कुलोत्तुंग चोल प्रथम (Kulottunga Chola I, 1070-1122 AD)

कुलोत्तुंग चोल प्रथम (1070-1122 ई.)

कुलोत्तुग (कुलोथुंग) प्रथम के सिंहासनारोहण से चोल इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात हुआ। कलिंगत्तुप्परणि में कहा गया है कि वीरराजेंद्र ने कुलोत्तुंग को अपना युवराज तथा उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। संभवतः चोल देश में उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर कुलोत्तुंग प्रथम ने चोल राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। इसके बाद का चोल इतिहास ‘चोल-चालुक्यवंशीय इतिहास’ के नाम से जाना जाता है।

कुलोत्तुंग का जन्म 1025 ई. के आसपास पुष्य नक्षत्र में हुआ था। उसके बचपन का नाम राजेंद्र (द्वितीय) था। उसकी माता अमंगादेवी चोल राजेंद्र प्रथम की पुत्री थी और इसका पिता पूर्वी चालुक्य राजा राजराज नरेंद्र प्रथम (1019-1061 ई.) था, जो स्वयं चोल राजेंद्र प्रथम की बहन और राजराज प्रथम की पुत्री कुंदवैदेवी से उत्पन्न हुआ था। इस प्रकार कुलोत्तुंग अपनी माता की ओर से चोल वंश से और अपने पिता की ओर से पूर्वी चालुक्य वंश से संबंधित था। कलिंगत्तुंपरणि के अवतारम् (अवतार) सर्ग में कुलोत्तुंग के जन्म को ‘भगवान विष्णु के अवतार’ के रूप में वर्णित किया गया है। उसका विवाह चोल राजकुमारी मधुरांतका से हुआ था, जो वीरराजेंद्र चोल की भतीजी थी।

तमिल कविता कलिंगत्तुंपरणि के अनुसार कुलोत्तुंग का पालन-पोषण गंगैकोंडचोलपुरम् में राजेंद्रचोल प्रथम के दरबार में हुआ था। अपनी युवावस्था के दौरान चोल राजकुमार के रूप में उसने राजेंद्रचोल प्रथम और उसके दो उत्तराधिकारियों- राजाधिराज प्रथम एवं राजेंद्रचोल द्वितीय के साथ कई युद्धों में भाग लिया था। इस दौरान कुलोत्तुंग ने सक्करकोट्टम् और वैयरागरम् के आसपास के क्षेत्रों में सैन्य-अभियानों में सफलता प्राप्त की। सक्करकोट्टम् की पहचान वर्तमान बस्तर-कालाहांडी जिले (चक्रकोट) से की जाती है। इसी दौरान ‘राजाओं के राजा’ वीरराजेंद्र की मृत्यु हो गई और कुलोत्तुंग ने दक्षिण में चोल राजधानी की ओर प्रस्थान किया।

कलिंगत्तुंपरणि में कहा गया है कि वीरराजेंद्र ने कुलोत्तुंग को अपना युवराज तथा उत्तराधिकारी नियुक्त किया था, किंतु ऐसा कोई प्रमाण संप्रति उपलब्ध नहीं है। चेल्लुर और पीठापुरम् लेखों के अनुसार कुलोत्तुंग को पहले वेंगी के सिंहासन पर बैठाया गया। बाद में, उसका चोल राज्य में राजा के रूप में राज्याभिषेक किया गया। लेख से पता चलता है कि उसने वेंगी को अपने चाचा (विजयादित्य सप्तम) के पास छोड़ दिया था क्योंकि वह स्वयं चोल साम्राज्य का शासक बनना चाहता था। विक्रमांकदेवचरित से पता चलता है कि वीरराजेंद्र की मृत्यु के बाद चोल साम्राज्य में कुछ भ्रम के कारण कुलोत्तुंग को वेंगी से हटा दिया गया था। इसके पूर्व, वीरराजेंद्र चोल के समय में भी, विक्रमादित्य षष्ठ और पूर्वी गंगनरेश राजराज देवेंद्रवर्मन दोनों ने वेंगी साम्राज्य के लिए कुलोत्तुंग के चाचा विजयादित्य का समर्थन किया था और इस प्रकार उसे पैतृक राज्य से वंचित कर दिया गया था।

बिल्हण के विक्रमांकदेवचरित और विक्रमनचोलन उला के अनुसार वीरराजेंद्र चोल और कुलोत्तुंग प्रथम के बीच अधिराजेंद्र ने चोल राजसत्ता प्राप्त की थी। बिल्हण के अनुसार विक्रमादित्य षष्ठ ने कुलोत्तुंग को चोल सिंहासन से वंचित करने करने के लिए अपने बहनोई अधिराजेंद्र को चोल सिंहासन पर प्रतिष्ठिापित किया था। संभवतः अधिराजेंद्र परकेशरि के शासनकाल में चोल राज्य में विद्रोह और अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई थी, जिसका लाभ उठाकर कुलोत्तुंग प्रथम चोल सिंहासन पर अधिकार करने में सफल हो गया।

नीलकंठ शास्त्री का अनुमान है कि राजेंद्र (द्वितीय) ने नागवंशीय शासक धारावर्ष से मिलकर सक्करकोट्टम् और वैयरागरम् के आसपास के क्षेत्रों में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया था। पुगल-शुल्द पुणरकि से शुरू होने वाली प्रशस्ति में उसे कुंतल के राजा की सेना को पराजित करने का श्रेय दिया गया है। कुंतल का शासक संभवतः पश्चिमी चालुक्य शासक था और यह युद्ध बस्तर क्षेत्र में हुआ था। इस विजय के बाद राजेंद्र (द्वितीय) अर्थात् कुलोत्तुंग प्रथम ने ‘विरुदराजभयंकर’ की उपाधि धारण की थी। इस प्रकार कुलोत्तुंग वेंगी के उत्तर में एक छोटी-सा राज्य बनाने में सफल रहा था, क्योंकि कुलोत्तुंग का दावा है कि उसने धीरे-धीरे उगते सूरज की भूमि में रहने वाली पृथ्वी की देवी को उठाया और उसे भगवान विष्णु की तरह अपने छत्र की छाया में रख लिया, जिन्होंने अपने वराह अवतार में पृथ्वी को उठा लिया था। यह घटना संभवतः 1067 ई. के आसपास की है।

सिंहासनारोहण के बाद राजेंद्र द्वितीय 1070 ई. में कुलोत्तुंग (प्रथम) के नाम से चोल सिंहासन पर बैठा। उसने अपने पैतृक राज्य वेंगी से विजयादित्य (सप्तम) को निकाल बाहर किया और अपने पुत्रों को वहाँ का शासक बनाया। इस प्रकार शताब्दियों से जो वेंगी स्पष्ट रूप से चोलों के अधीन था, अब अपने ही शासक द्वारा शासित चोल साम्राज्य का अभिन्न अंग बन गया।

कुलोत्तुंग प्रथम की उपलब्धियाँ

पश्चिमी चालुक्य-चोल प्रतिद्वंद्विता

 कुलोत्तुंग के पहले पश्चिमी चालुक्यों ने चोलों के साथ कई बार संघर्ष किया और उन्हें प्रत्येक बार चोलों से पराजित होकर भारी नुकसान उठाना पड़ा था। अधिराजेंद्र के समय चोल राज्य में व्याप्त जन-विद्रोहों के कारण चोलों की शक्ति क्षीण होने लगी थी। 1070 ई. में कुलोत्तुंग ने अपने सिंहासनारोहण के समय ही समझ लिया था कि पश्चिमी चालुक्यों के साथ उसका संघर्ष आवश्य होगा क्योंकि विक्रमादित्य षष्ठ कभी भी कुलोत्तुंग को चोल शासक स्वीकार नहीं कर सकता। इस क्रम में कुलोत्तुंग प्रथम ने विक्रमादित्य षष्ठ के भाई सोमेश्वर द्वितीय से पहले ही मैत्री-संबंध स्थापित कर लिया था।

चोल लेखों से पता चलता है कि 1075-76 ई. के आसपास विक्रमादित्य षष्ठ की चालुक्य सेना ने देवगिरि के यादवों, कदंब जयकेणि, होयसल एरयंग तथा त्रिभुवनमल्ल पांड्य के सहयोग से चोल प्रदेशों पर आक्रमण किया। चोल लेखों के अनुसार चालुक्य शासक चोल राज्य की ओर बढ़ते हुए कोलार तक पहुँच गया, जहाँ चोलों से उसकी मुठभेड़ हुई, जिसे ‘नांगिली प्रकरण’ के नाम से जाना जाता है।

इसके बाद, अगले युद्ध में चोल सेना ने विक्रमादित्य षष्ठ को पराजित कर तुंगभद्रा नदी तक खदेड़ दिया। कुलोत्तुंग ने गंगमंडलम् (पश्चिमी गंगों का क्षेत्र) तथा शिंगणम् (विक्रमादित्य षष्ठ के छोटे भाई जयसिंह का क्षेत्र) पर अधिकार कर लिया और लूट में उसे बहुत-सी संपत्ति तथा हाथी मिले। कुलोत्तुंग ने दावा किया है कि इस युद्ध के अंत में उसने विक्रमादित्य षष्ठ का घमंड तोड़ दिया और विक्कलन (विक्रमादित्य षष्ठ) और सिंगानन (जयसिंह) के पास पश्चिमी महासागर में डुबकी लगाने के अलावा पीछे हटने की कोई जगह नहीं थी। कुलोत्तुंग के कुछ अन्य अभिलेखों में भी कहा गया है कि विक्रमादित्य षष्ठ अपने क्षेत्र (तुंगभद्रा के उत्तर) में वापस भाग गया और उसका घमंड टूट गया। इन विजयों के फलस्वरूप कुलोत्तुंग प्रथम का दक्षिण पूर्वी तुंगभद्रा प्रदेश तथा मैसूर के कुछ क्षेत्रों पर अधिकार हो गया। यह घटना 1070 ई. से 1076 ई. के बीच की मानी जा सकती है।

कुलोत्तुंग प्रथम और वेंगी

राजराज चोल प्रथम के समय से ही वेंगी का राज्य चोलों, कल्याणी के पश्चिमी चालुक्यों और पूर्वी गंगों के बीच विवाद का कारण था। कुलोत्तुंग की दक्षिण में व्यस्तता का लाभ उठाकर त्रिपुरी के कलचुरि शासक यक्षकर्ण ने 1072-73 ई. में वेंगी पर आक्रमण किया। संभवतः यह आक्रमण क्षेत्रीय लाभ के लिए नहीं, बल्कि धन के लिए किया गया था। कलचुरि शासक ने अपने 1072-73 ई. वाले लेखों में दावा किया है कि उसने आंध्र के शक्तिशाली शासक को पराजित किया था। संभवतः यह शासक विजयादित्य सप्तम था। कुलोत्तुंग प्रथम ने 1075 ई. के आसपास कलचुरि नरेश यक्षकर्णदेव को खदेड़कर वेंगी पर पुनः अधिकार कर लिया और इस प्रकार वेंगी पर कलचुरियों का प्रभाव स्थापित नहीं हो सका।

विजयादित्य सप्तम की मृत्यु के बाद 1077 ई. में कुलोत्तुंग ने वेंगी प्रांत को सीधे अपने नियंत्रण में ले लिया और अपने पुत्रों को इस पर शासन करने के लिए नियुक्त किया। पहले कुलोत्तुंग ने अपने ज्येष्ठ पुत्र राजराज चोडगंग को वायसराय नियुक्त किया, किंतु लेखों से पता चलता है कि वह एक वर्ष के भीतर ही चोल राज्य वापस आ गया था। वीरचोल के चेल्लुर लेख के अनुसार राजराज चोडगंग के बाद उसके भाई वीरचोल को जगन्नाथ में ताज पहनाया गया था। वीरचोल ने 1084 ई. तक वेंगी पर तक शासन किया। इसके बाद, उसके भाई विक्रमचोल ने वेंगी का शासन संभाला और 1118 ई. में चोल राज्य का उत्तराधिकारी बनने तक इस क्षेत्र पर शासन किया।

किंतु 1202 ई. के मल्लपदेव के पीठापुरम् स्तंभ शिलालेख से पता चलता है कि कुलोत्तुंग ने जब विक्रमचोल को राज्याभिषेक के लिए चोल राजधानी में बुलाया, तो वेंगी शासकविहीन हो गया और विक्रमादित्य षष्ठ ने वेंगी पर अधिकार कर लिया। सिंहासनारूढ़ होने के बाद विक्रमचोल ने पुनः वेंगी को अधिकृत कर चोल साम्राज्य में मिला लिया।

पांड्यों के विरूद्ध अभियान

विक्रमादित्य षष्ठ से निपटने के बाद कुलोत्तुंग ने पांड्यों के राज्य प्राचीन पांडिमंडलम् को अधिकृत किया। वास्तव में, पांड्यों ने कभी चोल आधिपत्य को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया था और वे प्रायः चोल सम्राटों के लिए संकट खड़ा करते रहते थे।

चालुक्यों के साथ संघर्ष में कुलोत्तुंग की व्यस्तता का लाभ उठाकर पाँच पांड्यों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित करने का प्रयास किया। संभवतः केरल का चेर पेरुमल भी चोलों के विरूद्ध पांड्यों की सहायता कर रहा था। चालुक्यों से निपटते ही कुलोत्तुंग ने 1077-1081 ई. के बीच अपनी पूरी शक्ति पांड्य क्षेत्र में विद्रोहों के दमन में झोंक दी। चोलपुरम् शिलालेख (1100 ई.) के अनुसार चोलों ने एक विशाल सेना के साथ दक्षिण की ओर कूच किया, पांड्य देश पर विजय प्राप्त की और पाँच पांड्यों ने भागकर जंगलों में शरण ली । उसके पाँचवे वर्ष के अभिलेखों से पता चलता है कि पांड्य शासक का सिर भूमि पर पड़ा था और चीलें उसमें चोंच मार रहीं थीं। तिथिविहीन चिदंबरम् लेख से भी ज्ञात होता है कि कुलोत्तुंग ने पाँच पांड्य शासकों को पराजित किया और जिस प्रकार अर्जुन ने खांडववन जलाया था, उसी प्रकार कोट्टारु के दुर्ग को जलाया, केरल की सेनाओं को पराजित किया और समुद्रतट पर विजय-स्तंभ स्थापित किया।

केरल के विरूद्ध अभियान

केरल का चेर पेरुमल पांड्यों का मित्र था और अपने पड़ोसियों की तरह स्वतंत्र होना चाहता था। कुलोत्तुंग की व्यस्तता का लाभ उठाकर चेर पेरुमल ने भी विद्रोह कर दिया। अंततः कुलोत्तुंग ने 1097 ई. में केरल के विरूद्ध भी सैनिक अभियान किया। केरल में चोल आक्रमण का नेतृत्व चोल सेनापति नरलोकवीर कलिंगरायन ने किया और कंथालुर्चलै में अपने दुश्मन राजाओं दो बार हराकर क्विलोन के बंदरगाह पर अधिकार कर लिया। विक्रमचोलन उला से भी पता चलता है कि कुलोत्तुंग ने पांड्यों के राजकीय चिन्ह मत्स्य और चेरों के राजकीय चिन्ह धनुष को नष्ट कर दिया और शालै में नौसेना का दो बार विनाश किया था।

इस प्रकार कुलोत्तुंग का कोंगनम् और कर्नाटक की भूमि पर अधिकार हो गया और चोल प्रभाव की अंतिम दक्षिणी सीमा कोट्टार हो गई। इन विवरणों की पुष्टि कलिंगत्तुंपरणि से भी होती है। संभवतः चेर पेरुमल ने इसके तुरंत बाद भी क्विलोन बंदरगाह को पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया था, किंतु उसे सफलता नहीं मिली।

कुलोत्तुंग ने विद्रोही दक्षिणी क्षेत्रों को 1100 ई. तक सफलतापूर्वक अपने अधीन कर लिया था। उसने राजराज प्रथम की भाँति चोल-पांड्य वायसराय की नियुक्ति की पुरानी व्यवस्था को खत्म कर दिया और उसके स्थान पर संचार मार्गों के किनारे अनेक सैनिक छावनियों को स्थापित किया। उसने इन सैनिक छावनियों का चोल नाम रखा, जो सुदृढ़ सैन्य-आधार के साथ-साथ वार्षिक कर वसूली के केंद्र भी थे। इस प्रकार कुलोत्तुंग प्रथम ने विजित क्षेत्रों के प्रमुखों और सामंतों के आंतरिक प्रशासन में कोई हस्तक्षेप नहीं किया। संभवतः यही कारण है कि इस प्रदेश से कुलोत्तुंग और उसके उत्तराधिकारियों के बहुत कम लेख मिले हैं।

श्रीलंका में विद्रोह

सिंहल में वीरराजेंद्र के समय से ही चोलों का प्रभाव घटने लगा था। महावंश के अनुसार पंद्रह वर्ष शासन करने तथा अपनी अवस्था के तैंतीसवें वर्ष अर्थात् 1073 ई. में विजयबाहु प्रथम ने अनुराधपुर में प्रवेश किया और दो वर्ष बाद वह संपूर्ण श्रीलंका के राजा के रूप में अभिषिक्त हुआ। संभवतः सिंहली राजा ने उस समय चोल सेना पर आक्रमण किया, जब कुलोत्तुंग अपने मुख्य राज्य में कई विद्रोहों और आक्रमणों से निपटने में व्यस्त था।

विजयबाहु ने 1070 ई. में रोहण जिले में चोल सेना पर आक्रमण करके पराजित कर दिया। कुलोत्तुंग ने विजयबाहु के विरूद्ध दो सेनाएँ भेजीं, किंतु विजयबाहु की सेना ने 1075-76 ई. के लगभग चोल सेना को पराजित कर दिया। इसके बाद, विजयबाहु ने अनुराधपुर में अपना अभिषेक किया और कुछ महीने बाद उसने पोलोन्नारुवा जाकर इसका नाम बदलकर ‘विजयराजपुर’ कर दिया, उसे अपनी राजधानी बनाया और स्वयं को सिंहल द्वीप का राजा घोषित कर दिया। विजयबाहु ने रोहण के पूर्व शासक जगतिपाल की पुत्री लीलावती से विवाह किया, जिसे कुलोत्तुंग के पूर्ववर्ती राजाधिराज प्रथम के सिंहल अभियान के दौरान उसकी मौसी या माता के साथ चोल सेना ने बंदी बना लिया था। जगतिपाल मूलतः अयोध्या का एक राजकुमार था, जो लंका जाकर रोहण का शासक बन गया था और चोल अभियान में मारा गया था।

अंततः कुलोत्तुंग ने सिंहली नरेश के साथ मैत्री-संबंध स्थापित किया और इस संबंध को मजबूत करने के लिए अपनी कन्या सुत्तमल्लियार का विवाह सिंहली राजकुमार वीरप्पेरुमाल के साथ कर दिया। इस प्रकार कुलोत्तुंग के शासनकाल में सिंहल (श्रीलंका) नरेश विजयबाहु ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर लिया।

कलिंग के विरुद्ध अभियान

कलिंग का राज्य में एक क्षेत्र नहीं, बल्कि तीन अलग-अलग क्षेत्र थे, जिसमें उत्कल या ओड्रा, कोसल या दक्षिणी कोसल और कलिंग सम्मिलित थे। इन तीनों क्षेत्रों को मिलाकर ‘त्रिकलिंग’ कहा जाता था। 11वीं शताब्दी में कलिंग राज्य पर पूर्वी गंगों का शासन था, जो वेंगी के अधीन थे और इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से चोलों के प्रभुत्व में थे।

कुलोत्तुंग के अभिलेखों में दो कलिंग युद्धों का वर्णन मिलता है। संभवतः इन युद्धों से पहले कुलोत्तुंग को पूर्वी गंग नरेश राजराजदेव ने पराजित किया और कुलोत्तुंग को अपनी पुत्री या बहन का विवाह राजराजदेव से करना पड़ा था।

कुलोत्तुंग ने कलिंग के विरूद्ध अपना पहला अभियान 1096 ई. के आसपास किया, क्योंकि कुलोत्तुंग ने अपने शासनकाल के 26वें वर्ष में कलिंग पर पहली बार विजय प्राप्त करने का दावा किया है। कुलोत्तुंग का यह पहला कलिंग अभियान वेंगी के विरूद्ध उसकी विस्तारवादी नीति के कारण हुआ था। ऐसा लगता है कि कलिंग ने कोलनु (एल्लोर) के शासक के साथ मिलकर वेंगी पर आक्रमण किया था। कुलोत्तुंग ने अपने पुत्र विक्रमचोल के नेतृत्व में कलिंग के विरूद्ध एक शक्तिशाली सेना भेजी, जिसने कलिंग और उसके सहयोगियों को पराजित कर दक्षिणी कलिंग पर अधिकार कर लिया। इसकी पुष्टि कुलोत्तुंग के 1098-99 ई. के सिंहाचलम् लेख से होती है। उसके कुछ अन्य चोल लेख द्राक्षाराम और उसके आसपास के क्षेत्रों से भी पाये गये हैं।

कुछ वर्षों बाद 1110 ई. के लगभग कुलोत्तुंग ने पुनः कलिंग के विरुद्ध अभियान किया। कलिंगत्तुंपरणि के अनुसार इस दूसरे अभियान का कारण यह था कि कलिंग शासक अनंतवर्मन ने कुलोत्तुंग को वार्षिक कर देना बंद कर दिया था। इस कलिंग अभियान का नेतृत्व चोल सेनापति करुणाकर तोंडैमान (सद् वैष्णव) ने किया। इस द्वितीय अभियान का विवरण अभिलेखों और कुलोत्तुंग के दरबारी कवि जयंगोंडार के कलिंगत्तुंपरणि में मिलता है। अभिलेखों में कहा गया है कि चोल सेनाओं ने वेंगी से आगे बढ़कर शत्रु की हाथियों की सेना को नष्ट कर कलिंगम् के शत्रुदेश में चारों ओर आग लगा दी; शक्तिशाली सेनापतियों को मौत के घाट उतार दिया; उनके सिर युद्धभूमि में लोटने लगे और उनमें चीलें चोंच मारने लगीं। अंत में, उसने सात कलिंगों को पराजित किया। कलिंग शासक अनंतवर्मन् चोडगंग पराजित होकर भाग गया। कहा जाता है कि चोल सेना इस अभियान से बड़ी लूट के साथ लौटी थी। इसकी पुष्टि कुलोत्तुंग के शासन के 33वें वर्ष के द्राक्षराम के भीमेश्वर मंदिरलेख से भी होती है। लेख से पता चलता है कि कुलोत्तुंग के सेनापति करुणाकर तोंडैमान ने गंग देवेंद्रवर्मन को पराजित कर पूरे कलिंग को नष्ट कर दिया और अपने शासक की ओर से ओड्रा में एक विजय-स्तंभ स्थापित किया था।

कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि कुलोत्तुंग ने उत्तरी कलिंग के विद्रोहियों के विरूद्ध अपने संबंधी अनंतवर्मन् की मदद करने के लिए यह अभियान किया था। कुछ विद्वानों के अनुसार देवेंद्रवर्मन् ने कुलोत्तुंग के संबंधी अनंतवर्मन् का विरोध किया था क्योंकि गोदावरी जिले के भीमेश्वर मंदिर से प्राप्त कुलोत्तुंग के एक शिलालेख के अनुसार अनंतवर्मनदेव के पुत्र ने कुलोत्तुंग को एक उपहार दिया था। एक संभावना यह भी है कि अनंतवर्मनदेव का पुत्र कुलोत्तुंग का सामंत या उसका मित्र रहा हो। जो भी हो, कुलोत्तुंग का दक्षिणी कलिंग के विरुद्ध अभियान पूरी तरह सफल रहा, किंतु उत्तरी कलिंग चोल आधिपत्य से बाहर रहा।

भारतीय एवं विदेशी राज्यों से संबंध

कुलोत्तुंग ही पहला चोल शासक था, जिसने उत्तरी भारत के गहड़वालों से राजनीतिक एवं सांस्कृतिक संबंध स्थापित किया। इसकी पुष्टि गंगैकोंडचोलपुरम् के मंदिर की दीवार पर उत्कीर्ण एक गहड़वाल प्रशस्ति से होती है, जो मदनपाल या गोविंदचंद्र से संबंधित है।

कुलोत्तुंग का उत्तर भारत के कन्नौज के साथ-साथ विदेशी राज्यों के साथ भी राजनयिक और व्यापारिक संबंध था। उसने कंबोडिया, श्रीविजय, खमेर, पेगन (बर्मा) और चीन जैसे दूर देशों के साथ भी राजनयिक और व्यापारिक संबंध स्थापित किये और आंध्र प्रदेश में विशाखापत्तनम् के प्रसिद्ध बंदरगाह का नाम बदलकर ‘कुलोत्तुंगकोलापट्टनम्’ कर दिया, जो उसकी व्यापारिक अभिरुचि का प्रमाण है।

चीन के सांग इतिवृत्त से ज्ञात होता है कि 1077 ई. में राजा ति-हुआ-कियालो ने 72 व्यापारियों का एक दूतमंडल चीनी सम्राट के दरबार में भेजा था। इस ति-हुआ-कियालो की पहचान चोल शासक कुलोत्तुंग प्रथम से की जाती है। चोल दूतमंडल अपने साथ अनेक व्यापारिक वस्तुओं को लेकर चीन गया था और उसके बदले में 81,000 से अधिक ताँबे के सिक्के और कई अन्य कीमती सामान लेकर वापस आया था। एक चीनी लेख के अनुसार कुलोत्तुंग प्रथम ने कैंटन के बौद्ध बिहार को 6,00,000 सुवर्ण मुद्राएँ भेंट की थी।

खमेर राजा और अंगकोरवाट के निर्माता सूर्यवर्मन द्वितीय ने 1114 ई में कुलोत्तुंग को एक कीमती पत्थर भेंट किया था। बर्मी इतिवृत्तों से पता चलता है कि पेगन (बर्मा) के शासक क्यान्जित्था ने एक राजदूत भेजकर चोल शासक से भेंट की थी और एक लेख में उसने सोने की पन्नी पर लिखे एक व्यक्तिगत पत्र के द्वारा चोल राजा को बौद्ध धर्म में परिवर्तित करने का दावा किया है। संभवतः यह चोल शासक कुलोत्तुंग ही था।

वीराराजेंद्र चोल के शासनकाल के 7वें वर्ष के लेख से पता चलता है कि कुलोत्तुंग ने वीरराजेंद्र की ओर से शैलेंद्र नरेश की सहायता की थी। 1079 ई. के एक मंदिर शिलालेख में ति-हुआ-कियालो को सैन-फो-त्सी (श्रीविजय) का शासक बताया गया है। इतिहासकारों ने ति-हुआ-कियालो की पहचान कुलोत्तुंग प्रथम से की है।

कलिंगत्तुंपरणि में भी कुलोत्तुंग की कडारम् विजय का वर्णन मिलता है। 1090 ई. के लेडन अनुदानपत्र में भी कडारम् (श्रीविजय) के राजा को कुलोत्तुंग का सामंत बताया गया है। लेख से पता चलता है कि 1089 ई. के लगभग श्रीविजय के शासक ने कुलोत्तुंग के दरबार में एक दूतमंडल भेजकर शोलकुल्लिपट्टिनम् (नागपट्टिनम्) के चूलमणि विहार के पुराने अनुदानों को नवीनीकृत करने का निवेदन किया था, जो राजराज प्रथम के समय श्रीविजय के शासक ने बनवाया गया।

साम्राज्य का विस्तार

कुलोत्तुंग के अधीन चोल साम्राज्य उसके 45वें शासन वर्ष (1115 ई.) तक दुर्जेय बना रहा। सिंहल को छोड़कर, शेष चोल साम्राज्य अक्षुण्ण बना रहा और चोलों तथा पश्चिमी चालुक्यों के बीच की सीमा तुंगभद्रा नदी बनी रही। किंतु कुलोत्तुंग के शासनकाल के अंतिम समय में उसके साम्राज्य के कुछ हिस्से निकल गये। इतिहासकारों के अनुसार इस क्रम में सबसे पहले गंगावाडि स्वतंत्र हुआ। इस समय होयसल राजवंश अपनी शक्ति के शिखर पर था। विक्रमादित्य षष्ठ और कुलोत्तुंग के बीच युद्ध में होयसल शासक विनयादित्य के पुत्र ने विक्रमादित्य की मदद की। होयसल विनयादित्य (1047-1100 ई.) चालुक्यों का सामंत था। होयसल विष्णुवर्धन ने कोंगु और कन्नड़ क्षेत्र के चोल सामंत आडिगैमान को पराजित कर गंगावाडि पर अधिकार कर लिया। एक शिलालेख में होयसल विष्णुवर्धन की उपाधि ‘तलकाडुगोंड’ मिलती है और उसे तलकाडु, कोलार एवं कोंगु का शासक बताया गया है। इस प्रकार गंगावाडि कुलोत्तुंग के अधिकार से निकलकर होयसलों के अधिकार में चला गया।

कुलोत्तुंग प्रथम को गंगावाडि के साथ-साथ वेंगी में भी नुकसान उठाना पड़ा और कम से कम वेंगी के आधे भाग पर चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ ने अधिकार कर लिया। 1202 ई. के मल्लपदेव के पीठापुरम् स्तंभ शिलालेख से पता चलता है कि कुलोत्तुंग ने 1118 ई. में अपने पुत्र विक्रमचोल को, जो वेंगी का वायसराय था, राज्याभिषेक के लिए वेंगी से दक्षिण बुला लिया। किंतु विक्रमचोल के वेंगी से हटते ही विक्रमादित्य षष्ठ ने उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया। द्राक्षाराम से कुलोत्तुंग के शासनकाल के उन्चासवें वर्ष ( 1118-19 ई.) तक के लेख मिलते हैं। इसके बाद विक्रमचोल के नवें वर्ष (1127 ई.) के पहले का कोई लेख इस क्षेत्र से नहीं मिलता। इसके विपरीत, 1118 ई. के कोम्मूरु लेख में विक्रमादित्य के दंडनायक अनंतपालय्य को वेंगी का शासक बताया गया है। 1120 ई. में अनंतपाल की पत्नी ने द्राक्षाराम में भीमेश्वर के मंदिर को दान दिया था। इससे स्पष्ट है कि 1118 ई. से 1127 ई. के बीच वेंगी पर चालुक्यों का अधिकार था। सिंहल पहले ही चोल आधिपत्य से मुक्त हो चुका था, अब गंगावाडि और वेंगी के अधिकांश भाग भी चोल साम्राज्य से निकल गये और इस प्रकार चोल साम्राज्य एक तमिल शक्ति मात्र रह गया।

प्रशासनिक उपलब्धियाँ

कुलोत्तुंग प्रथम की राजधानी गंगापुरी या गंगैकोंडचोलपुरम् थी। उसके लेखों के अनुसार काँची, आचिरत्तलि, तिरुमलुवाडि, मुडिकोंड शोल्लपुरम में भी राजकीय कार्यालय थे। उसने 1083 ई. में विशाखापत्तनम् का नाम बदलकर ‘कुलात्तुंगचोलपट्टनम्’ कर दिया था। कुलोत्तुंग ने देश की आर्थिक प्रगति की ओर विशेष ध्यान दिया और व्यापार के विकास में बाधक चुंगियों तथा तटकरों को समाप्त किया, जिसके कारण चोल लेखों में उसे ‘शुगमतविर्त’ (करों को हटाने वाला) कहा गया है।

राजराज प्रथम की तरह कुलोत्तुंग ने भी अपने शासन के सोलहवें तथा चालीसवें वर्ष में भूराजस्व निर्धारण के लिए बड़े पैमाने पर कृषिभूमि की पैमाइश करवाई और स्वर्ण मुद्राओं का प्रचलन करवाया। उसके सोने के कुछ सिक्कों पर उसकी उपाधि ‘कटैकोंडचोल’ और ‘मलैनडुकोंडचोलन’ मिलती है। कुलोत्तुंग ने दक्षिणी प्रदेशों में चोल-पांड्य वायसराय नियुक्त करने की पुरानी व्यवस्था को समाप्त कर सैन्य-शिविरों का निर्माण करवाया, जो राजस्व-संग्रहण केंद्र के साथ-साथ सैनिक आधार के रूप में भी कार्य करते थे।

कुलोत्तुंग प्रथम ने अपनी उपलब्धियों के अनुरूप राजकेशरि, कुलशेखर, पांड्यकुलांतक, विरुदराजभयंकर, अकलंक, जयधर, शुंगनदवित्तुउलगाड, परांतक, विक्रमचोल आदि उपाधियाँ धारण की थी। उसका अंतिम तिथियुक्त लेख उसके शासनकाल के बावनवें वर्ष का है, जिससे ज्ञात होता है कि उसने 1122 ई. तक शासन किया था।

धार्मिक नीति

कुलोत्तुंग प्रथम ने शैव और वैष्णव दोनों धर्मों को प्रोत्साहित किया। वह और उसका परिवार चिदंबरम् के नटराज मंदिर को दान देता रहता था। उसने चिदंबरम् के नटराज मंदिर का छह गुना विस्तार करवाया था, जबकि उसकी छोटी बहन राजराजन कुंडवै ने नटराज मंदिर को सोने का पात्र, एक दर्पण भेंट किया था और देवता के अभिषेक की व्यवस्था की थी।

कुलोत्तुंग ने बौद्ध धर्म जैसे अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णुता की नीति अपनाई और नागपट्टिनम् में बौद्ध मठ चुलमणि विहार को दिये गये अनुदानों को नवीनीकृत किया। मध्य भारत के गहड़वाल राजाओं के साथ कुलोत्तुंग के मित्रतापूर्ण संबंध थे, जो सूर्य की पूजा करते थे। गहड़वालों से प्रेरित होकर कुलोत्तुंग ने भी सूर्य को समर्पित कई मंदिरों का निर्माण करवाया, जिनमें पुदुक्कोट्टै और नागपट्टिनम् के सूर्यनार मंदिर विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।

कुछ इतिहासकारों का यह आरोप है कि कुलोत्तुंग प्रथम अपने प्रारंभिक और मध्य वर्षों में धर्मनिरपेक्ष था और अपने शासनकाल के अंत में शैवों के प्रभाव में वैष्णवों के प्रति असहिष्णु हो गया तथा उसने वैष्णव आचार्य रामानुज का उत्पीड़न किया था। किंतु रामानुज बारह साल के निर्वासन (चोल राजा की मृत्यु पर) के बाद ही होयसल विष्णुवर्धन के दरबार से चोल साम्राज्य में लौट आये थे, जबकि कुलोत्तुंग प्रथम ने 52 वर्षों तक शासन किया था। अभिलेखों से पता चलता है कि कुलोत्तुंग अपनी रानियों के साथ काँचीपुरम् के मंदिरों में दर्शन करने जाता था और विष्णु मंदिरों को भी दान देता था।

साहित्य एवं कला

अपने पूर्ववर्तियों की तरह, कुलोत्तुंग प्रथम कला और साहित्य का संरक्षक था। कहा जाता है कि तमिल कविता कलिंगत्तुंपरणि की रचना उसके दरबारी कवि जयंगोंडार ने की थी। कुछ विद्वान मानते हैं कि कवि कंबर भी कुलोत्तुंग प्रथम का समकालीन था और रामावतारम् की रचना उसके शासनकाल में ही हुई थी। इसी प्रकार कुछ विद्वान कुलोत्तुंगचोलन उला, विक्रमनचोलन उला और राजराजचोलन उला नाम के तीन उलाओं के लेखक ओट्टकूतर को भी कुलोत्तुंग का समकालीन मानते हैं, जबकि अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार ओट्टकूतर उसके उत्तराधिकारियों- विक्रम चोल, कुलोत्तुंग द्वितीय और राजराज द्वितीय का समकालीन था।

कुलोत्तुंग प्रथम के शासनकाल में मेलाकादंबुर में अमृतघाटेश्वर शिवमंदिर का निर्माण किया गया था। इसे ‘करक्किल’ कहा जाता है, और संभवतः पहियों के साथ रथ के आकार में निर्मित और घोड़ों द्वारा खींचा जाने वाला सबसे पहला मंदिर है। उसके शासनकाल में चोझापुरम्, जिसे अब तुंगापुरम् कहा जाता है, धार्मिक गतिविधियों का केंद्र था। इस नगर की सड़कें मदुरै (चौकोर आकार) की तरह हैं, इसलिए इसे सिरू (छोटा) मदुरै कहा जाता है। कुलोत्तुंग ने सिरु मदुरै में शिव के लिए सोक्कनाथर और विष्णु के लिए वरदराजा पेरुमल मंदिर का निर्माण करवाया था। इस प्रकार कुलोत्तुंग प्रथम के काल में साहित्य और कला के क्षेत्र में भी प्रगति हुई।

कुलोत्तुंग प्रथम को उसके सैनिक अभियानों और आंतरिक प्रशासन में अनेक योग्य अधिकारियों ने सहायता प्रदान की थी, जिनमें सेनापति नरलोकवीर, करुणाकर तोंडैमान के साथ-साथ सोलकोन, कन्नन, वनन या सुत्तमल्लन मुदिकोंडन, कदवरू वैलाव, अनंतपाल, इरुंगोवेल सरदार, अदावल्लन गंगैकोंडचोलन उर्फ इरुंगोलन आदि विशेष महत्त्वपूर्ण थे।

ताम्रलेखों के अनुसार कुलोत्तुंग प्रथम ने राजेंद्रदेव द्वितीय की पुत्री मधुरांतकी से विवाह किया था। उसकी अन्य रानियों में दिनचिंतामणि, त्यागवल्ली, एलीसै वल्लभी (एलुलगुदयाल), त्रैलोक्य महादेवी, कंपमादेवी (त्रिभुवन महादेवी), आदित्तन आंडुकुट्टियार (शोल कुलवाल्लियार) थीं। नागपट्टिनम् के बौद्ध चुलमणि विहार के लिए अनाममंगलम् के अनुदान को नवीनीकृत करने में शोल कुलवल्लियार का महत्त्वपूर्ण योगदान था। संभवतः उसने कडावन महादेवी नामक एक पल्लव राजकुमारी से भी विवाह किया था।

अभिलेखों में कुलोत्तुंग प्रथम के तीन पुत्रों- राजराज चोडगंग, वीरचोल और विक्रमचोल का उल्लेख मिलता है, जिनमें राजराज ज्येष्ठ था। एक लेख के अनुसार कुलोत्तुंग की छोटी बहन राजराजन कुंडवै ने अलवर के नटराज मंदिर को सोने का पात्र, एक दर्पण भेंट किया था और देवता के अभिषेक की व्यवस्था की थी। कुलोत्तुंग की पुत्री सुत्तमल्लियार का विवाह श्रीलंका के राजकुमार के साथ हुआ था।

कुलोत्तुंग प्रथम का मूल्यांकन

कुलोत्तुंग प्रथम की गणना चोल वंश के महान शासकों में की जाती है। उसके शासनकाल का अधिकाश भाग अद्भुत सफलता और समृद्धि का युग था। यद्यपि उसने अनावश्यक युद्ध न करने नीति अपनाई और यथासंभव युद्धों से बचने का प्रयास किया, फिर भी, श्रीलंका को छोड़कर चोल साम्राज्य के सारे प्रदेश 1115 ई. तक उसके अधीन बने रहे। उसको वीरराजेंद्र के दामाद कल्याणी के चालुक्य नरेश विक्रमादित्य (षष्ठ) से निरंतर संघर्ष करना पड़ा, जिसके कारण उसके शासन के अंतिम दिनों में सिंहल की तरह गंगावाडि और वेंगी भी स्वतंत्र हो गये और चोल साम्राज्य तमिल देश और कुछ तेलुगु क्षेत्रों में ही सिमट कर रह गया। किंतु इससे चोल साम्राज्य की समृद्धि और शांति पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। कुलोत्तुंग प्रथम का अंतिम तिथियुक्त लेख उसके शासनकाल के बावनवें वर्ष का है, इससे ज्ञात होता है कि उसने 1122 ई. तक शासन किया। कुलोत्तुंग प्रथम के बाद उसका चौथा पुत्र विक्रमचोल राजगद्दी पर आसीन हुआ, जिसे पुलिवेंदन कोलियार कुलपति उर्फ राजय्यार विक्रमचोलदेव के नाम से भी जाना जाता है।

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