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लॉर्ड रिपन (1880-1884)
लॉर्ड रिपन को भारत का सर्वाधिक लोकप्रिय वायसराय माना जाता है। उसकी उदरवादी शांतिपूर्ण नीति, स्वतंत्रता और स्वशासन में उसका विश्वास भारत में उसकी लोकप्रियता के कारण थे। उसने अपने सुधारों और नीतियों के द्वारा 1858 की घोषणा को सच्चे रूप में क्रियान्वित किया, भारत में स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को जन्म दिया, फैक्टरी ऐक्ट पारित करवाया और प्रजातीय भेदभाव को मिटाने तथा प्रशासन को न्यायोचित बनाने का प्रयत्न किया।
आरंभिक जीवन
जॉर्ज फ्रेडरिक सैमुअल रॉबिन्सन, प्रथम मार्कविस ऑफ रिपन का जन्म 24 अक्टूबर, 1827 को लंदन में हुआ था। उसने अपना जीवन ब्रूसेल्स दूतावास में एक सहायक अधिकारी के रूप में शुरू किया था। वह 1852 में उदारवादी दल की ओर से हाउस ऑफ़ कॉमन्स में चुना गया और 1859 में भारत के लिए अनुसचिव नियुक्त हुआ। 1861 से 1863 तक उसने फिर इसी पद पर कार्य किया और फिर 1866 से 1868 तक वह भारत सचिव के रूप में कार्य करता रहा। 1874 में वह रोमन कैथोलिक बन गया। रिपन 1868 से 1874 तक ग्लैडस्टन के मंत्रिमंडल का सदस्य रहा और उसने आयरिश चर्च, एजूकेशन अधिनियम, गुप्त मतदान अधिनियम जैसे महत्वपूर्ण कानून बनाने में मदद की। लॉर्ड रिपन को 1880 में भारत का वायसराय नियुक्त किया गया।
भारत के वायसराय के रूप में रिपन की नियुक्ति इंग्लैंड में सत्ता परिवर्तन का परिणाम था। 1880 के आम चुनावों में इंग्लैंड में डिजरायली की कंजरवेटिव पार्टी की पराजय हुई और ग्लैडस्टन का उदारवादी दल सत्ता में आया। ब्रिटिश प्रधानमंत्री ग्लैडस्टन यूरोप में स्वतंत्रता का समर्थक था और मानवीय मूल्यों को महत्व देता था। उसने भारत के प्रति अपनी नीति को इन शब्दों में व्यक्त किया: ‘हमारा भारत में रहने का अधिकार इस तर्क पर आधारित है कि हमारा वहाँ रहना भारतीयों के लिए हितकर है, और दूसरे यह कि भारतीय यह अनुभव करें कि यह हितकर है।’ उसने अपनी नीतियों को क्रियान्वित करने के लिए रिपन को भारत में वायसराय के पद पर नियुक्त किया।
लॉर्ड रिपन की नीतियाँ और सुधार
लॉर्ड रिपन एक सच्चा उदारवादी और लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखने वाला व्यक्ति था। उसने 1852 में एक पुस्तक ‘इस युग का कर्तव्य’ (दि ड्यूटी ऑफ दि एज) में लिखा था कि लोकतंत्र के दो गुण हैं- प्रथम, प्रत्येक व्यक्ति को एक मानव के रूप में अपने देश की सरकार अर्थात् समस्त कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों तथा भार में भाग लेने का अधिकार हो, और दूसरे यह कि स्वशासन राजनीति का सबसे महान और ऊँचा सिद्धांत है, और सबसे अधिक सुरक्षित आधार जिस पर राज्य निर्भर हो सकता है। उसके लक्ष्य की यथार्थता उसके कलकत्ता में दिये गये प्रथम वक्तव्य से व्यक्त होती है। उसने स्पष्ट कहा था: ‘मेरा मूल्यांकन मेरे कार्यों से करना, शब्दों से नहीं।’
रिपन शांति, अहस्तक्षेप तथा स्वायत्त शासन के गुणों में विश्वास रखता था और ग्लैडस्टन युग का सच्चा उदारवादी था। उसका राजनैतिक दृष्टिकोण अपने पूर्वाधिकारी लॉर्ड लिटन से सर्वथा विपरीत था। वह भारत के प्रति कर्तव्य की भावना से प्रेरित होकर आया था। उसने अपने राजनीतिक तथा सामाजिक सुधारों के द्वारा भारत में प्रशासन को उदार बनाने का प्रयत्न किया। उसके सुधार-कार्यक्रमों के कारण उसकी तुलना विलियम बैंटिंक से की जा सकती है और उसके शासनकाल को ‘संवैधानिक सुधारों का काल’ कहा जा सकता है।
लॉर्ड रिपन के समय में भारत एक ओर धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक जागरण के दौर से गुज़र रहा था, वहीं दूसरी ओर लिटन की दमनकारी और अप्रिय नीतियों से भारत लगभग विद्रोह की स्थिति में था। लिटन की प्रतिक्रियावादी और रूढ़िवादी नीतियों के विपरीत लॉर्ड रिपन ने नई उदार नीति का सहारा लिया और भारत के घावों को भरने का प्रयत्न किया। उसने अपने कार्यों और नीतियों द्वारा भारतीयों को यह विश्वास दिलाने का प्रयास किया कि ब्रिटिश शासन का उद्देश्य भारतीयों के हितों का संवर्द्धन है।
लॉर्ड रिपन का मुख्य उद्देश्य भारत में उदार नीति को आरंभ करना और भारतीय शिक्षित मध्यम वर्ग का समर्थन प्राप्त करना था। उसका विश्वास था कि यही शिक्षित मध्यम वर्ग भविष्य में प्रभावशाली होगा, इसलिए ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा के लिए इस वर्ग को संतुष्ट रखा जाना आवश्यक है। यही कारण है कि उसने भारतीय शिक्षित वर्ग को साम्राज्य के प्रति निष्ठावान बनाने की भरपूर कोशिश की और ब्रिटिश प्रशासन से उन्हें जोड़ने का हरसंभव प्रयत्न किया। इसके अलावा, रिपन ने भारत में स्थानीय स्वशासन के विकास को प्रोत्साहन दिया और दमनकारी वर्नाक्युलर प्रेस ऐक्ट जैसे कानून को समाप्त कर भारतीय भाषा के समाचार-पत्रों को अंग्रेजी समाचार-पत्रों की तरह स्वतंत्रता प्रदान की। अपने इन सुधारों द्वारा वह भारतीयों की सहानुभूति प्राप्त करने में सफल रहा। किंतु जब उसने ‘नस्ली भेदभाव’ को समाप्त करने और उच्च सेवाओं में भारतीयों को अधिक भागीदारी देने का प्रयास किया, तो उसे यूरोपयिनों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा और वह असफल हो गया।
रिपन की अफगान नीति
लॉर्ड रिपन उदारवादी था और अग्रगामी नीति का विरोधी था। उसका पहला कार्य था- अफगान युद्ध के विनाशकारी परिणामों को व्यवस्थित करना। उसने लिटन की अग्रगामी नीति को त्यागकर दोस्त मुहम्मद के भतीजे अब्दुर्रहमान को अफगानिस्तान के अमीर के रूप में मान्यता प्रदान की। अमीर ने भी गंडमक की संधि को स्वीकृति प्रदान की।
रिपन ने अफगानिस्तान को विभाजित करने की नीति को छोड़ दिया और वहाँ ब्रिटिश रेजीडेंट थोपने के विचार को भी त्याग दिया। शेरअली के पुत्र अयूब खाँ ने नये अमीर के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, लेकिन अंग्रेजों और अब्दुर्रहमान की संयुक्त सेनाओं ने उसको पराजित कर अब्दुर्रहमान को सारे अफगानिस्तान का अमीर घोषित कर दिया। रिपन की इस नीति से न केवल अफगानिस्तान का अमीर अंग्रेजों का मित्र बन गया, वरन् भारतीयों को भी इस अनुचित युद्ध के व्यय से मुक्ति मिली।
वर्नाक्युलर प्रेस ऐक्ट की समाप्ति, 1882
लॉर्ड रिपन का एक लोकप्रिय कार्य वर्नाक्युलर प्रेस ऐक्ट को समाप्त करना था। लिटन ने वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट द्वारा भारतीय भाषाओं में प्रकाशित समाचार-पत्रों के प्रकाशन पर कई प्रकार का प्रतिबंध लगा दिया था। ग्लैडस्टन ने ब्रिटिश कामन्स सभा में लिटन के वर्नाक्युलर प्रेस ऐक्ट की कड़ी आलोचना की थी और प्रधानमंत्री बनने के बाद उसने रिपन को आदेश दिया था कि इस ऐक्ट पर पुनः विचार किया जाये। फलतः 1882 में रिपन ने इस दमनकारी कानून को रद्द कर दिया, जिससे भारतीय भाषाओं के समाचार-पत्रों को भी अंग्रेजी भाषा के समाचार-पत्रों के समान स्वतंत्रता मिल गई।
किंतु एल्फिंस्टन के इस कथन को याद सदैव रखना चाहिए कि ‘स्वतंत्र प्रेस और विदेशी शासन कभी साथ-साथ नहीं चलते।’ सरकार ने समुद्र आशुल्क अधिनियम (सी कस्टम्स ऐक्ट) बनाये रखा, जिसके अधीन डाकघर वालों को किसी भी स्थानीय भाषा में लिखे विद्रोहजनक लेखों को जब्त करने का अधिकार था। इस प्रकार देसी भाषा के समाचार-पत्रों को पूर्ण स्वतंत्रता राष्ट्रीय स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद ही मिला।
प्रथम फैक्टरी ऐक्ट, 1881
लॉर्ड रिपन ने कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की दशा सुधारने के लिए 1881 ई. में पहला फैक्टरी ऐक्ट पारित किया। किंतु यह अधिनियम केवल उन कारखानों पर लागू होता था, जिसमें कम से कम 100 मजदूर चार महीने से अधिक कार्य करते थे। इस परिभाषा के अनुसार अधिकांश पटसन उद्योग फैक्टरी की परिभाषा से बाहर हो गये क्योंकि इन फैक्टरियों में 100 से कम मजदूर काम करते थे। यह अधिनियम चाय, काफी, नील की खेती और कारखानों पर भी लागू नहीं होता था।
फैक्टरी अधिनियम मुख्यतः बाल-मजदूरों की सुरक्षा के लिए पारित किया गया था। इस अधिनियम द्वारा सात वर्ष से कम आयु के बच्चों के कारखानों में काम करना निषिद्ध कर दिया गया और बारह वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए काम के घंटे निश्चित कर दिये गये। अब उनसे अधिक से अधिक नौ घंटे काम लिया जा सकता था। कारखाना मालिकों के लिए खतरनाक मशीनों के चारों ओर सुरक्षात्मक घेरा लगाना आवश्यक कर दिया गया। मजदूरों के लिए काम की अवधि के दौरान एक घंटे का आराम और एक महीने में चार दिन के अवकाश का प्रावधान किया गया। इन नियमों के परिपालन के लिए कारखाना निरीक्षकों की नियुक्ति की गई। ऐक्ट का उल्लंघन करने वालों पर 200 रुपये तक जुर्माना लगाने का प्रावधान था।
फैक्टरी अधिनियम को बंबई प्रांत की सरकार ने अपर्याप्त बताया और इसे अधिक विस्तृत करने तथा फैक्टरी की परिभाषा बदलने को कहा, जिससे बड़ी संख्या में नवोदित कारखानें इसके अंतर्गत आ सकें। किंतु अन्य प्रांतीय सरकारें इस अधिनियम से संतुष्ट थीं, इसलिए इसमें परिवर्तन नहीं किया गया।
वस्तुतः फैक्टरी अधिनियम का काम लिटन के काल में आरंभ हुआ था और इसे इसे लंकाशायर के मिल-मालिकों के आग्रह पर बनाया गया था। इसका वास्तविक उद्देश्य भारतीय कारखानों और मिलों के विकास को अवरूद्ध करना था, न कि बाल-मजदूरों का कल्याण करना। बंबई की सरकार ऐक्ट के प्रावधानों का जो विस्तार चाहती थी, उसका उद्देश्य भी बंबई प्रांत के नवोदित मिलों के विकास को रोकना था। जो भी हो, यह पहला अवसर था जब ब्रिटिश सरकार ने कारखानों में मजदूरों की कार्य-स्थितियों में सुधार करने का प्रयास किया था।
स्थानीय स्वशासन की स्थापना
रिपन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य भारत में स्थानीय स्वशासन को प्रोत्साहित करना था। वह शिक्षित भारतीयों को प्रशासन से संबंधित करना चाहता था, जिससे साम्राज्य को भावी खतरों से बचाया जा सके। उसका दूसरा उद्देश्य भारतीयों को स्वायत्त शासन की शिक्षा देना था, जिससे वे अपने देश का शासन करने में सक्षम हो सकें।
स्थानीय स्वशासन की परंपरा का विकास 1850 के अधिनियम से हुआ था। प्रेसीडेंसी नगरों में तो नगरपालिकाएँ पहले से थीं, लेकिन 1850 के अधिनियम से अनेक नगरों में नगरपालिकाएँ स्थापित की गई थीं । इस प्रारंभिक अवस्था में स्थानीय स्वशासन के दो उद्देश्य थे- प्रथम, स्थानीय कार्यों का खर्च स्थानीय निवासियों से वसूल किया जाये। दूसरे, शिक्षित भारतीयों का ध्यान सरकार की नीतियों से हटाकर स्थानीय कार्यों की ओर आकर्षित किया जाये। इन नगरपालिकाओं के सदस्यों को जिला मजिस्ट्रेट मनोनीत करते थे और वे उन्हीं के नियंत्रण में कार्य करते थे। इन संस्थाओं के पास आय के पर्याप्त स्रोत नहीं थे और उन्हें स्थानीय पुलिस पर भारी धनराशि खर्च करनी पड़ती थी।
रिपन अपने पूर्ववर्ती वायसरायों के इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं था कि भारतीय स्वशासन के योग्य नहीं थे। उसका कहना था कि देश में स्वशासन की प्रणाली का पूरा परीक्षण और उपयोग नहीं किया गया और सरकारी अधिकारियों के लगातार हस्तक्षेप के कारण स्थानीय स्वशासन का विकास नहीं हो सका था। रिपन का मानना था कि स्थानीय स्वायत्त शासन की स्थापना से प्रशासनिक कुशलता में वृद्धि होगी और इससे भारतीयों को लोकतांत्रिक संस्थाओं की शिक्षा भी प्राप्त होगी।
लॉर्ड मेयो ने आर्थिक विकेंद्रीकरण के अंतर्गत नगरपालिकाओं के वित्तीय स्रोतों पर जोर दिया था। इसके कारण विभिन्न प्रांतों में 1871 और 1874 के मध्य अनेक अधिनियम पारित किये गये थे। मेयो के विचारों को विकसित स्वरूप प्रदान करने के लिए रिपन ने 1881 ई. में स्थानीय स्वायत्त-शासन संबंधी एक प्रस्ताव पारित किया और प्रांतीय सरकारों को आदेश दिया कि वे अपनी आय का एक निश्चित भाग स्थानीय बोर्डों को हस्तांतरित कर दें। उसने बोर्डों को आदेश दिया कि वे इस धन की सहायता से स्थानीय समस्याओं को स्वयं हल करें। प्रांतीय सरकारें इस बात की जाँच करें कि स्थानीय संस्थाओं को कौन-कौन से विषय और आय के साधन हस्तांतरित किये जा सकते थे। रिपन ने यह भी संकेत दिया कि स्थानीय संस्थाओं को उनके कार्यों में स्वतंत्रता दी जाये।
लॉर्ड रिपन ने अपने प्रसिद्ध प्रस्तावों को 1882 में प्रकाशित किया और प्रांतीय सरकारों को आदेश दिया कि प्रत्येक जिले में स्थानीय संस्थाएँ (बोर्ड) और नगरों में नगरपालिकाएँ स्थापित की जायें। इन संस्थाओं (बोर्डों) का कार्य क्षेत्र सीमित रखा जाये, जिससे स्थानीय कार्यों को अधिक सफलतापूर्वक किया जा सके। संस्थाओं (बोर्डों) में गैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत रखा जाये और सरकारी सदस्यों की संख्या एक तिहाई से अधिक न हो। जहाँ तक संभव हो, इन संस्थाओं (बोर्डों) में गैर-सरकारी सदस्यों का निर्वाचन किया जाये। बोर्डों पर सरकार का नियंत्रण और हस्तक्षेप कम से कम हो। सरकार उनका मार्गदर्शन करे, किंतु उन पर सरकारी आदेश न थोपे जायें।
सरकारी नियंत्रण तीन प्रकार से किया जाए- कुछ विषयों, जैसे- ऋण लेने, निश्चित राशि से अधिक व्यय करने वाले कार्य, अधिकृत मदों से भिन्न मदों पर कर लगाने, नगरपालिका की संपत्ति को बेचने आदि में सरकार की अनुमति आवश्यक कर दी जाये, लेकिन धीरे-धीरे इन विषयों को कम किया जाये। आवश्यकता पड़ने पर सरकार बोर्ड के निर्णय को रद्द कर दे या यदि बोर्ड अपने कर्तव्यों का ठीक-ठीक पालन नहीं कर रहा है, तो उसे स्थगित कर दे। सरकारी अधिकारी बोर्डों के कार्यों पर नजर रखें, परामर्श दें और मार्गदर्शन करें। किंतु सरकार का हस्तक्षेप ऐसा होना चाहिए कि बोर्ड के सदस्य स्वयं को स्वतंत्र समझें तथा स्वतंत्रतापूर्वक कार्य कर सकें। इससे उनमें उत्तरदायित्व की भावना जागृत होगी। जहाँ तक संभव हो सके, बोर्ड का अध्यक्ष गैर-सरकारी सदस्य को बनाया जाये। प्रांतीय सरकारों को आदेश दिया गया कि वे स्थानीय बोर्डों को स्थानीय कर, लाइसेंस फीस आदि लगाने का अधिकार दें और प्रांतीय राजस्व से उन्हें अनुदान भी दें।
इस प्रकार लॉर्ड रिपन के प्रयत्नों से 1883 से 1885 के मध्य अनेक प्रांतों में स्थानीय स्वशासन अधिनियम बनाये गये और प्रमुख नगरों में नगरपालिकाओं एवं स्थानीय निकायों एवं बोर्डों का जाल बिछ गया।
मद्रास में 1884 ई. में लोकल बोर्ड ऐक्ट स्वीकार किया गया, जिसके अनुसार गलियों में लैम्प जलाने, उन्हें साफ रखने, शिक्षा, पानी पहुँचाने और चिकित्सा-संबंधी सहायता आदि कार्य लोकल बोर्डों (स्थानीय समितियों) को सौंप दिये गये। उसी वर्ष पंजाब में तथा अगले वर्ष (1885 ई.) बंगाल में भी डिस्ट्रिक्ट बोर्ड तथा म्युन्सिपल कमिटी ऐक्ट स्वीकृत किये गये। स्थानीय स्वशासन के क्षेत्र में किये गये सुधारों के कारण लॉर्ड रिपन को ‘भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक’ कहा जाता है।
किंतु रिपन के इन प्रयासों के बावजूद 1918 तक स्थानीय स्वशासन में कोई खास प्रगति नहीं हो सकी। इसका मुख्य कारण था कि अधिकारी वर्ग अपने अधिकारों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। इसलिए न तो निर्वाचन-पद्धति लागू की जा सकी और न ही सरकारी नियंत्रण को कम किया जा सका।
आर्थिक विकेंद्रीकरण, 1882
लॉर्ड रिपन ने लॉर्ड मेयो द्वारा प्रारंभ की गई आर्थिक विकेंद्रीकरण की नीति को जारी रखा और प्रांतों के आर्थिक उत्तरदायित्व को बढ़ाने का प्रयास किया। उसने 1882 में प्रांतीय सरकारों को निश्चित अनुदान देने की प्रणाली को समाप्त कर दिया और समस्त राजस्व के साधनों को तीन भागों में बाँट दिया- 1. साम्राज्यीय मद (इंपीरियल), 2. प्रांतीय मद, 3. विभाजित मद।
साम्राज्यीय मदों पर केंद्र का अधिकार था और इसको केंद्र के लिए सुरक्षित रखा गया। केंद्रीय की आय के स्रोत सीमा शुल्क, डाक, तार, रेलवे, अफीम, नमक, उपहार, टकसाल, भूमिकर आदि थे। इनकी समस्त आय केंद्र सरकार को जाती थी और केंद्र को इसी आय से व्यय करना होता था।
प्रांतीय मदों पर प्रांतों का अधिकार था, जिसके स्रोत शिक्षा, पुलिस, चिकित्सा सेवाएँ, मुद्रण, राजमार्ग, साधारण प्रशासन आदि थे। प्रांतीय सरकारों के घाटे को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा उन्हें भूमिकर का एक निश्चित भाग दिया जाना था।
विभाजित मदों में केंद्र और प्रांत दोनों का भाग था। इस राजस्व के स्रोत आबकारी कर, स्टाम्प शुल्क, जंगल, पंजीकरण शुल्क आदि थे। इन स्रोतों से होने वाली आय को केंद्रीय तथा प्रांतीय सरकार में बराबर-बराबर बाँट दिया जाना था।
एक प्रस्ताव के अनुसार यह निश्चित किया गया था कि प्रांतों से प्रत्येक पाँच वर्ष के पश्चात् एक नया समझौता होगा। इस प्रस्ताव ने युद्धों तथा अकालों पर होने वाले असाधारण व्यय के संबंध में भी केंद्र तथा प्रांतीय सरकारों का आर्थिक संबंध निश्चित कर दिया। असाधारण एवं विनाशक परिस्थितियों को छोड़कर अन्य किसी भी परिस्थिति में केंद्र सरकार को प्रांतीय सरकारों से युद्ध के लिए कोई माँग नहीं करनी थी। अकालों का सामना करने के लिए प्रांतीय सरकारों को आवश्यक सहायता देने का वचन दिया गया।
इस प्रणाली से यह लाभ अवश्य हुआ कि प्रांतीय सरकारें न केवल प्रांतीय राजस्व की प्राप्ति में रुचि लेने लगीं, बल्कि केंद्रीय मदों के कर-संग्रह में भी दिलचस्पी लेने लगीं। किंतु इस प्रणाली में दोष यह था कि पाँच वर्षों के बाद प्रांतों की बचत को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से केंद्र हस्तगत कर लेता था।
स्वतंत्र व्यापार को प्रोत्साहन
आर्थिक और व्यापारिक क्षेत्रों में रिपन ने लॉर्ड नॉर्थब्रुक एवं लिटन की स्वतंत्र व्यापार की नीति को जारी रखा। उसने इंग्लैंड में बने कपड़े पर लगने वाले पाँच प्रतिशत आयात कर को 1882 ई. में पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया और भारत को मुक्त व्यापार का क्षेत्र बना दिया। वास्तव में वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट को निरस्त करने के कारण रिपन की लोकप्रियता बढ़ गई थी, जिससे कपड़ों पर से आयात कर हटाने में भारतीय जनमत ने उसका विरोध नहीं किया। इसके साथ ही नमक पर भी कर कम कर दिया गया, किंतु राजनीतिक कारणों से मदिरा, स्पिरिट, अस्त्र-शस्त्रों एवं बारुद आदि पर से कर नहीं हटाये गये।
शिक्षा सुधार और हंटर आयोग
लॉर्ड रिपन ने शिक्षा के विकास के लिए 1882 ई. में सर विलियम विल्सन हंटर की अध्यक्षता में एक जाँच आयोग का गठन किया। इस आयोग का कार्य था कि वह 1854 के वुड के डिस्पैच के सिद्धांतों के क्रियान्वयन की जाँच करें और भविष्य के लिए शिक्षा की नीति को निर्धारित करे। आयोग में बीस सदस्यों में आठ सदस्य भारतीय थे और इसके अध्यक्ष विलियम विल्सन हंटर सांख्यिकीविद्, एक संकलक और भारतीय सिविल सेवा के सदस्य थे, जो बाद में रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के उपाध्यक्ष बने।
हंटर आयोग ने 1883 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। रिपोर्ट में कहा गया था कि सरकार ने अभी तक उच्च शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया था और प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा की उपेक्षा की थी। आयोग ने सरकार के प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के प्रसार और उन्नति के उत्तरदायित्व पर बल दिया।
प्राथमिक शिक्षा के संबंध में आयोग का सुझाव था कि प्रांतीय सरकारों को अपनी आय का एक निश्चित प्रतिशत प्राथमिक शिक्षा पर व्यय करना चाहिए। प्रारंभिक शिक्षा का उत्तरदायित्व नवस्थापित नगरपालिकाओं एवं जिला परिषदों को सौंप दिया जाए और सरकारी अधिकारियों द्वारा ऐसे स्कूलों का निरीक्षण तथा पथ-प्रदर्शन किया जाए।
माध्यमिक शिक्षा के संबंध में आयोग ने सिफारिश की कि माध्यमिक शिक्षा के लिए दो प्रकार की पद्धतियाँ अपनाई जायें- एक तो साधारण साहित्यिक शिक्षा, जिसमें विद्यार्थियों को प्रवेशिका परीक्षा के लिए तैयार किया जाए और दूसरी व्यावहारिक व्यावसायिक शिक्षा, जिसमें विद्यार्थियों को वाणिज्यिक और रोजगारोन्मुखी शिक्षा दी जाए। आयोग सहायक अनुदान की प्रणाली से बहुत संतुष्ट था और उसने इस पद्धति को माध्यमिक तथा ऊँची शिक्षा के क्षेत्रों में प्रसार का प्रस्ताव किया।
यह भी कहा गया कि सरकार को माध्यमिक पाठशालाओं से हट जाना चाहिए। आयोग का यह भी कहना था कि तीनों प्रेसीडेंसी नगरों के अलावा अन्य स्थानों में स्त्री शिक्षा के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं, इसलिए उसे बढ़ाने का प्रयत्न करने चाहिए। आयोग ने विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा के लिए कुछ नहीं कहा क्योंकि यह उसके विचाराधीन नहीं था।
रिपन की सरकार ने हंटर आयोग की सिफारशों को स्वीकार कर लिया और प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा के विकास पर अधिक ध्यान दिया, जिससे उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में देश में पाठशालाओं की संख्या में असाधारण वृद्धि हुई।
नागरिक सेवाओं में सुधार
लॉर्ड रिपन का मुख्य उद्देश्य भारतीय शिक्षित मध्यम वर्ग का समर्थन प्राप्त करना था। उसने शिक्षित भारतीयों को उच्च प्रशासन में भागीदारी देने के लिए नागरिक सेवा के नियमों में सुधार के लिए आई.सी.एस. की परीक्षा लंदन के साथ-साथ भारत में भी आयोजित करने का प्रस्ताव किया। रिपन का मानना था कि इससे बड़ी संख्या में भारतीय इस प्रतिष्ठित परीक्षा में सम्मिलित हो सकेंगे। किंतु गृह-सरकार ने उसके सुझाव को स्वीकार नहीं किया। फिर भी, इंग्लैंड के उच्च अधिकारियों के परामर्श से वह इस परीक्षा में सम्मिलित होने की आयु 19 वर्ष से बढ़ाकर 21 वर्ष कराने में सफल रहा, जिसे लॉर्ड लिटन ने घटाकर 19 वर्ष कर दिया था। इससे भारतीयों का असंतोष दूर करने में सफलता मिली और रिपन की लोकप्रियता में वृद्धि हुई।
नियमित जनगणना का आरंभ 1881
रिपन ने 1881 में पहली बार भारत में नियमित जनगणना की शुरूआत की। जनगणना के रजिस्टर में व्यक्ति की जाति, धर्म, भाषा एवं शिक्षा-संबंधी सूचनाएँ अंकित की जाती थीं। यद्यपि भारत में पहली जनगणना 1872 ई. में लार्ड मेयो के समय हुई थी, लेकिन इस जनगणना में भारत का लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा छूट गया था। लॉर्ड रिपन ने 1881 ई. में नियमित जनगणना शुरू की, यद्यपि इस जनगणना में भी हैदराबाद व राजपूताने को नहीं जोड़ा गया था।
भू-राजस्व नीति
लॉर्ड रिपन के आने के बीस साल पहले से पूरे भारत में भूमिकर को स्थायी आधार पर व्यवस्थित करने का प्रस्ताव विचाराधीन था। रिपन ने इस प्रस्ताव को रद्द कर दिया। वह बंगाल में लॉर्ड कॉर्नवालिस द्वारा 1793 में स्थापित स्थायी बंदोबस्त को भी बनाये रखने के पक्ष में नहीं था। उसने देखा कि स्थायी बंदोबस्त में भूमिकर एकत्र करनेवालों को भूमिस्वामी बनाकर किसानों को उनकी दया पर छोड़ दिया गया था और भविष्य में उनकी अनर्जित संपत्ति पर भी लगने वाले कर के विरुद्ध किसी प्रकार की अपील आदि के लिए न्याय के दरवाजे भी बंद कर दिये गये थे। इससे बंगाल के किसानों की दशा दयनीय होती जा रही थी और उन्हें जमींदारों के अत्याचारों को सहना पड़ रहा था।
रिपन ने स्थायी बंदोबस्त को भंग कर किसानों को उनकी भूमि पर स्थायी अधिकार दिलाने के लिए एक सुधार-कार्यक्रम की योजना बनाई। उसने ब्रिटिश सरकार के सामने प्रस्ताव रखा कि जिन जिलों का सर्वेक्षण हो चुका है और जहाँ भू-राजस्व निश्चित हो चुका है, वहाँ केवल भूमि के मूल्य की बढ़ोत्तरी की दशा में ही भू-राजस्व में वृद्धि की जाए, अन्यथा नहीं। किंतु बंगाल के जमींदारों और किसानों ने रिपन के इस सुधार-कार्यक्रम का विरोध किया। फलतः भारतमंत्री ने इस सुझाव को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और यह योजना क्रियान्वित नहीं हो सकी।
अकाल एवं रेलों का निर्माण
अकाल आयोग ने अपनी रिपोर्ट में 1880 में प्रस्तुत की थी जब लॉर्ड लिटन के स्थान पर रिपन आ चुका था। अकाल आयोग ने अकालों के दुष्प्रभाव को रोकने के लिए रेलों के विस्तार पर जोर दिया था और सिफारिश की थी कि रेलों का निर्माण ‘सुरक्षात्मक’ दृष्टि से किया जाये। रिपन चाहता कि रेलमार्गों का निर्माण तेजी से किया जाये, लेकिन भारतमंत्री का कहना था कि रेलों का विस्तार-कार्य निजी क्षेत्र में कराया जाये। रिपन को यह स्वीकार करना पड़ा। दूसरा परिवर्तन यह था कि रेलों का विस्तार ‘उत्पादक रेलों’ तक सीमित रहा। सरकारी निरीक्षण में ‘सुरक्षात्मक’ रेलों का निर्माण किया गया, लेकिन यह बहुत कम रहा। अंत में, 1884 में ‘सुरक्षात्मक’ तथा ‘उत्पादक’ का अंतर समाप्त कर दिया गया।
देशी राज्यों के प्रति नीति
लॉर्ड रिपन ने 1881 में मैसूर के मृत शासक के दत्तक पुत्र (महाराजा) को पुनः मैसूर का प्रशासन सौंप कर अपनी सदाशयता का परिचय दिया। 1831 में लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने कुशासन का आरोप लगाकर मैसूर का शासन अपने हाथों में ले लिया था। 1858 में महारानी विक्टोरिया की घोषणा के बाद ब्रिटिश सरकार सार्वभैमिकता के अधिकारों का प्रयोग तो करती थी, लेकिन राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित करने की नीति त्याग दी गई थी। मैसूर के राजा के दत्तक पुत्र को सरकार ने स्वीकार कर लिया, किंतु मैसूर राज्य को सौंपने के समय सार्वभौमिक सत्ता (पैरामाउंटरी) के अधिकारों की भी व्याख्या की गई और सर्वोच्च सत्ता (सावरेंटी) के विभिन्न अधिकार बताये गये।
1881 में रिपन ने बड़ौदा राज्य गायकवाड़ को लौटा दिया। इस हस्तांतरण में भी रिपन ने उसी प्रकार सिद्धांतों की स्थापना की, जैसी मैसूर के प्रकरण में की गई थी। दो वर्षों तक राजा के आचरण की जाँच की जानी थी। इसके बाद भी उसे सभी महत्वपूर्ण विषयों पर भारत सरकार से परामर्श लेना था। 1882 ई. में कोल्हापुर के शासक की मृत्यु के बाद उसकी विधवा रानी द्वारा गोद लिए एक बालक को गद्दी पर बैठाया गया और होल्कर को पुनः इंदौर में आने की अनुमति दी गई। इसी प्रकार निजाम के वयस्क हो जाने पर उसे 1884 ई. में हैदराबाद की गद्दी पर बैठाया गया। इन राज्यों पर भी ब्रिटिश सर्वोच्चता के अंतर्गत कार्यवाही की गई। रिपन ने काश्मीर के मामले भी हस्तक्षेप किया और उत्तराधिकारियों को स्वीकार करने के समय स्थायी रेजीडेंट रखने की व्यवस्था कर दी। प्रकार कश्मीर भी अन्य राज्यों के समान हो गया।
इल्बर्ट बिल विवाद
लॉर्ड रिपन के काल में न्याय-व्यवस्था में व्याप्त नस्ली भेदभाव और विसंगति को दूर करने ओर भारतीय न्यायाधीशों को यूरोपियन न्यायाधीशों के समान न्यायिक अधिकार देने लिए इल्बर्ट बिल प्रस्तुत किया गया। दरअसल कुछ भारतीय आई.सी.एस. परीक्षा में प्रवेश कर 1883 ई. तक इतने वरिष्ठ हो गये थे कि उनको सेशन जज, मज़िस्ट्रेट आदि के पद प्राप्त हो गये थे, किंतु इन भारतीय न्यायाधीशों को 1873 के जाब्ता फौजदारी कानून (क्रिमिनल प्रोसीजर ऐक्ट) के अनुसार प्रेसीडेंसी नगरों-कलकत्ता, मद्रास, बंबई को छोड़कर किसी अन्य नगर में यूरोपियनों के विरूद्ध मुकदमों की सुनवाई का अधिकार नहीं था। प्रशासनिक दृष्टि से इस प्रकार का नस्ली भेदभाव उचित नहीं था।
सर्वप्रथम बिहारीलाल गुप्ता आई.सी.एस. ने इस विषमता की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया। बिहारीलाल ने लिखा था कि पदोन्नति के बाद उनके अधिकार कम हो जायें, यह न्यायसंगत नहीं है। फलतः वायसराय की विधि-परिषद के सदस्य सर कॉर्टेन पेरेग्रीन इल्बर्ट ने 2 फरवरी, 1883 ई. को परिषद् के समक्ष एक बिल प्रस्तत किया, जिसमें जिला जजों को यूरोपियनों के मुकदमे सुनने का अधिकार दिया गया था। इस बिल का आधार यह था कि प्रेसीडेंसी नगरों में भारतीय जज यूरोपियनों के फौजदारी के मुकदमे सुन रहे थे और इससे कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई थी। स्वाभाविक था कि जिला जजों को यह अधिकार देने में कोई विसंगति नहीं थी। विधेयक का उद्देश्य था कि ‘जातिभेद पर आधारित सभी न्यायिक अयोग्यताएँ तुरंत समाप्त कर दी जायें’, जिससे भारतीय और यूरोपीय न्यायाधीशों की शक्तियाँ समान हो जायें।
किंतु बिल प्रस्तुत होने के बाद बंगाल के यूरोपियनों ने बिल के विरोध में बवंडर खड़ा कर दिया, क्योंकि वे इसे अपने विशेषाधिकारों पर कुठाराघात मानते थे। विरोध करने वालों में अधिकांश चाय बागानों के यूरोपियन मालिक थे, जो अकसर अपने भारतीय कर्मचारियों से दासों जैसा व्यवहार करते थे और विरोध करने पर उनकी हत्या तक कर देते थे। इन यूरोपीय बागान स्वामियों को यूरोपीय न्यायाधीश प्रायः बिना दंड के ही अथवा थोड़ा-सा दंड देकर छोड़ देते थे, इसलिए नये कानूनों से सबसे अधिक वही भयभीत थे। इन यूरोपियनों ने ‘डिफेंस एसोसिएशन’ का गठन किया और चंदा करके डेढ़ लाख रुपया एकत्र किया, जिससे इंग्लैंड तथा भारत में बिल एवं रिपन के विरूद्ध दुष्प्रचार किया जा सके। कलकत्ता में जातीय दंगों की योजनाएँ बनाई गईं और रिपन को बंदी बनाकर एक विशेष जहाज (स्टीमर) से इंग्लैंड वापस भेजने का भी उपक्रम किया गया। यद्यपि भारतीय जनमत रिपन के साथ था, लेकिन अंततः सामूहिक विरोध के सामने रिपन को झुकना पड़ा और बिल में संशोधन करना पड़ा।
संशोधित इलबर्ट बिल को 25 जनवरी, 1884 को आपराधिक प्रक्रिया संहिता संशोधन अधिनियम 1884 के रूप में पारित किया गया और 1 मई, 1884 को लागू किया गया, जिसमें यूरापियनों को अधिकार दिया गया कि जज चाहे यूरोपियन हों या भारतीय, वे अभियोग का निर्णय करवाने के लिए जूरी की माँग कर सकते थे। जूरी के सदस्यों में आधे यूरोपियन अथवा अमेरिकन होने चाहिए। इस प्रकार, इस अधिनियम ने व्यवस्था दी कि यूरोपीय अपराधियों को भारतीय न्यायाधीशों द्वारा ‘यूरोपीय न्यायाधीशों की सहायता से’ सुना जायेगा।
यद्यपि इल्बर्ट बिल का मूल उद्देश्य पूरा नहीं हो सका, किंतु बिल को लेकर यूरोपियनों ने जिस प्रकार प्रतिरोध किया, उसके कई महत्वपूर्ण परिणाम हुए- इससे भारतीयों में रिपन की लोकप्रियता बढ़ी, यूरोपियनों तथा भारतीयों के बीच जातीय घृणा की दीवार और चौड़ी हो गई और भारतीयों में एक नवीन राजनीतिक चेतना का संचार हुआ। इस विवाद में भारतीयों ने देखा कि थोड़े से संगठित अंग्रेजों ने किस प्रकार सरकार को घुटना टेकने पर मजबूर कर दिया था। इससे भारतीयों को अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संगठित होने की प्रेरणा मिली। सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने लिखा है, ‘कोई भी स्वाभिमानी भारतीय अब आँख मूँदकर सुस्त नहीं बैठ सकता था। इल्बर्ट बिल के विवाद को जो समझते थे, उनके लिए यह देशभक्ति की पुकार थी।’
रिपन का त्यागपत्र
रिपन एक सज्जन और ईमानदार व्यक्ति था, लेकिन इल्बर्ट बिल पर यूरोपियनों के आंदोलनों के कारण वह बहुत खिन्न था। इसके बाद प्रधानमंत्री ग्लैडस्टन से उसका मिस्र के मामले में मतभेद हो गया। मिस्र पर अधिकार करने के लिए एक भारतीय सैनिक टुकड़ी मिस्र भेजी गई थी। जब इसके व्यय का एक भाग भारतीय राजस्व से देने के लिए कहा गया, तो रिपन ने इसका विरोध किया और 1884 में पद से त्यागपत्र दे दिया। 1909 में 81 वर्ष की आयु में रिपन की मृत्यु हो गई।
रिपन का मूल्यांकन
लॉर्ड रिपन भारतीयों में सबसे अधिक लोकप्रिय वायसराय था। उसने अपनी सहानुभूति, निष्पक्षता और सुधारों से भारतीयों का दिल जीत लिया था। उसे भारतीयों से सहानुभूति थी और वह यथार्थ में उनका कल्याण चाहता था। वह पहला वायसराय था, जिसने भारतीयों तथा अंग्रेजों में कोई भेद नहीं समझा और भारतीयों को अंग्रेजों के समान अधिकार दिलाने का सच्चा प्रयास किया। यद्यपि सुधारवादी कार्यक्रमों के कारण रिपन को अपने देशवासियों के कोप का भाजन बनना पड़ा, किंतु वह भारतीयों का सच्चा मित्र था और भारतीयों ने भी उसके प्रति अपनी पूर्ण कृतज्ञता प्रकट की। फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने सही कहा है कि वह ‘भारत का उद्धारक’ था। भारतवासी उसे ‘सज्जन रिपन’ के नाम से याद करते थे। आधुनिक भारत के इतिहास में रिपन का शासनकाल ‘स्वर्णयुग का आरंभ’ माना जाता है।
वस्तुतः रिपन के उद्देश्य निष्पक्ष थे और उसकी नीति न्यायोचित थी। मदनमोहन मालवीय ने 1909 में कहा था कि, ‘रिपन भारतीय वायसरायों में सबसे अधिक लोकप्रिय था। शिक्षित भारतीयों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पिता एलन आक्टैवियन ह्यूम और सर विलियम वेडरबर्न के अतिरिक्त किसी अन्य अंग्रेज को जो भारत से संबंधित रहा है, इतना मान नहीं दिया जितना रिपन को। रिपन को यह मान इसलिए मिला कि उसने स्थानीय स्वशासन की योजना आरंभ की क्योंकि उसने 1858 की घोषणा को कार्यान्वित करने का प्रयत्न किया, जातीय भेदभाव समाप्त करने का प्रयत्न किया और भारतीय प्रजा तथा यूरोपीय प्रजा को समानता देने की चेष्टा की। वह ईश्वर से डरने वाला व्यक्ति था और इस सत्य में विश्वास रखता था कि पवित्रता जाति को ऊँचा उठाती है….क्योंकि वह उन महत्तम अंग्रेजों में से था जो स्वाभाविक रूप से न्यायप्रिय हैं और जो स्वतंत्रता के आशीर्वाद को सभी मनुष्यों तक पहुँचाना चाहते हैं।’
वास्तव में किसी वायसराय ने भारतीयों के कल्याण के लिए इतनी तत्परता तथा निरंतरता के साथ कार्य नहीं किया, जितना लॉर्ड रिपन ने किया। यह उसकी लोकप्रियता का ही परिणाम था कि जब 1884 में उसने त्यागपत्र दिया, तो कलकत्ता से बंबई तक के रेलमार्ग पर प्रत्येक स्टेशन पर एकत्रित हजारों भारतीयों ने उसका अभिवादन किया था।
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