कदंब राजवंश (345-540 ई.)
कदंब राजवंश प्राचीन भारत का एक राजवंशी ब्राह्मण परिवार था, जिसने चतुर्थ शताब्दी ई. के मध्य से लेकर छठी शताब्दी ई. के मध्य (लगभग दो सौ वर्ष) तक दक्षिणापथ के दक्षिण-पश्चिम में उत्तरी कर्नाटक और कोंकण पर शासन किया।
ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि कदंबों के स्वतंत्र राज्य की स्थापना चौथी शताब्दी ई. के मध्य लगभग 345 ई. में मयूरशर्मन नामक ब्राह्मण ने की थी। आरंभिक कदंब शासक पल्लवों की अधीनता स्वीकार करते थे। जब समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ-अभियान के परिणामस्वरूप काँची के पल्लवों की शक्ति कमजोर हो चुकी थी, तो कदंब वंश के मयूरशर्मन ने पल्लवों के विरुद्ध विद्रोह करके कर्नाटक में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। इस नवोदित कदंब राज्य की राजधानी बनवासी (वैजयंती) थी, जो कर्नाटक राज्य के उत्तर कन्नड़ जिले में स्थित है। इस राजवंश के शक्तिशाली शासक काकुस्थवर्मन के शासनकाल में इस वंश के यश और राज्य-सीमा में पर्याप्त वृद्धि हुई, जिससे कदंब राजसत्ता अपने चरम पर पहुँच गई।
कदंब शासकों को प्रायः गंगों, पल्लवों, बाणों और वाकाटकों के साथ-साथ श्रीपर्वत एवं उच्छंगि के कदंबों से भी संघर्ष करना पड़ा। अंततः कदंबों के चालुक्य सामंतों ने ही कदंब सत्ता का अंत कर दिया।
कदंबों के पहले कर्नाटक क्षेत्र पर शासन करने वाले मौर्य और सातवाहन इस क्षेत्र के मूलनिवासी नहीं थे। इस दृष्टि से कदंब पहला स्वदेशी राजवंश था, जिसने कन्नड़ भाषा को प्रशासनिक और राजनीतिक महत्त्व प्रदान किया था। कन्नड़ भाषा के प्राचीनतम् लेख इसी वंश के मिलते हैं।
ऐतिहासिक स्रोत
कदंब राजवंश के इतिहास-निर्माण में पुरातात्विक स्रोतों से अधिक सहायता मिलती है। तालगुंड, गुडनापुर, चंद्रवल्लि, हलसी, कुंडालूर, सिरसी और हल्मिडी जैसे स्थानों से प्राकृत, संस्कृत और कन्नड़ भाषाओं में कई महत्त्वपूर्ण लेख मिले हैं, जो कदंब राजवंश के इतिहास-निर्माण में सहायक हैं। तालगुंड शिलालेख से पता चलता है कि मयूरशर्मन तालगुंड (वर्तमान शिमोगा जिले में) का मूल निवासी था और उसका वंश कदंब वृक्ष के नाम पर कदंब कहलाया। इसी लेख से ज्ञात होता है कि किस प्रकार मयूरशर्मन अपने गुरु और दादा वीरशर्मन के साथ वैदिक अध्ययन करने के लिए पल्लवों की राजधानी काँची गया और किस प्रकार कदंब राज्य की स्थापना की। हाल ही में खोजे गए रविवर्मनकालीन गुडनापुर शिला-स्तंभलेख की सत्ताईस पंक्तियों में ब्राह्मी लिपि और संस्कृत भाषा में बनवासी के कदंब शासकों की वंशावली मिलती है। हलसी और हल्मिडी लेख से काकुस्थवर्मन की उपलब्धियों का ज्ञान होता है। 450 ई. के हल्मिडी लेख सबसे पुराना ज्ञात कन्नड़ भाषा का शिलालेख है। इससे पता चलता है कि कन्नड़ को आधिकारिक प्रशासनिक भाषा के रूप में प्रयोग करने वाले कदंब पहले शासक थे। कुंडालूर, सिरसी जैसे कई अभिलेखों से कदंब राजाओं द्वारा ब्राह्मणों और बौद्ध विहारों को दिए जाने वाले अनुदानों की सूचना मिलती है। कदंब राजाओं के लेखों के अलावा, समकालीन राजवंशों, जैसे पल्लवों, गंगों, वाकाटकों के लेखों से भी कदंब राजवंश के इतिहास-निर्माण में सहायता मिलती है।
इसके अलावा, कुछ कदंब शासकों के सोने और तांबे के सिक्के भी मिले हैं, जिन्हें आमतौर पर पद्मटंक (कमल के सिक्के) के रूप में जाना जाता है क्योंकि उनमें से ज्यादातर के अग्रभाग पर केंद्रीय प्रतीक कमल का अंकन है। कुछ कदंब सिक्कों के अग्रभाग पर कमल के स्थान पर सिंह का भी अंकन मिलता है। इन सिक्कों से भी कदंबों के संबंध में कुछ जानकारी मिलती है।
साहित्यिक स्रोतों में कन्नड़ ग्रंथ ‘ग्राम पद्धति’ और ‘कावेरी पुराणम्’ तथा आदि कन्नड़ कवि पंप की रचनाएँ भी ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं। सुप्रसिद्ध ‘कावेरी पुराणम्’ में प्रारंभिक कदंब शासकों के नाम मिलते हैं।
कदंबों की उत्पत्ति एवं मूल निवास-स्थान
कदंब वंश की उत्पत्ति के संबंध में मुख्यतः दो मत प्रचलित हैं—एक मत के अनुसार कदंबों को उत्तर भारतीय मूल का माना जाता है और कहा जाता है कि मयूरशर्मन के पूर्वज हिमालय की तलहटी से पलायन करके दक्षिण भारत गए थे।
दूसरे मत के अनुसार कदंब स्वदेशी कन्नड़ मूल के थे और कदंबु जनजाति से संबंधित थे। संगम साहित्य में कदंबुओं का उल्लेख मिलता है, जो तमिल राज्य के उत्तर-पश्चिमी भागों में निवास करने वाले समुद्री दस्युओं का एक कबीला था। कदंबु लोग भी कदंब वृक्ष की पूजा करते थे। पी.एन. चोपड़ा, एन. सुब्रमण्यम तथा टी.के. रवींद्रन के अनुसार परवर्ती काल के कदंब इन्हीं आदिवासी कदंबुओं के वंशज रहे होंगे।
कुछ इतिहासकार कदंबों को कुरुम्बों अथवा कलभ्रों से भी संबंधित मानते हैं, हालांकि इस मान्यता के लिए कोई प्रमाणिक आधार नहीं है।
दसवीं शताब्दी तथा इसके बाद शासन करने वाले कदंबों की विभिन्न शाखाओं के शासकों के अभिलेखों में कदंबों की उत्पत्ति से संबंधित अनेक काल्पनिक विवरण मिलते हैं।
हंगल, हलसी तथा डेगंबे के कदंब शासकों के कुछ अभिलेखों में वर्णित एक कथानक के अनुसार इस वंश के प्रवर्तक त्रिलोचन कदंब (मयूरवर्मन के पिता) का जन्म भगवान शिव के मस्तक से कदंब वृक्ष के नीचे गिरी पसीने की बूँद से हुआ था, जो तीन नेत्रों तथा चार भुजाओं वाला था।
दूसरी अनुश्रुति के अनुसार मयूरवर्मन स्वयं शिव और भूदेवी (पृथ्वी की देवी) से उत्पन्न हुआ था और उसके मस्तक पर तीसरा नेत्र भी था। अतएव राजमुकुट मस्तक के स्थान पर उसके घुटनों पर बांधा गया। उसका पालन-पोषण कदंब वृक्ष के नीचे हुआ, इसलिए उसका परिवार कदंब कहलाया।
कन्नड़ ग्रंथ ग्राम पद्धति से ज्ञात होता है कि मयूरवर्मन शिव एवं पार्वती का पुत्र था और पवित्र कदंब वृक्ष के नीचे उत्पन्न हुआ था। चूंकि कदंब वृक्ष की छाया में ही उसका पालन-पोषण हुआ, इसलिए उसका परिवार ‘कदंब’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
एक अन्य परंपरा के अनुसार अश्वत्थामा ने शिव से प्रार्थना की, जिसके परिणामस्वरूप कदंब-पुष्पों की वर्षा हुई। इन्हीं कदंब-पुष्पों से मुकण्ण कदंब (त्रिनेत्र कदंब) उत्पन्न हुआ था। महाभारत में इसे ‘बनवास’ कहा गया है। किंतु अधिकांश इतिहासकार मुकण्ण कदंब को ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं मानते हैं।
1077 ई. के एक जैन अभिलेख के अनुसार मयूरवर्मन जैन तीर्थंकर आनंदचिनवृत्तिंद्र की बहन का पुत्र था और वह कदंब वृक्ष के नीचे उत्पन्न हुआ था। जैन आचार्य ने शासनदेवी से उसके लिए एक राज्य की व्यवस्था कराई, जंगलों को कटवाकर भूमि को साफ करवाया और मयूर के पंखों का एक राजमुकुट उसे दिया। मयूरपंखों से निर्मित राजमुकुट को धारण करने के कारण वह ‘मयूरवर्मन’ कहलाया।
1189 ई. के एक शिलालेख में दावा किया गया है कि इस राज्य के संस्थापक कदंब रुद्र का जन्म कदंब के पेड़ों के जंगल में हुआ था। चूंकि उसके अंगों पर ‘मोरपंख’ जैसे प्रतिबिंब थे, इसलिए उसे मयूरवर्मन कहा जाता था।
नागरखंड के कदंबों के एक अभिलेख में कदंबों की उत्पत्ति मगध के नंदों से बताई गई है। इस लेख के अनुसार नंद सम्राट निःसंतान था और पुत्र-प्राप्ति के लिए उसने कैलास पर्वत पर बहुत दिनों तक शिव की उपासना की। एक दिन जब वह निराश होकर लौट रहा था, तो अचानक उसके समक्ष कुछ कदंब पुष्प गिरे और एक अलौकिक वाणी ने उसे आश्वासन दिया कि कदंबकुल नाम के उसके दो प्रतिभाशाली पुत्र उत्पन्न होंगे।
तालगुंड शिलालेख की एक किंवदंती के अनुसार कदंब राजवंश के संस्थापक राजा मयूरशर्मन का अभिषेक ‘युद्ध के छह-मुखवाले देवता स्कंद’ द्वारा किया गया था। कदंब शासक कृष्णवर्मन प्रथम के एक अभिलेख में उसे नाग वंश से संबंधित बताया गया है।
कदंबों के प्रारंभिक अभिलेखों से स्पष्ट है कि कदंब कुंतल प्रदेश के मूलनिवासी थे और कदंब वृक्ष से संबंधित होने के कारण कदंब कहलाए। शांतिवर्मन के तालगुंड अभिलेख से भी पता चलता है कि पश्चिमी समुद्र के तटवर्ती क्षेत्र में मनव्यगोत्रीय ब्राह्मणों का एक परिवार रहता था, जो स्वयं को हारीतिपुत्र कहते थे। उनके मूलनिवास के समीप स्थित कदंब वृक्ष से उनका घनिष्ठ संबंध था, जो ललितादेवी की पूजा से संबंधित था और जिसे ‘कदंब वनवासिनी’ के नाम से पुकारा जाता था। इसी कदंब वृक्ष के कारण इस राजवंश को कदंब वंश कहा गया है। बनवासी के कदंबों के कुलदेवता मधुकेश्वर (शिव) थे, यद्यपि प्रारंभिक अभिलेखों में उन्हें महासेन (कार्तिकेय) का भी उपासक बताया गया है, जो संभवतः कदंबों के कुलगुरु थे।
परवर्ती कदंब शासक अपने आदि कुल-पुरुष का नाम कदंब बताते हैं, जो संभवतः सातवाहनों का सामंत था। इस कुल-पुरुष ने कदंब नामक वृक्ष-विशेष के नाम पर दक्षिण के बनवास क्षेत्र में दूसरी शताब्दी ई. के मध्य अपने राज्य की स्थापना की और करहाटक (वर्तमान करहद) नगर को अपनी राजधानी बनाया।
इस वंश का दूसरा राजा शिवस्कंद अथवा शिवकोटि अपने भाई शिवायन के साथ जैनाचार्य सामंतभद्र द्वारा जैन धर्म में दीक्षित हुआ था। शिवस्कंद अथवा शिवकोटि का पुत्र श्रीकंठ और पौत्र शिवस्कंदवर्मन था, जिसके उत्तराधिकारी मयूरवर्मन के समय (तीसरी सदी के उत्तरार्ध) तक कदंब परिवार का एक छोटा-सा राज्य स्थापित हो चुका था, जो अपने-आपको आंध्रों के अधीन मानता था, लेकिन काँची के पल्लवों से भयभीत रहता था।
सुप्रसिद्ध ‘कावेरी पुराणम्’ में प्रारंभिक कदंब शासकों में त्रिनेत्र, मधुकेश्वर, मल्लिनाथ तथा चंद्रवर्मन का नाम मिलता है। कदंब राजवंश का वास्तविक संस्थापक तथा सर्वाधिक उल्लेखनीय एवं ऐतिहासिक नरेश मयूरशर्मन (मयूरवर्मन) चंद्रवर्मन का पौत्र था। आरंभिक कदंब संभवतः चुतु, सातवाहनों और चालुक्यों के अधीनस्थ सामंत थे। किंतु कालांतर में जब उन्होंने राजत्व ग्रहण किया, तो वे अपने को क्षत्रिय (वर्मन) मानने लगे।

कदंब वंश का राजनीतिक इतिहास
मयूरशर्मन (345-365 ई.)
कदंब राजवंश की प्रारंभिक राजनीतिक परिस्थिति की कोई स्पष्ट सूचना नहीं है। फिर भी, ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि कदंब राजवंश का संस्थापक मयूरशर्मन था, जिसका जन्म कर्नाटक राज्य के शिमोगा जिले के तालगुंड (स्थानकुंडरू) नामक गाँव में हुआ था। तालगुंड प्रशस्ति के अनुसार मयूरशर्मन श्रेष्ठ ब्राह्मण ‘द्विजोत्तम’ था और ब्राह्मणोचित कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करता था। शिलालेख के अनुसार मयूरशर्मन अपने गुरु और दादा वीरशर्मन के साथ समस्त वेदों का अध्ययन करने के लिए पल्लवों की राजधानी काँची (पल्लवेंद्रपुरी) गया और वहाँ के एक वैदिक विद्या केंद्र (घटिका) में प्रवेश लिया।
मयूरशर्मन का काँची में एक पल्लव घुड़सवार (अश्व संस्था) से विवाद हुआ, जिसके कारण उसे अपमानित होना पड़ा। जब मयूरशर्मन ने पल्लव नरेश से न्याय की मांग की, तो पल्लवाधिपति ने उसे दुत्कारते हुए अपने सैनिक का अन्यायपूर्वक पक्ष लिया। इस घटना ने मयूरशर्मन के व्यक्तित्व को रोष से भर दिया। आक्रोशित मयूरशर्मन काँची से कुंतल लौट आया और कुशग्रास, यज्ञ-सामग्री तथा समिधा आदि का परित्याग कर समस्त पृथ्वी पर विजय प्राप्त करने की प्रतिज्ञा कर तलवार धारण कर ली—
तत्र पल्लवाश्वस्थेन कलहेन तीव्रेण रोषितः।
कुशसमिधदृष्टस्त्रागाज्य चरुगृह्णाति दक्षिणे पाणिना।।
मयूरशर्मन ने संभवतः पहला अभियान पल्लवों के सीमांत अधिकारियों (सीमा-रक्षकों) के विरुद्ध किया और अपने समर्थकों की सहायता से उन्हें पराजित कर श्रीपर्वत (श्रीशैलम) के आस-पास के दुर्गम वन्य-क्षेत्र पर अधिकार कर लिया—
योऽन्तपालान्पल्लवेन्द्राणां सहसा विनिजित्य संयुगे।
अध्युपास दुर्गमाटवी-श्रीपर्वत द्वारसंश्रितम्।।
श्रीपर्वत क्षेत्र में मयूरशर्मन ने एक छोटी सेना तैयार की और धीरे-धीरे अपनी शक्ति को सुदृढ़ किया। इसके बाद, उसने पल्लवों के सामंत बाणों तथा कुछ अन्य निकटवर्ती शासकों को पराजित कर उनसे कर एवं उपहार आदि प्राप्त किया। मयूरशर्मन को पराजित करने में असमर्थ पल्लव शासक स्कंदवर्मन ने अंततः उसके समक्ष संधि का प्रस्ताव रखा, जिसे मयूरशर्मन ने स्वीकार कर लिया। संधि के फलस्वरूप मयूरशर्मन पल्लवों के स्वामिभक्त सामंत के रूप में शासन करने लगा। मयूरशर्मन की सेवाओं से प्रसन्न होकर पल्लव शासक ने उसे एक राजमुकुट भेंटकर पश्चिमी समुद्रतट से लेकर प्रेहरा या प्रेमारा (मध्य कर्नाटक में तुंगभद्रा या मलप्रभा घाटी) तक के विशाल क्षेत्र का स्वतंत्र शासक मान लिया। कीलहॉर्न के अनुसार पल्लव नरेश ने संभवतः उसे अपना प्रमुख दंडनायक बना लिया। जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि मयूरशर्मन ने चौथी शताब्दी ई. के मध्य में कुंतल (कर्नाटक) में अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की और बनवासी को अपनी राजधानी बनाया।
मयूरशर्मन की उपलब्धियों का विवरण उसके चंद्रवल्लि (चित्रदुर्ग जिला, कर्नाटक) के खंडित अभिलेख (जलाशय से संबंधित) में मिलता है। इस अभिलेख में उसे शकस्थान, पारियात्र (विंध्य एवं अरावली की पहाड़ियों के बीच का क्षेत्र), मौखरि, सेंद्रक (शिमोगा जिला), पल्लव, पुण्णाट (कावेरी एवं कपिनि नदियों का मध्यवर्ती भू-भाग), त्रैकूटक एवं आभीर राज्यों को विजित करने का श्रेय दिया गया है।
सुदूरस्थ शकस्थान, पारियात्र तथा मौखरि राज्यों के विरुद्ध उसकी सफलताएँ असंभावित लगती हैं। अनेक विद्वानों के अनुसार चंद्रवल्लि अभिलेख की प्रामाणिकता संदिग्ध है क्योंकि मयूरशर्मन की उपर्युक्त विजयों का वर्णन न तो तालगुंड प्रशस्ति में मिलता है और न ही बाद के किसी अन्य कदंब अभिलेख में। अभिलेख के पाठों की भिन्नता के कारण काशीप्रसाद जायसवाल का सुझाव है कि मयूरशर्मन की विजयों एवं उसकी राज्य-सीमा को कर्नाटक तक ही केंद्रित माना जाना चाहिए।
इस प्रकार यद्यपि मयूरशर्मन के राज्य की सीमाओं का स्पष्ट ज्ञान नहीं मिलता है, किंतु लगता है कि वह एक शक्तिशाली एवं महान शासक था। परवर्ती कदंब अभिलेखों में उसे अठारह अश्वमेध यज्ञों को संपन्न करने का श्रेय दिया गया है और कहा गया है कि इन यज्ञों के अवसर पर उसने तालगुंड के ब्राह्मणों को 144 ग्राम दान में दिए थे। किंतु तालगुंड प्रशस्ति में इस प्रकार की सूचनाओं का अभाव है, इसलिए उसके द्वारा अश्वमेध यज्ञ संपन्न करने की परवर्ती साक्ष्यों की सूचना संदिग्ध मानी जाती है।
कहा जाता है कि मयूरशर्मन ने उत्तर भारत के अहिच्छत्र (बरेली) से कई वैदिक ब्राह्मणों को बनवासी आमंत्रित किया और उन्हें वहाँ बसाया था।
मयूरशर्मन के शासनकाल की अवधि पर भी विवाद है। पी.बी. देसाई के अनुसार उसने 325 से 345 ई. तक शासन किया, जबकि अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार उसका शासनकाल 345 से 365 ई. के बीच माना जा सकता है।
कंगवर्मन (365-390 ई.)
मयूरशर्मन के पश्चात् उसका पुत्र कंगवर्मन 365 ई. में कदंब राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। उसने अपने नाम में ‘शर्मन’ शब्द के स्थान पर ‘वर्मन’ शब्द लिखवाना आरंभ किया। इससे लगता है कि मयूरशर्मन के बाद के कदंब शासक अपने को ब्राह्मण के बजाय क्षत्रिय कहलाना अधिक पसंद करते थे। यही कारण है कि कंगवर्मन तथा उसके बाद के अन्य सभी कदंब शासकों के नाम के अंत में ‘वर्मन’ शब्द ही मिलता है। यहाँ तक कि परवर्ती कदंब अभिलेखों में मयूरशर्मन को भी ‘मयूरवर्मन’ ही कहा गया है।
कंगवर्मन कदंब वंश का शक्तिशाली शासक था। तालगुंड अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसके समक्ष अनेक शासक नतमस्तक होते थे और चामरों द्वारा उस पर हवा करते थे, जिससे उसका राजमुकुट दोलायमान होता रहता था।
कंगवर्मन को अपने राज्य की रक्षा के लिए वाकाटकों से संघर्ष करना पड़ा। कहा जाता है कि वाकाटक शासक पृथ्वीसेन प्रथम (355-380 ई.) ने कंगवर्मन को पराजित किया था। किंतु अधिकांश विद्वानों का अनुमान है कि वह वाकाटकों की वत्सगुल्म शाखा के प्रतापी शासक विंध्यसेन (विंध्यशक्ति द्वितीय) का समकालीन था और उसी ने कंगवर्मन को पराजित किया था। इसकी पुष्टि हरिषेण के अजंता अभिलेख से होती है, जिसमें विंध्यशक्ति को कुंतल प्रदेश का विजेता कहा गया है। संभवतः दोनों राज्यों की सीमाओं पर होने वाले युद्धों के फलस्वरूप कदंबों को पराजय का मुँह देखना पड़ा था। किंतु वाकाटकों से पराजित होने के बावजूद कंगवर्मन अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने में सफल रहा।
कंगवर्मन ने पल्लव शासकों की भाँति ‘धर्ममहाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की, जो उसकी स्वतंत्र स्थिति का सूचक है। उसने महापट्टिदेव के लिए एक दान भी दिया था। कंगवर्मन ने लगभग 390 ई. तक शासन किया।
भगीरथ (390-415 ई.)
कंगवर्मन का पुत्र भगीरथ 390 ई. के आसपास कदंब राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। भगीरथ के समय के कुछ सिक्के भी मिले हैं। संभवतः भगीरथ अपने पिता के समय में वाकाटकों द्वारा अधिकृत कदंब प्रदेशों को वापस लेने में सफल रहा, क्योंकि तालगुंड शिलालेख में भगीरथ को ‘एकमात्र कदंब भूमि का स्वामी’, ‘महान सागर’ तथा ‘ऐक्ष्वाकु शासक भगीरथ के समान तेजस्वी’ बताया गया है।
कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि भगीरथ ही वह कुंतलेश्वर था, जिससे राजनयिक संबंध स्थापित करने के उद्देश्य से गुप्त नरेश चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने कालिदास के नेतृत्व में अपना एक दूतमंडल कदंबों की राजधानी में भेजा था। कालिदास को अपने प्रयास में पूर्ण सफलता मिली, क्योंकि बाद में कदंब नरेश ने अपनी पुत्री का विवाह कुमारगुप्त से करके अपनी मित्रता को वैवाहिक संबंध में परिणत कर दिया था। इस वैवाहिक संबंध का उल्लेख भगीरथ के पुत्र काकुस्थवर्मन के तालगुंड प्रशस्ति में मिलता है। भगीरथ ने 390 से 415 ई. के मध्य शासन किया था।
रघु (415-435 ई.)
भगीरथ की मृत्यु के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र रघु कदंब राज्य की गद्दी पर बैठा। अनेक कठिनाइयों के बावजूद रघु अपने राज्य को सुरक्षित रखने में सफल रहा।
रघु के संभवतः कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उसने अपने छोटे भाई काकुस्थवर्मन को युवराज नियुक्त किया। हलसी लेख के अनुसार रघु और युवराज काकुस्थवर्मन ने मिलकर पल्लवों तथा अन्य प्रतिद्वंद्वियों के विरुद्ध अनेक युद्ध किए। ऐसे ही किसी युद्ध में श्रुतकीर्ति नामक भोजक ने युवराज काकुस्थवर्मन की जान बचाई थी। संभवतः 435 ई. में रघु की पल्लवों से लड़ते हुए मृत्यु हो गई।
तालगुंड प्रशस्ति में रघु को ‘अनेक शत्रुओं का विजेता’, ‘पृथु के समान महान’ और ‘प्रजा का प्रियभाजन’ कहा गया है। उसने ‘रघुपार्थिव’ का विरुद धारण किया था। उसका शासनकाल सामान्यतः 415 ई. से 435 ई. के बीच माना जा सकता है।
काकुस्थवर्मन (435-455 ई.)
रघु के उपरांत उसका छोटा भाई युवराज काकुस्थवर्मन ने 435 ई. के आसपास कदंब वंश की राजगद्दी संभाली। वह कदंब वंश का सबसे शक्तिशाली नरेश, योग्य शासक, नीति-निपुण और दीर्घजीवी था। तालगुंड अभिलेख में उसे दुर्जेय योद्धा, कदंबकुल का अलंकार, राजाओं में सूर्य, महान विजेता, यशस्वी, प्रजा-रक्षक एवं उदार शासक बताया गया है। इसका शासनकाल पूर्णतः शांति, समृद्धि एवं सुव्यवस्था का काल था। इसके शासनकाल में कदंब राजवंश की महानता एवं गरिमा अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गई।
तालगुंड शिलालेख से ज्ञात होता है कि काकुस्थवर्मन ने गंग, वाकाटक तथा गुप्त राजाओं से अपनी कन्याओं का विवाह करके तत्कालीन भारत के प्रसिद्ध राजवंशों से मैत्री-संबंध स्थापित किया था। उसकी बहन का विवाह पहले ही (भगीरथ के काल में) गुप्त शासक कुमारगुप्त के साथ हो चुका था। उसकी कम से कम चार पुत्रियों में एक अज्जितभट्टारिका का विवाह वाकाटक राजकुमार नरेंद्रसेन के साथ हुआ था, क्योंकि पृथ्वीसेन के बालाघाट लेख में उसे कुंतल देश की राजकुमारी के रूप में वर्णित किया गया है। काकुस्थ की दूसरी पुत्री का विवाह गंगराज तदंगल माधव द्वितीय के साथ हुआ था, जिससे उसका दौहित्र अविनीत गंग पैदा हुआ था। उसकी एक पुत्री अलुप वंश के शासक पशुपति के साथ भी ब्याही गई थी। काकुस्थवर्मन की चौथी पुत्री का विवाह संभवतः गुप्तवंशीय राजकुमार स्कंदगुप्त के साथ हुआ था। इसी प्रकार का संबंध उसने भट्टारी सामंतों और दक्षिण कन्नड़ के अलुपों से भी स्थापित किया। इन वैवाहिक संबंधों के कारण काकुस्थवर्मन की राजनैतिक स्थिति बहुत सुदृढ़ हो गई थी।
काकुस्थवर्मन की वीरता, कला एवं काव्यप्रियता का वर्णन तालगुंड अभिलेख में मिलता है। उसने ‘धर्मराज’ एवं ‘धर्ममहाराज’ जैसी श्रेष्ठ उपाधियाँ धारण की थीं, जो उसकी न्यायप्रियता और लोकप्रियता का सूचक हैं। हलसी ताम्रलेख से पता चलता है कि वह जैन धर्म का संरक्षक था और उसने जैन पंडित श्रुतकीर्ति भोजक को राजधानी के जैन मंदिर के निमित्त दान दिया था। तालगुंड लेख में उसे गोपुरों से सुशोभित कई राजप्रासादों, तालगुंड में एक विशाल तालाब और प्राणवेश्वर महादेव के मंदिर के निर्माण का भी श्रेय दिया गया है। काकुस्थवर्मन का शासनकाल संभवतः 435 से 455 ई. के बीच रहा होगा।
काकुस्थवर्मन के कम से कम तीन पुत्र थे—शांतिवर्मन, कुमारवर्मन तथा कृष्णवर्मन प्रथम। इनमें से कृष्णवर्मन प्रथम संभवतः काकुस्थवर्मन की दूसरी पत्नी का पुत्र था।
काकुस्थवर्मन ने शांतिवर्मन को कदंब राज्य का युवराज चुना और सबसे छोटे सौतेले पुत्र कृष्णवर्मन को कदंब राज्य के दक्षिणी क्षेत्रों का वायसराय (प्रशासक) नियुक्त किया। संभवतः पूर्वी क्षेत्र उच्छंगि में कुमारवर्मन को वायसराय बनाया गया था।
किंतु काकुस्थवर्मन की मृत्यु के बाद कदंब परिवार दो शाखाओं में विभाजित हो गया। कदंब क्षेत्र के उत्तरी भाग बनवासी में शांतिवर्मन (455-460 ई.) अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ, जबकि कृष्णवर्मन प्रथम ने 455 ई. में कदंब राज्य के दक्षिण भाग त्रिपर्वत (हलेबिडु) प्रदेश पर अधिकार करके एक स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया।
शांतिवर्मन (455-460 ई.)
काकुस्थवर्मन की मृत्यु के उपरांत उसका यशस्वी ज्येष्ठ पुत्र युवराज शांतिवर्मन 455 ई. के लगभग बनवासी के कदंब राज्य का उत्तराधिकारी हुआ, जो अपने व्यक्तिगत आकर्षण और सुंदरता के लिए प्रसिद्ध था। लेखों में उसे ‘कदंबकुल का द्वितीय सूर्य’ कहा गया है। उसने अपने शासनकाल में कई विजयें प्राप्त कीं और वह कदंब राज्य के तीनों भागों—बनवासी, त्रिपर्वत और उच्छंगि—को संगठित करके एक केंद्रीय शासन के अधीन किया।
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पल्लवों के आक्रमण से निपटने के लिए शांतिवर्मन ने ही 455 ई. में कृष्णवर्मन को कदंब राज्य के दक्षिणी प्रांतों का शासक नियुक्त किया था, जिसने श्रीपर्वत को अपनी राजधानी बनाकर कदंबों की एक दूसरी स्वतंत्र शाखा की स्थापना की थी।
तालगुंड प्रशस्ति में शांतिवर्मन को ‘त्रिराजमुकुट अपहर्त्ता’ (तीन राजमुकुटों को अपहृत करने वाला) तथा उनसे ‘शोभायमान नृपति’ कहा गया है। एक अभिलेख में भी कहा गया है कि उसने अपने शत्रुओं की राजलक्ष्मी को उनके महलों से बलपूर्वक खींच निकाला था। इससे लगता है कि शांतिवर्मन ने अपने पड़ोसी राज्यों के साथ-साथ संभवतः पल्लव नरेश विष्णुगोपवर्मन के साथ भी युद्ध किया था।
कदंब विष्णुवर्मन के ताम्रपत्रों में शांतिवर्मन को ‘पूरे कर्नाटक क्षेत्र का स्वामी’ बताया गया है और कहा गया है कि वह उस कुंतल राज्य का अधिपति था, जिसकी शोभा वैजयंती (बनवासी) नगर के साथ-साथ अठारह अधीनस्थ शासकों के समर्पण से बनी हुई थी। किंतु शांतिवर्मन ने वस्तुतः किन राज्यों अथवा राजाओं पर विजय प्राप्त की और उसके राज्य की सीमाओं का कितना विस्तार हुआ, इस संबंध में निश्चित रूप से कुछ भी ज्ञात नहीं है। संभवतः उसको अपने युद्धाभियानों से विपुल संपत्ति प्राप्त हुई, जिसकी चर्चा कुछ अभिलेखों में मिलती है।
शांतिवर्मन ने भी अपने पिता की भाँति ‘धर्ममहाराज’ का विरुद धारण किया। वह महादानी, उदार तथा साहित्य एवं कला का महान संरक्षक भी था। वह जैन धर्म और जैन गुरुओं का समादर करता था। उसने जैन गुरु दामकीर्ति को खेटक का ग्राम दान में दिया और कन्नय द्वारा निर्मित दो मंदिरों के उद्घाटन के अवसर पर धान की खेती के लिए भूमि दान में दी थी। शांतिवर्मन ने संभवतः 455 से 460 ई. के बीच शासन किया था।
मृगेशवर्मन (460-480 ई.)
शांतिवर्मन का उत्तराधिकारी उसका सबसे बड़ा पुत्र मृगेशवर्मन 460 ई. के लगभग कदंब राजवंश की गद्दी पर बैठा, जिसे ‘विजयशिवमृगेशवर्मन’ के नाम से भी जाना जाता है। उसका बनवासी तथा पलाशिका (हलसी) दोनों पर अधिकार था।
मृगेश ने कदंब राज्य के पारंपरिक शत्रुओं के साथ कई युद्ध किए और उनमें सफलता प्राप्त की। कदंब लेखों से पता चलता है कि उसने अपने शत्रुभकुलों को भयभीत किया और तुंगगंगों एवं पल्लवों को पराजित करके उनसे अपार धन-संपत्ति अपहृत की। हलसी लेख में भी मृगेशवर्मन को ‘गंगों के प्रतिष्ठित परिवार का विनाशक’ और ‘पल्लवों के लिए विनाशकारी अग्नि’ (प्रलयानल) के समान बताया गया है। इससे लगता है कि मृगेशवर्मन ने पश्चिमी गंगों एवं पल्लवों के साथ भयंकर युद्ध कर उन्हें पराजित किया था।
इतिहासकारों का अनुमान है कि इस समय कदंब राज्य कई भागों में विभाजित हो गया था और एक ही समय में मृगेशवर्मन, कृष्णवर्मन तथा कुमारवर्मन क्रमशः इसके उत्तरी (बनवासी), दक्षिणी (श्रीपर्वत) एवं पूर्वी भागों (उच्छंगि) में शासन कर रहे थे। श्रीपर्वत का कृष्णवर्मन ने अपने भानजे गंग अविनीत से बहुत स्नेह करता था, इसलिए गंग नरेश उसके सहायक थे। उसने नागों को भी पराजित किया था, लेकिन वह मृगेशवर्मन के विरुद्ध असफल रहा। कृष्णवर्मन या तो पल्लवों से लड़ता हुआ मारा गया या उनके अधीन सामंत बन गया।
संभवतः कृष्णवर्मन के पुत्र और उत्तराधिकारी विष्णुवर्मन प्रथम ने भी गंगों और पल्लवों की सहायता से मृगेश पर आक्रमण किया था, लेकिन मृगेश ने उन्हें पराजित कर दिया। तालगुंड से प्राप्त एक अभिलेख से पता चलता है कि मृगेशवर्मन की प्रिय रानी प्रभावती कैकय वंश की राजकुमारी थी, जिसने रविवर्मन नामक पुत्र को जन्म दिया था। संभवतः पल्लवों से युद्ध में रानी का भाई शिवस्कंदवर्मन कैकय भी मारा गया था।
मृगेशवर्मन कुशल, पराक्रमी एवं उदार शासक था। उसने ‘धर्ममहाराज’ की उपाधि धारण की थी और लेखों में उसे युधिष्ठिर के समान न्यायप्रिय शासक बताया गया है। वह हाथियों एवं घोड़ों के संचालन तथा विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग में दक्ष था और शास्त्रों आदि का ज्ञान प्राप्त करने में व्यस्त रहता था।
मृगेशवर्मन ब्राह्मण धर्म के साथ-साथ जैन धर्म में भी विश्वास करता था। ताम्रलेखों से पता चलता है कि उसने अपने पिता शांतिवर्मन की स्मृति में राजधानी पलाशिका में एक जिनालय बनवाया और निर्ग्रंथों, जैन गुरुओं, श्वेतांबर जैन साधुओं और जैन कुँचकों (नग्न रहने वाले संन्यासियों) को दान दिया था। दान प्राप्त करने वाले जैन गुरुओं में दामकीर्ति भोजक प्रमुख था, जो श्रुतकीर्ति भोजक का उत्तराधिकारी था। इस नरेश का हल्मिडी अभिलेख कन्नड़ भाषा के सर्वप्राचीन अभिलेखों में एक है। मृगेशवर्मन का शासनकाल अनुमानतः 460 से 480 ई. के बीच माना जा सकता है।
शिवमांधातृवर्मन (460-485 ई.)
शिवमांधातृ (460-485 ई.) संभवतः कुमारवर्मन का पुत्र था और मृगेशवर्मन के काल में उच्छंगि का प्रशासक था। मृगेश की मृत्यु के समय उसका पुत्र रविवर्मन एक अल्पवयस्क राजकुमार था। रविवर्मन की अल्पवयस्कता का लाभ उठाकर शिवमांधातृ ने बनवासी पर अधिकार कर लिया।
कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि मृगेश का पुत्र रविवर्मन अल्पायु में बनवासी के सिंहासन पर आसीन हुआ और उसके संरक्षक के रूप में चाचा शिवमांधातृ ने कुछ समय तक बनवासी से शासन का संचालन किया था। जो भी हो, शिमोगा से प्राप्त ताम्रपत्र शिवमांधातृ के शासनकाल के पांचवें वर्ष के लेख से स्पष्ट है कि उसने कम से कम पांच वर्ष तक (480-485 ई.) बनवासी के कदंब राज्य का संचालन किया था।
ताम्रपत्रों में शिवमांधातृ को यशस्वी शासक और अनेक युद्धों का विजेता बताया गया है। उसने अविनीत गंग से संधि कर ली और उसके उत्तराधिकारी दुर्विनीत को अपना मित्र एवं सहयोगी बना लिया। इतिहासकारों का अनुमान है कि वह रविवर्मन के साथ युद्ध करता हुआ मारा गया था।
रविवर्मन (485-519 ई.)
मृगेशवर्मन के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र रविवर्मन कैकय राजकुमारी प्रभावती से उत्पन्न हुआ था। इसके शासनकाल के कई शिलालेख मिले हैं, जिनसे उसकी उपलब्धियों पर प्रकाश पड़ता है। लेखों में रविवर्मन को ‘कदंबकुल का सूर्य’ कहा गया है।
संभवतः गद्दी पर बैठने के समय रविवर्मन की आयु कम थी, इसलिए उसके चाचा उच्छंगि के शासक शिवमांधातृ (शिवमंधति) ने कम से कम पांच वर्ष तक उसके संरक्षक के रूप में बनवासी के राज्य-कार्य का संचालन किया। वयस्क होने पर रविवर्मन ने 485 ई. के लगभग कदंब राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली।
अनेक इतिहासकारों का अनुमान है कि संभवतः शिवमंधातृ ने रविवर्मन की अल्पवयस्कता का लाभ उठाकर बनवासी के सिंहासन पर अधिकार कर लिया था। रविवर्मन ने अपने पराक्रम और पौरुष के बल पर कदंब राजसिंहासन पर अधिकार किया था। इसकी पुष्टि रविवर्मन के शासनकाल के लेखों से भी होती है। संभवतः रविवर्मन को उच्छंगि के शासक अपने चाचा शिवमंधातृवर्मन से युद्ध करना पड़ा था, जिसमें शिवमंधातृ मारा गया था।
रविवर्मन के समय बनवासी के कदंबों के प्रबल शत्रुओं में पल्लवों के अतिरिक्त त्रिपर्वत के कदंब भी शामिल हो गए थे। रविवर्मन के शासनकाल में पल्लवों तथा पश्चिमी गंगों ने कदंब राज्य पर आक्रमण किए और त्रिपर्वत शाखा के कदंब नरेश विष्णुवर्मन ने भी आक्रमणकारियों का साथ दिया था।
कदंब लेखों में रविवर्मन को विष्णुवर्मन तथा अन्य शत्रु शासकों का वध करने वाला, काँची के पल्लव शासक चंडदंड का उन्मूलनकर्ता और समस्त पृथ्वी का विजेता बताया गया है। इससे स्पष्ट है कि रविवर्मन ने पल्लव राजा चंडदंड (पल्लवराज शांतिवर्मन) और अपने चाचा त्रिपर्वत के कदंब शासक विष्णुवर्मन को युद्ध में पराजित करके मार डाला।
रविवर्मन ने पुण्णटों, अलुपों, कोंगल्वों और उच्छंगि के पांड्यों के विरुद्ध भी सफल अभियान किया। गुडनापुर लेख में उसे उक्त राज्यों का विजेता बताया गया है। उच्छंगि को कदंब राज्य में मिलाने के बाद उसने अपने भाइयों—भानुवर्मन और शिवरथ को हलसी तथा उच्छंगि का प्रशासक नियुक्त किया और प्रशासन की सुविधा के लिए पलाशिका (हलसी) को अपनी दूसरी राजधानी बनाया।
रविवर्मन की सबसे महान सामरिक उपलब्धि वाकाटकों पर उसकी विजय थी, जिसके परिणामस्वरूप उसके साम्राज्य का विस्तार उत्तर में नर्मदा नदी तक हो गया। इस प्रकार उसके राज्य में कर्नाटक, गोवा और वर्तमान महाराष्ट्र के दक्षिणी क्षेत्र अनिवार्य रूप से शामिल थे।
रविवर्मन को कुशल धनुर्धर तथा हाथियों एवं घोड़ों के संचालन में दक्ष बताया गया है और उसकी तुलना वत्सराज, इंद्र तथा अर्जुन से की गई है। वह राजशास्त्र, व्याकरण एवं तर्कशास्त्र में पारंगत तथा विद्वानों का पारखी था।
रविवर्मन भी जैन धर्म का परमभक्त था। हलसी, कारमंग आदि स्थानों से मिले ताम्रलेख उसकी जैनधर्म-भक्ति के प्रमाण हैं। रविवर्मन के धर्मगुरु जैनमुनि कुमारदत्त तथा हरिदत्त थे और राजगुरु तथा प्रमुख दानपात्र बंधुसेन भोजक थे, जो दामकीर्ति भोजक के उत्तराधिकारी थे। रविवर्मन का भाई भानुवर्मन, जो हलसी का शासक था, जिनेंद्र भगवान का अभिषेक करने के लिए पंडर भोजक को दान दिया करता था।
हलसी अभिलेख के अनुसार रविवर्मन के शासनकाल में भगवान जिनेंद्र के सम्मान में प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा के दिन से एक अष्टदिवसीय मेला आरंभ होता था।
अपने शासन के 34वें वर्ष में रविवर्मन ने एक बौद्ध संघ को भूमि दान की थी और एक महादेव मंदिर का निर्माण भी करवाया था, जो सभी धर्मों के प्रति उसकी सहिष्णुता का परिचायक है। निलंबूर अभिलेख में उसके द्वारा ब्राह्मण गोविंदस्वामी को दान में दिए गए दो ग्रामों का विवरण है और सिरसी ताम्रपत्रों में बताया गया है कि उसने देशामात्य नीलकंठ के मंदिर को भी दान दिया था।
रविवर्मन ने संभवतः 485 ई. से 519 ई. तक शासन किया। एक अभिलेख के आधार पर अनुमान किया जाता है कि उसकी मृत्यु के समय उसकी एक रानी भी सती हुई थी।
हरिवर्मन (519-530 ई.)
संगोली शिलालेख के अनुसार रविवर्मन की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र और उत्तराधिकारी हरिवर्मन 519 ई. में बनवासी के राज-सिंहासन पर बैठा। वह शांत प्रकृति का शासक था। कदंबों के चालुक्य सामंत रणराग (राजराज) के पुत्र पुलकेशिन प्रथम ने कदंब राज्य के उत्तरी भाग को जीत लिया और वातापी (बादामी) में स्वतंत्र चालुक्य राज्य की स्थापना की। इसके बाद, संभवतः वाकाटक शासक हरिषेण ने भी हरिवर्मन को पराजित कर कर्नाटक के दक्षिणी भाग पर अधिकार कर लिया। परंतु सेंद्रकवंशीय शासक हरिवर्मन के स्वामिभक्त सामंत बने रहे।
हरिवर्मन बनवासी के कदंब राजवंश का अंतिम शासक सिद्ध हुआ, क्योंकि बन्नाहल्ली लेखों से पता चलता है कि त्रिपर्वत शाखा के कृष्णवर्मन द्वितीय (सिंहवर्मन के पुत्र) ने 530 ई. के आसपास बनवासी पर आक्रमण कर हरिवर्मन को मार डाला और राज्य की दोनों शाखाओं को एकजुट किया। 540 ई. के आसपास कदंब बादामी चालुक्यों के जागीरदार बन गए।
हरिवर्मन प्रजापालक तथा उदार प्रवृत्ति का शासक था। वह भी अपने पूर्वजों की भाँति जैन धर्म का अनुयायी था। इसकी पुष्टि उसके शासनकाल के चौथे और पांचवें वर्ष के ताम्रलेखों से होती है। उसका शासनकाल सामान्यतः 519 से 530 ई. के बीच माना जा सकता है।
त्रिपर्वत के कदंब
कृष्णवर्मन प्रथम (455-475 ई.)
कृष्णवर्मन प्रथम काकुस्थवर्मन की दूसरी रानी से उत्पन्न पुत्र तथा शांतिवर्मन का सौतेला भाई था। काकुस्थवर्मन की मृत्यु के बाद उसने श्रीपर्वत क्षेत्र में एक स्वतंत्र कदंब राज्य स्थापित कर लिया था। साक्ष्यों के अभाव में यह कहना कठिन है कि उसे दक्षिणी कुंतल का राज्य पिता द्वारा प्रदान किया गया था अथवा उसने इसे बलपूर्वक अपहृत किया था। जो भी हो, कृष्णवर्मन ने 455 ई. के लगभग अपने स्वतंत्र कदंब-राज्य स्थापित करके कर्नाटक के हासन जिले के त्रिपर्वत (हलेबिडु) को अपनी राजधानी बनाया, जो कालांतर में ग्यारहवीं सदी में होयसलों की भी राजधानी बनी।
कृष्णवर्मन की उपलब्धियों का उल्लेख मुख्यतः उसके उत्तराधिकारियों के अभिलेखों में मिलता है। कृष्णवर्मन प्रथम की बहन का विवाह गंग नरेश माधव के साथ हुआ था, जिससे उसका भानजा अविनीत गंग पैदा हुआ था। अतः गंगनरेश उसके सहायक थे। संभवतः गंगों की सहायता से उसने सेंद्रक-सामंतों और नागों को पराजित किया था। उसका पल्लवों से भी संघर्ष हुआ और संभवतः ऐसे ही एक युद्ध में कैकय-नरेश शिवस्कंदवर्मन मारा गया था, जो कृष्णवर्मन प्रथम का ससुर था। अपने शासन के अंतिम वर्षों में वह या तो पल्लवों से पराजित होकर उनका सामंत बन गया या उनसे लड़ते हुए युद्धक्षेत्र में मारा गया।
परवर्ती लेखों में कृष्णवर्मन को एक महान शासक, राजाओं में अग्रगण्य, अनेक युद्धों का विजेता तथा अश्वमेध यज्ञ को संपन्न करने वाला बताया गया है।
कृष्णवर्मन प्रथम के उत्तराधिकारी
कृष्णवर्मन के दो पुत्र थे—जिनका नाम विष्णुवर्मन और देववर्मन मिलता है। कृष्णवर्मन प्रथम ने अपने छोटे पुत्र देववर्मन को युवराज बनाया। किंतु कृष्णवर्मन की मृत्यु के बाद विष्णुवर्मन ने 475 ई. के लगभग देववर्मन को अपदस्थ कर श्रीपर्वत की राजगद्दी को अपहृत कर लिया।
विष्णुवर्मन (475-490 ई.)
कृष्णवर्मन प्रथम के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र विष्णुवर्मन (475-490 ई.) श्रीपर्वत की गद्दी पर बैठा। लेखों से पता चलता है कि पल्लव शासक शांतिवर्मन ने विष्णुवर्मन को कदंब राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित किया था। इससे लगता है कि कृष्णवर्मन की मृत्यु के पश्चात् विष्णुवर्मन को संभवतः उत्तराधिकार के लिए अपने छोटे भाई देववर्मन से युद्ध करना पड़ा था।
कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि मूल शाखा के मृगेशवर्मन अथवा किसी अन्य शासक ने विष्णुवर्मन को उसके पैतृक राज्य से वंचित रखने का प्रयास किया और उस स्थिति में उसने अपने अधिपति पल्लव शासक शांतिवर्मन से सहायता प्राप्त की थी।
विष्णुवर्मन साधारण शासक था और अपने संपूर्ण राज्यकाल में वह पल्लवों का अधीनस्थ बना रहा। अन्य कदंब शासकों की भाँति उसकी ‘महाराज’ की उपाधि नहीं मिलती है। पल्लवों की सहायता के बावजूद वह बनवासी के राजसिंहासन को प्राप्त नहीं कर सका और अंततः रविवर्मन द्वारा मारा गया।
सिंहवर्मन (490-516 ई.)
विष्णुवर्मन की मृत्यु के उपरांत उसका पुत्र सिंहवर्मन (490-516 ई.) राजा हुआ। बेन्नहल्ली ताम्रपत्रों में सिंहवर्मन को एक वीर शासक और कई विषयों का विद्वान बताया गया है। यद्यपि उसके लिए ‘महाराज’ की उपाधि प्रयुक्त की गई है, किंतु लगता है कि वह बनवासी के कदंबों की अधीनता स्वीकार करता था। उसने लगभग 490 से 516 ई. तक शासन किया।
कृष्णवर्मन द्वितीय (516-540 ई.)
सिंहवर्मन के उत्तराधिकारी कृष्णवर्मन द्वितीय (516-540 ई.) को कदंबकुल का सूर्य, प्रजापालक तथा शत्रुओं का विनाशक कहा गया है। सिरसी ताम्रपत्रों के अनुसार कृष्णवर्मन ने अनेक सफल युद्धों के परिणामस्वरूप यश एवं राज्य अर्जित किया था।
कृष्णवर्मन द्वितीय ने 530 ई. के लगभग वैजयंती (बनवासी) पर आक्रमण कर अंतिम कदंब शासक हरिवर्मन को मार डाला और राज्य की दोनों शाखाओं को एकजुट किया। बेन्नहल्ली ताम्रपत्रों से भी पता चलता है कि उसने अपने पराक्रम से राज्य प्राप्त किया था और अपने अभिषेक के अवसर पर वैजयंती में एक अश्वमेध यज्ञ का संपादन किया था।
कृष्णवर्मन तथा हरिवर्मन के बीच हुए संघर्ष का लाभ उठाकर सेंद्रकों ने भी अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। लेकिन कृष्णवर्मन ने संभवतः उन्हें भी पराजित कर दिया। किंतु वातापी के चालुक्यों ने 540 ई. के लगभग कदंबों को अपने अधीन कर लिया।
कृष्णवर्मन द्वितीय के बाद उसके पुत्र अजयवर्मन, भोगिवर्मन और ऐसे ही पांच अन्य कदंब नरेश चालुक्यों के करद तथा सामंत बनकर शासन करते रहे। अंततः 610 ई. के आसपास चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय ने कदंब राज्य पर आक्रमण कर बनवासी पर अधिकार कर लिया और कदंब राजसत्ता का अंत कर दिया। ऐहोल प्रशस्ति से भी पता चलता है कि पुलकेशिन की सेना ने वरदा नदी से परिवेष्ठित वैजयंती नगर को घेर कर उसे तहस-नहस कर दिया था।
इसके बाद भी, कर्नाटक में कदंबों का अस्तित्व कई शताब्दी तक बना रहा। दसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में, जब राष्ट्रकूटों की शक्ति कर्नाटक में क्षीण हो गई, तब कदंब-राजकुल ने पुनः अपनी शक्ति का विस्तार करना आरंभ किया। दसवीं से चौदहवीं शताब्दी ई. के मध्य तक कदंबों की कई छोटी-छोटी शाखाएँ दक्कन और कोंकण में शासन करती रहीं, जिनमें गोवा, हलसी और हंगल (धारवाड़) कदंब सत्ता के महत्त्वपूर्ण केंद्र थे। इस प्रकार लगभग एक हजार वर्ष तक कदंब दक्षिण के विभिन्न स्थानों पर गिरते-पड़ते शासन करते रहे, यद्यपि उनका कभी असाधारण उत्कर्ष संभव नहीं हो सका।










