Table of Contents
शाहजहाँ (1627 ई.-1658 ई.)
शाहजहाँ का जन्म 5 जनवरी, 1592 ई को लाहौर में हुआ था। उसके बचपन का नाम खुर्रम था, जिसका अर्थ होता है ‘खुशी प्रदान करने वाला’। उसकी माता मारवाड़ के राजा उदयसिंह की पुत्री जगतगोसाईं थी, जिसका 1585 ई. में सलीम से विवाह हुआ था। जगतगोसाईं को ‘जोधबाई’ और ‘मानबाई’ के नाम से भी जाना जाता है।
शाहजहाँ का लालन-पालन उसकी दादी सुल्ताना बेगम की देखरेख में बड़े लाड़-प्यार में हुआ। अकबर अपने इस पोते को बहुत प्यार करता था और उसने खुर्रम की शिक्षा-दीक्षा का उचित प्रबंध किया। शाहजहाँ का प्रथम शिक्षक मुल्ला कासिम बेग तबरेजी था, जो प्रसिद्ध विद्वान मिर्जा जान तबरेजी का शिष्य था। शाहजहाँ के शिक्षकों में हमीम अली गिलानी और शेख सूफी शेख अबुल खैर का नाम भी महत्त्वपूर्ण है। शाहजहाँ को फारसी साहित्य से विशेष लगाव था, किंतु उसे हिंदी और तुर्की का भी विशेष ज्ञान था। उसकी सैन्य शिक्षा का भी उचित प्रबंध किया गया, जिससे वह धनुष-बाण, तलवार तथा अश्वारोहण में पारंगत हो गया।
शाहजहाँ के राजनीतिक जीवन का आरंभ 1607 ई. में हुआ, जब जहाँगीर ने शहजादा खुसरो के विद्रोह के समय खुर्रम को राजधानी आगरा की देखभाल के लिए नियुक्त किया था। 1607 ई. में पिता जहाँगीर ने शाहजहाँ को 8000 जात और 5000 सवार का मनसब प्रदान किया और अगले वर्ष 1808 ई. में उसे हिसार-फिरोजा की जागीर भी दे दी, जो मुगल परंपरा के अनुसार प्रायः युवराज को ही दी जाती थी।
1610 ई. में खुर्रम का विवाह शाह इस्माइल के वंशज मुजफ्फर हुसैन सफवी की पुत्री से हुआ। 1611 ई. में जहाँगीर ने खुर्रम की पदोन्नति करते हुए उसे 10000 जात और 5000 सवार का मनसब दिया। 1612 ई. में खुर्रम का दूसरा विवाह नूरजहाँ के भाई आसफ खाँ की पुत्री अर्जुमंदबानो बेगम के साथ हुआ, जो कालांतर में ‘मुमताज महल’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। शाहजहाँ का तीसरा विवाह 1617 ई. में अब्दुर्रहीम खानखाना की पोती और शाहनवाज की पुत्री से हुआ था।
शहजादे के रूप में खुर्रम के सैनिक अभियान
कहा जाता है कि जहाँगीरकालीन इतिहास मुख्यतया शहजादे खुर्रम की विजयों का इतिहास है। 1614 ई. में खुर्रम को पहली बार मेवाड़ अभियान के लिए नियुक्त किया गया। खुर्रम ने अपनी वीरता और दूरदर्शिता के द्वारा मेवाड़ को मुगलों की अधीनता स्वीकार करने और संधि करने के लिए विवश किया। मेवाड़ विजय ने खुर्रम को एक योग्य एवं कुशल सेनापति सिद्ध कर दिया।
मेवाड़ विजय के बाद खुर्रम को 6 अक्टूबर, 1616 ई. को दक्षिण अभियान पर भेजा गया और अपनी कूटनीति से अहमदनगर के मलिक अंबर को संधि करने के लिए बाध्य किया। दक्षिण अभियान में खुर्रम की सफलता से प्रसन्न होकर जहाँगीर ने उसे ‘शाहजहाँ’ की उपाधि से सम्मानित किया।
दक्षिण विजय के पश्चात् शहजादा खुर्रम ने काँगड़ा के दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया। 1621 ई. में शहजादे खुर्रम को पुनः दक्षिणी अभियान के लिए भेजा गया और इस बार भी उसने मलिक अंबर को संधि करने के लिए विवश किया, जिससे दक्षिण में शांति स्थापित हो गई।
शाहजहाँ का राज्यारोहण (1628 ई.)
शाहजहाँ की सबसे प्रबल शत्रु उसकी सौतेली माँ नूरजहाँ थी, जिसका जहाँगीर पर बहुत प्रभाव था। आरंभ में नूरजहाँ जहाँगीर के बाद खुर्रम को ही बादशाह बनाना चाहती थी। नूरजहाँ गुट का सदस्य होने के कारण 1622 ई. तक शाहजहाँ को राज्य में सम्मान और पद मिलता रहा। किंतु बाद में नूरजहाँ ने अपनी पुत्री लाडली बेगम का विवाह जहाँगीर के छोटे पुत्र शहरयार से कर दिया और शाहजहाँ का पक्ष छोड़कर अपने दामाद शहरयार को बादशाह बनाने का षडयंत्र करने लगी। फलतः नूरजहाँ की स्वार्थपूर्ण नीतियों के कारण खुर्रम ने विद्रोह कर दिया, किंतु उसका विद्रोह असफल हो गया और उसने जहाँगीर से क्षमा माँग ली।
जहाँगीर के पुत्र अन्य पुत्रों- खुसरो और परवेज की मृत्यु हो चुकी थी, जिसके कारण सिहासन के लिए खुर्रम और शहरयार दो ही दावेदार बचे थे। 28 अक्टूबर, 1627 ई. को जहाँगीर की मृत्यु के बाद शहरयार और शाहजहाँ में संघर्ष छिड़ गया। वास्तव में जहाँगीर की मृत्यु के बाद सिंहासन के लिए प्रत्यक्ष रूप में नूरजहाँ तथा आसफ खाँ के बीच युद्ध हुआ क्योंकि दोनों अपने-अपने दामादों को बादशाह बनाना चाहते थे। खुर्रम के लिए सिंहासन को सुरक्षित रखने के लिए उसके ससुर आसफ खाँ ने खुसरो के पुत्र दावरबख्श को कठपुतली बादशाह बना दिया, तो नूरजहाँ ने लाहौर में अपने दामाद शहरयार को बादशाह घोषित कर दिया। अंततः शाहजहाँ के ससुर आसफ खाँ ने अपनी कूटनीति से नूरजहाँ की सारी कार्यवाहियों को विफल कर दिया। उसने लाहौर में शहरयार को बंदी बनाकर अंधा कर दिया और इस प्रकार उत्तराधिकार के प्रश्न पर शाहजहाँ को निर्णायक विजय मिल गई। फरवरी, 1628 ई. में शाहजहाँ बड़ी धूमधाम के साथ आगरा में ‘अबुल मुजफ्फर शहाबुद्दीन मुहम्मद साहिब किरन-ए-सानी’ की उपाधि के साथ मुगल सिंहासन पर आसीन हुआ।
शाहजहाँ ने सर्वप्रथम अपने सहयोगियों एवं स्वामिभक्त सेवकों को उच्च पद तथा विशेष सम्मान प्रदान किया। उसने आसफ खाँ को 8000 जात/7000 सवार का मनसब तथा राज्य के वजीर पद और महाबत खाँ को 7000 जात/7000 सवार का मनसब और ‘खानेखाना’ की उपाधि दी। राज्य में निवास करने वाले विद्वानों, कवियों, ज्योतिषियों आदि के पद भी बढ़ा दिये गये। बेगम नूरजहाँ को किसी भी प्रकार से अपमानित नहीं किया गया और उसे 2 लाख रुपये की प्रतिवर्ष पेंशन दे दी गई।
इस प्रकार राज्यारोहण के समय शाहजहाँ की स्थिति अपने पिता जहाँगीर की स्थिति से अधिक शक्तिशाली थी। शाहजहाँ ने निर्दयतापूर्वक अपने एक भाई और भतीजों को मरवा डाला था, जो खुसरो की तरह षड्यंत्रों का केंद्र बन सकते थे। शाही सेना के योग्य सेनापति उसके पक्ष थे और आसफ खाँ जैसा सर्वश्रेष्ठ राजनीतिज्ञ उसका ससुर था। शाहजहाँ स्वयं एक योग्य सेनापति था और उसे राजपूतों का विशेष रूप से समर्थन प्राप्त था।
शाहजहाँ के समय के विद्रोह
शाहजहाँ को अपने शासनकाल के आरंभ में अनेक विद्रोहों का सामना करना पड़ा, जिनमें दक्षिण के सूबेदार खानेजहाँ लोदी, जुझारसिंह बुंदेला और नूरपुर के जमींदार राजा बासु के विद्रोह अधिक महत्त्वपूर्ण थे।
खानेजहाँ लोदी का विद्रोह (1628-1631 ई.)
खानेजहाँ लोदी का वास्तविक नाम पीर खाँ था। खानेजहाँ जहाँगीर के शासनकाल में एक शक्तिशाली अमीर था और अब्दुर्रहीम खानेखाना के बाद जहाँगीर ने उसे ‘खानेखाना’ या प्रधान सेनापति की उपाधि दी थी। शाहजहाँ के विद्रोह के दमन के बाद खानेजहाँ को गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया गया था। बाद में, नूरजहाँ की सुझाव पर उसे महाबत खाँ के स्थान पर शहजादे परवेज का संरक्षक बनाया गया था। जहाँगीर के अंतिम दिनों में खानेजहाँ दक्षिण का सूबेदार था।
खानेजहाँ अफगान था और अन्य अफगानों की तरह अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के सपने देखा करता था। जहाँगीर की मृत्यु के बाद उसने अहमदनगर के सुल्तान निजामशाह से मित्रता कर ली और बालाघाट का क्षेत्र उसे तीन लाख रुपये में बेंच दिया। इसके बाद उसने मालवा पर आक्रमण कर दिया।
शाहजहाँ के बादशाह घोषित होते ही खानेजहाँ ने आगरा आकर शाहजहाँ को बहुमूल्य मोतियों की माला भेंटकर क्षमा माँग ली। शाहजहाँ ने खानेजहाँ लोदी को क्षमा करके पुनः दक्षिण का सूबेदार नियुक्त कर दिया और निजामशाह के अधिकृत क्षेत्र (बालाघाट) को जीतने का आदेश दिया। किंतु दक्षिण जाकर खानेजहाँ लोदी ने बालाघाट क्षेत्र को अहमदनगर से वापस लेने का कोई प्रयत्न नहीं किया। जब शाहजहाँ को खानेजहाँ के कुकृत्यों की सूचना मिली, तो उसने दक्षिण की सूबेदारी महाबत खाँ को दे दी और खानेजहाँ को दरबार में वापस बुला लिया।
खानेजहाँ लोदी सात-आठ महीने तक मुगल दरबार में पड़ा रहा, किंतु उसे वह सम्मान और प्रतिष्ठा नहीं मिली, जिसकी उसे आशा थी। इस बीच कुछ अमीरों से उसे बंदी बनाये जाने की खबर मिली। जब बादशाह ने उसकी कुछ जागीरों को जब्त कर लिया, तो उसको विश्वास हो गया कि वह बंदी बना लिया जायेगा। शाहजहाँ के आश्वासन के बाद भी वह भयभीत होकर अक्टूबर, 1629 ई. में एक रात अपने सैनिकों के साथ राजधानी से बुंदेलखंड की ओर भाग निकला। शाहजहाँ ने परिस्थिति की गंभीरता को समझते हुए तुरंत ख्वाजा अबुल हसन के नेतृत्व में एक सेना उसके पीछे भेजी।
धौलपुर के निकट शाही सेना ने खानेजहाँ को घेर लिया। यद्यपि खानेजहाँ अपने कुछेक संबंधियों और स्त्रियों को छोड़कर गोंडवाना होता हुआ अहमदनगर भाग गया, किंतु शाही सेना ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। अहमदनगर के मुर्तजा निजामशाह ने खानेजहाँ का स्वागत किया और उसे ‘बीर’ की जागीर देकर उसे मुगलों के आधिपत्य में चली गई अहमदनगर की भूमि को वापस लेने का कार्य सौंपा। इस बीच शाहजहाँ स्वयं भी बुरहानपुर पहुँच गया। बीड के युद्ध में पराजित होने के बाद खानेजहाँ नर्मदा नदी को पार करके बुंदेलखंड में घुस गया, जहाँ जुझारसिंह के पुत्र विक्रमाजीत ने उसके अधिकांश सहयोगियों को मार डाला। खानेजहाँ किसी तरह वहाँ से भी जान बचाकर भागा, किंतु मुजफ्फर खाँ सैयद उसके पीछे लगा रहा। अंत में, बाँदा जिले के ‘सिहोदा’ नामक स्थान पर अंतिम युद्ध में खानेजहाँ को ‘माधवसिंह’ ने मार डाला और उसका सिर काटकर शाहजहाँ के पास भेज दिया। इस प्रकार खानेजहाँ के विद्रोह का अंत हो गया।
जूझारसिंह बुंदेला का विद्रोह (1628-1629 ई.)
शाहजहाँ के काल में दूसरा विद्रोह बुंदेलखंड के जुझारसिंह बुंदेला ने किया, जो वीरसिंह बुंदेला का पुत्र था। वीरसिंहदेव बुंदेला जहाँगीर का परममित्र और कृपापात्र था। उसने 1602 ई. में अबुल फजल की हत्या करके जहाँगीर का साथ दिया था।
1627 ई. में वीरसिंहदेव बंदेला की मृत्यु के बाद उसका उत्तराधिकारी पुत्र जुझारसिंह बुंदेलखंड का शासक बना। जुझारसिंह राज्य का भार अपने पुत्र विक्रमादित्य को सौंपकर 10 अप्रैल, 1628 ई को आगरा चला आया, जहाँ शाहजहाँ ने उसका आदर-सत्कार किया। जुझारसिंह की अनुपस्थिति में विक्रमादित्य ने पुराने शाही अधिकारियों पर अत्याचार किया और जनता से अधिक-से-अधिक मालगुजारी वसूल करना आरंभ कर दिया। विक्रमाजीत के अत्याचारों के विरुद्ध ‘सीताराम’ नामक एक सेवक ने शाहजहाँ से शिकायत की। उसने शाहजहाँ को यह भी बताया कि वीरसिंह बुंदेला ने जहाँगीर की कृपा का लाभ उठाकर बहुत अधिक धन इकट्ठा कर लिया है। शिकायत की गंभीरता को समझते हुए शाहजहाँ ने जुझारसिंह के पिता द्वारा अर्जित संपत्ति की जाँच का आदेश दिया और जाँच होने तक ओरछा की संपत्ति को अपने संरक्षण में लेना चाहा। फलतः जुझारसिंह बुंदेला भयभीत होकर चुपके से आगरा छोड़कर बुंदेलखंड भाग गया और युद्ध की तैयारी में लग गया। जुझारसिंह ने अपने किले का जीर्णोद्धार कराया, गोला-बारूद एकत्र किया और अपनी सैनिक शक्ति को सुदृढ़ किया, जिससे वह शाही सेना का मुकाबला कर सके।
शाहजहाँ ने 1628 ई. में महाबत खाँ के नेतृत्व में एक विशाल सेना जुझारसिंह के विरूद्ध बुंदेलखंड भेजी। मुगल सेनाओं के साथ पहाड़सिंह और भरतसिंह बुंदेला भी भेजे गये। शाहजहाँ स्वयं सेना की गतिविधियों का निरीक्षण करने हेतु आगरा से ग्वालियर पहुँच गया। यद्यपि जुझारसिंह ने बड़ी वीरता से मुगल सेना का सामना किया, किंतु 1629 ई. में उसे पराजित होकर आत्मसमर्पण करना पड़ा। उसने बादशाह को बहुमूल्य भेटें प्रदान कर क्षमा की प्रार्थना की। शाहजहाँ ने जुझारसिंह को क्षमा कर दिया और उसे दो हजार घुड़सवार तथा दो हजार पैदल सैनिक लेकर शाही सेनाओं के साथ दक्षिण भारतीय अभियान पर जाने का आदेश दिया।
जुझारसिंह ने लगभग 5 वर्षों तक बड़ी निष्ठा से बादशाह की सेवा की, किंतु उसके अंदर विद्रोह की आग जलती रही। 1635 ई. में वह महाबत खाँ से अवकाश लेकर अपने पुत्र विक्रमाजीत को दक्षिण में छोड़कर ओरछा लौट आया और अपने पड़ोसी गोंड राज्य गढ़कटंगा पर आक्रमण कर दिया। शाहजहाँ की चेतावनी के बावजूद उसने गोंडवाना की राजधानी ‘चौरागढ़’ पर अधिकार कर लिया और गोंड राजा प्रेमनारायण को मार डाला।
प्रेमनारायण के पुत्र ने जुझारसिंह के विरुद्ध शाहजहाँ से शिकायत की। शाहजहाँ ने तुरंत जुझारसिंह को जीता हुआ राज्य और दस लाख रुपया सम्राट को समर्पित करने का आदेश दिया। जुझारसिंह ने बादशाह के आदेश को मानने से इनकार कर दिया। इसी बीच उसका पुत्र विक्रमाजीत भी भागकर उसके पास आ गया। अतः शाहजहाँ ने अपने पुत्र औरंगजेब को एक बड़ी सेना के साथ जुझारसिंह पर आक्रमण के लिए भेजा। शाही सेना के आने की सूचना मिलते ही जुझारसिंह भयभीत होकर भाग गया और मुगल सेना ने उसके किले पर अधिकार करके भरतसिंह के पुत्र देवीसिंह को गद्दी पर बिठा दिया। जंगल में गोंड़ों ने जूझारसिंह तथा उसके पुत्र विक्रमाजीत का वघ कर दिया और उनके सिरों को शाहजहाँ के पास भेज दिया। जुझारसिंह के दो पुत्र और एक पोते को मुसलमान बना लिया गया और बुंदेला स्त्रियों को हरम या सरदारों की सेवा में भेज दिया गया। ओरछा के कुछ मंदिर भी नष्ट कर दिये गये और कुछ मस्जिदों में परिवर्तित कर दिये गये।
किंतु बुंदेलों ने मुगलों द्वारा नियुक्त देवीसिंह को देशद्रोही बताया और उसे अपना शासक मानने से इनकार कर दिया। महोबा के चंपतराय (वीरसिंह बुंदेला के भाई का पुत्र) ने जुझारसिंह के एक पुत्र पृथ्वीराज को 1639 ई. में राजा घोषित कर दिया। अंत में, मुगल सेना ने पृथ्वीराज को मार डाला और चंपतराय मुगल मनसबदार बन गया। चंपतराय ने 1661 ई. में औरंगजेब के शासनकाल में विद्रोह किया और मारा गया, किंतु उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र छत्रसाल ने मुगलों का विरोध करते हुए बुंदेलों के स्वतंत्रता संग्राम को जारी रखा।
जगतसिंह का विद्रोह (1640-1642 ई.)
जहाँगीर के समय में राजा बसु मऊ नूरपुर का जमींदार था, जो मुगल साम्राज्य का स्वामिभक्त सेवक था। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र सूरजमल (1613-18 ई.) उसका उत्तराधिकारी हुआ। किंतु राजद्रोही होने के कारण सूरजमल को हटाकर उसके छोटे भाई जगतसिंह (1619-46 ई.)को जागीरदार बना दिया गया था।
शाहजहाँ के सिंहासन पर बैठने के पश्चात् जगतसिंह ने उसके प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की। शाहजहाँ ने नवंबर, 1634 ई. जगतसिंह को मध्य बंगाल का थानेदार बना दिया और जनवरी, 1637 ई. में उसे काबुल प्रांत से संबंधित कर दिया, जहाँ उसने अहदाद के पुत्र करीमदाद को पकड़ने में सूबेदार की मदद की। फरवरी, 1639 ई. में जगतसिंह लाहौर लौट आया और फिर उसे बंगाल का मुख्याधिकारी बना दिया गया। 1640 ई. में जगतसिंह ने बिना शाही अनुमति के चंबा के राणा को पराजित कर ‘तारागढ़’ नामक दुर्ग का निर्माण करवा लिया। इस अपराध के लिए शाहजहाँ ने जगतसिंह को राजदरबार में उपस्थित होने का आदेश दिया, किंतु जगतसिंह ने उपस्थित होने से इनकार कर दिया। फलतः शाहजहाँ ने जगतसिंह के विरुद्ध एक विशाल सेना भेजी। अंततः दीर्घकालीन संघर्ष के बाद जगतसिंह पराजित हुआ और उसने शाहजहाँ से क्षमा याचना की। शाहजहाँ ने उसे क्षमा कर दिया और नूरपुर की उसकी जमींदारी भी वापस कर दी।
गुजरात का कोलिय विद्रोह
गुजरात के कोलियों ने भी शाहजहाँ के शासनकाल में विद्रोह किया था। 1632 और 1635 ई. के बीच कोलियों की गतिविधियों को प्रबंधित करने के प्रयास में चार वायसराय नियुक्त किये गये और कोली के क्षेत्र में दो गढ़वाली चौकियाँ आज़माबाद और खलीलाबाद में स्थापित की गईं और वित्तीय सुधार किये गये।
1644 ई. में मुगल शहजादा औरंगजेब गुजरात का सूबेदार बनाया गया, किंतु अहमदाबाद में एक जैन मंदिर के धार्मिक विवाद के कारण उसकी जगह शाइस्ता खाँ को नियुक्त किया गया। शाइस्ता खाँ कोलियों को वश में करने में विफल रहा, इसलिए राजकुमार मुरादबख्श को 1654 ई. में गुजरात का सूबेदार बनाया गया, जिसने गुजरात में व्यवस्था स्थापित की और कोलिय विद्रोहियों का दमन किया।
पुर्तगालियों से युद्ध
आरंभ में पुर्तगालियों की व्यापारिक गतिविधियाँ भारत के पश्चिमी तटों तक ही सीमित थीं। कालांतर में उनका व्यापार बंगाल तक फैल गया और वे हुगली को केंद्र बनाकर व्यापार करने लगे थे। तत्कालीन राजनीतिक उथल-पुथल का लाभ उठाकर पुर्तगालियों ने नमक के व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त कर लिया था और वे मुगल बादशाह को दस हजार टंका वार्षिक कर देते थे। जहाँगीर के साथ पुर्तगालियों के अच्छे संबंध थे, किंतु धीरे-धीरे पुर्तगाली धार्मिक कट्टरता का रुख अपनाने लगे और जनता को बलात ईसाई बनाने लगे थे।
बंगाल के सूबेदार कासिम खाँ ने पुर्तगालियों के उद्दंड क्रियाकलापों के संबंध में सूचना भेजी कि ‘पुर्तगालियों ने अपनी बस्तियों की किलेबंदी कर ली है, बच्चों को दास बनाकर बेंच रहे हैं, समुद्री डकैती डाल रहे हैं, भारतीयों को जबरन ईसाई बना रहे हैं और शाही भूमि तथा बाजारों में लूटपाट कर रहे हैं।’
शाहजहाँ पुर्तगालियों से पहले से ही नाराज था क्योंकि जब वह विद्रोह करके बंगाल पहुँचा था, तो उस समय पुर्तगालियों ने उसे कोई सहायता नहीं दी थी। इसके अलावा, पुर्तगालियों ने मुगलों के विरुद्ध अराकान के राजा की सहायता की थी। अतः उसने 1631 ई. में बंगाल के गवर्नर कासिम खाँ को हुगली पर आक्रमण करने और पुर्तगालियों को बाहर निकालने का आदेश दिया। लगभग साढ़े तीन महीने के घेरे के बाद 25 सितंबर, 1632 ई. को हुगली पर मुगलों का अधिकार हो गया। इस आक्रमण के दौरान लगभग दस हजार पुर्तगाली स्त्री, पुरुष तथा बच्चे मारे गये और पुर्तगालियों द्वारा बंदी बनाये गये लगभग दस हजार भारतीय मुक्त किये गये। बड़ी संख्या में ईसाई बंदी बनाकर आगरा भेज दिये गये, जहाँ उनसे इस्लाम धर्म स्वीकार कराकर आजन्म कारावास की सजा दी गई। 23 दिसंबर, 1635 ई. को शाहजहाँ ने एक फरमान जारी कर आगरा के चर्च को भी ध्वस्त करने का आदेश दिया। इस प्रकार शाहजहाँ ने पुर्तगाली शक्ति को नष्टकर अपना प्रभुत्व स्थापित किया।
कई इतिहासकार पुर्तगालियों के प्रति इस नृशंसतापूर्ण कार्यवाही का कारण शाहजहाँ की धार्मिक असहिष्णुता एवं संकीर्णता की नीति मानते है, जो उचित नहीं है। वास्तव में, तत्कालीन इतिहासकारों ने पुर्तगालियों की लूट-खसोट की प्रवृत्ति और बेईमानी का जो वर्णन किया है, उससे स्पष्ट है कि उनके साथ इस प्रकार का व्यवहार किया जाना सर्वथा उचित था और शाहजहाँ को इसके लिए कतई दोषी नहीं माना जाना चाहिए।
सिखों से संघर्ष
शाहजहाँ का सिखों से संघर्ष मात्र एक दुर्घटना थी। 1628 ई. में शाहजहाँ अमृतसर के पास शिकार करने गया था, इसी समय उसके प्रिय बाज को सिख गुरु ने पकड़ लिया और शाहजहाँ को देने से इनकार कर दिया। फलतः मुगलों ने सिखों पर कई बार असफल आक्रमण किये। बाद में गुरु हरगोविंद के कुछ मित्रों की सहायता से आपसी समझौता हो गया।
शाहजहाँ का सिखों से दूसरा संघर्ष गुरु हरगोविंद के द्वारा ‘गोविंदपुर’ नामक शहर को बसाने के प्रश्न पर हुआ। शाहजहाँ ने मुगल हितों को देखते हुए नगर-निर्माण के कार्य को बंद करने के लिए कहा, किंतु गुरु हरगोविंद ने अस्वीकार कर दिया। इसके बाद मुगलों ने गुरु पर आक्रमण किया, किंतु उन्हें पराजित होना पड़ा।
इसके बाद मुगलों का सिखों का पुनः झगड़ा ‘विधिचंद्र’ नामक डकैत के कारण हुआ, जिसने शाही घुड़साल से घोड़ों को चुराकर गुरु को अर्पित किया था। 1631 ई. में सिख गुरु के विरुद्ध मुगल सेना भेजी गई, जिसे पराजित होना पड़ा। इन संघर्षों से तंग आकर गुरु हरगोविंद पंजाब को छोड़कर कश्मीर की पहाड़ियों में ‘कीरतपुर’ चले गये। 1645 ई. में उन्होंने अपने मृत्यु से पहले हरराय को अपना उत्तराधिकारी बनाया।
शाहजहाँ की छोटी विजयें
तिब्बत के विरुद्ध अभियान
तिब्बत को जीतने का प्रयत्न जहाँगीर के समय में भी किया गया था, किंतु सफलता नहीं मिली थी। सिंहासनारोहण के पश्चात शाहजहाँ की भी हार्दिक इच्छा इस प्रांत को जीतने की थी। इस अभियान का मुख्य कारण यह था कि लघु तिब्बत का शासक अब्दाल कश्मीर के प्राचीन शासकों को अपने यहाँ शरण देता था और अकसर कश्मीर की सीमा में आकर मुगलों के लिए संकट पैदा करता था। अतः 1634 ई. में शाहजहाँ ने जफर खाँ के सेनापतित्व में एक सेना वहाँ भेजी, जिसने शाह अब्दाल को पराजित उसे मुगलों की अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया।
असम विजय
शाहजहाँ के राज्याभिषेक के समय पूर्वोत्तर सीमा विवादग्रस्त थी। कामरूप पर मुगलों का तथा कूच बिहार में वीरनारायण का शासन था। असम के अहोम शासक कामरूप की राजनीति में प्रायः हस्तक्षेप नहीं करते थे, इसलिए मुगलों और असम के शासकों के बीच मित्रतापूर्ण संबंध बने रहे। इस मैत्री को बनाये रखने के लिए बंगाल के गवर्नर कासिम खाँ ने एक असमी व्यापारी के साथ अपना दूत असम के राजा के पास भेजा, किंतु असम के राजा ने दूत से मिलने से इनकार कर दिया और असमी व्यापारी की हत्या करवा दी। इसके अलावा, असम के राजा ने वीरनारायण को, जो पहले कामरूप का शासक था, कामरूप पर आक्रमण करने के लिए उकसाया, जिससे उत्तरी-पूर्वी सीमा की शांति भंग हो गई और 1635 ई. में युद्ध प्रारंभ हो गया। मुगल सेना ने वीरनारायण को तो पराजित कर दिया, किंतु असम के राजा के विरुद्ध उसे कोई विशेष सफलता नहीं मिल सकी। संभवतः 1636 ई. में दोनों पक्षों में संधि हो गई और इसके बाद शाहजहाँ के शासन के दौरान असम के शासक के साथ किसी प्रकार का संघर्ष नहीं हुआ।
उज्जैनिया और रतनपुर की विजय
असम के बाद शाहजहाँ ने अब्दुल्ला खाँ ‘फिरोजजंग’ को बक्सर के निकटस्थ उज्जैनिया के जमींदार प्रताप के विरुद्ध भेजा। अब्दुल्ला खाँ ने जमींदार प्रताप को पूर्णरूप से पराजित किया और बादशाह की आज्ञा से उसे कारागार में डाल दिया।
इसके पश्चात् अब्दुल्ला खाँ ने रतनपुर पर आक्रमण किया क्योंकि वहाँ का जमींदार लक्ष्मणसिंह प्रायः मुगल आदेशों की अवज्ञा करता था। जमींदार लक्ष्मणसिंह ने भयभीत होकर संधिवार्ता आरंभ कर दी और मुगल आधिपत्य को स्वीकार कर लिया।
पालामऊ, मालवा तथा कुनार प्रदेश पर अधिकार
पालामऊ छोटा नागपुर के पठार का एक अंग था। वहाँ के राजा प्रताप ने बिहार के गवर्नर शाइस्ता खाँ की आज्ञा का उल्लंघन किया था। अतः शाइस्ता खाँ ने उसके विरुद्ध एक सेना भेजी। भयभीत होकर राजा प्रताप ने भी मुगलों की अधीनता को स्वीकार कर लिया।
मालवा क्षेत्र में दिसंबर, 1632 ई. में खाताखेड़ी के भगीरथ भील ने उपद्रव किया। मालवा के गवर्नर नसीरी खाँ ने भागीरथ भील को पराजित करके उसे मुगल आधिपत्य स्वीकार करने के लिए बाध्य किया।
इसी समय गोंडवाना पहाड़ियों के कुनार प्रदेश में गोंडों ने उपद्रव आरंभ किया। अंत में, गोड़ों के नेता जमींदार संग्रामसिंह ने भी मुगल आधिपत्य स्वीकार कर लिया।
जमींदार संग्रामसिंह की मृत्यु के बाद उसके प्रधान अधिकारी मारबी गोंड ने उसके पुत्र भूपत को उत्तराधिकार से वंचित करके स्वयं कुनार की जमींदारी का स्वामी बन बैठा। उसने मुगलों को कर देना बंद कर दिया और अन्य जमींदरों ने भी उसका अनुसरण किया। अंततः 1643 ई. में खानेदौराँ के नेतृत्व में मुगल सेना ने इस विद्रोह का दमन किया और इस प्रकार कुनार में पुनः मुगल सत्ता स्थापित हुई।
गढ़वाल और कुमाऊँ पर आधिपत्य
बादशाह शाहजहाँ गढ़वाल और कुमायूँ पर भी आधिपत्य स्थापित करना चाहता था। 1635 ई. में उसने गढ़वाल के राजा को पराजित करने का प्रयास किया, किंतु सफलता नहीं मिली।
इसके बाद, शाहजहाँ ने 1654 ई. में कुमाऊँ पर आक्रमण कर वहाँ के राजा को अपने अधीन कर लिया। किंतु 1656 ई. में शाहजहाँ गढ़वाल के राजा को पराजित करने में सफल रहा और उसने मुगलों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया।
शाहजहाँ की दक्षिणी नीति
मुगलों का दक्षिण के साथ पहली बार संपर्क अकबर के शासनकाल में हुआ था। अपनी साम्राज्यवादी नीति के अंतर्गत अकबर 1605 ई. तक दक्षिण की विजय में संलग्न लगा रहा और खानदेश, बरार तथा अहमदनगर के अधिकांश भाग पर अधिकार करने में सफल हुआ था।
जहाँगीर ने भी दक्षिण के प्रति अपने पिता की नीति का पालन किया, किंतु अहमदनगर के योग्य प्रधानमंत्री और सेनापति मलिक मलिक अंबर ने जहाँगीर के अहमदनगर जीतने के प्रयत्न को सफलतापूर्वक रोक दिया था। 1626 ई. में जब मलिक अंबर की मृत्यु हुई, उस समय मुगलों के अधिकार में खानदेश, बरार, बालाघाट का कुछ भाग और अहमदनगर के दुर्ग थे। जहाँगीर की मृत्यु के बाद जब मुगल दरबार में उत्तराधिकार का युद्ध आरंभ हुआ, तो दक्षिण के सूबेदार खानेजहाँ लोदी को मिलाकर अहमदनगर के शासक ने बालाघाट क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। यही नहीं, बीजापुर और गोलकुंडा भी स्वतंत्र हो चुके थे, इसलिए इस दक्षिणी प्रायद्वीप में मुगल साम्राज्य के विस्तार के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी था।
शाहजहाँ के दक्षिण अभियान के कारण
शाहजहाँ ने दक्षिण के राज्यों के विरूद्ध विजय-अभियान करने का दृढ़-संकल्प किया और इस प्रकार मुगलों की दक्षिण विजय का एक नवीन युग प्रारंभ हुआ। यद्यपि शाहजहाँ की पहली प्राथमिकता निज़ामशाही शासक द्वारा अधिकृत दक्कन के मुगल क्षेत्रों को पुनः प्राप्त करना था, किंतु उसके दक्षिणी अभियान के अन्य कई कारण भी थे- एक, शाहजहाँ कट्टर सुन्नी मुसलमान होने के कारण दक्षिण के शिया राज्यों से घृणा करता था और उन्हें अपने अधीन करना चाहता था। दूसरे, उस समय दक्षिण भारत मुगल विद्रोहियों का आश्रय-स्थल बन गया था, इसलिए शाहजहाँ इस समस्या का भी समाधान करना चाहता था। तीसरे, दक्षिण में पड़े अकाल के कारण दक्षिण के शासक कई वर्षों से वार्षिक कर नहीं चुका रहे थे। चौथे, दक्षिण के राज्य मराठों की आर्थिक मदद करके उन्हें मुगलों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए प्रोत्साहित करते थे। पाँचवें, दक्षिण के शिया राज्य ईरान के शाह को अपना संरक्षक मानते थे और उसके प्रति श्रद्धा एवं सहानुभूति रखते थे, जबकि मुगल सम्राटों एवं ईरान के शाह के संबंध मैत्रीपूर्ण नहीं थे। छठवें, मलिक अंबर की मृत्यु के बाद दक्षिण में कोई भी ऐसी प्रबल राजनीतिक शक्ति नहीं रह गई थी, जो मुगल सत्ता पर अंकुश लगाने का साहस कर सके। सातवें, तत्कालीन दक्षिणी भारत में फैली राजनीतिक अस्थिरता भी मुगल बादशाह के अनुकूल थी। वास्तव में, शाहजहाँ के दक्षिण अभियान का तात्कालिक कारण खानेजहाँ लोदी का विद्रोह था, जिसने जहाँगीर के अंतिम समय में बालाघाट का प्रदेश अहमदनगर को बेंच दिया था। बाद में, जब शाहजहाँ ने खानेजहाँ लोदी को बालाघाट क्षेत्र वापस लेने का आदेश दिया, तो उसने विद्रोह करके अहमदनगर के निज़ामशाह के यहाँ शरण ले ली। अहमदनगर के निज़ामशाह ने खानेजहाँ लोदी को बरार तथा बालाघाट के शेष हिस्सों से मुगलों को बाहर निकालने के लिए नियुक्त किया था। फलतः शाहजहाँ ने निष्कर्ष निकाला कि जब तक अहमदनगर एक स्वतंत्र राज्य बना रहेगा, तब तक दक्कन में शांति स्थापित नहीं हो सकती।
शाहजहाँ दक्कन में मुगल क्षेत्रों को आवश्यकता से अधिक विस्तारित करने का इच्छुक उत्सुक नहीं था। इसलिए उसने बीजापुर के शासक को पत्र लिखकर अहमदनगर के विरुद्ध अभियान में मुगलों का साथ देने के बदले में उसे अहमदनगर राज्य का लगभग एक-तिहाई हिस्सा देने का प्रस्ताव रखा। इस प्रकार शाहजहाँ ने अहमदनगर को कूटनीतिक और सैन्य रूप से अलग-थलग करने का निर्णय लिया। यही नहीं, उसने विभिन्न मराठा सरदारों को भी मुगल सेना में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया।
अहमदनगर के मलिक अंबर की कार्यवाहियों से असंतुष्ट होकर बीजापुर के आदिलशाह ने शाहजहाँ के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और मुगलों की सहायता के लिए निज़ामशाही सीमा के पास एक सेना तैनात कर दी। लगभग इसी समय अहमदनगर के शासक मुर्तजा खाँ ने जाधवराव नामक मराठा सरदार की धोखे से हत्या करवा दी, जिससे असंतुष्ट होकर उनके दामाद और शिवाजी के पिता शाहजी भोंसले, जगदेव, और मालोजी जैसे प्रभावशाली मराठे मुगलों से मिल गये। शाहजहाँ ने शाहजी भोंसले को 5000 रुपये का मनसब और साथ ही पूना क्षेत्र में जागीर दे दी। इसके अतिरिक्त, बहुत से मुसलमान अधिकारी भी मुर्तजा खाँ से अप्रसन्न होकर शाही सेना में चले गये थे। दूसरी ओर, इन्हीं दिनों दक्षिण में भयंकर अकाल भी पड़ गया था, जिससे भोजन एवं चारे की कमी हो गई।
अहमदनगर पर आक्रमण
अहमदनगर की रक्षा करने वाले मलिक अंबर की 11 मई, 1626 ई. में मृत्य हो गई थी और राज्य में अराजकता फैल गई। अवसर को अनुकूल पाकर शाहजहाँ ने 1629 ई. में अहमदनगर पर कई ओर से आक्रमण किया और अहमदनगर राज्य के बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया। जब मुगल सेना ने अहमदनगर राज्य की अंतिम चौकियों में से एक परेंदा को घेर लिया, तो निज़ामशाह ने आदिलशाह से सहायता की याचना की और चेतावनी दी कि यदि निज़ामशाही राजवंश का अंत होगा, तो बीजापुर भी नहीं बचेगा। दूसरी ओर, अहमदनगर में मुगलों की सफलता से बीजापुर के अमीर भी चिंतित होने लगे थे और जब शाहजहाँ ने समझौते के अनुसार आदिलशाह को आवंटित क्षेत्रों को सौंपने से इनकार कर दिया, तो आदिलशाह ने निज़ामशाह की सहायता करने का निर्णय लिया, जो उसे शोलापुर वापस करने के लिए सहमत हो गया था। इस राजनीतिक बदलाव के परिणामस्वरूप मुगलों को परेंदा की घेराबंदी उठानी पड़ी और मुगल 1630 ई. में परेंदा के दुर्ग को जीतने में असफल रहे।
मुर्तजा निजामशाह ने मलिक अंबर के पुत्र फतेह खाँ को इस उम्मीद से राज्य का वजीर बनाया था कि वह शाहजहाँ को शांति के लिए राजी कर सकेगा। किंतु अयोग्य और स्वार्थी फतेह खाँ ने गुप्त रूप से शाहजहाँ से समझौता कर लिया और मुगल बादशाह के सुझाव पर सुल्तान मुर्तजा की हत्या करके एक दस वर्षीय शहजादे हुसैनशाह को अहमदनगर का सुल्तान घोषित कर दिया। फतेह खाँ कुटिल और अविश्वसनीय प्रवृत्ति का था और मुगलों के साथ अपनी मित्रता में भी सच्चा नहीं था।
शाहजहाँ ने अहमदनगर पर आक्रमण किया, किंतु फतेह खाँ ने मुगलों के विरूद्ध बीजापुर के सुल्तान से गठबंधन कर लिया। इसी समय 17 जनवरी, 1631 ई. को चौदहवें बालक को जन्म देते समय शाहजहाँ की प्रिय पत्नी मुमताज महल की प्रसव-पीड़ा से मृत्यु हो गई, जिसके कारण शाहजहाँ वापस लौट गया।
फतेह खाँ के विश्वासघात से असंतुष्ट होकर शाहजहाँ ने 1632 ई. में अपने सेनापति महाबत खाँ को एक विशाल सेना के साथ दौलताबाद के दुर्ग को जीतने के लिए भेजा। महाबत खाँ ने 1633 ई. में अंबरकोट, महाकोट, दौलताबाद आदि दुर्गों पर अधिकार कर लिया और फतेह खाँ को विवश होकर आत्मसमर्पण करना पड़ा। अहमदनगर के सुल्तान हुसैनशाह को ग्वालियर के दुर्ग में कैद कर दिया गया और फतेह खाँ को दो लाख रुपये वार्षिक पेंशन देकर राज्य की सेवा में ले लिया गया। इस प्रकार निजामशाहियों के वंश का अंत हो गया और अहमदनगर का राज्य मुगल साम्राज्य का एक अंग बन गया।
अहमदनगर राज्य के कुछ दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र अभी भी अहमदनगर के अधिकारियों के हाथों में थे। शिवाजी के पिता शाहजी भोंसले और अन्य निजामशाही सरदारों ने बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की सहायता से एक अल्पवय निजामशाही राजकुमार मुर्तजा तृतीय को उत्तराधिकारी बनाकर कई वर्षों तक संघर्ष किया। 1636 ई. में मुगलों ने शाहजी भोंसले को चुनार के किले में घेर लिया। बाद में पराजित होने के बाद मुर्तजा तृतीय को बंदी बनाकर हुसैनशाह की तरह ग्वालियर के किले में भेज दिया गया और शाहजी भोंसले बीजापुर राज्य की सेवा में चला गया।
इस प्रकार बहमनी राज्य की दो बड़ी रियासतें मुगल साम्राज्य की अधीनता में आ गईं। बरार के इमादशाही राज्य को अकबर ने समाप्त किया था और अहमदनगर के निजामशाही राज्य को शाहजहाँ ने समाप्त कर मुगल साम्राज्य में मिला लिया।
बीजापुर के विरूद्ध अभियान और संधि (1631-1636 ई.)
शाहजहाँ जानता था कि दक्षिण में मुगल सत्ता के विस्तार में बीजापुर और गोलकुंडा के स्वतंत्र शिया राज्य कभी भी मुगलों के लिए संकट कारण बन सकते हैं। वास्तव में, बीजापुर और गोलकुंडा अकसर मुगलों के विरुद्ध अहमदनगर की सहायता करते रहते थे और विद्रोहियों की शरणस्थली थे। इसलिए इन राज्यों को मुगल अधीनता में लाना आवश्यक था।
शाहजहाँ ने 1631 ई. आसफ खाँ को बीजापुर आक्रमण करने के लिए भेजा, किंतु आदिलशाह ने अपनी वीरता और मराठों के सहयोग से आसफ खाँ को घेरा उठाने के लिए बाध्य बाध्य कर दिया। इसके बाद, शाहजहाँ ने महाबत खाँ को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया। महाबत खाँ ने 1633 ई. में निजामशाही राज्य को समाप्त करने के बाद बीजापुर पर आक्रमण किया और परेंदा के दुर्ग को घेर लिया, किंतु उसे भी बीजापुर के विरूद्ध निर्णायक सफलता नहीं मिल सकी और 1635 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
अब शाहजहाँ ने दक्कन की समस्याओं को व्यक्तिगत रूप निपटने का निर्णय लिया। शाहजहाँ स्वयं 21 फरवरी, 1636 ई. को दौलताबाद पहुँच गया और दक्कन के राज्यों पर आक्रमण करने की तैयारियाँ करने लगा। उसने गोलकुंडा और बीजापुर के सुल्तानों को इस आशय का एक पत्र भी भेजा कि वे मुगल आधिपत्य को स्वीकार लें, बादशाह को वार्षिक कर दें, शाहजी भोंसले की सहायता न करें और अहमदनगर के मामले में हस्तक्षेप न करें। मुगल साम्राज्य की सैन्य-शक्ति का आकलन करके गोलकुंडा के सुल्तान अब्दुल्ला कुतुबशाह ने कुछ हिचकिचाहट के साथ मुगल बादशाह की सभी शर्तों को स्वीकार कर लिया, किंतु बीजापुर के सुल्तान मुहम्मद आदिलशाह ने मुगलों की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया।
बीजापुर के सुल्तान की हठधर्मिता के कारण 1636 ई. में शाहजहाँ की शाही सेना ने तीन ओर से बीजापुर पर आक्रमण किया- खानेजहाँ ने पश्चिम में कोल्हापुर की ओर से, खानेजमाँ ने उत्तर-पश्चिम में इंद्रपुर की ओर से और खानेदौराँ ने उत्तर-पूर्व में बीदर की ओर से। बीजापुर के सैनिकों ने अपने परंपरागत उपायों- रसद-मार्ग को अवरूद्ध कर और कुंओं में विष डालकर अपनी राजधानी की रक्षा की, किंतु उनके राज्य के शेष भाग को मुगलों ने रौंद डाला। अंततः विवश होकर बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह को मई, 1636 ई. में शाहजहाँ के साथ एक नई संधि या अहदनामा करनी पड़ी। इस संधि के अनुसार सुल्तान आदिलशाह ने मुगल आधिपत्य को स्वीकार कर लिया और प्रतिवर्ष बीस लाख रुपये मुगलों को देने के साथ-साथ गोलकुंडा के मामलों में हस्तक्षेप न करने तथा शाहजी भोंसले की सहायता न करने का भी वचन दिया। बीजापुर और गोलकुंडा के बीच संबंधों में मुगलों की मध्यस्थता स्वीकार की गई। बीजापुर के सुल्तान को अपने पैतृक राज्य के साथ-साथ अहमदनगर के परेंदा, बीदर, शोलापुर, गुलबर्गा जैसे लगभग बीस लाख हूण (लगभग अस्सी लाख रुपये) मूल्य के परगने भी दिये गये। अहमदनगर के शेष भाग मुगल साम्राज्य में मिला लिये गये। शाहजहाँ ने आदिलशाह को अपनी हथेली की छाप से युक्त एक फ़रमान भी भेजा, जिसमें यह वादा किया गया था कि संधि की इन शर्तों को कभी तोड़ा नहीं जायेगा।
गोलकुंडा के साथ संघर्ष और संधि
मुगलों एवं गोलकुंडा राज्य के बीच वैमनस्य जहाँगीर के शासनकाल से ही चला आ रहा था, जिसका कारण गोलकुंडा के सुल्तान द्वारा मलिक अंबर को मुगल साम्राज्य के विरुद्ध सहायता देना था। शाहजहाँ ने भी अपने पिता से विद्रोह करके गोलकुंडा में ही शरण ली थी। यद्यपि मुगल साम्राज्य के विरुद्ध अहमदनगर तथा बीजापुर के संयुक्त मोर्चे में गोलकुंडा शामिल नहीं हुआ था, फिर भी, गोलकुंडा का सुल्तान मुगल बादशाह को न तो कर देने के लिए तैयार था और न ही अधीनता स्वीकार करने को राजी हुआ था।
1636 ई. में शाहजहाँ पूरी सैनिक तैयारी के साथ दक्षिण पहुँचा। उसने गोलकुंडा के सुल्तान के सामने प्रस्ताव रखा कि वह मुगल सम्राट के नाम का खुतवा पढ़वाये और उसका नाम सिक्कों पर अंकित करवाये। इसके लिए शाहजहाँ ने गोलकुंडा की सीमा पर सैन्य-प्रदर्शन भी किया। शाहजहाँ की शक्ति से भयभीत होकर गोलकुंडा के सुल्तान अब्दुल्ला कुतुबशाह ने थोड़ी हिचकिचाहट के साथ 1636 ई. में दक्कन समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया। इस संधि के अनुसार गोलकुंडा का सुल्तान प्रथम चार खलीफाओं के अतिरिक्त शाहजहाँ का नाम भी खुतबे में पढ़वाने और सिक्कों पर अंकित करवाने के लिए राजी हो गया। उसने मुगल बादशाह को खिराज के रूप में प्रतिवर्ष दो लाख हून (आठ लाख रुपये) और पिछले वर्षों का बकाया 32 लाख रुपया देना भी स्वीकार किया। इसके बदले में मुगल बादशाह ने बीजापुर या मराठों के आक्रमण की दशा में गोलकुंडा की रक्षा करने का आश्वासन दिया। बादशाह ने आशा व्यक्त की कि सुलतान कुतुबशाह उसके प्रति वफादार बना रहेगा, किंतु यदि सुल्तान विद्रोह करेगा, तो उसका राज्य मुगल साम्राज्य में मिला लिया जायेगा। इस प्रकार गोलकुंडा के अस्तित्व की रक्षा हो गई।
औरंगजेब की सूबेदारी (1636-1644 ई.)
शाहजहाँ ने बीजापुर और गोलकुंडा के साथ 1636 ई. की संधियों के द्वारा अकबर के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कर लिया और अब पूरे देश में मुग़ल बादशाह के आधिपत्य को मान्यता मिल गई थी। 1636 ई. में शाहजहाँ ने अपने दूसरे पुत्र औरंगजेब को दक्षिण भारत का सूबेदार नियुक्त किया। इस समय मुगल साम्राज्य को दक्षिणी प्रांतों से पाँच करोड़ रुपये की वार्षिक आय होती थी। राजप्रतिनिधि के तौर पर औरंगजेब ने मुगल साम्राज्य के शत्रुओं का दमन किया और खानदेश तथा सूरत के बीच स्थित बगलाना के इलाके पर अधिकार किया। उसने शाहजी भोंसले को अपनी अधीनता स्वीकार करने और कुछ दुर्गों को समर्पित करने के लिए भी विवश किया।
किंतु औरंगजेब को दक्षिण में स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करने का अवसर नहीं मिल सका। 1644 ई. में वह अपनी बहन जहाँआरा को देखने आगरा आया, जो बुरी तरह जल गई थी। यद्यपि जहाँआरा जल्दी ही स्वस्थ हो गई, किंतु औरंगजेब दक्षिण नहीं गया और उसे दक्षिण की सूबेदारी से हटा दिया गया। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि दाराशिकोह के षड्यंत्रों से तंग आकर औरंगजेब ने स्वयं अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।
औरंगजेब की दूसरी सूबेदारी (1653-1644 ई.)
1652 ई. में औरंगजेब को दूसरी बार दक्कन का सूबेदार नियुक्त किया गया। उसने नवंबर, 1653 ई. में औरंगाबाद को अपना प्रधान कार्यालय बनाया। इस समय दक्कन की शासन-व्यवस्था अस्तव्यस्त हो चुकी थी और आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो चुकी थी कि 1652 ई. में इन सूबों से केवल एक करोड़ रुपया राजस्व वसूल हो सका था। औरंगजेब ने दक्कन की वित्तीय स्थिति को सुधारने और किसानों की बेहतरी के लिए अनेक कदम उठाये। इस कार्य में उसे मुर्शिदकुली खाँ नामक एक ईरानी राजस्व-अधिकारी से बड़ी सहायता मिली। बाद में, उसे बरार और खानदेश का भी दीवान बना दिया गया था।
राजस्व वसूली के निमित्त दक्कन के सूबे दो भागों में विभक्त कर दिये गये-पानीघाट (नीची भूमि) और बलाघाट (ऊँची भूमि)। पानीघाट में संपूर्ण खानदेश एवं बरार का आधा भाग सम्मिलित था, शेष सभी प्रदेश बलाघाट में थे। प्रत्येक भाग में दीवान अथवा राजस्व-मंत्री नियुक्त किये गये। मुर्शिदकुली खाँ ने दक्कन में स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार टोडरमल की पैमाइश और कर-निर्धारण की प्रणाली को क्रियान्वित किया। भूमि की नाप करने के लिए ‘आमिल’ और भू-राजस्व की वसूली के लिए ‘मुकद्दम’ नियुक्त किये गये। उसने कम जनसंख्या वाले और अपेक्षाकृत पिछडे क्षेत्रों में प्रति हल एक निश्चित धनराशि वसूल करने की परंपरागत प्रथा को चालू रखा, जबकि अधिकांश क्षेत्रों में ‘बटाई’ की व्यवस्था आरंभ की गई। ‘बटाई’ प्रथा में राज्य का हिस्सा फसल के प्रकार और सिंचाई के साधन के अनुसार निर्धारित होता था। वर्षा पर निर्भर रहने वाले किसानों को उपज का आधा भाग, कुंओं से सिंचाई करने वालों को दो तिहाई और नहरों तथा तालाबों से सिंचाई करने वालों को कभी कुछ अधिक और कभी कुछ कम भूमिकर देना पड़ता था।
मुर्शिदकुली खाँ ने कुछ क्षेत्रों में ‘जरीब’ प्रणाली को लागू किया, जिसके अनुसार भूमि का निरीक्षण करके फसल के अनुसार राज्य का राजस्व, जो अनाज के रूप में देना था, प्रति बीघे की दर से निश्चित कर दिया गया। इसके साथ ही, किसानों की स्थिति को सुधारने के लिए भी अनेक महत्त्वपूर्ण कदम उठाये गये। इस प्रकार औरंगजेब और मुर्शिदकुली खाँ ने दक्कन में पुनः समृद्धि लाने और किसानों की दशा में सुधार करने का प्रयास किया।
दक्षिणी राज्यों से संघर्ष
दक्षिण के आंतरिक प्रशासन का पुनर्संगठन कर औरंगजेब ने गोलकुंडा और बीजापुर के समृद्ध शिया राज्यों की ओर ध्यान दिया। मुगलों के साथ शांति-समझौते के कारण बीजापुर और गोलकुंडा ने अपने राज्यों का दोगुने से भी अधिक विस्तार कर लिया था। किंतु इस तीव्र विस्तार ने इन राज्यों के आंतरिक सामंजस्य को कमजोर कर दिया। बीजापुर में महत्त्वाकांक्षी सरदारशाहजी तथा उसके पुत्र शिवाजी और गोलकुंडा के प्रमुख सरदार मीरजुमला अपने लिए प्रभाव-क्षेत्र बनाने लगे, जिससे दक्कन में शक्ति-संतुलन पूरी तरह से बिगड़ गया था और गोलकुंडा तथा बीजापुर के सुल्तान स्वतंत्र शासक की भाँति व्यवहार करने लगे थे। फलतः औरंगजेब ने इन राज्यों के स्वतंत्र अस्तित्व को समाप्त करने का संकल्प किया और इस क्रम में औरंगजेब ने पहले गोलकुंडा, फिर बीजापुर पर आक्रमण किया।
गोलकुंडा से संघर्ष
1656 ई. में मुगल साम्राज्य तथा गोलकुंडा के बीच संघर्ष पुनः आरंभ हो गया, जिसके कई कारण थे: एक, गोलकुंडा के सुल्तान ने बहुत दिनों से मुगल साम्राज्य के वार्षिक कर का भुगतान नहीं किया था और जब सुल्तान ने कर के भुगतान में आनाकाना की, तो औरंगजेब ने उससे कर के बदले में अपने राज्य का कुछ भाग देने के लिए कहा। दूसरे, जब गोलकुंडा के सुल्तान ने कर्नाटक के राजा पर आक्रमण किया था, तो कर्नाटक के राजा ने मुगल सम्राट से सहायता माँगी थी और इसके बदले में मुगल सम्राट को विपुल धनराशि देने और मुगलों की अधीनता स्वीकार करने का वचन दिया था। किंतु शाहजहाँ समय से कर्नाटक की सहायता नहीं कर सका था और कर्नाटक के राज्य पर गोलकुंडा ने अधिकार कर लिया था। किंतु युद्ध का तात्कालिक कारण गोलकुंडा के सुल्तान अब्दुल्ला कुतुबशाह का प्रभावशाली सेनापति मीरजुमला था।
मीरजुमला का वास्तविक नाम मुहम्मद सईद था, जो ईरान से हीरे-जवाहिरात के व्यापारी के रूप में गोलकुंडा आया था और शीघ्र ही अतुल संपत्ति का स्वामी बन गया था। उसने गोलकुंडा के सुल्तान को बहुमूल्य उपहार देकर प्रधानमंत्री का पद और ‘मीरजुमला’ की प्रतिष्ठित उपाधि प्राप्त कर ली थी। महत्त्वाकांक्षी मीरजुमला को कर्नाटक की विजय में अपार संपत्ति मिली थी, जिसके कारण वह स्वयं सुल्तान बनने के स्वप्न देखने लगा था। मीर जुमला की बढ़ती शक्ति और स्वतंत्र आचरण से सुल्तान सशंकित हो गया। समकालीन विदेशी यात्री ट्रैवर्नियर से पता चलता है कि सुल्तान को उसके दरबारियों ने बताया कि मीरजुमला उसको हटाकर अपने पुत्र को सुल्तान बनाना चाहता है, इसलिए सुल्तान को चाहिए कि वह ऐसे छिपे शत्रु को विष देकर समाप्त कर दे। सुल्तान कुतुबशाह ने मीरजुमला को बंदी बनाने या मारने की योजना बनाई, किंतु इसकी सूचना मीरजुमला के पुत्र मुहम्मद अमीन को मिल गई और उसने इसकी सूचना अपने पिता मीरजुमला को दे दी। मीरजुमला ने अपने पुत्र अमीन को राजधानी से बाहर भाग जाने की सलाह दी और अपनी रक्षा के लिए पहले ईरान के शाह अब्बास और फिर बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह से मदद माँगी, किंतु कोई सहायता नहीं मिल सकी। अंततः मीरजुमला दक्षिण के मुगल सूबेदार औरंगजेब से मिला और अपनी सुरक्षा की याचना की। औरंगजेब ऐसे ही अवसर की प्रतीक्षा में था। उसने मीरजुमला का स्वागत किया और बादशाह शाहजहाँ से सिफारिश कर उसे पाँच हजार का मनसब और उसके पुत्र को दो हजार का मनसब दिलवा दिया। इस समाचार के मिलते ही सुल्तान कुतुबशाह ने मुहम्मद अमीन एवं उसके परिवार को बंदी बना लिया और उसकी संपत्ति को जब्त कर लिया।
शाहजहाँ की अनुमति से औरंगजेब ने 1656 ई. में अपने पुत्र शहजादा मुहम्मद को गोलकुंडा पर आक्रमण करने के लिए भेजा। गोलकुंडा के सुल्तान ने शाही सेना से भयभीत होकर मुहम्मद अमीन को सपरिवार मुक्त कर दिया, किंतु औरंगजेब इससे संतुष्ट नहीं हुआ और उसने मीरजुमला की जब्त की गई संपत्ति को लौटाने की माँग की। गोलकुंडा के सुल्तान ने बहुमूल्य उपहार देकर औरंगजेब को संतुष्ट करने का प्रयास किया, फिर भी शाही सेना ने गोलकुंडा पर आक्रमण जारी रखा। इसी बीच शाहजहाँ ने औरंगजेब को आदेश भेजा कि वह सुल्तान को क्षमाकर गोलकुंडा का घेरा उठा ले। अतः विवश होकर औरंगजेब को घेरा उठाना पड़ा और गोलकुंडा के सुल्तान से संधि करनी पड़ी। संधि के अनुसार रणगिरि का किला मुगलों को मिल गया और मीरजुमला की संपत्ति वापस कर दी गई। गोलकुंडा के सुल्तान ने अपनी पुत्री का विवाह औरंगजेब के पुत्र शहजादा मुहम्मद से कर दिया और 10 लाख रुपया दहेज तथा 16 लाख रुपया युद्ध के हरजाने के रूप में दिया। मीरजुमला को मुगल दरबार में उच्च पद प्रदान किया गया। कहा जाता है कि शाहजहाँ ने दाराशिकोह तथा शहजादी जहाँआरा के कहने पर औरंगजेब को संधि करने का आदेश दिया था। इस प्रकार गोलकुंडा राज्य भी मुगलों की अधीनता में आ गया।
बीजापुर के साथ संघर्ष
बीजापुर के सुल्तान ने 1636 ई में मुगलों से संधि की थी और अगले 20 वर्षों तक वह इस संधि का पालन करत रहा, जिसके कारण बीजापुर के साथ मुगलों के संबंध अच्छे बने रहे और बीजापुर में शांति बनी रही। नवंबर, 1656 ई में मुहम्मद आदिलशाह प्रथम की मृत्यु के बाद उसकी बेगम ‘बड़ी साहिबा’ ने 18 वर्षीय पुत्र अली आदिलशाह द्वितीय को बीजापुर का सुल्तान बनाया। कहा जाता है कि अली आदिलशाह बड़ी साहिबा का वास्तविक पुत्र नहीं था, जिसके कारण राजदरबार में गुटबंदी आरंभ हो गई।
औरंगजेब ने बीजापुर दरबार के असंतुष्ट सरदारों को अपनी ओर मिला लिया और बीजापुर पर आक्रमण करने की शाहजहाँ से अनुमति प्राप्त कर ली। औरंगजेब ने बीजापुर पर यह आरोप लगाया कि उसने वार्षिक कर का पूरा भुगतान नहीं किया था और मुगलों के विरूद्ध गोलकुंडा की सहायता की थी।
औरंगजेब ने 1657 ई. में मीरजुमला की सहायता से बीजापुर पर आक्रमण किया। मुगल सेनाओं ने मार्च, 1657 ई. में बीदर दुर्ग के रक्षक सिद्दी मरजान को पराजित कर बीदर पर अधिकार कर लिया। इसके बाद महाबत खाँ के नेतृत्व में शाही सेना ने गुलबर्गा में एकत्र बीजापुर की सेना को नष्ट किया और अगस्त, 1657 ई. में कल्याणी के किले को जीत लिया। इसी समय बादशाह के आदेश पर औरंगजेब को युद्ध समाप्त करके बीजापुर के सुल्तान से संधि करनी पड़ी। इस संधि के अनुसार बीजापुर के सुल्तान ने शाहजहाँ की अधीनता स्वीकार कर ली तथा युद्ध के हरजाने के रूप में डेढ़ करोड़ रुपया तथा बीदर, कल्याणी, परेंदा और कोंकण के दुर्ग भी मुगलों को देना स्वीकार किया। सुल्तान ने बीजापुर के शाहजी भोंसले की सहायता न करने का वचन भी दिया।
यद्यपि शाहजहाँ की बीमारी और उसके पुत्रों में उत्तराधिकार युद्ध छिड़ जाने के कारण बीजापुर के आदिलशाह द्वितीय ने संधि की शर्तों का पालन नहीं किया, फिर भी, शाहजहाँ के समय में मुगलों की दक्षिण नीति व्यावहारिक रूप से सफल रही। शाहजहाँ दक्षिण के राज्यों को मुगल साम्राज्य में सम्मिलित करने का पक्षधर नहीं था, बल्कि उन्हें मुगल अधीनता में लेकर उनसे केवल ‘खिराज’ वसूल करना चाहता था। यद्यपि अहमदनगर को पूर्णतया समाप्त कर दिया गया था, फिर भी, शाहजहाँ गोलकुंडा और बीजापुर राज्यों को अपनी अधीनता में करके खिराज लेकर संतुष्ट था।
शाहजहाँ की उत्तरी-पश्चिमी सीमांत नीति
1628 ई. में जब शाहजहाँ सिहासन पर बैठा, उस समय उत्तरी पश्चिमी सीमांत प्रदेशों की समस्या का प्रारूप पहले से बिलकुल बदल चुका था। विभिन्न अफगान कबीलों में इतनी शक्ति नहीं रह गई थी कि वे मुगलों के साथ निरंतर संघर्ष कर सकें। 1630 ई. में जब मुगल अमीर खानेजहाँ लोदी ने विद्रोह किया और उसे शाही सेनाओं के विरुद्ध दक्षिण में तनिक भी सफलता नहीं मिली, तो उसने सीमांत प्रदेश में तैनात कमालुद्दीन नामक शाही अधिकारी से सहायता माँगी। कमालुद्दीन ने मोहम्मदजई, खलील, मेहमंद, दाऊदवई, युसुफजई आदि अफगान जातियों के सरदारों को मिलाकर खानेजहाँ लोदी के पक्ष में विद्रोह करने के लिए तैयार कर लिया था। किंतु शाहजहाँ की सजगता के कारण अब्दुल्ला खाँ तथा सैय्यद मुजफ्फर की विशाल सेनाओं ने खानेजहाँ लोदी को बुंदेलखंड की ओर भागने पर विवश कर दिया। इस बीच काबुल के सूबेदार सईद खाँ को सीमांत प्रदेश में अफगान विद्रोहियों के दबाने का कार्य सौंपा गया। सईद खाँ ने कोहाट में रुककर न केवल कमालुद्दीन के विद्रोह का दमन किया, बल्कि अनेक अफगान सरदारों को मौत के घाट उतार दिया। फलतः अगले सात वर्षों तक सीमांत प्रदेश में कबायली अफगान सरदार शांत रहे।
1638 ई. में अहदाद के चाचा करीमदाद ने कुछ अफगान जातियों और तीराह, ओरकजई तथा अफरीदी कबीलों को अपने पक्ष में करके मुगल प्रशासन के विरुद्ध नग्ज में पुनः विद्रोह कर दिया। शाही सूबेदार सईद खाँ के आदेश पर राजा जगतसिंह तथा याकूब के नेतृत्व में शाही सेना ने अफगान विद्रोहियों को भगा दिया और करीमदाद को अपने परिवार के साथ आत्मसमर्पण करना पड़ा। बाद में, शाही आदेशानुसार सईद खाँ ने करीमदाद को मौत के घाट उतार दिया। इस प्रकार सीमांत प्रदेश में अफगानों के विद्रोह समाप्त हो गये और सईद खाँ इस प्रदेश में शांति बनाये रखने में सफल रहा।
किंतु 1639 ई. में इस प्रदेश में पुनः गंभीर परिस्थिति उत्पन्न हो गई। इस बार अफगानों की इजारा जाति ने विद्रोह किया। उसने मुगलों की आधीनता छोड़कर नजर मोहम्मद के अमीर पलंगतोश का साथ दिया, जिसने काबुल पर अचानक आक्रमण कर दिया। बादशाह शाहजहाँ के आदेश पर खानेदौराँ नुसरतजंग ने सईद खाँ की सहायता से हजारा अफगानों पर आक्रमण कर उनके विद्रोह का दमन किया और 27 हजारा सरदारों को पकड़कर शाही दरबार में भेज दिया, जहाँ बादशाह ने उन्हें क्षमा कर समुचित सम्मान-चिह्न और उपहार प्रदान कर अपने पक्ष में कर लिया।
1648 ई. के बाद पश्चात् जब बिलोचियों के होट कबीले ने पंजाब एवं सिंध में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने का प्रयास किया, तो मुलतान के सूबेदार शहजादा औरंगजेब ने उन्हें रोक दिया और होट सरदार इस्माईल खाँ को शहजादा औरंगजेब की इच्छाओं के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ा। इसी प्रकार शहजादा औरंगजेब ने अन्य बिलोची कबीले- नुहानियों तथा महमर्दी व जुकियाँ अफगान कबीलों के सरदारों को भी शाही सत्ता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया।
इस प्रकार शाहजहाँ के शासनकाल में भी विभिन्न अफगान कबीलों में विद्रोही प्रवृत्ति बनी रही, किंतु सईद खाँ, खानेदौराँ नुसरतजंग तथा शहजादा औरंगजेब जैसे कुशल प्रशासकों एवं सेनानायकों के कारण शीघ्र ही उनके विद्रोहों को कुचल दिया गया और उनके सरदारों को शाही सत्ता स्वीकार करने के लिए विवश किया गया, जिससे सीमांत प्रदेश में शांति बनी रही। इस काल में अफगान कबायली जातियों के प्रति सहायता और दबाव दोनों ही प्रकार की नीतियाँ अपनाई गई और समयानुसार दोनों ही नीतियाँ सफल सिद्ध हुईं।
शाहजहाँ का बल्ख अभियान (1646 ई.)
शाहजहाँ एक महत्त्वाकांक्षी मुगल बादशाह था और अपने पूर्वजों की भाँति मध्य एशिया के पुराने राज्यों को पुनः जीतने के स्वप्न देखा करता था। उसके दरबारी भी उसे बार-बार मध्य एशिया में मुगल सत्ता की स्थापना करने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे। अब्दुल हमीद लाहौरी के अनुसार, ‘अपने शासन के प्रारंभ में ही शाहजहाँ की हार्दिक इच्छा थी कि बल्ख और बदख्शाँ की विजय की जाए, जो उसकी वंशानुगत संपत्ति, समरकंद विजय की कुंजी और उसके महान पूर्वज तैमूर का निवास-स्थान और राजधानी थी।’ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए शाहजहाँ ने पहले बल्ख और बदख्शाँ पर आक्रमण करने की एक योजना बनाई।
बल्ख और बदख्शाँ के प्रांत वर्तमान अफगानिस्तान के उत्तर आक्सस नदी और हिंदूकुश पर्वत श्रेणी के बीच स्थित थे। अब्दुल्ला उजबेग की मृत्यु के बाद की अनिश्चितता के दौर के उपरांत 1611 ई. में इमामकुली, जो शैबानी वंश से भिन्न शाखा का था, बल्ख और बुखारा का शासक हुआ। किंतु उदारता की झोंक में उसने बल्ख और बदख्शाँ अपने भाई नजर मुहम्मद को सौंप दिया और बुखारा को अपने नियंत्रण में रखा। कालांतर में नजर मुहम्मद इन दोनों प्रदेशों का लगभग स्वतंत्र शासक बन बैठा।
शाहजहाँ के राज्यारोहण के बाद इमामकुली उजबेग के मना करने के बाद भी उसके भाई नजर मुहम्मद ने 1628 ई. में काबुल पर अधिकार करने का प्रयास किया, किंतु शाही सेना के पहुँचते ही नजर मुहम्मद भाग खड़ा हुआ था। इसके बाद शाहजहाँ ने नजर मुहम्मद पर अंकुश लगाने और उसे इमामकुली से अलग-थलग करने के लिए कूटनीति का सहारा लिया। एक ओर उसने इमामकुली से मैत्री करने के लिए 3 नवंबर, 1628 ई. को अपने दो दूत हकीम हाजिक और सैयद सद्रजहाँ को बुखारा भेजा, तो दूसरी ओर नजर मुहम्मद को भयभीत करने के लिए मई, 1629 ई. में बामियान की हश्तरखानी चौकी पर अधिकार कर लिया। मुगल बादशाह की सक्रियता के कारण नजर मुहम्मद आगे बढ़ने का साहस नहीं कर सका और उसने भी मुगल बादशाह से मित्रता करने के लिए जुलाई, 1632 ई. में अपने दूत बक्कास हाजी को बहुमूल्य उपहारों के साथ मुगल दरबार में भेजकर अपने पिछले व्यवहार के लिए पश्चाताप किया तथा माफी माँगी।
इसके बाद अगले छह वर्षों तक मुगल बादशाह और बल्ख तथा बुखारा के शासकों के बीच अकसर पत्र-व्यवहारों के साथ-साथ उपहारों का आदान-प्रदान होता रहा और तीनों शासक एक-दूसरे के प्रति सद्भावना प्रकट करते रहे। वास्तव में, नजर मुहम्मद फ़ारस को नीचा दिखाना चाहता था और शाहजहाँ चाहता था कि फारस और बल्ख में मित्रता न हो क्योंकि वह कंधार लेना चाहता था। अंततः शाहजहाँ को सफलता मिली और 1638 ई. में कंधार पर मुगलों का अधिकार हो गया।
कहा जाता है कि कंधार पर अधिकार हो जाने से शाहजहाँ बल्ख और बदख्शाँ पर भी अधिकार करने की सोचने लगा था। 1640 में मध्य एशिया की परिस्थिति उसकी योजना के अनुकूल थी। इमामकुली के अंधा होने पर उसके भाई नजर मुहम्मद ने समरकंद पर अधिकार कर लिया और 31 अक्टूबर, 1641 ई. को अपना नाम खुतबे में पढ़वाया। इमामकुली 1641 ई. में मक्का चला गया। किंतु नज़र मुहम्मद के कठोर और अत्याचारी शासन के कारण ख्वारिज्म और खीवा के अमीरों ने विद्रोह कर दिया। नजर मुहम्मद ने विद्रोह के दमन के लिए अपने पुत्र अब्दुल अजीज को भेजा, किंतु 1645 ई. में अब्दुल अजीज ने अपने पिता से विद्रोह करके स्वयं को बुखारा में सुल्तान घोषित कर दिया। इन घटनाओं से प्रेरित होकर शाहजहाँ ने बदख्शाँ को जीतने का प्रयत्न किया, किंतु सफलता नहीं मिली।
कुछ समय बाद नजर मुहम्मद और उसके पुत्र अब्दुल अजीज के बीच समझौता हो गया, जिसके अनुसार नजर मुहममद को बल्ख का और अब्दुल अजीज को बुखारा का शासक मान लिया गया। किंतु नजर मुहम्मद को अपने पुत्र के आश्वासन पर विश्वास नपहीं था। उसने अपनी सुरक्षा के लिए मुगल बादशाह शाहजहाँ से सहायता माँगी।
शाहजहाँ ने अवसर का लाभ उठाते हुए जून, 1646 ई. में शहजादा मुराद को एक विशाल सेना के साथ बदख्शाँ की विजय के लिए भेजा और स्वयं भी काबुल पहुँच गया। मुराद के नेतृत्व में मुगल सेना ने जून, 1646 ई. में बदख्शाँ और जुलाई, 1646 ई. में बल्ख पर अधिकार कर लिया। नज़र मोहम्मद अपना खजाना बल्ख में छोड़कर ईरान भाग गया।
यद्यपि यह शाहजहाँ की महान उपलब्धि थी, किंतु हिंदूकुश और आक्सस नदी के बीच के इन दुर्गम क्षेत्रों पर अधिकार बनाये रखना बहुत कठिन था। बल्ख की कष्टकर जलवायु और अन्य अनेक कठिनाइयों के कारण शाहजादा मुराद अपने पिता की इच्छा के विरूद्ध 1646 ई. में भारत लौट आया। इसके बाद वजीर सादुल्ला खाँ भी बल्ख की प्रशासनिक व्यवस्था ठीक करके लौट आया।
इस बीच बल्ख की राजनीतिक स्थिति में घीरे-धीरे परिवर्तन हो रहा था। एक ओर उजबेगों ने मुगल सैनिकों का जीना हराम कर दिया, तो दूसरी ओर अब्दुल अजीज भी बल्ख विजय की योजना बना रहा था। अतः 1647 ई. में बादशाह ने शाहजादे औरंगजेब को एक विशाल सेना के साथ बल्ख भेजा। औरंगजेब ने असीम साहस और धैर्य के साथ बल्ख से उत्तर की ओर बढ़ते हुए अब्दुल अजीज और उजबेगों को बुरी तरह पराजित किया। अंततः विवश होकर अब्दुल अजीज और नजर मुहम्मद, दोनों ने मुगल बादशाह से संधि के लिए निवेदन किया।
मध्य एशिया की प्रतिकूल परिस्थिति, जनता के असहयोग, उजबेगों के सशस्त्र प्रतिरोध और अपने अधिकारियों की बल्ख में रहने की अनिच्छा के कारण शाहजहाँ ने औरगंजेब को संधि करने का आदेश दिया। औरगंजेब ने नजर मुहम्मद और अब्दुल अजीज के मौखिक रूप से अधीनता के संदेश को स्वीकार कर लिया और नजर मुहम्मद के पौत्र अब्दुल कासिम को बल्ख सौंपकर वापस आ गया।
इस प्रकार बल्ख अभियान का अंतिम नतीजा यही रहा कि मुगलों को एक इंच भूमि भी नहीं मिली और शाहजहाँ को धन-जन की भारी कीमत चुकानी पड़ी, जिससे मुगलों की प्रतिष्ठा गिर गई, कंधार हाथ से निकल गया और अफगानिस्तान में अशांति पैदा हुई।
शाहजहाँ की मध्य एशिया नीति की विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें-
शाहजहाँ की ईरान नीति
शाहजहाँ के समय सीमांत प्रदेशों से संलग्न एक और प्रमुख समस्या कंधार से संबंधित थी। आरंभ से ही मुगल शासकों के ईरान के शाह के साथ राजनीतिक और कूटनीतिक संबंध कंधार के साथ ही संलग्न थे क्योंकि कंधार को अपने नियंत्रण में रखना मुगल शासक और ईरान के शाह दोनों के लिए प्रतिष्ठा का विषय था।
जहाँगीर के शासनकाल के अंतिम दिनों में 1622 ई. में फारस के शाह ने कंधार पर अधिकार कर लिया था। यद्यपि शाह अब्बास ने मुगलों के घाव पर मरहम लगान की कोशिश की और उसने जहाँगीर के पास कीमती उपहारों के साथ हैदरअली और अतीबेग के नेतृत्व में एक दूत-मंडल भेजकर कंदहार पर अधिकार करने की अपनी मजबूरियों का इजहार किया था, जिसे जहाँगीर ने औपचारिक तौर पर स्वीकार भी कर लिया था, फिर भी, मुगलों और ईरानियों के संबंध की मधुरता तिरोहित हो चुकी थी। जहाँगीर ने कंधार जीतने के लिए बड़े स्तर पर अभियान की योजना बनाई, किंतु नूरजहाँ के षड्यंत्र और खुर्रम तथा महाबत खाँ के विद्रोह के कारण उसकी योजना सफल नहीं हो सकी।
शाहजहाँ और शाह सफी
बादशाह बनने के बाद शाहजहाँ भी कंधार के महत्त्वपूर्ण प्रांत पर पुनः अधिकार करना चाहता था, क्योंकि कंधार राजनीतिक और व्यापारिक दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण था। 9 जनवरी, 1629 ई. को माननदरान में फारस के शाह की मृत्यु हो गई और उसका पौत्र साम मिर्जा ‘शाह सफी’ के नाम से ईरान की गद्दी पर बैठा। बहुमूल्य उपहारों के साथ शाह सफी ने अपने दूत मुहम्मद अली बेग को मुगल दरबार में और मुगल बादशाह ने अपने दूत मीर बर्का को ईरान भेजकर एक-दूसरे के बधाई दी और एक-दूसरे का शुभचिंतक होने का दिखावा किया। दरअसल, इस समय शाह सफी तुर्कों से युद्ध में व्यस्त था और शाहजहाँ भी दक्कन के राज्यों, विशेषकर अहमदनगर के विरूद्ध सामरिक कार्यवाहियों में फँसा हुआ था।
शाहजहाँ ने 16 मई, 1633 ई. में सफदर खाँ को एक पत्र और कीमती तोहफे के साथ फ़ारस भेजा। उसने शाह सफी को यह विश्वास दिलाने का प्रयास किया कि न तो कंधार में उसकी कोई रुचि है और न ही वह कंधार को पुनः वापस पाना चाहता है। 1637 ई. में जब शाह सफी तुर्की के ‘लड़ाकू सुल्तान’ मुराद चतुर्थ और उज़बेकों के आक्रमणों तथा खुर्दिस्तान के राज्यधिकारी अहमद बेग के विद्रोह से निपटने में व्यस्त था, शाहजहाँ ने मिर्जा हुसैन को फ़ारस भेजा। इस समय शाहजहाँ दोहरी चाल चल रहा था। संभवतः उसने शाह को सलाह दी थी कि मध्य एशिया के खिलाफ संयुक्त अभियान किया जाए और साथ ही उसी समय उसने फारस पर आक्रमण करने के लिए मध्य एशिया से भी बातचीत की थी। वास्तव में शाहजहाँ दोनों को आपस में लड़ाकर मध्य एशिया में शक्ति-संतुलन स्थापित करना चाहता था।
इस बीच शाहजहाँ के आदेश पर काबुल के मुगल अधिकारियों- सैयद खाँ, विशेषकर कुलिज खाँ ने कंधार के ईरानी किलदेार अलीमर्दान खाँ से दुर्ग सौंपने के संबंध में बातचीत शुरू की। अलीमर्दान खाँ की ईरानी प्रशासन से अपनी शिकायतें थीं, जो राजस्व का बकाया भुगतान करने के लिए उसको प्रताड़ित कर रहा था। वजीर शाह तकी ने तो अलीमर्दान का चैन से उठना-बैठना भी हराम कर दिया था। यद्यपि अलीमर्दान ने अपने पुत्र मुहम्मद अलीबेग को शाह के पास भेजकर बकाया भुगतान करने का वादा किया, किंतु उसने शाह के दरबार में उपस्थित होने से इनकार कर दिया। शाह सफी को आभास हो गया कि दाल में कुछ काला है, इसलिए उसने सियायुश कुलार अक्कासी को कंधार का किलेदार नियुक्त किया और अलीमर्दान खाँ को किसी भी तरह दरबार में भेजने का आदेश दिया।
कंधार पर अधिकार
अलीमर्दान खाँ ने कंधार का किला सियायुश के हवाले करने से इनकार कर दिया और मुगल अधिकारियों से बातचीत कर 14 फरवरी, 1639 ई./1638 ई को कंधार का दुर्ग मुगलों को सौंप दिया। अलीमर्दान खाँ स्वयं मुगल बादशाह की सेवा में चला आया, जहाँ मुगल बादशाह ने उसे पुरस्कारों से सम्मानित किया और बाद में उसे कश्मीर का सूबेदार बना दिया।
कंधार पर अधिकार होते ही शाहजहाँ की मनोकामना पूरी हो गई, किंतु वह जानता था कि शाह चुप नहीं बैठेगा और कंधार को जीतने का प्रयास करेगा। शाहजहाँ ने कुलिज खाँ को कंधार का किलेदार नियुक्त किया और भक्कर तथा सिस्तान के सूबेदारों को आदेश दिया कि वे अपनी सेनाओं के साथ कंधार की रक्षा के लिए कूच करें। यही नहीं, शाहजहाँ ने शाहशुजा का मनसब बढ़कार उसे भी काबुल भेजा और कंधार की रक्षा का ओदश दिया। अभी शाही सेनाएँ कंधार पहुँची भी नहीं थीं कि उसके पहले ही सियायुश के नेतृत्व में ईरानी सैनिकों ने कंधार को जीतने का प्रयत्न किया, किंतु काबुल के सूबेदार सईद खाँ ने ईरानियों को पराजित करके खदेड़ दिया, जिससे शाह बहुत क्रोधित हुआ, किंतु वह कुछ कर नहीं सका।
ईरान का शाह सफी कंधार को तलवार के बल पर जीतने की आकांक्षा रखता था, किंतु वह तुर्कों से युद्ध करने में इस तरह फँसा रहा कि कंधार की ओर ध्यान नहीं दे सका और कंधार जीतने की लालसा लिये 2 मई, 1642 ई. को स्वर्गवासी हो गया।
शाहजहाँ और शाह अब्बास द्वितीय
शाह सफी की मृत्यु के बाद ग्यारह वर्षीय शाह अब्बास द्वितीय ईरान की गद्दी पर बैठा। इस समय तुर्की के सुल्तान मुराद चतुर्थ की मृत्यु हो चुकी थी और उसका उत्तराधिकारी इब्राहीम अपने पूर्वज की तरह न तो परिश्रमी था और न ही महत्त्वाकांक्षी। इस प्रकार ईरानी साम्राज्य को तुर्कों की ओर से कोई खतरा नहीं था। दूसरी ओर उजबेक और हश्तरखानी भी अपने घरेलू समस्याओं में उलझे हुए थे, इसलिए वे भी ईरान से झगड़ा मोल लेने की स्थिति में नहीं थे।
ईरान के वजीर शाह तकी ने कंधार पर आक्रमण करने की योजना बनाई और रूस्तम खाँ को कंधार पर आक्रमण करने का आदेश दिया। शाहजहाँ को इस आक्रमणं की भनक लग गई और वह स्वयं काबुल पहुँच गया। उसने दाराशिकोह को एक बड़े तोपखाने के साथ कंधार की रक्षा करने और ईरानी आक्रमण का सामना करने का आदेश दिया। दारा के आने की सूचना पाकर ईरानी सेनानायक ने कंधार पर आक्रमण करने का विचार छोड़ दिया। इसके बाद ईरान में फिर अव्यवस्था फैल गई, जिससे कुछ समय के लिए ईरानी संकट टल गया और शाहजहाँ को अपनी अन्य महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति का अवसर मिल गया।
शाहजहाँ की ईरान नीति का दूसरा और चरण
16 मार्च, 1646 ई. को जब शाहजहाँ लाहौर में बैठकर बल्ख अभियान की योजना बना रहा था, तब उसने शाह अब्बास द्वितीय से मित्रता करने के लिए जाँनिसार खाँ को मुगल राजदूत के रूप में ईरान भेजा और शाह से अनुरोध किया कि वह अलीमर्दान खाँ के पुत्र को हिंदुस्तान भेज दे। किंतु शाह अब्बास ने शाहजहाँ की प्रार्थना पर कोई घ्यान नहीं दिया। 1646 ई. में बल्ख में विजय के बावजूद मुगलों के हाथ लगभग कुछ नहीं आया था और उन्हें वहाँ से मजबूरी में हटना पड़ा था।
काबुल क्षेत्र में उजबेकों की शत्रुतापूर्ण कार्यवाहियों और अफगान कबीलों के उपद्रवों से प्रोत्साहित होकर 1648 ई. में ईरान के शाह ने शाहकुली बेग के द्वारा शाहजहाँ के नाम एक पत्र भेजा कि जैसे बादशाह ने नजर मुहम्मद को बल्ख वापस कर दिया है, उसी प्रकार उसे कंधार वापस कर दिया जाए। शाहजहाँ के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना शाह अब्बास ने अपनी सैनिक तैयारी पूरी कर ली और जैसे ही शाहजहाँ ने उसकी माँग को अस्वीकृत किया, उसने 16 दिसंबर, 1648 ई. को एक विशाल सेना के साथ कंधार की घेराबंदी शुरू कर दी।
कंधार पर ईरानियों का पुनः अधिकार
कंधार पर ईरानियों के आक्रमण की सूचना मिलते ही शाहजहाँ ने औरंगजेब और सादुल्ला खाँ को 50,000 की सेना के साथ कंधार पहुँचने का आदेश दिया। किंतु शाही सेना के कंधार पहुँचने के पहले ही 11 फरवरी, 1649 ई. को ईरानियों ने कंधार के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इससे शाहजहाँ के अहंकार को बहुत ठेस पहुँची और उसने मुगल शाहजादों के अधीन तीन बार शाही सेनाओं को भेजकर कंदहार को फिर से जीतने का प्रयास किया, किंतु सफलता नहीं मिली।
कंधार वापस लेने के शाहजहाँ के प्रयास
कंधार का पहला घेरा (1649 ई.)
शाहजहाँ के आदेश पर शहजादा औरंगजेब ने 16 मई, 1649 ई. को कंधार पहुँचकर दुर्ग का घेरा डाल दिया। यद्यपि मुगलों ने किले से बाहर ईरानियों को हरा दिया, किंतु लगभग तीन माह की अनवरत घेराबंदी के बाद भी मुगल सैनिक दुर्ग पर अधिकार करने में सफल नहीं हो सके। फलतः सर्दियाँ शुरू होने और अस्त्र-शस्त्रों के अभाव में मुगल बादशाह की अनुमति से औरंगजेब ने दुर्ग का घेरा उठा लिया और 3 सिंतंबर, 1649 ई. को मुगल सेना कंधार से वापस लौटने लगी। इस प्रकार मुगल सेना कंधार को ईरानियों से वापस न ले सकी।
कंधार का दूसरा घेरा (1652 ई.)
शाहजहाँ ने कंधार को पुनः जीतने की अपनी योजना नहीं छोड़ी। तीन वर्ष की तैयारी के बाद 1652 ई. में बादशाह ने एक बार फिर औरंगजेब और सादुल्ला खाँ को आवश्यक उपकरणों और अस्त्र-शस्त्रों के साथ कंधार दुर्ग पर अधिकार करने के लिए भेजा। रसद और युद्ध-सामग्री की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए अप्रैल, 1652 में शाहजहाँ ने स्वयं काबुल में पड़ाव डाल दिया। औरंगजेब और सदुल्लाह खाँ ने 2 मई, 1652 ई. को एक बार फिर कंधार पर घेरा डाल दिया। इस बार मुगल सेना में बंदूकधारी सैनिक और तोपखाने भी शामिल थे। यह घेराबंदी 9 जुलाई तक चलती रही, किंतु ईरानियों की श्रेष्ठतर तोपों के सामने मुगलों की गोलंदाजी निष्फल रही और शाही सैनिकों को कोई सफलता नहीं मिली। फलतः शाहजहाँ को घेरा उठा लेने की आज्ञा देनी पड़ी और शहजादा औरंगजेब 7 अगस्त, 1652 ई. को काबुल आ गया।
कंधार का तीसरा घेरा(1653 ई.)
शाहजहाँ यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि कंधार के दुर्ग को जीता नहीं जा सकता है। इसी समय दारा ने घोषणा की कि, जो कोई अब तक नहीं कर सका, मैं करके दिखाऊँगा।’ इस घोषणा में बादशाह को आशा की एक नई किरण दिखाई दी। उसने दाराशिकोह को काबुल तथा मुल्तान का सूबेदार नियुक्त किया और उसका मनसब बढ़ा दिया। दारा एक विशाल सेना तथा बड़ी-बड़ी तोपों के साथ 23 अप्रैल, 1653 ई. को कंधार पहुँचा और उसने दुर्ग की घेराबंदी आरंभ कर दी। दारा को उम्मीद थी कि अपनी विशाल सेना के बल पर वह किले के अंदर के लोगों को भूख-प्यास से तड़पा-तड़पा कर आत्मसमर्पण करने को मजबूर कर देगा, किंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। दो सबसे बड़ी तोपों को बड़ी कठिनाई से खींचकर कंदहार लाया गया था, किंतु वे भी किले को भेदने में नाकाम रहीं। पाँच महीने तक दारा किले का घेरा डाले रहा, किंतु जन-धन की हानि के अलावा उसके हाथ कुछ नहीं आया। यद्यपि छोटे-छोटे कुछ किलों को शाही सेना ने अवश्य जीता, किंतु वह मुख्य किले को जीतने में असफल रही और कंधार पर ईरानियों का अधिकार बना रहा। शीत ऋतु के आगमन और रसद तथा अस्त्र-शस्त्रों की कमी के कारण शाहजहाँ ने दारा को वापस बुला लिया। शाही आदेश के अनुसार 27 सितंबर, 1653 ई. को दारा ने कंधार से प्रस्थान किया और वह मुलतान होते हुए लाहौर पहुँच गया। इस प्रकार 1649 ई. से 1653 ई. तक तीन बार शाहजहाँ ने कंधार पर अधिकार करने का प्रयत्न किया, किंतु उसे सफलता नहीं मिली।
कंधार अभियान की असफलता के कारण
कंधार को अधिकृत करने में मुगलों की असफलता का पहला कारण यह था कि वे घेराबंदी के कार्य में घटिया तोपों और घटिया अस्त्र शस्त्रों का प्रयोग करते थे। इसके साथ-साथ मुगल सेना को इन अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग के संबंध में समुचित ज्ञान भी नहीं था। दूसरे, ईरानियों ने सदैव सुरक्षात्मक नीति अपनाई और दुर्ग की रक्षा के लिए उनके पास पर्याप्त साधन थे, जिससे उन्होंने दुर्गो को सुदृढ़ बना लिया था। तीसरे, ईरानी सेनानायक मुगल सेनानायकों की अपेक्षा अधिक महत्त्वाकाक्षी और साहसी थे। चौथे, ईरानी सैनिकों को सदैव कुमुक और रसद पर्याप्त मात्रा में मिलती रहती थी, जबकि कंधार में मुगलों को सदैव रसद और अस्त्र-शस्त्रों की कमी का सामना करना पड़ता था। अनुमान किया जाता है कि इन तीनों घेरों में (1649, 1652, 1653) में मुगल साम्राज्य के बारह करोड़ रुपये खर्च हुए, जो संपूर्ण साम्राज्य की आधी आय से कुछ अधिक था। इतना कुछ खर्च करने के बाद भी शाहजहाँ के शासन काल में कंधार मुगल साम्राज्य का अंग नहीं बन सका। वास्तव में कंदहार से शाहजहाँ का लगाव यथार्थ पर आधारित न होकर भावनात्मक था। मुगल प्रतिष्ठा को उतना आघात कंधार खोने से नहीं लगा, जितना उनकी सैनिक कार्रवाइयों की बार-बार की विफलता से लगा था। फिर भी, अभी मुगलों की शक्ति और प्रतिष्ठा बनी हुई थी।
शाहजहाँ का ओटोमन तुर्कों से संबंध
शाहजहाँ ने 1637 ई. में ओटोमन दरबार में एक दूतमंडल भेजा। मीर ज़रीफ़ के नेतृत्व में यह दूतमंडल 1638 ई. में सुल्तान मुराद चतुर्थ तक पहुँचा, जब वह बगदाद में डेरा डाले हुए था। ज़रीफ़ ने उन्हें कीमती उपहार और एक पत्र दिया, जिसमें सफाविद फारस के विरूद्ध एक गठबंधन करने का प्रस्ताव थी। सुल्तान ने अर्सलान आगा के नेतृत्व में एक वापसी दूतमंडल शाहजहाँ के पास भेजा। शाहजहाँ ने जून, 1640 में राजदूत का स्वागत किया। उन्होंने भव्य उपहारों का आदान-प्रदान किया, किंतु शाहजहाँ सुल्तान मुराद के वापसी पत्र से नाखुश था क्योंकि उसका लहजा उसे असभ्य लगा। सुल्तान मुराद के उत्तराधिकारी, सुल्तान इब्राहिम ने शाहजहाँ को फारसियों के खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए प्रोत्साहित करते हुए एक और पत्र भेजा, किंतु उसके जवाब की कोई सूचना नहीं है।
शाहजहाँकालीन कला एवं स्थापत्य
शाहजहाँकालीन चित्रकला
शाहजहाँ के काल में चित्रकला में आकृति-चित्रण और रंग-सामंजस्य में कमी आई, किंतु रेखांकन और बॉर्डर बनाने की उन्नति हुई। शाहजहाँ काल के प्रमुख चित्रकार अनूप, मीर हासिम, मुहम्मद फकीरूल्ला, हुनर मुहम्मद नादिर, चिंतामणि आदि थे।
शाहजहाँ को देवी-प्रतीकों वाली अपनी तस्वीर बनवाने का शौक था, जैसे- उसके सिर के पीछे रोशनी का गोला। शाहजहाँ के सभी चित्रों में उसे प्रायः सर्वाेत्तम वस्त्र और आभूषण धारण किये चित्रित किया गया है। इस शासक का एक प्रसिद्ध चित्र भारतीय संग्रहालय में उपलब्ध है, जिसमें उसको सूफी नृत्य करते हुए प्रदर्शित किया गया है। इस काल के एकल छवि चित्रों में गहराई और संपूर्ण दृश्य विधान प्रकट करने के लिए चित्रों की पृष्ठभूमि में दूर दिखाई देने वाले धुंधले नगर दृश्यों को हल्के रंगों में चित्रित किया गया है।
इस काल के चित्रों के विशेष विषय यवन-सुंदरियाँ, रंगमहल, विलासी जीवन और ईसाई धर्म थे। इस समय स्याह कलम चित्र भी बनाये गये, जिन्हें कागज की फिटकरी और सरेस आदि के मिश्रण से तैयार किया जाता था। इनकी विशेषता बारीकियों का चित्रण था, जैसे- दाढ़ी का एक-एक बाल दिखाना और रंगों को हल्की घुलन के साथ लगाना।
शाहजहाँकालीन प्रमुख चित्रों में ‘गुलिस्ताँ तथा सादी का बुस्तान’, ‘दरबारियों के बीच ऊँचे आसन पर विराजमान शाहजहाँ’, ‘पिता जहाँगीर और दादा अकबर की संगति में शाहजहाँ, जिसमें अकबर ताज शाहजहाँ को सौंप रहा है’ आदि हैं।
शाहजहाँकालीन स्थापत्य कला
शाहजहाँ के शासनकाल में मुगल स्थापत्य कला अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई। उसने अपने शासनकाल में आगरा, दिल्ली, लाहौर, काबुल, कश्मीर, कंधार, अजमेर, अहमदाबाद, मुखलिसपुर तथा अन्य अनेक स्थानों पर अनेक इमारतेों, राजमहलों, किलों, उद्यानों और मस्जिदों का निर्माण करवाया। यही कारण है कि इतिहासकारों ने उसके शासनकाल को मुगल स्थापत्य कला का ‘स्वर्ण-युग’ कहा है। शाहजहाँ ने नई इमारतों के अलावा, आगरा और लाहौर के दुर्गों में अकबर द्वारा बनवाई गई अनेक इमारतों को तुड़वाकर नवीन इमारतों का निर्माण भी करवाया।
आगरा के किले में दीवाने आम, दीवाने खास, शीश महल, शाहबुर्ज, खासमहल, मच्छीभवन, झरोखा दर्शन का स्थान, अंगूरी बाग, नगीना मस्जिद और मोती मस्जिद उसके द्वारा बनवाई गई इमारतों में प्रमुख हैं। यद्यपि शाहजहाँ के भवन दृढ़ता तथा मौलिकता में अकबर के भवनों की अपेक्षा निम्न कोटि के हैं, किंतु सौंदर्य, रमणीयता, अलंकरण और सादगी में उनका कोई जोड़ नहीं है।
1639 ई. में शाहजहाँ ने दिल्ली के पास ‘शाहजहाँनाबाद’ नगर की नींव डाली। दिल्ली में यमुना नदी के दायें तट पर एक किला बनवाया, जो लालकिले के नाम से प्रसिद्ध है। इस किले के भीतर सफेद संगमरमर की सुंदर इमारतें बनवाई गई हैं, जिनमें मोतीमहल, हीरामहल और रंगमहल विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास जैसी इमारतों के अतिरिक्त नौबतखाना, शाही निवास, नौकरों के निवास आदि भी बने हुए हैं।
दीवान-ए-खास में संगमरमर के चमकीले फर्श, दीवारों पर फूल-पत्तियों की सुंदर नक्काशी और मेहराबों का सुनहरा रंग चित्ताकर्षक है। वहाँ लिखा भी है- ‘यदिर पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है, तो वह यहीं हैं, यहीं है, यहीं है।’ यहाँ पानी और फव्वारों का प्रबंध अत्यंत भव्य है।
शाहजहाँकालीन मस्जिदों में दिल्ली की जामा मस्जिद देश की सबसे प्रसिद्ध मस्जिद है। एक दूसरी जामा मस्जिद का निर्माण शाहजहाँ की बड़ी पुत्री जहाँआरा ने आगरा में करवाया था। पर्सी ब्राउन ने आगरा की जामा मस्जिद को स्थापत्य कला की दृष्टि से दिल्ली की जामा मस्जिद से भव्य और संदर बताया है।
शाहजहाँ ने आगरा के किले में मोती मस्जिद का निर्माण करवाया था, जो स्थापत्य कला की दृष्टि से एक उच्चकोटि की कृति है। लाहौर के किले में दीवाने आम, शाहबुर्ज, शीशमहल, नौलखा महल और ख्वाबगाह आदि शाहजहाँ के समय में बनाई गई मुख्य इमारतें हैं।
शाहजहाँ की प्रसिद्धि का कारण है ताजमहल, जो उसने अपनी प्रिय पत्नी मुमताजमहल की स्मृति में आगरा में बनवाया था। मुमताजमहल की कब्र पर बनवाया गया यह मकबरा ‘ताजमहल’ अपनी सुंदरता और वैभव के लिए संसार भर में प्रसिद्ध है। ताजमहल का निर्माण 22 वर्षों में लगभग चार करोड़ रुपये व्यय करके बनवाया गया था। इसके चबूतरे के चारों कोनों पर चार सफेद मीनारें हैं और इसकी पार्श्व में यमुना नदी बहती है। सुंदर चित्रकारी से अलंकृत जालियाँ, बेल-बूटों से सजी हुई दीवारें और लंबाई, चौड़ाई तथा ऊँचाई की दृष्टि से इस इमारत को सौंदर्य का प्रतीक माना जाता है। हॉवेल ने इसे ‘भारतीय नारीत्व की साकार प्रतिमा’ कहा है।
ताजमहल यूरोपीय और एशियाई प्रतिभा के संमिश्रण की उपज नहीं है, बल्कि इसकी योजना का श्रेय उस्ताद ईसा को प्राप्त है। ताजमहल का प्रमुख वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी था, जिसे शाहजहाँ ने ‘नादिर-उज-अस्र’ की उपाधि दी थी। शाहजहाँ के राज्यकाल की दूसरी प्रसिद्ध कृति मयूर सिंहासन (तख्ते-ताऊस) थी, जिसे 1739 ई. में नादिरशाह लूटकर फारस ले गया था।
शाहजहाँ के राज्यकाल की दूसरी प्रसिद्ध कृति ‘मयूर सिंहासन’ (तख्त-ए-ताऊस) था, जिसकी छत मयूर-स्तंभों पर आधारित थी। इस सिंहासन के निर्माण में 14 लाख रुपये से अधिक का व्यय हुआ था। इस मयूर सिंहासन को 1739 ई. में नादिरशाह लूटकर अपने साथ ईरान (फारस) उठा ले गया।
संगीत कला
शाहजहाँ संगीत कला का भी शौकीन था, जिसके कारण उसके काल में संगीत कला को महत्त्वपूर्ण मिला था। उसने अपने दरबार में अनेक प्रसिद्ध कवियों और संगीतज्ञों का आश्रय दिया था। शाहजहाँ स्वयं भी एक अच्छा गायक था। उसके दरबार के प्रमुख संगीतकारों में रामदास, दीरंग खाँ, जगन्नाथ, लाल खाँ भावमदू, महापात्र आदि थे।
शाहजहाँ की बीमारी और उत्तराधिकार के युद्ध (1657-58 ई.)
शाहजहाँ के शासनकाल की महत्त्वपूर्ण घटना उसके पुत्रों के बीच होने वाला उत्तराधिकार का युद्ध था। शाहजहाँ 6 सितंबर, 1657 ई. को सहसा गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। अपने जीवन का अंत निकट समझकर उसने अमीरों के सामने अपने ज्येष्ठ पुत्र दाराशिकोह को विधिवत उत्तराधिकारी घोषित किया और उसे ‘शाहबुलंद इक़बाल’ की उपाधि प्रदान की। दारा भी राजधानी में रहकर अपने पिता की सेवा−सुश्रुषा और शासन की देखभाल करने लगा और बादशाह के आराम के लिए अमीरों के आने-जाने पर प्रतिबंध लगा दिया, जिसका विरोधी अमीरों और राजकुमारों के समर्थको ने यह अर्थ लगाया कि बादशाह की मृत्यु हो चुकी है और दारा इसे छिपा रहा है। इस प्रकार की सूचनाएँ शाह शुजा, औरंगजेब और मुराद के पास भेजी गईं।
शाहजहाँ की बीमारी की सूचना से उसके चारों पुत्रों- दाराशिकोह, शुजा, औरंगजेब और मुराद में उत्तराधिकार का युद्ध आरंभ हो गया। शाहजहाँ की पत्नी मुमताज़ बेगम से उत्पन्न चौदह संतानों में से सात जीवित थीं, जिनमें चार पुत्र और तीन पुत्रियाँ- जहाँआरा, रौशनआरा एवं गोहनआरा थीं। उत्तराधिकार के इस युद्ध में चारों भाइयों के अतिरिक्त उनकी तीनों बहनों ने भी किसी न किसी भाई का पक्ष लिया। जहाँ जहाँआरा ने दाराशिकोह का समर्थन किया, वहीं रोशनआरा ने औरगंजेब का और गोहनआरा ने मुरादबख्श का समर्थन किया। अंततः इस उत्तराधिकार युद्ध में शहजादे औरंगजेब को सफलता मिली और वह बादशाह बनने में सफल रहा। उत्तराधिकार का यह युद्ध इसलिए महत्त्वपूर्ण था कि इसे बादशाह शाहजहाँ को जीवित रहते हुए लड़ा गया था और इसमें उसके तीन पुत्र मारे गये थे।
यद्यपि नवंबर, 1657 ई. तक शाहजहाँ के स्वास्थ्य में सुधार हो चुका था, किंतु बंगाल एवं दक्षिण में बादशाह की मृत्यु की झूठी अफवाहें तथा दारा की तैयारियों के कारण अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई। गुजरात के सूबेदार मुराद ने अपने दीवान अली नकी की हत्या कर दी और 5 दिसंबर, 1657 ई को अहमदाबाद (गुजरात) में अपने को बादशाह घोषित कर दिया। इसी प्रकार शहजादा शुजा ने बंगाल के राजमहल में स्वयं को बादशाह घोषित किया। किंतु औरंगजेब ने न तो अपने पिता की मृत्यु पर विश्वास किया और न ही स्वयं को बादशाह घोषित किया। उसने अपने बीमार पिता से मिलने का बहाना बनाया और शाहशुजा के दूर होने के कारण मुरादबख्श से समझौता कर लिया कि दारा को पराजित करने के पश्चात् राज्य को आपस में बाँट लिया जायेगा।
उत्तराधिकार-युद्ध का आरंभ
बहादुरपुर का युद्ध (24 फरवरी, 1658 ई.)
जनवरी, 1658 ई. में सर्वप्रथम शाहशुजा अपनी सेना को लेकर राजधानी आगरा की ओर बढ़ा और बनारस तक आ गया। शाहजहाँ की सलाह पर दारा ने शाहशुजा का सामना करने के लिए आमेर के राजा जयसिंह और अपने पुत्र सुलेमान शिकोह को भेजा। इस प्रकार उत्तराधिकार युद्ध के क्रम में पहला युद्ध शाही सेना और शाहशुजा के बीच 24/14 फ़रवरी, 1658 ई. को बनारस के निकट बहादुरपुर में हुआ, जिसमें शुजा पराजित होकर बंगाल लौट गया।
निश्चित योजना के अनुसार औरंगजेब और मुराद ने दारा के विरूद्ध आगरा की ओर प्रस्थान किया। अप्रैल, 1658 ई. में औरंगजेब और मुराद की सेनाएँ दीपालपुर में आकर मिल गईं। इसी समय मीरजुमला, जिसके पास शक्तिशाली तोपखाना तथा फ्रांसीसी और अंग्रेज तोपची थे, औरंगजेब से आकर मिल गया। वास्तव में, मीरजुमला को अपनी सेना के साथ शाही दरबार में बुलाया गया था, किंतु औरंगजेब ने बड़ी चालाकी से उसे अपनी ओर मिला लिया था।
धरमत का युद्ध (15 अप्रैल, 1658 ई.)
दाराशिकोह ने औरंगजेब और मुरादबख्श की संयुक्त सेनाओं को रोकने के लिए महाराजा जसवंतसिंह और कासिम खाँ को भेजा। इस प्रकार दूसरा युद्ध शाही सेना और औरंगजेब तथा मुराद की संयुक्त सेना के बीच 15 अप्रैल, 1658 ई. को उज्जैन के निकट धरमत नामक स्थान पर हुआ, जिसमें अंतिम विजय औरंगजेब और मुराद की हुई और दारा की शाही सेना पराजित हो गई। जसवंतसिंह घायल होकर जोधपुर चला गया और शाही सेना आगरा लौट गई। घरमत की विजय से औरंगजेब की स्थिति काफी सुदृढ़ हो गई। उसने इस विजय की स्मृति में ‘फ़तेहाबाद’ नामक नगर की स्थापना की।
सामूगढ़ का युद्ध (29 मई, 1658 ई.)
धरमत का युद्ध को जीतने के बाद औरंगज़ेब और मुराद की सेनाएँ ग्वालियर होते हुए आगरा की ओर बढ़ी। इस समय तक अनेक अमीर औरंगजेब के पक्षधर हो गये थे। जहाँआरा और बादशाह ने् औरंगजेब को आश्वासन दिया कि दारा को उसकी जागीर में वापस भेज दिया जायेगा। किंतु महत्त्वाकांक्षी औरंगजेब ने युद्ध करने का निश्चय किया। अतः उत्तराधिकार का तीसरा युद्ध दारा और औरंगज़ेब के बीच 29 मई, 1658 ई. को आगरा से 8 मील दूर ‘सामूगढ़’ नामक स्थान पर हुआ। इस युद्ध में भी दाराशिकोह की पराजय हुई और वह आगरा में एक दिन रुककर शाहजहाँ से बिना मिले ही दिल्ली भाग गया। इस प्रकार सामूगढ़ के युद्ध में दारा की पराजय ने भारत के भाग्य का निर्णय कर दिया।
औरंगतेब का आगरा पर अधिकार (8 जून, 1658 ई.)
सामूगढ की विजय के बाद औरंगजेब और मुराद आगरा पहुँचे। शाहजहाँ बातचीत द्वारा समस्या सुलझाना चाहता था। उसने औरंगजेब को मिलने के लिए बुलाया, किंतु वह तैयार नहीं हुआ। अब शाहजहाँ ने आगरा दुर्ग पर अधिकार करने के लिए दुर्ग का घेरा डाल दिया। आरंभ में शाहजहाँ दुग्र के समर्पण के लिए तैयार नहीं था, किंतु अंत में जल और रसद की आपूर्ति बंद हो जाने के कारण उसे आत्मसमर्पण करने के लिए विवश होना पड़ा। शाहजहां ने 8 जून, 1658 ई. को आगरा के दुर्ग पर अधिकार कर लिया और शाहजहाँ को दुर्ग में ही जनरबंद कर दिया।
मुराद से छुटकारा
इसी समय मथुरा पहुँचने पर औरंगजेब को ज्ञात हुआ कि मुराद अपने समर्थकों के बहकावे में आकर औरंगजेब का विरोध करने लगा है। औरंगजेब ने बड़ी चालाकी से मुराद को कुछ घोड़े तथा चिकित्सा के लिए 20 लाख रुपया भेजा और भोजन के लिएअपने शिविर में आमंत्रित किया। अपने विश्वासपात्रों के कहने पर मुराद 25 जून, 1658 ई. को औरंगजेब के रूपनगर शिविर में पहुँच गया, जहाँ उसे अत्यधिक मद्यपान कराकर बंदी बना लिया गया और ग्वालियर के किले में भेज दिया गया। मुराद के बंदी बनते ही उसकी सेना ने औरंगजेब की सेवा स्वीकार कर ली। तीन वर्ष बाद दिसंबर, 1661 ई. में शहजादे मुराद की हत्या कर दी गई।
औरंगजेब ने मथुरा में मुराद को कैद करने के बाद दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। दाराशिकोह दिल्ली छोड़कर लाहौर भाग गया, जिसके कारण औरंगजेब का बिना किसी संघर्ष के दिल्ली पर भी अधिकार हो गया। औरंगजेब ने दारा का पीछा करने के लिए बहादुर खाँ को एक सेना के साथ लाहौर भेजा और स्वयं उसकी सहायता के लिए अगस्त, 1658 ई. में सतलज तक पहुँच गया। दाराशिकोह लाहौर से मुल्तान और मुल्तान से सिंध भाग गया। इसके बाद दिलेर खाँ को दारा का पीछा करने के लिए छोड़कर औरंगजेब इलाहाबाद की ओर चला, क्योंकि फतेहपुर जिले के खजवा में शाहशुजा ने अपना सैनिक शिविर स्थापित कर लिया था।
खजवा का युद्ध (जनवरी, 1659 ई.)
उत्तराधिकार का एक और युद्ध 5 जनवरी, 1659 को फतेहपुर जिले के खजुवा नामक स्थान पर औरंगजेब और शाहशुजा के बीच लड़ा गया, जिसमें शाहशुजा पराजित होकर बंगाल की ओर भाग गया। औरंगजेब ने शाहशुजा का पीछा करने के लिए अपने पुत्र मुहम्मद और मीरजुमला को लगाया, जिन्होंने बंगाल तक उसका पीछा किया। इसी समय शहजादे मुहम्मद ने मीरजुमला से झगड़ा कर शुजा से हाथ मिलाया था, जिसकी सजा उसे आजीवन कैद के रूप् में मिली। निराश शाहशुजा अराकान भाग गया, जहाँ मेघ जाति के लोगों ने उसकी हत्या कर दी।
इस समय जयसिंह और जसवंतसिंह जैसे राजपूत अमीर औरंगजेब के समर्थक हो गये थे। वास्तव में औरंगजेब ने बड़ी चतुराई से राजपूत राजाओं को अपने पक्ष में कर लिया था और राजा जसवंतसिंह को मारवाड़ का शासक स्वीकार करने के साथ ही उसे गुजरात का सूबेदार भी नियुक्त कर दिया था। इस प्रकार दारा को राजस्थान से कोई सहयोग मिलने की आशा नहीं थी।
देवराई की घाटी का युद्ध (12-14 मार्च, 1659 ई.)
औरंगजेब के सेनापति निरंतर दारा का पीछा कर रहे थे। शरण की तलाश में दारा सिंध से गुजरात गया और वहाँ के सूबेदार ने उसका स्वागत किया। जसवंतसिंह की सहायता का आश्वासन पाकर दारा अजमेर गया, किंतु राजपूत नायक अपने वादों से मुकर गया क्योंकि उसे पहले ही औरंगजेब ने अपने पक्ष में कर लिया था। फलतः दारा ने अजमेर के निकट देवराई की घाटी में पुनः अपने भाग्य का परीक्षण करने का निर्णय किया। तीन दिनों तक (12-14 मार्च, 1659 ई.) औरंगजेब और दारा के बीच देवराई की घाटी का युद्ध हुआ, जिसमें दारा को पराजित होकर भागना पड़ा।
देवराई से भागकर दारा ने अफगानिस्तान जाने के उद्देश्य से सिंध की ओर प्रस्थान किया। इसी समय उसकी पत्नी नादिरा बेगम बीमार हो गई, जिसके कारण उसने एक बलूची सरदार मलिक जीवन के यहाँ शरण ली। वहीं पर नादिरा बेगम की मृत्यु हो गई और उसकी इच्छा के अनुसार दाराशिकोह ने अपने कुछ सैनिकों के साथ उसके पार्थिव शरीर को दफनाने के लिए आगरा भेज दिया। किंतु मलिक जीवन विश्वासघाती निकला और उसने दाराशिकोह को औरंगजेब के एक सरदार बहादुर खाँ को सौंप दिया, जिसे औरंगजेब ने दारा का पीछा करने के लिए नियुक्त किया था ।
दाराशिकोह अंत (1659 ई.)
बहादुर खाँ दाराशिकोह और उसके परिवार को बंदी बनाकर 23 अगस्त, 1659 ई. को दिल्ली ले आया। औरंगजेब ने 29 अगस्त को दाराशिकोह को एक गंदे हाथी पर बिठाकर संपूर्ण नगर में घुमाया और अपमानित किया।
औरंगजेब ने दारा को दंडित देने के लिए न्यायाधीशों की एक ‘न्याय समिति’ बनाई, जिसने 30 अगस्त, 1659 ई. को धर्म और शरियत का उल्लंघन करने के कारण दारा को ‘विधर्मी’ घोषित करते हुए प्राणदंड की सजा सुनाई। इस प्रकार 1659 ई. में दारा को अपमानित करके मार डाला गया और अंत में उसे हुमायूँ के मकबरे में दफना दिया गया।
औरंगजेब का राज्याभिषेक
औरंगजेब का दो बार राज्याभिषेक किया गया- औरंगजेब ने 31 जुलाई, 1658 ई. को दिल्ली में अपना पहला राज्याभिषेक कराया और ‘आलमगीर’ (दुनिया को जीतने वाला) की उपाधि ग्रहण की। किंतु खजवा और देवराई की निर्णयात्मक विजयों के बाद 15 जून, 1559 ई. को उसने दिल्ली में ही अपना दुबारा राज्याभिषेक करवाया और इस अवसर पर उसने ‘गाजी’ उपाधि धारण की।
शाहजहाँ की मृत्यु
शाहजहाँ ने अपने जीवन के अंतिम 8 वर्ष आगरा के किले में एक बंदी के रूप में व्यतीत किया। उसकी पुत्री जहाँआरा ने उसकी मृत्यु तक सेवा की। अंततः 22 जनवरी, 1666 ई. में शाहजहाँ की मृत्यु हो गई और उसे आगरा के ताजमहल में मुमताज महल के बगल में दफना दिया गया, जिसे उसने अपने शासनकाल में अपनी प्रिय पत्नी मुमताज महल की स्मृति में बनवाया था।
इन्हें भी पढ़ सकते हैं-
सिंधुघाटी सभ्यता में कला एवं धार्मिक जीवन
भारत पर ईरानी और यूनानी आक्रमण
सविनय अवज्ञा आंदोलन और गांधीजी
बाबर के आक्रमण के समय भारत की राजनैतिक दशा
विजयनगर साम्राज्य का उत्थान और पतन
प्रथम विश्वयुद्ध, 1914-1918 ई.
पेरिस शांति-सम्मेलन और वर्साय की संधि
द्वितीय विश्वयुद्ध : कारण, प्रारंभ, विस्तार और परिणाम
यूरोप में पुनर्जागरण पर बहुविकल्पीय प्रश्न-1
प्राचीन भारतीय इतिहास पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1
जैन धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1
बौद्ध धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1
आधुनिक भारत और राष्ट्रीय आंदोलन पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1
भारत के प्राचीन इतिहास पर आधारित क्विज-1