राष्ट्रकूट राजवंश का राजनीतिक इतिहास
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कृष्ण तृतीय
अमोघवर्ष तृतीय के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र और युवराज कृष्ण तृतीय 939 ई. में राष्ट्रकूट राजवंश की गद्दी पर बैठा। अपने राज्यारोहण के समय उसने अकालवर्ष की उपाधि ग्रहण की। इसके अलावा, उसने वल्लभनरेंद्र, पृथ्वीवल्लभ, समस्तभुवनाश्रय, कंधारपुराधीश्वर, परममाहेश्वर, परमेश्वर तथा परमभट्टारक जैसी अन्य उपाधियाँ भी धारण की थी। कांची और तंजोर की विजय के बाद उसने ‘कांची तथा तंजोर का विजेता’ की उपाधि भी ग्रहण की थी।
कृष्ण तृतीय की उपलब्धियाँ
कृष्ण तृतीय (939-967 ई.) एक कुशल सैनिक तथा साम्राज्यवादी शासक था। यद्यपि कृष्ण तृतीय को अपने पिता की मृत्यु के बाद बिना किसी विरोध के सिंहासन प्राप्त हुआ था, किंतु सुद्दी अभिलेख कहा गया है कि गंगराज बुतुग ने लल्लेय नामक किसी विद्रोही से कृष्ण द्वितीय की गद्दी सुरक्षित की और उसने लल्लेय के राजकीय हाथी, घोड़े, श्वेतछत्र तथा गद्दी को छीनकर कृष्ण को दिया था। इससे लगता है कि कृष्ण को अपने पिता की मृत्यु के बाद किसी विद्रोह का सामना करना पड़ा था, जबकि कृष्ण के राज्यारोहण से संबंध में ऐसी किसी घटना की जानकारी नहीं है। चूंकि लल्लेय के विषय में भी कोई सूचना नहीं है, इसलिए सुद्दी लेख की प्रमाणिकता संदिग्ध है।
संभवतः लल्लेय कोई स्थानीय सामंत शासक था, जिसने कृष्ण को राष्ट्रकूट राज्य का वैध उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया था और कृष्ण तृतीय ने अपने संबंधी और सामंत गंगराज बुतुग द्वितीय की सहायता से उसे पराजित किया था।
कृष्ण तृतीय ने सिंहासनारोहणोपरांत दो वर्ष तक अपनी आंतरिक शासन-व्यवस्था एवं सैन्य शक्ति को सुदृढ़ किया और तीसरे वर्ष साम्राज्य-विस्तार हेतु दिग्विजय की एक व्यापक योजना बनाई। इस अभियान में उसने न केवल अपने समकालीन चोलों, केरलों, पांड्यों और वेंगी के चालुक्यों को पराजित कर सिंहल तक के राजाओं को भयभीत किया, बल्कि उत्तर में बुंदेलखंड और मालवा के क्षेत्र को आक्रांत कर राष्ट्रकूटों की सैन्य-शक्ति का प्रदर्शन भी किया।
काँची और तंजोर की विजय
अपने विजय अभियान के क्रम में कृष्ण तृतीय ने सर्वप्रथम दक्षिण में अपनी साम्राज्यवादी नीति को क्रियान्वित किया। कृष्ण द्वितीय के समय में राष्ट्रकूटों तथा उनके सामंतों बाणों तथा वैदुम्बों को चोल परांतक से मात खानी पड़ी थी, जिससे उनके कई क्षेत्र चोलों के अधिकार में चले गये थे।
अर्काट जिले से प्राप्त लेखों से पता चलता है कि कृष्ण तृतीय ने काँची और तंजौर की विजय किया था। कृष्ण तृतीय ने अपने संबंधी बुतुग की सहायता से 943 ई. के आसपास चोल शासक परांतक पर आक्रमण किया और काँची तथा तंजोर पर अधिकार कर लिया। कृष्ण के शासन के पाँचवें और सातवें वर्ष के कई अभिलेख तोंडमंडलम में मिले हैं, जो इस क्षेत्र पर उसके प्रभुत्व के सूचक हैं।
किंतु कुछ समय बाद चोल परांतक ने अपनी सेना और शक्ति को संगठित कर राष्ट्रकूटों की सत्ता को गंभीर चुनौती दी। इस बार चोल सेना का नेतृत्व युवराज राजादित्य ने किया। राष्ट्रकूट लेखों से पता चलता है कि 949-50 ई. में चोल तथा राष्ट्रकूट सेनाओं के बीच तक्कोलम् (उत्तरी अर्काट) नामक स्थान पर भयंकर युद्ध हुआ। राष्ट्रकूट लेखों से ज्ञात होता है कि आरंभ में चोलों का पलड़ा भारी रहा और उन्होंने राष्ट्रकूटों के पैर उखाड़ दिये। किंतु बाद में राष्ट्रकूट सेनापति माणलेर एवं गंगराज बुतुग की सामरिक योग्यता से राष्ट्रकूटों को सफलता मिली और चोल युवराज राजादित्य मारा गया। लीडन दानपत्रों में कहा गया है कि हाथी पर सवार राजादित्य कृष्ण तृतीय से युद्ध करता हुआ मारा गया था। अपने साले गंगराज शासक बुतुग के सहयोग से प्रसन्न होकर कृष्ण तृतीय ने उसे बेलवोला, पुरिगेरे तथा किसुकाड का शासक बना दिया। माणलेर की बहुमूल्य सेवाओं के बदले आरकुर तथा कादियूर के गाँव उपहार में दिये गये।
958 ई. के करहद लेख में भी दावा किया गया है कि कृष्ण तृतीय के शासनकाल में संपूर्ण तोंडैमंडलम राष्ट्रकूट साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया था। इसके विपरीत परांतक चोल के कन्याकुमारी अभिलेख के अनुसार परांतक ने कृष्णराज को पराजित कर ‘वीरचोल’ की उपाधि धारण की थी। संभवत इस लेख में चोल शासक द्वारा कृष्ण द्वितीय के विरुद्ध आरंभ में प्राप्त की गई सफलताओं की ओर संकेत किया गया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि कृष्ण तृतीय वास्तव में काँची और तंजोर का विजेता था।
केरल, पांड्य एवं सिंहल
चोलों को पराजित करने के बाद राष्ट्रकूट सेना ने दक्षिण की ओर बढ़कर केरल एवं पांड्यों को पराजित किया। शक संवत् 880 के करहद से पता चलता है कि उसने केरल तथा पांड्यों को पराजित किया, कुछ समय के लिए रामेश्वरम् पर अधिकार कर लिया और वहाँ अपना अपना एक कीर्ति-स्तंभ स्थापित किया। उसने रामेश्वरम् में प्रियगंडमार्तंड एवं कृष्णेश्वर के मंदिर का निर्माण करवाया और उन्हें कुछ गाँव दान में दिया।
कहा गया है कि कृष्ण तृतीय की चोल, केरल तथा पांड्य विजयों से भयभीत होकर श्रीलंका के शासक ने भी इसकी अधीनता स्वीकार कर ली।
कृष्ण तृतीय की इन विजयों की पुष्टि सोमदेव के ‘यशस्तिलक’, देवली लेख तथा शोलापुर लेख से भी होती है। यशस्तिलक के अनुसार इसने चेर, पांड्य, चोल तथा सिंहल की विजय प्राप्त की थी। देवली लेख में कहा गया है कि कृष्ण तृतीय ने कांची के शासक दंतिग तथा बप्पुग का वध किया, पल्लव अंतिग को पराजित किया, गुर्जरों के आक्रमणों से कलुचुरियों की रक्षा की और हिमालय से लेकर श्रीलंका तक तथा पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र तक के सभी सामंतों से अपनी आज्ञा का पालन करवाया। शोलापुर लेख में इसे ‘चक्रवर्ती शासक’ बताया गया है। यद्यपि सिंहल, चेर, पांड्य राज्य अधिक काल तक राष्ट्रकूट सीमांतर्गत नहीं रह सके, किंतु तोंडैमंडलम् पर उसका प्रत्यक्ष शासन बना रहा।
उत्तर भारत की विजय
दक्षिण के युद्धों से निपटने के बाद कृष्ण तृतीय ने 963 ई. के आसपास उत्तर भारत की विजय के लिए प्रस्थान किया। दरअसल दसवीं शती के मध्य में जब कृष्ण तृतीय दक्षिणी अभियानों में व्यस्त था, बुंदेलखंड के चंदेलों ने अपनी शक्ति को सुदृढ़ कर कालंजर और चित्रकूट के दुर्गों पर अधिकार कर लिया था, जो अमोघवर्ष के समय में राष्ट्रकूटों के अधीन थे।
बुंदेलखंड पर आक्रमण
कृष्ण तृतीय ने कालंजर और चित्रकूट के दुर्गों पर पुनः अधिकार करने और चंदेलों को दंडित करने के लिए उत्तर भारत में सैन्य-अभियान किया। इस बार कृष्ण के उत्तर भारतीय अभियान में चेदि नरेश मारसिंह द्वितीय ने उसका सहयोग किया, जो बुतुग का उत्तराधिकारी था।
कृष्ण तृतीय ने 963 ई. के लगभग सर्वप्रथम मध्य प्रांत के बुंदेलखंड को आक्रांत किया और संभवतः कुछ समय के लिए चित्रकूट तथा कालंजर के दुर्गों पर अधिकार करने का प्रयत्न किया। किंतु बुंदेलखंड क्षेत्र के जूरा से प्राप्त कन्नड लेख में कृष्ण तृतीय को ‘काँची एवं तंजौर का विजेता’ कहा गया है। इससे लगता है कि चित्रकूट एवं कालंजर के दुर्गों को पुनः अधिकृत करने में कृष्ण तृतीय को विशेष सफलता नहीं मिली और उसे केवल दक्षिण की विजयों से ही संतुष्ट रहना पड़ा। विक्रम संवत् 1055 (996-97 ई.) के एक लेख में चंदेल धंग को ‘कालंजराधिपति’ कहा गया है।
मालवा पर आक्रमण
बुंदेलखंड की विजय के बाद कृष्ण तृतीय ने मालवा को आक्रांत किया और परमार शासक सीयक को पराजित कर उज्जयिनी पर अधिकार कर लिया। हरसोला अभिलेख से पता चलता है कि 949 ई. तक सीयक राष्ट्रकूटों के प्रति निष्ठावान था, किंतु बाद में किन्ही कारणों से वह विद्रोही हो गया था। लेखों में मारसिंह के दो सेनापतियों को ‘उज्जयिनी भुजंग’ की उपाधि दी गई है और ज्ञात होता है कि मारसिंह द्वितीय ने दक्षिणी एवं उत्तरी गुजरात में अभियान किया था। लक्ष्मेश्वर अभिलेख (967-68 ई.) से भी पता चलता है कि कृष्ण के आदेश से मारसिंह द्वितीय ने गुर्जर शासक को पराजित किया था। अब सीयक राष्ट्रकूटों के अधीनस्थ सामंत के रूप में शासन करने लगा।
वेंगी के चालुक्यों से संबंध
कृष्ण को वेंगी की राजनीति में भी हस्तक्षेप करने का अवसर मिला। भीम द्वितीय की मृत्यु के बाद अम्म द्वितीय वेंगी का शासक हुआ। कृष्ण तृतीय ने अपने समर्थक युद्धमल्ल द्वितीय के पुत्र वाडप को वेंगी का सिंहासन दिलाने के लिए अम्म द्वितीय पर आक्रमण किया। पराजित अम्म द्वितीय को भागकर कलिंग में शरण लेनी पड़ी और वाडप विजयादित्य के नाम से चालुक्य राज्य की गद्दी पर बैठा। वाडप्प राष्ट्रकूट सामंत के रूप में अपने जीवन के अंत तक (970 ई.) वेंगी मंडल में शासन करता रहा।
वाडप के बाद ताल द्वितीय वेंगी का राजा हुआ, किंतु अम्म द्वितीय ने उसे मारकर पुनः वेंगी के सिंहासन पर अधिकार कर लिया। कृष्ण तृतीय ने अम्म के सौतेले भाई दानार्णव का समर्थन किया और उसकी सहायता के लिए एक सेना वेंगी भेजी। राष्ट्रकूट सेना ने अम्म को पुनः पराजित कर दानार्णव को वेंगी की गद्दी पर बैठा दिया। अम्म ने भागकर कलिंग के राजा के यहाँ शरण ली।
किंतु राष्ट्रकूट सेना के हटते ही अम्म ने दानार्णव को मौत के घाट उतार दिया और वेंगी के सिंहासन पुनः अधिकार कर लिया। इस प्रकार कृष्ण तृतीय के जीवन के अंतिम वर्षों में वेंगी राष्ट्रकूटों की अधीनता से मुक्त हो गया।
कृष्ण तृतीय का मूल्यांकन
कृष्ण तृतीय राष्ट्रकूट राजवंश का अंतिम महान् शासक था। यद्यपि उसने उत्तर भारत में ध्रुव, गोविंद तृतीय तथा इंद्र तृतीय की भाँति शानदार सामरिक सफलताएँ नहीं हासिल की, लेकिन अपनी महत्वपूर्ण सामरिक उपलब्धियों के द्वारा उसने राष्ट्रकूटों के गौरव एवं प्रतिष्ठा को एक बार पुनः उन्नति के शिखर पर पहुँचा दिया। यही नहीं, सिंहल का राजा भी उससे प्रभावित था। इस प्रकार कृष्ण तृतीय राष्ट्रकूट वंश का पहला और अंतिम शासक है, जिसे सही अर्थों में संपूर्ण दक्षिणापथ का सम्राट कहा जा सकता है। वह पल्लवों तथा चोलों पर अपना नियंत्रण रखने में सफल रहा।
कृष्ण तृतीय को उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम् तथा श्रीलंका तक की विजयों का श्रेय दिया गया है। उसकी उत्तर में हिमालय तक की विजय का विवरण अतिरंजित अवश्य है, किंतु दक्षिण में वह निश्चित रूप से रामेश्वरम् तक के क्षेत्रों का अधिपति था। कृष्ण तृतीय के अतिरिक्त अन्य कोई भी राष्ट्रकूट शासक सुदूर दक्षिण में इस प्रकार प्रभावी प्रभुत्व स्थापित नहीं कर सका था। कृष्णेश्वर तथा गंडमार्तंडादित्य के मंदिर सुदूर दक्षिण में उसकी विजयपताका फहराने के स्पष्ट प्रमाण हैं।
कृष्ण तृतीय मात्र एक विजेता एवं साम्राज्य-निर्माता ही नहीं था, बल्कि वह साहित्य एवं और विद्वानों का उदार आश्रयदाता भी था। उसके संरक्षण में ही कन्नड भाषा के कवि पोन्न ने ‘शांतिपुराण’ की रचना की थी। उसकी प्रतिभा से प्रभावित होकर कृष्ण तृतीय ने उसे ‘उभयभाषाचक्रवर्ती’ (दोनों भाषाओं में पारंगत) की उपाधि दी थी। उसके शासनकाल में ही विद्वान् पुष्पदंत ने ‘ज्वालामालिनीकल्प’ की रचना की थी।
कृष्ण तृतीय के जीवनकाल में ही उसके सभी पुत्रों की मृत्यु हो गई थी। एक पुत्र के पुत्र इंद्र का नाम मिलता है, किंतु यह अत्यधिक अल्पवयस्क होने के कारण विशाल साम्राज्य को सुरक्षित करने में असफल रहा। कृष्ण का एक भाई जगत्तुंग 967 ई. के पहले ही मर गया था। दो अन्य भाई खोट्टिग एवं निरुपम जीवित थे। कोल्लगल्लु अभिलेख के अनुसार कृष्ण तृतीय के शासन की समाप्ति 967 ई. (शक संवत् 889) में हुई थी, क्योंकि यह अभिलेख इसकी मृत्यु के तुरंत बाद उत्कीर्ण करवाया गया था। 967 ई. में कृष्ण तृतीय की मृत्यु के बाद खोट्टिग उसका उत्तराधिकारी हुआ।
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