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शाकम्भरी के चौहान
चाहमान (चौहान) राजवंश पूर्वमध्यकालीन भारत का एक राजपूत राजवंश था, जिसने 7वीं शताब्दी से लेकर 12वीं शताब्दी ईस्वी तक वर्तमान राजस्थान, गुजरात एवं उसके समीपवर्ती क्षेत्रों पर शासन किया। चाहमानों का आविर्भाव जांगलदेश में हुआ, जो ‘सपादलक्ष’ कहलाता था। चाहमान (चौहान) नामक एक मिथकीय आदिपुरुष के नाम पर इस वंश को चाहमान कहा जाता है, जिसका उदय म्लेच्छों अर्थात् तुर्कों से पुष्कर तीर्थ की रक्षा के लिए हुआ था। इसकी राजधानी अहिच्छत्रपुर में थी, जिसकी पहचान मारवाड़ के नागोर (प्राचीन नागपुर) से की जाती है। चौहान राजवंश का संस्थापक वासुदेव था, जो मूलरूप से सांभर के निकट शाकम्भरी का शासक था।
10वीं शताब्दी के मध्य तक चाहमान वंश की अनेक शाखाएँ कनौज के गुर्जर-प्रतिहारों की अधिसत्ता स्वीकार करती थीं, जिनमें भृगुकच्छ, प्रतापगढ़ (चित्तौड़) और धोलपुर (धवलपुरी) की शाखाओं का तो सामंतरूप में ही अंत हो गया, किंतु शाकम्भरी के चौहान शासक सिंहराज (944-971 ई.) ने प्रतिहारों की शक्तिहीनता का लाभ उठाकर ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की और उसके उत्तराधिकारी विग्रहराज द्वितीय (971-998 ई.) के शासनकाल में चाहमान राजवंश की स्वतंत्र सत्ता का उत्कर्ष हुआ।
12वीं शताब्दी के आरंभ में अजयराज द्वितीय ने शाकम्भरी के स्थान पर सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अजयमेरु (आधुनिक अजमेर) को अपनी राजधानी बनाई। यही कारण है कि चाहमान शासकों को ‘अजमेर के चौहान’ के नाम से भी जाना जाता है। विग्रहराज चतुर्थ इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था, किंतु पृथ्वीराज चौहान, जिसे ‘रायपिथौरा’ भी कहा गया है, चाहमान (चौहान) वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक हुआ।
अनेक चौहान शासकों को गजनवियों और गोरियों के आक्रमणों का सामना करना पड़ा। मुस्लिम संकट की अनदेखी कर चाहमान (चौहान) शासक प्रायः अपने सभी पड़ोसी राज्यों- गुजरात के चौलुक्यों, दिल्ली के तोमरों, मालवा के परमारों, जेजाकभुक्ति के चंदेलों और कन्नौज के गहडवालों से लड़ाइयों में उलझे रहे। 12वीं शताब्दी के अंतिम दशक में चाहमान शासक पृथ्वीराज तृतीय को मुहम्मद गोरी ने तराइन की दूसरी लड़ाई (1192 ई.) में निर्णायक रूप से पराजित किया और भारत में तुर्क सत्ता की बुनियाद डाली।
चाहमान (चौहान) राजवंश के ऐतिहासिक स्रोत
चाहमान राजवंश के इतिहास की जानकारी चौहान शासकों द्वारा खुदवाये गये लेखों तथा दानपत्रों के साथ-साथ साहित्यिक ग्रंथों और मुसलमान इतिहासकारों के विवरणों से मिलती है। इस राजवंश के प्रारंभिक इतिहास तथा वंशावली का ज्ञान विग्रहराज द्वितीय के 973 ई. (वि.सं. 1030) के हर्ष प्रस्तर-अभिलेख तथा सोमेश्वर के 1169 ई. (विक्रम संवत् 1226) के बिजोलिया प्रस्तर-अभिलेख से होता है। विग्रहराज चतुर्थ के 1164 ई. (वि.स.1220) के दिल्ली-शिवालिक स्तंभलेख से दिल्ली तथा समीपवर्ती क्षेत्रों पर उसके विजय की सूचना मिलती है। इन अभिलेखों के अलावा, रतनपाल के 1119 ई. (वि.सं. 1176) के सेवदी ताम्रपत्राभिलेख, अजमेर संग्रहालय से प्राप्त खंडित चौहान प्रशस्ति, चाचिगदेव के सुंधा पहाड़ी अभिलेख, दुर्लभराज के किनसरिया और सकराय लेख, शेखावटी क्षेत्र के जीणमाता मंदिर से प्राप्त लेखों के साथ-साथ अजयराज और उसकी रानी सोमल्लादेवी के चाँदी एवं ताँबे के सिक्के चाहमान (चौहान) राजवंश के इतिहास-निर्माण के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इन लेखों से चौहान राजाओं की उत्पत्ति, उनकी वंशावली, उनके सैनिक अभियान तथा तत्कालीन धार्मिक गतिविधियों की जानकारी मिलती है।
साहित्यिक स्रोतों में पृथ्वीराज के दरबारी कवि जयानकभट्ट का ‘पृथ्वीराजविजय’ महाकाव्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। चंदबरदाईकृत ‘पृथ्वीराजरासो’ और नयचंद्रसूरि के ‘हम्मीरमहाकाव्य’ से भी चौहान वंश के संबंध में उपयोगी सूचनाएँ मिलती हैं, किंतु इनका विवरण पृथ्वीराजविजय के विवरण जैसा प्रामाणिक नहीं है। विग्रहराज चतुर्थ के दरबारी सोमदेवकृत ‘ललितविग्रहराज’ और स्वयं विग्रहराज के ‘हरिकेलि’ नाटक भी चौहानों के इतिहास-निर्माण में सहायक हैं, जो अजमेर के सरस्वती मंदिर की दीवारों और सीढ़ियों पर उत्कीर्ण करवाये गये थे। इन साहित्यिक स्रोतों अलावा, बंगाली कवि चंद्रशेखर की ‘सुर्जनचरित’, मेरुतुंग की ‘प्रबंधचिंतामणि’, राजशेखरसूरि विरचित ‘प्रबंधकोश’, हेमचंद्रसूरिकृत ‘द्वयाश्रयकाव्य’ भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं। कर्नल जेम्स टॉड की रचना ‘राजस्थान का इतिहास’ भी ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी है।
समकालीन मुसलमान लेखकों के विवरणों से भी चाहमानकालीन इतिहास से संबंधित कुछ जानकारी मिलती है। अल्बरूनी की ‘किताब-उल-हिंद’ या ‘तहकीक-ए-हिंद’, उत्बी की ‘किताब-उल-यामिनी’, हसन निजामी की ‘ताज-उल-मासीर’, मिनहाजुद्दीन सिराज की ‘तबकात-ए-नासिरी’, फरिश्ता की ‘तारीख-ए-फरिश्ता’ और न्यामत खाँ की ‘क्यामखाँ रासो’ जैसी रचनाओं से चौहानकालीन राज्य, समाज और संस्कृति पर प्रकाश पड़ता है।
चाहमानों (चौहानों) की उत्पत्ति
उत्तर भारत में गुर्जर-प्रतिहारों के पतन के बाद शाकम्भरी के चाहमान (चौहान) साम्राज्य की स्थापना हुई। किंतु चाहमानों (चौहानों) की उत्पत्ति के संबंध में मतभेद है क्योंकि चाहमान अभिलेखों, साहित्यिक ग्रंथों और राजपूताने में प्रचलित जनश्रुत्तियों में इतनी अधिक भिन्नताएँ हैं कि किसी सर्वमान्य निर्णय पर पहुँचना कठिन है। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर जहाँ इतिहासकारों का एक वर्ग अन्य कई राजपूत जातियों की तरह चौहानों को विदेशी आक्रांताओं का वंशज बताता है, वहीं दूसरा वर्ग उनको भारतीय क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण मूल का मानता है।
चाहमानों (चौहानों) की विदेशी उत्पत्ति का सिद्धांत
कर्नल टॉड, विलियम क्रुक, स्मिथ, जेम्स कैपवेल और वेडेन पावेल जैसे पश्चिमी विद्वान चाहमानों की विदेशी उत्पत्ति के सिद्धांत को स्वीकार करते हैं। कर्नल टॉड के अनुसार परमार, प्रतिहार, चालुक्य और चाहमान नामक वीरों की उत्पत्ति सीथियनों से हुई है, जो भारत में एक लड़ाकू जाति के रूप में आये थे। टॉड का मुख्य तर्क यह था कि सीथियनों और भारतीय राजपूतों के अनेक रीति-रिवाज, धार्मिक विश्वास एवं पूजा-पद्धतियाँ एक समान थीं। विलियम क्रुक का मत था कि चाहमानों और अन्य तीन अग्निकुलीय वंशों- प्रतिहार, परमार और चौलुक्यों की उत्पत्ति के संबंध में आबू पर्वत का यज्ञ-संबंधी मिथक अग्नि द्वारा शुद्धि संस्कार का प्रतीक है, जिसके द्वारा विदेशियों को पवित्र कर उन्हें हिंदू वर्णव्यवस्था में उचित स्थान दिया गया। स्मिथ भी तथाकथित अग्निकुलीय वंशों को गुर्जर अथवा गुर्जरों (विदेशियों) की संतान मानते थे। जेम्स कैम्पबेल और बेडेन पावेल जैसे अन्य विदेशी लेखकों ने भी प्रायः इसी प्रकार के विदेशी उत्पत्ति के मत का प्रतिपादन किया है।
किंतु चाहमानों की विदेशी उत्पत्ति का सिद्धांत काल्पनिक है क्योंकि चाहमानों का विदेशी सिथियनों अथवा गुर्जरों से संबद्ध होने का कोई भी प्रमाण भारतीय साहित्य में नहीं मिलता है और अभिलेखों के प्रमाण भी बिल्कुल भिन्न हैं। चंदबरदाई के पृथ्वीराजरासो जैसे ग्रंथों की आबू के यज्ञकुंड से चार राजपूत वंशों की उत्पत्ति-संबंधी कथा भी बहुत बाद की है, इसलिए वह विश्वसनीय नहीं है।
चाहमानों की विदेशी गुर्जरों (हूणों) की किसी शाखा से उत्पत्ति का सिद्धांत को डी.आर. भंडारकर जैसे कई भारतीय इतिहासकारों ने भी स्वीकार कर लिया। चूंकि प्रतिहार ‘गुर्जर’ कहे गये हैं और उनके साथ अन्य तीन राजवंश भी अग्निकुल से उत्पन्न बताये गये हैं, इसलिए भंडारकर का अनुमान है कि वे सभी गुर्जर जाति के थे। इन गुर्जरों को मूलतः उन खजरों से समीकृत किया जाता है, जो हूणों के साथ भारत में 5वीं-6वीं शताब्दियों में आये थे और संभवतः किसी आक्रमणकारी जाति के पुरोहित थे।
किंतु भंडारकर का तर्क भी निराधार है क्योंकि भारत में हूणों के साथ खजर नामक किसी जाति के आने का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। माउंट आबू के यज्ञकुंड से वसिष्ठ आदि ऋषियों के मंत्र से चाहमानों की उत्पत्ति की पौराणिक कथाएँ पूर्णतः अनैतिहासिक और अविश्वसनीय हैं और इस आधार पर चाहमानों के विदेशी मूल का सिद्धांत भी परिकल्पित और तत्त्वहीन प्रतीत होता है।
चाहमानों (चौहानों) की भारतीय उत्पत्ति का सिद्धांत
चाहमान अभिलेखों और साहित्यिक स्रोतों के आधार पर प्रायः माना जाता है कि चाहमान मूलतः शुद्ध भारतीय हैं, जिन्होंने भारतीय धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए म्लेच्छों से संघर्ष किया था। किंतु विभिन्न स्रोतों के आधार पर इतिहासकारों ने उन्हें चंद्रवंशी, सूर्यवंशी अथवा ब्राह्मण मूल का स्वीकार किया है।
क्षत्रिय मूल के प्रमाण
यद्यपि पृथ्वीराज द्वितीय के हाँसी अभिलेख में चाहमानों (चौहानों) को ‘चंद्रवंशी’ बताया गया है और चाहमान स्वयं भी गोत्रोच्चार में अपने को ‘चंद्रवंशी’ कहते हैं। किंतु राजा रतनपाल के वि.सं. 1176 (1119 ई.) के सेवदी ताम्रपत्राभिलेख में कहा गया है कि प्राचीदिग्पति इंद्र की आँखों से एक व्यक्ति निकला, जिससे चाहमान वंश का उदय हुआ। इस लेख में इंद्र को बारह आदित्यों में एक मानकर चाहमानों को ‘सूर्यवंशी’ बताया गया है। विग्रहराज चतुर्थ ‘बीसलदेव’ के सरस्वती मंदिर (अढ़ाई दिन का झोपड़ा) लेख में भी कहा गया है कि अजमेर के चौहान वंश का संस्थापक इक्ष्वाकु और राम के कुल (रघुवंश) में उत्पन्न हुआ था। इसी प्रकार पृथ्वीराज तृतीय की बेदला प्रशस्ति में चाहमानों को ‘सूर्यवंशी’ बताया गया है। जयानकभट्टकृत पृथ्वीराजविजय में भी चाहमानों के प्रथम राजा वासुदेव की उत्पत्ति ‘सूर्यकुल’ (अर्कमंडल) से बताई गई है।
चाहमानों (चौहानों) की उत्पत्ति के संबंध में नयचंद्रसूरि (15वीं शती) के हम्मीरमहाकाव्य से पता चलता है कि ब्रह्मा ने कमल गिरने वाले स्थान पुष्कर (राजस्थान) में एक यज्ञ आरंभ किया। ब्रह्मा के यज्ञ की दानवों से रक्षा के लिए सूर्यमंडल से ‘चौहान’ नामक एक वीर निकला, जो अपने वंशवृक्ष का मूल था। रणथम्भौर के राणा सुर्जन के बंगाली दरबारी कवि चंद्रशेखर के सुर्जनचरित में भी चाहमानों की उत्पत्ति परंपरा प्रायः इसी रूप में बताई गई है।
ब्राह्मण मूल के प्रमाण
अनेक चौहान अभिलेखों से यह भी संकेत मिलता है कि चाहमान ब्राह्मण थे। सोमेश्वर के 1170 ई. के बिजोलिया प्रस्तर-अभिलेख में कहा गया है कि अनेक सामंतों वाला सामंतराज नामक विप्र अहिछत्रपुर में श्रीवत्सगोत्र में पैदा हुआ। यह सामंतराज चाहमानों (चौहानों) का प्रारंभिक शासक था। चाचिगदेव (1261-1281 ई.) के सुंधा पहाड़ी अभिलेख में भी प्रथम चाहमान को वत्सऋषि की आँख से उत्पन्न और उनके लिए आह्लादकारक बताया गया है। इसकी पुष्टि लुष्टिगदेव के आबू शिखराभिलेख (वि.सं. 1377) और जान न्यामत खाँ के क्यामखाँ रासो से भी होती है। इन विभिन्न साक्ष्यों के आलोक में कई इतिहासकार चाहमानों के मूलपुरुष को ब्राह्मण स्वीकार करते हैं।
इस प्रकार चाहमान (चौहान) अभिलेखों से उनके ब्राह्मण और क्षत्रिय, दोनों होने के प्रमाण मिलते हैं। चाहमानों के पूर्वज मूलतः वत्स नामक ब्राह्मण ऋषि के वंश में उत्पत्र हुए थे, इसलिए वे स्वयं को ‘वत्सगोत्री’ भी कहते हैं। अभिलेखीय साक्ष्यों से भी स्पष्ट है कि चाहमान मूलतः वत्सऋषि के वंशज थे, किंतु उनके पूर्वज बहुत समय पहले ब्राह्मण-वृत्ति छोड़कर क्षत्रिय-वृत्ति अपना लिये थे। इस वर्ण-परिवर्तन के बाद उन्हें रघुकुल से जोड़ दिया गया, जिनके प्रमाण ग्रंथों और अभिलेखों में मिलते हैं। इस प्रकार चाहमानों को ‘सूर्यवंशी’ क्षत्रिय माना जा सकता है।
चाहमानों (चौहानों का मूल-स्थान
साहित्यिक स्रोतों और अभिलेखों में चौहानों को ‘सपादलक्ष’ देश का शासक बताया गया है। पृथ्वीराजविजय से संकेत मिलता है कि चौहान वंश के प्रथम शासक वासुदेव की राजधानी सांभर के निकट अनंतदेश में स्थित थी और पुष्कर क्षेत्र ही उनका मूलस्थान था। इसकी पुष्टि हम्मीरमहाकाव्य और सुर्जनचरित जैसे ग्रंथों से भी होती है।
कुछ अभिलेखों में भी चाहमानों का संबंध अनंतदेश और अहिछत्रपुर नामक राजधानी से बताया गया है। अनेक साहित्यिक ग्रंथों में उनके शासित क्षेत्रों को ‘जांगलदेश’ की संज्ञा दी गई है। इस प्रकार साक्ष्यों से स्पष्ट है कि चाहमान मूलतः शाकम्भरी क्षेत्र (सांभर) में उदित हुए और उनकी प्रारंभिक राजधानी अहिछत्रपुर थी। बाद में, उन्होंने अजमेर नगर को राजधानी बना लिया और वहाँ से उत्तर-पूर्व की ओर बढ़ते हुए दिल्ली सहित गंगा-यमुना की घाटी के ऊपरी भागों पर अधिकार कर लिया।
डॉ. भंडारकर चाहमानों (चौहानों) की उत्पत्ति खजरों से जोड़कर सपालदक्ष और जांगलदेश को हिमालय की तराई में स्थित शिवालिक पहाड़ी के क्षेत्रों से जोड़ते है और मानते हैं कि चाहमानों की प्रारंभिक राजधानी अहिछत्र वहीं कहीं स्थित थी। उनका अनुमान है कि हिमालय के उन निचले प्रदेशों से ही चाहमान राजपूताने की ओर गये और अपने विजित प्रदेशों को सपादलक्ष नाम दिये।
किंतु डॉ. भंडारकर के तर्क इस असत्य धारणा पर आधारित है कि चाहमानों (चौहानों) के पूर्वज विदेशी खजर जाति के थे, जो राजपूताने में अंतिम रूप से पहुँचने के पहले कई स्थानों से गुजर चुके थे। वास्तव में, चाहमान सत्ता का प्रारंभ और विस्तार मारवाड़ के उत्तरी-पूर्वी हिस्सों से होते हुए उत्तर और उत्तर-पूर्व की ओर अजमेर-दिल्ली तक हुआ था। अनेक इतिहासकार अहिछत्र की पहचान मारवाड़ के नागोर (प्राचीन नाम नागपुर) नामक नगर से करते हैं।
डॉ. दशरथ शर्मा का मानना है कि चूंकि प्रथम चाहमान शासक वासुदेव को सांभर (शाकम्भरी) का शासक बताया गया है और इस वंश के दूसरे प्रारंभिक राजा नरदेव को ‘पुंतला का शासक’ कहा गया है। अतः अहिछत्र पुंतला और सांभर के बीच कहीं स्थित था। बहरहाल, अहिछत्र चाहे जहाँ भी रहा हो, सपादलक्ष और जांगलदेश की पहचान प्रायः असंदिग्ध और सर्वस्वीकृत है। ‘सपादलक्ष’ का शाब्दिक अर्थ है- सवा लाख और उस युग में सवा लाख गाँवों वाले कई क्षेत्रों के लिए यह नाम प्रयुक्त होता था। स्कंदपुराण में ‘सर्वभर’ अथवा ‘शाकम्भर’ (साम्भर) अर्थात् सपादलक्ष के उल्लेख से स्पष्ट है कि सपादलक्ष सांभर का विशेषण था, जो बाद में सांभर झील के आसपास के क्षेत्रों के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा। इसी प्रकार ‘जांगलदेश’ नाम उसकी वन्य स्थितियों का सूचक था। अतः मरुभूमि में स्थित सांभरक्षेत्र को चाहमानों का मूल स्थान माना जाना चाहिए।
शाकम्भरी के चाहमान वंश का राजनीतिक इतिहास
शाकम्भरी की चाहमान शाखा के प्रारंभिक इतिहास और वंशावली की जानकारी विग्रहराज द्वितीय के वि.सं. 1030 के हर्ष अभिलेख, सोमेश्वर के वि.सं. 1126 के बिजोलिया प्रस्तर-अभिलेख और पृथ्वीराज तृतीय के दरबारी कवि जयानकभट्ट के पृथ्वीराजविजय से होती है। हर्ष अभिलेख में गुवक प्रथम के पूर्व के राजाओं का नाम नहीं मिलता है, किंतु बिजोलिया अभिलेख तथा पृथ्वीराजविजय में चाहमान वंश का इतिहास क्रमशः सामंतराज और वासुदेव के समय से ही मिलता है। नयचंद्रसूरि के हम्मीरमहाकाव्य और चंद्रशेखर के सुर्जनचरित में भी पृथ्वीराजविजय के आधार पर ही चाहमान वंशावली और इतिहास मिलता है।
शाकम्भरी के आरंभिक चाहमान शासक
पृथ्वीराजविजय से संकेत मिलता है कि इस वंश का आदिपुरुष चाहमान नामक एक मिथकीय राजा था। इसी मूलपुरुष के नाम पर इस वंश को चाहमान नाम मिला। किंतु सपादलक्ष के चाहमान वंश का संस्थापक और प्रथम शासक वासुदेव था। पृथ्वीराजविजय तथा सुर्जनचरित से ज्ञात होता है कि वह लगभग छठी शताब्दी ईस्वी में शाकम्भरी के आसपास के प्रदेशों पर शासन कर रहा था। उसे शाकम्भरी देवी की कृपा से सांभर क्षेत्र मिला था, इसलिए उसने ‘शाकम्भरीश्वर’ की उपाधि धारण की थी। राजशेखर के प्रबंधकोश में वासुदेव की तिथि वि.सं. 608 (551 ई.) बताई गई है।
वासुदेव के बाद सामंतराज (684-709 ई.) चाहमान वंश का दूसरा शासक हुआ, किंतु वासुदेव से उसका संबंध स्पष्ट नहीं है। बिजोलिया अभिलेख में उसे ब्राह्मण ऋषि वत्स के गोत्र में उत्पन अनंतदेश का शासक बताया गया है, जिसकी राजधानी अहिछत्रपुर थी। पृथ्वीराजविजय के अनुसार वह ‘अनेक सामंतों का स्वामी’ था। सामंतराज ने संभवतः 684-709 ई. के बीच शासन किया था।
सामंतराज का उत्तराधिकारी नरदेव अथवा पूर्णतल्ल (709-721 ई.) हुआ, जिसे बिजोलिया अभिलेख में पुंतला (जोधपुर का एक गाँव) का शासक बताया गया है। उसके बाद सामंतराज के पुत्र जयराज अथवा अजयराज प्रथम (721-734 ई.) चाहमान वंश के राजा हुए। यद्यपि अजयराज की किसी राजनीतिक उपलब्धि की जानकारी नहीं है, किंतु कहा जाता है कि उसने अजमेर के दुर्ग (अजयमेरु) और नगर की स्थापना की थी।
अजयराज प्रथम के बाद उसके पुत्र विग्रहराज प्रथम (734-759 ई.) और फिर उसके दो पौत्रों- चंद्रराज प्रथम (759-771 ई.) और गोपेंद्रराज (771-784 ई.) ने क्रमशः शासन किया। किंतु इनके संबंध में कोई महत्त्वपूर्ण राजनीतिक सूचनाएँ नहीं मिलती हैं। शाकम्भरी के आरंभिक चाहमान शासक स्थानीय सामंत के रूप में शासन करते रहे और राजस्थान और मालवा के प्रतिहारों की अधीनता स्वीकार करते थे।
गोपेंद्रराज का उत्तराधिकारी दुर्लभराज प्रथम ( 784-809 ई.) हुआ, जिसे चंद्रराज का पुत्र कहा गया है। दुर्लभराज प्रथम प्रतिहार नरेश वत्सराज का सामंत था और अपने स्वामी की ओर से त्रिकोणात्मक संघर्ष में भाग लिया था। पृथ्वीराजविजय के अनुसार उसने ‘अपनी तलवार को गंगा और समुद्र के संगम स्थल (गंगासागर) में स्नान कराया और गौड़ देश का भोग (रसास्वाद) अर्थात् विजय की।’ किंतु दुर्लभराज प्रथम जैसे छोटे शासक के लिए अपनी शक्ति के बल पर पूर्व दिशा में बढ़कर गौड़देश की विजय करना और गंगासागर के पवित्र स्थल तक युद्ध करना संभव नहीं था।
इतिहासकारों का अनुमान है कि उसने यह सैनिक अभियान संभवतः प्रतिहारों के सहयोगी के रूप में बंगाल के पालों के विरूद्ध किया था। राधनपुर अभिलेख से पता चलता है कि वत्सराज ने गौड़राज की लक्ष्मी को अपने अधीन कर उसके दो धवलछत्रों को उसके यश के साथ ही छीन लिया था। संभवतः वत्सराज के सैनिक सहायकों में दुर्लभराज प्रमुख था।
दुर्लभराज के बाद उसका पुत्र गूवक प्रथम ( 809-836 ई.) शाकम्भरी के चाहमान वंश का शासक हुआ। हर्ष प्रस्तर-अभिलेख के अनुसार गूवक प्रथम नागावलोक के दरबार में वीर के रूप में प्रतिष्ठा पाई थी (श्रीमन्नागावलोक प्रवरनृपसभालब्धवीर प्रतिष्ठः)। यह नागावलोक वत्सराज का पुत्र और उत्तराधिकारी नागभट्ट द्वितीय था। संभवतः अपने पिता दुर्लभराज प्रथम की तरह गूवक प्रथम ने भी धर्मपाल के विरुद्ध नागभट्ट की सैनिक सहायता की थी। हर्ष प्रस्तर-अभिलेख से पता चलता है कि उसने अपने कुलदेवता श्री हर्षदेव के मंदिर का निर्माण करवाया था।
गूवक प्रथम के पुत्र और उत्तराधिकारी चंद्रराज द्वितीय (शशिनृप) ( 836-863 ई.) के बारे में कोई विशेष सूचना नहीं मिलती है। किंतु उसका पुत्र गूवक द्वितीय ( 863-890 ई.) अपने पितामह की तरह वीर था। पृथ्वीराजविजय से ज्ञात होता है कि उसने कान्यकुब्ज सम्राट् (संभवतः भोज प्रथम) से अपनी बहन कलावती का विवाह कर प्रतिहार-चाहमान संबंधों को मजबूत किया था।
गूवक द्वितीय का उत्तराधिकारी उसका पुत्र चंदनराज ( 890-917 ई.) हुआ। उसने प्रतिहारों से अपनी मित्रता का लाभ उठाकर अपने राज्य-विस्तार के लिए पड़ोसी राज्यों से संघर्ष किया। हर्ष प्रस्तर-अभिलेख से सूचना मिलती है कि चंदनराज ने दिल्ली पर शासन करने वाले तोमर नरेश ‘रुद्र’ (रुदेन) को पराजित कर मार डाला था (हत्वा रुद्रेन भूपम् समरभुवि बलाद्येन लब्धा जयश्री)। इस प्रकार चंदनराज की विस्तारवादी नीति से चाहमानों और तोमरों के बीच एक दीर्घकालिक संघर्ष आरंभ हो गया, जो विग्रहराज चतुर्थ ‘बीसलदेव’ द्वारा दिल्ली पर अधिकार करने के बाद ही समाप्त हुआ।
पृथ्वीराजविजय से ज्ञात होता है कि चंदनराज की रानी रुद्राणी अथवा आत्मप्रभा महान् शिवभक्त थी और अपने सत्कार्यों के कारण एक योगिनी के रूप में प्रसिद्ध थी। उसने पुष्कर झील के चारों ओर प्रकाश के लिए 1000 प्रकाश-स्तंभों को स्थापना करवाई थी।
चंदनराज के बाद उसकी रानी रुद्राणी से उत्पन्न पुत्र वाक्पतिराज ( 917-944 ई.) राजा हुआ, जिसे ‘वप्यराज’ तथा ‘मनिकराय’ के नाम से भी जाना जाता है। वाक्पतिराज ने अपनी शक्ति सुदृढ़ करने के लिए चंदेल नरेश हर्ष के साथ वैवाहिक सबध स्थापित किया और गुर्जर-प्रतिहार आधिपत्य से मुक्त होने का प्रयास किया। वाक्पतिराज ‘महाराज’ की उपाधि धारण करने वाला पहला चाहमान शासक था।
संभवतः इस समय राष्ट्रकूट शासक इंद्र के आक्रमणों से प्रतिहारों की शक्ति क्षीण पड़ गई थी, जिसके कारण वाक्पति जैसे सामंतों पर उनकी पकड़ ढ़ीली पड़ गई थी। पृथ्वीराजविजय में वाक्पतिराज को 188 विजयों का श्रेय दिया गया है। यद्यपि यह अतिशयोक्ति है, किंतु यह संभव है कि प्रतिहार-राष्ट्रकूट संघर्ष का लाभ उठाकर अपनी सत्ता-विस्तार के लिए वाक्पति ने कई युद्धों में भाग लिया हो।
हर्ष प्रस्तर-लेख से पता चलता है कि किसी ‘तंत्रपाल’ ने अपने अधिराज (क्षमाभर अर्थात् पृथ्वीपति) की आदेश से चाहमानों के अनंत क्षेत्र पर हमला किया था, जिसे वाक्पतिराज ने वापस खदेड़ दिया था। प्रायः माना जाता है कि तंत्रपाल गुर्जर-प्रतिहार सम्राट् महीपाल का कोई राज्यपाल अथवा सूबेदार था, जिसका नाम क्षमापाल था।
संभवतः राष्ट्रकूटों के प्रत्यावर्तन के बाद प्रतिहारों ने चाहमानों को पुनः अपने अधीन करने का प्रयास किया, किंतु वाक्पतिराज की तीव्रगामी घुड़सवार सेना ने तंत्रपाल की हस्तिसेना को पराजित कर खदेड़ दिया था। हर्ष प्रस्तर-लेख में उसकी ‘महाराज’ उपाधि से लगता है कि उसने प्रतिहारों की अधीनता से स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया था।
वाक्पतिराज संभवतः शैवमतावलंबी था। पृथ्वीराजविजय के अनुसार उसने पुष्कर में वोमकेश (शिव) के एक मंदिर का निर्माण करवाया था। उसने संभवतः 917 ई. से 944 ई. तक शासन किया।
वाक्पति के कम से कम तीन पुत्रों- सिंहराज, लक्ष्मण और वत्सराज की सूचना मिलती है। उसके बाद सिंहराज शाकम्भरी के सिंहासन पर बैठा, जबकि लक्ष्मण ने नड्डुल (नाडोल) में चाहमान राजवंश की एक अन्य शाखा स्थापित की। वत्सराज ने हर्षनाथ मंदिर को कर्दमकखाता गाँव दान में दिया था।
वाक्पतिराज के बाद उसका पुत्र सिंहराज (944-971 ई.) दसवीं शताब्दी के मध्य में चाहमान राज्य की गद्दी पर बैठा। किंतु बिजोलिया शिलालेख में वाक्पति और सिंहराज के बीच एक विंध्यनरपति (विंध्यराज) का नाम मिलता है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार ‘विंध्यनरपति’ (विंध्यराज) वाक्पति की उपाधि थी, जो उसने विंध्यवती क्षेत्र (बिजोलिया के आसपास) पर विजय करके प्राप्त की थी। दशरथ शर्मा के अनुसार विंध्यनरपति संभवतः सिंहराज का बड़ा भाई था और उसने बहुत कम समय तक शासन किया।
सिंहराज (944-971 ई.) शाकंभरी के चाहमान राजवंश का पहला शासक था, जिसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की थी, जिससे लगता है कि वह अपने पूर्वजों के अधिपति गुर्जर-प्रतिहारों से लगभग स्वतंत्र हो गया था।
हर्ष प्रस्तर-अभिलेख से पता चलता है कि सिंहराज ने तोमर नायक सलवन को मारकर उसके सहायक मित्रों को या तो भगा दिया अथवा बंदीगृह में डाल दिया, जिन्हें छुड़ाने के लिए स्वयं ‘रघुकुल भूचक्रवर्ती’ को उसके सम्मुख उपस्थित होना पड़ा था। रघुकुल भूचक्रवर्ती संभवतः कमजोर प्रतिहार सम्राट् विजयपाल था और सलवन संभवतः दिल्ली के तोमर राजा तेजपाल (940-1110 ई.) का कोई सेनापति रहा होगा। सिंहराज द्वारा तोमर नायक सलवन के मारे जाने से स्पष्ट है कि तोमरों से संघर्ष का जो क्रम चंदनराज के समय में आरंभ हुआ था, वह अभी भी चल रहा था और अब प्रतिहार नरेश चाहमानों को नियंत्रित करने में असमर्थ थे। हम्मीरमहाकाव्य में सिंहराज को कर्णात, लाट, गुजरात, चोल और अंग राजाओं को पराजित करने का श्रेय दिया गया है, किंतु इन विजयों का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है।
प्रबंधकोश और हम्मीरमहाकाव्य से ज्ञात होता है कि सिंहराज ने हेजिमुद्दीन अथवा हेतिम नामक किसी मुसलमान सेनापति को ‘जेठन’ (संभवतः आधुनिक जेठन) नामक स्थान पर पराजित कर मार डाला। हम्मीरमहाकाव्य के अनुसार सिंहराज ने उसे (हेतिम) मारने के बाद उसके चार हाथियों को पकड़ लिया। किंतु अभिलेखों अथवा पृथ्वीराजविजय में इस घटना का कोई उल्लेख नहीं है और पराजित सेनापति की पहचान भी स्पष्ट नहीं है। संभवतः वह मुल्तान के सुल्तान का कोई अधीनस्थ रहा था। जो भी हो, सिंहराज की ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि से लगता है कि उसे अपने पड़ोसियों के विरुद्ध कुछ सैन्य सफलताएँ मिली थीं।
पृथ्वीराजविजय से पता चलता है कि सिंहराज अपने पिता की तरह कट्टर शैव था और उसने पुष्कर में एक विशाल शिव मंदिर बनवाया था। उसने हर्षदेव मंदिर का भी विस्तार किया और उसके रख-रखाव के लिए नामक चार गाँव दान दिया था। किनसरिया शिलालेख से संकेत मिलता है कि वह तर्क का जानकार (नय-सूत्र-युक्तः) था।
स्वतंत्र चाहमान सत्ता का विकास
विग्रहराज द्वितीय (971-998 ई.)
सिंहराज के बाद उसके चार पुत्रों- विग्रहराज, दुर्लभराज द्वितीय, चंद्रराज और गोविंदराज- में विग्रहराज द्वितीय (971-998 ई.) शाकम्भरी के चाहमान राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। विग्रहराज द्वितीय सांभर के आरंभिक चौहान शासकों में सबसे प्रतापी था, जिसने दक्षिण की ओर नर्मदा तक सैनिक अभियान किया था। किंतु लगता है कि उसका राज्यारोहण संभवतः कठिन परिस्थितियों में हुआ था क्योंकि हर्ष प्रस्तर-लेख में उसे अपने वंश की राजलक्ष्मी और विजयश्री का कष्ट से उद्धार करने वाला बताया गया है। संभवतः उसे किसी शत्रु अथवा शत्रुसंघ के आक्रमण का सामना करना पड़ा था।
चाहमान मूल रूप से गुर्जर-प्रतिहारों के सामंत थे। यद्यपि सिंहराज ने गुर्जर-प्रतिहारों की दुर्बलता का लाभ उठाते हुए सबसे पहले ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की थी, किंतु विग्रहराज द्वितीय संभवतः शाकम्भरी के चाहमान वंश का पहला वास्तविक स्वतंत्र शासक था।
गुजरात के चौलुक्यों के विरूद्ध सफलता
विग्रहराज को प्रमुख सफलता गुजरात के चौलुक्य शासक मूलराज प्रथम के विरुद्ध मिली थी। जयानकभट्ट के पृथ्वीराजविजय और चंद्रशेखर के सुर्जनचरित से ज्ञात होता है कि विग्रहराज ने मूलराज को पराजित कर कंथादुर्ग (आधुनिक कंठकोट) में शरण लेने को विवश किया और उसके राज्य के बीच से होकर भृगुकच्छ पहुँचकर वहाँ आशापुरी देवी के मंदिर का निर्माण करवाया। 15वीं शताब्दी के हम्मीरमहाकाव्य का दावा है कि इस युद्ध में मूलराज मारा गया था और विग्रहराज ने उसके क्षेत्र को छीन लिया था।
विग्रहराज के चौलुक्य क्षेत्रों पर आक्रमण की पुष्टि 14वीं शताब्दी के मेरुतुंग के प्रबंधचिंतामणि से भी होती है। प्रबंधचिंतामणि के अनुसार सपादलक्ष के विग्रहराज ने गुजरात पर आक्रमण उस समय किया, जब तिलंगदेश के तैलिप (कल्याणी के चालुक्यवंश के संस्थापक द्वितीय तैलप) की सेनाओं ने बारप्प के नेतृत्व में उस पर दूसरी ओर से आक्रमण किया था। मेरुतुंग से पता चलता है कि दोनों शत्रुओं से एक साथ निपटने में असमर्थ मूलराज ने चाहमान शासक से संधि कर ली और इसके बाद बारप्प के नेतृत्व वाली चौलुक्य सेना को हरा दिया। चूँकि विग्रहराज की इस उपलब्धि का उल्लेख हर्ष प्रस्तर-लेख में नहीं मिलता है, जिससे लगता है कि विग्रहराज ने 973 ई. के बाद ही मूलराज को हराया होगा। हम्मीरमहाकाव्य का यह दावा सही नहीं है कि मूलराज विग्रहराज के हाथों मारा गया।
लाट के चौलुक्यों की पराजय
पृथ्वीराजविजय के अनुसार विग्रहराज ने नर्मदा नदी के आसपास के क्षेत्र पर आक्रमण किया और चंद्रवंश के एक राजा को अपने अधीन किया। अपनी विजय के बाद उसने नर्मदा के तट पर भृगुकच्छ (आधुनिक भरूच) में देवी आशापुरी का एक मंदिर बनवाया। उस समय भृगुकच्छ पर लाट चालुक्यों का शासन था, जो मूलतः कल्याणी के चालुक्यों के सामंत थे। ऐसा लगता है कि विग्रहराज ने मूलराज के साथ मिलकर लाट के चालुक्य सामंत बारप्प (वरप्प) को हराया था, जो कभी कल्याणी के चालुक्यों का सेनापति था। इस प्रकार विग्रहराज एक शक्तिशाली शासक था, जिसने दक्षिण की ओर नर्मदा नदी तक सैनिक अभियान किया।
गजनवियों से युद्ध
16वीं सदी के मुस्लिम इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार 997 ई. में अजमेर का शासक लाहौर के शासक द्वारा ग़ज़नवी शासक सबुकतिगिन के विरुद्ध गठित गठबंधन में शामिल था। चूंकि उस समय विग्रहराज का अजमेर क्षेत्र पर शासन था, इसलिए ऐसा लगता है कि उसने गजनवियों के विरूद्ध युद्ध किया था। किंतु फ़रिश्ता के विवरण की प्रमाणिकता संदिग्ध है क्योंकि पहले के मुस्लिम इतिहासकारों के विवरणों में ऐसे किसी गठबंधन की चर्चा नहीं मिलती है।
विग्रहराज एक धार्मिक शासक था। हर्ष प्रस्तर-लेख के अनुसार उसने हर्षदेव मंदिर के रखरखाव के लिए क्षत्रचर एवं शंकरंक नामक दो गाँवों का दान दिया था।
दुर्लभराज द्वितीय (998-1012 ई.)
विग्रहराज द्वितीय के संभवतः कोई पुत्र नहीं था। अतः उसके बाद उसका छोटा भाई (सिंहराज का पुत्र) दुर्लभराज द्वितीय (998-1012 ई.) शाकम्भरी के चाहमान वंश का राजा हुआ। विग्रहराज के प्रस्तर-लेख में दोनों भाइयों की तुलना ‘राम-लक्ष्मण और कृष्ण-बलराम से की गई है।
दुर्लभराज के 999 ई. के दो शिलालेख राजस्थान के किनसरिया और सकराय में मिले हैं। सकराय शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की थी। किनसरिया शिलालेख में दुर्लभराज को ‘दुर्लध्यमेरु’ (जिसकी आज्ञा का उल्लंघन न किया जा सके) कहा गया है। शिलालेख से यह भी ज्ञात होता है कि उसने असोसित्तन या रसोशित्तन मंडल की विजय की थी। इतिहासकारों ने इसकी पहचान रोहतक से की है, जिसे दुर्लभ ने संभवतः तोमर राजा से छीन लिया था।
प्रारंभिक मध्ययुगीन मुसलमान इतिहासकारों के अनुसार अजमेर का चौहान शासक 1008 ई. में गजनी के महमूद के विरूद्ध आनंदपाल का समर्थन करने के लिए राजाओं के संघ में सम्मिलित हुआ था। कुछ इतिहासकार इस चाहमान शासक की पहचान दुर्लभराज के रूप में करते हैं। किंतु यह संघ महमूद को भारतीय क्षेत्रों को बार-बार लूटने से रोकने में विफल रहा।
गोविंदराज द्वितीय (1012-1026 ई.)
दुर्लभराज द्वितीय के बाद उसका पुत्र गोविंदराज द्वितीय (1012-1026 ई.) चाहमान (चौहान) वंश का उत्तराधिकारी हुआ, जिसे ‘गंडू’ के नाम से भी जाना जाता था। पृथ्वीराजविजय के अनुसार उसने ‘वैरिधरट्ट’ (शत्रुओं को पीसने वाला) की उपाधि धारण की थी।
प्रबंधकोष में दावा किया गया है कि गोविंदराज ने गजनी के सुल्तान महमूद को हराया। किंतु यह दावा संदिग्ध है, क्योंकि इस विजय का उल्लेख पृथ्वीराजविजय जैसे ग्रंथों में नहीं मिलता है। 16वीं सदी के मुसलमान इतिहासकार फरिश्ता से पता चलता है कि महमूद गजनवी 1024 ई. में मुल्तान से अजमेर होते हुए गुजरात गया था और गुजरात को लूटने के बाद सिंध के रास्ते मुल्तान वापस आ गया था। संभवतः उसने राजपूत राजाओं के संघ से बचने के लिए ऐसा किया था।
वाक्पतिराज द्वितीय (1026-1040 ई.)
गोविंदराज के बाद उसका पुत्र वाक्पतिराज द्वितीय (1026-1040 ई.) शाकम्भरी के चौहान वंश का राजा हुआ, जिसे प्रबंधकोश में ‘वल्लभ’ कहा गया है। पृथ्वीराजविजय से पता चलता है कि वाक्पतिराज द्वितीय ने आघाट (अहाड़) के शासक अंबाप्रसाद को पराजित कर उसकी हत्या कर दी। कुछ इतिहासकार अंबाप्रसाद की पहचान गुहिलवंशी अमरप्रसाद से करते हैं। इस प्रकार वाक्पतिराज द्वितीय के समय में ही गुहिलों और चाहमानों के बीच संघर्ष की शुरूआत हुई।
सुर्जनचरित, हम्मीरमहाकाव्य और प्रबंधकोश जैसे कुछ परवर्ती ग्रंथों में वाक्पति को मालवा के परमार राजा भोज (1010-1055 ई.) और चेदि देश के राजा गांगेयदेव अथवा कर्ण को भी पराजित करने का श्रेय दिया गया है, किंतु इन स्रोतों की प्रामाणिकता संदिग्ध है।
वीर्याराम (1040 ई.)
वाक्पति का उत्तराधिकारी उसका पुत्र वीर्याराम (1040 ई.) हुआ, किंतु उसने बहुत कम समय तक शासन किया। पृथ्वीराजविजय से पता चलता है कि परमार राजा भोज ने वीर्याराम की हत्या कर दी। इतिहासकारों का अनुमान है कि वीर्याराम की हत्याकर परमार भोज ने कुछ समय के लिए चाहमान राजधानी शाकम्भरी पर अधिकार कर लिया था।
चामुंडराज (1040-1065 ई.)
वीर्यराम का उत्तराधिकारी उसका भाई चामुंडराज (1040-1065 ई.) हुआ। चाचिगदेव के सुंधा पहाड़ी अभिलेख से ज्ञात होता है कि चामुंडराज ने नाडोल के चाहमान शासक अण्हिल की सहायता से परमारों को पराजित कर पीछे खदेड़ दिया और अपनी राजधानी पर पुनः अधिकार कर लिया। इस युद्ध में अण्हिल ने परमारराज भोज के साढ़ नामक सेनापति को मार डाला।
प्रबंधकोष, हम्मीरमहाकाव्य और सुर्जनचरित सहित कई ग्रंथों से लगता है कि चामुंडराज ने एक मुस्लिम सेना को पराजित किया था। प्रबंधकोष में उसे ‘सुल्तान का हत्यारा’ बताया गया है, जबकि हम्मीरमहाकाव्य में कहा गया है कि उसने हेजिमुद्दीन को हराकर मार डाला था। इसकी पुष्टि सुर्जनचरित से भी होती है। चूंकि चाहमान (चौहान) साम्राज्य की सीमा गजनवी साम्राज्य की सीमा से मिलती थी, इसलिए लगता है कि चामुंडराज द्वारा मारा गया ‘सुल्तान’ महमूद गजनवी का कोई उत्तराधिकारी या सेनापति था। इस प्रकार चामुंडराज को मुस्लिम आक्रमण को विफल करने का श्रेय दिया जा सकता है।
चामुंडराज एक निर्माण-प्रेमी शासक था। पृथ्वीराजविजय के अनुसार उसने नरपुर (आधुनिक नरवर) में एक विष्णुमंदिर का निर्माण करवाया था।
दुर्लभराज तृतीय (1065-1079 ई.)
चामुंडराज के बाद उसका पुत्र दुर्लभराज तृतीय (1065-1070 ई.) चौहान वंश का राजा हुआ, जिसे ‘वीरसिंह’ और ‘दुशाला’ के नाम से भी जाना जाता है। साहित्यिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि दुर्लभराज तृतीय ने पश्चिम दिशा में बढ़कर गुजरात के चौलुक्य राजा कर्णदेव (1064-1094 ई.) को पराजित किया था। प्रबंधकोश में दावा किया गया है कि उसने (दुर्लभराज) चौलुक्यनरेश को हराया, उसे जंजीरों में बाँधकर अपनी राजधानी अजमेर लाया और उसे मदिरा बेचने के लिए विवश किया। किंतु हम्मीरमहाकाव्य की यह सूचना सत्य नहीं है कि कर्ण उसके हाथों मारा गया था, क्योंकि दुर्लभ की मृत्यु के बाद भी कर्ण शासन कर रहा था। पृथ्वीराजविजय के अनुसार कर्ण दुर्लभराज के उत्तराधिकारी विग्रहराज तृतीय के समय भी जीवित था। संभवतः दुर्लभ को कर्ण के विरूद्ध किसी सीमावर्ती झड़प में सफलता मिली थी।
कुछ परवर्ती साहित्यिक स्रोतों से संकेत मिलता है कि दुर्लभराज को मुस्लिम आक्रमणों का सामना करना पड़ा था। हम्मीरमहाकाव्य का यह दावा ऐतिहासिक दृष्टि से संदिग्ध है कि दुर्लभ ने शहाबुद्दीन नामक एक मुस्लिम सुल्तान को पकड़ लिया था। पृथ्वीराजविजय से स्पष्ट है कि दुर्लभराज द्वितीय ‘मातंगों’ (म्लेच्छों) के विरुद्ध लड़ता हुआ मारा गया था। दशरथ शर्मा का अनुमान है कि दुर्लभराज तृतीय का अंत करने वाला ‘मातंग’ (म्लेच्छ) गजनी का सुल्तान इब्राहीम (1059-1098 ई.) था, जिसने 1079 ई. में पश्चिमी भारत पर एक सैनिक अभियान किया था।
विग्रहराज तृतीय (1079-1090 ई.)
दुर्लभराज तृतीय के बाद चाहमान (चौहान) राज्य का उत्तराधिकारी उसका भाई विग्रहराज तृतीय (1070-1090 ई.) हुआ, जिसे ‘बीसल’ या ‘विश्वल’ के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि विग्रहराज ने शिव की पूजा करने के लिए मालवा में उज्जयिनी की यात्रा की थी।
विग्रहराज के समय में भी चाहमानों और चौलुक्यों के बीच शत्रुता चलती रही। चूंकि चौलुक्य परमारों के भी शत्रु थे, इसलिए परमार नरेश उदयादित्य ने चाहमानों से मित्रता कर ली और परमारवंश की एक कन्या राजमती या राजदेवी (उदयादित्य की भतीजी या पुत्री) का विवाह विग्रहराज से कर दिया गया। बिजोलिया शिलालेख में विग्रहराज की रानी का नाम राजदेवी मिलता है। इस वैवाहिक-संबंध की पुष्टि पृथ्वीराजविजय और सुर्जनचरित से भी होती है, जिसमें कहा गया है कि विग्रहराज से प्राप्त सारंग नामक घोड़े और सेना की सहायता से उदयादित्य ने कर्णदेव को हराया।
हम्मीरमहाकाव्य में विग्रहराज को मालवा के राजा शहाबुद्दीन को हराने का श्रेय दिया गया है। किंतु यह ऐतिहासिक दृष्टि से असत्य है, क्योंकि 14वीं शताब्दी की शुरुआत तक मुसलमानों का मालवा पर अधिकार नहीं था।
पृथ्वीराज प्रथम (1090-1110 ई.)
विग्रहराज तृतीय के बाद उसका पुत्र पृथ्वीराज प्रथम (1090-1110 ई.) चौहान वंश का उत्तराधिकारी हुआ। 1105 ई. के जोणमाता मंदिर से मिले एक अभिलेख में उसकी उपाधि ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ मिलती है, जो उसकी शक्ति और राजनीतिक प्रतिष्ठा का सूचक है।
पृथ्वीराजविजय में दावा किया गया है कि पृथ्वीराज प्रथम ने पुष्करतीर्थ में ब्राह्मणों को लूटने वाले सात सौ चौलुक्यों का वध किया था। इस चौलुक्य शासक की पहचान निश्चित नहीं है क्योंकि गुजरात के चालुक्य शासक कर्णदव (1064-1014 ई.) और जयसिंह सिद्धराज (1094-1142 ई.) दोनों ही पृथ्वीराज प्रथम के समकालिक थे। संभवतः उसने इन्हीं दोनों में से किसी एक को पराजित किया था।
राजशेखर के प्रबंधकोश में अनेक पूर्ववर्ती चाहमान राजाओं की तरह पृथ्वीराज को भी तुर्क-सेना का विजेता बताया गया है और कहा गया है कि उसने बगुलीशाह नामक किसी तुर्क आक्रामणकारी को पराजित किया था। मिन्हाज-ए-सिराज के तबकात-ए-नासिरी से ज्ञात होता है कि गजनी के सुल्तान अलाउद्दीन मसूद तृतीय (1099-1115 ई.) के शासनकाल में गजनवी सेनापति हजीब तगातिगिन ने गंगा नदी से आगे बढ़कर भारत पर आक्रमण किया था। संभवतः बगुलीशाह हजीब तगातिगिन का कोई सिपहसालार था, जो पृथ्वीराज के हाथों पराजित हुआ था।
पृथ्वीराज प्रथम शैवमतानुयायी था। पृथ्वीराजविजय से पता चलता है कि उसने सोमनाथ मंदिर के मार्ग में एक ‘भोजन वितरण केंद्र’ (अन्न-सत्र) स्थापित किया था। किंतु शैव होकर भी वह जैन आदि अन्य धर्मों का संरक्षक और आश्रयदाता था। विजयसिंह सूरि के उपदेशमालावृत्ति (1134 ई.) और चंद्रसूरि के मुनिसुव्रतचरित (1136 ई.) से ज्ञात होता है कि उसने रणथंभौर में जैन मंदिरों के लिए स्वर्ण कलश (कपोल) दान किया था।
अजयराज द्वितीय (1110-1135 ई.)
पृथ्वीराज प्रथम के बाद उसका पुत्र अजयराज द्वितीय (1110-1135 ई.) चाहमान (चौहान) वंश का राजा हुआ। प्रबंधकोष और हम्मीरमहाकाव्य जैसे ग्रंथों में उसका नाम अजयदेव, सल्हण अथवा अल्हण भी मिलता है। उसका विवाह सोमल्लादेवी से हुआ था, जिसे सोमलादेवी या सोमलेखा के नाम से भी जाना जाता है।
अजयराज एक कुशल योद्धा तथा महान् विजेता था। उसने मालवा के परमारों को हराया और मुस्लिम आक्रांताओं का प्रतिरोध किया। उसे अजमेर के दुर्ग और शहर की स्थापना का श्रेय भी दिया जाता है। मथुरा और उसके आसपास के क्षेत्रों से अजयराज के चाँदी के सिक्के मिले हैं, जो उन क्षेत्रों पर उसके अधिकार के प्रमाण हैं।
मालवराज की विजय
सोमेश्वर के बिजोलिया अभिलेख से पता चलता है कि अजयराज ने मालवराज नरवर्मा (1094-1133) की सेनाओं को पराजित किया और चच्चिग, सिंधुल और यशोराज नामक तीन मालव वीरों (नायकों) को मारकर नरवर्मा के सोल्हण नामक दंडनायक को घोड़े की पीठ पर बाँधकर अजमेर लाया। यद्यपि पृथ्वीराजविजय में सोल्हण अथवा सुल्हण को मालवा का राजा बताया गया है, किंतु परमारों के इतिहास से ज्ञात होता है कि उस समय धारा का राजा नरवर्मा था, चच्चिग, सिंधुल और यशोराज संभवतः उसके स्थानीय सामंत थे और सुल्हण नरवर्मा का सेनापति था। अजमेर में अढ़ाई दिन का झोपड़ा से मिले एक शिलालेख से लगता है कि अजयराज ने मालवा के शासक को हराने के बाद उज्जैन तक का क्षेत्र जीत लिया था।
तुर्कों से संघर्ष
अजयराज को तुर्क आक्रांताओं का भी सामना करना पड़ा था। पृथ्वीराजविजय में कहा गया है कि उसने ‘गजन मातगों’ को हराया। स्पष्टतः यहाँ ‘गजन’ गजनी के लिए और ‘मातंग’ मुसलमान आक्रांताओं के लिए प्रयुक्त हुआ है। प्रबंधकोष में भी दावा किया गया है कि अजयराज ने ‘सहवादिन’ (शहाबुद्दीन) को पराजित किया था।
मिहाज-ए-सिराज की तबकात-ए-नासिरी से पता चलता है कि गजनी के सुल्तान बहरामशाह ने भारत पर कई आक्रमण किये थे। तारीख-ए-फरिश्ता से पता चलता है कि बहरामशाह के राज्यपाल बहलीम ने नागौर किले पर अधिकार कर लिया था। प्रभावकचरित (देवसूरिचरित) से भी संकेत मिलता है कि अजयराज के कुछ क्षेत्र गजनवियों के हाथ में चले गये थे। संभव है कि अजयराज ने किसी आरंभिक आक्रमण में बहलीम या उसके उत्तराधिकारी सालार हुसैन को पराजित किया हो।
निर्माण-कार्य
अजयराज की निर्माण कार्यों में विशेष रुचि थी। पृथ्वीराजविजय के अनुसार उसने अजयमेरु (अजमेर) नगर की स्थापना की और उसे शाकम्भरी के स्थान पर अपनी नई राजधानी बनाई, जो अनेक मंदिरों के कारण देवताओं का वासस्थल बन गई। विग्रहराज चतुर्थ के अढ़ाई दिन का झोपड़ा से प्राप्त एक लेख में भी कहा गया है कि अजयराज द्वितीय (अजयदेव) ने अपना निवास स्थान अजमेर स्थानांतरित किया था। दशरथ शर्मा जैसे इतिहासकारों का अनुमान है कि अजमेर की स्थापना 1113 ई. से कुछ पहले हुई थी। प्रबंधकोश से पता चलता है कि 8वीं शताब्दी के राजा अजयराज प्रथम ने अजयमेरु किले का निर्माण करवाया था, जो बाद में तारागढ़ किले के रूप में प्रसिद्ध हुआ। संभवतः बाद में अजयराज द्वितीय ने अजमेर नगर का विस्तार किया, महलों तथा मंदिरों का निर्माण करवाया और चाहमान राजधानी को शाकम्भरी से अजमेर स्थानांतरित किया। वास्तव में, पहाड़ी पर स्थित होने के कारण अजमेर सामरिक दृष्टि से शाकम्भरी से अधिक सुरक्षित था।
अजयराज के पास एक विशाल टकसाल था, जिसमें विविध प्रकार के सिक्के ढ़ाले जाते थे। जयानककृत पृथ्वीराजविजय में कहा गया है कि उसने चाँदी (दुर्वर्ण) के सिक्कों से पृथ्वी भर दी और उस पृथ्वी को कवियों ने अपने ‘सुवर्णों’ (अच्छे अक्षरों) तथा ‘सत्काव्यों’ से भर दिया। अजयराज के सिक्कों पर एक ओर बैठी हुई देवी का अंकन है और दूसरी ओर ‘श्रीअजयदेव’ अंकित है।
पृथ्वीराजविजय से यह भी ज्ञात होता है कि अजयराज ने अपनी रानी सोमलेखा अथवा सोमल्लादेवी के नाम से भी कुछ सिक्कों का प्रचलन करवाया था। उसकी रानी के सिक्कों पर एक ओर घुड़सवार या राजा का सिर अंकित है और दूसरी ओर नागरी अक्षरों में ‘श्रीसोमलादेवी’ लिखा है। घुड़सवार अंकन वाले कुछ ताँबे के सिक्के भी मिले हैं। अजयदेव द्वारा जारी किये गये सिक्के चाहमान राज्य में बाद में भी प्रचलन में बने रहे।
पृथ्वीराजविजय के अनुसार अजयराज शैव था। किंतु वह वैष्णवों और जैनियों के प्रति भी सहिष्णु था। खरतरगच्छ पट्टावली से पता चलता है कि उसने जैनियों को अपनी नई राजधानी अजयमेरु (अजमेर) में मंदिर बनाने की अनुमति दी थी और पार्श्वनाथ मंदिर को एक स्वर्ण-कलश दान किया था।
पृथ्वीराजविजय से ज्ञात होता है कि अजयराज ने चाहमान वंश की बागडोर अपने पुत्र अर्णोराज को सौंपकर स्वर्ग-प्राप्ति की इच्छा से अपना शेष जीवन पुष्कर के जंगलों में व्यतीत किया था। इसकी पुष्टि अढ़ाई दिन का झोपड़ा से प्राप्त लेख से भी होती है।
अर्णोराज (1135-1150 ई.)
अजयराज का उत्तराधिकारी उसकी रानी सोमल्लादेवी से उत्पन्न पुत्र अर्णोराज (1135-1150 ई.) हुआ। पृथ्वीराजविजय के अनुसार अजयदेव ने स्वयं उसे राजगद्दी पर बिठाया था। इसकी पुष्टि अजमेर संग्रहालय की चौहान प्रशस्ति से भी होती है, जिसमें कहा गया है कि अजयराज ने अपने अंतिम दिन पुष्करतीर्थ के जंगलों में तपस्या में व्यतीत किया। अर्णोराज के राज्यारोहण की तिथि 1035 ई. के आसपास मानी जाती है और उसने लगभग 1150 ई. तक शासन किया।
अर्णोराज के कई नाम मिलते हैं, जैसे- आणा, आनाक, अना, अनलदेव अथवा आनलदेव आदि। शेखावाटी के जीणमाता मंदिर से प्राप्त लेखों में उसे ‘महाराजाधिराज परमेश्वरपरमभट्टारक’ और आवश्यकनिर्युक्ति में ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज श्रीमद’ कहा गया है, जो उसकी राजनीतिक प्रतिष्ठा के सूचक हैं। दरअसल, विग्रहराज चतुर्थ ‘बीसलदेव’ और पृथ्वीराज तृतीय के दिनों में चाहमान सत्ता और गौरव का जो चतुर्दिक विकास हुआ, उसका बीजारोपण अर्णोराज ने ही किया था।
अर्णोराज एक शक्तिशाली शासक था, जिसे गजनवी सुल्तान बहरामशाह को हराने और परमारों तथा तोमरों सहित कई पड़ोसी राजाओं को भी पराजित करने का श्रेय दिया जाता है। किंतु अर्णोराज को चालुक्यों के विरुद्ध पराजय का सामना करना पड़ा और अंततः उसके अपने ही पुत्र जगद्देव ने उसकी हत्या कर दी।
तुर्क-विजय
अर्णोराज की प्रमुख उपलब्धि तुर्क-विजय थी। पृथ्वीराजविजय से ज्ञात होता है कि उसने अजमेर तथा पुष्करतीर्थ पर आक्रमण करने वाले तुर्क आक्रांता को पराजित किया और उसकी सेना का संहार किया। जयानक अपने ग्रंथ पृथ्वीराजविजय में अर्णोराज की शिव से तुलना करते हुए काव्यात्मक ढ़ंग से कहता है कि ‘अर्णोराज अजमेर से निकलकर तुर्क सेनारूपी समुद्र के लिए बड़वाग्नि बन गया। उसकी भागती हुई सेना या तो अजमेर के सैनिकों के लोहपात से प्रताड़ित होकर मरने लगी अथवा स्वयं धारण किये हुए कवचों के बोझ में दबने लगी। भागते हुए आक्रमणकारी प्यास के मारे अपने ही शस्त्रों से अपने घोड़े का खून पीने को विवश हुए।‘ म्लेच्छों के वधस्थल की शुद्धि के लिए राजा ने झील का निर्माण करवाया और उसको भरने के लिए चंद्रा नदी (संभवतः लूनी) उसमें गिराई गई। अजमेर संग्रहालय से प्राप्त चौहानों की खंडित प्रशस्ति में भी कहा गया है कि मारे हुए तुर्कों (तुरुश्कों) के रक्त से लाल हो जानेवाली अजमेर की भूमि ने अपने स्वामी का विजयोत्सव मनाने के लिए मानो लाल रंग का कपड़ा पहन लिया। इस विवरण से स्पष्ट है कि तुर्क आक्रमणकारियों को हराने के बाद अर्णोराज ने एक झील बनवाकर उनकी मृत्यु के स्थान को शुद्ध किया था, जिसे आना सागर के नाम से जाना जाता है।
अर्णोराज द्वारा पराजित तुर्क आक्रांता का नाम नहीं मिलता है। कुछ इतिहासकार इसकी पहचान गजनी के सुल्तान बहरामशाह से करते हैं, जिसने अपने विद्रोही सेनापति बहलीम को पराजित करने के बाद अर्णोराज को अपने अधीन करने का प्रयास किया था, किंतु इसका कोई प्रमाण नहीं है। मुसलमान इतिहासकारों ने भी अजमेर में तुर्क आक्रामणकारियों की इस पराजय का कोई उल्लेख नहीं किया है।
परमार नरवर्मा पर विजय
बिजोलिया अभिलेख से ज्ञात होता है कि अर्णोराज ने मालवा पर आक्रमण कर ‘निर्वाणनारायण’ को पराजित किया, जो संभवतः परमार नरेश नरवर्मा की ही उपाधि थी। अजमेर संग्रहालय की प्रस्तर-प्रशस्ति में उसे स्पष्ट रूप में ‘नरवर्म्म’ कहा गया है। अर्णोराज के पिता अजयराज द्वितीय ने नरवर्मन को हराया था, अतः यह घटना उस समय हुई होगी जब अर्णोराज राजकुमार था। युद्ध संभवतः 1134 ई. के पूर्व हुआ होगा क्योंकि इस तिथि तक नरवर्मा का उत्तराधिकारी यशोवर्मा राज्यासीन हो चुका था। अजमेर प्रशस्ति में कहा गया है कि अर्णोराज की सेना ने मालवराज की हस्तिसेना पर अधिकार कर लिया। इस आधार पर कुछ इतिहासकार मानते हैं कि अर्णोराज को यह सैन्य-सफलता संभवतः नरवर्मन के उत्तराधिकारी यशोवर्मन के विरूद्ध मिली थी।
तोमरों के विरूद्ध सफलता
अजमेर प्रशस्ति कहा गया है कि अर्णोराज के सैनिकों ने ‘हरितानका’ (आधुनिक हरियाणा) तक अभियान किया। उसके सैनिकों ने कालिंदी (यमुना) नदी का पानी गंदा कर दिया और हरितानक देश की स्त्रियों के आँसू बहाये। इससे लगता है कि चाहमान सेनाओं ने तोमरों के शासित क्षेत्र हरितानक अर्थात् हरियाणा पर आक्रमण कर तोमरों को पराजित किया था। किंतु अर्णोराज की यह सफलता क्षणिक सिद्ध हुई और दिल्ली-हरियाणा पर तोमरों का अधिकार बना रहा क्योंकि उसके पुत्र विग्रहराज चतुर्थ को भी तोमरों के विरूद्ध संघर्ष करना पड़ा था।
बिजोलिया शिलालेख में कहा गया है कि अर्णोराज ने कुश-वरन (कुश-वरन) राज्य के विरूद्ध सैनिक कार्रवाई की। इस राज्य की स्पष्ट पहचान नहीं हो सकी है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार कुश और वरन दो अलग-अलग राज्य थे, जिनकी पहचान क्रमशः कन्नौज और बुलंदशहर से की जा सकती है। किंतु कन्नौज पर शक्तिशाली गहड़वाल शासक गोविंदचंद्र का शासन था, इसलिए उस पर अर्णोराज के आक्रमण की संभावना बहुत कम है। दशरथ शर्मा का अनुमान है कि बरन राज्य पर डोड राजपूतों का शासन था, जिसके राजा सहजादित्य या भोजदेव रहे होंगे।
अजमेर संग्रहालय की चौहान प्रशस्ति और हेमचंद्रसूरि की रचना द्वयाश्रयकाव्य के आधार पर कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि अर्णोराज ने पूर्वी पंजाब में मद्र और बाह्लीक देश (सिंध) की विजय की थी। किंतु इस अभियान का विवरण स्पष्ट नहीं है।
चौलुक्यों से संबंध
तुर्कों और मालवा के परमारों से निपटने के बाद अर्णोराज ने चौलुक्य शासक जयसिंह ‘सिद्धराज’ पर आक्रमण किया, जिसने नागौर और सांभर पर अधिकार कर लिया था। जैन ग्रंथों से ज्ञात होता है कि अर्णोराज को चौलुक्य शासक से पराजित होकर उसकी प्रभुता स्वीकार करनी पड़ी। किंतु अंततः जयसिंह ने अर्णोराज के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर उससे मित्रता कर ली। पृथ्वीराजविजय से भी ज्ञात होता है कि जयसिंह की पुत्री कांचनदेवी अर्णोराज से ब्याही गई थी। इस वैवाहिक गठबंधन से चाहमान-चौलुक्य संघर्ष कुछ समय के लिए रुक गया।
किंतु जयसिंह ‘सिद्धराज’ की मृत्यु (1142 ई.) के बाद ही चाहमान-चौलुक्य संघर्ष पुनः प्रारंभ हो गये, जो अगले बारह वर्षों तक चलता रहे। अंततः कुमारपाल का पलड़ा भारी पड़ा और अर्णोराज को उससे अपनी पुत्री जल्हणादेवी का विवाहकर शांति-संधि करनी पड़ी। परवर्ती जैन किंवदंतियों के अनुसार कुमारपाल की बहन देवल्लादेवी भी अर्णोराज से ब्याही गई थी, यद्यपि देवल्लादेवी का अस्तित्व संदिग्ध है। जो भी हो, अर्णोराज पर कुमारपाल के विजय की पुष्टि कई चौलुक्य शिलालेखों से भी होती है।
सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
अर्णोराज शैवमतानुयायी होकर भी अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था। उसने खरतरगच्छ के अनुयायियों को एक मंदिर बनवाने के लिए अजमेर में भूमि दी और स्वयं पुष्कर में वराहमंदिर का निर्माण करवाया।
अर्णोराज के चार पुत्र थे- मारवाड़ की राजकुमारी बड़ी रानी सुधवादेवी से जगदेव, विग्रहराज और देवदत्त उत्पन्न हुए थे और गुजरात की चालुक्य राजकुमारी छोटी रानी कांचनदेवी से सोमेश्वर पैदा हुआ था। अर्णोराज की वृद्धावस्था में सुघवादेवी से उत्पन्न बड़े पुत्र जगद्देव (1150 ई.) ने उसकी हत्याकर सिंहासन पर अधिकार कर लिया, जिससे सपादलक्ष के चाहमान कुछ समय के लिए गृह-कलह में उलझ गये। किंतु पितृघाती होने के कारण जगद्देव (1150 ई.) शीघ्र ही अप्रिय और बदनाम हो गया। फलतः कुछ ही समय बाद विग्रहराज ने जगद्देव को मारकर चाहमान वंश की गद्दी पर अधिकार कर लिया।
चाहमान सत्ता का चरमोत्कर्ष
विग्रहराज चतुर्थ (1150-1164 ई.)
विग्रहराज चतुर्थ अर्णोराज का पुत्र था, जो अपने पितृहंता भाई जगद्देव को मारकर चाहमान वंश का राजा हुआ। विग्रहराज चतुर्थ इतिहास में ‘बीसलदेव’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। उसका सबसे पहला अभिलेख वि.सं. 1210 (1153 ई.) का उसकी राजधानी अजमेर के सरस्वती मंदिर (अढाई दिन का झोपड़ा) से मिला है, जिससे लगता है कि उसका राज्यारोहण 1150 ई. के आसपास हुआ रहा होगा।
राजनीतिक उपलब्धियाँ
विग्रहराज चतुर्थ (1150-1164 ई.) शाकम्भरी के चौहान वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था, जिसने न केवल अपने अपने समकालीन पड़ोसी राजाओं को पराजित कर अपने पिता की पराजय का बदला लिया और चाहमान राज्य की सीमाओं का विस्तार किया, बल्कि तुर्क आक्रांताओं से भारतभूमि के पश्चिमोत्तर सीमा की रक्षा की।
चालुक्यों से संघर्ष: विग्रहराज ‘बीसलदेव’ ने सबसे पहले गुजरात के चौलुक्यों के विरूद्ध अभियान किया। गुजरात के चौलुक्य शासक कुमारपाल ने विग्रहराज के पिता को पराजित कर उसके सभी मित्रों को दंडित कर सपादलक्ष से मिलने वाली अपनी सीमाओं पर अपने राज्यपालों की नियुक्ति की थी। यही नहीं, उसने अनेक मध्यस्थ और सामंत राज्यों में भी अपने सामंतों को नियुक्त कर दिया था।
गुजरात पर आक्रमण करने के क्रम में विग्रहराज ने सर्वप्रथम जयसिंह ‘सिद्धराज’ द्वारा नियुक्त चित्तौड़ के दंडाधिपति सज्जन पर आक्रमण किया, जो बिजोलिया अभिलेख के अनुसार ‘पृथ्वी पर सबसे बड़ा असज्जन’ था। युद्ध में दंडाधिपति सज्जन विग्रहराज के हाथों मारा गया। यद्यपि इस ‘सज्जन’ की निश्चित पहचान नहीं हो सकी है, किंतु कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि सज्जन सुराष्ट्र का राज्यपाल था, जिसे कुमारपाल ने चित्तौड़ में दंडाधीश अथवा सामंत नियुक्त किया था। डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार सज्जन एक कुंभकार था, जिसे कुमारपाल ने उसे चित्तौड़ का दंडनायक नियुक्त किया था और जिसका उल्लेख कुमारपाल के वि.सं. 1207 के चित्तौड़ अभिलेख में मिलता है।
बिजोलिया अभिलेख पुनः कहा गया है कि विग्रहराज ने जाबालिपुर को ज्वालापुर बना दिया (जला दिया); पल्तिका अथवा पाली को एक तुच्छ गाँव बना दिया और नड्डुल को नड्वलतुल्य अर्थात् बेंत की तरह झुका दिया। इस प्रकार विग्रहराज ने चालुक्यों के सामंतों को मर्दित कर कुमारपाल से अपने पिता अर्णोराज की पराजय का बदला चुकाया और कुमारपाल उनकी कोई सहायता नहीं कर सका। जाबालिपुर जालोर था और नड्डुल चौलुक्यों के अधीन चाहमानों की एक सामंत शाखा की राजधानी थी। पाली का क्षेत्र भी नाडौल के चाहमानों के अधीन था। इन विजयों के द्वारा विग्रहराज ने मेवाड़ और मारवाड़ के अनेक चौलुक्य क्षेत्रों को अपने अधीन कर लिया। यद्यपि विग्रहराज का कुमारपाल से सीधा संघर्ष नहीं हुआ, किंतु अजमेर संग्रहालय की चौहान प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उसने कुमारपाल को ‘करवलपाल’ बना दिया था।
तोमरों की स्वतंत्र सत्ता का अंत: चौहान शासकों का दिल्ली के तोमर शासकों से संघर्ष चंदनराज के समय से ही चल रहा था, किंतु अभी तक उन्हें सफलता नहीं मिली थी। किंतु दिल्ली के तोमरों की स्वतंत्र सत्ता का अंतकर उन्हें चाहमान अधिसत्ता के अधीन लाना विग्रहराज की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। बिजोलिया अभिलेख से पता चलता है कि विग्रहराज ने ‘ढिल्लिका’ और ‘असिका’ पर अधिकार किया। यहाँ ‘ढिल्लिका’ दिल्ली के लिए और ‘असिका’ हाँसी के लिए प्रयुक्त है। दशरथ शर्मा जैसे इतिहासकारों के अनुसार पराजित तोमरराज तंवर था और यह युद्ध संभवतः 1152 ई. (वि.सं. 1209) के आसपास हुआ था। किंतु विग्रहराज बीसलदेव से पराजित होने पर भी तोमर राज्य पूर्णतः समाप्त नहीं हुआ और चाहमानों के अधीनस्थ राज्य के रूप में बना रहा।
भाडानक राज्य की विजय : बिजोलिया अभिलेख के एक श्लोक के आधार पर कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि विग्रहराज ने भाडानक राज्य की भी विजय की थी। भाडानक राज्य संभवतः मथुरा और भरतपुर के बीच स्थित था।
मालवा की विजय : रविप्रभाचार्य के धर्मघोषसूरिस्तुति में कहा गया है कि मालवा के किसी राजा ने अजमेर स्थित एक जैन मंदिर का ध्वजस्तंभ लगाते समय विग्रहराज की सहायता की थी। संभवतः मालवा के किसी दुर्बल परमार शासक ने चाहमान सत्ता के गौरव को स्वीकार किया था।
पर्वतीय दुर्गों की विजय : दिल्ली-शिवालिक अभिलेख में कहा गया है कि बीसलदेव ने हिमालय से लेकर विंध्याचल के बीच के सभी क्षेत्रों को अपना करद बना लिया। पृथ्वीराजविजय में भी विग्रहराज को अनेक पर्वतीय दुर्गों को जीतने का श्रेय दिया गया है। इस प्रकार विग्रहराज बीसलदेव ने अपनी विजयों से चाहमानों को उत्तरी भारत की प्रमुख शक्ति बना दिया।
तुर्कों का प्रतिरोध: विग्रहराज ने तुर्क आक्रांता से देश की रक्षा की थी। दिल्ली-शिवालिक लेख में कहा गया है कि विग्रहराज ने म्लेच्छों (तुर्कों) का समूलोच्छेद कर आर्यवर्त्तदेश का नाम सार्थक किया। प्रबंधकोश में बीसलदेव को ‘तुरुष्कजित’ कहा गया है। सोमदेव के ललितविग्रहराज नाटक में भी कहा गया है कि विग्रहराज ने मित्रों, ब्राह्मणों, तीर्थों तथा देवालयों की रक्षा के निमित्त तुर्कों से युद्ध किया था। संभवतः उसका समकालीन लाहौर का तुर्क शासक खुसरूशाह (1153-1160 ई.) था, जिसने चौहान राज्य पर आक्रमण किया था। संभवतः विग्रहराज बीसलदेव ने तुर्कों को पराजित कर उनके कुछ प्रदेशों पर भी अधिकार कर लिया था।
सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
विग्रहराज बीसलदेव महान् विजेता ही नहीं, स्वयं विद्वान् और विद्वानों का आश्रयदाता भी था। सोमदेव ने उसे ‘विद्वानों में सर्वप्रथम’ (विपश्चितानामाद्यः) बताया है। उसने स्वयं हरिकेलि नाटक की रचना की, जिसकी कुछ पक्तियाँ अजमेर स्थित सरस्वती मंदिर (अढ़ाई दिन का झोपड़ा मस्जिद) की सीढ़ियों पर उत्कीर्ण हैं। साहित्य और साहित्यकारों के इस संरक्षक को जयानकभट्ट और मेरुतुंग ने ‘कविबांधव’ की उपाधि दी है। उसके दरबारी कवि सोमदेव ने अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में विग्रहराज ने अपनी राजधानी अजमेर में सरस्वती मंदिर नामक एक विद्यालय की स्थापना की थी, जिसे बाद में कुतबुद्दीन ऐबक ने ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ नामक मस्जिद में परिवर्तित कर दिया। उसने अजमेर के पास बीसलसागर झील और बीसलपुर नामक नगर बसाया।
विग्रहराज चतुर्थ शैव होते हुए भी अन्य संप्रदायों का भी सम्मान करता था और उन्हें अनुदान देता था। उसने धर्मघोषसूरि नामक एक जैन आचार्य के आग्रह पर एकादशी को जीवहिंसा बंद करा दी थी, जो उसकी धार्मिक सहिष्णुता का सूचक है। विग्रहराज चतुर्थ ‘बीसलदेव’ के काल को चाहमानकालीन ‘स्वर्णयुग‘ भी कहा जाता है।
अपरगांगेय अथवा अमरगांगेय (1064 ई.)
विग्रहराज चतुर्थ ‘बीसलदेव’ के बाद उसका पुत्र अपरगांगेय अथवा अमरगांगेय (1064 ई.) में चाहमान राजगद्दी पर बैठा। किंतु कुछ ही समय बाद जगद्देव के पुत्र पृथ्वीराज ने उसकी हत्याकर चाहमान वंश के सिंहासन पर अधिकार कर लिया।
पृथ्वीराज द्वितीय (1165-1169 ई.)
पृथ्वीराज पितृहंता जगद्देव का पुत्र था, जो इतिहास में पृथ्वीराज द्वितीय (1165-1169 ई.) के नाम से प्रसिद्ध है। उसे ‘पृथ्वीभट्ट’, ‘पृथ्वीदेव’ और ‘पेथडदेव’ आदि अन्य नामों से भी जाना जाता है। ऐसा लगता है कि पृथ्वीराज को पश्चिम से तुर्क आक्रमण का सामना करना पड़ा था। 1168 ई. के उसके हाँसी शिलालेख से पता चलता है कि उसने हम्मीर (अमीर) के आक्रमणों से सुरक्षा के लिए अपने मामा गुहिलवंशी किल्हण को हाँसी के दुर्ग का दुर्गपाल नियुक्त किया। हम्मीर की पहचान गजनवी सुल्तान खुसरो मलिक से की जा सकती है, जिसका उस समय लाहौर पर नियंत्रण था। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि उसने लाहौर के तुर्क सुलतान खुसरो मलिक ताजुद्दौला को पराजित किया था।
पृथ्वीराज द्वितीय के हाँसी शिलालेख में यह भी दावा गया है कि किल्हण ने पंचपुर नामक शहर को जला डाला था। दशरथ शर्मा ने पंचपुर की पहचान आधुनिक पंजौर से की है। पंचपुर के राजा ने पृथ्वीराज की अधीनता स्वीकार कर उसे एक मोती का हार उपहार दिया था।
इसके अलावा, बिजोलिया शिलालेख में पृथ्वीराज द्वारा वसंतपाल नामक एक शासक से मनहसिद्धिकारी नामक एक हाथी प्राप्त करने का विवरण मिलता है, किंतु वसंतपाल की पहचान स्पष्ट नहीं है।
पृथ्वीराज की रानी का नाम सुहाव या सुधावादेवी मिलता है और दोनों ही शैव धर्मानुयायी थे। पृथ्वीराज ने न केवल ब्राह्मणों को गाँव और बहुमूल्य धातुएँ उपहार में दी, बल्कि बिजोलिया में पार्श्वनाथ जैन मंदिर को भी मोरझारी गाँव दान दिया था।
पाँच वर्षों के शासन के बाद 1169 ई. में पृथ्वीराज द्वितीय की मृत्यु हो गई। चूंकि उसके कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उसका चाचा सोमेश्वर (अर्णोराज का पुत्र) शाकम्भरी के चाहमान वंश की गद्दी पर बैठा।
सोमेश्वर (1169-1177 ई.)
पृथ्वीराजविजय के अनुसार सोमेश्वर अर्णोराज की छोटी रानी कांचनदेवी का पुत्र था, जिसका जन्म और लालन-पालन चौलुक्यराज जयसिंह सिद्धराज की राजधानी अण्हिलपुर में हुआ था। अण्हिलपत्तन में रहते हुए ही सोमेश्वर का विवाह त्रिपुरी की राजकुमारी कर्पूरीदेवी से हुआ और वहीं पृथ्वीराज और हरिराज नामक उसके दोनों पुत्र पैदा हुए थे। पृथ्वीराज द्वितीय की मृत्यु और पुत्रहीनता के कारण चाहमान सामंतों और मंत्रियों ने सोमेश्वर को गुजरात से आमंत्रित कर 1169 ई. के लगभग सपादलक्ष के सिंहासन पर बैठाया। सोमेश्वर ने संभवतः 1177 ई. तक शासन किया था।
चाहमान-चौलुक्य शत्रुता
स्रोतों से ज्ञात होता है कि अण्हिलवाड की राजगद्दी पर अजयपाल के आसीन होते ही चाहमान-चौलुक्य शत्रुता पुनः आरंभ हो गई। अनेक चौलुक्य अभिलेखों से पता चलता है कि अजयपाल ने सपादलक्ष से भेंट वसूल की। कीर्त्तिकौमुदी जैसे जैन ग्रंथों से भी ज्ञात होता है कि अजयपाल ने जांगलदेश के राजा से एक स्वर्णमंडपिका और मदस्रावी हाथियों को बलपूर्वक छीन लिया था। चूंकि जांगलदेश अथवा सपादलक्ष का उसका समकालिक राजा सोमेश्वर ही था, इससे लगता है कि सोमेश्वर को चौलुक्य आक्रमण का सामना करना पड़ा था।
सोमेश्वर का शासनकाल प्रायः सुख और शांति का था। बिजोलिया अभिलेख ने ज्ञात होता है कि सोमेश्वर ने ‘प्रतापलंकेश्वर’ की उपाधि धारण की थी। पृथ्वीराजविजय में उसे अनेक मंदिरों और अपने पिता के नाम पर एक नगर के निर्माण का श्रेय दिया गया है। उसने ‘सोमेश्वरीय द्रम्मों’ का प्रचलन करवाया, जो उसके राज्य की समृद्धि के प्रमाण हैं।
चंदबरदाई के पृथ्वीराजरासो के अनुसार उसका विवाह दिल्ली के तोमर राजा अनंगपाल द्वितीय की पुत्री कमलादेवी से हुआ और पृथ्वीराज उसका पुत्र था। इसी महाकाव्य में गुजरात के राजा भीम के हाथों सोमेश्वर की हत्या का भी उल्लेख मिलता है। किंतु पृथ्वीराजरासो की ऐतिहासिकता पर मतभेद है। ऐतिहासिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि पृथ्वीराज कर्पूरीदेवी के पुत्र थे और सोमेश्वर की मृत्यु के समय भीम द्वितीय गुजरात का राजा नहीं हुआ था।
सोमेश्वर की हत्या के बाद उसकी रानी कर्पूरीदेवी से उत्पन्न उसका पुत्र पृथ्वीराज चाहमान वंश का सबसे शक्तिशाली राजा हुआ, जो इतिहास में पृथ्वीराज चौहान के नाम से प्रसिद्ध है।
पृथ्वीराज तृतीय (1178-1192 ई.)
सोमेश्वर के बाद उसकी रानी कर्पूरीदेवी (कमलादेवी?) से उत्पन्न पुत्र पृथ्वीराज लगभग ग्यारह वर्ष की अल्पायु में शाकम्भरी के चाहमान राज्य की गद्दी पर बैठा, जिसे कथाओं में उसे ‘रायपिथौरा’ भी कहा गया है। ज्ञात होता है कि पृथ्वीराज तृतीय के अवयस्क होने के कारण उसने कुछ समय तक अपनी माता कर्पूरीदेवी के संरक्षण में शासन किया था। जयानक के पृथ्वीराजविजय से स्पष्ट है कि अपने पुत्र की अल्पवयस्कता में राजमाता ने बड़ी कुशलता से शासन का संचालन किया। राजमाता के संरक्षण में पृथ्वीराज को अपने मुख्यमंत्री महामंडलेश्वर कदंबवास (कैमास अथवा कैम्बास) तथा चाचा भुवनैकमल्ल से भी भरपूर सहयोग मिला, जिन्होंने पृथ्वीराज की वैसी ही सेवा की, जैसे हनुमान और गरुड़ ने राम की थी। 1180 ई. के आसपास उसने स्वतंत्र रूप से शासन की बागडोर संभाल ली और शीघ्र ही अपने व्यक्तिगत शौर्य तथा रणप्रियता के कारण वह समकालीन राजनीति में प्रतिष्ठित हो गया। पृथ्वीराज की राजधानी अजयमेरु (आधुनिक अजमेर) थी, यद्यपि मध्ययुगीन लोककथाओं में उसे ‘दिल्ली का राजा’ बताया गया है।
पृथ्वीराज तृतीय का जन्म संभवतः 1166 ई. में अण्हिलवाड में हुआ था। हम्मीरमहाकाव्य तथा पृथ्वीराजरासो से पता चलता है कि पृथ्वीराज को विविध विद्याओं और कलाओं की शिक्षा मिली थी, जिसके कारण वह अनेक शास्त्रों के साथ-साथ शस्त्रों के प्रयोग में भी पारंगत था। धनुर्विद्या में उसे विशेष निपुणता प्राप्त थी और वह अपने समय का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर था। किंतु पृथ्वीराज ने अपने सभी पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण कर स्वयं को राजनीतिक दृष्टि से अलग-थलग कर लिया। अंततः उसकी आक्रामक नीतियाँ न केवल उसके लिए, बल्कि संपूर्ण भारत के घातक सिद्ध हुईं। 1192 ई. में तराइन की दूसरी लड़ाई में मुहम्मद गोरी के हाथों उसकी पराजय से भारत पर तुर्की राज्य की स्थापना का मार्ग खुल गया।
नागार्जुन के विद्रोह का दमन
जयानक से पता चलता है कि पृथ्वीराज की पहली भिड़ंत अपने अपने चाचा नागार्जुन से हुई। नागार्जुन संभवतः विग्रहराज चतुर्थ बीसलदेव का पुत्र और अमरगांगेय का छोटा भाई था, जिसने पृथ्वीराज की अल्पवयस्कता का लाभ उठाकर राजगद्दी हड़पने के लिए विद्रोह कर दिया और गुड़पुर नामक नगर पर अधिकार कर लिया था। गुड़पुर की पहचान हरियाणा के गुड़गाँव से की गई है, जो पहले तोमरों के अधिकार में था।
पृथ्वीराज तृतीय ने विद्रोह के दमन के लिए एक बड़ी सेना लेकर गुड़पुर के दुर्ग में नागार्जुन को घेर लिया। कुछ समय की घेराबंदी के बाद नागार्जुन अपनी जान बचाकर भाग निकला, किंतु उसके सभी सगे-संबंधी पकड़े गये। उसके बाद भी नागार्जुन के देवभट्ट जैसे अधिकारियों ने युद्ध जारी रखा, किंतु पृथ्वीराज ने उन सभी को बंदी बनाकर मार डाला और उनके सिर अजमेर दुर्ग के दरवाजे के बाहर लटका दिये गये।
भाडानक विजय
नागार्जुन को पराजित करने के बाद पृथ्वीराज ने भाडानकों के शासक साहणपाल का दमन किया, जिसका एक अभिलेख आघाटपुर से मिला है। भाडानक क्षेत्र चाहमान राज्य की उत्तर में स्थित था, जो हरियाणा प्रांत के रेवाड़ी, गुड़गाँव तथा भिवानी एवं राजस्थान के अलवर क्षेत्रों के बीच विस्तृत था। भाडानकों के विरुद्ध पृथ्वीराज की विजय की प्रशंसा जिनपतिसूरि ने भी की है।
चंदेल राज्य पर आक्रमण
पृथ्वीराज ने 1182 ई. के लगभग जेजाकभुक्ति के चंदेलों के विरुद्ध अभियान किया और चंदेल शासक परमर्दिन् को हराकर उसकी राजधानी महोबा पर अधिकार कर लिया। पृथ्वीराजरासो की आल्हाखंड के अनुसार चाहमान सेनाओं ने चंदेल क्षेत्रों को चीरते हए सिरसागढ़ और महोबा को जीतते हुए कालंजर के किले को घेर लिया और चंदेल शासक परमर्दिन् (परमाल) को बंदी बनाकर पृथ्वीराज के सामने प्रस्तुत किया। सारंगधरपद्धति और प्रबंधचिंतामणि में भी कहा गया है कि परमर्दिन् ने अपने दाँतों में तृण दबाते हुए आत्मसमर्पण कर अपनी रक्षा की। महोबा के युद्ध में आल्हा और ऊदल नामक दो बनाफर सरदारों के साथ गहडवाल राजा जयचंद्र ने भी चंदेलों की सहायता की थी।
पृथ्वीराज चौहान की चंदेलों पर विजय और महोबा पर चाहमान अधिकार की पुष्टि पृथ्वीराज के 1182 ई. (वि.सं. 1239) के मदनपुर अभिलेखों से भी होती है, जिसमें पृथ्वीराज द्वारा जेजाकभुक्ति को लूटने और वीरान बना देने का विवरण मिलता है। किंतु ऐसा लगता है कि पृथ्वीराज तृतीय को चंदेल क्षेत्रों पर अधिक समय तक अधिकार बनाये रखने में सफलता नहीं मिली क्योंकि 1183 ई. के मदनपुर (महोबा) लेख से ज्ञात होता है कि उस समय कालंजर और महोबा दोनों पर परमर्दिन् का शासन था। संभवतः उत्तर-पश्चिम की ओर से मुस्लिम आक्रमण से घबड़ाकर पृथ्वीराज स्वयं महोबा से हट गया। इस प्रकार चंदेलों के विरुद्ध अभियान से पृथ्वीराज की प्रतिष्ठा में वृद्धि तो हुई, किंतु इससे न केवल उसके शत्रुओं की संख्या बढ़ गई, बल्कि चंदेल और गहडवाल जैसे शत्रु एकजुट हो गये।
चौलुक्य भीम से संघर्ष
जैन साहित्य और चंदबरदाईकृत पृथ्वीराजरासो से पता चलता है कि पृथ्वीराज तृतीय को अण्हिलवाड के चौलुक्य राजा भीम द्वितीय को पराजित कर मार डाला था। कहा गया है कि पृथ्वीराज के चाचा कान्हदेव ने भीमदेव के चाचा सारंगदेव के सात पुत्रों की हत्या कर दी थी, जिसके प्रतिशोधस्वरूप भीम ने चाहमान राज्य पर आक्रमण पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर की हत्या कर दी और नागोर के दुर्ग पर अधिकार कर लिया था। बाद में, पृथ्वीराज ने भीम को मारकर नागौर को पुनः अपने अधीन कर लिया। किंतु पृथ्वीराजरासो के विवरण की ऐतिहासिकता संदिग्ध है। संभवतः सोमेश्वर की मृत्यु के समय भीम अण्हिलवाड का राजा नहीं था। चूंकि चाहमान-चौलुक्य संघर्ष की संभावित तिथि 1184 ई. अनुमानित है, जबकि इसके बाद लगभग आधी शताब्दी (1238 ई.) तक तक भीम गुजरात का शासक था। इसलिए पृथ्वीराज के हाथों भीम के मारे जाने का प्रश्न ही नहीं उठता।
संभवतः 1182 और 1187 ई. के बीच नागौर के पास चाहमानों और चौलुक्यों के बीच कोई सैन्य-संघर्ष हुआ था, जिसमें चालुक्यराज भीम को गुजरात के परमार सामंत धारावर्ष और प्रधानमंत्री जगद्देव प्रतिहार से सहायता मिली थी। वेरावल प्रशस्ति में कहा गया है कि भीमदेव का मंत्री जगद्देव प्रतिहार ‘पृथ्वीराज की कमलरूपी रानियों के लिए चंद्रमा के समान’ था। मेरुतुंग के अनुसार भीम के सेनापति जगद्देव प्रतिहार को पृथ्वीराज के विरूद्ध सफलता नहीं मिली थी। खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार चाहमानों और चालुक्यों के बीच 1187 ई. से कुछ समय पहले शांति-संधि हो गई। संभवतः शांति-संधि के अनुसार नागौर पर पृथ्वीराज का अधिकार मान लिया गया था।
गुजरात के परमारों से संघर्ष
जिनपाल के खरतरगच्छ पट्टावली से संकेत मिलता है कि पृथ्वीराज का गुजरात के परमारों से संघर्ष 1187 ई. के पूर्व कभी माउंट आबू में हुआ था। प्रहलादनदेव के पार्थपराक्रम व्यायोग नामक नाटक से ज्ञात होता है कि जांगलदेश के राजा ने माउंट आबू के परमार सामंत धारावर्ष पर आक्रमण किया था, किंतु उसे कोई सफलता नहीं मिली। जांगलदेश के राजा से तात्पर्य पृथ्वीराज से ही है। वास्तव में, आबू के परमार सामंत चौलुक्यों की अधीनता स्वीकार करते थे और उन पर चाहमानों का धावा पृथ्वीराज और भीम द्वितीय के बीच होने वाले संघर्षों का ही अंग था।
चाहमान-गहडवाल संबंध
दिल्ली तथा ऊपरी गंगा दोआब पर नियंत्रण के लिए पृथ्वीराज और कन्नौज के गहडवालों के बीच लंबा संघर्ष चला। गहडवाल कन्नौज और काशी के राजा थे। चौहानों के उत्थान के पूर्व गहडवालों के राज्य की सीमा सतलज तक थी और उन्होंने गजनवी सेनापतियों का सामना किया था, किंतु जब दिल्ली और पूर्वी सतलज क्षेत्र चौहानों के अधिकार में चले गये, तो दोनों राजपूत राज्य एक-दूसरे के शत्रु हो गये। पृथ्वीराज का समकालीन गहडवाल शासक जयचंद्र एक शक्तिशाली शासक था, जिसने पृथ्वीराज के विरूद्ध जेजाकभुक्ति के चंदेलों की सहायता की थी। पृथ्वीराजरासो में चौहान-गहडवाल संघर्ष का कारण गहडवाल नरेश जयचंद्र की पुत्री संयोगिता का स्वयंवर से हरण और उसके बाद हुए युद्ध में पृथ्वीराज के हाथों जयचंद्र की पराजय को बताया गया है। यद्यपि पृथ्वीराजरासो की ऐतिहासिकता पर मतभेद है, फिर भी, मूल कथानक को झुठलाना कठिन है क्योंकि इस कथा का उल्लेख अबुल फजल की आईन-ए-अकबरी और चंद्रशेखर की सुर्जनचरित में भी मिलता है। जो भी हो, दोनों राजवंशों की शत्रुता के परिणाम पूरे भारत के लिए विनाशकारी सिद्ध हुए।
प्रायः कहा जाता है कि जयचंद्र ने पृथ्वीराज को पराजित करने के लिए मुहम्मद गोरी को आमंत्रित कर सहायता देने का वादा किया था। यद्यपि इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है, किंतु मुनि जिनविजय के पुरातन प्रबंध संग्रह से ज्ञात होता है कि तराइन की दूसरी लड़ाई में पृथ्वीराज की पराजय बाद उसने अपनी राजधानी में दीवाली मनाई थी।
मुहम्मद गोरी से युद्ध और चाहमान सत्ता का पतन
पृथ्वीराज तृतीय के शासनकाल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना मुहम्मद गोरी का आक्रमण है। पृथ्वीराज के पूर्वज विग्रहराज चतुर्थ बीसलदेव को अभिलेखों में आर्यवर्त्त को तुर्क म्लेच्छों से रक्षाकर उसे ‘आर्यभूमि’ बनाने का श्रेय दिया गया है और जयानकभट्ट ने गोमांसभक्षी म्लेच्छ के रूप में कलियुग की प्रत्यक्ष मूर्ति मुहम्मद शिहाबुद्दीन गोरी का अंत करना पृथ्वीराज के जीवन का लक्ष्य बताया है।
1173 ई. में शिहाबुद्दीन गोरी ने गजनी पर अधिकार कर लिया और मुल्तान तथा उच्छ पर अधिकार करने के बाद उसने 1175 ई. में गुजरात पर आक्रमण किया। मार्ग में उसने किरादू और नाडोल भी लुटा, किंतु चौलुक्य (सोलंकी) भीम द्वितीय ने उसे काशहद के मैदान में पराजित कर दिया। काशहद में पराजित होने के बाद भी गोरी ने धीरे-धीरे मुल्तान (1175 ई.) और संपूर्ण सिंध तथा पंजाब (1186 ई.) को जीत लिया। इस आसन्न संकट के बावजूद पृथ्वीराज चौहान चंदेलों, गहडवालों और चौलुक्यों से अनावश्यक युद्धों में लड़ता रहा।
मध्यकालीन मुसलमान लेखकों ने पृथ्वीराज और गोरी के बीच मात्र एक या दो लड़ाइयों का उल्लेख किया है। तबक़ात-ए-नासिरी और तारीख-ए-फरिश्ता में तराइन की दो लड़ाइयों उल्लेख है, जबकि जमी-उल-हिकाया और ताज-उल-मासीर में तराइन की केवल दूसरी लड़ाई का विवरण मिलता है, जिसमें पृथ्वीराज की हार हुई थी। जैन लेखकों के अनुसार पृथ्वीराज ने मारे जाने से पहले मोहम्मद गोरी को कई बार हराया था। हम्मीरमहाकाव्य का दावा है कि दोनों के बीच नौ लड़ाइयाँ हुईं। पृथ्वीराजप्रबंध के अनुसार पृथ्वीराज ने कम से कम सात बार गोरी को हराया था। प्रबंधकोष, प्रबंधचिंतामणि और पृथ्वीराजरासो जैसे अन्य ग्रंथों में इन विजयों की संख्या इक्कीस से लेकर बाईस तक बताई गई है। संभव है कि पृथ्वीराज के शासनकाल में चाहमानों और तुर्कों के बीच दो से अधिक मुठभेडें हुई हों।
मुहम्मद गोरी ने 1189 ई. में सतलज नदी को पारकर 1190-1191 ई. के बीच अचानक चौहान क्षेत्र पर आक्रमण किया और तबरहिंद (भटिंडा) के किले पर अधिकार कर लिया। पृथ्वीराज ने इस सामरिक महत्त्व के इस सीमावर्ती दुर्ग की रक्षा का कोई प्रबंध नहीं किया था, फिर भी, तबरहिंद के पतन की सूचना पाते ही उसने दिल्ली के गोविंदराज के साथ तबरहिंद पहुँचकर किले का घेरा डाल दिया।
तराइन का पहला युद्ध (1191 ई.)
तबरहिंद की विजय के बाद मुहम्मद गोरी वापस जाना चाहता था, किंतु जब उसे पृथ्वीराज द्वारा तबरहिंद के घेराबंदी की सूचना मिली, तो उसने लड़ाई का फैसला किया। 1191 ई. में तराइन के मैदान में मुहम्मद गोरी और पृथ्वीराज की सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ, जिसमें पृथ्वीराज की सेना ने मुहम्मद गोरी को निर्णायक रूप स पराजित कर दिया। एक समकालीन विवरण के अनुसार एक खिलजी घुड़सवार ने घायल मुहम्मद गोरी को बचाकर सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। पृथ्वीराज ने गोरी की हताश सेना का पीछा नहीं किया। संभवतः वह अपनी छावनी से बहुत दूर शत्रु प्रदेश में घुसना नहीं चाहता था। इस प्रकार पृथ्वीराज ने तबरहिंद (भटिंडा) के दुर्ग पर पुनः अधिकार कर संतोष की सांस ली।
पृथ्वीराज ने मुहम्मद गोरी के साथ अपने संघर्ष को मात्र एक सीमावर्ती झड़प समझा। संभवतः इसीलिए उसने गोर शासक के साथ अपने भावी संघर्ष के लिए कोई तैयारी नहीं की और वह निश्चिंत होकर रास-रंग में डूब गया। पृथ्वीराजरासो में पृथ्वीराज पर राजकीय क्रियाकलापों की उपेक्षा करने और आमोद-प्रमोद में लगे रहने का आरोप लगाया जाता है। हो सकता है कि यह सत्य न हो, किंतु यह सही है कि उसने गोरियों की ओर से संभावित ख़तरे को गंभीरता से नहीं लिया। दूसरी ओर, मुहम्मद गोरी अपनी असफलता से निराश नहीं हुआ। उसने गजनी पहुँचकर युद्ध की सुनियोजित योजना बनाई और ऐसे कई अमीरों को पद से हटा दिया, जो तराइन के प्रथम युद्ध में उसका पूरा साथ नहीं दे सके थे।
तराइन का दूसरा युद्ध (1192 ई.)
समकालीन इतिहासकार मिन्हाज-उस-सिराज की तबक़ात-ए नासीरी के अनुसार पृथ्वीराज से बदला लेने के लिए मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गोरी ने 1,20,000 चुने हुए अफ़गान, ताजिक और तुर्क घुड़सवारों की लौह-कवच और हथियारों से सुसज्जित सेना तैयार की। इसके बाद वह जम्मू के विजयराज की सहायता से मुल्तान और लाहौर होते हुए 1192 ई. में तराइन में मैदान में आ धमका। 17वीं सदी के इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार पृथ्वीराज की सेना में 3,000 हाथी, 3,00,000 घुड़सवार और भारी संख्या में पैदल सैनिक थे। यद्यपि ये संख्याएँ अतिशयोक्तिपूर्ण हैं, किंतु इतना निश्चित है कि पृथ्वीराज की सेना उसके प्रतिद्वंद्वी मुइज्जुद्दीन की सेना से संख्या में अधिक थी। फरिश्ता भी कहता है कि पृथ्वीराज के कहने पर ‘हिंद के सभी अग्रणी रायों’ ने उसे सहायता दी थी। किंतु यह कथन संदिग्ध है क्योंकि पृथ्वीराज ने अपने आक्रामक सैनिक अभियानों से अपने सभी पड़ोसियों को अपना शत्रु बना लिया था। संभव है कि पृथ्वीराज की सेना में दिल्ली के शासक गोविंदराज समेत उसके कुछ अधीनस्थ सामंत सम्मिलित रहे हों। किंतु यह मज़बूती के बजाय कमज़ोरी का कारण बना क्योंकि इन सामंती सैनिक टुकड़ियों में केंद्रीय निर्देशन अथवा नेतृत्व का नितांत अभाव था।
मिन्हाज-उस-सिराज बताता है कि मुइज्जुद्दीन गोरी ने नियोजित रणनीति के अनुसार अपने तीव्रगामी अश्वारोही धनुर्धरों के बल पर युद्ध किया। पृथ्वीराज पूर्णतः पराजित हुआ और युद्ध के मैदान से भाग निकला, किंतु उसे हिसार जिले में सुरसती (आधुनिक सिरसा) के निकट पकड़ लिया गया। इतिहासकार मिन्हाज-उस-सिराज के अनुसार उसकी तत्काल ही हत्या कर दी गई। किंतु हसन निजामी के अनुसार पृथ्वीराज को अजमेर ले जाया गया एवं उसे शासन करते रहने दिया गया। इसकी पुष्टि मुद्रा-विषयक साक्ष्यों से भी होती है क्योंकि पृथ्वीराज के सिक्कों पर ‘श्री मुहम्मद साम’ उत्कीर्ण मिलता है।
कुछ समय बाद राजद्रोह के अपराध में पृथ्वीराज को मृत्युदंड दे दिया गया। कवि चंदबरदाई के पृथ्वीराजरासो की इस कहानी में कोई सत्यता नहीं है कि पृथ्वीराज को गजनी ले जाया गया, जहाँ उसने अपनी आँखों पर पट्टी बँधी होने के बावजूद गोरी सुल्तान को एक तीर चलाकर मार दिया और उसके बाद उसके चंदबरदाई ने उसकी हत्या कर दी। सच तो यह है कि पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद मोहम्मद गोरी ने एक दशक से अधिक समय तक जीवित रहा।
तराइन की दूसरी लड़ाई (1192 ई.) भारतीय इतिहास की एक युगांतकारी घटना है। पृथ्वीराज की अदूरदर्शिता और राजनीतिक भूलों के परिणामस्वरूप शक्तिशाली चौहान साम्राज्य धराशायी हो गया और दिल्ली पर तुर्कों का अधिकार हो गया। मुहम्मद गोरी विजित स्थानों को अपने प्रतिनिधि कुतुबद्दीन ऐबक की अधीनता में छोड़कर वापस लौट गया। अगले दो वर्षों में कुतुबद्दीन ने अजमेर में विद्रोह का दमन किया, बरन तथा मेरठ को जीता और इस प्रकार दिल्ली तुर्क सत्ता का केंद्र बन गया।
पृथ्वीराज चौहान का मूल्यांकन
यद्यपि तराइन की लड़ाई में पृथ्वीराज पराजित हो गया, फिर भी, उसमें अनेक महानताएँ थीं। वह अपने समय का महान् योद्धा तथा सेनानायक था और तराइन की दूसरी लड़ाई के पहले कभी नहीं हारा था। दूसरी लड़ाई में भी उसकी हार का कारण वीरता और शौर्य की कमी नहीं थी, अपितु शत्रु का भुलावा और धोखा था, जिससे भ्रमित होकर वह क्षणिक आनंद में डूब गया। पृथ्वीराज तृतीय ने ‘दलपंगुल’ (विश्वविजेता) की उपाधि धारण की थी। वह एक विशाल साम्राज्य का स्वामी था, जो सतलज से बेतवा नदी तक और हिमालय पर्वत से आबू पर्वत की तलहटी तक विस्तृत था। कर्नल टॉड के अनुसार 108 सामंत बराबर उसकी सेवा में लगे रहते थे, जिनमें से अधिकतर पराजित राजा और राजकुमार ही थे। उसका शरीर बलिष्ठ, सुंदर एवं आकर्षक था। मुस्लिम लेखकों ने भी उसकी शक्ति की प्रशंसा की है।
पृथ्वीराज चौहान योद्धा होने के साथ-साथ स्वयं विद्वान् और विद्वानों का संरक्षक भी था। उसके संरक्षण में कश्मीरी ब्राह्मण जयानकभट्ट ने पृथ्वीराजविजय की रचना की। उसके अन्य दरबारी कवियों में विद्यापतिगौड, चारण पृथ्वीभट्ट, वागीश्वर, जनार्दन और विश्वरूप थे। चंदबरदाई को भी पृथ्वीराज का दरबारी कवि बताया जाता है, जिसका ग्रंथ पृथ्वीराजरासो हिंदी साहित्य का प्रथम महाकाव्य माना जाता है। उसके राजदरबार में विभिन्न संप्रदायों के आचार्य परस्पर शास्त्रार्थ करते थे, जिनकी व्यवस्था पद्यनाभ नामक मंत्री करता था। उसका मंत्री कदंबवास ‘सभाव्यास’ कहलाता था, जो उसकी विद्वता का द्योतक है। पृथ्वीराज चौहान को दिल्ली में खंडहर हो चुके रिायपिथौरा किले के निर्माण का श्रेय दिया जाता है।
14वीं-15वीं शताब्दी के प्रारंभिक संस्कृत साहित्य में पृथ्वीराज को असफल राजा के रूप में प्रस्तुत किया गया है। जैन साहित्य प्रबंधचिंतामणि और पृथ्वीराजप्रबंध में उसे एक अयोग्य राजा के रूप में चित्रित किया गया है, जो अपने पतन के लिए स्वयं ज़िम्मेदार था। किंतु चंदबरदाई ने पृथ्वीराजरासो में पृथ्वीराज को एक महान नायक के रूप में चित्रित किया है। आज पृथ्वीराज को ‘भारत का एक देशभक्त हिंदू योद्धा’ के रूप में चित्रित किया जा रहा है, जिसने मुसलमान आक्रांताओं से लड़ाई लड़ी थी। सर्वप्रथम कर्नल जेम्स टॉड ने अपने ग्रंथ ‘एनल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान’ में पृथ्वीराज के लिए बार-बार ‘अंतिम हिंदू सम्राट’ शब्द प्रयोग किया था। दरअसल, टॉड मध्ययुगीन फारसी भाषा के मुस्लिम विवरणों से प्रभावित था, जो पृथ्वीराज को एक प्रमुख शासक के रूप में प्रस्तुत किया है और उसकी पराजय को भारत में इस्लामी विजय को एक मील का पत्थर के रूप में चित्रित किया है। टॉड के बाद, कई आख्यानों में पृथ्वीराज को ‘अंतिम हिंदू सम्राट’ के रूप में वर्णित किया जाने लगा!
पृथ्वीराज चौहान के बाद
ऐसा लगता है कि पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद, मुहम्मद गोरी ने उसके पुत्र गोविंदराज को अजमेर के सिंहासन पर बैठाया। किंतु 1192 ई. में, पृथ्वीराज के छोटे भाई हरिराज ने गोविंदराज को पैतृक राज्य से अपदस्थ कर दिया। गोविंदराज रणस्तंभपुर (आधुनिक रणथंभौर) चला गया, जहाँ उसने ग़ोरी के अधीनता में एक नई चौहान शाखा स्थापित की।
बाद में, कुतबुद्दीन ऐबक ने हरिराज को पराजित कर चाहमान राज्य पर अधिकार कर लिया। अंत में, हरिराज ने अजमेर के दुर्ग में आत्मदाह कर लिया। इस प्रकार शाकम्भरी के चौहान राजवंश का अंत हो गया।
राजस्थान के कुछ अन्य चौहान वंश
नाडौल के चौहान
सांभर के चौहान वाक्पतिराज (प्रथम) के छोटे पुत्र लक्ष्मण (943-982 ई.) ने नाडौल पर अधिकार कर एक अन्य राज्य की स्थापना की थी, जिसके समय के दो शिलालेख नाडौल में मिले हैं। इस शाखा का अंतिम राजा सांमतसिंह (1197-1202 ई.) था।
रणथम्भौर के चौहान
पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद उसके पुत्र गोविंदराज ने रणथम्भौर में 1194 ई. में चौहान वंश की नींव डाली। उसके उत्तराधिकारी वल्हण को दिल्ली सुल्तान इल्तुतमिश ने पराजित कर दुर्ग पर अधिकार कर लिया था। इस वंश के शासक वाग्भट्ट (1226 ई.) ने पुनः दुर्ग पर अधिकार कर चौहान वंश का शासन पुनः स्थापित किया। रणथम्भौर के सर्वाधिक प्रतापी और अंतिम शासक हम्मीरदेव (1282-1303 ई.) ने विद्रोही सैनिक नेता मुहम्मदशाह को शरण दी, जिसके कारण दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर पर आक्रमण किया। 1301 ई. में हुए अंतिम युद्ध में हम्मीर की पराजय हुई और दुर्ग में रानियों ने जौहर किया। 11 जुलाई, 1301 को दुर्ग पर अलाउद्दीन खिलजी का कब्जा हो गया। इस युद्ध में अमीर खुसरो भी अलाउद्दीन की सेना के साथ था।
जालौर के चौहान
जालोर के चौहान शाखा की स्थापना नाडोल शाखा के कीर्तिपाल चौहान (1163-1182 ई.) ने परमारों से जालौर छीनकर की थी। जालौर का प्राचीन नाम जाबालीपुर था और यहॉ के किले को ‘सुवर्णगिरी‘ कहते है। इसके एक शासक चाचिगदेव (1257-1282 ई.) थे। किंतु जालौर के शासकों के सबसे प्रतापी शासक कान्हड़देव हुए। अलाउद्दीन खिलजी ने 1311 ई. में जालौर दुर्ग पर आक्रमण किया और कई दिनों के घेरे के बाद अलाउद्दीन की विजय हुई। कान्हड़देव और उसके पुत्र वीरमदेव सोनगरा युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। इस युद्ध की जानकारी पद्मनाभ के ग्रंथ कान्हड़देव तथा वीरमदेव सोनगरा री बात में मिलती है।
हाड़ौती के चौहान
राजस्थान का दक्षिणी-पूर्वी भाग को हाड़ौती अंचल कहा जाता है। 1241 ई. में देवीसिंह ने बूंदा मीण को हराकर बूंदी और देवीसिंह के पुत्र समरसिंह ने कोटिया भील को हराकर कोटा राज्य की स्थापना की थी।
भड़ौंच (गुजरात) के चौहान
भड़ौंच (गुजरात) क्षेत्र के हांसोट गाँव से चौहान शासक भर्तवढ़ढ (भर्तवद्ध) द्वितीय का दानपात्र मिला है, जो वि.सं. 813 का है। इस दानपात्र के अनुसार भर्तवढ़ढ द्वितीय नागावलोक का सामंत था। इससे लगता है कि भड़ौच के आसपास भी चौहानों का एक राज्य था।
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