. से 1346 ई. तक) का साम्राज्य तिन्नेवल्ली से तंजोर तक विस्तृत था, जबकि मारवर्मन् पराक्रमपांड्य (1335-1352 ई.) के लेख रामनाथ, तंजोर, दक्षिण अर्काट तथा चिगलेपुत से मिले हैं। इसके अलावा, मारवर्मन् वीरपांड्य (1334-1380 ई. तक), जटावर्मन् पराक्रमपांड्य (1367-1387 ई. तक), पराक्रमपांड्य द्वितीय (1984-1317 ई.), जटावर्मन् कुलशेखर (1395-1411 ई.), अरिशर पराक्रम, मारवर्मन् वीरपांड्य, मारवर्मन् सुंदरपांड्य (1521-1555 ई.) आदि के नाम मिलते हैं। किंतु इन शासकों के विषय में कोई विशेष सूचना नहीं है। सत्रहवीं शती ईस्वी के मध्य तक मदुरा विजयनगर साम्राज्य के अधीन रहा।

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