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वर्धन (पुष्यभूति) वंश
पाँचवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उत्तर-पश्चिमी भारत पर होनेवाले हूण आक्रमण शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य के हृास के प्रमुख कारण बने। पंजाब और मालवा में उनके दो छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये, जो अगली कई शताब्दियों तक भारतीय राजनीति में एक विघटक तत्त्व के रूप में बने रहे। प्रायः उसी समय गुप्तों के सामंत मैत्रक भी वल्लभी में स्वतंत्र हो गये। पूर्व में कामरूप (असम) भगदत्तों के नेतृत्व में स्वतंत्र हो गया और बंगाल तथा उड़ीसा भौगोलिक तथा राजनीतिक इकाइयों के रूप में निखरने लगे। सिंध भी स्वतंत्र था। गुप्त साम्राज्य का हृदयस्थल (उत्तर प्रदेश और बिहार) भी कई छोटे-छोटे क्षेत्रों में बँट गया- मगध में परवर्ती गुप्तों की स्वतंत्र सत्ता स्थापित हो गई, तो कन्नौज में मौखरि राजवंश शासन करने लगा। इसी समय उत्तर में पुष्यभूति और उसके वंशजों ने थानेश्वर (कुरुक्षेत्र) में एक राज्य की स्थापना की। इस नये राजवंश को इसके संस्थापक के नाम पर ‘पुष्यभूति वंश’ तथा उसके वंशजों के नामांत शब्द ‘वर्धन’ के आधार ‘वर्धन वंश’ के नाम से जाना जाता है। इसी वर्धन वंश के अंतिम शासक हर्षवर्धन (606-647 ई.) ने सातवीं शती के प्रथमार्ध में पुनः उत्तर भारत में एक ऐसे साम्राज्य की स्थापना की, जो अपनी शक्ति और वैभव में शक्तिशाली गुप्तों से कमतर नहीं था, किंतु हर्षवर्धन ‘सकलोत्तरापथेश्वर’ मात्र था और नर्मदा के दक्षिण में अपनी सत्ता का प्रसार नहीं कर सका।
ऐतिहासिक स्रोत
पुष्यभूति और उसके वंशजों के इतिहास की जानकारी साहित्य, विदेशी विवरण और पुरातत्त्व, इन तीनों ही स्रोतों से मिलती है।
साहित्यिक
हर्षचरित: हर्षचरित नामक आख्यायिका की रचना हर्ष के सभापंडित बाणभट्ट ने अपने भाइयों के आग्रह पर की थी और यह वर्धन वंश के इतिहास की जानकारी का सर्वप्रमुख स्रोत है। इस ग्रंथ में वर्णित इतिहास की पुष्टि सम-सामयिक चीनी वृत्तों तथा तत्त्कालीन अभिलेखों से भी होती है। हर्षचरित में पुष्यभूति को सर्वत्र ‘पुष्पभूति’ कहा गया है। हर्षचरित में आठ उच्छ्वास (अध्याय) हैं। प्रथम दो उच्छ्वासों में बाण ने अपनी आत्मकथा लिखी है, जिसमें अपने वात्स्यायनगोत्रीय प्रीतिकूट नामक गाँव में बसनेवाले भृगुवंश और हर्ष के सानिध्य में पहुँचने का वर्णन किया है। हर्षचरित के तीसरे उच्छ्वास में बाण ने श्रीकंठ जनपद, स्थाणुवीश्वर (थानेश्वर) तथा पुष्यभूति और शैव संन्यासी भैरवाचार्य के पारस्परिक संबंधों की चर्चा की है। अंतिम पाँच उच्छ्वासों में प्रभाकरवर्धन, हूणों के उपद्रव, राज्यवर्धन और सम्राट हर्षवर्धन से संबंधित घटनाओं का वर्णन है। इस ग्रंथ से हर्षकालीन भारत की राजनीति एवं संस्कृति पर भी प्रकाश पड़ता है।
कादंबरी: बाणभट्ट की एक अन्य कृति ‘कादंबरी’ है, जिसे संस्कृत साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास कहा जा सकता है। कादंबरी से भी हर्षकालीन सामाजिक और धार्मिक जीवन का ज्ञान होता है।
आर्यमंजुश्रीमूलकल्प: ईसापूर्व सातवीं शताब्दी से लेकर आठवीं शताब्दी ईस्वी तक के प्राचीन भारत के इतिहास की जानकारी के लिए ‘आर्यमंजुश्रीमूलकल्प’ एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इस प्रसिद्ध महायान बौद्ध ग्रंथ को सर्वप्रथम गणपति शास्त्री ने 1925 ई. में प्रकाशित किया था। इस ग्रंथ में हर्ष के लिए केवल ‘ह’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
हर्ष के ग्रंथ: हर्ष ने स्वयं तीन नाटकों की रचना की थी- ‘प्रियदर्शिका’, ‘रत्नावली’ तथा ‘नागानंद’। इन नाटकों से भी तत्कालीन समाज और संस्कृति से संबंधित कुछ सूचनाएँ मिलती हैं।
चीनी यात्रियों के विवरण
भारत आनेवाले अनेक चीनी यात्रियों के विवरणों और उनके आधार पर लिखे गये चीनी-वृत्तों से भी हर्ष के संबंध में प्रभूत सामग्री मिलती है।
ह्वेनसांग (सी-यू-कि और जीवनी): चीनी यात्रियों के विवरणों में ह्वेनसांग का यात्रा-वृत्त सबसे महत्त्वपूर्ण है। ह्वेनसांग 20 वर्ष की अवस्था में बौद्ध भिक्षु हो गया था। वह गुरुओं तथा बौद्धग्रंथों की खोज में 26 वर्ष की आयु में 629 ई. में चीन से निकला और भारत में 16 वर्षों तक घूमने के बाद 645 ई. में चीन लौटा, जहाँ चीनी सम्राट ने उसका स्वागत किया। ह्वेनसांग को ‘यात्रियों में राजकुमार’, ‘नीति का पंडित’ और ‘वर्तमान शाक्यमुनि’ भी कहा जाता है।
ह्वेनसांग की यात्राओं का विवरण 648 ई. में चीनी भाषा में तैयार किया गया, जो संक्षेप में ‘सि-यू-कि’ के नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि ह्वेनसांग की यात्रा का मूल उद्देश्य बौद्धतीर्थों की यात्रा और बौद्धग्रंथों का संग्रह करना था, किंतु उसने यहाँ के लोगों के जीवन, रीति-रिवाजों और भौगोलिक क्षेत्रों का विवरण दिया है और थानेश्वर तथा कन्नौज के इतिहास के साथ-साथ अनेक राजनीतिक घटनाओं की भी चर्चा की है। ह्वेनसांग ने हर्षवर्धन द्वारा आयोजित कन्नौज की सभा और प्रयाग की महामोक्षपरिषद का भी ब्यौरेवार वर्णन किया है। इस प्रकार ह्वेनसांग के विवरण राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं, धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं।
ह्वेनसांग के कागज-पत्रों के आधार पर उसके शिष्य ह्वीली ने उसकी ‘जीवनी’ लिखी है। यद्यपि ‘सि-यू-कि’ और ‘जीवनी’ एक दूसरे की पूरक हैं, किंतु ‘जीवनी’ से अनेक ऐसी घटनाएँ वर्णित हैं, जो ह्वेनसांग के यात्रा-विवरण में नहीं हैं। ‘जीवनी’ का अंग्रेजी अनुवाद बील और वाटर्स ने किया है।
ली-इ-प्याओ और बैङ्ग-द्वान् शे: संभवतः ह्वेनसांग् की प्रेरणा से चीनी सम्राट् ने 643 में ली-इ-प्याओ नामक एक राजदूत को हर्ष के दरबार में भेजा था, जिसके साथ वांग-हियुएन-त्से नामक एक राज्याधिकारी भी आया था। इसके बाद वांग-हियुएन-त्से तीन बार और भारत आया, किंतु दुर्भाग्य से भारत के बारे में उसने जो कुछ लिखा, उसके कुछ गिने-चुने उद्धरण ही मिलते हैं।
इत्सिंग: हर्ष (शीलादित्य) के संबंध में लिखने वाले प्रमुख चीनी यात्रियों में इत्सिंग अंतिम था। इत्सिंग भी ह्वेनसांग् की तरह बौद्धतीर्थों की यात्रा करने और बौद्ध-साहित्य का संग्रह करने के उद्देश्य से 679 ई. में चीन से चलकर समुद्री मार्ग से होता हुआ भारत आया और 795 ई. में चीन लौटा। इत्सिंग का यात्रा-विवरण भी हर्षकालीन इतिहास के अध्ययन के लिए उपयोगी है, जिसका अंग्रेजी अनुवाद चीनी बौद्ध विद्वान् तक्कुसु ने ‘ए रिकार्ड ऑफ द बुद्धिस्ट रिलिजन’ नाम से किया है।
पुरातात्त्विक
अभी तक हर्ष के चार अभिलेख मिले हैं, जिनमें दो भूमिदान से संबंधित ताम्रपत्रों पर संस्कृत में खुदे हैं और दो मुहरों पर अंकित हैं।
बंसखेड़ा का लेख: तिथिक्रम की दृष्टि से बंसखेड़ा का ताम्रफलकाभिलेख पहला है, जिस पर हर्ष संवत् 22 अर्थात् 628 ईस्वी की तिथि अंकित है। यह लेख 1894 ई. में उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले के बंसखेड़ा नामक स्थान से मिला था। इस लेख से ज्ञात होता है कि हर्ष ने अहिछत्र भुक्ति के अंगदीया विषय के ‘मर्कटसागर’ नामक गाँव को भारद्वाजगोत्रीय ब्राह्मणों बालचंद्र और भट्टस्वामी को दान दिया था। यद्यपि इस लेख में नरवर्धन से लेकर राज्यवर्धन द्वितीय तक की संपूर्ण वंशावली राजमाताओं के नामों के साथ मिलती है, किंतु इस वंश के मूलपुरुष पुष्यभूति (पुष्पभूति) की कोई चर्चा नहीं है। इस लेख की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें अनेक प्रशासनिक इकाइयों, अधिकारियों और राजकीय करों के नाम मिलते हैं। इस लेख में राज्यवर्धन की मालवराज देवगुप्त तथा अन्य राजाओं पर विजय और गौड़नरेश शशांक द्वारा उसके वध का भी उल्लेख है। यही नहीं, इस लेख से हर्ष के पूर्वजों के आराध्य देवताओं और उनके व्यक्तिगत विश्वासों की भी जानकारी मिलती है।
मधुबन का लेख: हर्ष का एक दानपरक ताम्रपत्राभिलेख उत्तर प्रदेश के मऊ जिले की घोसी तहसील में स्थित मधुबन नामक स्थान से मिला है, जो हर्ष संवत् 25 अर्थात् 631 ईस्वी का है। इस लेख के अनुसार हर्ष ने श्रावस्ती भुक्ति के कुंडधानी विषय में स्थित ‘सोमकुंडा’ नामक गाँव वामरथ्य नामक ब्राह्मण के जाली अधिकार से छीनकर सावर्णिगोत्री भट्टवातस्वामी और विष्णुवृद्धगोत्री भट्टशिवदेवस्वामी को अग्रहाररूप (दान में) दिया था। इस लेख की अन्य सभी बातें बंसखेड़ा के लेख की आवृत्तिमात्र हैं।
मुहरें: हर्षवर्धन की दो मुहरें नालंदा और सोनपत (दिल्ली के निकट सोनीपत) से मिली है। इनमें पहली मुहर मिट्टी की और दूसरी ताँबे की है। सोनपत की मुहर पर महाराज राज्यवर्धन (प्रथम) से लेकर हर्षवर्धन तक की वंशावली उनकी रानियों के नाम के साथ मिलती है। इसी मुहर में हर्ष का पूरा नाम ‘हर्षवर्धन’ मिलता है। इसके अलावा, हर्ष की एक स्वर्ण मुद्रा मिलने का दावा के.डी. बाजपेयी ने किया है, जिसके मुख भाग पर ‘परमभट्टारकमहाराजाधिराज श्रीहर्षदेव’ अंकित है तथा पृष्ठ भाग पर ‘उमामाहेश्वर’ की आकृति है।
ऐहोल का लेख: हर्षवर्धन के समकालीन बादामी के चालुक्यराज पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल लेख से हर्ष-पुलकेशिन युद्ध में हर्ष के पराजय की सूचना मिलती है। इस लेख की रचना 633-34 ई. रविकीर्ति ने की थी। इसके अलावा, नौसारी लेख, मयूर प्रशस्ति और गद्देमन्ने लेख से भी हर्षकालीन कुछ सूचनाएँ मिलती हैं।
वर्धन वंश की उत्पत्ति
वर्धन वंश की उत्पत्ति के संबंध में मतभेद है। बाणभट्ट ने हर्षचरित में पुष्यभूतियों और मौखरियों की तुलना ‘चंद्र’ और ‘सूर्य’ से की है (सोमसूर्यवपुष्यभूतिमुख)। इस आधार पर के.पी. जायसवाल, एन. राय, पीटरसन जैसे कुछ इतिहासकार पुष्यभूति वंश को क्षत्रिय मानने का आग्रह करते हैं। किंतु आर.एस. त्रिपाठी, बी.एस. पाठक, यू.एन. घोषाल जैसे अधिकांश इतिहासकार वर्धन वंश को वैश्य मानते हैं क्योंकि चीनी यात्री ह्वेनसांग के ‘सि-यू-कि’ में हर्ष को ‘फी-शे’ अर्थात् वैश्य (बैस) जाति का बताया गया है और बौद्धग्रंथ ‘आर्यमंजुश्रीमूलकल्प’ से भी इसकी पुष्टि होती है। राज्यश्री का ग्रहवर्मा (क्षत्रिय) अथवा हर्ष की पुत्री का वल्लभीराज से विवाह से भी यह सिद्ध नहीं होता कि हर्ष और उसके पूर्वज क्षत्रिय ही थे। अतः वर्धनों को वैश्य (बैस) मानना ही उचित है।
वर्धन राजवंश का प्रारंभिक इतिहास
दिल्ली और पंजाब के प्राचीन कुरुक्षेत्र प्रदेश में ‘श्रीकंठ’ नामक एक समृद्धिशाली जनपद था, जिसकी राजधानी स्थाणुवीश्वर अथवा थानेश्वर (हरियाणा के करनाल जिले का थानेसर) थी। बाणभट्ट के अनुसार हर्ष के प्रथम पूर्वज पुष्यभूति (पुष्पभूति) था, जिसने छठी शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ में थानेश्वर के आसपास के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया और पुष्यभूति राजवंश की स्थापना की।
पुष्यभूति शिव का बड़ा भक्त था और दक्षिणदेश के भैरवाचार्य नामक एक शैव संन्यासी से बहुत प्रभावित था। कहा जाता है कि पुष्यभूति को उस आचार्य ने राजा होने का वरदान दिया था। किंतु पुष्यभूति की तिथि के संबंध में कोई स्पष्ट सूचना नहीं है। हर्षवर्धन के लेखों में भी उसका नाम नहीं मिलता है। हर्षचरित में पुष्यभूति को केवल ‘राजा’ और ‘भूपाल’ कहा गया है, जो उसकी सामंत स्थिति का सूचक है।
बंसखेड़ा, मधुबन के लेखों और सोनपत तथा नालंदा से प्राप्त मुहरों में नरवर्धन को पुष्यभूति (वर्धन) वंश का पहला शासक बताया गया है। लेखों से ज्ञात होता है कि नरवर्धन की रानी वज्रिणीदेवी से राज्यवर्धन (प्रथम) उत्पन्न हुआ। राज्यवर्धन (प्रथम) की पत्नी अप्सरादेवी से आदित्यवर्धन पैदा हुआ, जिसने परवर्ती गुप्तवंश की राजकुमारी महासेनगुप्ता से विवाह किया। संभवतः इसी वैवाहिक संबंध के बाद वर्धन वंश की राजनीतिक सत्ता का विकास हुआ।
आदित्यवर्धन की पत्नी महासेनगुप्ता से उसका पुत्र प्रभाकरवर्धन उत्पन्न हुआ, जो वर्धन वंश का पहला सम्राट् था। उसकी रानी यशोमति (यशोवती) से राज्यवर्धन (द्वितीय), हर्षवर्धन और राज्यश्री नामक तीन संतानें हुईं।
प्रभाकरवर्धन
यद्यपि गुप्त साम्राज्य के अवनति काल में थानेश्वर में पुष्यभूतियों ने अपना एक छोटा-सा राज्य स्थापित कर लिया था, किंतु उनकी शक्ति का विकास प्रभाकरवर्धन के समय से ही प्रारंभ हुआ और इसी समय से वर्धनों का क्रमबद्ध इतिहास भी मिलने लगता है। वस्तुतः प्रभाकरवर्धन ही इस वंश का पहला सम्राट् था, जिसने ‘परमभट्टारक’ और ‘महाराजधिराज’ की उपाधियाँ धारण की, जो उसकी स्वतंत्र स्थिति का परिचायक है। हर्षचरित के अनुसार वह अपने दूसरे विरुद ‘प्रतापशील’ से भी प्रसिद्ध था।
प्रभाकरवर्धन एक शक्तिशाली शासक था। उसकी उपलब्धियों के संबंध में बाणभट्ट ने हर्षचरित में कहा है कि ‘वह (प्रभाकरवर्धन) ‘हूणरूपी हिरनों के लिए सिंह के समान’ (हूणहरिणकेशरी), ‘सिंधु देश के राजा के लिए ज्वरस्वरूप’ (सिंधुराजज्वरो), ‘गुर्जरों की निद्रा को भंग करने वाला’ (गुर्जरप्रजागरः), ‘गंधारराजरूपी मस्त हाथी के लिए जलता हुआ बुखार’ (गांधाराधिपगंधद्विपकूटपाटज्वरः), ‘लाटों की पटुता को नष्ट करने वाला’ (लाटपाटवपाटच्चरः) और ‘मालवा की राजलक्ष्मीरूपी लता के लिए कुल्हाड़ी के समान’ (मालवलक्ष्मीलतापरशुः) था।’
यद्यपि इन विशेषणों से प्रभाकरवर्धन के बढ़ते हुए प्रभाव और शक्ति की सूचना मिलती है, किंतु हर्षचरित में उल्लिखित इन राजाओं अथवा क्षेत्रों पर उसकी सैनिक विजयों की कोई स्पष्ट सूचना नहीं मिलती है। यह स्पष्ट है कि थानेश्वर राज्य के उत्तर-पश्चिम में हूणों का अधिकार-क्षेत्र था और हर्षचरित से पता चलता है कि अपनी वृद्धावस्था के बावजूद उसने अपने पुत्र राज्यवर्धन को हूणों से युद्ध करने के लिए भेजा था, जिसने हूणों को पराजित भी किया था। प्रभाकरवर्धन जैसे प्रतापी राजा के लिए हूण क्षेत्रों से आगे बढ़कर गांधारदेश के राजा को पराजित करना भी असंभव नहीं था। संभवतः उसने थानेश्वर राज्य से सटे राजपूताना और पंजाब के कुछ गुर्जर क्षेत्रों पर भी अधिकार किया था। मालवा पर गुप्तवंशी राजाओं का राज्य था, जो कन्नौज के मौखरियों के शत्रु थे। दक्षिण-पश्चिम में अपने राज्य की सुरक्षा के लिए ही प्रभाकरवर्धन ने अपनी पुत्री राज्यश्री का विवाह मौखरि नरेश ग्रहवर्मा से किया था। संभवतः यही विवाह-संबंध मालवा और थानेश्वर के बीच शत्रुता का कारण था। प्रभाकरवर्धन ने संभवतः मालवा की भी विजय की थी, किंतु मालवा के पराजित शासक के बारे में कोई जानकारी नहीं है। सिंधु और लाट थानेश्वर राज्य से बहुत दूर थे और ऐसा नहीं लगता कि उनके शासक प्रभाकरवर्धन से भयभीत हुए होंगे। इसलिए प्रभाकरवर्धन को ‘सिंधुराज के लिए ज्वर’ और ‘लाटों की चंचलता का विनाशक’ कहना’ कवि की कोरी कल्पना लगती है।
लगता है कि प्रभाकरवर्धन में प्रचुर संगठनात्मक शक्ति थी और थानेश्वर के आसपास के राज्यों पर उसका पर्याप्त राजनीतिक प्रभाव था। उसने कन्नौज के मौखरि शासक ग्रहवर्मा से अपनी पुत्री राज्यश्री का विवाह कर मौखरियों का बहुमूल्य सहयोग प्राप्त किया, जो उसकी कूटनीतिक प्रतिभा का प्रमाण है। अतः पुष्यभूति वंश की सार्वभौम सत्ता का प्रथम संस्थापक प्रभाकरवर्धन ही था।
महाराजाधिराज प्रभाकरवर्धन की रानी यशोमति से दो पुत्रों राज्यवर्धन और हर्षवर्धन के अलावा एक पुत्री राज्यश्री भी उत्पन्न हुई थी। राज्यश्री के जन्म के समय यशोमती के भाई ने अपने आठवर्षीय पुत्र भंडि को थानेश्वर के दरबार में भेज दिया था। प्रभाकरवर्धन ने संभवतः राजनीतिक कारणों से कम उम्र में ही अपनी पुत्री राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखरि राजा ग्रहवर्मा के साथ कर दिया था, जिसके फलस्वरूप वर्धनों एवं मौखरियो के बीच मैत्री-संबंध स्थापित हुआ था। मौखरियों के अतिरिक्त मालवा के उत्तरगुप्त शासक महासेनगुप्त के साथ भी उसका मधुर-संबंध था और उसके दो पुत्र- कुमारगुप्त तथा माधवगुप्त प्रभाकरवर्धन के दरबार में रहते थे।
राज्यवर्धन
प्रभाकरवर्धन की तीनों संतानों में राज्यवर्धन सबसे ज्येष्ठ था। हर्षचरित के अनुसार से पता चलता है कि 604 ई. के लगभग थानेश्वर की उत्तर-पश्चिमी सीमाओं पर हूणों ने आक्रमण किया। वृद्धावस्था और संभवतः अस्वस्थ होने के कारण प्रभाकरवर्धन ने हूणों के दमन का कार्य राज्यवर्धन को सौंपा। जब राज्यवर्धन हूणों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए उत्तरी-पश्चिमी सीमा की ओर गया, तो उसका छोटा भाई हर्ष भी उसके पीछे-पीछे गया। राज्यवर्धन की सेनाएँ आगे बढ़कर हूणों का पीछा करने लगीं और हर्ष हिमालय के जंगलों में शिकार करने लगा। राज्यवर्धन अभी हूणों के दमन में व्यस्त था कि हर्ष को ‘कुरंगक’ नामक राजदूत ने अपने पिता प्रभाकरवर्धन के गंभीर रूप से बीमार होने की सूचना दी। हर्ष तत्काल राजधानी थानेश्वर वापस लौट आया और देखा कि रसायन’ तथां ‘सुषेन’ जैसे राजवैद्यों के उपचार के बावजूद प्रभाकरवर्धन के जीवन की आशा समाप्त हो चुकी थी। अंतिम साँस लेते हुए महाराजाधिराज ने हर्ष को गद्दी सँभालने के लिए कहा, किंतु हर्ष ने इनकार कर दिया। इसी समय प्रभाकरवर्धन की मृत्यु हो गई और रानी यशोमति ने अग्नि में कूदकर आत्मदाह कर लिया। राज्यवर्धन को बुलाने के लिए बारी-बारी से कई दूत भेजे गये। राज्यवर्धन तब तक हूणों पर विजय पा चुका था और वह पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर शीघ्र ही थानेश्वर पहुँच गया।
राज्यवर्धन स्वभावतः निवृत्तिपरक था और वंशपरंपरा के विपरीत बौद्ध-धर्मानुयायी भी हो गया था (श्री यशोमत्यामत्पनः परमसौगतः सुगतइव)। वह राज्य-शासन के प्रपंचों में न पड़कर संन्यासी बनना चाहता था (राज्ये विषय इव चकोरस्य में विरक्तं चक्षुः)। अभी हर्षवर्धन, दरबारी और मंत्री राज्यवर्धन से थानेश्वर की गद्दी सँभालने का आग्रह कर ही रहे थे कि राज्यश्री के विश्वासपात्र सेवक ‘संवादक’ ने उन्हें सूचित किया कि, ‘जिस दिन राजा (प्रभाकरवर्धन) की मृत्यु का समाचार फैला, उसी दिन दुष्ट मालवराज ने स्वामी ग्रहवर्मा को मार डाला। राज्यश्री को एक चोरनी की तरह पैरों में बेंड़ियाँ डालकर कान्यकुब्ज में बंदी बना लिया है। समाचार तो यह भी है कि वह दुष्ट यहाँ की सेना को नेतृत्वहीन जानकर इस राज्य पर भी आक्रमण करना चाहता है’-
‘यस्मिन्नहनि अवनिपतिरूपरत इति अभूत वार्ता तस्मिन्नेव देवो ग्रहवर्मा दुरात्मना मालवराजेन जीवलोकमात्मनः सुकृतेन सह त्याजिता भतृदारिकापि राज्यश्रीः कालायसनिगड़चुम्बितचरणा चौरागणेव संयत कान्यकुब्जे कारायां निक्षिप्ताः। किवदन्ती च एतामपि भुवमाजिगमिषतीति।’ हर्षचरित
ग्रहवर्मा की हत्या की सूचना ने राज्यवर्धन के शोक को क्रोध में परिवर्तित कर दिया और वह विराग भाव त्यागकर कर्त्तव्यपथ की ओर मुड़ गया। उसने मालव राजवंश को उखाड़ फेंकने की प्रतिज्ञा की और दस हजार अश्वारोहियों की एक सेना तैयार लेकर ममेरे भाई भंडि के साथ मालवराज को दंड देने के लिए प्रस्थान किया। ज्ञात होता है कि हर्ष भी अपने भाई के साथ युद्ध में जाना चाहता था, किंतु राज्यवर्धन ने उसे परिवार और राज्य की सुरक्षा का उत्तरदायित्व सौंपकर उसे थानेश्वर में ही रोक दिया।
राज्यवर्धन की हत्या
हर्ष के लेखों तथा हर्षचरित से पता चलता है कि राज्यवर्धन ने ‘खेल ही खेल’ में देवगुप्त को मार डाला, किंतु देवगुप्त के मित्र गौड़नरेश शशांक ने धोखा देकर राज्यवर्धन की जीवन लीला समाप्त कर दी। मधुबन तथा बंसखेड़ा के लेखों में कहा गया है कि, ‘देवगुप्त आदि राजाओं को एक साथ जीतकर, अपने शत्रुओं का मूलोच्छेदकर, संसार पर विजय प्राप्तकर और प्रजा को संतुष्टकर महाराज राज्यवर्धन ने सत्यानुरोध में शत्रु के भवन में अपने प्राण खो दिये’-
राजानो युधि दुष्टवाजिन इव श्रीदेवगुप्तादयः।
कृत्वा येन कशाप्रहारविमुखास्सर्वे समं संयताः।
उत्खाय द्विषतो विजित्य वसुधाम् कृत्वा जनानांप्रिय।
प्राणानुज्झितवानरातिभवेन सत्यानुरोधेन यः।। बंसखेड़ा अभिलेख
हर्षचरित के अनुसार अश्वसेना के ‘कुंतल’ नामक सेनापति ने हर्ष को थानेश्वर की राज्यसभा में आकर यह संदेश दिया कि ‘यद्यपि राज्यवर्धन ने मालव सेना को खेल ही खेल में जीत लिया था, किंतु किंतु गौड़राज ने अपने दिखावटी शिष्टाचार का सहारा लेकर उन्हें अकेला और शस्त्रहीन दशा मे अपने ही भवन में मार डाला’ (तस्याच हेलानिर्जितमालवानीकमपि गौडाधिपेन मिथ्योपचारोपचितविश्वासं मुक्तशास्त्रमेकाकिनं विश्रब्धं स्वभवन एव भ्रातरं व्यापादितमश्रोषीत्)।
इसकी पुष्टि ह्वेनसांग के विवरण से भी होती है। हर्षचरित के टीकाकार शंकरार्य से भी ज्ञात होता है कि शशांक ने भोले-भाले राज्यवर्धन को अपनी पुत्री के विवाह का झांसा देकर अपने यहाँ बुलाया और भोजन करते समय धोखे से उसे मार डाला।
सुधाकर चट्टोपाध्याय का अनुमान है कि राज्यवर्धन ने केवल देवगुप्त को ही नहीं, अपितु शत्रु राजाओं के एक संघ को पराजित किया क्योंकि लेख में ‘देवगुप्तदयः’ शब्द मिलता है। संभवतः देवगुप्त का अंत करने के बाद राज्यवर्धन ने उसके मित्र शशांक का भी अंत करने का निश्चय किया, किंतु तभी शशांक ने अपनी कूटनीति में फँसाकर उसे मार डाला।
आर.पी. चंदा का विचार है कि राज्यवर्धन और शशांक के बीच सीधा संघर्ष हुआ, जिसमें शशांक ने उसे पराजित करके युद्ध-क्षेत्र में ही मार डाला। किंतु हर्षचरित में हर्ष स्वयं कहता है कि गौड़नरेश ने छल-कपट से शस्त्रहीन राज्यवर्धन की हत्या की और उसका यह कार्य वीरोचित नहीं था। सत्यता जो भी हो, शशांक ने राज्यवर्धन की हत्या करके कुछ समय के लिए कन्नौज पर अधिकार कर लिया।
हर्षवर्धन और उसका काल (606-647 ईस्वी)
राज्यवर्धन की हत्या के बाद 16 वर्षीय राजकुमार हर्षवर्धन, जिसे ‘शीलादित्य’ भी कहा गया है, थानेश्वर के पुष्यभूति (वर्धन) राजवंश की गद्दी पर आसीन हुआ। इस समय समस्त उत्तर भारत राजनीतिक विकेंद्रीकरण और आंतरिक कलह का शिकार था। अपने इक्तालिस वर्षीय शासनकाल में ‘शीलादित्य’ हर्ष ने सम्राट अशोक और समुद्रगुप्त की भाँति विकेंद्रीकरण की प्रवृत्तियों का उन्मूलन कर उत्तर भारत के विशाल भूभाग को अपने साम्राज्य के अंतर्गत संगठित करने का प्रयत्न किया, जिसमें उसे कुछ हद तक सफलता भी मिली।
हर्ष का प्रारंभिक जीवन
हर्षवर्धन का जन्म 591 ईस्वी के आसपास हुआ था। वह परमभट्टारक महाराजाधिराज प्रभाकरवर्धन तथा यशोमति का कनिष्ठ पुत्र और राज्यश्री का बड़ा भाई था। उसने अपना बचपन ममेरे भाई भंडि और मालवराज महासेनगुप्त के दो पुत्रों- कुमारगुप्त और माधवगुप्त के साथ व्यतीत किया था। उसे राजकुमारों के अनुरूप शिक्षा-दीक्षा दी गई, जिसके कारण वह सोलह वर्ष की अल्पायु में ही युद्ध-विद्या के साथ-साथ शास्त्रों और ललित कलाओं में पारंगत हो चुका था।
हर्षचरित से पता चलता है कि राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद वह राजसिंहासन ग्रहण करने में संकोच कर रहा था, किंतु वृद्ध सेनापति सिंहनाद ने हर्ष को उत्साहित करते हुए कहा: ‘राजा दिवंगत हो गये हैं और गौडराजरूपी सर्प ने राज्यवर्धन को डस लिया है। इस घोर विपत्ति में पृथ्वी को धारण करने के लिए शेषनाग के समान आप ही शेष रह गये हो। अपनी अरक्षित प्रजा की रक्षा करो, अपने चरण शत्रुओं के मस्तकों पर रखो और आज ही अधम गौड़राज को समाप्त कर देने की प्रतिज्ञा करो’ (देव देवभूयं गते नरेन्द्रे दुष्ट गौड़ भुजंग जग्ध जीविते च राज्यवर्धने व्रत्तेऽस्मिन् महाप्रलये धरणीधारणायाधुना त्वं शेषः)।
वृद्ध सिंहनाद के ओजस्वी संबोधन से हर्ष का विषाद दूर हो गया और उसने प्रतिज्ञा की: ‘यदि मैं कुछ गिने-चुने दिनों के भीतर अपने धनुषों की चपलता के कारण उत्तेजित सभी (शत्रु) राजाओं के पैरों में बेड़ियाँ डालकर उनकी झँकार से सारी पृथ्वी को झंकृत न कर दूँ और गौड़राज से उसे (पृथिवी को) रहित न कर दूँ, तो जलती हुई अग्नि में पतंगे की भाँति जल मरूँगा’ (यदि परिगणितैरेव वासरेः सकलचापचापल दुर्ललितनरपति चरणरणरणायमान निगडां निगौड़ां गां न करोमि ततस्तनूनपाति पीतसर्पिषि पतंग इव पातकी पातयाम्यात्मानम्)। इस प्रकार 606 ई. में हर्षवर्धन पुष्यभूति राजवंश की गद्दी पर बैठा। संभवतः 606 ईस्वी में अपने राज्यारोहण के अवसर पर उसने एक नये संवत् का प्रचलन किया, जो ‘हर्ष संवत्’ के नाम से प्रसिद्ध है।
हर्षवर्धन की समस्याएँ
राज्यारोहण के समय हर्ष के सामने दो तात्कालिक समस्याएँ थीं- एक, अपने बड़े भाई राज्यवर्धन के हत्यारे गौड़ नरेश शशांक को दंडित करना, और दूसरे, कन्नौज के कारागार से अपनी बहन राज्यश्री को मुक्त कराना। इसके अलावा, हर्ष को उन सभी राजाओं और सामंतों को भी दंडित करना था, जिन्होंने प्रतिकूल परिस्थिति का लाभ उठाकर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी।
दिग्विजय की तैयारी
राज्यारोहण के अवसर पर हर्ष ने अपने शत्रु गौड़ नरेश से बदला लेने की प्रतिज्ञा की थी। इसी समय उसने युद्ध-सचिव अवंति के माध्यम से अन्य स्वाधीन हुए राजाओं और सामंतों को भी चेतावनी दी थी कि वे या तो कर देने के लिए या फिर युद्ध के लिए तैयार हो जायें।
बाणभट्ट की ‘हर्षचरित’ में हर्ष की विजय-यात्रा का रोचक वर्णन मिलता है। इसके अनुसार हर्ष की सेना प्रतिदिन आठ कोस (16 मील) की दूरी तय करती थी। पहले दिन की यात्रा के बाद हर्ष से कामरूप के राजा भास्करवर्मा का दूत ‘हंसबेग’ मिला, जो बहुमूल्य उपहारों के साथ ‘शाश्वत मित्रता’ का प्रस्ताव लेकर आया था। हर्ष ने भास्करवर्मा के मैत्री-प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। वास्तव में, यह संधि एक उभयनिष्ठ शत्रु शशांक के विरुद्ध की गई थी, क्योंकि वह हर्ष और भास्करवर्मा दोनों का शत्रु था।
राज्यश्री की खोज
हर्षवर्धन की विजयों का न तो सही निरूपण संभव है और न ही उनकी तिथियों का स्पष्ट रूप से निर्धारण किया जा सकता है। हर्षचरित से पता चलता है कि जब वह सेना लेकर आगे बढ़ा, तो मार्ग में ही उसका ममेरा भाई भंडि मिला, जो राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद सेना के साथ थानेश्वर वापस लौट रहा था। भंडि ने राज्यवर्धन की हत्या का पूरा वृत्तांत सुनाया और यह भी बताया कि किसी ‘गुप्त’ नामक व्यक्ति ने कान्यकुब्ज पर अधिकार कर लिया है और राज्यश्री कन्नौज के कारागार से निकलकर विंध्यावटी के जंगलों में चली गई है। हर्ष ने अपनी सेना को भंडि के नेतृत्व में छोड़ दिया और माघवगुप्त तथा कुछ अन्य सामंतों के साथ राज्यश्री की खोज में दक्षिण में विंध्य के जंगलों की ओर चल पड़ा।
हर्षचरित से पता चलता है कि विंध्यवन में हर्ष की भेंट ग्रहवर्मा के बचपन के मित्र दिवाकरमित्र से हुई, जो बौद्धभिक्षु होकर उन जंगलों में रहता था। हर्ष ने दिवाकरमित्र की सहायता से राज्यश्री को उस समय खोज निकाला, जब वह चिता में प्रवेशकर आत्मदाह करने जा रही थी। राज्यश्री को बचाकर हर्ष दिवाकरमित्र के आश्रम में कुछ दिन बिताकर पुनः गंगा नदी के तट पर वापस आया, जहाँ भंडि के नेतृत्व में उसकी सेना प्रतीक्षा कर रही थी। इसी स्थान पर अचानक बाणभट्ट ने अपना वृत्त समाप्त कर दिया है।
कन्नौज की राजगद्दी पर अधिकार
हर्ष के शासनकाल की प्रारंभिक घटनाओं का तिथिक्रम निश्चित करना कठिन है। हर्षचरित में कोई तिथि नहीं मिलती, सि-यू कि से भी न तो सभी घटनाओं की सूचना मिलती है और न ही किसी तिथि का ज्ञान होता है। स्रोतों से ज्ञात होता है कि ग्रहवर्मा की मृत्यु के बाद राज्यवर्धन ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया था, किंतु ह्वेनसांग ने उसका उल्लेख नहीं किया है। इसके विपरीत हर्षचरित से पता चलता है कि ग्रहवर्मा की हत्या के बाद किसी ‘गुप्त’ नामधारी ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया था।
संभवतः शशांक ने बिना युद्ध के ही कन्नौज को खाली कर दिया था क्योंकि देवगुप्त के मारे जाने से उसे मालवा से कोई सहायता मिलने की आशा नहीं थी और हर्ष-भाष्करवर्मा की मैत्री से बंगाल स्थित उसका राज्य पूर्व और पश्चिम में शत्रुओं से घिर गया था। इस प्रकार कन्नौज ने पुनः अपनी स्वतंत्रता प्राप्त कर ली।
ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है कि महामंत्री पोनी (भंडि) ने भरे दरबार में मंत्रियों के समक्ष हर्ष के राज्यभार ग्रहण करने का प्रस्ताव रखा। संभवतः राज्यश्री ने भिक्षुणी हो जाने के कारण शासन करने से इनकार कर दिया था। फलतः हर्ष ने गंगा के किनारे स्थित अवलोकितेश्वर बोधिसत्त्व की मूर्ति से राज्य-ग्रहण के लिए अनुमति माँगी। बोधिसत्त्व ने हर्ष को इस शर्त के साथ शासन सँभालने की आज्ञा दी कि वह राजगद्दी पर नहीं बैठेगा और ‘महाराज’ की पदवी भी धारण नहीं करेगा। हर्ष ने अपने को ‘राजपुत्र’ कहा तथा अपना उपनाम ‘शीलादित्य’ रखा। लगता है कि राज्यश्री ने कुछ समय तक हर्ष की देखरेख में शासन किया, क्योंकि चीनी स्रोतों से पता चलता है कि हर्ष और राज्यश्री संयुक्त रूप से शासन का संचालन करते थे।
प्रायः सभी इतिहासकार मानते हैं कि हर्ष की राजगद्दी के प्रति यह उदासीनता कन्नौज के राज्य के संबंध में ही रही होगी, क्योंकि हर्ष राज्यश्री को ही कन्नौज की गद्दी का वास्तविक उत्तराधिकारी मानता था। राज्यवर्धन के किसी उत्तराधिकारी के अभाव में हर्षवर्धन ने अपने को थानेश्वर की गद्दी का उत्तराधिकारी पहले ही मान लिया था। यही नहीं, गंगा कन्नौज के ही पास होकर बहती थी, थानेश्वर के पास से नहीं। हर्ष गंगा के किनारे स्थित बोधिसत्त्व की मूर्ति की आज्ञा से ही कन्नौज के सिंहासन पर बैठा था।
संभवतः बाद में राज्यश्री की सहमति से हर्ष ने 606 ई. में ही कन्नौज की राजगद्दी पर अधिकार कर लिया और उसी वर्ष उसने थानेश्वर को छोड़कर कन्नौज को अपनी राजधानी बना लिया। यह भी हो सकता है कि कन्नौज तथा थानेश्वर के एकीकरण के उपलक्ष्य में ही हर्ष ने नये संवत् को चलाया हो। लगता है कि हर्ष ने ‘महाराज’ की पदवी धारण न करने की अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं किया क्योंकि उसके बंसखेड़ा अभिलेख में उसकी उपाधि ‘महाराजाधिराज’ (स्वहस्तोमम महाराजाधिराज श्री हर्षस्य) मिलती है।
हर्ष की विजय-यात्रा
हर्ष ने राज्यवर्धन की हत्या के बाद शशांक जैसे शत्रुओं को दंडित करने के लिए सेना के साथ प्रयाण किया था, किंतु लगता है कि राज्यश्री की खोज के बाद उसने पहले कन्नौज की राजगद्दी पर अधिकार किया और थानेश्वर तथा कन्नौज का एकीकरण करने के बाद कन्नौज को राजधानी बनाकर अपनी विजय-योजनाओं को कार्यान्वित किया।
ह्वेनसांग के ‘सि-यू-कि’ का जो अनुवाद वाटर्स ने किया है, उसके अनुसार ‘शीलादित्य ने राजा बनते ही एक बड़ी सेना इकट्ठी की और अपने भाई की हत्या का बदला लेने और समीपवर्ती देशों को अधीन करने चल पड़ा। पूर्व की ओर बढ़कर उसने उन राज्यों पर आक्रमण किया, जिन्होंने उसकी अधीनता नहीं मानी थी और छह वर्षों तक अनवरत युद्ध में उसने ‘पंचभारतों’ को अपने अधीन किया। अपने शासित क्षेत्रों को बढ़ाकर उसने अपनी सेना बढ़ाई और तीस वर्षों तक बिना कोई शस्त्र उठाये शांतिपूर्वक शासन किया।
किंतु बील और वाटर्स के अनुवादों में परस्पर विरोध है। जहाँ वाटर्स् के अनुसार हर्ष ने तीस वर्षों तक ‘शांतिपूर्वक शासन’ किया, वहीं बील के अनुसार हर्ष ‘तीस वर्षों तक लड़ता’ रहा। यद्यपि इतिहासकारों में मतभेद है कि इन दोनों अनुवादों में किसे प्रामाणिक माना जाए, किंतु इतना निश्चित है कि हर्ष को 619 ई. तक गौडराज शशांक के विरूद्ध सफलता नहीं मिली थी और उसे बादामी के चालुक्य शासक द्वितीय पुलकेशिन् ने पराजित हुआ था। यही नहीं, 643 ई. में हर्ष ने कांगोद की विजय की थी। एक अन्य चीनी लेखक मा-त्वान-लिन् भी बताता है कि 618 से 627 ईस्वी तक हर्ष लगातार कई युद्धों में फँसा रहा। वैसे भी, तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों में किसी भी राजा के लिए तीस वर्षों के लंबे काल तक शांतिपूर्वक शासन कर सकना कठिन था।
पंचभारतों की पहचान को लेकर भी इतिहासकारों के बीच विवाद है। गौरीशंकर चटर्जी, डॉ. मुकर्जी तथा डॉ. त्रिपाठी जैसे विद्वानों के अनुसार ‘पंचभारतों’ का आशय सारस्वत (पंजाब) कान्यकुब्ज, गौड, मिथिला और उत्कल (उड़ीसा) के प्रदेशों से है, जो उत्तर भारतीय ब्राह्मणों की पाँच शाखाओं के केंद्र थे। किंतु ह्वेनसांग स्वयं कहता है कि ‘भारत’ शब्द के भीतर माने जाने वाले देश ‘पंचभारतों’ के नाम से जाने जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि ‘पंचभारतों’ से उसका तात्पर्य सारे भारतवर्ष से था, न कि केवल उत्तरी भारत से। भारतीय साहित्य में भी भारत के पाँच खंड बताये गये हैं- उत्तरापथ, दक्षिणापथ, प्राची, प्रतीची और मध्यदेश। वाटर्स् के अनुसार ह्वेनसांग् भारत देश को ‘इंटु’ कहता है और उसने औरों की तरह भारत को पाँच बड़े भागों-क्रमशः उत्तर, पूर्व, पश्चिम, मध्य तथा दक्षिण इंटु- में रेखांकित किया है, जो 90,000 ली के क्षेत्रफल में फैला था और उत्तर में बर्फीले पहाड़ों (हिंदुकुश) तथा अन्य तीन दिशाओं में समुद्र से घिरा हुआ था।
पूर्वी भारत की विजय
पूर्वी भारत में प्रथम अभियान: कन्नौज पर अधिकार कर लेने के बाद हर्ष ने संभवतः सबसे पहले शशांक को दंडित करने के उद्देश्य से पूर्वी भारत में अभियान किया, जिसके अधीन मगध, बंगाल और उड़ीसा के प्रदेश थे। किंतु उपलब्ध स्रोतों से लगता है कि समस्त उत्तर प्रदेश और बिहार के पश्चिमी क्षेत्रों को जीतने के बावजूद हर्ष को शशांक के विरूद्ध निर्णायक सफलता नहीं मिल सकी, क्योंकि 619-20 ई. के गंजाम के एक लेख से पता चलता है कि उस वर्ष तक शशांक अपनी पूरी शक्ति के साथ राज्य कर रहा था। उसे लेख में उसे ‘महाराजाधिराज’ कहा गया है। संभवतः इसी समय हर्ष ने मालवा के ऊपर अधिकार किया होगा। इन युद्धों में हर्ष के राज्यारोहण के बाद के छः वर्ष अर्थात् 606 से 612 ईस्वी तक समय लग गया होगा।
पूर्वी भारत में द्वितीय अभियान: राजधानी और उसके आसपास के क्षेत्रों में अपनी स्थिति को सुदृढ़ कर हर्ष ने पूर्वी भारत में दूसरा अभियान किया क्योंकि शशांक अपने ‘राजनीतिक दावपेंच’ से बचता जा सहा था। उड़ीसा के गंजाम जिले से शशांक के सामंत शैलोद्भववंशी माधवराज का एक लेख मिला है, जिसकी तिथि गुप्त संवत् 300 अर्थात् 619 ईस्वी है। इस लेख से पता चलता है कि 619 ईस्वी तक शशांक अपनी शक्ति की पराकाष्ठा पर था और एक स्वतंत्र शासक के रूप में ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि के साथ शासन कर रहा था। रोहतासगढ़ से प्राप्त एक मुद्रा के साँचे में उसे ‘महासामंत’ कहा गया है, जो इतिहासकारों के अनुसार उसके राजनीतिक जीवन के प्रारंभ का है। 629 ई. के मिदनापुर से प्राप्त एक लेख से पता चलता है कि शशांक तब तक जीवित था, किंतु जब 637 ई. में ह्वेनसांग पूर्वी भारत में गया था तो उस समय शशांक की मृत्यु हो चुकी थी।
लगता है कि 619-20 ई. के कुछ ही वर्षों के बाद हर्ष ने शशांक को पराजित किया होगा क्योंकि मिदनापुर के लेख में शशांक की ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि नहीं मिलती है। शे-किया-फेंग-चे नामक चीनी स्रोत से भी ज्ञात होता है कि हर्ष ने कुमारराज (असम के भास्करवर्मा) के साथ मिलकर बौद्धधर्म विरोधी शशांक, उसकी सेना और उसके अनुयायियों को नष्ट कर (हरा) दिया। इससे स्पष्ट है कि हर्ष और भास्करवर्मा दोनों ने साथ-साथ शशांक पर आक्रमण किया था। शशांक हार गया, किंतु एक छोटे से अधीनस्थ सामंत के रूप में वह और कई वर्षों तक जीवित रहा।
चीनी इतिहासकार मा त्वान-लिन् भी बताता है कि तांगवंश के उ-ते युग (618-20 ई.) में भारत में गंभीर अशांति हुई और राजा शि-लो-य-तो (शीलादत्यि) ने एक बड़ी सेना के बल पर भारत के चारों दिशाओं के राजाओं को दंडित कर शांति स्थापित किया था। संभवतः यह वही समय है जब हर्ष ने शशांक पर आक्रमण किया था।
शशांक पर हर्षवर्धन की विजय की पुष्टि बौद्धग्रंथ ‘आर्यमंजुश्रीमूलकल्प’ से भी होती है, जिसमें कहा गया है कि वैश्य वृत्तिवाला, महासैन्य, महाबली ‘ह’कार नामक राजा पूर्वदेश के पुंड्रनगर की ओर गया, दुष्ट कर्मानुचारी ‘सोम’ नामक (राजा) को पराजित किया। किंतु म्लेच्छ राज्य में पूजित होने के बाद ‘ह’कार नामक राजा अपने देश लौट गया-
पराजयामास सीमाख्यं दुष्टकर्मानुचारिणं,
ततो निषिद्धः सोमाख्यो स्वदेशे नावतिष्ठतः।
निवर्तयामास हकाराख्यः प्लेच्छराज्येनपूजितः,
दुष्टकर्मा हकाराख्योः नृपः श्रेयसा चार्थधार्म्मिणः। आर्यमंजुश्रीमूलकल्प
यहाँ ‘ह’कार हर्षवर्धन के लिए और ‘सोम’ शशांक के लिए प्रयुक्त है। इस प्रकार गद्दी धारण करने के कई वर्षों के बाद ही शशांक को पराजित करने और भाई राज्यवर्धन की हत्या का बदला लेने में हर्ष को सफलता मिली।
हर्ष को शशांक के ऊपर विजय कब मिली, इस संबंध में कुछ स्पष्ट नहीं है, किंतु हर्ष के बंसखेड़ा अभिलेख की तिथि हर्ष संवत् 22 या 628 ई. मिलती है, जिसे महाराजाधिराज हर्ष ने वर्धमानकोटि के अपने जयस्कंधावार (विजयी सैनिक शिविर) से जारी किया था, जिसका समीकरण पश्चिमी बंगाल वर्दवान से किया जाता है। मा त्वान-लिन ने भी इसी समय भारत में गंभीर अशांति के व्याप्त होने और अंततः हर्ष द्वारा उसके समाप्त किये जाने का विवरण दिया है। स्पष्ट है कि उस अशांति का मूल कारण संभवतः शशांक ही था और उसे जीतकर ही हर्ष ने वर्धमानकोटि (वर्दवान) में अपना सैनिक शिविर लगाया था। 629 ई. के मिदनापुर अभिलेख में शशांक की ‘महाराजधिराज’ की उपाधि का न मिलना इस बात का सूचक है कि उस समय तक वह हर्ष से पराजित होकर एक साधारण सामंतमात्र था और हर्ष की अधीनता स्वीकार करता था। इस प्रकार हर्ष-शशांक युद्ध में शशांक की पराजय की तिथि 627 ई. मानी जा सकती है। संभवतः इसी विजय के उपलक्ष्य में हर्ष ने अपना बंसखेड़ा अभिलेख जारी किया था।
शशांक को पराजित कर हर्ष ने उसके किन प्रदेशों पर अधिकार किया, यह स्पष्ट नहीं है। अपनी पराजय के बाद भी शशांक कई वर्ष तक महासामंत रूप में जीवित रहा। संभवतः उसने हर्षवर्धन की अधीनता स्वीकार कर ली थी। ह्वेनसांग दक्षिण-पूर्वी भारत के अनेक प्रदेशों, जैसे- कर्णसुवर्ण, समतट और ताम्रलिप्ति का उल्लेख नहीं किया है, इस आधार पर इतिहासकारों का अनुमान है कि इन क्षेत्रों पर हर्ष ने अधिकार कर लिया था। किंतु इतिहासकारों का यह भी मानना है कि शशांक का सारा क्षेत्र (संपूर्ण बंगाल) उसकी मृत्यु के बाद ही हर्ष के अधिकार में आया होगा। भास्करवर्मा के अपूर्ण और अतैथिक निधानपुर अभिलेख के आधार पर माना जाता है कि कर्णसुवर्ण पर उसका अधिकार था। इस संबंध में डॉ. सुधाकर चट्टोपाध्याय का विचार है कि चूंकि हर्ष और भास्करवर्मा ने संयुक्त रूप से शशांक पर आक्रमण किया था, इसलिए भास्करवर्मा ने शशांक के राज्य के पूर्वी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया और उसके तथा हर्ष के क्षेत्रों की बीच की सीमा गंगा नदी हो गई।
सिंध की विजय
बाणभट्ट के हर्षचरित में कहा गया है कि, ‘अत्र पुरुषोत्तमेन सिंधुराजं प्रमथ्य लक्ष्मीरात्मीया कृता’। इस उद्धरण के आधार पर कुछ इतिहासकार हर्ष को सिंधु विजय का श्रेय देते हैं कि पुरुषोत्तम अर्थात् हर्ष ने सिंधु देश के राजा को पराजित करके उसकी राज्यलक्ष्मी को छीन लिया था। हर्षचरित में हर्ष के पिता प्रभाकरवर्धन को भी ‘सिंधुराजज्वरो’ कहा गया है। किंतु सिंध पर हर्ष के प्रत्यक्ष अधिकार का कोई प्रमाण नहीं है। संभव है कि अपनी पश्चिमी क्षेत्र की विजयों के समय हर्ष ने सिंध के राजा को हराया हो और उसने भेंट, उपहारादि देकर हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली हो। ह्वेनसांग भी बताता है कि सिंध पर एक शूद्र जाति का राजा राज्य करता था, जो बौद्ध धर्म का अनुयायी था।
नेपाल-विजय
हर्षचरित में एक स्थल पर कहा गया है कि ‘अत्र परमैश्वरेण तुषारशैलभुवो दुर्गायाः गृहीतः करः’ अर्थात् परमेश्वर (शंकर) ने हिमगिरि से उत्पन्न दुर्गा (पावर्ती) से विवाह किया। इसका श्लेषात्मक अर्थ है कि हर्ष ने बर्फीले पहाड़ों के क्षेत्रों से कर संग्रह किया। ब्यूलर जैसे विद्वानों ने इसका यह अर्थ निकाला है कि हर्ष ने नेपाल की विजय की थी और हिमाच्छादित पर्वतों के दुर्गम प्रदेश से कर प्राप्त किया था।’ राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार नेपाल में हर्ष संवत् का प्रचलन था, जो वहाँ उसके आधिपत्य का सूचक है। किंतु केवल संवत् के प्रचलन के आधार पर नेपाल को हर्ष के अधीन नहीं माना जा सकता क्योंकि संवत् का प्रचलन सांस्कृतिक संपर्क का परिणाम भी हो सकता है। दक्षिणी भारत में नवी शती से शक संवत् का प्रचलन का प्रमाण मिलता है, जबकि किसी भी शकक्षत्रप ने दक्षिण की विजय नहीं की थी। संभव है कि हर्ष ने हिमालय की तराई में स्थित किसी प्रदेश को जीता हो।
लेवी ‘तुषारशैल’ की पहचान उत्तर-पश्चिमी भारत के तुषारों (तुर्की) के क्षेत्रों से करते हैं, जबकि आर.एस. त्रिपाठी सुझाव है कि बाण ने इसमें किसी शक्तिशाली पहाड़ी राजपरिवार की कन्या से हर्ष के विवाह का संकेत किया है। इस प्रकार हर्ष की नेपाल-विजय के संबंध में कुछ कहना संभव नहीं है।
वलभी का युद्ध
उत्तरापथ का निष्कंटक स्वामी होने के लिए हर्ष ने नर्मदा के उत्तर स्थित वलभी राज्य पर आक्रमण किया। वासतव में वलभी राज्य पश्चिमी मालवा और गुजरात के क्षेत्रों पर फैला हुआ था और उसकी भौगोलिक स्थिति ऐसी थी कि वह दक्षिणापथ के चालुक्य राज्य से मिलकर हर्षवर्धन के लिए राजनीतिक संकट पैदा कर सकता था।
हर्ष का समकालीन वलभीराज ध्रुवभट्ट अथवा ध्रुवसेन द्वितीय था, जिसे ह्वेनसांग ‘तु-लो-पोत’ कहता है। यद्यपि हर्ष के वलभी पर आक्रमण करने का कोई प्रतयक्ष प्रमाण नहीं मिलता है, किंतु अप्रत्यक्ष रूप से जयभट्ट तृतीय के नौसारी (गुजरात के बड़ौदा जिले में स्थित) के एक ताम्रफलकलेख (706 ई.) से पता चलता है कि ‘परमेश्वर’ श्रीहर्षदेव द्वारा पराजित बलभी नरेश का परित्राण करने के कारण यश का वितान श्रीदद्द के ऊपर निरंतर झूलता था’ (श्री हर्षदेवाभिभूतो श्रीबलभीपतिपरित्राणोपजातः भ्रमददभ्रविभ्रमयशोवितानः श्रीद्दः)। इससे लगता है कि हर्ष ने ध्रुवसेन को पराजित किया था। ध्रुवसेन ने भागकर भड़ौच के गुर्जरनरेश दद्द द्वितीय के यहाँ शरण ली, जिसने हर्ष से उसका राज्य वापस दिलवाया था। कुछ विद्वान श्रीदद्द का शासनकाल 627 ई. से 640 ई. के बीच मानते है, इसलिए अनुमान है कि यह युद्ध 629-30 से 640 ई. के बीच कभी हुआ होगा।
किंतु गुर्जर नरेश श्रीदद्द जैसा एक साधारण स्थिति का शासक हर्ष जैसे शक्तिशाली शासक का सामना कैसे कर सकता था? संभवतः इस कार्य में उसे चालुक्यनरेश पुलकेशिन द्वितीय से सहायता मिली थी क्योंकि पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल लेख के अनुसार दद्द उसका सामंत था। इस प्रकार नौसारी लेख में जो श्रेय श्रीदद्द को दिया गया है, उसका वास्तविक अधिकारी पुलकेशिन द्वितीय है। बाद में यही घटना हर्ष-पुलकेशिन के बीच युद्ध का कारण बनी।
हर्ष एक दूरदर्शी और सूझबूझ वाला शासक था। उसने वलभी को अपने साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया और अपने सीमांत में चालुक्यों के विरुद्ध एक मित्र और मध्यस्थ राज्य के रूप में छोड़ दिया। इतना ही नहीं, उसने अपनी मित्रता को चिरस्थायी बनाये रखने के लिए वलभी नरेश ध्रुवभट्ट के साथ अपनी पुत्री का विवाह भी कर दिया, जिसका उल्लेख ह्वेनसांग ने भी किया है। हर्ष की वलभी के प्रति इस नीति की तुलना चंद्रगुप्त द्वितीय की वाकाटक नीति से की जा सकती है।
कुछ इतिहासकार ऐहोल लेख के आधार पर प्रस्तावित करते हैं कि ध्रुवभट्ट की पराजय से बलभी अथवा मालवा न तो हर्ष की अधीनता में गया और न उसके राजा ने कन्नौज की अधिसत्ता ही मानी, इसके विपरीत मालवा के विरुद्ध अभियान में हर्ष को बादामी के चालुक्य नरेश पुलकेशिन् द्वितीय के नेतृव में एक सैनिक संघ का सामना करना पड़ा, जिसमें लाट, मालवा और गुर्जर राज्यों के राजा सम्मिलित थे। इस सैनिक संघ ने हर्ष को पराजित कर दिया। ऐहोल लेख के अनुसार पुलकेशिन् की शक्ति की चकाचौंध से लाट, मालवा और गुर्जर यह बात दूसरों को सिखाने लगे कि शक्ति द्वारा पराजित होने पर कैसा व्यवहार किया जाता है। कीलहॉर्न का मानना है कि पुलकेशिन् की महिमा और शक्ति से प्रभावित होकर ही लाटों, मालवों और गुर्जरों ने स्वयं उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी।
किंतु यह ज्ञात नहीं है कि उपर्युक्त राज्यों पर अपनी अधिसत्ता पुलकेशिन् ने हर्ष को पराजित करने के बाद स्थापित की थी या हर्ष-पुलकेशिन् युद्ध के पहले। यह भी ज्ञात नहीं है कि हर्ष का पहले ध्रुवभट्ट से युद्ध हुआ था या पुलकेशिन् से। इस प्रकार हर्ष के विरुद्ध चालुक्य, मालव, लाट और गुर्जर राज्यों के सैनिक संघ की स्थापना के संबंध में कुछ स्पष्ट रूप से नहीं कहा सकता है।
पुलकेशिन द्वितीय से युद्ध और पराजय
पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य वंश का शक्तिशाली राजा था। हर्ष की विजयों के फलस्वरूप उसके राज्य की पश्चिमी सीमा नर्मदा नदी तक पहुँच गई थी, दूसरी ओर पुलकेशिन भी उत्तर की ओर राज्य का विस्तार कर रहा था। ऐसी स्थिति में दोनों के बीच युद्ध होना अवश्यंभावी था। पुलकेशिन द्वितीय के रविकीर्ति विरचित 634 ई. के ऐहोल लेख से ज्ञात होता है कि हर्ष और पुलकेशिन् के बीच ‘नर्मदा नदी के तट’ पर युद्ध हुआ, जिसमें हर्ष की पराजय हुई। ऐहोल लेख में कहा गया कि, ‘जिसके चरणकमल अपरिमित ऐश्वर्य से युक्त सामंतों की मुकुटमणियों की आभा से मंडित हो रहे थे, युद्ध में मारे हुए हाथियों की सेना के वीभत्स दृश्य देखकर ऐसे हर्ष का हर्ष (आनंद) भय से विगलित हो गया’-
अपरिमितविभूतिस्फीत सामंतसेना,
मुकुटमणिमयूखाक्रान्तपादारविन्दः।
युधि पतितगजेन्द्रानीक वीभत्सभूतो,
भय विगलित हर्षो येन चाकारि हर्षः।। ऐहोल अभिलेख
हुएनसांग के यात्रा-विवरण से भी पता चलता है कि ‘मो-हो-ल-च-अ’ अर्थात् महाराष्ट्र के स्वाभिमानी राजा ने हर्ष की अधीनता नहीं मानी। हुएनसांग की ‘जीवनी’ से ज्ञात होता है कि ‘राजा शीलादित्य ने अपने सेनानायकों की सफलता और अपने कौशल पर गर्व करते हुए आत्मविश्वास के साथ स्वयं करते हुए इस राजा के विरुद्ध अभियान किया। किंतु वह न तो उसे हरा सका और न ही अपने अधीन कर सका। इस प्रकार ऐहोल लेख और ह्वेनसांग के साक्ष्यों से स्पष्ट है कि अपनी विशाल सेना और शक्ति के बावजूद हर्ष को दक्षिणापथ पर अधिकार करने में सफलता नहीं मिली।
कुछ विद्वानों का अनुमान है कि पुलकेशिन द्वितीय ने हर्ष को पराजित नहीं किया था और ऐहोल लेख के रचयिता रविकीर्ति का विवरण एकपक्षीय है। ह्वेनसांग के कथन से मात्र यही पता चलता है कि हर्ष पुलकेशिन को अपने अधीन नहीं कर सका और उसने दक्षिण की ओर उसका प्रसार रोक दिया।
सुधाकर चट्टोपाध्याय के अनुसार ‘तत्कालीन भारत के इन दो महान् राजाओं के बीच होने वाला यह अकेला अथवा अंतिम युद्ध नहीं था। इस युद्ध के बाद भी युद्ध होते रहे और 643 ई. में हर्ष का कांगोद पर आक्रमण दक्षिण के प्रतिद्वंद्वी पुलकेशिन् के विरुद्ध उसकी एक मोर्चाबंदी थी। कांगोद को जीतकर हर्ष ने अपनी पुरानी पराजय का बदला चुकाया और पुलकेशिन् के कुछ प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।’
ऐहोल लेख में वर्णित हर्ष-पुलकेशिन् युद्ध की तिथि के संबंध में विद्वानों में बड़ा विवाद है। चूँकि ऐहोल लेख की तिथि 633-34 ई. है, इसलिए निश्चित है कि यह युद्ध इसके पूर्व ही हुआ रहा होगा।
फ्लीट जैसे इतिहासकारों का मत है कि यह युद्ध 612 ई. के पहले, संभवतः 608-09 ई. में हुआ था। उनका तर्क है कि पुलकेशिन् के परवर्ती चालुक्य राजाओं के अनेक लेखों में कहा गया है कि उसने ‘शत्रुओं को पराजित करने के उपलक्ष्य में अपना दूसरा नाम (विरुद) ‘परमेश्वर’ रखा था। चूँकि पुलकेशिन् के 612 ई. के हैदराबादवाले ताम्रपत्र अभिलेख में उसे परमेश्वर कहा गया है। अतः हर्ष पर उसकी विजय 612 ई. के पूर्व अवश्य हो गई होगी।
किंतु डॉ. मुकर्जी को छोड़कर दूसरा कोई विद्वान् इस मत को नहीं मानता है। एक तो यह कि हैदराबाद दान-पत्र में जिस शत्रु शासक का उल्लेख है, वह हर्ष नहीं है। दूसरे, पुलकेशिन् का राज्याभिषेक 610 ईस्वी में हुआ था और इसके पूर्व उसे अपने चाचा मंगलेश के साथ उत्तराधिकार का युद्ध लड़ना पड़ा था। इसके बाद भी वह दक्षिण की कई शक्तियों से युद्ध करता रहा। राजा होने के दो ही वर्षों में वह हर्ष जैसे शक्तिशाली शत्रु का सामना करने में सक्षम नहीं रहा होगा। तीसरे, पुलकेशिन की ‘परमेश्वर’ की उपाधि का हर्ष की विजय से कोई संबंध नहीं है क्योंकि ऐहोल लेख उसकी ‘परमेश्वर’ उपाधि नहीं मिलती है।
अल्तेकर का अनुमान है कि हर्ष-पुलकेशिर युद्ध 630 से 634 ईस्वी के बीच कभी हुआ था। इसका कारण यह है कि वलभी का युद्ध 630 ईस्वी के पहले नहीं हो सकता और यह युद्ध उसी का परिणाम था। इसके अलावा, पुलकेशिन् के 630 ई. वाले लोहनरा दानपत्राभिलेख में उसके द्वारा पराजित शत्रुओं के जो नाम मिलते हें, उनमें हर्ष का नाम नहीं है। इस प्रकार अनुमान है कि हर्ष-पुलकेशी युद्ध 630 और 634 ई. के बीच में कभी हुआ होगा।
कश्मीर का राज्य
ह्वेनसांग की ‘जीवनी’ के आधार पर राधाकुमुद मुकर्जी जैसे कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि कश्मीर पर हर्ष का अधिकार था। ‘जीवनी’ के अनुसार ‘हर्ष ने यह सुना कि कश्मीर में भगवान बुद्ध का एक दाँत है। वह स्वयं कश्मीर की सीमा पर आया और उसने दाँत के दर्शन तथा पूजा के निमित्त कश्मीरनरेश से आज्ञा माँगी। किंतु बौद्ध संघ ने इसे स्वीकार नहीं किया। इस पर कश्मीरनरेश ने स्वयं मध्यस्थता करके दाँत को हर्ष के सम्मुख कर दिया। बुद्ध के दाँत को देखते ही शिलादित्य (हर्ष) श्रद्धा-विह्वल हो गया और बल-प्रयोग करके दाँत को अपने साथ उठा ले गया। उसने बुद्ध के दाँत को कन्नौज के निकट एक संघाराम में स्थापित किया। किंतु इस विवरण के आधार पर हर्ष को कश्मीर विजय का श्रेय नहीं दिया जा सकता है। चूंकि कश्मीर का राजा भी बौद्ध था, इसलिए संभव है कि वह हर्ष के प्रभाव-क्षेत्र में रहा हो।
हर्ष तथा कामरूप
कामरूप का राजा भास्करवर्मा हर्ष का समकालीन था और उसने हंसबेग नामक अपने राजदूत के माध्यम से हर्ष के साथ मैत्री-संबंध स्थापित किया था। वह हर्ष के जीवनकाल तक उसका मित्र तथा सहायक बना रहा। किंतु ‘जीवनी’ से ज्ञात होता है कि एक बार हुएनसाग भास्करवर्मा के दरबार में ठहरा हुआ था और हर्ष ने उसे बुलाने के लिए अपना दूत भेजा। भास्करवर्मा ने संदेश भेजा कि वह चीनी यात्री के बदले में अपना सिर देना पसंद करेगा। इस पर हर्ष ने क्रोधित होकर अपने दूत से तुरंत उसका सिर भेजने को कहा। हर्ष के क्रोध से भयभीत होकर भास्करवर्मा चीनी यात्री के साथ स्वतः हर्ष के सम्मुख उपस्थित हुआ। किंतु भाष्करवर्मा को हर्ष की शक्ति से भयभीत होने का कोई अन्य प्रमाण नहीं है। प्रयाग और कन्नौज के समारोहों में वह मित्र की हैसियत से सम्मिलित हुआ था, अधीनस्थ राजा के रूप में नहीं।
कांगोद की विजय
चीनी लेखक मा-त्वान-लिन् के अनुसार हर्ष ने सर्वप्रथम 641 ईस्वी में ‘मगधराज’ की उपाधि धारण की थी। हुएनसांग लिखता है कि इसके पूर्व मगध पर शशांक का अधिकार था, जिसने बोधिगिरि के बोधिवृक्ष को कटवाकर गंगा में फिकवा दिया था। ‘जीवनी’ के अनुसार हर्ष ने कांगोद (गंजाम, उड़ीसा) पर आक्रमण कर वहाँ अधिकार कर लिया। यह प्रदेश महानदी के दक्षिण में बंगाल की खाड़ी के किनारे स्थित था। यहाँ पहले शशांक का राज्य था। स्रोतों से ज्ञात होता है कि हर्ष ने उड़ीसा में जयसेन नामक एक बौद्ध विद्वान् को 80 गाँवो की आमदनी दान में देने का प्रस्ताव रखा था, जो इस क्षेत्र पर उसके अधिकार का सूचक है।
ह्वेनसाग बताता है कि जब 643 ईस्वी में वह भास्करवर्मा के निमंत्रण पर कामरूप जा रहा था, तब हर्ष बंगाल के ‘कजंगल’ के सैनिक शिविर में था। इससे स्पष्ट है कि इस समय तक हर्ष ने संपूर्ण बंगाल को जीत लिया था। यहाँ से हर्ष संवत् का एक लेख भी मिला है। चीनी स्रोतों से भी लगता है कि 637 ईस्वी में शशांक की मृत्यु के बाद हर्ष ने मगध, बंगाल तथा उड़ीसा के शशांक शासित क्षेत्रों पर अधिकार किया होगा।
दक्षिण भारत की विजय
मयूरभट्ट की एक प्रशस्ति और केरल प्रांत के शिमोग जिले में स्थित गद्देमन्ने नामक स्थान से प्राप्त एक लेख के आधार पर कुछ विद्वानों ने यह मत प्रतिपादित किया कि हर्ष ने सुदूर दक्षिण में सैनिक विजयें की। मयूर ने अपने श्लोक में हर्ष को कुंतल, चोल और काँची की विजयों का श्रेय दिया है। किंतु इस श्लोक की ऐतिहासिक महत्ता संदिग्ध है। संभवतः यहाँ लेखक ने पृथ्वी को अपने आश्रयदाता की पत्नी के रूप में कल्पित करके उसके विविध अंगों का काव्यात्मक विवरण प्रस्तुत किया है। यहाँ कुंतल से तात्पर्य बालों से, चोल से तात्पर्य वस्त्रों से तथा काँची से तात्पर्य मेखला से है। इस प्रकार इस विवरण का भूगोल या इतिहास से कोई संबंध नहीं है।
यद्यपि गद्देमन्ने के लेख में श्रीशील आदित्य के पेट्टणि सत्यांक नामक सेनापति का उल्लेख मिलता है, जिसने युद्धक्षेत्र में महेंद्र को भयभीत किया था। किंतु इस शिलादित्य को हर्षवर्धन और पेट्टणि सत्यांक को हर्ष का सेनापति नहीं माना जा सकता है। यदि इस शिलादित्य की पहचान हर्ष से और महेंद्र की पल्लव महेंद्रवर्मन् प्रथम से की जाए, तो यह मानना होगा कि हर्ष ने दक्षिण में सैनिक अभियान 634 ईस्वी के पहले कभी किया होगा। किंतु पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल लेख के परिप्रेक्ष्य में ऐसा संभव नहीं है। वस्तुतः गद्देमन्ने का लेख में चालुक्यवंशी श्रयाश्रय शिलादित्य और पल्लववंशी महेंद्रवर्मन के बीच युद्ध का वर्णन है, हर्ष और महेंद्रवर्मन् के संघर्ष का नहीं। इस प्रकार गद्देमन्ने लेख के आधार पर हर्ष को सुदूर दक्षिण की विजय का श्रेय नहीं दिया जा सकता है।
हर्ष का साम्राज्य-विस्तार
हर्षवर्धन के साम्राज्य की सीमाओं का स्पष्ट और सर्वमान्य रूप से निर्धारण करना आसान नहीं है क्योंकि एक तो उसकी विजयें संदिग्ध हैं और दूसरे तत्कालीन लेखों में अकसर वास्तविक और प्रत्यक्ष शासन वाले क्षेत्रों को प्रभाव-विस्तार वाले क्षेत्रों को भी सम्मिलित कर दिया गया है। के.एम. पणिक्कर के अनुसार ‘हर्ष ने संपूर्ण उत्तरी भारत को अपने अधिकार में कर लिया था और नेपाल का राज्य भी उसके साम्राज्य में सम्मिलित था। रमेशचंद्र मजूमदार का विचार है कि हर्ष का राज्य आगरा और अवध के संयुक्त प्रांत (आधुनिक उत्तर प्रदेश), बिहार तथा पूर्वी पंजाब के कुछ भागों तक ही विस्तृत था।
श्री निहारंजनराय के अनुसार संपूर्ण मध्यदेश पर हर्ष का प्रत्यक्ष अधिकार था, किंतु उसके अप्रत्यक्ष प्रभाव में उत्तर-पश्चिम में जालंधर से लेकर पूर्व में असम की सुदूर सीमाओं तक विस्तृत सारे उत्तरी भारत, दक्षिण-पश्चिम में वल्लभी राज्य से लेकर नर्मदा और महानदी की घाटियों से होते हुए गंजाम जिले तक तथा उत्तर में नेपाल और कश्मीर तक के क्षेत्र थे।
रमाशंकर त्रिपाठी का विचार है कि ह्वेनसांग ने जिन राज्यों की चर्चा नहीं की है, वे सभी राज्य हर्ष के अधीन थे। इसके विपरीत उसने जिन राज्यों के शासकों का उल्लेख किया है, वे निश्चित रूप से हर्ष के साम्राज्य के बाहर थे। इस प्रकार इन विविध मत-मतांतरों के बीच हर्ष की वास्तविक साम्राज्य-सीमा का निर्धारण करना एक कठिन कार्य है।
हर्ष का पैतृक राज्य दिल्ली, थानेश्वर तथा पूर्वी पंजाब के दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्रों मात्र तक सीमित था और प्रभाकरवर्धन को अपनी कुछ संभावित विजयों के बावजूद उसमें कुछ नये क्षेत्र जोड़ने में सफलता नहीं मिली थी। कन्नौज के मौखरि राज्य में संभवतः पूरा उत्तर प्रदेश और मगध का कुछ क्षेत्र सम्मिलित था, जिसमें हर्ष ने थानेश्वर राज्य के क्षेत्रों को भी जोड़ दिया था।
बंसखेड़ा (शाहजहाँपुर जिला) और मधुबन (मऊ) के ताम्रफलक लेखों से स्पष्ट है कि अहिच्छत्र और श्रावस्ती के प्रदेश हर्ष के अधीन थे। प्रयाग में महामोक्षपरिषद् का आयोजन प्रयागराज पर उसके अधिकार का सूचक है। पूर्व में शशांक के विरुद्ध बढ़ते हुए हर्ष ने बिहार, बंगाल के कुछ प्रदेशों को जीता था और वर्धमानकोटि (आधुनिक वर्दवान) से बंसखेड़ा अभिलेख को जारी किया था। मगध पर हर्ष के अधिकार की पुष्टि मात्वान्-लिन् से होती है, जिसके अनुसार हर्ष ने 641 ई. में ‘मगधराज’ की उपाधि ग्रहण की थी। इससे स्पष्ट है कि हर्ष ने शशांक पर अपनी विजय के बाद उसके संपूर्ण राज्य पर अधिकार कर लिया था।
निधानपुर अभिलेख से कर्णसुवर्ण पर भास्करवर्मा का अधिकार की सूचना मिलती है। सुधाकर चट्टोपाध्याय शे-किया-फैंग्चे के विवरणों के आधार पर मानते हैं कि शशांक पर हर्ष और भास्करवर्मा दोनों ने संयुक्त रूप से आक्रमण किया था। इसलिए विजय का लाभ भी उन दोनों को समान रूप से मिला और शशांक के राज्य के गंगा नदी के पूर्व के क्षेत्र भास्करवर्मा के अधिकार में चले गये थे। किंतु कुछ इतिहासकार इसे हर्ष की मृत्यु के बाद उत्पन्न अव्यवस्था का परिणाम मानते हैं।
हर्षचरित के एक उद्धरण ‘अत्रदेवेन अभिषिक्तः कुमारः’ के आधार पर कुछ इतिहासकार मानते हैं कि कामरूप का राजा भास्करवर्मा हर्ष की अधीनता मानता था क्योंकि वह हर्ष द्वारा अभिषिक्त हुआ था। किंतु यह तर्कसंगत नहीं है क्योंकि जब हर्ष थानेश्वर राज्य का उत्तराधिकारी हुआ और राज्यवर्धन की हत्या का बदला लेने के लिए चला, तो उसे अपनी यात्रा के प्रारंभ में ही भास्करवर्मा का दूत हंसवेग मिला था। इससे स्पष्ट है कि भास्करवर्मा हर्ष के पहले ही अपनी गद्दी पर बैठा चुका था। ऐसी दशा में हर्ष द्वारा उसके राज्याभिषेक का प्रश्न ही नहीं था। हर्ष से उसकी मित्रता और उन दोनों के बीच भेंटों का आदान-प्रदान शशांक के विरुद्ध समान शत्रुता का परिणाम था, जो बराबरी पर अधारित था। भास्करवर्मा कन्नौज की सभा और प्रयाग की महामोक्षपरिषद् में मित्र की हैसियत से सम्मिलित हुआ था, अधीनस्थ राजा के रूप में नहीं।
ह्वेनसांग से पता चलता है कि ‘इ-ला-न पो-फ-टो’ (मुंगेर) के राजा को किसी पार्श्ववर्ती राज्य के राजा ने गद्दी से हटा दिया और उसकी राजधानी को बौद्ध भिक्षुओं को दान दे दिया। ‘यह राजा हर्ष ही प्रतीत होता है क्योंकि ह्वेनसांग से यह भी पता चलता है कि राजा शीलादित्य (हर्ष) ने अपनी पूर्व की विजयों के सिलसिले में ‘क-च-बेन’ (कजंगल) में अपना दरबार लगाया था। ह्वेनसांग जब ‘उ-दु’ (ओटू-उड़ीसा) और ‘कुंग-यु-टो’ (कांगोद) गया था, उस समय इन क्षेत्रों पर कन्नौज के राजा का अधिकार था। हर्ष ने उड़ीसा की अपनी यात्रा के समय जयसेन नामक एक बौद्ध संन्यासी को 80 गाँवों की आय दान में देने का प्रस्ताव किया था, जिसे उसने स्वीकार नहीं किया। हर्ष का यह दान-प्रस्ताव उड़ीसा तक के क्षेत्रों पर उसके अधिकार का सूचक है।
दक्षिण में हर्ष के साम्राज्य की सीमा नर्मदा नदी थी, जिसके नीचे दक्षिणापथ में पुलकेशिन् द्वितीय का अधिकार था। किंतु दक्षिण-पश्चिम और पश्चिम में हर्ष के शासित क्षेत्रों का निर्धारण करना कठिन है। हर्ष ने पश्चिमी मालवा और वल्लभी के राजा ध्रुवभट्ट को पराजित किया था, किंतु उसने ध्रुवभट्ट के राज्य को अपने साम्राज्य में नहीं मिलाया और वल्लभीराज से अपनी पुत्री का विवाह करके उसे एक स्वतंत्र, किंतु मित्र राजा के रूप में छोड़ दिया। ध्रुवभट्ट ने प्रयाग की ‘महामोक्षपरिषद’ में एक मित्र और संबंधी नरेश की हैसियत से भाग लिया था। ह्वेनसांग की ‘जीवनी’ में उसे ‘दक्षिण भारत का राजा’ कहा गया है, जो उसकी स्वतंत्रता का द्योतक है। इस प्रकार स्पष्ट है कि वल्लभी के पश्चिम के सभी छोटे-मोटे राज्य हर्ष की साम्राज्य-सीमा से बाहर थे और यह स्वीकार करने का कोई प्रमाण नहीं है कि गुजरात और सौराष्ट्र उसके साम्राज्य में थे। संभव है कि पूर्वी मालवा उसके अधिकार में रहा हो।
पश्चिमोत्तर में हर्ष ने संभवतः सिंध की विजय की थी, किंतु उसे अपने राज्य का अंग नहीं बनाया। ह्वेनसांग के अनुसार वहाँ का राजा शूद्र जाति का था, जो बौद्ध धर्मानुयायी था। संभव है कि उसने हर्ष की अधिसत्ता स्वीकार कर अपनी स्वतंत्रता बचा ली हो।
कश्मीर के राजा से भी हर्ष का प्रायः मित्र जैसा संबंध था। वहाँ का तत्कालीन राजा दुर्लभवर्धन था। ह्वेनसांग् की ‘जीवनी’ से स्पष्ट है कि शीलादित्य ने बुद्ध के दाँत के लिए कश्मीर पर कोई आक्रमण नहीं किया था। संभव है कि कश्मीर का शासक हर्ष की मित्रता के दबाव में रहा हो, किंतु वह हर्ष के अधीन नहीं था।
ह्वेनसांग जिन-जिन देशों में गया, उसने वहाँ के शासकों के बारे में अवश्य लिखा, उनके अधीनस्थ प्रदेशों को बताया और कहीं-कहीं तो राजपरिवर्तन एवं अधिसत्ताओं के हस्तांतरण की भी चर्चा की। इस आधार पर अधिकांश इतिहासकारों का विचार है कि ह्वेनसांग उत्तर भारत के जिन राज्यों के शासकों के संबंध में कोई विवरण नहीं देता है, उन राज्यों को कन्नौज के शासनाधिकार में माना जा सकता है। ह्वेनसांग उत्तर भारत के निम्नलिखित राज्यों के संबंध में पूरी तरह मौन है- कुलू, शतद्रु, थानेश्वर, सुध, ब्रह्मपुर, सुवर्णगोत्र, गोविषाण, अहिच्छत्र, कपिथ (संकिसा), अयोध्या, हयमुख, प्रयाग, कौशांबी, विशोक, श्रावस्ती, रामगाम, कुशीनारा, वाराणसी, वैशाली, वृज्जिदेश, मगध, हिरण्यपर्वत, चंपा, काजंगल, पुंड्रवर्धन, समतट, ताम्रलिप्ति, कर्णसुवर्ण, ओड्र तथा कोंगोद। अतः इन क्षेत्रों को हर्ष के अधीन माना जाना चाहिए।
ह्वेनसांग के अनुसार उत्तर भारत में ही कई ऐसे राज्य थे, जो स्वतंत्र थे। कभी-कभी वह उनके राजाओं के नाम और जाति तथा धर्म बताता है। जालंधर, मतिपुर और महेश्वरपुर ऐसे ही स्वतंत्र राज्य थे। किंतु ये राज्य हर्ष के शक्ति-केंद्र के इतने निकट थे और इतने छोटे थे कि वे आंतरिक दृष्टि से स्वतंत्र होते हुए भी उसके प्रभाव-क्षेत्र में अवश्य रहे होंगे। ह्वेनसांग प्रयाग की महामोक्षपरिषद् में जिन 18 राजाओं के उपस्थित होने की बात करता है, वे इसी कोटि में रहें होंगे। ह्वेनसांग की जीवनी से स्पष्ट है कि हर्ष ने जालंधर के राजा को यह कार्य सौंपा था कि वह चीन लौटते समय ह्वेनसांग को सकुशल अपनी सीमाओं तक पहुँचा दे।
पश्चिमोत्तर में सिंध का राज्य उसके प्रभाव क्षेत्र में था। ह्वेनसांग के विवरण से स्पष्ट है कि जालंधर, कुलूट, शतद्रु आदि भी हर्ष के अधीन थे। यमुना के पश्चिम में सोनपत से प्राप्त मुहर में उसके नाम का उल्लेख मिलता है, जो वहाँ हर्ष का अधिकार सूचित करता है। ऐसा लगता है कि पश्चिम में पश्चिमी मालवा, उज्जैन, जेजाकभुक्ति, माहेश्वरपुर, बैराट आदि के राज्य भी हर्ष के साम्राज्य में सम्मिलित थे। पूर्वी मालवा तथा वल्लभी के राज्य भी संभवतः उसकी अधीनता स्वीकार करते थे। इस प्रकार पश्चिम में यमुना तथा नर्मदा के बीच का सभी भाग हर्ष के साम्राज्य में शामिल हो चुका था। उत्तर में हर्ष का साम्राज्य नेपाल की सीमा तक फैला हुआ था। किंतु नेपाल, कश्मीर और आधुनिक पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम के राज्य उसकी प्रभाव-सीमा में थे, इसका कोई प्रमाण नहीं है।
इस प्रकार हर्ष के साम्राज्य में तीन प्रकार के राज्य थे- प्रत्यक्ष शासित राज्य, अर्द्धस्वतंत्र राज्य और मित्र राज्य। प्रथम श्रेणी में सामान्यतः ऐसे राज्य थे, जिनकी राजनीतिक स्थिति का उल्लेख ह्वेनसांग नहीं करता। दूसरी श्रेणी में बलभी, पश्चिमी मालवा, सिंध आदि अर्द्धस्वतंत्र राज्य थे, जबकि तृतीय श्रेणी के अंतर्गत कश्मीर और कामरूप के राज्य सम्मिलित थे। हर्ष का प्रभाव-क्षेत्र उसके प्रत्यक्ष शासन से अधिक विस्तृत था।
हर्ष को चालुक्य अभिलेखों में ‘सकलोत्तरापथनाथ’ कहा गया है। बाणभट्ट ने हर्ष को:चारों समुद्रों का अधिपति, महाराजाधिराज, परमेश्वर, समस्त चक्रवर्ती राजाओं में श्रेष्ठ और अन्य राजाओं के चूड़ामणि द्वारा चमकते हुए नखोंवाला’ बताया है (देवस्य चतुस्समुद्राधिपतेः सकलराजचक्रचूणामणि श्रेणीशाणकोणकषणनिर्मली कृतचरणनखमणेः सर्वचक्रवर्तिनां धौरेयस्य महाराजाधिराजपरमेश्वर श्रीहर्षस्य)। किंतु यह एक आश्रित लेखक की अपने अधिपति के प्रति प्रशंसोक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। ह्वेनसांग द्वारा हर्ष को ‘पंचभारतों’ (संपूर्ण भारत) का स्वामी कहना भी विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं है।
चीन से संबंध
हर्ष का बाह्य देशों से भी मैत्री संबंध था। उसने 641 ईस्वी में चीन नरेश ताईसंग के दरबार में अपना एक दूत भेजा, जिसके प्रत्युत्तर में चीनी नरेश ने लियांग होई-किंग नामक अपना राजदूत भेजा था। 643 ईस्वी में लि-वि-पियओ के नेतृत्व में एक दूतमंडल पुनः भारत आया, जिसके साथ वंग हुएनत्से नामक एक चीनी अधिकारी भी था। उन्होंने बौद्ध स्थलों की यात्रा की और 647 ईस्वी में चीन लौट गये।
हर्ष की प्रशासनिक व्यवस्था
हर्ष एक विजेता और साम्राज्य निर्माता होने के साथ-साथ कुशल प्रशासक भी था, जिसने न केवल उत्तर भारत को राजनीतिक एकता के सूत्र में आबद्ध किया, बल्कि सुदृढ़ प्रशासन भी स्थापित किया। हर्ष की प्रशासनिक व्यवस्था के संबंध में हर्षचरित, सि-यू-कि और कुछ अभिलेखों से सूचना मिलती है। सच तो यह है कि हर्ष ने किसी नवीन शासन प्रणाली को जन्म नहीं दिया, बल्कि पूर्व प्रचलित गुप्त शासन-प्रणाली को ही कुछ आवश्यक संशोधनों और परिवर्तनों के साथ अपना लिया। यही नहीं, प्रशासनिक विभागों और कर्मचारियों के नाम भी प्रायः एक समान ही मिलते हैं।
सम्राट: हर्ष की प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप राजतंत्रात्मक था, जो राजत्त्व के दैवीय उत्पत्ति सिद्धांत पर आधारित था। सम्राट चक्रवर्ती, परमभट्टारक, महाराजाधिराज और परमेश्वर जैसी साम्राज्यिक उपाधियाँ धारण करता था। हर्षचरित में हर्ष को ‘सर्वदेवतावतार’ कहा गया है और शिव, इंद्र, यम, वरुण, कुबेर आदि देवताओं से उसकी तुलना करते हुए सम्राट को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। इस प्रकार सम्राट ही प्रशासन का सर्वेसर्वा था और वही कार्यपालिका का प्रधान अध्यक्ष, न्याय का प्रधान न्यायाधीश और सेना का सर्वोच्च सेनापति होता था।
किंतु सर्वोच्च शक्ति-संपन्न होने के बावजूद भी हर्ष निरंकुश शासक नहीं था। उसका राजत्व संबंधी अत्यंत ऊँचा था। प्राचीन शास्त्रों के आदेशों का अनुकरण करते हुए राज्य की सुरक्षा के साथ-साथ प्रजा-रक्षण तथा प्रजा-पालन ही उसका सर्वोच्च लक्ष्य था। बंसखेड़ा और मधुबन के दानपत्रों में हर्ष ने अपनी प्रजावत्सलता को व्यक्त किया है: ‘लक्ष्मी (धन) का फल दान देने और दूसरो के यश की रक्षा करने में है। मनुष्य को मन, वाणी तथा कर्म से प्राणियों का कल्याण करना चाहिए।’
प्रशासन को पूर्णतः व्यवस्थित रखने के लिए हर्ष चंद्रगुप्त तथा अशोक की भाँति शासन के विविध कार्यों को स्वयं संपादित करता था और इसके लिए वह दिन-रात कठिन परिश्रम करता था। ह्वेनसांग के अनुसार ‘राजा का दिन तीन भागों में बँटा रहता था। एक भाग में तो वह प्रशासनिक कार्य करता था और शेष दो भाग धर्मकार्य में व्यतीत करता था। वह अथक था और इन कार्यों के लिए दिन उसे छोटा पड़ जाता था।’ चीनी यात्री से यह भी पता चलता है कि वह ‘दृष्टों के दमन और भलों को पुरस्कृत करने’ के लिए वह वर्षा ऋतु को छोड़कर शेष तीनों ऋतुओं में सारे राज्य में भ्रमण करता रहता था।
ऐसे अवसरों पर सम्राट के अस्थयी निवास के लिए ‘जयस्कंधावार’ (विजय शिविर) लगाये जाते थे। बंसखेड़ा तथा मधुबन लेखों में क्रमशः वर्धमानकोटि और कपित्थिका के जयस्कंधावारों का उल्लेख मिलता है। एक अन्य जयस्कंधावार अचिरावती नदी के तट पर स्थित मणितारा में स्थापित किया गया था, जहाँ सर्वप्रथम बाण ने हर्ष से भेंट की थी।
राजा, राजदरबार और राजमहल की देखभाल के लिए अनेक अधिकारी/कर्मचारी होते थे, जिनमें पारियात्र (द्वारपालों के मुखिया), विनयासुर (द्वारपाल), कंचुकी अथवा वेत्री, छत्रधारिणी, मीमांसक, पुरोहित, चामरग्राहिणी, तांबूलकरंकवाहिनी तथा राजा के अंगरक्षकों की गिनती की जा सकती है। मेखलक, कुरंगक और संवादक जैसे संदेशवाहकों का उल्लेख हर्षचरित में मिलता है, अत्यंत विश्वासपात्र होते थे। हर्षचरित में लेखहारक की भी चर्चा है, किंतु इसकी पहचान कठिन है।
सामंत: हर्ष के प्रशासन में सामंतों का विशिष्ट स्थान था। हर्ष के अधीनस्थ शासक ‘महाराज’ अथवा ‘महासामंत’ कहे जाते थे। हर्षचरित तथा कादंबरी में विभिन्न प्रकार के सामंतों का उल्लेख मिलता है, जैसे-सामंत, महासामंत, आप्त सामंत, प्रधान सामंत, शत्रु सामंत तथा प्रति सामंत। बाणभट्ट ने मणितारा के शिविर में जब पहली बार हर्ष से भेंट की थी, तब उसने राजा से भेंट करने की प्रतीक्षा में बैठे सामंतों को देखा था। हर्षचरित के अनुसार हर्ष ने महासामंतो को अपना करद बना लिया था (करदीकृत महासामंत)।
बंसखेड़ा और मधुबन के अभिलेखों में महासामंत स्कंदगुप्त और सामंतमहाराज ईश्वरगुप्त के नाम मिलते हैं। इन सामंतों का कार्य समय-समय पर सम्राट के राजदरबार में उपस्थिति होना, विभिन्न समारोहों में भाग लेना और युद्धों के समय सम्राट को सैनिक सहायता देना था। ऐहोल लेख से ज्ञात होता है कि हर्ष की सेना में बड़े-बड़े ऐश्वर्यशाली सामंत थे।
हर्ष काल में संभवतः ‘सामंत’ शब्द का प्रयोग भूस्वामियों, अधीनस्थ राजाओं तथा उच्च पदाधिकारियों के लिए किया जाने लगा था। अमात्य और कुमारामात्य जैसे पद भी सामंती उपाधि बन गये थे। इस प्रकार हर्षकालीन प्रशासन पूर्व की अपेक्षा अधिक सामंती तथा विकेंद्रित हो गया था।
मंत्रिपरिषद्: सम्राट को सहायता देने और प्रशासनिक कार्यों के कुशल संचालन के लिए एक मंत्रिपरिषद् होती थी, जिसमें प्रधानमंत्री को ‘सचिव’ अथवा ‘अमात्य’ कहा जाता था। हर्षचरित के अनुसार हर्ष की मंत्रिपरिषद में भंडि उसका प्रधान सचिव था। उत्तराधिकार जैसे महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को हल करने के लिए मंत्रिपरिषद् की सलाह ली जाती थी। राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के प्रश्न को तय करने के लिए भंडि ने मंत्रिपरिषद् की बैठक बुलाई थी।
विभाग और पदाधिकारी: हर्षकालीन प्रशासन से संबंधित कुछ विभागों के अध्यक्षों के पदों और नामों की सूचना मिलती है, जो निम्नलिखित हैं-
- सांधिविग्रहिक का पद आज के विदेश सचिव जैसा था, जिसका प्रधान अवंति था। युद्ध और संधि संबंधी निर्णयों में सांधिविग्रहिक की प्रमुख भूमिका होती थी। इसका मुख्य कार्य राजकीय आदेशों और घोषणाओं को लिखना था। हर्षचरित से पता चलता है कि अवंति के माध्यम से ही हर्ष ने यह घोषणा करवाई थी कि समस्त शासक या तो सम्राट की अधीनता स्वीकार करें या फिर युद्ध के लिए तैयार हो जायें।
- महाबलाधिकृत पदाति सेना का सर्वोच्च अधिकारी होता था, जिसे हर्षचरित में ‘सेनापति’ कहा गया है। हर्षचरित के अनुसार सिंहनाद हर्ष का प्रधान सेनापति था, जो प्रभाकरवर्धन के समय से ही इस पद पर नियुक्त था।
- बृहदश्ववार अश्वारोही सेना का सर्वोच्च अधिकारी होता था। हर्षचरित के अनुसार कुंतल अश्वारोही सेना का प्रधान नायक था।
- कटुक गजसेना का प्रधान होता था। हर्ष के समय गज सेना के कटुक पद पर स्कंदगुप्त प्रतिष्ठित था।
- दूतक का कार्य संभवतः दान-संबंधी राजा की आज्ञाओं को स्थानीय अधिकारियों तक पहुँचाना होता था। इस प्रकार दूतक दानग्रहीता को भूमि हस्तांतरित करानेवाला राजा का विश्वासपात्र मंत्री होता था।
- महाप्रमातार संभवतः भूमि की नाप और राजस्व विभाग का प्रमुख अधिकारी होता था। चूंकि स्कंदगुप्त को बंसखेड़ा के अभिलेख में दूतक और महाप्रमातार दोनों कहा गया है। इससे लगता है कि वह हर्ष के समय दोनों पदों को संभालता था। यह संभवतः गजसेना के प्रधान स्कंदगुप्त से भिन्न कोई दूसरा अधिकारी था।
- महाक्षपटलाधिकरणाधिकृत राजस्व और भूमि के ब्यौरों को रखनेवाला एक प्रमुख अधिकारी था। अभिलेखों से पता चलता है कि इस पद पर 628 ई. और 631 ई. में क्रमशः भान और ईश्वरगुप्त नियुक्त थे और दोनों को ही महासामंत और महाराज की उपाधियाँ दी गई हैं। इनकी आज्ञा से ही बंसखेड़ा और मधुबन के ताम्रपत्राभिलेखों को क्रमशः ईश्वर और गर्जर ने उत्कीर्ण किया था।
- दौस्साधसाधनिक नामक अधिकारी की चर्चा हर्ष के अभिलेखों में मिलती है। ‘दौस्साधसाधनिक’ का शाब्दिक अर्थ है- कठिन कार्य करने वाला। इस आधार पर इसे द्वारपाल या ग्रामाध्यक्ष माना जा सकता हैं।
- प्रमातृ शब्द का अर्थ है- मापना अथवा तौलना। कुछ इसको न्यायाधिकारी मानते हैं और कुछ आध्यात्मिक परामर्शदाता बताते हैं। संभवतः प्रमातार का संबंध भूमि की पैमाइश से था।
- कुमारामात्य नामक अधिकारी का उल्लेख हर्ष के दोनों अभिलेखों में मिलता है। यह उन अधिकारियों में था, जिन्हें दान में दी गई भूमि की सूचना दी जाती थी। संभवतः यह प्रांतों में शासन करनेवाले सामंतों की तरह विस्तृत अधिकार-संपन्न कोई अधिकारी था।
- चाट, भाट और सेवक जैसे कर्मचारी संभवतः शांति-स्थापना और सुव्यवस्था के कार्य से संबद्ध थे।
हर्षकालीन साहित्य तथा लेखों में महत्तर, भोगिक जैसे कुछ अन्य पदाधिकारियों के भी नाम मिलते है, किंतु इनके वास्तविक कार्यों के संबंध में स्पष्ट जानकारी नहीं है। महत्तर संभवतः गाँव का मुखिया होता था, जबकि भोगिक राजस्व विभाग से संबंधित कोई अधिकारी प्रतीत होता है। फ्लीट के अनुसार भोगिक भुक्ति के प्रधान अधिकारी का बोधक था। हर्षचरित में लेखहारक तथा दीर्घाध्वग का उल्लेख मिलता है, जो संभवतः संदेशवाहक के रूप में कार्य करते थे।
ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि मंत्रियों और केंद्रीय कर्मचारियों को नकद वेतन नहीं मिलता था, बल्कि उसके स्थान पर भूमिखंड (जागीर) दिये जाते थे। किंतु सैनिक पदाधिकारियों को नकद वेतन देने की व्यवस्था थी। ह्वेनसांग के अनुसार ‘निजी खर्च चलाने के लिए प्रत्येक गवर्नर, मंत्री, मजिस्ट्रेट और अधिकारी को भूमि दी जाती थी। इस आधार पर कुछ इतिहासकार हर्ष को ही सामंतवादी प्रथा का पूर्वगामी मानते हैं। संपूर्ण राजकीय आय का 1/4 राज्य के अधिकारियों और सेवकों के लिए नियत था।
प्रशासकीय इकाइयाँ
भुक्ति: हर्ष का विशाल साम्राज्य प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से प्रांतों में विभाजित था। प्रांत को ‘भुक्ति’ कहा जाता था। किंतु हर्षकालीन भुक्तियों (प्रांतों) की संख्या अथवा उनके शासकों के विषय में कोई सूचना नहीं है। हर्ष की ‘रत्नावली’ से कौशांबीभुक्ति की जानकारी मिलती है, जो प्रयागराज के क्षेत्रों में थी। मधुबन तथा बंसखेड़ा के लेखों में क्रमशः श्रावस्ती तथा अहिच्छत्र भुक्तियों का उल्लेख है, जो साम्राज्य के उत्तरी तथा उत्तरी-पश्चिमी भागों में स्थित थे।
भुक्ति का शासक राजस्थानीय, उपरिक अथवा उपरिक महाराज कहलाता था। हर्षचरित में प्रांतीय शासक को ‘लोकपाल’ कहा गया है। प्रांतपतियों का अपना प्रधान कार्यालय (अधिकरण) होता था।
विषय: भुक्ति का विभाजन ‘विषय’ में हुआ था, जो आज के जिलों की तरह थे। मधुबन तथा बंसखेड़ा के लेखों में क्रमशः कुंडधानी तथा अंगदीय विषयों के नाम मिलते हैं। विषय का प्रधान अधिकारी ‘विषयपति’ होता था। विषयपतियों की नियुक्ति अकसर प्रांतपतियों के द्वारा की जाती थी, किंतु कभी-कभी उसकी नियुक्ति सम्राट् स्वयं करता था। विषयपति के प्रधान कार्यालय को ‘विषयाधिकरण’ कहा जाता था। विषय के अंतर्गत कई ‘पाठक’ होते थे, जो संभवतः आजकल की तहसीलों के समान थे।
ग्राम: प्रशासन की सबसे छोटी, किंतु महत्त्वपूर्ण इकाई ‘ग्राम’ थी। मधुबन अभिलेख में सोमकुंडा गाँव का उल्लेख मिलता है। गाँव का मुखिया और ग्राम-शासन का प्रधान ‘महत्तर’ होता था, जिसका कार्य गाँव में में शांति बनाये रखना, राजस्व की वसूली करना तथा और स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति करना था। ग्राम की भूमि और अन्य संपत्तियों से संबंधित कागजपत्रों की देखभाल के लिए ‘ग्रामाक्षपटलिक’ नामक एक दूसरा अधिकारी होता था, जिसकी सहायता के लिए अनेक ‘करणिक’ नामक कर्मचारी होते थे। हर्षचरित से ज्ञात होता है कि हर्ष की दिग्विजय यात्रा में पहले पड़ाव के दौरान उस गाँव के कागजपत्रों को लिखनेवाले अधिकारी ने अपने उसे एक नवनिर्मित स्वर्णमुद्रा भेंट की थी।
राजस्व प्रशासन: हर्ष का प्रशासन बहुत उदार था। जनता से वसूल किये जानेवाले करों की संख्या कम थी। हर्षकालीन ताम्रपत्रों में केवल तीन करों का उल्लेख मिलता है- भाग, हिरण्य तथा बलि। प्रथम अर्थात् भाग भूमिकर था। यह राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमिकर था, जो उपज का 1/6 भाग लिया जाता था। ‘हिरण्य’ नकद और स्वर्ण के रूप में लिया जाने वाला कर था। ‘बलि’ के संबंध में कोई सूचना नहीं है। संभवतः यह एक प्रकार का धार्मिक कर था। व्यापारिक मार्गों तथा नदी के घाटों पर भी कर की वसूली की जाती थी। बिक्री की वस्तुओं पर ‘तुल्यमेय’ अर्थात् तौल अथवा माप के अनुसार कर वसूल किया जाता था। आर्थिक दंड के रूप में भी जुर्माने से भी राज्य की आय होती थी। राजकीय आय को प्रशासनिक कार्यों और सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों के वेतन के अतिरिक्त दान और धार्मिक कार्यों पर खर्च किया जाता था। कभी-कभी कुछ गाँवों की संपूर्ण आमदनी विशेष कार्यों के निमित्त दान दे दी जाती थी, जैसे-नालंदा विश्वविद्यालय के व्यय-वहन के लिए 100 गाँवों की आमदनी अर्पित की गई थी।
सैन्य-संगठन: बाण के हर्षचरित तथा ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है कि हर्षवर्धन के पास एक विशाल और संगठित सेना थी, जिसमें सामंतों तथा अधीन राजाओं द्वारा एकत्रित की गई सेना भी सम्मिलित होती थी। हर्षचरित से पता चलता है कि ‘दिग्विजय के लिए कूच करने के समय हर्ष के सैनिकों की संख्या इतनी बड़ी थी कि अपने सामने एकत्र विशाल सैन्य-समूह को देखकर वह आश्चर्यचकित रह गया।’
ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष की सेना में 5000 हाथी, 2000 घुड़सवार और 50000 पदाति थे, किंतु बाद में उनकी संख्या 60 हजार हाथियों और एक लाख घुड़सवारों तक पहुँच गई थी। इसमें सामंतों तथा अधीन राजाओं द्वारा एकत्रित की गई सेना भी सम्मिलित होती थी। ऐहोल लेख से स्पष्ट है कि हर्ष की सेना में अनेक वैभवशाली सामंत थे।
अश्वसेना के अधिकारियों को ‘बृहदेश्वर’ कहा जाता था। पैदल सैनिकों की संख्या भी बहुत अधिक थी। पैदल सेना के अधिकारियों को ‘बलाधिकृत’ या ‘महाबलाधिकृत’ कहा जाता था। बसाढ़ से प्राप्त एक मुद्रालेख से ज्ञात होता है कि सेना के सामग्रियों को सुरक्षित रखने के लिए एक अलग विभाग होता था, जिसे ‘रणभांडागाराधिकरण’ कहा जाता थे। इस विभाग का प्रधान ‘रणभांडगारिक’ होता था। कभी-कभी सैनिकों के कारण जनता को भारी कष्ट उठाना पड़ता था क्योंकि सैन्य-अभियानों के दौरान सेना खड़ी फसलों को नष्ट कर देती और मार्ग में पड़ने वाले घरों तथा झोपड़ियों को जला देती थी।
दंड-विधान: हर्षकालीन प्रशासन में गुप्तकाल की अपेक्षा कठोर दंड की व्यवस्था थी। राजद्रोहियों को मृत्युदंड और आजीवन कारावास की सजा दी जाती थी। सामाजिक नैतिकता एवं सदाचार के विरुद्ध किये गये अपराधों के लिए अंग-भांग, आर्थिक दंड और देश निकाला तथा आर्थिक दंड का भी प्रचलन था। कभी-कभी अपराधियों को देश से निर्वासन की सजा भी दी जाती थी। अपराधों की जाँच के लिए कभी-कभी अग्नि, जल, विष आदि के द्वारा दिव्य-परीक्षाएँ भी ली जाती थीं। कुछ विशेष अवसरों पर बंदियों को मुक्त किये जाने की भी प्रथा थी।
ह्वेनसांग के अनुसार लोग नैतिक दृष्टि से उन्नत थे और पारलौकिक जीवन के दुःखों से बचने के लिए पाप नहीं करते थे। राज्य में शांति और सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए पुलिस विभाग की स्थापना की गई थी। दांडिक, दंडपाशिक और चौरोद्धरजिक पुलिस विभाग संसंबंधित अधिकारी थे। चाट और भाट जैसे पुलिस कर्मचारियों के दुर्व्यवहार से भी ग्रामीण जनता अकसर दुःखी रहती थी।
संभवतः गुप्तोत्तरकालीन राजनीतिक विश्रृंखलता से शांति और व्यवस्था की कुछ समस्याएँ उठ खड़ी हुई थीं क्योंकि जहाँ फाह्यान को कहीं भी चोर-डाकुओं का सामना नहीं करना पड़ा था, वहीं ह्वेनसांग को कम से कम दो बार चोर डाकुओं का शिकार होना पड़ा था। एक बार पंजाब में शाकल के पास और दूसरी बार उत्तर प्रदेश में अयोध्या से कुछ आगे (दक्षिण) गंगा के किनारे। फिर भी, ह्वेनसांग के ही शब्दों में ‘सरकार ईमानदार थी, लोग परस्पर प्रेम तथा सद्भाव से रहते थे और अपराधी बहुत कम थे।
इस प्रकार हर्ष का प्रशासन उदारवादी सिद्धांतों पर आधारित था। उसके प्रशासन की विशेषता थी कि सामान्य जन-जीवन में उसका हस्तक्षेप बहुत कम था। ह्वेनसांग के अनुसार सरकार की माँगें कम थीं, परिवारों के पंजीकरण की न तो कोई आवश्यकता थी और न ही जबरन बेगार लिये जाते थे। ‘नागानंद’ से स्पष्ट होता है कि हर्ष का आदर्श सुखी और खुशहाल जनता थी। कादंबरी तथा हर्षचरित में उसे ‘प्रजा का रक्षक’ बताया गया है।
हर्षकालीन धर्म और धार्मिक जीवन
हर्ष के व्यक्तिगत धर्म और तत्कालीन धार्मिक जीवन के संबंध में हर्षचरित और हुएनसांग के यात्रा-वृत्तांत से सूचना मिलती है। बाणभट्ट के अनुसार हर्षकालीन समाज मे धार्मिक सहिष्णुता का वातावरण था। बाण के समय वैदिक ब्राह्मण, बौद्ध, जैन धर्म का प्रचलन था। शुरुआत में हर्ष ब्राह्मण धर्म में आस्था रखता था, किंतु बाद में उसका झुकाव बौद्ध धर्म की ओर हो गया। हर्षवर्धन एक धर्मसहिष्णु शासक था, इसलिए वह स्वयं भी हर धर्म के विद्वानों का सम्मान करता था। हर्षचरित में हर्षवर्धन को ‘साक्षात धर्म का अवतार’ बताया गया है।
हर्ष के पूर्वज भगवान शिव और सूर्य के उपासक थे। हर्ष भी प्रारंभ में अपने कुल देवता शिव का परम भक्त था। हर्षचरित के अनुसार शशांक पर आक्रमण करने से पहले उसने शिव की पूजा की थी और बंसखेड़ा तथा मधुबन अभिलेखों में हर्ष को ‘परममाहेश्वर’ कहा गया है। किंतु लगता है कि विंध्यावटी में बौद्ध भिक्षु दिवाकरमित्र से भेंट के बाद हर्ष बौद्धधर्म की ओर उन्मुख हो गया। चीनी यात्री ह्वेनसांग से मिलने के बाद वह पूरी तरह बौद्ध हो गया और उसने महायान शाखा को राज्याश्रय प्रदान किया।
कन्नौज की धर्म-सभा: हर्ष ने चीनी यात्री ह्वेनसांग का सम्मान करने और महायान संप्रदाय की उत्कृष्टता की सर्वोच्चता सिद्ध करने के लिए 643 ईस्वी में अपनी राजधानी कन्नौज में गंगा नदी के तट पर विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के आचार्यों की एक विशाल सभा आयोजित की। चीनी स्रोतों से पता चलता है कि इस भव्य समारोह में बीस देशों के राजा अपने देशों के प्रसिद्ध ब्राह्मणों, श्रमणों, सैनिकों, राजपुरुषों आदि के साथ उपस्थित हुए थे। ह्वेनसांग के वृत्तांतों से ज्ञात होता है कि सभा के उद्देश्य से गंगा के तट पर एक भव्य मठ का निर्माण कराया गया था। वहाँ 100 फीट ऊँची विशाल मीनार पर स्वयं हर्ष की ऊँचाई के बराबर बुद्ध की एक सुंदर प्रतिमा सभा के दर्शनार्थ रखी गई थी।
वैशाख मास के पहले दिन से प्रारंभ कर बीस दिनों तक सभी श्रमणों और ब्राह्मणों को उत्तम भोजन कराया गया और दान दिये गये। इक्कीसवें दिन बुद्ध की लगभग तीन फीट ऊँची स्वर्णमूर्ति को सुसज्जित हाथी पर रखकर एक भव्य जुलूस निकाला गया, और शीलादित्यराज ने त्रिरत्नों (बुद्ध, धर्म और संघ) के सम्मान में बहुमूल्य मोतियों और वस्तुओं को लुटाया। बुद्धदेव की पूजा-अर्चना और भोज के बाद ह्वेनत्सांग की अध्यक्षता में गूढ़ विषयों पर परिष्कृत भाषा में शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें ह्वेनसांग ने महायान संप्रदाय की श्रेष्ठता सिद्ध की। कन्नौज की सभा यह सभा 23 दिन तक चली।
किंतु ‘जीवनी’ में कुछ अतिरिक्त विवरण भी मिलता है। उसके अनुसार हर्ष द्वारा आयोजित कन्नौज की सभा में उपस्थित होने वाले राजाओं की संख्या बीस नहीं, अठारह थी। उसमें तीन हजार विद्वान् बौद्धभिक्षु, तीन हजार ब्राह्मण और निर्ग्रंथ तथा नालंदा विश्वविद्यालय के एक हजार आचार्य आमंत्रित किये गये थे। सभा में होनेवाले शास्त्रार्थ में ह्वेनसांग विजयी रहा; जिससे अप्रसन्न होकर हीनयानियों ने उसे मार डालने की योजना बनाई, जिसकी जानकारी हो जाने पर हर्ष ने कठोर घोषणा की कि, ‘जो कोई भी धर्माचार्य का स्पर्श करेगा अथवा चोट पहुँचायेगा, जो उसे प्राणदंड दिया जायेगा और जो कोई उनके विरूद्ध बोलेगा, उसकी जीभ काट ली जायेगी।’
चीनी स्रोतों से यह भी पता चलता है कि हर्ष की धार्मिक नीति से असंतुष्ट होकर वहाँ एकत्रित ब्राह्मणों ने हर्ष की हत्या करने का षड्यंत्र रखा। उत्सव के अंतिम दिन धर्मसभा के संघाराम में आग लगा दी गई, जिसे देखने के लिए हर्ष बुर्ज के शिखर पर गया। सीढ़ी से उतरते समय एक विधर्मी ने उसके ऊपर चाकू से हमला किया, किंतु हर्ष बच गया और विधर्मी को पकड़ लिया गया। विधर्मी के बयान और जाँच-पड़ताल के बाद मुख्य षडयंत्रकारियों को मृत्यदंड दिया गया और 500 ब्राह्मणों को, जिन्होंने अपना अपराध स्वीकार कर लिया, भारत के सीमांतों में निर्वासित कर दिया गया। किंतु इसकी पुष्टि किसी अन्य स्रोत से नहीं होती है। कन्नौज की सभा के परिणामस्वरूप महायान बौद्धधर्म के सिद्धांतों का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ और अनेक बौद्ध विहार तथा स्तूप भी निर्मित करवाये गये। ह्वेनसांग के अनुसार इस समय मगध में महायान संप्रदाय के 10 हजार भिक्षु निवास करते थे। नालंदा महाविहार में महायान बौद्ध धर्म की ही शिक्षा दी जाती थी।
कई इतिहासकारों के अनुसार हर्ष ने कन्नौज की सभा में धार्मिक असहिष्णुता की नीति अपनाई, जो उसकी मान्य शासन-नीति के अनुरूप नहीं थी। संभवतः यही कारण है कि अपने धार्मिक उत्साह और बौद्ध धर्म की उन्नति के लिए के लिए हरसंभव प्रयास के बावजूद वह बौद्ध धर्म के इतिहास में अशोक या कनिष्क जैसे अमर नहीं हो सका।
पंचवर्षीय महामोक्षपरिषद: ह्वेनसांग की ‘जीवनी’ से ज्ञात होता है कि हर्ष प्रत्येक पाँचवें वर्ष प्रयाग के संगम-क्षेत्र में एक विशाल दानोत्सव का आयोजन करता था, जहाँ वह अपना सारा राजकोष दान में खाली कर देता था। इस विशाल आयोजन को ‘महामोक्षपरिषद्’ कहा गया है। हर्ष के निमंत्रण पर ह्वेनसांग छठे ‘महामोक्षपरिषद्’ में सम्मिलित हुआ, जो संभवतः 643-44 ईस्वी में आयोजित किया गया था। ह्वेनसांग के अनुसार इस समारोह में कामरूप के राजा भास्करवर्मा, वल्लभी के राजा ध्रुवभट्ट और अन्य अठारह देशों के राजा, ‘पंचभारतों’ से पाँच लाख श्रमण, निर्ग्रंथ, ब्राह्मण, निर्धन तथा अनाथ लोग भी सम्मिलित हुए थे।
ह्वेनसांग बताता है कि पचहत्तर दिनों तक चलने वाले इस उत्सव का प्रारंभ एक अत्यंत भव्य सैनिक जुलूस से हुआ। प्रथम दिन बालुका पर बनी हुई एक अस्थायी वेदिका पर स्थापित बुद्ध की मूर्ति की पूजाकर हर्ष ने बहुमूल्य वस्तुएँ और वस्त्रादि दान दिया। इसके बाद दूसरे दिन सूर्य और तीसरे दिन शिव की पूजा के साथ बौद्ध भिक्षुओं, बाह्मणों, जैनों और अन्य धर्मावलंबियों के साथ-साथ गरीबों, अनाथों और अपाहिजों को दान दिया जाता रहा। अंततः हर्ष ने अपने सारे निजी आभूषण और वस्त्र भी दान दे दिये और स्वयं राज्यश्री के पहने हुए वस्त्र धारण किये।
ह्वेनसांग के शब्दों में, ‘इस समय तक पाँच साल की जमा-पूँजी ख़त्म हो गई थी। घोड़ों, हाथियों और सैन्य साज-सामान के अलावा, जो व्यवस्था बनाये रखने और राजकीय संपत्ति की रक्षा के लिए आवश्यक थे, कुछ भी नहीं बचा। राजा ने अपने रत्न और सामान, अपने कपड़े और हार, कान की बालियाँ, कंगन, गले का गहना और शीशमुकुट, सब कुछ बिना किसी शर्त के दान दे दिया। सब कुछ दान दिये जाने के बाद उसने अपनी बहन (राज्यश्री) से वस्त्र माँगकर पहना। इतना कुछ करने के बाद हर्ष को प्रसन्नता थी कि उसने ‘दस बल’ प्राप्त करने के लिए मार्ग प्रशस्त कर लिया है।’ प्रयाग के ‘महामोक्षपरिषद’ में हर्ष की उदारता का वर्णन किसी दरबारी कवि ने नहीं किया है, बल्कि एक ऐसे विदेशी तीर्थयात्री ने किया है, जिसके पास न तो भय का कोई कारण था और न ही प्रशंसा करने का कोई औचित्य ही था।
वास्तव में, तीर्थराज प्रयाग में पुण्यलाभ की इच्छा से किया गया हर्ष का यह सर्वस्व दानोत्सव उसकी सर्वधर्मसमत्व की भावनाओं का सबसे बड़ा उदाहरण है। प्रयागराज में पौराणिक काल से ही कुंभपर्व के अवसर पर दान देकर पुष्य अर्जित करने परंपरा प्रचलित थी, किंतु इस पर्व के अवसर पर प्रयाग में मेला प्रारंभ करने का श्रेय हर्ष को ही प्राप्त है।
बाण के विवरण से पता चलता है कि इस समय धर्म को व्यक्तिगत विषय माना जाता था और एक ही कुल में अनेक धर्मों के पालन का प्रमाण मिलता है। किंतु समाज में ब्राह्मण धर्म का बोलबाला था। ब्राह्मण धर्म की प्रधानता के कारण ही ह्वेनसांग ने भारत को ‘ब्राह्मणों का देश’ कहता था। बाणभट्ट ने हर्षचरित में अर्हत, पांडु भिक्षु, भागवत (वैष्णव), कपिल (सांख्य मत मानने वाले), कणाद (वैशेषिक मत को मानने वाले), औपनिषदिक (न्याय दर्शन को मानने वाले), पौराणिक, शैव, पंचरात्रिक (वैष्णव धर्म की एक शाखा), जैन, बौद्ध धर्म आदि संप्रदायों का वर्णन किया है, जिनमें से अधिकतर ब्राह्मण धर्म से संबंधित संप्रदाय थे। बाणभट्ट के अनुसार ब्राह्मण धर्म भिन्न-भिन्न संप्रदायों में बँटा था, जैसे-वैष्णव, शैव, शाक्त आदि। बाणभट्ट के अनुसार इस समय हिंदू धर्म के अनेक देवी-देवताओं विष्णु, लक्ष्मी, कुबेर आदि का पूजन होता था। यज्ञ, संस्कार, पंचमहायज्ञ आदि कर्मकांडों का भी प्रचलन था। ब्राह्मण धर्म के कई मंदिरों का वर्णन कन्नौज में मिलता है, जो माहेश्वर नाम से प्रसिद्ध थे।
ब्राह्मण धर्म में शैव संप्रदाय सर्वाधिक लोकप्रिय था। हर्ष के पूर्वज स्वयं शिव के अनन्य भक्त थे और हर्षचरित के अनुसार थानेश्वर के प्रत्येक घर में शिव की पूजा होती थी (गृहे गृहे अपूज्यत् भगवान खंडपरशुः)। मालवा तथा वाराणसी में शिव के अनेक विशाल मंदिर थे, जहाँ उनके सहस्रों भक्त निवास करते थे। इस समय शैव धर्म कई संप्रदायों में बँटा था। इसमें सबसे प्राचीन पाशुपत थे, जिसके प्रवर्तक लकुलीश थे। ह्वेनसांग के अनुसार जालंधर, मालवा, महेश्वरपुर आदि राज्यों में पाशुपत संप्रदाय का चलन था। कापालिक और कालमुख शैव धर्म के अतिमार्गी रूप थे, जो खोपड़ी में भोजन करते थे और मनुष्य की बलि देते थे। कापालिक व कालमुख दोनों तांत्रिक क्रियाएं करते थे। कालमुख भैरव की पूजा करते थे और उन्हें मदिरा अर्पित करते थे। शिव के अतिरिक्त, विष्णु की उपासना भी समाज में प्रचलित थी। दिवाकरमित्र के आश्रम में पांचरात्र तथा भागवत संप्रदायों के अनुयायी भी निवास करते थे। कुछ लोग प्राचीन वैदिक यज्ञों का भी अनुष्ठान करते थे। कादंबरी में अनेक धार्मिक पदाधिकारियों जैसे परिव्राजिकाओं का वर्णन मिलता है। यह पाशुपत, बौद्ध, जैन और नैष्ठिक संप्रदायों से संबंधित थे, जो लाल वस्त्र पहनकर अपनी कथाओं द्वारा धर्म उपदेश देते थे।
इस समय सूर्यपूजा के प्रचलन के भी प्रमाण मिलता हैं। हर्ष के पूर्वज प्रभाकरवर्धन व आदित्यवर्धन सूर्य के उपासक थे। हर्ष ने प्रयाग की महामोक्षपरिषद् में बुद्ध और शिव के साथ सूर्य की भी पूजा की थी। सूर्यपूजा का केंद्र मुल्तान में था। ह्वेनसांग ने भी मुल्तान (मूलस्थानपुर) के सूर्यमंदिर का उल्लेख किया है।
इस समय शक्ति की पूजा से संबंधित शाक्त संप्रदाय का भी प्रचलन था। हर्षचरित में कई स्थलों पर देवी दुर्गा की पूजा का उल्लेख मिलता है। कादंबरी में बाण ने चंडिका के मंदिर और विंध्यवासिनी की पूजा का वर्णन किया है।
ब्राह्मण धर्म के साथ बौद्ध और जैन धर्मों का भी प्रचलन था। बाणभट्ट ने हर्ष काल में क्षपणकों (विद्वानों) तथा दिवाकरमित्र के आश्रम में जैन भिक्षुओं का उल्लेख किया है। दक्षिण में जैन धर्म दिगंबर और श्वेतांबर दो रूपों में विद्यमान था। ह्वेनसांग ने भी श्वेतांबर संप्रदाय का वर्णन किया है। जैन धर्म, यद्यपि बौद्ध धर्म के समान लोकप्रिय नहीं था, किंतु पंजाब, बंगाल तथा दक्षिणी भारत के कुछ भागों में जैनानुयायी निवास करते थे।
हर्ष ने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को संरक्षण प्रदान किया था, इसलिए महायान संप्रदाय अधिक लोकप्रिय था। देश में अनेक स्तूप, मठ और विहार थे। नालंदा महाविहार महायान बौद्ध धर्म की ही शिक्षा का प्रमुख केंद्र था। किंतु हर्ष के बाद बौद्ध धर्म का पतन होने लगा, क्योंकि एक तरफ वैदिक धर्म अपने पुनरुत्थान पर जोर दे रहा था और मीमांसक बौद्ध धर्म पर निरंतर प्रहार कर रहे थे, तो दूसरी ओर तांत्रिक क्रियाओं के प्रचलन से बौद्ध संघारामों में विलासिता और व्यभिचार पनपने लगा था।
इस प्रकार हर्षवर्धन यद्यपि महायानी हो गया था, फिर भी उसने कभी भी अपने व्यक्तिगत धर्म का परित्याग नहीं किया था और वह अपने परिवार में प्रचलित शिव और सूर्यपूजा न तो त्याग किया और न ही अन्य धर्मावलंबियों के प्रति उसकी उदारता में कोई कमी आई। हर्ष की धार्मिक नीति किसी एक संप्रदाय की ओर उन्मुख न होकर सभी संप्रदायों के लिए समान थी। बाणभट्ट के अनुसार थानेश्वर बौद्ध और ब्राह्मण दोनों संप्रदायों का आश्रय-स्थल था। कन्नौज और प्रयाग की धार्मिक सभाओं में उसने बिना किसी धर्मिक भेदभाव के सभी धमानुयायियों को अपना सर्वस्व दान कर दिया था, जो उसकी धार्मिक सहिष्णुता के प्रमाण हैं।
हर्षकालीन सामाजिक जीवन
हर्षकालीन समाज वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार चार वर्णों में विभाजित था, किंतु परंपरागत चारों वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के अतिरिक्त समाज में अन्य अनेक जातियाँ एवं उपजातियाँ थी। समाज में ब्राह्मणों का सर्वोच्च स्थान था और उन्हें आचार्य तथा उपाध्याय कहा जाता था। हर्षचरित से पता चलता है कि हर्ष स्वयं ब्राह्मणों का बड़ा सम्मान करता था। ह्वेनसांग भी ब्राह्मणों की प्रशंसा करता है और उन्हें सबसे अधिक पवित्र तथा सम्मानित बताता है। संभवतः ब्राह्मणों के महत्त्व के कारण ही ह्वेनसांग भारत को ‘बाह्मणों का देश’ कहता है। किंतु इस समय ब्राह्मण कई उपजातियों में विभाजित थे और उनकी पहचान उनके गोत्र प्रवर तथा साखों से होने लगी थी। यही नहीं, अब वे अपने परंपरागत कार्यों के साथ-साथ कृषि और व्यापार करना भी करने लगे थे। भूमि-अनुदान की परंपरा के कारण ब्राह्मणों के पास दान के रूप में अत्यधिक भूमि का संकेंद्रण हो गया और वे भू-संपन्न किसान बन गये। समाज का दूसरा वर्ग क्षत्रियों का था, किंतु उनकी वास्तविक स्थिति के संबंध में कुछ अधिक ज्ञात नहीं है। हवेनसांग क्षत्रियों को ‘राजाओं की जाति’ बताता है और यह भी बताता है कि क्षत्रिय ब्राह्मणों को बड़ा सम्मान देते थे।
हर्षकाल में वैश्यो एवं शूद्रों के हाथ में राजनीतिक शक्ति आ गई थी और इस समय अधिकांश राजा क्षत्रियेतर जाति के थे। हर्ष स्वयं वैश्य जाति का था और ह्वेनसांग के अनुसार सिंध देश का राजा शूद्र था। वर्ण-व्यवस्था में तीसरे स्थान पर वैश्य थे, जो मुख्यतः व्यापार-वाणिज्य से संबद्ध थे और लाभ के लिए निकट और दूरस्थ देशों की यात्रा करते थे। पहले वे कृषि-कार्य भी करते थे, किंतु बाद में उन्होंने संभवतः बौद्ध धर्म के प्रभाव में कृषि-कार्य छोड़ दिया और पूर्णतया व्यापारी हो गये। संभवतः वैश्य आर्थिक गतिविधियों के नियामक थे और आर्थिक रूप से थे, किंतु इस काल में वैश्यों की स्थिति में गिरावट के संकेत मिलते हैं क्योंकि मनु और बौद्धायन धर्मसूत्र में वैश्यों को पहली बार शूद्रों के समकक्ष बताया गया है।
सामाजिक व्यवस्था में शूद्र चौथे स्थान पर थे, जिनकी संख्या सर्वाधिक थी। ऐसा लगता है कि वैश्यों द्वारा कृषि-कर्म छोड़ देने के बाद शूद्रों ने उस पर अधिकार कर लिया था। यही कारण है कि हवेनसांग ने शूद्रों को ‘कृषक’ बताया है। संभवतः इस समय शूद्रो ने कुछ राजनीतिक शक्ति भी प्राप्त कर ली थी क्योंकि ह्वेनसांग सिंध देश के राजा शूद्र बताया है जो बौद्ध धर्मानुयायी था। मणिपुर के राजा को भी शूद्र बताया गया है। सामान्यतया शूद्रों की आर्थिक स्थिति में सुधार के बावजूद उनकी सामाजिक स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। हर्षचरित में हर्ष को मनु के समान वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था का रक्षक बताया गया है।
यद्यपि हर्षकाल में जाति भेद बहुत कठोर नहीं था, फिर भी समाज में अस्पृश्यता का प्रचलन था और जनसंख्या का एक बड़ा भाग ‘अछूत’ माना जाता था। ह्वेनसाग के विवरण से पता चलता है कि कसाई, मछुये, जल्लाद, भंगी आदि जातियों की गणना अछूतों में होती थीं, जो नगर और गाँव के बाहर निवास करती थीं। संभवतः इस काल में वर्णसंकर जातियों की संख्या में भी वृद्धि हुई क्योंकि वैजयंती ने चौसठ वर्णसंकर जातियों का उल्लेख किया है। समाज में दास प्रथा भी प्रचलित थी, किंतु दासों की सामाजिक स्थिति अछूतों और अंत्यजों से अच्छी थी। कादंबरी में चांडाल स्त्री को ‘स्पर्शवर्जित’ कहा गया है।
समाज में स्त्रियों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। सिद्धांततः सजातीय विवाह ही मान्य थे, किंतु कभी-कभी अंतर्जातीय विवाह भी होते थे। हर्ष की बहन राज्यश्री, जो वैश्य थी, कन्नौज के मौखरिवंश (क्षत्रिय) में ब्याही गई थी। वल्लभी नरेश ध्रुवभट्ट, जो एक क्षत्रिय था, का विवाह हर्ष की पुत्री से हुआ था। अनुलोम और प्रतिलोम दोनों प्रकार के विवाह प्रचलित थे। अनुलोम में निम्न वर्ण की कन्या का उच्च वर्ण के पुरुष के साथ और प्रतिलोम में उच्च वर्ण की कन्या का विवाह निम्न वर्ण के पुरुष के साथ विवाह किया जाता था। पुनर्विवाह का प्रचलन नहीं था और कुलीन वर्ग में सती प्रथा का प्रचलन था। सतीप्रथा के अंतर्गत पति की मृत्यु होने पर पत्नी को पति के साथ उसकी चिता पर जलकर सती होना पड़ता था। हर्षचरित से पता चलता है कि हर्ष की माता यशोमंति सती हुई थी। ग्रहवर्मा की हत्या के बाद कारागार के भागकर राज्यश्री भी चिता में जलने जा रही थी, किंतु हर्ष ने उसे बचा लिया। संभवतः हर्ष ने ‘सती प्रथा’ पर प्रतिबंध लगाया था।
कुलीन परिवारों में पुरुषों के बहुविवाह का प्रचलन था और संभ्रांत लोग कई पत्नियाँ रखते थे। समाज में बालविवाह की प्रथा थी, जिससे लगता है कि पुत्रियों को पर्याप्त शिक्षा नहीं मिलती थी। केवल कुलीन परिवार की कन्याएँ ही शिक्षित होती थी। कहीं-कहीं पर्दाप्रथा का भी प्रचलन था।
सामान्यतः लोगों का जीवन सुखी और आमोदपूर्ण था। जन्म, विवाह जैसे अवसरों पर लाग नाच-गाने का आनंद लेते थे। हर्ष के काल में भारत के लोग शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे। श्राद्ध के अवसर पर पितरों को पसन्न करने के लिए माँसाहारी भोजन बनाया जाता था और ब्राह्मण लोग यज्ञों में पशुबलि देते थे। ह्वेनसांग के अनुसार भेड़ और हिरण का माँस तथा मछलियाँ खाई जाती थीं। गेहूँ और चावल का प्रयोग अधिक होता था। घी, दूध, दही, चीनी, मिश्री, विविध प्रकार के फल आदि भी प्रयोग में लाये जाते थे। कुछ लोग मदिरा का भी सेवन करते थे। कुलीन समाज में रेशम से बने वस्त्रों (चीनांशुक) के प्रयोग का संकेत मिलता है। सामान्यतया भारतीयों को श्वेत वस्त्र पसंद थे। स्त्री और पुरुष दोनों ही आभूषण धारण करते थे।
हर्षकालीन आर्थिक जीवन
हर्षकालीन भारत की आर्थिक दशा के विषय में बाण के ग्रंथों, चीनी स्रोतों और तत्कालीन लेखों से जानकारी मिलती है। स्रोतों से पता चलता है कि उस समय देश की आर्थिक दशा उन्नत थी। हर्षकालीन भारत में सामंतवाद का उदय हुआ। यद्यपि इसकी नींव गुप्तकाल में पड़ी। प्रारम्भ में सामंती व्यवस्था में मंदिर और ब्राह्मण तथा राजकीय उच्च अधिकारियों तक सीमित थी।
कृषि जनता की जीविका का मुख्य आधार थी। ह्वेनसांग के अनुसार अन्न तथा फलों का उत्पादन प्रभूत मात्रा में होता था। हर्षचरित के अनुसार श्रीकंठ जनपद में चावल, गेहूँ ईख आदि के अतिरिक्त सेब, अंगूर, अनार आदि भी उपजाये जाते थे। किंतु भूमि का अधिकांश भाग सामंतों के हाथ में था। कुछ भूमि ब्राह्मणों को दान के रूप में दी जाती थी, जिसे ‘ब्रह्मदेय’ कहा जाता था। इस प्रकार की भूमि से संबंधित सभी प्रकार के अधिकार दानग्राही को मिल जाते थे। मधुबन तथा बंसखेड़ा के लेखों में हर्ष द्वारा ग्राम दान में दिये जाने का विवरण है। कृषि के विकास के लिए सिंचाई की व्यवस्था की जाती थी। इस समय तालाब, रहट और जलाशय सिंचाई के प्रमुख साधन थे। हर्षचरित में सिंचाई के साधन के रूप में ‘तुलायंत्र’ (जलपंप) का उल्लेख मिलता है।
कृषि के अतिरिक्त वाणिज्य, व्यवसाय, उद्योग-धंधे तथा व्यापार भी उन्नति पर थे। देश में कई प्रमुख व्यापारिक नगर थे। व्यापार-व्यवसाय का कार्य श्रेणियों द्वारा होता था। विभिन्न व्यवसायियों की अलग-अलग श्रेणियाँ होती थीं। हर्षचरित में उल्लेख मिलता है कि राज्यश्री के विवाह के समय निपुण कलाकारांे की श्रेणियाँ राजमहल को सजाने के लिए बुलाई गई थीं। प्रमुख स्थानों पर बाजार लगते थे, जहाँ वस्तुओं का क्रय-विक्रय होता था। समकालीन लेखों में शौल्किक, तारिक, हंट्टमति आदि पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता है, जो बाजार व्यवस्था से संबंधित प्रतीत होते हैं। शौल्किक चुंगी वसूलने वाला, तारिक नदी के घाट पर कर वसूलने वाला और हंट्टमति बाजार में क्रय-विक्रय की जाने वाली वस्तुओं पर कर वसूलने वाला अधिकारी था। कुछ नगर अपने व्यापार के कारण अत्यंत समृद्ध हो गये थे। ह्वेनसांग के अनुसार थानेश्वर की समृद्धि का प्रधान कारण व्यापार ही था। बाण ने थानेश्वर नगर को अतिथियों के लिए ‘चिंतामणि भूमि’ तथा व्यापारियों के लिए ‘लालभूमि’ बताया है। यहाँ के अधिकांश निवासी व्यापारी थे, जो विभिन्न वस्तुओं और उत्पादों का व्यापार करते थे। मथुरा सूती वस्त्रों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध था, तो उज्जयिनी और कन्नौज भी आर्थिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध थे। बाण ने उज्जयिनी के निवासियों को ‘करोड़पति’ (कोट्याधीश) बताया है। वहाँ के बाजारों में बहुमूल्य हीरे-जवाहरात एवं मणियाँ बिक्री के लिए सजी रहती थी।
कन्नौज अनेक दुर्लभ वस्तुओं के लिए प्रसिद्ध था, जहाँ दूर-दूर देशों के व्यापारियों खरीदारी करने के लिए आते थे। अयोध्या भी विविध शिल्पों के लिए विख्यात था। देश में सोना-चाँदी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। हर्षकालीन कुछ सिक्के भिटौरा से मिले हैं, जिससे लगता है कि सिक्के विनिमय के माध्यम थे। किंतु कम सिक्कों की प्राप्ति यापार-वाणिज्य की पतनोन्मुख दशा का सूचक है।
देश में आंतरिक तथा बाह्य दोनों ही प्रकार का व्यापार होता था। इसके लिए जल तथा थल, दोनों मार्गों का उपयोग किया जाता था। कपिशा का वर्णन करते हुए ह्वेनसांग लिखता है कि वहाँ भारत के प्रत्येक कोने से व्यापारिक वस्तुएँ पहुँचाई जाती थीं। यहीं से भारतीय व्यापारी पश्चिमी देशों को जाते थे। कश्मीर से होकर मध्य एशिया तथा चीन तक पहुँचा जाता था। मालवा, गुजरात बंगाल और कलिंग विदेशी व्यापार के प्रमुख केंद्र थे। पूर्वी भारत में ताम्रलिप्ति और पश्चिमी भारत में भड़ौच प्रसिद्ध व्यापारिक बंदरगाह थे। चीन तथा पूर्वी द्वीप समूहों के साथ भारत का धनिष्ठ व्यापारिक संबंध था। ताम्रलिप्ति से जहाज मलय प्रायद्वीप तक जाते थे, जहाँ में एक मांर्ग पश्चिम की ओर जाता था। इत्सिंग लिखता है कि जब वह यहाँ से पश्चिम की ओर चला तो कई सौ व्यापारी उसके साथ बोधगया तक गये थे। अयोध्या और ताम्रलिप्ति के बीच भी एक व्यापारिक मार्ग था।
इस प्रकार यद्यपि साहित्य में हर्षकालीन भारत की समृद्धि का चित्रण मिलता है, किंतु भौतिक प्रमाणों से पता चलता है कि आर्थिक दृष्टि से यह पतन का काल था। अहिच्छत्र तथा कौशांबी जैसे नगरों की खुदाइयों तथा चीनी यात्री ह्वेननसांग के विवरण से भी इस बात की पुष्टि होती है कि सातवीं शताब्दी ईस्वी तक कई नगर और शहर वीरान हो चुके थे। इस काल में मुद्राओं और व्यापारिक व्यावसायिक श्रेणियों की मुहरों का अभाव देखने को मिलता है। व्यापार-वाणिज्य के पतन से समाज उत्तरोत्तर कृषि-मूलक होता चला गया
हर्षकालीन शिक्षा और साहित्य
हर्षवर्धन स्वयं विद्यागुणग्राही और उच्चकोटि का विद्वान् था, जिसे नागानंद, रत्नावली और प्रियदर्शिका नामक संस्कृत की तीन नाटिकाओं के प्रणयन का श्रेय प्राप्त है। बाणभट्ट के हर्षचरित में उनके काव्य-चातुर्य की प्रशंसा की गई है और कहा गया है कि वह ‘काव्यकथाओं (गोष्ठियों) में अमृत बरसाता था (काव्यकथास्वपीतममृतमुदमंतम्)। ग्यारहवीं शती के कवि सोढ्ढल ने अपने ग्रंथ ‘अवंतिसुंदरीकथा’ में उसकी गणना विक्रमादित्य, मुंज, भोज जैसे कवींद्रों की श्रेणी में की है और उसे साक्षात् वाणी-विलास (सरस्वती का हर्ष) कहा है। जयदेव ने हर्ष को भास, कालिदास, बाण और मयूर की श्रेणी में रखते हुए ‘कविताकामिनी का मानो साक्षात् हर्ष’ (प्रसन्नता) बताया है।
कुछ इतिहासकार हर्ष की रचनाओं को उसकी निजी कृतियाँ न मानकर उसके राजदरबारी लेखक ‘धावक’ की रचनाएँ मानते हैं, जिसने हर्ष से पुरस्कार लेकर उसके नाम से तीनों नाटकों की रचना की थी। किंतु हर्ष की कृतियों के संबंध में इस प्रकार का संदेह और आरोप उचित नहीं है। सत्रहवीं शती के सुप्रसिद्ध दार्शनिक मधुसूदन सरस्वती ने हर्ष को ‘रत्नावली’ का लेखक स्वीकार किया है। भारतीय साहित्य के अलावा, चीनी यात्री इत्सिंग ने भी हर्ष के विद्या-प्रेम की प्रशंसा की है।
‘प्रियदर्शिका’ चार अंकों का एक नाटक है, जिसमे वत्सराज उदयन और अंग देश की राजकुमारी प्रियदर्शिका की प्रणयकथा का वर्णन है। ‘रत्नावली’ में भी चार अंक हैं और इस नाटक में वत्सराज उदयन और सिंहलदेश की राजकुमारी रत्नावली (सागरिका) की प्रेमकहानी है। ‘नागानंद’ पाँच अंकों का नाटक है, जो बौद्ध धर्म से प्रभावित है। इस नाटक में विद्याधर राजकुमार जीमूतवाहन द्वारा नागों की रक्षा के लिए किये गये बलिदान की कथा वर्णित है।
हर्षवर्धन विद्वानों, कवियों और लेखकों का आश्रयदाता भी था। बाणभट्ट उसका दरबारी कवि था, जिसंने हर्षचरित और कादंबरी की रचना की है। दो अन्य कृतियाँ-चंडीशतक और पार्वतीपरिणय भी बाणभट्ट की ही मानी जाती हैं। बाणभट्ट के अलावा, हर्ष के राजदरबारी कवियों में मयूरभट्ट और मातंगदिवाकर का भी नाम मिलता हैं। मयूरभट्टकृत ‘मयूरशतक’ और ‘सूर्यशतक’ प्रसिद्ध काव्य गंथ हैं, किंतु मातंगदिवाकर की किसी रचना की जानकारी नहीं है। धावक नामक एक अन्य कवि को भी हर्ष ने राज्याश्रय प्रदान किया था। कुछ विद्वान् पूर्वमीमांसा के विद्वान् कुमारिलभट्ट और ‘ब्रह्मसिद्धांत’ के लेखक गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त को भी हर्षकालीन मानते है। संभवतः जयादित्य तथा वामन ने ‘काशिकावृत्ति’ नामक प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ की रचना इसी समय की थी।
हर्ष के समय में नालंदा विश्वविद्यालय महायान बौद्धधर्म की शिक्षा का प्रमुख केंद्र था। नालंदा महाबिहार के पटना जिले में राजगृह से आठ मील की दूरी पर आधुनिक बड़गाओं नामक ग्राम के पास स्थित था। मूलतः इस विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्तशासक ‘शक्रादित्य’ कुमारगुप्त प्रथम (415-445 ईस्वी) के समय हुई थी। चीनी यात्री के विवरण से पता चलता है कि लगभग एक मील लंबे और आधा मील चौड़े क्षेत्र में विस्तृत इस शिक्षाकेंद्र के बीच में आठ बड़े कमरे और व्याख्यान के लिए 300 छोटे कमरे थे। यहाँ तीन भवनों में स्थित धर्मगंज नामक विशाल पुस्तकालय था। नालंदा से प्रापत एक लेख से ज्ञात होता है कि विश्वविद्यालय के भवन भव्य और गगनचुंबी थे-
यस्याम्बुधरावलेहि शिखरश्रेणी विहारावली।
मालेवोऽर्ध्य विराजिनी विरचित धात्रा मनोज्ञा भुवौ।।
हर्ष के समय नालंदा विश्वविद्यालय अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर था। ह्वेनसांग के अनुसार नालंदा महाविहार के मुख्य भवन की बगल में ही हर्ष ने लगभग एक सौ फीट ऊँचा एक भव्यविहार बनवाया था, जिसकी दीवारें पीतल की चादरों से जड़ी थीं। इस महाविहार में देश-विदेश के विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने आते थे। ह्वेनसांग ने स्वयं वहाँ रहकर बौद्ध शास्त्रों का अध्ययन किया और बाद में अध्यापन कार्य भी किया था। यद्यपि नालंदा महाविहार बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था, फिर भी, वहाँ ब्राह्मण दर्शन और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन की भी व्यवस्था थी। हर्ष के समय शीलभद्र उसका कुलपति था। वहाँ के एक हजार अध्यापकों और दस हजार विद्यार्थियों को मुफ्त भोजन, दवा और वस्त्र राज्य तथा जनता की उदारता से मिलता था। हर्ष ने एक सौ ग्रामों की आमदनी इसका व्यय-वहन करने के लिए प्रदान किया था।
इस प्रकार हर्ष का काल सामाजिक सांस्कृतिक, शैक्षिक और धार्मिक रूप से उन्नति का काल था। किंतु आर्थिक स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी। सामती व्यवस्था की जड़े इस काल तक मजूबत होने लगी थी। ब्राह्मणों का वर्चस्व न सिर्फ समाज मे बढ़ने लगा था, बल्कि उनकी आर्थिक स्थिति भी संदृदू हो गई। यद्यपि कर प्रणाली सरल थी और लोग प्रशासन से खुश थे, किंतु सुरक्षा की व्यवस्था संपुष्ट नहीं थी। फिर भी, यह काल धार्मिक सहिष्णुता का काल था और प्रायः सभी लोग अपने-अपने व्यक्तिगत धर्म का पालन करने के लिए स्वतंत्र थे।
हर्ष ने संभवतः 647 ईस्वी तक राज्य किया। उसकी रानी दुर्गावती से उसके दो पुत्र-वाग्वर्धन और कल्याणवर्धन। किंतु उसके दोनों पुत्रों की मंत्री अरुणाश्व ने हत्या कर दी, इसलिए उसका कोई उत्तराधिकारी नहीं रह गया। फलतः 647 ईस्वी में हर्ष की मृत्यु के बाद उसका साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया और उत्तर भारत में फैली अराजकता का लाभ उठाकर अर्जुन नामक किसी स्थानीय शासक ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया।
हर्षवर्धन का मूल्यांकन
हर्षवर्द्धन एक महान् विजेता, कुशल प्रशासक, विद्वान् एवं विद्या का उदार संरक्षक था। इस प्रकार उसकी प्रतिभा बहुमुखी थी। अशोक और कनिष्क के समान उसने भी बौद्ध धर्म को राज्याश्रय प्रदान किया। समुद्रगुप्त के समान वह एक नीति-निपुण सम्राट था। उसके व्यक्तित्व में अशोक तथा समुद्रगुप्त इन दोनों महान् सम्राटों के गुणों का समन्वय था। यह सही है कि हर्ष न तो अशोक की तरह महान् धर्म-प्रचारक बन सका और न ही के महान योद्धा ही, फिर भी, वह इतिहासकारों को इन्हीं दोनों राजाओं के समान आकर्षित करने में सफल रहा।
हर्षवर्धन जब थानेश्वर का राजा हुआ, वह सोलह वर्ष का किशोर था। वह चारों ओर से कठिनाइयों घिरा था। पिता प्रभाकरवर्धन की मृत्यु, माता यशोमति का आत्मदाह, भाई राज्यवर्द्धन की हत्या, अधीनस्थ सामंतों के विद्रोह आदि के कारण उसकी स्थिति अत्यंत संकटपूर्ण हो गई थी। किंतु अपनी योग्यता और पराक्रम के बल पर हर्ष ने कठिनाइयों के बीच से अपना मार्ग प्रशस्त किया और उत्तर भारत के एक बड़े भूभाग पर अपनी प्रभुता स्थापित करने में सफल हुआ।
हर्ष एक प्रजावत्सल सम्राट था, जो सच्चे अर्थों में दीनों और अनाथों की सेवा करता था। प्रयाग के पंचवर्षीय समारोहों में वह अपना र्स्वस्व दान कर देता था। भारतीय इतिहास में ऐसे किसी दानशील सम्राट का कोई उदाहरण नहीं है। अपनी रचना नागानंद में अपने हृदय की भावनाओं को व्यक्त करते हुए हर्ष स्वयं कहता हैः ‘जो दूसरे की भलाई के लिए अपना बलिदान करने के लिए स्वतः तत्पर रहता है, वह भला सांसारिक राज्य के लिए मानव जाति का विनाश कैसे कर सकता है?’ हर्ष ने अपने उत्तरकालीन जीवन में इस आदर्श का पूर्णतया पालन किया। उसे इस बात का संतोष था कि उसकी प्रजा का जीवन सुखी और सुविधापूर्ण है। नागानंद में ही एक दूसरे स्थान पर वह संतोष व्यक्त करता है कि, ‘समस्त प्रजा सन्मार्ग पर चल रही है। सज्जन अनुकूल मार्ग का अनुसरण करते हैं; भाई-बंधु मेरी तरह ही सुख भोग रहे हैं; राज्य की सब प्रकार से सुरक्षा निश्चित हो चुकी है; प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को अपनी इच्छानुसार संपादित कर रहा है।’
हर्ष एक उच्चकोटि का विद्वान् था। उसने न केवल शिक्षा और साहित्य की उन्नति को प्रोत्साहन प्रदान किया, बल्कि रत्नावली, नागानंद और प्रियदर्शिका जैसे उत्कृष्ट नाटक ग्रंथों का प्रणयन किया। एक धर्म-सहिष्णु सम्राट के रूप में वह ब्राह्मणों-श्रमणों सभी धर्मावलंबियों का सम्मान करता था। उसने गुप्त साम्राज्य के विघटन के बाद भारत में फैली हुई अराजकता एवं अव्यवस्था का अंत कर कन्नौज को राजनीतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बना दिया, जिसके कारण उसे सम्मान से ‘महोदय नगर’ कहा जाने लगा। उसने नालंदा विश्वविद्यालय को 100 गाँवों की आमदनी प्रदान की और उसके बगल में पीतल का एक महाविहार बनवाया, जिसके कारण नालंदा प्राचीन भारत का एक प्रमुख शिक्षाकेंद्र बन गया। हर्ष ने उड़ीसा के 80 गाँवों की आय वहाँ के प्रसिद्ध विद्वान् बौद्धभिक्षु जयसेन को देने का प्रस्ताव किया, जिसे उसने अपनी त्याग-भावना के कारण अस्वीकार कर दिया था।
सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद उनका साम्राज्य विघटित हो गया और उत्तर भारत कई राज्यों में विभाजित हो गया। फिर भी, कन्नौज का गौरव बना रहा। उत्तर भारत की राजधानी होने का गौरव अब पाटलिपुत्र को नहीं, बल्कि कन्नौज को प्राप्त था। भारत के सभी प्रमुख शक्तियों ने या तो कन्नौज को अपनी राजधानी बनाने या उस पर अपना नियंत्रण बनाये रखने के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा कीं। सम्राट हर्ष के बाद यशोवर्मा (लगभग 690-740 ई.) ने सबसे पहले कन्नौज के गौरव को पुनर्जीवित किया। उसके समकालीन शासक चालुक्य राजा विनयादित्य और कश्मीर के राजा ललितादित्य, दोनों ने कन्नौज पर अधिकार करने के लिए उसके विरुद्ध युद्ध किया। यशोवर्मा और विनयादित्य के बीच मुकाबला संभवतः निर्णायक नहीं था, किंतु ललितादित्य ने निश्चित रूप से यशोवर्मा को पराजित कर दिया। किंतु यशोवर्मा के उत्तराधिकारियों में कोई इतना योग्य और नहीं था, फलतः 8वीं शताब्दी के अंत में कन्नौज पर आयुध राजवंश के शासकों ने अधिकार कर लिया। आयुधवंशीय शासकों की दुर्बलता के कारण कन्नौज पर अधिकार करने के लिए बंगाल के पाल, राजस्थान के गुर्जर-प्रतिहार और दक्षिण के राष्ट्रकूट त्रिपक्षीय संघर्ष में उलझ गये।
ह्वेनसांग का यात्रा-विवरण
प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग हर्ष के समय भारत आया था। वह 629 ई. में चीन से चलकर भारत पहुँचा और 645 ई. में वापस चीन लौट गया। वह नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन करने और भारत से बौद्ध ग्रंथों की खोज में आया था। हर्ष की प्रयाग महामोक्षपरिषद् में सम्मिलित होने के बाद वह वापस चला गया। वह अपने साथ बहुत से बौद्ध ग्रंथ और भगवान बुद्ध के अवशेष ले गया। उसने चीन पहुँचकर अपनी यात्रा-विवरण लिखा। यह विवरण ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसमें हर्ष से संबंधित विवरण के साथ तत्कालीन जन-जीवन की झाँकी मिलती है।
ह्वेनसांग ने हर्षवर्धन की प्रशासनिक व्यवस्था का चित्र खींचा है। हर्ष राज्य के कार्यों में व्यक्तिगत रूप से रुचि लेता था। दंडनीति उदार थी, किंतु कुछ अपराधों में दंड-व्यवस्था कठोर थी। राज्य के प्रति विद्रोह करने पर मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सजा दी जा सकती थी। दिव्य प्रथा का प्रचलन था। राजनैतिक दृष्टि से वैशाली और पाटलिपुत्र का महत्त्व घटने लगा था। उसके स्थान पर प्रयाग और कन्नौज का महत्त्व बढ़ने लगा था।
ह्वेनसांग ने तत्कालीन समाज को चार भागों में बाँटा है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। शूद्रों को उसने खेतिहर बताया है। इससे स्पष्ट है कि शूद्रों की स्थिति में अवश्य ही सुधार हुआ था। चीनी यात्री ने मेहतरों, जल्लादों जैसे अस्पृश्य लोगों का भी उल्लेख किया है, जो शहर के बाहर रहते थे और प्याज, लहसुन आदि खाते थे। सामान्य रूप से लोग हर प्रकार के अन्न-मक्खन आदि का प्रयोग करते थे। ह्वेनसांग वहाँ के लोगों के चरित्र से बहुत प्रभावित हुआ था। उसने उन्हें सच्चे व ईमानदार बताया है। सरलता, व्यवहारकुशलता व अतिथि प्रेम भारतीयों का मुख्य गुण माना है।
ह्वेनसांग के विवरण से ऐसा लगता है कि उस समय भारत में हिंदू धर्म का प्रभाव अधिक था। ब्राह्मण यज्ञ करते थे और गायों का आदर करते थे। विभिन्न प्रकार के देवी-देवताओं की पूजा की जाती थी। विष्णु, शिव व सूर्य के अनेक मंदिर थे। जैनधर्म व बौद्धधर्म का भी प्रचलन था। सामान्य रूप से लोग धर्म-सहिष्णु थे। विभिन्न संप्रदायों में एकता थी। वाद-विवाद या शास्त्रार्थ का भी वातावरण था जो कभी-कभी उग्र रूप धारण कर लेता था।
यहाँ की आर्थिक समृद्धि से ह्वेनसांग बहुत प्रभावित हुआ था। लोगों के रहन-सहन का स्तर ऊँचा था। सोने व चाँदी के सिक्कों का प्रचलन था, किंतु सामान्य विनिमय के लिए कौड़ियों का प्रयोग किया जाता था। भारत की भूमि बहुत उपजाऊ थी। पैदावार अच्छी होती थी। भूमि-अनुदान के रूप में भी दी जाती थी। रेशमी, सूती, ऊनी कपड़ा बनाने का व्यवसाय उन्नत था। आर्थिक श्रेणियों का भी उल्लेख मिलता है। ताम्रलिप्ति, भड़ौंच, कपिशा, पाटलिपुत्र आदि शहर व्यापारिक गतिविधियों के प्रमुख केंद्र थे। भारत के व्यापारिक संबंध पश्चिमी देशों, जैसे-चीन, मध्य एशिया आदि से थे। दक्षिणी-पूर्वी द्वीपसमूह जैसे- जावा, सुमात्रा, मलाया आदि से व्यापार जलीय मार्ग द्वारा होता था।
ह्वेनसांग ने हर्ष द्वारा आयोजित कन्नौज व प्रयाग की सभाओं का उल्लेख किया है। उसने नालंदा विश्वविद्यालय का भी विवरण दिया है जो उस समय की शैक्षणिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था। तत्कालीन समाज का शैक्षणिक स्तर बहुत उच्च था। हर्ष के धार्मिक दृष्टिकोण, दानशीलता व प्रजावत्सलता की भी ह्वेनसांग ने बड़ी प्रशंसा की है।
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