श्रमण परंपरा की प्राचीनता (Antiquity of the Shramana Tradition)

भारतीय प्रायद्वीप प्रागैतिहासिक काल से ही विभिन्न धर्मों के उद्भव, विकास और स्थायित्व का आश्रयदाता […]

श्रमण परंपरा की प्राचीनता (Antiquity of the Shramana Tradition)

भारतीय प्रायद्वीप प्रागैतिहासिक काल से ही विभिन्न धर्मों के उद्भव, विकास और स्थायित्व का आश्रयदाता रहा है और उसकी विभिन्न प्रवृत्तियों, जीवन-विधाओं के संघर्ष और समन्वय के द्वारा भारतीय इतिहास की प्रगति एवं संस्कृति का विकास हुआ है।

हड़प्पा संस्कृति के विविध पक्षों के उद्घाटन के बाद लगता है कि भारत में आर्यों का आक्रमण एक सभ्य प्रदेश में बर्बर जाति का प्रवेश था। यद्यपि आर्यों ने अपनी पूर्ववर्ती आर्येत्तर सभ्यता को ध्वस्त कर अपनी विशिष्ट भाषा, धर्म और समाज को भारत में प्रतिष्ठित किया, किंतु यह सांस्कृतिक विध्वंस निरंतर विनाश नहीं था और हड़प्पा संस्कृति के अनेक तत्त्व परवर्ती आर्य-सभ्यता में अंगीकृत हुए।

आर्य तथा आर्येत्तर सांस्कृतिक परंपराओं का यह समन्वय भारतीय सभ्यता के निर्माण की आधारशिला सिद्ध हुआ है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति में नवीनता और प्राचीनता में बराबर संघर्ष होता रहा है। इस संघर्ष में नवीनता पनपती रही, किंतु प्राचीनता का भी सर्वथा विनाश नहीं हुआ।

भारतीय संस्कृति में प्राचीनता और नवीनता दोनों को ही समय-समय पर यथोचित सम्मान मिलता रहा है। यद्यपि भारतीय संस्कृति की विविधताओं के अनेक रूप रहे हैं, किंतु समस्त विविधताओं को दो धाराओं—ब्राह्मण और श्रमण धारा में वर्गीकृत किया जा सकता है। ब्राह्मण धारा के अंतर्गत वैदिक आर्य अथवा ब्राह्मण परंपराएँ आती हैं, जबकि श्रमण परंपरा में जैन, बौद्ध, आजीवक और इसी तरह की अन्य तापसी अथवा यौगिक परंपराओं की गणना की जाती है।

श्रमण संस्कृति

प्राकृत साहित्य में श्रमण के लिए ‘समण’ शब्द का प्रयोग किया गया है। ‘श्रमण’ शब्द के तीन रूप हो सकते हैं—श्रमण, समन और शमन।

श्रमण शब्द ‘श्रम’ धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है परिश्रम करना। तपस्या का एक नाम परिश्रम भी है—‘श्राम्यन्तीति श्रमणः तपस्यन्तीत्यर्थः’ अर्थात् जो व्यक्ति अपने श्रम से उत्कर्ष की प्राप्ति करते हैं, वे श्रमण कहलाते हैं।

समन का दूसरा अर्थ है समानता, जो प्राणीमात्र के प्रति समभाव रखे, जो राग, द्वेष और विषमता से दूर रहे। यह दृष्टि विश्वप्रेम की अद्भुत दृष्टि है। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की भूमिका पर प्रतिष्ठित साम्य-दृष्टि श्रमण परंपरा का प्राण-तत्त्व है। श्रमण की ‘सम’ अर्थपरकता को श्रीमद्भागवत व्यंजित करता है—‘आत्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणाजनाः’।

शमन का एक अर्थ है—शांत करना, जो अपनी वृत्तियों को शांत कर वासनाओं का दमन करने की कोशिश करता है, वह श्रमण है। इस प्रकार श्रमण संस्कृति के मूल में श्रम, सम और शम—ये तीनों तत्त्व विद्यमान हैं।

श्रमण संस्कृति की प्राचीनता

विद्वानों का एक वर्ग श्रमण परंपरा को वेदों से प्राचीन एवं आर्येत्तर धर्म स्वीकार करने का आग्रह करता है। कुछ विद्वानों ने मोहनजोदड़ो के खंडहरों से प्राप्त ध्यानस्थ योगी की मूर्ति को योगीश्वर ऋषभ की कायोत्सर्ग मुद्रा के रूप में स्वीकार किया है। मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा से मूर्तिवाद एवं योग-साधना के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। मोहनजोदड़ो से अनेक नग्न-चित्र तथा नग्न-मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जिन्हें तपस्वी योगियों का चित्र अथवा मूर्ति माना जा सकता है। मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा की मूर्तियों से पता चलता है कि हड़प्पा संस्कृति के लोग केवल योग-साधना ही नहीं करते थे, बल्कि योगियों की प्रतिमाओं की पूजा भी करते थे। मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा की अनेक मुहरों पर वृषभ का भी अंकन मिलता है। मूर्तिवाद तथा नग्नता जैन श्रमण परंपरा की प्रमुख विशेषता रही है।

श्रमण परंपरा की प्राचीनता (Antiquity of the Shramana Tradition)
श्रमण परंपरा की प्राचीनता
केशी, वातरशना मुनि, ऋषभ और वृषभ

ऋग्वेद के केशिसूक्त में केशधारी, मैले ‘गेरुए’ कपड़े पहने, हवा में उड़ते, जहर पीते, मौन से ‘उन्मदित’ और देवोपित मुनियों का विलक्षण चित्रण मिलता है—

मुनयो वातरशनाः पिशंगा वसते मला।

वातस्यानु ध्राजिं यन्ति यद् देवासो अविक्षत।।

उन्मदिता मौनेयेन वात आतस्यिमा वयम्।

शरीरेदस्माकं यूयं मर्तासो अभि पश्यथ।।

अर्थात् ‘अतींद्रियार्थदर्शी वातरशना मुनि मल धारण करते हैं, जिससे वे पिंगल वर्ण दिखाई देते हैं। जब वे वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं, अर्थात् रोक लेते हैं, तब वे अपनी तप की महिमा से दीप्यमान होकर देवतास्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं। सर्वलौकिक व्यवहार को छोड़कर मौनवृत्ति से उन्मत्तवत् वे वायु भाव को प्राप्त होते हैं, साधारण मनुष्य उनके बाह्य शरीरमात्र को देख पाते हैं, सच्चे आभ्यंतर स्वरूप को नहीं।’

वातरशना मुनियों के संदर्भ में केशी की स्तुति की गई है कि ‘केशी अग्नि, जल तथा स्वर्ग और पृथ्वी को धारण करता है। केशी समस्त विश्व के तत्त्वों का दर्शन कराता है। केशी ही प्रकाशमान (ज्ञान) ज्योति (केवलज्ञानी) कहलाता है।’

ऋग्वेद के इन केशी व वातरशना मुनियों की साधनाओं की तुलना भागवत पुराण में उल्लिखित वातरशना श्रमण ऋषि, उनके अधिनायक ऋषभ और उनकी साधनाओं से की जा सकती है—‘‘यज्ञ में परम ऋषियों द्वारा प्रसन्न किए जाने पर, हे विष्णुदत्त, परीक्षित, स्वयं श्री भगवान् (विष्णु) महाराज नाभि का प्रिय करने के लिए उनके रनिवास में महारानी मेरुदेवी के गर्भ में आए। उन्होंने इस पवित्र शरीर का अवतार वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्मों को प्रकट करने की इच्छा से किया’’ (बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानाम् ऊर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तन्वावततार)। भागवत पुराण के उल्लेख से लगता है कि ऋषभदेव जैनियों के ही तीर्थंकर नहीं हैं, हिंदुओं के लिए भी साक्षात् विष्णु के अवतार हैं।

कतिपय इतिहासकार मानते हैं कि भागवत पुराण में गौतम बुद्ध के समान ऋषभदेव को विष्णु के अवतारों में से एक मानना ब्राह्मणेत्तर धर्मों को पचा लेने की प्रक्रिया का परिणाम था।

वास्तव में प्राचीन काल में ऋषभ के ईश्वरावतार की मान्यता इतनी बद्धमूल हो चुकी थी कि शिवमहापुराण में उन्हें शिव के अट्ठाईस योगावतारों में गिना गया है। इस अवतार का जो हेतु भागवत पुराण में बताया गया है, उससे श्रमण धर्म की परंपरा भारतीय साहित्य के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद से निःसंदेह जुड़ जाती है।

भागवत पुराण में ऋषभावतार का हेतु वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्म को प्रकट करना बताया गया है। कहा गया है कि भगवान का यह अवतार रजोगुण से भरे हुए लोगों को कैवल्य की शिक्षा देने के लिए हुआ (अयमवतारो रजसोपप्लुत-कैवल्योपशिक्षणार्थः)।

इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि ‘यह अवतार रज से उपप्लुत अर्थात् रजोधारण (मल धारण) वृत्ति द्वारा कैवल्य प्राप्ति की शिक्षा देने के लिए हुआ था।’

जैन मुनियों के आचार में अस्नान, अदंतधावन, मलपरीषह आदि द्वारा रजोधारण संयम का अंग माना गया है। बुद्ध के समय में भी रजोजल्लिक श्रमण विद्यमान थे।

श्रमण परंपरा की प्राचीनता
भगवान महावीर

इस प्रकार ऋग्वेद के केशी व वातरशना मुनि और भागवत के वातरशना श्रमण-ऋषि व ऋषभ में इतनी समानता है कि भागवत पुराण वस्तुतः ऋग्वेद के केशिसूक्त का विस्तृत भाष्य प्रतीत होता है।

केशी और ऋषभ या वृषभ के एकत्व का समर्थन ऋग्वेद में ही वर्णित मुद्गल ऋषि और ज्ञानी नेता केशी वृषभ से भी होता है। केशी स्पष्टतः वातरशना मुनियों के अधिनायक ही हैं, जिनकी साधना में मलधारणा, मौनवृत्ति, उन्माद भाव का विशेष उल्लेख मिलता है।

ऋषभ भगवान के कुटिल केशों की परंपरा जैन मूर्तिकला में अक्षुण्ण है। महावीर के समय में पार्श्व संप्रदाय के नेता का नाम अनायास ही केशीकुमार नहीं था। ऋग्वेद में ‘त्रिधा बद्धो वृषभो’ अर्थात् त्रिधा (ज्ञान, दर्शन और चारित्र से) अनुबद्ध वृषभ ने धर्म-घोषणा की और वे एक महान देव के रूप में मर्त्यों में प्रविष्ट हुए। इसी प्रकार ऋग्वेद के शिश्नदेवों (नग्नदेवों) का वर्णन भी महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है।

ऋग्वेद के वातरशना मुनि और भागवत पुराण के वातरशना श्रमण-ऋषि एक ही संप्रदाय के वाचक हैं। इन उल्लेखों से भी लगता है कि श्रमण संप्रदाय का प्राचीन रूप ऋग्वैदिक काल में अस्तित्व में था, जो कालांतर में अवैदिक संप्रदायों के रूप में प्रकट हुआ।

वातरशना मुनियों का आचरण जैसे—मलधारणा, मौनवृत्ति, अस्नान, अदंतधावन, प्राणोपासना आदि वैदिक ऋषियों को विचित्र लगना स्वाभाविक था, क्योंकि निवृत्तिपरक तप ऋग्वैदिक जीवन-दर्शन के विरुद्ध था और वैदिक सूक्तकार इन योगजन्य सिद्धियों से अपरिचित थे।

कात्यायन की सर्वानुक्रमणी के एक सूक्त में ‘वातरशना’ मुनियों के नाम इस प्रकार प्राप्त होते हैं—जूति, वातजूति, वृषाणक, करिक्रत, एतश, ऋष्यशृंग। ऋष्यशृंग की कथा परवर्ती साहित्य में अनेकत्र और अनेक रूपों में पाई जाती है, पर यह स्पष्ट है कि ऋष्यशृंग एक ब्रह्मचारी और आरण्यक तपस्वी थे।

तैत्तिरीय आरण्यक में श्रमणों को ‘वातरशना’ कहा गया है, जो श्रमणों से संबंधित प्रतीत होता है, यद्यपि यह आरण्यक भगवान पार्श्वनाथ की धर्मदेशना के समय से प्राचीन नहीं है।

‘तांडयमहाब्राह्मण’ में ‘तुरोदेवमुनि’ का उल्लेख है। ऋग्वेद के अरण्यानी सूक्त के द्रष्टा ‘ऐरम्मद देवमुनि’ थे, जिसकी तुलना अथर्ववेद के ‘मुनेर्देवस्य मूलेन’ से की जा सकती है। ‘तांडयमहाब्राह्मण’ में ‘मुनिमरण’ नामक स्थान का उल्लेख मिलता है और ‘यतियों’ को इंद्र का शत्रु कहा गया है।

‘यति’ अवैदिक मत को मानने वाले यानी श्रमण समाज के सदस्य रहे होंगे। शतपथ ब्राह्मण में तुर, कावशेय को मुनि कहा गया है। शंकराचार्य शारीरक भाष्य में एक उद्धरण देते हैं, जिसके अनुसार कावषेय ऋषि वेदाध्ययन तथा यज्ञ के समर्थक नहीं थे। ऐतरेय ब्राह्मण से पता चलता है कि कवष ऐलूष सरस्वती तट के वैदिक यज्ञ से साक्रोश अब्राह्मण कहकर निकाल दिए गए थे।

श्रमण परंपरा की प्राचीनता
तथागत गौतम बुद्ध
यति और तापस

ऋग्वेद में मुनियों के अतिरिक्त यतियों का भी उल्लेख बहुतायत से आया है। यद्यपि ऋषियों, मुनियों और यतियों के बीच घालमेल पाया जाता है, किंतु वे समान रूप से पूज्य थे। परंतु वैदिक परंपरा में यतियों के प्रति रोष उत्पन्न होने के प्रमाण ब्राह्मण-ग्रंथों में मिलते हैं, जहाँ ‘यतियों’ को इंद्र का शत्रु कहा गया है और इंद्र द्वारा यतियों को शालावृकों (शृगालों व कुत्तों) द्वारा नुचवाए जाने का वर्णन है। यह अलग बात है कि देवों ने इंद्र के इस कार्य को उचित नहीं माना और इंद्र का बहिष्कार किया।

‘तांडयमहाब्राह्मण’ में ‘वेदविरुद्ध, नियमोपेत, कर्मविरोधिजन, ज्योतिष्टोमादि अकृत्वा प्रकारांतरेण वर्तमान’ आदि विशेषणों से स्पष्ट है कि यति अवैदिक मत को मानने वाले यानी श्रमण समाज के सदस्य थे। उत्तरकाल में ‘यति’ का अर्थ तापस था। भगवद्गीता में ऋषियों, मुनियों और यतियों को समान रूप से योगप्रवृत्त बताया गया है।

भगवद्गीता में मुनि को इंद्रिय और मन का संयम करने वाला, इच्छा, भय, क्रोध रहित मोक्षपरायण एवं सदा मुक्त के समान बताया गया है, जबकि यति को क्रोधरहित, संयमचित्त व वीतराग।

इस प्रकार यति ब्राह्मण परंपरा के न होकर श्रमण-परंपरा के ही साधु सिद्ध होते हैं, जिनके लिए यह संज्ञा समस्त जैन-साहित्य में आज भी प्रचलित है।

व्रात्य

अथर्ववेद के पंद्रहवें अध्याय में व्रात्यों का वर्णन मिलता है, जिन्हें ‘तांडयमहाब्राह्मण’ व लाटयायन, कात्यायन व आपस्तंबीय श्रौतसूत्रों में ‘व्रात्यस्तोमाविधि’ द्वारा शुद्ध कर वैदिक परंपरा में सम्मिलित किया गया था।

वास्तव में ये व्रात्य वैदिक विधि से ‘अदीक्षित व संस्कारहीन’ थे, वे अदुरुक्त रीति से (वैदिक संस्कृत नहीं, समकालीन प्राकृत भाषा) बोलते थे, वे ‘ज्याहृद’ (प्रत्यंचा रहित धनुष) धारण करते थे। लगता है कि व्रात्य भी श्रमण परंपरा के साधु व गृहस्थ थे, जो वेद-विरोधी होने के कारण वैदिक अनुयायियों के कोप-भाजन हुए थे।

जैन धर्म में अहिंसादि मुख्य पाँच नियमों को व्रत कहा गया है, जिसे धारण करने वाले श्रावक अणुव्रती या मुनि महाव्रती कहलाते थे। किंतु जो विधिवत् इन व्रतों को धारण नहीं करते थे, केवल धर्म में श्रद्धा रखते थे, संभवतः इन्हीं व्रतधारियों को व्रात्य कहा गया है। मनुस्मृति के दशवें अध्याय में लिच्छवि, नट, मल आदि क्षत्रिय जातियों की गणना व्रात्य में की गई है।

अर्हत् तथा अर्हत्-चैत्य

अर्हत् तथा अर्हत्-चैत्य भी भगवान् महावीर और बुद्ध के जन्म के पहले पाए जाते थे। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि अर्हत् का आदर्श जैन परंपरा और हीनयान बौद्ध मत में मान्य अवश्य रहा है, परंतु जैन धर्म में अर्हत् का आदर्श बौद्ध मत के समान स्वीकार नहीं किया गया है। जैन परंपरा बताती है कि तीर्थंकरों ने अर्हत् होकर ही धर्म का उपदेश दिया था। जैन दर्शन के अनुसार जब जीव कर्म से पृथक होकर ‘केवलज्ञानी’ हो जाता है, तो उसे ‘अर्हत्’ संज्ञा की प्राप्ति होती है।

अर्हत् शब्द की व्युत्पत्ति ‘अर्ह’ धातु से है, जो पूजा वाचक है। अर्हंतों द्वारा प्रतिपादित और अर्हंतावस्था की उपलब्धि करने वाले आर्हत धर्म के सूत्र प्राचीन साहित्य में उपलब्ध हैं। ऋग्वेद में कहा गया है—‘अर्हन्ता चित्पुरोदधेंऽशेव देवावर्वते’। इन्हीं अर्हतों के अनुयायी व्रात्य कहलाते थे। इसी प्रकार जैन, आजीवक और बौद्ध परंपराएँ स्पष्ट रूप से श्रमण संस्कृति की शाखाएँ हैं, जो वैदिक परंपरा की विरोधी रही हैं।

जैन और बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि महावीर और बुद्ध के पहले भी कई ऐसे समुदाय थे, जिनकी आस्था वेदों पर नहीं थी। जैन साहित्य में पाँच प्रकार के श्रमणों का उल्लेख है—‘निग्गंथा, सक्क, तावस, गेरुय, आजीव पंचहा समणा’ (निर्ग्रंथ, शाक्य, तापस, गेरुअ, आजीवक)।

श्रमण परंपरा में जैन साधु ‘निर्ग्रंथ’ कहलाते थे। वैदिक साहित्य में निर्ग्रंथ शब्द का प्रयोग मिलता है। पालि साहित्य त्रिपिटक में भगवान् महावीर को निगंठ (निर्ग्रंथ) कहा गया है।

उपनिषदों में श्रमण शब्द का सकृत् प्रयोग है, यद्यपि मुंडकोपनिषद् निश्चित रूप से यज्ञविधि के निंदक किसी मुंडित-शिर श्रमण की रचना लगती है, क्योंकि मुंडक का अर्थ ही ‘श्रमण’ होता है।

लगता है कि वैदिक समाज की सांस्कृतिक पर्यंत-भूमि में मुनियों और श्रमणों का एक निराला वर्ग था और योग-विद्या से परिचय होने के कारण जिनका संबंध पिछली हड़प्पा संस्कृति से स्थापित किया जा सकता है। इस प्रकार मुनि-श्रमण ब्राह्मण प्रधान वैदिक समाज के बहिर्भूत होते हुए भी एक प्राचीन और उदात्त आध्यात्मिक परंपरा के अनमूलित अवशेष थे।

वैदिक साहित्य में वेद एवं इंद्र-विरोधी जन-समुदाय से संबंधित श्रमण, यति, व्रात्य, वातरशना, मुनि आदि उल्लेखों से वेदों में प्रतिबिंबित आर्यों की धार्मिक मान्यताओं की प्रतिद्वंदी विचारधारा का सबल अस्तित्व एवं जन-प्रतिष्ठा का ज्ञान होता है।

संसारवाद के साथ परिव्राज्य का ग्रहण ब्राह्मणों ने श्रमणों से किया था, न कि श्रमणों ने ब्राह्मणों से। छठी शताब्दी ईसापूर्व के वैदिक और अवैदिक भिक्षु संप्रदायों के मूल में श्रमणों की प्राचीन परंपरा का ही योगदान माना जाना चाहिए।

भारत में श्रमण परंपरा प्राक्वैदिक परंपरा है और ‘उत्तराध्ययन’ निर्भरांत रूप में अभिव्यक्त करता है—कि समयाए समणो होइ अर्थात् समभाव की साधना करने से श्रमण होता है। भगवान् महावीर और बुद्ध ने जिस धर्म और दर्शन का प्रचार-प्रसार किया है, उसकी परंपरा प्राक्वैदिक युग से पोषित एवं विकसित है।

श्रमण परंपरा का अस्तित्व अनुमानाश्रित नहीं, इतिहास के द्वारा अनुमोदित तथ्य है। श्रमण परंपरा की प्राचीनता के बारे में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ लिखते हैं कि ‘श्रमण-संस्कृति आर्यों के आगमन के पूर्व से ही इस देश में विद्यमान थी।’

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