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जैन धर्म और तीर्थंकर
जैन धर्म भारत की श्रमण परंपरा से निकला धर्म और दर्शन है। श्रमणों में कदाचित् प्राचीनतम् संप्रदाय निगंठों अथवा जैनों का था। जैन शब्द ‘जिन्’ से व्युत्पन्न है- ‘रागद्वेषादिमनोविकारात्र्जयति इतिजिनः’। जो इंद्रियों को जीतने में विश्वास कर तदनुरूप आचरण करता है, वही जैन है। ‘जैन’ उन्हें कहते हैं, जो ‘जिन्’ के अनुयायी हों। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे जिन् हैं। जैन धर्म अर्थात ‘जिन्’ भगवान का धर्म। जो इंद्रियों को जीतने में विश्वास कर तदनुरूप आचरण करता है, वही जैन है। ‘जिन्’ की उपाधि अंतिम तीर्थंकर वर्द्धमान को दी गई थी।
भगवान बुद्ध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे, किंतु उनके समकालीन वर्द्धमान महावीर जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर थे। ‘जैन’ शब्द का स्वतंत्र प्रयोग महावीर के बहुत बाद जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण कृत ‘विशेषावश्यकभाष्य’ में मिलता है।
जैन धर्म के अनुयायियों की मान्यता है कि उनका धर्म अनादि और सनातन है। सामान्यतः लोगों में यह मान्यता है कि जैन संप्रदाय का मूल उन प्राचीन परंपराओं में रहा होगा, जो आर्यों के आगमन से पूर्व इस देश में प्रचलित थीं। ऋषभदेव और अरिष्टनेमि को लेकर जैन धर्म की परंपरा वेदों तक पहुँचती है। महाभारत के युद्ध के समय इस संप्रदाय के प्रमुख नेमिनाथ थे, जो जैन धर्म में मान्य तीर्थंकर हैं।
जैनों के इस विश्वास को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि उनकी मुनि परंपरा अत्यंत प्राचीन तथा अवैदिक थी। वैदिक साहित्य में उल्लिखित मुनियों के वर्ग में जैन मुनियों का होना नितांत संभव है। ये श्रमण संन्यासी वैदिक परंपरा के विरुद्ध थे। महावीर तथा बुद्ध के काल में ये श्रमण कुछ बौद्ध तथा कुछ जैन हो गये थे। इन दोनों ने अलग-अलग अपनी शाखाएँ बना लीं।
तीर्थंकर
तीर्थंकर शब्द का जैन धर्म में बड़ा महत्त्व है। ‘तीर्थ’ स्थापित करने वाले को ‘तीर्थंकर’ कहते हैं। यह शब्द ‘तीर्थ’ से बना है, जिसका अर्थ उस निमित्त से है जो मनुष्य को संसार-सागर से पार उतारे। तीर्थंकर लोकमंगल की आराधना के लिए ‘तीर्थ’ का निर्माण करते हैं जहाँ प्राणी-मात्र को विश्वास, आस्था एवं ज्ञान का अमोघ मंत्र प्राप्त होता है। ‘तीर्थंकर’ उपाधि जैन धर्म के संस्थापकों एवं जितेंद्रिय तथा कैवल्य प्राप्त महात्माओं की है। जैन धर्म में उन ‘जिनों’ और महात्माओं को तीर्थंकर कहा गया है, जिन्होंने प्रवर्तन किया, उपदेश दिया और असंख्य जीवों को इस संसार से उद्धार कर ‘तार’ दिया। इसी कारण जैनाचार्य समंतभद्र ने कहा है कि, ‘भगवन्! आपकी व्यवस्था सभी प्राणियों के सर्वदुखों का अंत करने वाली और सबका कल्याण करने वाली है; सर्वोदय तीर्थ है।’
तीर्थ के अंतर्गत साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका, इन चार प्रकार के व्रतियों का समावेश होता है। मानव जीवन की ये चार अवस्थाएँ मुक्ति प्राप्त करने में सहायक होती हैं अर्थात् इनसे जो तीर्थ बनता है, वह मुक्ति की ओर ले जाता है।
‘तीर्थंकर’ सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी तथा सब प्रकार के दोषों से रहित होते हैं। वे तीर्थ अर्थात् धर्मसंघ की स्थापना करते हैं तथा धर्मोपदेश देते हैं। ‘तीर्थंकर’ अपनी माता के गर्भ में जिस दिन प्रवेश करते हैं, उस रात उनकी माता को चौदह (अथवा सोलह) प्रकार के स्वप्न दिखाई पड़ते हैं। जैन परंपरा के अनुसार प्रवर्तन काल में चौबीस (24) तीर्थंकर हुए हैं-
- ऋषभदेव 2. अजितनाथ 3. संभवनाथ 4. अभिनंदन 5. सुमितनाथ 6. पद्मप्रभु 7. सुपार्श्वनाथ 8. चंद्रप्रभ 9. पुष्पदंत सुविधिनाथ 10. शीतलनाथ 11. श्रेयांसनाथ, 12. वासुपूज्य, 13. विमलनाथ, 14. अनंतनाथ, 15. धर्मनाथ, 16. शांतिनाथ, 17. कुन्थुनाथ, 18. अर्हनाथ, 19. मल्लिनाथ, 20. मुनि-सुव्रत, 21. नमिनाथ, 22. नेमिनाथ (अरिष्टनेमि), 23. पार्श्वनाथ, 24. वर्द्धमान अथवा महावीर।
महावीरपूर्व प्रवर्तमान काल के 23 तीर्थंकरों में से आज इतिहास प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव या आदिनाथ, बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ और तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का ऐतिहासिक अस्तित्त्व स्वीकार करता है। कुछ जैन विद्वानों के अनुसार द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ का वर्णन ‘यजुर्वेद’ में हुआ है, तथा तीर्थंकर अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) का उल्लेख ‘ऋग्वेद’ में है। तीर्थंकरों के जीवन-चरित जैन-सूत्रों तथा जैन गुरुओं द्वारा रचित चरित्रों में उपलब्ध हैं।
तीर्थंकर ऋषभदेव
जैन अनुश्रुतियों के अनुसार प्रथम तीर्थंकर जिन् तथा जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव इक्ष्वाकु भूमि (अयोध्या) में पैदा हुए थे। जैन साहित्य में इन्हें प्रजापति, आदिब्रह्मा, आदिनाथ, बृहद्देव, पुरुदेव, नाभिसूनु और वृषभ नामों से भी समुल्लेखित किया गया है। ‘भागवतपुराण’ के पाँचवें स्कंध के प्रथम छः अध्यायों में ऋषभदेव के वंश, जीवन और तपश्चर्या का विवरण मिलता है। इनके पिता का नाम नाभिराज और माता का नाम मरुदेवी था। पिता का नाम नाभिराय होने से इन्हें ‘नाभिसूनु’ भी कहा गया है। पिता की मृत्यु के बाद ये सिहांसन पर बैठे। ये आसमुद्रांत सारे भारत (वसुधा) के अधिपति थे- पृथ्वी का अन्य शासक कोई शासक नहीं था। इनके दो पुत्र भरत और बाहुबली थे। दो पुत्रियाँ ब्राह्मी और सुंदरी थीं। कहते हैं कि एक दिन राजसभा में नीलांजना नामक नर्तकी की जब नृत्य करते-करते मृत्यु हो गई, तो ऋषभदेव को संसार से वैराग्य हो गया और पुत्र भरत को राज्य सौंपकर संन्यासी हो गये। भरत इनके राज्य के उत्तराधिकारी तो हुए ही, प्रथम सम्राट भी थे। ‘श्रीमद्भागवत पुराण’ में कहा गया है कि, ‘भगवान ऋषभदेव के अपनी कर्मभूमि अजनाभवर्ष में सौ पुत्र प्राप्त हुए, जिनमें से ज्येष्ठ पुत्र सहयोगी भरत को उन्होंने अपना राज्य दिया। इसी भरत के नाम पर ही संपूर्ण जंबूद्वीप को ‘भारतवर्ष’ कहा जाने लगा। इसके पूर्व अपने इस भारतवर्ष का नाम ऋषभदेव के पिता नाभिराज के नाम पर ‘अजनाभवर्ष’ प्रसिद्ध था।
ऋषभदेव ज्ञान की खोज में निकल पड़े और नग्न रहने लगे। उन्होंने अट्टावाय-कैलाश-पर्वत पर जाकर तपस्या की और कैवल्य प्राप्त किया। कैवल्य-प्राप्ति के बाद वे दक्षिण कर्नाटक और नाना प्रदेशों में भ्रमण किये। भिक्षा माँगकर खाने का प्रचलन इन्हीं से शुरू हुआ माना जाता है। वे कुटकाचल पर्वत के वनों में उन्मत्त के समान नग्न रूप में विचरने लगे। बाँसों की रगड़ से वन में आग लग गई और उन्होंने उसी आग में स्वयं को भस्म कर डाला। भागवतपुराण में कहा गया है कि ऋषभदेव के इस चरित्र को सुनकर कोंक, टोंक, बैंक व कुटक का राजा अर्हन् कलियुग में अपनी इच्छा से उसी धर्म का संवर्धन करेगा…इत्यादि। भागवतपुराण का तात्पर्य जैन पुराणों के इसी ऋषभदेव से है। राजा अर्हन् द्वारा जिस धर्म का प्रवर्तन किया गया, वही धर्म जैन धर्म है।
मोहनजोदड़ो के खंडहरों से प्राप्त ध्यानस्थ नग्न योगी की मूर्ति को योगीश्वर ऋषभ की कायोत्त्सर्ग मुद्रा के रूप में स्वीकार किया गया है। सिंधुघाटी की मूर्तियों में बैल की आकृतियाँ विशेषरूप से मिलती हैं। भगवान ऋषभ का चिह्न भी बैल है।
अनेक इतिहासकारों ने ऋग्वेद के ‘वातरशना’ मुनि को श्रमण परंपरा से तथा वृषभ के उल्लेखों को ऋषभदेव से ही समीकृत किया है। श्रीमद्भागवत के अनुसार वातरशना श्रमणों के धर्म का प्रवर्तन भगवान ऋषभदेव ने किया। अथर्ववेद और गोपथ ब्राह्मण में संकेतित स्वयंभू काश्यप का तादात्म्य ऋषभदेव से किया जाता है। मारकंडेय, कूर्म, अग्नि, वायु आदि पुराणों में तथा बौद्ध-ग्रंथ आर्यमंजुश्रीमूलकल्प भी ऋषभदेव और उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत का उल्लेख है। ऋषभदेव के बाद उनके पुत्र भरत ने जहाँ पिता द्वारा प्रदत्त राजनीति और समाज के विकास तथा व्यवस्थीकरण के लिए प्रयास किया, वहीं उनके दूसरे पुत्र भगवान बाहुबली ने पिता की श्रमण परंपरा को विस्तार दिया।
ऋषभदेव का योगदान
ऋषभदेव ने युगारंभ में प्रजा को आजीविका के लिए कृषि (खेती), मसि (लिखना-पढ़ना, शिक्षण), असि (रक्षा, हेतु तलवार, लाठी आदि चलाना), शिल्प, वाणिज्य (विभिन्न प्रकार का व्यापार करना) और सेवा- इन षट्कर्मों (जीवनवृतियों) के करने की शिक्षा दी थी, इसलिए इन्हें ‘प्रजापति’, माता के गर्भ से आने पर हिरण्य (सुवर्ण रत्नों) की वर्षा होने से ‘हिरण्यगर्भ’, दाहिने पैर के तलुए में बैल का चिह्न होने से ‘ऋषभ’, धर्म का प्रवर्तन करने से ‘वृषभ’, शरीर की अधिक ऊँचाई होने से ‘बृहद्देव’ एवं पुरुदेव, सबसे पहले होने से ‘आदिनाथ’ और सबसे पहले मोक्षमार्ग का उपदेश करने से ‘आदिब्रह्मा’ कहा गया है।
ऋषभदेव की मानव मनोविज्ञान में गहरी रुचि थी। उन्होंने अशिक्षित एवं कलाविहीन मानव-समुदाय को भोजन बनाना, कृषि करना, मिट्टी के पात्र बनाना, चित्र एवं मूर्ति आदि विभिन्न आवश्यक और उपयोगी कलाएँ सिखाई, भाषा का सुव्यवस्थीकरण कर लिखने के उपकरण के साथ संख्याओं का आविष्कार किया तथा सामाजिक सुरक्षा और दंड-संहिता की स्थापना की। उन्होंने लोगों को दान और सेवा का महत्त्व समझाया तथा आत्मरक्षार्थ शरीर को मजबूत करने का गुर सिखाया। वे जब तक राजा थे, उन्होंने गरीब जनता, संन्यासियों और बीमार लोगों का ध्यान रखा। उन्होंने चिकित्सा की खोज में भी लोगों की मदद की और नई-नई विद्याओं की खोज के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया। इस प्रकार भगवान ऋषभदेव ने मानव समाज को सभ्य और संपन्न बनाने में जो योगदान दिया है, उसके महत्त्व को सभी धर्मों के लोगों को समझने की आवश्यकता है।
भगवान ऋषभ मोक्षमार्ग का प्रथम उपदेश देने से आद्य तीर्थंकर (धर्मोपदेष्टा) के रूप में समग्र जैन साहित्य में मान्य हैं। वैदिक धर्म में भी ऋषभदेव को एक अवतार के रूप में माना गया है। इसीलिए ऋषभनाथ जितना जैनियों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं, उतना ही हिंदुओं के लिए भी आदरणीय हैं। गौतम बुद्ध के समान ऋषभदेव को भी विष्णु के अवतारों में से एक अवतार मानना ब्राह्मणेत्तर धर्मों को पचा लेने की प्रक्रिया का परिणाम था। स्पष्ट है कि प्राग्वैदिक परंपरा के प्रभाव से अहिंसा धर्म और अहिंसक यज्ञ की कल्पना भारत में बुद्ध से पहले फैल चुकी थी और उसके मूल प्रवर्तक घोर-आंगिरस और ऋषभदेव थे। जैन परंपरा सर्वसम्मति से एकमतेन ऋषभ को तीर्थंकर अथवा आदि संस्थापक मानती है। इस प्रकार जैन धर्म को कम से कम पूर्ववैदिककालीन अवश्य माना जाना चाहिए।
नमिनाथ
इक्कीसवें तीर्थंकर नमिनाथ मिथिला के राजा थे। हिंदू पुराणों में इन्हें ‘जनक का पूर्वज’ बताया गया है। नमि की प्रव्रज्या का विवरण ‘उत्तराध्ययनसूत्र’ में मिलता है। इनकी माता का नाम विप्रा रानी देवी और पिता का नाम राजा विजय था। संस्कृत और पालि साहित्य में अध्यात्त्म संबंधी निष्काम कर्म एवं अनासक्ति भावना के जो सर्वोत्कृष्ट वचन यत्र-तत्र उद्धरित पाये जाते हैं, वे नमि के ही माने जाते हैं। अनासक्ति की यह परंपरा जनक तक पाई जाती है। शायद इसीलिए जनक का वंश और पूरा प्रदेश ही विदेह कहा गया है।
नेमिनाथ (अरिष्टनेमि)
जैन धर्म के बाईसवें तीर्थंकर महाभारतकालीन नेमिनाथ वासुदेव कृष्ण के चचेरे भाई थे। नेमिनाथ जी का जन्म सौरीपुर, द्वारका में हुआ था। महाभारत के ‘शूरशौरिजिनेश्वर’ को अरिष्टनेमि माना गया है। इनकी माता का नाम शिवा देवी और पिता का नाम राजा समुद्रविजय था। नेमि की माता शिवादेवी ने पुत्र-जन्म के पूर्व स्वप्न में एक नेमि और ‘रिष्ठयुक्त चक्र’ आकाश में उड़ता हुआ देखा था, फलतः नवजात पुत्र का नामकरण ‘अरिष्टनेमि’ किया गया।
नेमिनाथ का विवाह गिरिनगर के राजा उग्रसेन की कन्या राजुलमती से होना निश्चित हुआ था, किंतु जब नेमिनाथ की बारात कन्या के घर पहुँची, तभी विवाह-भोज के लिए एकत्रित असंख्य पशु-पक्षियों के वध की कल्पना-मात्र से भगवान नेमि करुणार्द्र हो गये और शोभा-यात्रा छोड़कर संन्यास लेने को तत्पर हो गये। उन्होंने हिंसामयी ग्रार्हस्थ्य प्रवृत्ति से विरक्त होकर रैवतक (उजर्यंत) पर्वत पर स्थित सहसंभव वन में प्रव्रज्या ग्रहण की। 54 दिन की कठोर तपस्या के बाद नेमिनाथ ने गिरनार पर्वत पर ‘मेषश्रृंग वृक्ष’ के नीचे आसोज अमावस्या को ‘केवलज्ञान’ प्राप्त कर श्रमण परंपरा को पुनर्जीवित किया। 70 वर्ष तक साधक जीवन जीने के बाद भगवान नेमिनाथजी ने एक हजार साधुओं के साथ गिरनार पर्वत पर निर्वाण को प्राप्त किया।
‘विविधतीर्थकल्प’ से ज्ञात होता है कि नेमिनाथ का मथुरा में विशिष्ट स्थान था। भगवान अरिष्टनेमि के प्रभाव से पश्चिमी भारत में जैन धर्म अधिक लोकप्रिय हुआ तथा यादव कुल के बहुसंख्यक क्षत्रियों ने संसार त्याग कर मुक्ति हेतु कठोर तप किये। अहिंसा को धार्मिक प्रवृत्ति का सैद्धांतिक रूप प्रदान करने का श्रेय नेमिनाथ को ही है।
छांदोग्य उपनिषद में ‘देवकीपुत्र कृष्ण’ को ऋषि घोर आंगिरस का अनुयायी वर्णित किया गया है, जिन्होंने कृष्ण को तप, दान, आर्जव, अहिंसा और सत्य-वचन की महिमा समझाई थी। श्रीकृष्ण ने गीता में भी इन्हीं तत्त्वों को धर्म का मूलाधार निरूपित किया है। अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) ने उपदेश देकर कृष्ण को अपना अनुयायी बनाया था, किंतु मात्र इस आधार पर अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) का समीकरण ऋषि आंगिरस से नहीं किया जा सकता है। यद्यपि जैन परंपरा और पौराणिक ब्राह्मण परंपरा में कृष्ण से संबंधित विवरणों में समानता है, किंतु महाभारत युद्ध के नायक श्रीकृष्ण के साथ अरिष्टनेमि की तिथि स्वीकार नहीं की जा सकती है।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ
ईसापूर्व आठवीं सदी में 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए जो संभवतः जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक थे। जैन धर्म में श्रमण संप्रदाय का पहला संगठन पार्श्वनाथ ने ही किया था। एच. जैकोबी जैसे विद्वानों ने जैन परंपरा का बौद्ध स्रोतों से तुलनात्मक अध्ययन करके भगवान पार्श्व की ऐतिहासिकता की स्थापना की है और इन्हें ही जैन धर्म के आदि संस्थापक के रूप में प्रतिष्ठित किया है। डा. काशीप्रसाद जायसवाल का मानना है कि राजा श्रेणिक के पूर्वज काशी से मगध आये थे। काशी में उनका वही राजवंश था जिसमें तीर्थंकर पार्श्व पैदा हुए थे। चार्ल्स शार्पेटियर के अनुसार जैन धर्म निश्चित रूप से महावीर से प्राचीन है और पूर्वगामी पार्श्व निश्चित रूप से इतिहास के एक यथार्थ पात्र रहे हैं।
वस्तुतः जैन धर्म के सुनियोजित स्वरूप का विकास पार्श्वनाथ के निर्देशन में ही प्रारंभ हुआ था। इनका जन्म काशी (वर्तमान बनारस) के इक्ष्वाकुवंशीय काशिराज अश्वसेन की पत्नी वामा (वर्मला) के उदर से हुआ था। काशी के पास ही 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ था।
पार्श्वनाथ का निर्वाण महावीर के जन्म के 250 वर्ष पूर्व हुआ था और इनकी आयु सौ वर्ष थी। इसलिए पार्श्वनाथ का समय ईसापूर्व 877-777 माना जा सकता है। इनका विवाह राजा नरवर्मन् की लड़की प्रभावती से हुआ था। तीस वर्ष की उम्र तक सुख-वैभव का गार्हस्थ-जीवन व्यतीत करने के अनंतर पार्श्वनाथ प्रव्रजित हो गये और सम्मेय पर्वत (आधुनिक पारसनाथ पर्वत) पर जाकर समाधिस्थ हो गये। इनके तपस्यारत जीवन का उल्लेख समंतभद्रकृत ‘स्वयंभूस्त्रोत’ में मिलता है। 83 दिन की कठोर तपस्या के बाद ‘कैवल्यज्ञान’ प्राप्त कर इन्होंने अपनी धर्मदेशना द्वारा त्रसितों और मुमुक्षुओं को सत्य-मार्ग पर आरूढ़ कर कैवल्य और मोक्ष की ओर उन्मुख किया। लगभग सत्तर वर्ष तक अपने उपदेशामृत द्वारा जनकल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हुए पार्श्वनाथ ने सौ वर्ष की आयु में सम्मेदशिखर पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया। बिहार के हजारी बाग जिले में स्थित इस निर्वाण स्थल को आज ‘पार्श्वनाथ गिरि’ के नाम से जाना जाता है।
पार्श्वनाथ की विचारधारा
पार्श्वनाथ की दार्शनिक विचारधारा वैदिक दार्शनिक विचारधारा एवं मंत्रवाद से दूर थी। उन्होंने वैदिक यज्ञ, कर्मकांड, देववाद, वर्णव्यवस्था के प्रति विरोधी दृष्टिकोण अपना कर अपने को युग-युग से उपेक्षित बहुसंख्यक वर्ग का समर्थन प्राप्त करने योग्य सिद्ध किया। पार्श्वनाथ की धर्मदेशना के संबंध में परवर्ती जैनग्रंथों से पता चलता है कि इन्हें मानवमात्र की समानता में विश्वास था और वे वर्णभेद को अस्वीकार करते थे। वैदिक साहित्य में प्रतिपादित नारी के हीन अस्तित्व को अस्वीकार करने वाले पार्श्वनाथ प्रथम महान मनीषी थे। उन्होंने अपने चतुर्विध-संघ में साध्वी अथवा श्राविका के रूप में नारी को स्थान देकर उन्हें भी धर्ममार्ग पर चलने और मुक्ति की ओर उन्मुख होने का अवसर प्रदान किया। अहिंसा को पार्श्वनाथ ने अपने धर्म का आधार घोषित किया और कैवल्य-प्राप्ति द्वारा मुक्ति प्राप्त करने का आधार कठोर तप को माना। सांसारिक बंधन और तृष्णा से विरक्त रहने वाले इनके अनुयायियों को निर्ग्रंथ कहा गया। जैनग्रंथों में इन्हें पुरिषादानीय, धर्म, तीर्थंकर, तथा जिन् आदि की उपाधियों से अलंकृत किया गया है।
जैन परंपरा महावीर स्वामी के माता-पिता को ‘पार्श्वपत्यीय’ (पार्श्वनाथ की परंपरा से संबंध रखने वाले) श्रावक मानती है। जैन-आगमों में पार्श्वसंतानीय निर्ग्रंथ श्रमण केशीकुमार का अपने शिष्य-समुदाय के साथ महावीर के संघ में प्रवेश होने का उल्लेख है जिसमें उसके साथ महावीर के गणधर गौतम के साथ विस्तृत वार्तालाप का विवरण भी है। महावीर के समय में जैनेतर स्रोतों से भी पार्श्वनाथ के चातुर्याम् धर्म के अनुयायियों का ज्ञान होता है। बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में निर्ग्रंथों के धर्म को चातुर्याम् धर्म के नाम से संबोधित किया गया है जो कि जैन परंपरा के अनुरूप है। ‘बुद्ध से कोई ढाई सौ वर्ष पूर्व हम जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ को अहिंसा का उपदेश सुनाते पाते हैं। इस प्रकार पार्श्वनाथ से पूर्व अहिंसा केवल तपस्वियों के आचरण में सम्मिलित थी, किंतु पार्श्वमुनि ने उसे सत्य, अस्तेय, और अपरिग्रह के साथ बाँधकर सर्वसाधारण की व्यवहारिक कोटि में डाल दिया।
पार्श्वनाथ ने अपने अनुयायियों हेतु चार यमों- सर्व-प्रणातिपात-विरमण, सर्व-मृषावाद-विरमण, सर्व-अदत्तादान-विरमण, सर्व-बहिद्धादान-विरमण अर्थात् हिंसा से विरति, असत्य से विरति, अचौर्य से विरति और परिग्रह से विरति- को अनिवार्य घोषित किया, जो जैन धर्म का प्रमुख आधार बना। इसीलिए इनके धर्म को चतुर्याम् धर्म भी कहते हैं। ऋषभनाथ की सर्वस्व-त्याग रूप अकिंचन मुनि-वृत्ति, नमि की निरीहता व नेमिनाथ की अहिंसा को उन्होंने अपने चतुर्याम् रूप सामयिक धर्म में व्यवस्थित किया। हीरालाल जैन के अनुसार पार्श्वनाथ के चातुर्याम का रूप महावीर के सामयिक धर्म से पूर्व ही प्रचलित था। इस मत की पुष्टि दिगम्बर-श्वेताम्बर परंपरा के अतिरिक्त बौद्ध धर्म के सामयिक उल्लेखों से भी होती है। एच. जैकोबी का विचार है कि बौद्ध ‘सामञ्जफलसुत्त’ में महावीर द्वारा प्रचारित सिद्धांतों के विवरण को पार्श्वनाथ के अनुयायियों से ही संबंधित माना जाना चाहिए।
कतिपय इतिहासकार मानते हैं कि पार्श्वनाथ ही महावीर के दार्शनिक पूर्वाचार्य थे। पार्श्वनाथ संप्रदाय को ‘चाउज्जाम’ तथा वर्द्धमान के संप्रदाय को ‘पंचसिक्खिय’ कहा गया है। पार्श्वनाथ का धर्म ‘संतरोत्तर’ था, महावीर का ‘अचेलक’ धर्म है। पार्श्वनाथ के व्यवहारिक और नैतिक यम-नियमों को महावीर के अतिरिक्त बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध तथा आजीवक आचार्य मख्खलिपुत्र गोशाल ने भी अपने अनुयायियों हेतु अपनाया था।
धर्मानन्द कोसाम्बी एवं पं. सुखलाल संघवी की धारणा है कि बुद्ध कुछ समय के लिए पार्श्वनाथ की परंपरा में रहे थे जिसका समर्थन राधाकुमुद मुकर्जी ने भी किया है। बुद्ध द्वारा जैन धर्म की तपविधि के अभ्यास की पुष्टि श्रीमती रीज डेविड्स ने भी की है। बौद्ध ग्रन्थों की कुछ व्यवस्थाएँ- ‘उपोसथ’ और ‘वर्षावास’- जो निर्ग्रंथों से ली गई हैं, पार्श्व परंपरा की ही होनी चाहिए तथा पालि-ग्रंथों में बुद्ध को जिन श्रमण साधुओं का समकालीन बताया गया है वे भी पार्श्व परंपरा के ही माने जा सकते हैं।
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