उदारवादी राष्ट्रवाद का युग (The Era of Liberal Nationalism 1885-1905)

उदारवादी राष्ट्रवाद का युग (1885-1905)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में उसके पहले बीस वर्षों की राजनीति को मोटे तौर पर ‘उदारवादी राजनीति’ कहा जाता है क्योंकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा संचालित राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व उदारवादी नेताओं के हाथ में था। इन्हें उदारवादी इसलिए कहा गया है ताकि इन्हें बीसवीं शताब्दी के उग्र राष्ट्रवादियों से पृथक् किया जा सके। इस काल में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की राजनीति पर समृद्धिशाली मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी, जिनमें वकील, डाक्टर, इंजीनियर, पत्रकार और साहित्यिक व्यक्ति सम्मिलित थे, जैसे- दादाभाई नौरोजी, बदरुद्दीन तैय्यबजी, महादेव गोविंद रानाडे, फिरोजशाह मेहता, पी. आनंद चारलू, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, रोमेशचंद्र दत्त, आनंदमोहन बोस, दीनशा वाचा, व्योमेशचंद्र बनर्जी, गोपालकृष्ण गोखले, मदनमोहन मालवीय आदि। वे पाश्चात्य शिक्षा एवं संस्कृति से प्रभावित उदारवादी लोग थे और संवैधानिक तरीकों पर विश्वास करते थे। इस चरण में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का ध्येय धुँधला, अस्पष्ट और संदिग्ध-सा था। उस समय कांग्रेस शायद ही एक संगठित राजनीतिक पार्टी रही होगी, उसकी प्रकृति एक वार्षिक सम्मेलनवाली अधिक थी, जो ‘तीन दिनों के तमाशे’ के दौरान बहसें करती, प्रस्ताव पारित करती और फिर बिखर जाती।

उदारवादी राष्ट्रवाद का युग 1885-1905 (The Era of Liberal Nationalism 1885-1905)
गोपालकृष्ण गोखले

उदारवादी मुख्यतः उपयोगितावादी सिद्धांतों से प्रभावित थे, एडमंड बर्क, जान स्टुअर्ट मिल और जान मार्ली ने उनके विचारों और कार्यों पर एक छाप छोड़ी थी। उनका विश्वास था कि सरकार नैतिकता या सदाचार के सिद्धांतों से नहीं, कार्य-साधकता से संचालित होनी चाहिए। वे संविधान को अलंघ्य मानते थे और इसलिए उन्होंने बार-बार ब्रिटिश संसद से शिकायतें कीं कि भारत सरकार संविधान का हनन कर रही है। उन्होंने समानता की माँग नहीं की, जो एक अपेक्षाकृत अमूर्त विचार लगती थी, उन्होंने स्वाधीनता को वर्गीय विशेषाधिकार के बराबर समझा और क्रमिक टुकड़ों में सुधार की इच्छा की। उनमें से अधिकांश का मानना था कि भारत में अंग्रेजी राज ‘ईश्वर की अनन्य कृपा’ है और अंग्रेजी साहित्य, शिक्षा-पद्धति, यातायात एवं संचार के साधनों का विकास, न्याय-प्रणाली, स्थानीय स्वशासन आदि ब्रिटेन की देन हैं, जिनका उद्देश्य भारत का आधुनिकीकरण करना है। उनका विश्वास था कि भारत अपनी एकता ब्रिटिश शासन में ही बनाये रख सकता है तथा उसका विकास भी ब्रिटिश शासन के अंतर्गत ही संभव है। कांग्रेस के छठवें अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए फीरोजशाह मेहता ने कहा था: ‘‘इंग्लैंड और भारत का संबंध इन दोनों देशों और समस्त विश्व की अपनेवाली पीढि़यों के लिए वरदान होगा।’’

उदारवादी यह विश्वास करते थे कि भारत की उन्नति केवल अंग्रेजी देखरेख में ही संभव है, इसलिए ये लोग क्राउन के प्रति राजभक्त थे। सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने ब्रिटिश सरकार के प्रति राजभक्ति प्रकट करते हुए कहा था: ‘‘ब्रिटिश सरकार के साथ संबंध बनाये रखने के लिए हमें अनन्य राजभक्ति के साथ कार्य करना चाहिए। हम ब्रिटिश सरकार के साथ संबंध-विच्छेदन करने की बात नहीं सोच रहे हैं, हम उसके साथ स्थायी संबंध बनाये रखना चाहते हैं, जिसने शेष संसार के सामने स्वतंत्र संस्थाओं का आदर्श प्रस्तुत किया है।’’

उदारवादियों के सिद्धांत एवं उद्देश्य

उदारवादी कांग्रेसियों को अंग्रेजों की न्यायप्रियता पर पूरा विश्वास था। उनका मानना था कि स्वयं अंग्रेज स्वतंत्रता-प्रेमी हैं और यह विश्वास होने पर कि भारतीय लोग स्वशासन के योग्य हो गये हैं, वे स्वयं भारतीयों को स्वशासन सौंप देंगे। सुरेंद्रनाथ बनर्जी को अंग्रेजों की न्याय, दया तथा बुद्धि की भावना में दृढ़-विश्वास था। वे कहते थे: ‘‘संसार की महानतम् प्रतिनिधि सभा, संसदों की जननी, ब्रिटिश कामन्स सभा के प्रति हमारे हृदय में श्रद्धा है। अंग्रेजों ने सर्वत्र प्रतिनिध्यात्मक आदर्श पर ही शासन की रचना की है।’’ दादाभाई नौरोजी ने कहा था: ‘‘यद्यपि जान बुल (ब्रिटिश राष्ट्र) तनिक बुद्धि के है, किंतु यदि उसे एक बार कोई बात सुझा दी जाए कि वह अच्छी और उचित है, तो आप उसे कार्यरूप में परिणित किये जाने के प्रति विश्वस्त हो सकते हैं।’’ उनका यह भी मानना था कि वह दिन दूर नहीं है, जब अंग्रेज स्वेच्छा से भारत छोड़कर चले जायेंगे।

उदारवादी राष्ट्रवाद का युग 1885-1905 (The Era of Liberal Nationalism 1885-1905)
सुरेंद्रनाथ बनर्जी

आरंभिक राष्ट्रवादी सरकार से संघर्ष करने के पक्ष में कतई नहीं थे। वे अपनी माँगों को नरम और संयत भाषा में प्रार्थना-पत्रों, स्मृति-पत्रों, प्रतिवेदनों एवं शिष्टमंडलों के द्वारा सरकार के समक्ष रखते थे। कांग्रेस के तीसरे अधिवेशन में मदनमोहन मालवीय ने कहा था कि हमें सरकार से बार-बार निवेदन करना चाहिए कि वह हमारी माँगों पर शीघ्रता से विचार करे और फिर हम अपनी इन सुधार-संबंधी माँगों को स्वीकार करने पर जोर दें। उदारवादी देश और जनता के दुःखों और कष्टों को अधिकारियों के समक्ष ठोस तथ्य के साथ प्रस्तुत करते थे और सरकार से इस बात की प्रार्थना करते थे कि वह उनकी माँगों को शीघ्र से शीघ्र पूरा करने का आश्वासन दे। 1906 में कांग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए दादाभाई नौरोजी ने कहा था: ‘‘शांतिप्रिय विधि ही इंग्लैंड के राजनीतिक, सामाजिक और औद्योगिक इतिहास की जीवन और आत्मा है, इसलिए हमें भी उस सभ्य, शांतिप्रिय और नैतिक शक्तिरूपी अस्त्र को प्रयोग में लाना चाहिए।’’

उदारवादियों की कार्यविधियाँ

उदारवादियों ने अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए दो प्रकार के कार्यक्रमों का अनुसरण किया। एक तो, भारतीयों में राजनीतिक चेतना तथा राष्ट्रीय भावना जगाने के लिए एक शक्तिशाली जनमत तैयार करना तथा जनता को राजनीतिक प्रश्नों पर शिक्षित और एकताबद्ध करना। उदारवादी कांग्रेस का अधिवेशन बुलाकर प्रस्ताव पारित करते थे। इन प्रस्तावों से जनता को परिचित करवाने हेतु उन्हें समाचारपत्रों में प्रकाशित करवाते थे। वे अपनी माँगों को अत्यंत विनम्रतापूर्वक प्रार्थना-पत्रों के माध्यम से ब्रिटिश सरकार को अवगत कराते थे। यद्यपि कांग्रेस के प्रस्ताव एवं प्रार्थना-पत्र सरकार को संबोधित होते थे, किंतु उनका वास्तविक उद्देश्य भारतीय जनता को शिक्षित करना होता था।

उदारवादी राष्ट्रवाद का युग 1885-1905 (The Era of Liberal Nationalism 1885-1905)
महादेव गोविंद रानाडे

दूसरे, आरंभिक राष्ट्रवादी ब्रिटिश जनमत एवं ब्रिटिश सरकार को भी प्रभावित करना चाहते थे ताकि जिस प्रकार के सुधार राष्ट्रवादियों द्वारा सुझाये गये थे, उनको लागू किया जा सके। उदारवादियों का विश्वास था कि ब्रिटिश जनता और संसद भारत के साथ न्याय तो करना चाहती थी, किंतु उन्हें यहाँ की वास्तविक स्थिति की जानकारी नहीं थी। यही कारण है कि भारतीय जनमत को शिक्षित करने के साथ-साथ उदारपंथी इंग्लैंड में भी अपनी माँगों के संबंध में जनमत तैयार करने का प्रयास किये। दादाभाई ने 1887 में लंदन में ‘भारतीय सुधार समिति’ बनाई और 1888 में ‘इंडियन एजेंसी’ की स्थापना की, जिसके अध्यक्ष विलियम डिग्वी बने। यही संस्था 1889 में ‘ब्रिटिश समिति’ में बदल गई। इस संस्था ने भारतीय मामलों से अंग्रेजों को अवगत कराने के लिए 1890 में ‘इंडिया’ नामक एक साप्ताहिक पत्रिका भी निकालना शुरू किया। भारतीयों का पक्ष रखने के लिए कांग्रेस ने समय-समय पर अपने शिष्टमंडल भी इंग्लैंड भेजे। 1889 में विपिनचंद्र पाल और 1890 में सुरेंद्रनाथ बनर्जी, डब्ल्यू.सी., बनर्जी, ए.ओ. ह्यूम आदि कांग्रेसियों ने इंग्लैंड जाकर ब्रिटिश जनमत को भारतीयों की समस्याओं से अवगत कराया। यही नहीं, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 1892 का अधिवेशन भी लंदन में आयोजित करने का निर्णय लिया गया था। कांग्रेस की इस प्रचार-नीति के कारण ब्रिटेन में भारतीयों की माँगों से सहानुभूति रखनेवाला एक वर्ग तैयार हो गया।

उदारवादियों की उपलब्धियाँ

आरंभ के उदारवादी नेताओं का विश्वास था कि देश की राजनीतिक मुक्ति के लिए सीधी लड़ाई लड़ना अभी व्यावहारिक नहीं है। भारत अभी एक नवोदित राष्ट्र है और इसे एक राष्ट्र के रूप में संगठित किये जाने की आवश्यकता है। अभी राजनीतिक चेतना प्राप्त भारतीयों को जाति-धर्म के भेदों से ऊपर उठकर उनमें राष्ट्रीय एकता की भावना को विकसित और मजबूत करना चाहिए। इस प्रकार उदारवादियों ने भारतीयों के लिए स्वतंत्रता की नहीं, केवल नागरिक स्वतंत्रता और प्रतिनिधि संस्थाओं के विकास की माँग की, ताकि भारतीय जनता को एक साझे आर्थिक-राजनीतिक कार्यक्रम के आधार पर संगठित किया जा सके। इन नेताओं ने बार-बार कहा कि उन्हें क्रांति नहीं चाहिए, स्वतंत्रता नहीं चाहिए, नया संविधान भी नहीं चाहिए, उन्हें तो सिर्फ केंद्र और प्रांतों की परिषदों में प्रतिनिधित्व चाहिए।

उदारवादी राष्ट्रवाद का युग 1885-1905 (The Era of Liberal Nationalism 1885-1905)
फिरोजशाह मेहता
साम्राज्यवाद की अर्थशास्त्रीय समीक्षा

आरंभिक राष्ट्रवादियों की संभवतः सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक उपलब्धि थी- साम्राज्यवाद की अर्थशास्त्रीय समीक्षा। सफल व्यापारी दादाभाई नौरोजी, न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे, सेवानिवृत्त आई.सी.एस. अधिकारी रोमेशचंद्र दत्त, दिनशा वाचा जैसे अनेक उदारपंथी नेताओं ने औपनिवेशिक शासन की शोषणकारी आर्थिक नीतियों का अनावरण किये और उसके विरुद्ध एक शक्तिशाली आंदोलन खड़ा किये।

उदारवादी राष्ट्रवाद का युग 1885-1905 (The Era of Liberal Nationalism 1885-1905)
दादाभाई नौरोजी (ग्रैंड ओल्डमैन आफ इंडिया)

आरंभिक उदारवादियों, विशेषकर दादाभाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक ‘पावर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया’ में भारत की बढ़ती गरीबी, आर्थिक पिछड़ेपन तथा कृषि के विनाश के लिए ब्रिटिश सरकार की नीतियों को उत्तरदायी ठहराया। दादाभाई ने 1881 में ही घोषित कर दिया था: ‘‘ब्रिटिश शासन एक स्थायी, बढ़ता हुआ तथा लगातार विदेशी आक्रमण है, जो धीरे-धीरे सही, मगर पूरी तरह देश को नष्ट कर रहा है।’’ उन्होंने स्पष्ट बताया कि भारत में गरीबी ब्रिटिश शासन की देन है। इनका तर्क यह था कि लूट, खिराज और वणिकवाद के माध्यम से अधिशेष की वसूली के पुराने और प्रत्यक्ष तरीकों को नष्ट करके और उनकी जगह मुक्त व्यापार और विदेशी पूँजी के निवेश के रूप में शोषण के अधिक परिष्कृत और अल्पगोचर तरीकों को प्रचलित करके ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने उन्नीसवीं सदी में अपने आपको परिवर्तित कर लिया है। जिस प्रकार भारतीय कच्चे माल एवं संसाधनों का निर्यात किया जाता है और ब्रिटेन में निर्मित माल को भारतीय बाजारों में खपाया जाता है, वह भारत की खुली लूट है। उदारपंथियों ने भारत के परंपरागत हस्त-उद्योगों को नष्ट करने तथा आधुनिक उद्योगों के विकास में बाधा डालने के लिए सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना की और भारतीय रेलवे, बागानों तथा उद्योगों में विदेशी पूँजी के भारी निवेश का विरोध किया।

भारतीय पूँजी से उद्योगीकरण भारत के विकास की कुंजी था, जबकि विदेशी पूँजी के निवेश का अर्थ मुनाफों के रूप में संपत्ति का देश से बाहर जाना था। यह ‘पूँजी-निकास’ का सिद्धांत इस आर्थिक राष्ट्रवाद का बुनियादी विषय था। तर्क दिया गया कि घरेलू खर्चों, सैन्य खर्चों और रेलों में हुए निवेश पर जमानतशुदा ब्याज का ब्रिटेन को भुगतान द्वारा भारतीय धन का तेजी से इंग्लैंड की ओर प्रवाह हो रहा है जिससे भारत दिन-प्रतिदिन गरीब होता जा रहा है।

उदारपंथियों का मानना था कि मालगुजारी की भारी दरों के कारण किसान भूमिहीन और गरीब होते चले गये, जबकि ब्रिटिश उद्योगपतियों के हित-साधन के लिए सुरक्षात्मक तटकर न लगाये जाने के कारण भारत के औद्योगीकरण में बाधा आई और हस्तशिल्प उद्योग नष्ट हो गये।

नौरोजी की गणना के अनुसार भारतवासियों की प्रति व्यक्ति आय 20 रुपये थी, जबकि डिग्वी के अनुसार यह 1899 में 18 रुपये थी। सरकार ने इस गणना को स्वीकार नहीं किया, रिपन के वित्तसचिव ने इसे 27 रुपया बताया, जबकि 1901 में लार्ड कर्जन के हिसाब से यह 30 रुपये थी। अकाल और महामारी जैसी प्राकृतिक विपदाओं की अलग ही कहानी थी। इन आरंभिक नेताओं ने अखिल भारतीय स्तर पर इस विचार को प्रचारित किया कि ब्रिटिश शासन भारत के शोषण पर आधारित है, भारत को लगातार गरीब बना रहा है और आर्थिक पिछड़ापन तथा अल्पविकास पैदा कर रहा है।

आरंभिक राष्ट्रवादी स्थिति को सुधारने के लिए आर्थिक नीतियों में बदलाव चाहते थे। उन्होंने आर्थिक दोहन को रोकने के साथ-साथ मालगुजारी की दरों में कमी, रैयतवाड़ी और महालवाड़ी क्षेत्रों में स्थायी बंदोबस्त का विस्तार तथा कुटीर उद्योगों और दस्तकारियों को बढ़ावा, नमक कर खत्म करने, बागान श्रमिकों की दशा सुधारने एवं सैन्य-खर्च में कटौती करने और भारतीय उद्योगों को संरक्षण देने की माँग की।

उदारपंथियों ने भारतीय उद्योगों को संरक्षण देने के लिए स्वदेशी अर्थात् भारतीय मालों के उपयोग तथा ब्रिटिश मालों के बहिष्कार के विचार को प्रोत्साहित किया। 1896 में एक व्यापक स्वदेशी कार्यक्रम के अंतर्गत पूना तथा महाराष्ट्र के दूसरे नगरों में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई।

उदारवादी राष्ट्रवाद का युग 1885-1905 (The Era of Liberal Nationalism 1885-1905)
रोमेशचंद्र दत्त
सांविधानिक सुधार की माँग

संवैधानिक क्षेत्र में आरंभिक उदरवादियों ने कभी ब्रिटिश साम्राज्य से पूर्ण अलगाव की कल्पना नहीं की, वे केवल साम्राज्यिक ढाँचे के अंदर सीमित स्वशासन चाहते थे। उनका मानना था कि पूर्ण राजनीतिक स्वाधीनता धीरे-धीरे ही आयेगी। भारत में ब्रिटिश राज की दैवी प्रकृति में गहरी आस्था लेकर वे आशा कर रहे थे कि एक दिन उन्हें साम्राज्य के मामलों में अधीन नहीं, भागीदार माना जायेगा और उन्हें पूर्ण ब्रिटिश नागरिकता के अधिकार दिये जायेंगे।

उदारवादियों के आंदोलन के कारण ही ब्रिटिश सरकार नेे 1892 में लार्ड क्रास ऐक्ट या भारतीय परिषद् कानून पारित किया। इसमें केंद्र और राज्य दोनों को विधायिकाओं में बहुत मामूली से प्रसार की व्यवस्था थी। वास्तव में इन कौंसिलों का गठन चुनाव नहीं, चयन के द्वारा किया जाना था, स्थानीय निकाय अपने-अपने नाम भेजते, जिनमें से केंद्र में वायसराॅय और प्रांतों में गवर्नर लेजिस्लेटिव कौंसिलों के सदस्यों का चयन करते। विधायिकाओं में बजट पर बहस होती, किंतु मतदान नहीं होता। विपक्ष कोई प्रस्ताव पेश नहीं कर सकता था और न ही सरकार द्वारा पेश किसी प्रस्ताव पर मतदान की माँग कर सकता था। भारत सरकार को विधायिकाओं की चिंता किये बिना भी कानून बनाने की शक्ति दे दी गई थी, इनको अधिक से अधिक सिफारिशें ही करने का अधिकार था और इनकी सिफारिश पर अमल जरूरी नहीं था। इस प्रकार इस कानून ने उदारपंथी नेताओं की बहुत थोड़ी-सी संवैधानिक माँगें ही पूरी की, क्योंकि उदारवादियों ने सार्वजनिक धन पर भारतीयों के नियंत्रण की माँग की और ‘प्रतिनिधित्व नहीं, तो कर भी नहीं’ का नारा दिया। यही नारा अमरीकी जनता ने अपने स्वाधीनता के यद्ध के दौरान लगाया था।

बीसवीं सदी के आरंभ तक आरंभिक राष्ट्रवादी आगे बढ़ते हुए कनाडा और आस्ट्रेलिया जैसे दूसरे स्वशासित उपनिवेशों की तरह ब्रिटिश साम्राज्य के अंदर स्वशासन की माँग का दावा करने लगे थे। कांग्रेस की ओर से इस माँग को 1905 में गोखले और 1906 में दादाभाई नौरोजी ने उठाया।

प्रशासकीय एवं अन्य सुधार

प्रशासनिक सुधार के क्षेत्र में उदारपंथियों की पहली माँग सेवाओं के भारतीयकरण की थी। उनका तर्क था कि एक भारतीयकृत सिविल सेवा भारत की आवश्यकताओं के प्रति अधिक संवेदनशील होगी। वह भारत से पैसे का दोहन रोकेगी, जो हर साल यूरोपीय अफसरों के वेतन और पेंशन के रूप में बाहर जा रहा है। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण यह था कि इस सुधार का समर्थन नस्लवाद-विरोधी एक कदम के रूप में किया जा रहा था। उन्होंने माँग की कि लंदन और भारत में सिविल सेवा की परीक्षाएँ एक साथ हों और इन परीक्षाओं में बैठने के लिए आयु की सीमा 19 से बढ़ाकर 23 साल की जाए।

चूंकि ब्रिटिश भारत की सेना का उपयोग दुनिया के सभी भागों में, खासकर अफ्रीका और एशिया में, साम्राज्यिक युद्धों के लिए किया जा रहा था, और 1890 के दशक के भारतीय सीमावर्ती युद्धों ने भारतीय राजस्व पर बहुत भारी बोझ डाला था, इसलिए उदारपंथियों ने माँग की कि ब्रिटिश सरकार भी इस खर्च का बराबर-बराबर बोझ उठाये, भारतीयों को सेना में वालंटियरों के रूप में लिया जाए और अधिक से अधिक भारतीयों को ऊँचे पदों पर नियुक्त किया जाये। पुलिस और नौकरशाही के मनमाने अत्याचार से जनता को बचाने के लिए न्यायिक अधिकारियों को कार्यकारी अधिकारों से अलग करने, कल्याणकारी योजनाएँ चलाने, प्राथमिक शिक्षा का प्रसार करने, हथियार-कानून का अंत करने, तकनीकी तथा उच्च शिक्षा की सुविधाएँ बढ़ाने, नमक कर के उन्मूलन और असम के चाय बागानों के करारबद्ध मजदूरों की दशा सुधारने जैसी माँगें उदारवादियों की दूसरी माँगों में शामिल थे। उदारवादी यह भी चाहते थे कि किसानों को सूदखोरों के चंगुल से बचाने के लिए कृषि बैंकों की स्थापना की जाए। यही नहीं, इन राष्ट्रवादी नेताओं ने विदेशों में गये मजदूरों के पक्ष में भी आवाज उठाई।

नागरिक अधिकारों की रक्षा

आरंभिक उदारवादी लोकतंत्र ही नहीं, बल्कि भाषण, प्रेस, विचार तथा संगठन की स्वतंत्रता जैसे आधुनिक नागरिक अधिकारों के प्रति भी आकर्षित थे। इन नेताओं ने ब्रिटिश सरकार द्वारा नागरिक अधिकारों को सीमित करने के हर कदम का जमकर विरोध किया जिसके परिणामस्वरूप लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का संघर्ष भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष का एक अभिन्न अंग बन गया। 1897 में तिलक जैसे नेताओं और संपादकों की गिरफ्तारी और सजा पर पूरे देश में व्यापक विरोध-प्रदर्शन हुए।

उदारवादी राष्ट्रीयता के अंतर्विरोध

प्रायः माना जाता है कि उदारवादियों के कार्यक्रम और उनकी नीतियाँ भारतीय जनता के सभी वर्गों के हित से जुड़ी थीं और वे उदीयमान भारतीय राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती थीं, किंतु राष्ट्रीय आंदोलन के इस आरभिक चरण की उदारवादी राजनीति के कुछ अंतर्विरोध भी थे, जिन्होंने उसे और भी संकुचित किया तथा उसे भारतीय जनता के व्यापकतर समूहों से दूर किया।

आलोचकों का दावा है कि अधिकांश उदारपंथी नेता संपत्तिशाली वर्ग से थे और कांग्रेस शिक्षित मध्य वर्ग अथवा भारतीय उद्योगपतियों का ही प्रतिनिधित्व करती थी। कांग्रेस के पहले अधिवेशन में 72 प्रतिनिधियों के बारे में दावा किया गया था कि उनमें अधिकांश वर्गों के लोग शामिल थे, जैसे- वकील, सौदागर और बैंकर, भूस्वामी, चिकित्सक, पत्रकार, शिक्षाशास्त्री, धर्मगुरु और सुधारक। किंतु नये पेशेवर वर्गों की प्रमुखता के बावजूद भूस्वामियों का कांग्रेस पर नियंत्रण बना रहा। 1892 से 1909 तक के बीच शामिल प्रतिनिधियों में 18.99 प्रतिशत जमींदार थे, शेष में वकील 39.32, व्यापारी 15.10, पत्रकार 3.18, डाक्टर 2.94, अध्यापक 3.16 और दूसरे पेशे के लोग 17.31 प्रतिशत शामिल थे। वकीलों में भी अनेकों का संबंध जमींदार घरानों से था या जमीन से उनके हित जुड़े हुए थे। इसलिए कांग्रेस भूस्वामी कुलीनों से हाथ नहीं छुड़ा सकी और किसानों के प्रश्नों पर तार्किक रूख नहीं अपना सकी। उसके सदस्यों में व्यापारिक वर्गों के प्रतिनिधित्व ने कांग्रेस को मजदूर-समर्थक रूख अपनाने से भी रोका। उसने फैक्टरी कानूनों और श्रम-सुधारों का विरोध इस आधार पर किया कि वे लंकाशायर के हितों की सुरक्षा के उद्देश्य से प्रेरित थे। किंतु उसने असम के चाय बागान में श्रम-सुधारों का समर्थन किया, क्योंकि यहाँ के पूँजीपति विदेशी थे। कांग्रेस यह भूल गई कि मुंबई के भारतीय मिल-मालिक भी अपने मजदूरों का कुछ कम निर्ममता से शोषण नहीं कर रहे थे। भारतीय निर्धनता की रामबाण दवा के रूप में देसी पूँजीवाद को पेश करके उसने (कांग्रेस ने) अपना असली चेहरा दिखा ही दिया।

मुंबई के बदरुद्दीन तैय्यबजी को छोड़ दें, तो आरंभिक उदारपंथी राजनेता मुख्यतः हिंदू थे। मद्रास के तीसरे अधिवेशन में, जिसके अध्यक्ष सैयद बदरुद्दीन तैय्यब थे, लगभग 13 प्रतिशत मुस्लिम प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। इलाहाबाद के अगले अधिवेशन में इनका प्रतिनिधित्व लगभग 18 प्रतिशत, 1889 के मुंबई अधिवेशन में 13 प्रतिशत, 1890 के कलकत्ता अधिवेशन में 16.5 प्रतिशत तथा 1892 के इलाहाबद अधिवेशन में 14.5 प्रतिशत रहा था। किंतु 1892 और 1909 के बीच कांग्रेस के अधिवेशनों में शामिल होनेवाले प्रतिनिधियों में लगभग 90 प्रतिशत हिंदू थे, केवल 6.5 प्रतिशत मुसलमान थे, और हिंदुओं में भी लगभग 40 प्रतिशत ब्राह्मण और बाकी सवर्ण हिंदू थे। इस सामाजिक संरचना ने स्वाभावतः सामाजिक रूढ़िवाद को जन्म दिया और कांग्रेस के सत्रों में 1907 तक सामाजिक प्रश्न नहीं उठाये जा सके।

कांग्रेस ने निर्वाचित कौंसिलों की माँग तो की, लेकिन वह मुसलमानों को एकजुट नहीं कर सकी। सैयद अहमद खाँ को यह बात पसंद नहीं थी क्योंकि उन्हें डर था कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों की कीमत पर बहुसंख्यक हिंदुओं का शासन यानी दुबले-पतले बंगालियों का वर्चस्व होगा। कांग्रेस ने 1888 में यह नियम बनाया था कि यदि हिंदू या मुसलमान प्रतिनिधियों का बहुमत आपत्ति करे, तो कोई भी प्रस्ताव पारित नहीं होगा। 1889 में विधायिकाओं के सुधार की माँग करनेवाले प्रस्ताव में अल्पसंख्यकों के समानुपाती प्रतिनिधित्व की सिफारिश करनेवाली एक धारा जोड़ी गई थी, किंतु इससे मुसलमानों का भय दूर नहीं हुआ और 1893 के गोहत्या-विरोधी दंगों के दौरान कांग्रेस की चुप्पी ने इन शंकाओं को और मजबूत किया। यद्यपि ‘गोरक्षा आंदोलन’ में कांग्रेस सीधे शामिल तो नहीं थी, और न ही उसे इससे कोई सहानुभूति थी, किंतु कांग्रेसियों को लगता था कि इसके विरुद्ध बोलने पर वे हिंदुओं का समर्थन खो देंगे। कांग्रेस की चुप्पी को सहमति समझा गया और इसीलिए 1893 के बाद कांग्रेस के सत्रों में मुसलमानों की भागीदारी में नाटकीय ढंग से गिरावट आने लगी। कांग्रेस ने मुसलमानों को अपनी कतार में वापस लाने की कोई खास कोशिश भी नहीं की। कांग्रेस के नेता आत्मतुष्टि के भाव से ग्रस्त थे क्योंकि मुसलमानों का कोई प्रतियोगी संगठन 1906 तक सामने नहीं आया था।

उदारवादी राजनीति का मूल्यांकन

उदारवादियों की अनुनय-विनय की नीति को आंशिक सफलता ही मिल सकी और उनकी अधिकतर माँगें सरकार ने नहीं मानीं। लाला लाजपत राय के अनुसार यह अवसरवादी आंदोलन था जिससे पाखंड और देशद्रोह को बढ़ावा मिला और कुछ लोगों को देशभक्ति के नाम पर व्यापार करने का अवसर मिला। उदारपंथियों के विरुद्ध सबसे बड़ा दोषारोपण क्राउन के प्रति भक्ति था। उदारवादी नेताओं में परस्पर दो विरोधी भावनाएँ विद्यमान थी- देशभक्ति और राजभक्ति। देशभक्ति में राजभक्ति का मेल हो जाने के कारण उनकी देशभक्ति आंशिक रह गई थी।

यह सही है कि ब्रिटिश शासन की बदलती हुई प्रकृति के कारण उदारवादियों की कई राजनीतिक धारणाएँ गलत साबित हुईं, किंतु जिन कठिन परिस्थितियों में उन्होंने यह गुरुतर कार्य अपने हाथों में लिया था, उनको देखते हुए उनकी उपलब्धियों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। उन्होंने ऐसे समय में राजनीतिक संघर्ष चलाया, जब समाज के एक बड़े वर्ग में राजनीतिक चेतना पहुँची तक नहीं थी। आरंभिक राष्ट्रवादियों के प्रयास से ही 1886 में एक लोक सेवा आयोग नियुक्त किया गया और संवैधानिक सुधारों के लिए 1892 का भारतीय परिषद् अधिनियम पारित हुआ। यद्यपि यह अधिनियम बहुत व्यापक व प्रभावशाली नहीं था, फिर भी सम्राट के अधीन भारतीय शासन व्यवस्था के विकास के मार्ग में एक निर्णायक कदम था। उदारपंथियों के अनुरोध पर ही सरकार ने भारतीय-व्यय की समीक्षा के लिए 1896 में बैल्बी कमीशन नियुक्त किया। आरंभिक उदारपंथियों का सर्वाधिक महत्त्व इस तथ्य में निहित है कि उन्होंने उपनिवेशवाद की एक आर्थिक समालोचना प्रस्तुत की और भारत की निर्धनता को उससे जोड़कर वाद-विवाद का ऐसा मंच तैयार किया, जिसमें उपनिवेशवाद पर बाद के राजनीतिक हमले एक रूप ले सके।

उदारवादियों द्वारा अपनाया गया संवैधानिक मार्ग नितांत बुद्धिमत्तापूर्ण था। उन्होंने प्रशासन में क्रमिक सुधारों की माँगकर स्वशासन का मार्ग प्रशस्त किया और भारतीय राष्ट्रवाद का सुचारू रूप से बीजारोपण किया। आरंभिक उदारवादी नेता सच्चे देशभक्ति थे, किंतु उनकी योजना अंग्रेजों को भगाने की नहीं, बल्कि ब्रिटिश शासन का रूपांतरण करके उसे एक राष्ट्रीय शासन के समान बनाने की थी। बाद में जब उन्हें ब्रिटिश शासन की बुराइयों का ज्ञान हुआ और वह सुधार की राष्ट्रवादी माँगों को स्वीकार करने में असफल रही, तो उनमें से अनेकों ने ब्रिटिश शासन के प्रति वफादारी की कसमें खाना बंदकर भारत के लिए स्वशासन की माँग उठाना आरंभ कर दिया। इसके अलावा, उनमें से कई केवल इसलिए उदारवादी थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि विदेशी शासन को खुलकर चुनौती देने का समय अभी नहीं आया है। उन्होंने भारतीय जनता को लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता तथा नागरिक स्वतंत्रता आदि से परिचित करवाया। इन नेताओं ने भारतीय जनता को संगठित करने तथा अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध लड़ने के लिए सामूहिक राजनीतिक-आर्थिक कार्यक्रम बनाये। बाद में इन्हीं नीतियों और कार्यक्रमों को लेकर राष्ट्रवादी आंदोलन हुए।

उदारवादियों की कार्य-पद्धति का उपहास उड़ाये जाने के बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने राष्ट्रीय जीवन के उत्थान के लिए आवश्यक मानवीय शक्ति और अन्य साधनों की व्यवस्था की। उन्होंने भारतवासियों में इस भावना की ज्योति जलाई कि सभी का एक ही शत्रु (अंग्रेज) है और सभी भारतीय एक ही राष्ट्र के नागरिक हैं। हमें उनके कार्यों और कर्तव्य-भावना की प्रशंसा करनी चाहिए। सच तो यह है कि उदारवादियों के अथक परिश्रम के बिना राष्ट्रीयता का बीज, जो बाद में राष्ट्रसेवा का एक शक्तिशाली वटवृक्ष सिद्ध हुआ, पनपने नहीं पाता।

कांग्रेस के प्रति सरकार की नीति में परिवर्तन

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्म के प्रारंभिक वर्षों में ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस में सहयोगात्मक रुख बना रहा। अंग्रेजी सरकार को विश्वास था कि कांग्रेस की गतिविधियाँ बौद्धिक बहस तक ही सीमित रहेंगी, इसलिए उसके प्रथम अधिवेशन में कई सरकारी अधिकारियों ने भाग लिया था। कलकत्ता में कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन (1886) में लाॅर्ड डफरिन ने स्वयं शामिल न होकर इसमें सम्मिलित होनेवाले कुछ प्रतिनिधियों को एक पार्टी देकर बातचीत की थी। मद्रास में 1887 में होनेवाले कांग्रेस के तीसरे अधिवेशन में मद्रास के गवर्नर ने कांग्रेस के प्रतिनिधियों को राजकीय भवन में एक भोज दिया था। इस प्रकार, ब्रिटिश सरकार ने आरंभिक तीन साल तक कांग्रेस के प्रति उदारता और सहानुभूति की नीति अपनाई।

किंतु 1887 से ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस के रिश्तों में कड़वाहट आने लगी थी और सरकार ने कांग्रेस के मार्ग में बाधाएँ उपस्थित करना प्रारंभ कर दिया था। जिस लाॅर्ड डफरिन ने कांग्रेस को राजनीतिक स्वरूप प्रदान किया था, उसी ने 1887 में एक सार्वजनिक सभा में कांग्रेस की जमकर आलोचना की और कहा कि ‘‘मुझे उनका (कांग्रेस) भारतीय जनता के प्रतिनिधित्व का दावा बेबुनियाद लगता है। कांग्रेस तो एक ऐसे नगण्य अल्पमत का प्रतिनिधित्व करती है, जिसको एक शानदार और विभिन्न रूपोंवाले साम्राज्य के शासन की बागडोर कतई नहीं दी जा सकती।’’ तत्कालीन भारत के गृहसचिव हैमिल्टन ने कांग्रेस को राजद्रोही बताते हुए उस पर दोहरा चरित्र अपनाने का आरोप लगाया। आंग्ल-भारतीय समाचारपत्रों ने तो यहाँ तक लिखा कि ‘कांग्रेस तो छिपे वेश में एक ऐसी राजद्रोही संस्था है, जिसे न तो जनता का प्रतिनिधित्व प्राप्त है और न ही जिसका कोई मूल्य है।’

कांग्रेस का चौथा अधिवेशन (1888)

कांग्रेस का चौथा अधिवेशन 1888 में इलाहाबाद में होनेवाला था। तत्कालीन पश्चिमी सीमा-प्रांत के गवर्नर सर आकलैंड कोल्विन ने पूरा प्रयास किया कि इस प्रांत में कांग्रेस का अधिवेशन न होने पाये और वह कोई चंदा न इकट्ठा कर सके। जब सरकार ने सभा करने के लिए स्थान देने से इनकार कर दिया, तो दरभंगा नरेश ने लाउदर कौंसिल हाउस खरीदकर अधिवेशन के लिए कांग्रेस को दिया। यह अधिवेशन जार्ज यूल की अध्यक्षता में संपन्न हुआ। सर आकलैंड ने एक आदेश-पत्र द्वारा अंग्रेजों और सरकारी कर्मचारियों का कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग लेना निषिद्ध कर दिया। कांग्रेस के प्रति अंग्रेजी शासन के इस कड़े रूख का कारण मद्रास के तीसरे अधिवेशन में कांग्रेस द्वारा अंग्रेजी प्रशासन के विरुद्ध की गई कड़ी आलोचनाएँ थीं। इसके बावजूद इलाहाबाद का अधिवेशन पहले के अधिवेशनों से अधिक सफल सिद्ध हुआ। इसमें कुल 1248 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था, जिसमें 964 हिंदू, 222 मुसलमान, 7 फारसी, 11 जैन, 6 सिख, 16 ईसाई, 2 यूरोपीय और 20 अमेरिका निवासी भारतीय थे।

दरअसल, जैसे-जैसे कांग्रेस का प्रभाव-क्षेत्र बढ़ता गया, उसकी शक्ति में वृद्धि होती गई। फलतः कांग्रेस ने प्रशासनिक सुधारों की माँग करने के साथ-साथ सरकारी नीतियों की आलोचना करना शुरू कर दिया। जब सरकार को लगा कि कांग्रेस भारतीय राष्ट्रीयता का वाहक बनने लगी है, तो उसने अपना समर्थन वापस ले लिया और कांग्रेस के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार करना आरंभ कर दिया। अब कांग्रेसियों को ‘गद्दार’, ‘देशद्रोही’, ‘ब्राह्मण’, ‘अहिंसक खलनायक’, ‘राजद्रोह का खजाना’ और न जाने क्या-क्या कहा जाने लगा। कांग्रेसी नेताओं के बारे में कहा गया कि ‘ये कुर्सी न पाने से विक्षुब्ध कुछ लोग तथा कुछ असंतुष्ट वकील हैं, जो अपने सिवा किसी और का प्रतिनिधित्व नहीं करते।’

1890 में बंगाल सरकार के एक आदेश द्वारा कांग्रेस की बैठकों में सरकारी अधिकारियों के भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। 1900 में लार्ड कर्जन ने कहा था कि ‘‘कांग्रेस अब लड़खड़ा रही है और जल्द ही गिरनेवाली है। मेरी सबसे बड़ी इच्छा यही है कि मेरे भारत-प्रवास के दौरान ही इस पार्टी का अंत हो जाए।’’ 1903 में उसने मद्रास के गवर्नर को लिखा: ‘‘जबसे मैं भारत आया हूँ, मेरी नीति यही रही है कि किसी भी तरह कांग्रेस को नपुंसक बना दूँ।’’ 1904 में कर्जन ने कांग्रेस अध्यक्ष के नेतृत्व में एक कांग्रेसी प्रतिनिधिमंडल से मिलने तक से इनकार कर दिया और कांग्रेस को ‘गंदी चीज’ एवं ‘देशद्रोही’ संगठन करार दिया।

‘फूट डालो और राज करो’ की नीति

ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस को नष्ट करने के लिए संप्रदाय एवं विचारों के आधार पर राष्ट्रवादियों में फूट डालने का प्रयास किया और गरमपंथियों को उदारवादियों के विरुद्ध भड़काया। सरकार ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत देसी नरेशों को भी कांग्रेस से दूर रहने को कहा और मुसलमानों को कांग्रेस के विरोध में संगठित होने की प्रेरणा दी। सैयद अहमद खाँ ने कलकत्ता के सैयद अमी अली और अब्दुल लतीफ, हैदराबाद के निजाम और सैयद हुसैन बिलग्रामी को साथ लेकर कांग्रेस के विरुद्ध फतवा दिया। ब्रिटिश सरकार के इशारे पर ही 1888 में सर सैयद अहमद खाँ और बनारस के राजा शिवप्रसाद (सितार-ए-हिंद) ने ‘यूनाइटेड इंडियन पैट्रियाटिक एसोसिएशन’ और ‘एंग्लो मुस्लिम डिफेंस एसोसिएशन’ की स्थापना की और मुसलमानों को कांग्रेस से दूर रहने की अपील की। सरकार ने भी उत्तर-पश्चिमी सीमा-प्रांत के मुसलमानों को कांग्रेस के आंदोलन से पृथक् रहने के लिए उकसाया और शिक्षित हिंदुओं में मतभेद डालने का प्रयास किया। भारतमंत्री लार्ड हैमिल्टन के निर्देशन में लार्ड कर्जन की सरकार ने धनी भारतीयों पर भी कांग्रेस से दूर रहने के लिए दबाव डाला और कांग्रेस-विरोधी तत्वों को उपहार तथा उपाधियाँ बाँटी। फिर भी, कांग्रेस एक राष्ट्रीय संस्था बनी रही और इसमें मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या जहाँ 1885 में केवल 02 थी, वहीं 1888 में 222 हो गई।

कांग्रेस की उल्टी चाल

इलाहाबाद अधिवेशन के बाद कांग्रेस के चरित्र में व्यापक परिवर्तन आया। कांग्रेस को जनोन्मुखी बनानेवाली जो धारा मद्रास में उभरी थी, वह आगे बढ़ाये जाने के बजाय पीछे की ओर चलने लगी। अब कांग्रेस का प्रचार-कार्य भारत के बजाय ब्रिटेन में करने का निर्णय लिया गया और लंदन में कांगे्रस की एक समिति भी गठित कर दी गई। यही नहीं, ब्रिटेन में प्रचार-कार्य के लिए 1889 के मुंबई कांग्रेस में वेडनबर्न की अध्यक्षता में एक प्रस्ताव द्वारा 40,000 रुपये भी स्वीकृत कर दिये गये और 1890 के कलकत्ता अधिवेशन में सर फिरोजशाह की अध्यक्षता में यह फैसला किया गया कि 1892 का अधिवेशन लंदन में आयोजित होगा।

कांग्रेस की इस नई नीति के विरुद्ध कांग्रेस के अंदर तथा बाहर दोनों तरफ उसकी आलोचना होने लगी। भारत में अध्यात्मिक राष्ट्रवाद के प्रेरणास्रोत अरविंद घोष ने मुंबई से प्रकाशित होनेवाले ‘इंदु प्रकाश’ में कांग्रेस के इस नये स्वरूप के विरुद्ध लेख लिखा। कांग्रेस के अंदर एक नई गरमवादी राष्ट्रवाद की धारा 1895 से प्रवाहित होने लगी। गरम राष्ट्रवाद के प्रेरक तिलक ने 1895 में पूना कांग्रेस में कांग्रेस पर यह सीधा-सीधा आरोप लगाया कि वह इसे आम जनता तक नहीं ले जाना चाहती। दूसरी ओर रानाडे और गोखले अंग्रेजों के प्रति नरम तथा प्रस्ताववादी राजनीति का संचालन कर रहे थे। इनकी नीतियों के कारण इन्हें ‘माडरेट’ कहा जाने लगा। 1905 तक कांग्रेस पर इन्हीं उदारपंथियों का वर्चस्व बना रहा। इस दौरान धीरे-धीरे गरमपंथी राष्ट्रवादी कांग्रेस में आते रहे। 1902 तक तिलक, अरविंद घोष, विपिनचंद्र पाल और लाला लाजपत राय जैसे गरमपंथी राष्ट्रवादी कांग्रेस में आ चुके थे। कांग्रेस के अंदर इस अंतर्विरोध के कारण राष्ट्रवादी तत्व अपनी उत्साहित उग्रता के कारण धर्मवादी भी होते गये। यहीं से भारतीय राजनीति में धर्म के हस्तक्षेप की नींव पड़ी और बंगाल की ‘कालीपूजा’ तथा महाराष्ट्र की ‘गणेश पूजा’ का राजनैतिक उपयोग शुरू हुआ। कालांतर में अंग्रेजों ने भारतीय राष्ट्रवाद को विभाजित करने के लिए इस धार्मिकता का खुलकर लाभ उठाया।

भारतीय राष्ट्रवाद के इस दौर में उग्र राष्ट्रवाद का आगमन यदि कांग्रेस के अंदर हुआ, तो इसके बाहर भी इसकी नींव पड़ी। 1897 में पूना में प्लेग फैलने के बाद सरकारी नीतियों के विरुद्ध चापेकर बंधुओं ने दो अंग्रेज अधिकारियों रेंड और आर्येस्ट की हत्या कर दी। यहीं से क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की भी शुरूआत हुई। यही वह समय था जब चीन में अंग्रेजों के विरुद्ध बाक्सर विद्रोह प्रारंभ हुआ। इस दौर में प्रायः समस्त औपनिवेशिक साम्राज्यों में देर-सबेर यूरोपियनों के विरुद्ध उग्रवाद का आगमन प्रारंभ हो चुका था।

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