क्रीमिया का युद्ध (War of Crimea 1853–1856 AD)

क्रीमिया का युद्ध (1853-1856 ई.)

दक्षिण-पूर्वी यूरोप के बाल्कन प्रायद्वीप की भौगोलिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से अपनी अलग पहचान है। पंद्रहवीं सदी के प्रारंभ से लेकर सोलहवीं सदी के अंत तक पूर्वी यूरोपीय राज्यों पर आटोमन तुर्कों के निरंतर आक्रमणों एवं साम्राज्य-विस्तार के फलस्वरूप यूरोपीय राज्यों की राजनीतिक सुरक्षा, प्रभुता, प्रादेशिक अखंडता, सामुद्रिक व व्यापारिक हितों को बड़ा खतरा उत्पन्न हुआ। तुर्की साम्राज्य के असहिष्णु शासन और जातीय शत्रुता के कारण बाल्कन प्रायद्वीप के ईसाइयों और यहूदियों का शोषण होता रहता था।

अठारहवीं सदी के मध्याह्न में राष्ट्रीय भावनाओं के प्रसार के कारण बाल्कन प्रायद्वीप के ईसाइयों ने रूस के संरक्षण में तुर्की प्रभुसत्ता के विरूद्ध स्वतंत्रता आंदोलन किये, जिससे बाल्कन प्रायद्वीप के अधिकांश ईसाई राज्य तुर्की से स्वतंत्र होने लगे और तुर्की साम्राज्य का विघटन होने लगा। तुर्की साम्राज्य से सबसे पहले स्वतंत्र होनेवाला राज्य सर्बिया था, जिसने रूस के सहयोग से 1829 ई. में स्वतंतत्रा प्राप्त की। सर्बिया का अनुकरण करते हुए यूनान, रूमानिया, बल्गारिया तथा स्लोवाकिया आदि ने स्वतंत्र होने के लिए विद्रोह किया। 1789 ई. की फ्रांसीसी क्रांति ने समस्त यूरोपीय राष्ट्रों को राष्ट्रीय भावना से प्रेरित किया, जिससे इन राज्यों में स्वतंत्र होने के लिए होनेवाले संघर्ष में समस्त यूरोप दो भागों में बँट गया- रूस के नेतृत्व में एक गुट इन राज्यों की स्वतंत्रता का समर्थक था और तुर्की पर अधिकार करना चाहता था जबकि इंग्लैंड, फ्रांस और आस्ट्रिया का दूसरा गुट अपने स्वार्थ के कारण तुर्की साम्राज्य को विघटन से बचाना चाहता था। इस प्रकार बाल्कन प्रायद्वीप में अपने-अपने राष्ट्रीय हितों एवं स्वार्थों की पूर्ति के लिए यूरोपीय राष्ट्रों में लाभ उठाने के लिए होनेवाली पारस्परिक प्रतिस्पर्धा को ही ‘पूर्वी प्रश्न’ कहा जाता है।

क्रीमिया का युद्ध के कारण

क्रीमिया का युद्ध (जुलाई, 1853-मार्च, 1856 ई.) तक काला सागर के आसपास लड़ा गया था, जिसमें तुर्की के साथ फ्रांस, ब्रिटेन और आस्ट्रिया एक तरफ थे और दूसरी ओर महत्वाकांक्षी रूस था। क्रीमिया का युद्ध एक ‘मूर्खतापूर्ण तथा अनिर्णायक युद्ध’ माना जाता है क्योंकि क्रीमिया के युद्ध की शुरूआत रूस ने तुर्की के विरूद्ध यरूशलम स्थित बेतलहम के चर्च की चाभियों को लेकर की थी और अपने-अपने स्वार्थ और महत्वाकांक्षा के कारण इंग्लैड, फ्रांस, सार्डीनिया (इटली) इसमें शामिल हुए थे।

क्रीमिया का युद्ध 1853-1856 ई. (War of Crimea 1853–1856 AD)
क्रीमिया का युद्ध
रूस का स्वार्थ

रूस पीटर के समय से ही साम्राज्यवादी नीति का समर्थक था। रूस यूरोप के बीमार तुर्की साम्राज्य का अंत करके अपना साम्राज्य-विस्तार करना चाहता था और रूस की इसी महत्वाकांक्षा से यूरोप में शक्ति-संतुलन की समस्या पैदा हुई। तुर्की साम्राज्य के बालकन क्षेत्र में स्लाव जाति निवास करती थी और समान जाति, भाषा और धर्म के कारण रूस का जार उनसे सहानुभूति रखता था। जार तुर्की शासन के अत्याचारों से स्लाव जाति की रक्षा करने के बहाने काला सागर और भमूध्यसागर पर अधिकार करना चाहता था। जार निकोलस की दृष्टि पहले से ही तुर्की साम्राज्य पर लगी हुई थी। जार को पूरा विश्वास था कि ‘बीमार तुर्की’ साम्राज्य किसी-न-किसी दिन अपनी मौत मरेगा ही, इसलिए क्यों न ऐसा होने के पूर्व ही उसके भाग्य का फैसला कर लिया जाए।

निकोलस ने तुर्की के विभाजन की एक योजना बनाई और उसमें इंग्लैंड को शामिल करने के लिए 1844 ई. में स्वयं इंग्लैंड गया, किंतु जब इंग्लैंड ने निकोलस की योजना को अस्वीकार कर दिया, तो क्षुब्ध जार निकोलस ने तलवार के बल पर तुर्की को हड़पने के लिए तुर्की पर आक्रमण कर दिया। महारानी विक्टोरिया ने क्रीमिया युद्ध का एक कारण एक व्यक्ति (जार निकोलस) और उसके सेवकों की स्वार्थपरता तथा महत्वाकांक्षा को बताया था।

फ्रांस की महत्वाकांक्षा

1848 ई. में नेपोलियन तृतीय फ्रांस के गणतंत्र का अंत करके सम्राट बना था। नेपोलियन पूर्वी समस्या में भाग लेकर अपनी धाक जमाना चाहता था ताकि वह अपने को अपने चाचा बोनापार्ट का असली वारिस सिद्ध कर सके। फ्रांस को तुर्की साम्राज्य में व्यापार करने की विशेष सुविधाएं मिली थीं। नेपोलियन तुर्की के द्वारा मिस्र और सीरिया से भी अपने व्यापारिक संबंध स्थापित करना चाहता था।

क्रीमिया का युद्ध 1853-1856 ई. (War of Crimea 1853–1856 AD)
नेपोलियन तृतीय

इसके अलावा, फ्रांस तुर्की साम्राज्य में निवास करनेवाले रोमन कैथोलिकों का दीर्घकाल से संरक्षक था। रूस का तुर्की साम्राज्य पर अधिकार होने का अर्थ होता फ्रांस की व्यापारिक सुविधाओं और रोमन कैथोलिकों पर उसके संरक्षण का अंत और फ्रांस इसके लिए कतई तैयार नहीं था। इसके साथ ही रूस के सम्राट जार निकोलस प्रथम और फ्रांस के नेपोलियन तृतीय पारस्परिक द्वेष, प्रतिस्पर्धा और महत्वाकांक्षा ने पूर्वी समस्या को जटिल बना दिया। जार निकोलस नेपोलियन को फ्रांस का असली शासक नहीं मानता था और उसे ‘मेरे प्रियमित्र’ कहकर संबोधित करता था। फलतः फ्रांस ने निश्चय किया कि वह तुर्की साम्राज्य पर रूस का अधिकार नहीं होने देगा।

इंग्लैंड के व्यापारिक स्वार्थ

इंग्लैंड यूरोप का पहला देश था जहाँ सबसे पहले औद्योगिक क्रांति हुई थी। इंग्लैंड को अपने उद्योगों के लिए कच्चे माल की और तैयार माल की खपत के लिए बाजार की जरूरत थी। इंग्लैंड की जरूरतें बहुत हद तक उसके उपनिवेशों के द्वारा पूरी हो जाती थी और वह ‘शानदार पृथकता की नीति’ अख्तियार किये हुए था। किंतु 18वीं सदी के उत्तरार्ध में इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विलियम पिट ने ‘पूर्वी समस्या’ के महत्त्व को समझते हुए उस ओर ध्यान दिया क्योंकि रूस का धीरे-धीरे निकटपूर्व में अपने प्रभाव-क्षेत्र का बढ़ाना पिट को अच्छा नहीं लग रहा था। पिट ने निकट-पूर्व की समस्या संसद के समक्ष रखी और रूस के बढ़ते प्रभाव को कम करने में बहुत हद तक सफल रहा।

यद्यपि इंग्लैंड, फ्रांस और रूस दोनों को खतरा समझाता था क्योंकि दोनों तुर्की साम्राज्य पर अधिकार करना चाहते थे, किंतु रूस द्वारा तुर्की के विभाजन की संभावना से इंग्लैंड चैकन्ना हो गया था क्योंकि भूमध्य सागर में रूस का प्रवेश इंग्लैड के लिए संकट पैदा कर सकता था, साथ ही साथ तुर्की पर रूस का अधिकार होने से इंग्लैंड का भारतीय उपनिवेश भी खतरे में पड़ सकता था। इंग्लैंड ने फ्रांस से मित्रता कर ली और निश्चय किया कि वह रूस को पूर्व की ओर बढ़ने से रोकने के लिए तुर्की साम्राज्य की रक्षा करेगा और उस पर रूस का प्रभुत्व स्थापित नहीं होने देगा।

आस्ट्रिया की आशंका

आस्ट्रिया को भी बाल्कन की ओर रूसी विस्तार से घबड़ाहट हुई। बाल्कन प्रदेश की भाँति आस्ट्रिया के साम्राज्य में भी स्लाव जाति रहती थी। बाल्कन के स्लाव स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरित होकर आस्ट्रियन साम्राज्य के स्लाव भी स्वतंत्रता संग्राम प्रारभ कर सकते थे। यद्यपि 1849 ई. में आस्ट्रिया के राजा को अपना पैतृक सिंहासन रूसी सैनिकों के कारण ही मिला था, किंतु स्लाव स्वतंत्रता आंदोलन की संभावना को रोकने हेतु आस्ट्रिया का झुकाव फ्रांस और इंग्लैंड की ओर होने लगा था।

सार्डीनिया (इटली) के काउंट कावूर ने भी आस्ट्रिया के अत्याचारों को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उठाने के लिए उचित अवसर देखकर क्रीमिया के युद्ध में मित्र राष्ट्रों की ओर से भाग लिया।

तात्कालिक कारण

क्रीमिया युद्ध का तात्कालिक कारण ‘बेतलहम के पवित्र चर्च की चाभियाँथीं। ईसाइयों का पवित्र स्थान यरुशलम तुर्की साम्राज्य के अधीन था। यरुशलम में बेतलहम का चर्च ईसामसीह के जन्म लेने के स्थान पर बना हुआ था। इस चर्च का प्रयोग यूनानी पादरी और रोमन कैथोलिक दोनों करते थे।

1740 ई. की एक संधि के अनुसार फ्रांस रोमन कैथोलिकों का संरक्षक था और फ्रांस के प्रभाव के कारण चर्च के मुख्यद्वार की चाभी भी रोमन कैथालिकों को मिल गई थी। यूनानी पादरियों को चर्च के बगल के एक छोटे द्वार की चाभी मिली थी, जिससे वे चर्च में प्रवेष कर सकते थे। फ्रांस की क्रांति से लाभ उठाकर यूनानी पादरियों ने बगल के छोटे दरवाजे की चाभी रोमन कैथोलिकों को दे दी और मुख्यद्वार की चाभी स्वयं ले ली। जब नेपोलियन तृतीय फ्रांस का सम्राट बना, तब उसने पोप और रोमन कैथोलिकों को प्रसन्न करने के लिए 1850 ई. में पवित्र-स्थानों पर अपने संरक्षण की माँग की, ताकि रोमन कैथोलिकों को चर्च के मुख्यद्वार की चाभी फिर मिल जाये।

यूनानी पादरियों का समर्थक होने के कारण जार निकोलस ने फ्रांस की माँग का विरोध किया और तुर्की से माँग की कि पवित्र-स्थानों पर उसका संरक्षण स्वीकार करे। किंतु तुर्की के सुल्तान पर अंग्रेजी राजदूत स्टेटफोर्ड का इतना अधिक प्रभाव था कि उसने निकोलस की माँग अनसुनी कर दी। रूस की माँग का इंग्लैंड, स्पेन, आस्ट्रिया और अन्य रोमन कैथोलिक देशों ने भी विरोध किया। जब 1852 ई. में नेपोलियन ने रोमन कैथोलिकों के संरक्षण की पुनः माँग पुनः की, तो कुछ आनाकानी के बाद तुर्की के सुल्तान ने फ्रांस की माँग को स्वीकार कर लिया।

यद्यपि तुर्की की इस स्वीकृति से रूस को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए थी, लेकिन निकोलस को लगा कि तुर्की को हड़पने का यह अच्छा बहाना है और उसने तुर्की के विरूद्ध युद्ध प्रारंभ कर दिया। दरअसल, जार तुर्की साम्राज्य के खंडहर पर एक विशाल रूसी साम्राज्य का महल खड़ा करना चाहता था। उसने तुर्की के सुल्तान द्वारा यूनानी ईसाइयों पर अपना संरक्षण अस्वीकार किये जाने पर जुलाई, 1853 ई. में डेन्यूब नदी के उत्तरवर्ती तुर्की के भूभाग-मालडेविया और वेलेशिया के प्रांतों पर अधिकार कर लिया।

क्रीमिया के युद्ध का आरंभ (23 अक्टूबर, 1853 ई.)

4 अक्टूबर, 1853 ई. को तुर्की के सुल्तान ने रूस से अपने प्रदेशों मालडेविया और वेलेशिया को खाली करने की माँग की। रूस द्वारा इस माँग के अस्वीकार किये जाने पर तुर्की ने भी 23 अक्टूबर, 1853 ई. को उसके विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

क्रीमिया के युद्ध की घटनाओं को दो चरणों में बाँटा जा सकता है- प्रथम चरण 23 अक्टूबर, 1853 से 28 मार्च, 1854 ई. तक माना जा सकता है जब युद्ध में केवल रूस और तुर्की थे। दूसरे चरण को 1854 ई. से 1856 ई. तक माना जा सकता है जब युद्ध में इंग्लैंड, फ्रांस, आस्ट्रिया और सार्डीनिया भी शामिल हो गये।

क्रीमिया का युद्ध 1853-1856 ई. (War of Crimea 1853–1856 AD)
क्रीमिया का युद्ध

प्रथम चरण

23 अक्टूबर, 1853 से 28 मार्च, 1854 ई. तक केवल तुर्की और रूस में युद्ध हुआ। युद्ध की घोषणा के बाद तुर्की ने डेन्यूब नदी के तट पर रूसी सेनाओं पर आक्रमण किया।

30 नवंबर, 1853 ई. को तुर्की का एक जहाजी बेड़ा बातूम की ओर जा रहा था तो रूस के एक जहाजी बेड़े ने ‘सिनप’ नामक स्थान पर तुर्की के सभी सैनिकों का संहार कर दिया। इस समय इंग्लैंड और फ्रांस का सम्मिलित बेड़ा कुस्तुनतुनिया में था। दोनों देशों में सिनीप में की गई तुर्कियों की सामूहिक हत्या से बड़ा रोष फैला।

सिनप की घटना से आस्ट्रिया युद्ध की घोषणा के लिए विवश हो गया। तुर्की की सहायता के लिए जनवरी, 1854 ई. के आंरभ में इंग्लैंड और फ्रांस का संयुक्त नौ-सैनिक बेड़ा कालासागर में पहुँच गया और कुस्तुन्तुनिया की रक्षा के लिये ‘गैलीपोली‘ में किलेबंदी करने का फैसला किया। 27 फरवरी, 1854 को फ्रांस और इंग्लैंड ने रूस को चेतावनी दी कि रूस तुर्की के प्रदेश खाली कर दे। 28 मार्च, 1854 को फ्रांस और इंग्लैंड ने रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

किंतु इसके पहले कि फ्रांस और इंग्लैंड की सेनाएं कालासागर के पश्चिमी तट पर एकत्र होतीं, रूस ने तुर्की के अधिकृत प्रदेशों- मालडेविया और बेलेशिया से अपनी सेना को वापस बुला ली और इस प्रकार युद्ध समाप्त हो गया।

द्वितीय चरण

यद्यपि रूस ने मालडेविया एवं वेलेशिया खाली कर दिया और युद्ध का कारण समाप्त हो गया था, किंतु मित्र राष्ट्रों को बिना युद्ध किये अपनी सेना को वापस ले जाना मंजूर नहीं था। मित्र राष्ट्र रूस के सैनिक अड्डे सिबास्टपोल पर अधिकार करना चाहते थे। ब्रिटिश सेना लार्ड रेगलन और फ्रांसीसी सेना मार्शल सेंट एरेनाड के नेतत्व में 14 सितंबर, 1854 को क्रीमिया पहुँच गई, किंतु दोनों देशों को क्रीमिया के संबंध में कोई जानकारी नहीं थी।

17 सितंबर को मित्र राष्ट्रों ने सिबास्टपोल की ओर बढ़ना शुरू किया। 20 सितंबर को रूसी सेना ‘आल्मा के युद्ध’ में मित्र राष्ट्रों का सामना किया जिसमें रूसी सेना पीछे हट गई। रूसी सेनापति टाडेलबेन ने सिबास्टपोल के दुर्ग में घुसकर दुर्ग की रक्षा का प्रयास किया। मित्र राष्ट्रों की सेना 11 महीने तक दुर्ग का घेरा डाले रही। सिबास्टपोल के घेरे में अंग्रेजी सेना को बहुत कष्ट सहना पड़ा। रूसी मित्र बर्फ के कारण हजारों ब्रिटिश सैनिक ठंड से मारे गये। यातायात, खाद्यान्न की कमी और अस्त्र-शस्त्र की अव्यवस्था के कारण इंग्लैंड के तत्कालीन एबर्डीन मत्रिमंडल को त्यागपत्र देना पड़ा और पामर्सटन प्रधानमंत्री बने।‘

‘लेडी विद दि लैम्प’ के नाम से प्रसिद्ध ‘फ्लोरेंस नाइटिंगेल’ ने महिला स्वयंसेविकाओं के साथ मित्र राष्ट्रों के सैनिकों की सेवासुश्रुषा की व्यवस्था की, जिससे ‘रेडक्रास’ की नींव पड़ी।

जार निकोलस की मृत्यु और 1855 ई. में मित्र राष्ट्रों का सिबास्टपोल पर अधिकार हो जाने के कारण रूस बिल्कुल निःशक्त हो गया और उसने युद्ध जारी रखना व्यर्थ समझा।

नेपोलियन तृतीय भी युद्ध करने के पक्ष में नहीं था और रूस से अकेले लड़ना इंग्लैंड के वश की बात नहीं थी। फलतः मार्च, 1856 में ‘पेरिस के संधि’ के द्वारा युद्ध समाप्त हो गया।

क्रीमिया का युद्ध 1853-1856 ई. (War of Crimea 1853–1856 AD)
‘लेडी विद लैम्प’ फ्लोरेंस नाइटिंगेल
पेरिस की संधि  (30 मार्च, 1856 ई.)

30 मार्च, 1856 ई. को इंग्लैंड, फ्रांस, आस्ट्रिया, तुर्की, सर्बिया, सार्डीनिया तथा रूस के प्रतिनिधियों ने ‘पेरिस संधि’ पर हस्ताक्षर किये। ‘पेरिस की संधि’ में अन्य बातों के अलावा मुख्य बात यह थी कि डेन्यूब नदी को सभी देशों के जहाजों के लिए खोल दिया गया। रूस को सिबास्टपोल के दुर्ग का पुनःनिर्माण करने से रोक दिया गया, कालासागर को तटस्थ क्षेत्र घोषित कर दिया गया और किसी भी देश के युद्धपोत के लिए निषिद्ध कर दिया गया। रूस को कालासागर से अपने युद्धपोत हटाने पड़े, किंतु पंद्रह वर्ष के भीतर ही यह संधि निरर्थक हो गई।

क्रीमिया युद्ध के परिणाम

क्रीमिया युद्ध का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि रूस का कुस्तुन्तुनिया पर अधिकार करने और काला सागर को रूसी झील बनाने का सपना भंग हो गया।

क्रीमिया युद्ध के फलस्वरुप एक ओर जहाँ रूस की तुर्की को हड़पने की योजना विफल हो गई, वहीं दूसरी ओर तुर्की को नवजीवन मिल गया।

क्रीमिया युद्ध के पश्चात् सर्बिया को स्वतंत्रता मिल गई, जो अन्य पराधीन देशों के लिए प्रेरणा स्रोत साबित हुआ।

क्रीमिया युद्ध का एक महत्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि इंग्लैंड और फ्रांस में मित्रता स्थापित हो गई। इंग्लैंड को धन-जन की अपार क्षति हुई। नेपोलियन ने फ्रांस की पराजय का बदला रूस से ले लिया। आस्ट्रिया के द्वारा तटस्थता की नीति से रूस तो नाराज था ही, इंग्लैंड और फ्रांस भी नाराज हो गये और आस्ट्रिया मित्रविहीन हो गया।

इटली के दूरदर्शी काउंट कावूर ने मित्र राष्ट्रों की ओर से क्रीमिया में सेना भेजकर और पेरिस संधि में शामिल होकर इटली की समस्या को अंतर्राष्ट्रीय बना दिया, इसलिए कहा जाता है कि ‘क्रीमिया के कीचड़ से ही इटली का जन्म हुआ था।’

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