आंग्ल-सिख युद्ध और पंजाब की विजय (Anglo-Sikh War and Conquest of Punjab)

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आंग्ल-सिख युद्ध और पंजाब की विजय

महाराजा रणजीतसिंह एक प्रबल और निरंकुश शासक था। उन्होंने अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व के बल पर जिस सैनिक राजतंत्र का निर्माण किया था, वह वस्तुतः शासक की निरंकुश सत्ता पर ही आधारित था। इस समय भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना हो गई थी और अंग्रेजों की गिद्धदृष्टि पंजाब पर टिकी थी। पंजाब ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र था जो ब्रिटिश के साम्राज्य के बाहर था। अतः स्वाभाविक था कि अंग्रेज पंजाब को अपने साम्राज्य में सम्मिलित करने का प्रयास करते। ऐसे में रणजीतसिंह के उत्तराधिकारी का योग्य होना आवश्यक था, किंतु ऐसा नहीं हुआ।

रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद राज्य में अराजकता फैल गई और उपद्रव होने लगे। एक के बाद एक अयोग्य और दुर्बल उत्तराधिकारी सिंहासन पर बैठे, जिससे सत्ता खिसककर कुछ गुटों, व्यक्तियों और अंततः सेना के हाथों में पहुँच गई।

रणजीतसिंह ने अपने सैनिक राजतंत्र में सेना को सुदृढ़ करने पर विशेष ध्यान दिया था। उनकी मृत्यु के समय सिख सेना की संख्या 40,000 थी, किंतु उनकी मृत्यु के बाद सैनिकों की संख्या एक लाख के लगभग हो गई थी, लेकिन अब इतनी बड़ी सेना के लिए वेतन कहाँ से दिया जाता? रणजीतसिंह के समय में ही सैनिक व्यय का भार बहुत था और उनकी मृत्यु के बाद यह भार असहनीय हो गया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि सेना अनुशासनहीन हो गई, प्रशासन में हस्तक्षेप करने लगी और राजपद के ऐसे दावेदारों का समर्थन करने लगी जो उसके वेतन में वृद्धि करने का आश्वासन दे। सेना ने अपनी पंचायतें बना ली और पंचायतों में ही अभियानों के बारे में निर्णय लिया जाने लगा। वे सिविल अधिकारियों की अवहेलना करने लगे और राजा बनाने की भूमिका निभाने लगे। अंततः सैनिक और असैनिक अधिकारियों के मध्य संघर्ष का दुष्परिणाम आंग्ल-सिख संघर्ष में सामने आया।

रणजीतसिंह के पश्चात् आंग्ल-सिख संबंध

1839 ई. में महाराजा रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद उनका ज्येष्ठ पुत्र खड्गसिंह गद्दी पर बैठा। इस समय पंजाब में दो प्रमुख गुटों-सिंधनवालिया और डोगरा के बीच सत्ता और प्रभाव के लिए संघर्ष चल रहा था। खड्गसिंह ने अंग्रेजों के प्रति मित्रता की नीति को जारी रखा। उसने अफगानिस्तान से लौटती हुई पराजित अंग्रेजी सेना को पंजाब से गुजरने की अनुमति दे दी। एलेनबरो ने जब काबुल पर आक्रमण करने के लिए नवीन सेना भेजी, तब ख़ैबर दर्रे पर आक्रमण करने में सिख सेना ने उसकी सहायता की, लेकिन खड्गसिंह अयोग्य शासक था। वह सिंधनवालिया और डोगरा सरदारों के कुचक्रों में फँस गया, जिसके फलस्वरूप 1840 ई. में उसे अपदस्थ कर बंदी बना लिया गया और बाद में उसे जेल में ही संभवतः जहर देकर मौत के घाट उतार दिया गया। इसके बाद उसके पुत्र नौनिहालसिंह को गद्दी पर बिठाया गया।

नौनिहालसिंह एक योग्य शासक था। उसने लद्दाख और बलिस्तान के भागों को जीता और अंग्रेजों की गतिविधियों पर नजर रखा, लेकिन 1840 ई. में अपने पिता के दाह-संस्कार से लौटते समय लाहौर किले में एक गिरते हुए तोरण से घायल होने के बाद कुछ ही महीनों में संदिग्ध परिस्थितियों में उसकी मौत हो गई।

नौनिहालसिंह की मृत्यु से दरबार में सिंधनवालिया और डोगरा के बीच दलीय संघर्ष और तेज हो गया। डोगरा सरदार रणजीतसिंह के एक अन्य वैध पुत्र शेरसिंह का समर्थन कर रहे थे, जबकि सिंधनवालिया सरदार नौनिहालसिंह के होने वाले बच्चे के समर्थक थे और उसकी माँ चांदकौर को संरक्षक बनाना चाहते थे। उत्तराधिकार के इस संघर्ष में डोगरा सरदार और खालसा सेना की सहायता से जनवरी, 1841 में रणजीतसिंह का सबसे बड़ा जीवित वैध पुत्र शेरसिंह सिंहासन पर अधिकार करने में सफल रहा।

शेरसिंह ने दलीय स्पर्धा को समाप्त करने के लिए सिंधनवालिया सरदारों को संतुष्ट करने का प्रयास किया, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। सितंबर, 1843 में एक सिंधनवालिया सरदार अजीतसिंह ने शेरसिंह और उसके वजीर ध्यानसिंह की हत्या कर दी। इसके बाद डोगरा सरदारों की सहायता से रणजीतसिंह का सबसे छोटा पुत्र दिलीपसिंह गद्दी पर बैठा। अल्पवयस्क होने के कारण उसकी माँ (रणजीतसिंह की सबसे छोटी विधवा) रानी जिंदन उसकी संरक्षिका बनी और ध्यानसिंह के पुत्र हीरासिंह को वजीर नियुक्त किया गया।

किंतु 1844 ई. में वजीर हीरासिंह की भी हत्या कर दी गई। इसके बाद रानी जिंदन का भाई जवाहरसिंह दिसंबर, 1844 में वज़ीर बनाया गया। दरबार के षड्यंत्रों और खालसा सेना के बढ़ते प्रभाव के कारण 29 नवंबर, 1845 ई. को जवाहरसिंह की भी हत्या हो गई। अंत में, खालसा सेना के समर्थन से लालसिंह वजीर बन गये और तेजसिंह सेना के कमांडर नियुक्त हुए सिख इतिहासकारों के अनुसार दोनों डोगरा गुट के प्रमुख थे और मूल रूप से पंजाब के बाहर के उच्च जाति के हिंदू थे, लेकिन दोनों ने 1818 ई. में उन्होंने सिख धर्म अपना लिया था।

प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध की पृष्ठभूमि

अंग्रेज रणजीतसिंह के समय से ही पंजाब में रुचि लेने लगे थे, किंतु रणजीतसिंह की कूटनीति और शक्ति के कारण वे अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सके थे। रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद उन्होंने फिरोजपुर को सैनिक छावनी बनाकर तथा सिंध पर अधिकार करके पंजाब को घेरने की रणनीति शुरू कर दी थी। 1840 ई. में नौनिहालसिंह की मृत्यु के पश्चात् उन्होंने उत्तराधिकार के विवादों में भी भाग लेना आरंभ कर दिया। नौनिहालसिंह की विधवा और शेरसिंह, दोनों ने अंग्रेजों का समर्थन प्राप्त करने के लिए कुछ क्षेत्र देने का प्रस्ताव किया था। उत्तराधिकार के इन विवादों में प्रत्येक पक्ष ने खालसा सेना का समर्थन प्राप्त करने के लिए सैनिकों को लाभ पहुँचाये थे, जिससे सेना की शक्ति में वृद्धि हो गई थी। इसलिए दिलीपसिंह की संरक्षक समिति खालसा सेना को अंग्रेजों से लड़ाना चाहती थी जिससे सेना की शक्ति कम हो जाये।

आंग्ल-सिख युद्ध और पंजाब की विजय (Anglo-Sikh War and Conquest of Punjab)
पंजाब की विजय

प्रथम आंग्ल-सिक्ख युद्ध (1845-1846)

एलेनबरो के जाने के पश्चात् लॉर्ड हार्डिंग भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त हुआ। हार्डिंग ने नेपोलियन के समय प्रायद्वीपीय युद्ध में भाग लिया था और ड्यूक ऑफ वेलिंगटन की अनुशंसा पर उसे गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया था।

लॉर्ड हार्डिंग के शासनकाल की मुख्य घटना प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध है। यह सही है कि रणजीतसिंह की मृत्यु के पश्चात् उनके उत्तराधिकारी दुर्बल थे और सेना की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिए वे अंग्रेजों से युद्ध कराना चाहते थे, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि केवल नेताओं के बहकावे में आकर सेना युद्ध के लिए तैयार नहीं हो सकती थी। कनिंघम का मत उचित लगता है कि यदि अंग्रेजों ने उत्तेजनात्मक कार्यवाहियाँ न की होती, तो शायद खालसा सेना लालसिंह या तेजसिंह जैसे नेताओं के बहकावे में नहीं आती।

प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध के कारण

रणजीतसिंह के अयोग्य उत्तराधिकारी

रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद उनका कोई ऐसा योग्य उत्तराधिकारी नहीं हुआ जो सिख राज्य को सुरक्षित रख पाता। दरबार की गुटबंदी और हत्याओं से पंजाब में अराजकता व्याप्त थी। संरक्षक समिति और रानी जिंदन कुशल नेतृत्व देने में असफल रहे। इस अराजकता तथा नेतृत्वहीनता के कारण सेना अत्यंत शक्तिशाली हो गई और शासन में उसका प्रभुत्व बढता़ गया।

सिख सैनिकों की अनुशासनहीनता

रणजीतसिंह ने सेना को नियंत्रण में रखा था, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद सेना में अनुशासनहीनता फैल गई और सिख सेना के अधिकारी उत्तराधिकार युद्धों में और दरबार के षड्यंत्रो में सक्रियता से भाग लेने लगे। उनकी शक्ति और उच्श्रृंखलता इतनी बढ़ गई थी कि शासन और राजपरिवार के लोग उनसे आतंकित हो गये। उन्हें नियंत्रित करना रानी जिंदन और सिख दरबार की सामर्थ्य के बाहर था। इसलिए रानी जिंदन, लालसिंह, सरदार गुलाबसिंह तथा सेनापति तेजसिंह ने सिख सेना को अंग्रेजों से युद्ध के लिए भड़काया, जिससे सेना की शक्ति को नष्ट किया जा सके।

पंजाब की अराजकता

रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के युद्ध और संघर्ष ने पंजाब में अराजकता और अव्यवस्था उत्पन्न कर दी। सिख और डोगरा सरदारों में परस्पर मतभेद और गहरे हो गये। वे अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए हत्या, षड्यंत्र और कुचक्रों में फँस गये थे। इसका लाभ पंजाब विजय करने के लिए अंग्रेजों ने उठाया। उन्होंने राजसिंहासन के प्रतिद्वंद्वी दावेदारों और स्वार्थी अधिकारियों के षड्यंत्रों  व हत्याओं में सक्रिय रूप से भाग लिया।

अंग्रेजों की सैनिक कार्यवाहियाँ

अंग्रेजों ने पंजाब की अराजकता का लाभ उठाया और पंजाब पर आक्रमण करने के लिए सतलज के निकटवर्ती क्षेत्रों में सेना एकत्रित करना आरंभ कर दिया। अंग्रेजों ने जब सिंध पर अधिकार कर लिया, तब सिखों का संदेह और बढ़ गया। उन्हें आभास हो गया कि अंग्रेज पंजाब पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहे हैं।

1844 ई. में लॉर्ड हार्डिंग गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। उसने भारत आते ही कंपनी की सेनाओं को मजबूत करना आरंभ कर दिया। पंजाब की सेना में 32,000 सैनिकों तथा 68 तोपों की वृद्धि कर दी। मेरठ में 10,000 सैनिकों को रिजर्व में रखा गया था। सतलुज पर पेंटून पुल बनाने के लिए 57 नावें बंबई से लाई गईं। कमांडर ने सैनिकों को पुल बनाने के लिए सतलुज नदी पर ही उनको प्रशिक्षण दिया। दूसरी ओर, सिख सैनिक इन कार्यवाहियों को देखकर उत्तेजित हो रहे थे। सिंध में अंग्रेजी सेना को पूरी तरह से तैयार रखा गया, ताकि आवश्यकता पड़ने पर वह तुरंत मुल्तान पर आक्रमण कर सके।

मेजर ब्राडफुट की घोषणा

प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध का तात्कालिक कारण मेजर ब्राडफुट की घोषणा थी। मेजर ब्रॉडफुट 1843 ई. में लुधियाना में कंपनी का एजेंट नियुक्त हुआ था। गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग ने नेजर ब्रॉडफुट को पेशावर से पंजाब तक ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित करने का निर्देश दिया। ब्रॉडफुट ने घोषणा की कि सतलज के दक्षिण में दिलीपसिंह के समस्त प्रदेश अंग्रेजों के अधीन समझे जायेंगे। दिलीप की मृत्यु के पश्चात् अंग्रेज इनको जब्त कर लेंगे। इस घोषणा से सिखों में आक्रोश उत्पन्न हो गया।

इस उत्तेजनापूर्ण वातावरण में रानी जिंदन ने खालसा सेना को अंग्रेजों से युद्ध करने के लिए प्रोत्साहित किया। सिख सेना ने युद्ध का निश्चय करके वज़ीर लालसिंह के नेतृत्व में 11 दिसंबर, 1845 ई. में सतलुज नदी को पार करना शुरू किया। अंग्रेज तो इसी अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे। फलतः 13 दिसंबर, 1845 ई. को लॉर्ड हार्डिंग ने सिखों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

अंग्रेज इतिहासकारों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि लाहौर दरबार की गुटबंदी और उनकी गतिविधियों के कारण युद्ध हुआ। उनका कहना है कि युद्ध के लिए सिख सरकार तथा खालसा सेना उत्तरदायी है। स्पियर लिखता है कि खालसा सेना पर नियंत्रण करने के दो ही विकल्प थे-या तो सेना को विघटित कर दिया जाता या उसे युद्ध में उलझा दिया जाता। सिख सरकार में प्रथम विकल्प चुनने का साहस नहीं था, इसलिए दूसरा विकल्प प्रयोग किया गया। इसी प्रकार राबर्टस लिखता है कि रानी जिंदन खालसा सेना से इतनी भयभीत हो गई थी कि अपनी सुरक्षा के लिए उसने खालसा सेना को अंग्रेजों के साथ युद्ध में फँसा दिया।

किंतु अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा लगाये गये आरोप बेबुनियाद और तथ्यहीन हैं। युद्ध के समय लाहौर सरकार में स्वार्थी और देशद्रोही लोग थे, लेकिन खालसा सेना के पास अपना सर्वोच्च सेनापति नहीं था, जो सेना का संचालन करता। सच तो यह है कि सिंध पर अधिकार करने से पहले ही अंग्रेजों की ललचाई नजर पंजाब की उर्वरा भूमि पर पड़ चुकी थी। 1838 ई. में आसबर्न ने लिखा था कि, ‘हमें रणजीतसिंह की मृत्यु के पश्चात् पंजाब को तुरंत जीत लेना चाहिए। कंपनी तो बड़े-बड़े ऊँटों को निगल चुकी है, ये तो केवल मच्छर मात्र हैं।’ 1840 ई. में आकलैंड ने भी यह स्वीकार किया था कि बहुत-से अंग्रेज अधिकारी पंजाब जीतने को बहुत आतुर थे। 1841 ई. में मेकनाटन ने आकलैंड से कहा था कि सिखों को कुचल दिया जाये और पेशावर को अंग्रेजी राज्य में शामिल कर लिया जाये। लॉर्ड एलेनबरो ने भी 1844 ई. में लिखा था कि, ‘वह समय दूर नहीं जब पंजाब हमारे अधीन होगा। ऐसा नहीं कि यह अगले वर्ष ही होगा, परंतु यह अनिवार्य और अवश्यसंभावी है।’ इस प्रकार 1838 ई. के बाद से अंग्रेज पंजाब को हथियाने की योजना पर काम कर रहे थे।

प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध की घटनाएँ

प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध लगभग दो महीने तक चला और 9 मार्च, 1846 ई. को लाहौर की संधि से समाप्त हुआ।

मुदकी का युद्ध

सिखों और अंग्रेजों के बीच पहली लड़ाई 18 दिसंबर, 1845 ई. को फिरोजपुर के पास मुदकी नामक स्थान पर हुई। इस युद्ध में अंग्रेजी सेना का सेनापति बंगाल सेना का कमांडर इन चीफ सर ह्यू गॉफ था और सिख सेना का नेतृत्व लालसिंह कर रहा था। युद्ध आरंभ होते ही विश्वासघाती लालसिंह मैदान छोड़कर भाग गया। इस विश्वासघात के कारण सिखों की 40 हजार की बड़ी सेना अंग्रेजों की 11 हजार की छोटी सेना से हार गई।

फिरोजशाह का युद्ध

दूसरा युद्ध 21 दिसंबर, 1845 ई. को फिरोजशाह नामक स्थान पर हुआ। इस युद्ध में सिखों के तोपखाने ने अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ा दिये। अंग्रेजों की पराजय निश्चित हो गई थी, लेकिन तभी सिख सेनापति तेजसिंह युद्धक्षेत्र से भाग गया और जीतती हुई सिख सेना को 30 दिसंबर को आत्मसमर्पण करना पड़़ा। इस प्रकार ‘फीरूशहर की लड़ाई अंग्रेजों ने हारने के बाद जीत ली’।

बुडबल और आलीवाल के युद्ध

अगला युद्ध 21 जनवरी, 1846 ई. को बुडबल में हुआ। इस युद्ध में सिखों को विजय मिली, किंतु वे इसका लाभ नहीं उठा सके क्योंकि अंग्रेजों को शीघ्र ही दूसरी सेना की सहायता मिल गई और 28 जनवरी, 1846 ई. को आलीवाल के युद्ध में सिख सेना पराजित हो गई।

सुबराँव का युद्ध

अंतिम युद्ध 10 फरवरी, 1846 ई. को सुबराँव में हुआ। इस युद्ध के संबंध में ह्वीलर ने लिखा है कि, ‘ब्रिटिशकालीन भारत के इतिहास में लड़े जाने वाले युद्धों में सुबराँव का युद्ध सबसे भीषण था, परंतु जहाँ सिख सेना अपने सम्मान की रक्षा के लिए अपना सब कुछ बलिदान करने को तत्पर थी, वहीं शामसिंह अटारीवाला के अतिरिक्त अन्य सभी सिख सेनानायक विश्वासघात पर उतारू थे।’

सुबराँव के युद्ध के पहले ही देशद्रोही नेताओं ने अंग्रेजों से मिलकर खालसा को नष्ट करने को पूरी योजना बना ली थी। डोगरा नेता गुलाबसिंह ने लाहौर में शक्ति प्राप्त कर ली थी। उसने अंग्रेजों से युद्ध के पहले ही अंग्रेजों से तय कर लिया था कि अंग्रेज सिख सेना को पराजित कर देंगे, इसके बाद लाहौर सरकार सिख सेना को विघटित कर देगी। इस सेवा के बदले अंग्रेज गुलाबसिंह को काश्मीर का प्रांत दे देंगे। लालसिंह ने युद्ध के तीन दिन पूर्व ही सिखों की युद्ध-योजना का मानचित्र अंग्रेजों के पास भेज दिया था।

आंग्ल-सिख युद्ध और पंजाब की विजय (Anglo-Sikh War and Conquest of Punjab)
वज़ीर लालसिंह

सुबराँव के युद्ध में सिख सेना आश्चर्यजनक बहादुरी से लड़ी, लेकिन अपने सेनापतियों के विश्वासघात के कारण उसे पराजित होना पड़ा। कनिंघम ने लिखा है, ‘सतलज पार करते समय सिख सैनिक क्रुद्ध ब्रिटिश सैनिकों द्वारा भून डाले गये। अंग्रेजों के 320 सैनिक मारे गये और 283 सैनिक आहत हुए। अंग्रेजों ने सतलज के पुल को नष्ट कर दिया, जिससे सिख सैनिक वापस न जा सकें।’

सुबराँव में सिख सेना को पराजित करने के बाद अंग्रेजी सेना ने सतलुज नदी को पार किया और 20 फरवरी, 1846 ई. को लाहौर पर अधिकार कर लिया। महाराजा दिलीपसिंह की ओर से गुलाबसिंह ने संधि-वार्ता आरंभ की। हार्डिंग स्वयं लाहौर पहुँच गया और दोनों पक्षों के बीच 9 मार्च, 1846 ई. को लाहौर की संधि हो गई।

लाहौर की संधि और प्रमुख प्रमुख धाराएँ

प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध का अंत अंग्रेजों की विजय के साथ हुआ था। सिखों और अंग्रेजों के बीच 9 मार्च, 1846 ई. को लाहौर की संधि हुई। इस संधि की प्रमुख शर्तें इस प्रकार थीं-

  1. व्यास नदी और सतलुज नदी के मध्य जालंधर दोआब का क्षेत्र अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया।
  2. अंग्रेजों ने दिलीपसिंह को ही राजा बनाये रखा और रानी जिंदन को उसकी संरक्षिका के रूप में अपने पद पर बना रहने दिया।
  3. सिख सेना की शक्ति कम करके उनकी संख्या 12,000 घुड़सवार और 20,000 पदाति निश्चित कर दी गई और इसके बदले कुछ अंग्रेजी सैनिक रखने को कहा गया।
  4. युद्ध के हर्जाने के रूप में सिखों ने अंग्रेजों को 1.5 करोड़ रुपया देना स्वीकार किया। सिख केवल 50 लाख रुपया ही नकद दे सके, इसलिए 1 करोड़ रुपये के बदले जम्मू-कश्मीर वाला भाग अंग्रेजों को दे दिया गया।
  5. सिख साम्राज्य में ब्रिटिश प्रतिनिधि के रूप में हेनरी लॉरेंस को नियुक्त किया गया। उसने वचन दिया कि वह पंजाब के आंतरिक शासन में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
  6. महाराजा किसी यूरोपीय या अमरीकन को अपनी सेवा में नहीं रख सकेगा ।
  7. लाहौर में अस्थायी रूप से अंग्रेजी सेना को तैनात कर दिया गया और अंग्रेजी सेना सिख राज्य में कहीं भी आ-जा सकती थी।
  8. दिलीपसिंह ने गुलाबसिंह को काश्मीर का स्वतंत्र शासक मान लिया।

11 मार्च, 1846 ई.  को लाहौर संधि में एक धारा और जोड़ी गई, जिसके अनुसार सिखों ने उस वर्ष के अंत तक अंग्रेज सेना को लाहौर के किले में रहने की अनुमति दे दी। उसका व्यय भी सिखों ने देना स्वीकार किया।

अंग्रेजों ने 16 मार्च, 1846 ई. को गुलाबसिंह से अमृतसर में एक पृथक् संधि की, जिसके अनुसार रावी और सिंधु नदियों के बीच का पर्वतीय प्रदेश (काश्मीर) उसे एक करोड़ रुपये में बेच दिया गया और गुलाबसिंह को कश्मीर के महाराजा की उपाधि दी। चूंकि उसे गुप्त वार्ता में वादा की गई भूमि से कम भूमि दी गई, इसलिए उससे 75 लाख रुपये लिये गये। इस प्रकार उत्तर में एक शक्तिशाली डोगरा राज्य स्थापित करके हार्डिंग ने सिखों का एक प्रतिद्वंद्वी खड़ा कर दिया।

प्रायः यह प्रश्न किया जाता है कि इस समय हार्डिंग ने पंजाब को अंग्रेजी राज्य में क्यों नहीं मिलाया। हार्डिंग का यह कहना सही नहीं है कि उसने रणजीतसिंह की स्मृति के सम्मान में पंजाब का विलय नहीं किया था। सच तो यह है कि खालसा सेना अभी केवल पराजित हुई थी, नष्ट नहीं हुई थी और इस समय अंग्रेजों के पास पर्याप्त सैनिक शक्ति नहीं थी, जिससे पंजाब पर अधिकार किया जा सके। साथ ही, अंग्रेज अफगानिस्तान और ब्रिटिश राज्य के बीच पंजाब को बफर राज्य के रूप में बनाये रखना चाहते थे।

भैरोवाल की संधि (1846 ई.)

लाहौर संधि की संधि के बाद सिख काफी असंतुष्ट थे और बार-बार उपद्रव कर रहे थे। हार्डिंग की योजना थी कि लाहौर में अंग्रेजी सेना दिलीपसिंह के वयस्क होने तक बनी रहे, लेकिन अंग्रेजी सेना की यह उपस्थिति सिखों के लिए अपमानजनक थी। अंग्रेजों ने काश्मीर बेंच दिया था, इससे भी वे बहुत क्षुब्ध थे। रानी जिंदन और लालसिंह के उकसावे पर काश्मीर के गवर्नर इमानुद्दीन के पुत्र ने विद्रोह कर दिया। यद्यपि विद्रोह का दमन कर दिया गया, लेकिन अंग्रेजों ने महाराजा दिलीपसिहं को बाध्य किया कि रानी जिंदन और लालसिंह उनके पदों से हटा दे और नई संधि करे। फलतः रानी जिंदन और लालसिंह अपने पदों से हटा दिये गये और हार्डिंग ने 16 दिसंबर, 1846 ई. को लाहौर दरबार पर भैरोवाल की एक नई संधि थोप दी, जिससे अंग्रेजों का पंजाब पर वास्तविक अधिकार स्थापित हो गया। भैरोवाल की संधि की प्रमुख शर्तें कुछ इस प्रकार थीं-

  1. महारानी जिंदन को दिलीपसिंह की संरक्षिका के पद से हटा दिया गया और 1.5 लाख रुपया वार्षिक पेंशन देकर बनारस भेज दिया गया।
  2. राज्य संचालन के लिए ब्रिटिश प्रतिनिधि हेनरी लॉरेंस के अधीन आठ सिख सरदारों की एक संरक्षक परिषद गठित की गई, जो दिलीपसिंह के संरक्षक के रूप में कार्य करेगी।
  3. यह संधि दिलीपसिंह के वयस्क होने तक लागू रहनी थी।

लाहौर में अंग्रेजी सेना को स्थायी रूप से तैनात कर दिया गया और इसके लिए लाहौर दरबार ने 20 लाख रुपया वार्षिक देना स्वीकार किया।

द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध (1848-1849 ई.)

प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध के बाद हुई अपमानजनक संधियों से सिखों में असीम क्रोध और असंतोष था और वे किसी भी तरह अंग्रेजी शासन से छुटकारा चाहते थे। खालसा सेना जानती थी कि उसकी पराजय का कारण उनके विश्वासघाती नेता थे। उनमें शौर्य, साहस और आत्म-विश्वास की कमी नहीं थी। उन्हें विश्वास था कि यदि फिर युद्ध हो, तो उनकी विजय होगी।

भैंरोवाल की संधि के बाद पंजाब में सभी महत्वपूर्ण पदों पर अंग्रेज अधिकारी नियुक्त किये जाने लगे और वे प्रशासन में अधिकाधिक हस्तक्षेप करने लगे। पंजाब काउंसिल के अध्यक्ष हेनरी लॉरेंस ने बड़ी संख्या में सिख सेना को भंग कर दिया, जिसके कारण पंजाब में अराजकता फैल गई। अंग्रेजों ने रानी जिंदन को राज्य से निर्वासित कर दिया था और लालसिंह को मृत्युदंड दिया था, जो राष्ट्रवादी सिखों की दृष्टि में राष्ट्रीय अपमान था। 1847 ई. और 1848 ई. में अंग्रेजों ने सुधार के बहाने मुसलमानों को अजान और गोवध के अधिकार दिये और जान बूझकर सिखों के हितों के विरुद्ध और उनकी धार्मिक भावना के विपरीत कार्य किये, जिससे सिखों में असंतोष उत्पन्न होना स्वाभाविक था। इस प्रकार कई कारणों से स्वाभिमानी सिख अंग्रेजों से प्रतिशोध लेने के लिए तत्पर थे।

मूलराज का विद्रोह

द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध का तात्कालिक कारण मुल्तान के गवर्नर मूलराज का विद्रोह था। वह पूरी मालगुजारी नहीं वसूल कर सका था, फिर भी, ब्रिटिश प्रतिनिधि हेनरी लॉरेंस ने उससे 12 लाख के स्थान पर 20 लाख रुपये राजस्व की माँग की। दीवान मूलराज ने बढ़े हुए राजस्व को देने में अपनी असमर्थता व्यक्त की और त्यागपत्र दे दिया। हेनरी लॉरेंस ने दीवान मूलराज की जगह खानसिंह को नया दीवान नियुक्त किया और वहाँ के प्रशासन पर नियंत्रण रखने के लिए दो सहायक अंग्रेज अधिकारियों- लेफ्टिनेंट पैट्रिक वैन्स ऐगन्यू और लेफ्टिनेंट एंडरसन को मुल्तान भेजा। मूलराज ने मुल्तान का दुर्ग तो अंग्रेजों को दे दिया, किंतु इस अन्याय के विरूद्ध मुल्तान की जनता ने विद्रोह कर दिया और अप्रैल, 1848 ई. में दोनों अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर दी।

मुल्तान की जनता ने मूलराज को बाध्य किया कि वह उनके व्रिदोह का नेतृत्व करे। मुल्तान का स्थानीय विद्रोह शीघ्र ही दूसरे क्षेत्रों में फैल गया। हजारा का गवर्नर छतरसिंह, जिसकी पुत्री का विवाह महाराजा दिलीपसिंह से हुआ था, वह भी लारेंस के व्यवहार से बहुत क्षुब्ध था। उसका पुत्र शेरसिंह भी अंग्रेजों से रूष्ट था। मूलराज के विद्रोह को दबाने के लिए शेरसिंह की अधीनता में लाहौर से एक सिख सेना भेजी गई, किंतु यह सेना भी मूलराज से मिल गई और अनेक अनुभवी सिख सैनिक उसके नेतृत्व में एकत्रित हो गये। सिखों ने सीमा पर अफगानों को पेशावर देकर उनकी भी मित्रता प्राप्त कर ली। इस प्रकार मूलराज का स्थानीय विद्रोह पूरे पंजाब में फैल गया। जालंधर, दोआब, अटक और लाहौर को छोड़कर पूरे पंजाब में विद्रोह छिड़ गया।

लॉर्ड डलहौज़ी की योजना

मूलराज के विद्रोह के समय साम्राज्यवादी लॉर्ड डलहौज़ी भारत का गवर्नर जनरल था। वह चाहता तो तुरंत आक्रमण करके विद्रोह का दमन कर देता, किंतु उसने तत्काल विद्रोह के दमन के लिए कोई कार्यवाही नहीं की। कहा जाता है कि डलहौज़ी अभी भारत में जल्दी ही आया था और उसे यहाँ की स्थिति का कोई ज्ञान नहीं था। उसने सेनापति लॉर्ड गफ की सलाह से मुल्तान पर आक्रमण सर्दियों तक के लिए स्थगित कर दिया क्योंकि वर्षा में मुल्तान पानी से भर जाता था।

लेकिन लगता है कि डलहौजी ने जान बूझकर विलंब से सैनिक कार्यवाही करने का निर्णय किया ताकि विद्रोह पूरे पंजाब में फैल जाए और पंजाब को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित करने का उचित आधार मिल जाए। डलहौजी जानता था कि यदि पंजाब की रियासत को नाममात्र भी जीवित रखा जायेगा, तो विद्रोह होते रहेंगे और अशांति बनी रहेगी। इसलिए वह सारे पंजाब को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित करना चाहता था।

आर्चबोल्ड भी लिखता है कि मुल्तान के विरुद्ध शीघ्र कार्यवाही इसलिए नहीं की गई क्योंकि लॉर्ड गफ समझता था कि यदि मुल्तान के विरुद्ध सेना भेजी गई और वह सफल हो गई तो केवल मूलराज को दंडित करना होगा और सिखों से होने वाला संघर्ष टल जायेगा। इस प्रकार डलहौजी ने सिखों से अंतिम युद्ध करने के लिए मुल्तान पर हमला करने में विलंब किया। बिलंब से सैनिक कार्यवाही करने का परिणाम यह हुआ कि सिखों को एकत्रित होने का अवसर मिल गया और मूलराज का स्थानीय विद्रोह स्वतंत्रता संग्राम में परिणित हो गया। डलहौजी को भी युद्ध का बहाना मिल गया और उसने 10 अक्टूबर, 1848 ई. को सिखों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस प्रकार द्वितीय आंग्ल-सिक्ख युद्ध आरंभ हो गया।

द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध की घटनाएँ
रामनगर का युद्ध

द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध के दौरान पहला युद्ध 22 नवंबर, 1848 ई. को रामनगर नामक स्थान पर हुआ। अंग्रेजी सेना का नेतृत्व ह्यू गफ और सिख सेना का नेतृत्व शेरसिंह ने किया। यद्यपि इस युद्ध में कोई निर्णय नहीं हुआ।

चिलियाँवाला का युद्ध

इसके बाद 13 जनवरी, 1848 ई. को शेरसिंह के नेतृत्व में सिखों एवं ब्रिटिश कमांडर गफ के नेतृत्व में अंग्रेजों के बीच चिलियाँवाला स्थान पर दूसरा भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध का कोई परिणाम नहीं निकला, किंतु इसमें दोनों पक्षों की भारी हानि हुई। यह युद्ध भी अनिर्णीत रहा। इस युद्ध के 48 घंटे बाद कमांडर गफ को हटाकर चार्ल्स नेपियर को कमान सौंपी गई।

इस बीच अंग्रेज सेना ने जनवरी, 1849 ई. में मुल्तान पर आक्रमण किया, जिसमें मूलराज पराजित हुआ और 22 जनवरी, 1849 ई. को उसने आत्मसमर्पण कर दिया। अंग्रेजों ने उसे पंजाब से निष्कासन का दंड दिया। अब मुल्तान पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।

गुजरात का युद्ध

सिखों और अंग्रेजों के बीच अंतिम और निर्णायक युद्ध 21 फरवरी, 1849 ई. को गुजरात (पाकिस्तान के पंजाब का गुजरात) नामक स्थान पर हुआ। इस युद्ध में मुख्य रूप से तोपों का प्रयोग किया गया था, इसलिए इसे ‘तोपों का युद्ध’ भी कहते हैं। यद्यपि सिख सेना ने अदम्य उत्साह और अपूर्व शौर्य के साथ युद्ध किया, किंतु अंततः सिख सेना पराजित हो गई और उसने 13 मार्च, 1849 ई. को चार्ल्स नेपियर के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। इस युद्ध के संबंध में मेलेसन ने लिखा है कि, ‘सिख जिस प्रकार लड़े, कोई दूसरी सेना उससे अच्छी तरह नहीं सकती थी, साथ ही कोई दूसरी सेना खराब तरह से संचालित भी नहीं हो सकती थी।’

आंग्ल-सिख युद्ध के परिणाम

इस युद्ध के बाद तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने 29 मार्च, 1849 ई. को संपूर्ण पंजाब को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित करने की घोषणा कर दी और पंजाब के प्रशासन के लिए तीन अंग्रेज कमिश्नरों की एक समिति बना दी। बाद में 1853 ई. में इस तीन सदस्यीय बोर्ड को समाप्त कर दिया गया और इसके स्थान पर एक चीफ कमिश्नर की नियुक्ति की गई। पंजाब के प्रथम चीफ कमिश्नर जॉन लॉरेंस थे, जो ब्रिटिश प्रतिनिधि हेनरी लॉरेंस के भाई थे।

दिलीपसिंह के समस्त राजकीय अधिकार समाप्त करके 50,000 की पेंशन दे दी गई और पढ़ाई के लिए ब्रिटेन भेज दिया गया।

खालसा सेना को पूर्णरूप से भंग कर दिया गया। विद्रोही सिख सरदार छतरसिंह, शेरसिंह और अवतारसिंह की जागीरें जब्त कर ली गईं। दीवान मूलराज को आजन्म कारावास देकर रंगून भेज दिया गया।

द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध के बाद रणजीतसिंह के परिवार से कोहिनूर हीरा लेकर ब्रिटिश राजमुकुट में लगा दिया गया, जो इस समय ज्वैल हाउस, टॉवर ऑफ़ लंदन में सुरक्षित है।

डलहौजी की पंजाब के विलय-नीति का औचित्य

डलहौजी की पंजाब विलय नीति के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। सर हेनरी लॉरेंस के अनुसार पंजाब का विलय हो सकता है कि न्यायसंगत रहा हो, लेकिन अनुचित था। यही नहीं, सर हेनरी लॉरेंस ने पंजाब विलय के विरोध में त्यागपत्र तक दे दिया था, किंतु लॉर्ड हार्डिंग के कहने पर उसने त्यागपत्र वापस ले लिया था। जान लॉरेंस का विचार था कि विलय न्यायसंगत और आवश्यक था। इवान्स बेल लिखता है, ‘पंजाब का विलय केवल विलय ही नहीं था, बल्कि विश्वासघात था’ क्योंकि पंजाब का प्रशासन अंग्रेज रेजीडेंट के हाथ में था और वह इसके लिए उत्तरदायी था। ट्रोटर भी डलहौजी के कार्य को ‘सिद्धांतहीन और अन्यायपूर्ण’ मानता है। डलहौजी के पक्ष में केवल एक तर्क ही दिया जा सकता है कि पंजाब का विलय ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के लिए आवश्यक था। वास्तव में मराठों के बाद, केवल सिखों में ही भारत में ब्रिटिश शासन को चुनौती देने की शक्ति थी। लेकिन अंग्रेजों ने पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित करके उस खतरे को भी समाप्त कर दिया। राष्ट्र को लिखे एक पत्र में डलहौजी ने कहा था: ‘पंजाब को मुक्त करना कंपनी के सर्वोत्तम हित में है, क्योंकि जब तक पंजाब में सिख शक्ति मौजूद है, भारत में हमारा साम्राज्य सुरक्षित नहीं हो सकता, क्योंकि सिख कभी अंग्रेजों के मित्र नहीं हो सकते।’

सिखों की पराजय के कारण

महाराजा रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद ही सिख शक्ति का पतन हो गया और पंजाब पर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया। सिखों की इस पराजय के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे-

एक, रणजीतसिंह ने निरंकुश शासन की स्थापना की थी। केवल योग्य और शक्तिशाली शासक ही इस प्रशासन का संचालन कर सकता था। किंतु रणजीतसिंह के उत्तराधिकारी दुर्बल और अयोग्य थे।

दूसरे, पंजाब के सैनिक तथा प्रशासनिक नेताओं में एकता का अभाव था। उनके कलह और पारस्परिक द्वेष से राज्य दुर्बल हो गया और अंग्रेजों ने इसका लाभ उठाया।

तीसरे, रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद सिख सेना अधिक शक्तिशाली हो गई थी, जिससे राज्य में आर्थिक अराजकता फैल गई। इसका दूसरा परिणाम यह हुआ कि राज्य पर सेना का प्रभाव बढ़ गया, जिससे सेना अनुशासनहीन हो गई। सिख नेताओं ने जानबूझ कर सेना के विरूद्ध षड्यंत्र किये।

चौथे, सिख सेना संख्या तथा शस्त्रों की दृष्टि से अंग्रेज सेना की अपेक्षा दुर्बल थी। अंग्रेजों का तोपखाना, घुड़सवार सेना, पदाति सेना अधिक कुशल तथा प्रशिक्षित थे।

पाँचवें, अंग्रेजों का विशाल साम्राज्य भारत में स्थापित हो चुका था। उनके पास असीमित भौतिक तथा सैनिक संसाधन थे। सिख राज्य आर्थिक संकट से ग्रस्त था और व्यापक युद्ध में अंग्रेजी सेना का सामना करने की स्थिति में नहीं था।

पंजाब की प्रशासनिक व्यवस्था

प्रशासनिक सुविधा के लिए पंजाब में पहले तीन सदस्यीय बोर्ड का गठन किया गया। बाद में 1853 ई. में इस तीन सदस्यीय बोर्ड को समाप्त भी कर दिया गया और इसके बदले एक चीफ कमिश्नर की नियुक्ति कर दी गई। बाद में पंजाब को चार डिवीजनों में बाँट दिया गया और प्रत्येक डिवीजन में एक-एक कमिश्नर की नियुक्ति की गई। डिवीजनों को भी छोटी-छोटी इकाइयों में विभाजित  किया गया और उनके प्रशासन के लिए डिप्टी कमिश्नर नियुक्त किये गये। डिप्टी कमिश्नर के नीचे तहसीलदार और नायब तहसीलदार थे।

सिख सेना को विघटित कर दिया गया। सैनिकों तथा अन्य व्यक्तियों से अस्त्र-शस्त्र छीन लिये गये। सिख सरदारों की जागीरें जब्त कर ली गईं। शांति-व्यवस्था बनाये रखने के लिए अंग्रेज अफसरों के नियंत्रण में पुलिस दल का संगठन किया गया। गाँवों में शांति-व्यवस्था की जिम्मेदारी जमींदारों को सैंपी गई। न्याय विभाग का संगठन किया गया और विधि-संहिता तैयार की गई। सार्वजनिक निर्माण-कार्यों को राहत दी गई और भूमिकर उपज का 1/4 निश्चित किया गया। कृषकों को ऋण वितरित किये गये, जिससे कृषि में तेजी से सुधार हुआ।

जान लॉरेंस के प्रशासन से पंजाब की जनता को शांति और सुख मिला। जनता इतनी संतुष्ट थी कि 1857 के विद्रोह के दौरान पंजाब में शांति बनी रही। यही नहीं, सिख सैनिकों ने इस विद्रोह का दमन करने में अंग्रेजों का साथ भी दिया।

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