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संयुक्त राष्ट्र संघ
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना 24 अक्टूबर, 1945 ई. को की गई थी, जिसका प्रमुख उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा बनाये रखना, मानवाधिकारों की रक्षा करना, मानवीय सहायता पहुँचाना, आर्थिक एवं सामाजिक विकास को सतत बढ़ावा देना और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का भली-भाँति कार्यान्वयन करना है। इस विश्व निकाय के संस्थापक सदस्य देशों की संख्या 51 थी, यद्यपि 26 जून, 1945 ई. को घोषणापत्र पर केवल 50 राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किये थे, किंतु बाद में हस्ताक्षर करके पोलैंड 51वाँ संस्थापक सदस्य देश बन गया। वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र संघ (यूनाइटेड नेशन ऑर्गेनाइजेशन) के सदस्य देशों की संख्या 193 है। 193वाँ देश दक्षिणी सूडान है, जिसको 11 जुलाई, 2011 ई. को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता मिली है। आज संयुक्त राष्ट्र संघ (यू.एन.ओ.) को संयुक्त राष्ट्र (यू.एन.) के नाम से जाना जाता है क्योंकि ‘संघ’ शब्द को हटा लिया गया है।
प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद पेरिस शांति सम्मेलन में विश्व के प्रमुख देशों ने अंतर्राष्ट्रीय शांति और व्यवस्था की स्थापना के लिए राष्ट्र संघ (लीग ऑफ नेशन्स) की स्थापना की थी। किंतु राष्ट्र संघ शांति-स्थापना के अपने मुख्य उद्देश्य को पूरा करने असफल रहा और उसकी स्थापना के बीस वर्षों में ही द्वितीय विश्व युद्ध आरंभ हो गया, जो प्रथम विश्व युद्ध से अधिक भयंकर और विनाशकारी था। यद्यपि राष्ट्र संघ के गठन के समय से ही अनुभव किया जाने लगा था कि बाद में पुनः युद्ध छिड़ सकता है, किंतु यह अनुमान नहीं था कि इतनी जल्दी विश्व को महायुद्ध की आग में जलना पड़ेगा।
द्वितीय महायुद्ध की विभीषिका से विश्व के राजनीतिज्ञ घबड़ा उठे और पुनः एक ऐसे नये अंतर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना पर विचार करने लगे, जो विश्व-शांति तथा सुरक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को अधिक समतापूर्ण और न्यायोचित बनाने में केंद्रीय भूमिका निभा सके। राष्ट्र संघ अपनी असफलताओं से इतना अस्तित्वहीन और बदनाम हो चुका था कि पुनः इस प्रकार के अंतर्राष्ट्रीय संघ के प्रति विश्व के देशों में विश्वास उत्पन्न करना कठिन था। फिर भी, विश्व के महत्त्वपूर्ण देशों के राष्ट्राध्यक्ष युद्ध के दौरान एक नई अंतर्राष्ट्रीय संस्था के गठन के गंभीर प्रयास प्रारंभ कर दिये थे, जिसके परिणामस्वरूप 24 अक्टूबर, 1945 ई. को संयुक्त राष्ट्र संघ (यूनाइटेड नेशन्स ऑर्गनाइजेशन) अस्तित्व में आया।
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के आरंभिक प्रयत्न
द्वितीय महायुद्ध के दौरान जून, 1941 ई. से ही मित्रराष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्ष एक अंतर्राष्ट्रीय विश्व निकाय के गठन पर विचार करने लगे थे। इस क्रम में विश्व के राजनीतिज्ञों ने अनेक बार विभिन्न स्थानों पर एकत्रित होकर विचार-विमर्श किये, जिसके परिणामस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना संभव हो सकी।
लंदन घोषणा (14 जुलाई, 1941 ई.)
द्वितीय महायुद्ध के दौरान मित्रराष्ट्रों ने जुलाई, 1941 ई. में लंदन में पहली बार अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और शांति की घोषणा की थी। इसलिए लंदन घोषणा को संयुक्त राष्ट्र संघ का बीजारोपण माना जाता है।
अटलांटिक चार्टर (14 अगस्त, 1941 ई.)
अमेरिका ने द्वितीय महायुद्ध में सम्मिलित होने से पूर्व भाषण, धर्म, अभाव एवं भय से स्वतंत्रता की घोषणा की और फिर इंग्लैंड की सहायता की। इसके तुरंत बाद 9 अगस्त, 1941 ई. को अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट और इंग्लैंड के प्रधानमंत्री चर्चिल ने न्यूफाउंडलैंड के समीप अटलांटिक सागर में जंगी जहाजों पर युद्ध के उद्देश्यों तथा युद्धोत्तर व्यवस्था पर 12 अगस्त तक विचार-विमर्श किया। दोनों राष्ट्राध्यक्षों ने 14 अगस्त, 1941 ई. को ‘प्रिंस ऑफ़ वेल्स’ युद्धपोत से कुछ सामान्य सिद्धांतों की एक संयुक्त विज्ञप्ति जारी की, जिसे ‘अटलांटिक चार्टर’ के नाम से जाना जाता है।
अटलांटिक चार्टर में कहा गया था कि ब्रिटेन और अमेरिका प्रादेशिक या अन्य किसी भी विस्तार के लिए नहीं, बल्कि विश्व की स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे हैं। युद्ध के बाद मित्रराष्ट्र ऐसी शांति की व्यवस्था करेंगे, जिसके द्वारा सभी राष्ट्र अपनी सीमाओं को सुरक्षित रख सकेंगे और सभी देशों के निवासी भय और गरीबी से मुक्त होकर अपना जीवन व्यतीत कर सकेंगे।
इस प्रकार अटलांटिक चार्टर ने एक ऐसे विश्व की आशा को अभिव्यक्त किया, जहाँ सभी लोग भयमुक्त वातावरण में रह सकें और निजीकरण एवं आर्थिक सहयोग के मार्ग की खोज कर सकें। यही कारण है कि अटलांटिक चार्टर को संयुक्त राष्ट्र संघ के जन्म का सूचक माना जाता है।
संयुक्त राष्ट्रों की घोषणा (1 जनवरी, 1942 ई.)
अटलांटिक चार्टर का समर्थन करने वाले 26 देशों ने 1 जनवरी, 1942 ई. को वाशिंगटन में एक घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किये। इस घोषणापत्र में जर्मनी और उसके सहयोगी राष्ट्रों को पराजित करने पर बल देते हुए अटलांटिक चार्टर को स्वीकार किया गया। इसी घोषणापत्र में राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने भावी विश्व निकाय के लिए पहली बार ‘संयुक्त राष्ट्र’ शब्द का प्रयोग किया था, जिसके कारण लैंगसम यहीं से संयुक्त राष्ट्र संघ का शुभारंभ मानते हैं।
मास्को सम्मेलन (30 अक्टूबर, 1943 ई.)
वाशिंगटन में अटलांटिक चार्टर की पुष्टि हो जाने के बाद 30 अक्टूबर, 1943 ई. को अमेरिका, चीन और रूस के विदेशमंत्रियों ने सोवियत रूस की राजधानी मास्को में एक बैठक की। नवंबर, 1943 ई. में ‘मास्को घोषणापत्र’ पर हस्ताक्षर कर मित्रराष्ट्रों ने संकल्प लिया कि जब तक शत्रु बिना शर्त आत्मसमर्पण नहीं कर देता, हम युद्ध जारी रखेंगे। मास्को घोषणापत्र में विदेशमंत्रियों ने युद्ध के बाद शांति बनाये रखने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन के विचार का अनुमोदन किया था।
काहिरा सम्मेलन (22 नवंबर, 1943 ई.)
मास्को के बाद रूजवेल्ट, चर्चिल एवं च्यांग काई शेक ने 22 नवंबर, 1943 ई. को मिस्र की राजधानी काहिरा में एक बैठक की और जापान को पराजित करने की योजना पर विचार किया। इस बैठक में चीन को आश्वस्त किया गया कि 1914 ई. के बाद जापान ने चीन के जिन क्षेत्रों को हड़प लिया है, उन्हें वापस दिलाया जायेगा।
तेहरान सम्मेलन (दिसंबर, 1943 ई.)
काहिरा सम्मेलन के तुरंत बाद ही रूजवेल्ट, चर्चिल और स्टालिन तेहरान में मिले और विश्व संगठन की स्थापना हेतु विभिन्न योजनाओं पर गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श किये। बैठक के बाद दिसंबर, 1943 ई. में संयुक्त रूप से घोषणा की गई कि भावी अंतर्राष्ट्रीय संगठन में विश्व के छोटे-बड़े सभी राष्ट्रों की भागीदारी होगी और आशा की गई कि वह अंतर्राष्ट्रीय शांति स्थापित करने में सफल होगा।
डम्बर्टन ऑक्स सम्मेलन (अगस्त-अक्टूबर, 1944 ई.)
विश्व के चार बड़े राष्ट्रों- इंग्लैंड, रूस, चीन और अमेरिका के प्रतिनिधियों ने 1944 ई. के उत्तरार्द्ध में वाशिंगटन के डम्बर्टन ऑक्स नामक भवन में 21 अगस्त से 7 अक्टूबर, 1944 ई. तक भावी अंतर्राष्ट्रीय संगठन के प्रारंभिक प्रस्तावों की रूपरेखा तैयार की, जिसे ‘डम्बर्टन एक्सेस प्रस्ताव’ कहा जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्तावित ढाँचे को 7 अक्टूबर, 1944 ई. को प्रकाशित किया गया। यद्यपि इस सम्मेलन में प्रतिनिधियों के बीच मतभेद के कारण अंतिम निर्णय नहीं लिया जा सका, किंतु संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर बहुत कुछ इसी सम्मेलन में तय हुआ था।
याल्टा सम्मेलन (फरवरी, 1945 ई.)
डम्बर्टन ऑक्स सम्मेलन की आपत्तियों के निराकरण के लिए 4 फरवरी से 11 फरवरी, 1945 ई. के बीच क्रीमिया के याल्टा में राष्ट्रों का एक सम्मेलन हुआ, जिसमें ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल, सोवियत राष्ट्रपति स्टालिन और अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट सहित कई देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में सुरक्षा परिषद में मतदान प्रणाली पर विचार किया गया और निर्णय लिया गया कि सुरक्षा परिषद के ग्यारह सदस्यों में पाँच सदस्य- अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस तथा चीन स्थायी होंगे और महत्त्वपूर्ण विषयों पर इनका एकमत होना अनिवार्य होगा। इस प्रकार निषेधाधिकार (वीटो पॉवर) का निर्णय इसी सम्मेलन में लिया गया था। इस सम्मेलन में यह भी घोषणा की गई कि अंतर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना के लिए 25 अप्रैल, 1945 ई. में सैन फ्रांसिस्को में एक सम्मेलन आयोजित किया जायेगा।
सैन फ्रांसिस्को सम्मेलन (अप्रैल-जून, 1945 ई.)
याल्टा सम्मेलन में लिये गये निर्णय के अनुरूप संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर को अंतिम रूप देने के लिए अप्रैल-जून, 1945 ई. में सैन फ्रांसिस्को में सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसमें 50 देशों के 850 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में व्यापक वाद-विवाद के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर (घोषणापत्र) को अंतिम रूप दिया गया। इस सम्मेलन में ब्रिटेन का प्रतिनिधित्व चर्चिल की जगह एटली ने किया, क्योंकि इंग्लैंड के आम चुनावों में चर्चिल की पराजय के बाद एटली प्रधानमंत्री बन गये थे। रूजवेल्ट की मृत्य हो जाने के कारण अमेरिका का नेतृत्त्व ट्रूमैन ने किया था।
इस प्रकार सैन फ्रांसिस्को सम्मेलन में 26 जून, 1945 ई. को 50 देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर (घोषणापत्र) पर हस्ताक्षर किया और संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की। कुछ समय बाद पोलैंड चार्टर पर हस्ताक्षर करके 51वाँ संस्थापक सदस्य देश बन गया। सैन फ्रांसिस्को सम्मेलन को ‘सभी सम्मेलनों की समाप्ति करने वाला सम्मेलन’ माना जाता है क्योंकि वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई थी और वह अंतिम सम्मेलन था।
सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्यों- अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, रूस और चीन के साथ विश्व के सभी बड़े राष्ट्रों ने 24 अक्टूबर, 1945 ई. को संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा-पत्र को स्वीकार कर लिया और संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर लागू हो गया। 24 अक्टूबर को ही ‘संयुक्त राष्ट्र संघ दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। यह दिवस पहली बार 1948 ई. में मनाया गया था। 1971 ई. में संयुक्त राष्ट्र ने इसे सार्वजनिक अवकाश के रूप में मनाने की घोषणा की।
संयुक्त राष्ट्र चार्टर अपनाये जाने के बाद 10 जनवरी, 1946 ई. को लंदन के वेस्टमिनिस्टर सेंट्रल हॉल में साधारण सभा के पहले अधिवेशन के साथ ही इस विश्व निकाय का उद्घाटन हुआ, किंतु साधारण सभा का पहला अधिवेशन अक्टूबर, 1952 ई. में हुआ था। संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्यालय संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यूयॉर्क में है। इस विश्व संस्था का प्रधान महासचिव होता है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में एक प्रस्तावना, 19 अध्याय, 111 धाराएँ और लगभग 10 हजार शब्द हैं। इसकी कार्यकारी भाषाएँ अंग्रेजी और फ्रांसीसी हैं, जबकि अधिकृत भाषाएँ 6 हैं- अंग्रेजी, फ्रांसीसी, चीनी, रूसी, अरबी और स्पेनिश। आरंभ में केवल चार भाषाएँ अधिकृत थीं, अरबी और स्पेनिश को 1973 ई. में सम्मिलित किया गया है। यद्यपि संघ की आधिकारिक भाषाओं में हिंदी सम्मिलित नहीं है, किंतु भारत के अटल बिहारी बाजपेयी संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में भाषण देने वाले पहले व्यक्ति थे।
संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्य और सिद्धांत
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर की प्रस्तावना और अनुच्छेद (1) में इसके उद्देश्य बताये गये हैं, जबकि चार्टर की दूसरी धारा में इसके सिद्धांतों का उल्लेख है।
उद्देश्य: संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
- विश्व में स्थायी शांति एवं सुरक्षा स्थापित करना और शांति भंग करने वाली आक्रामक कार्यवाहियों को सामूहिक प्रयास से रोकने के उपाय करना।
- समान अधिकार तथा आत्म-निर्णय के सिद्धांत के आधार पर विश्व के सभी राष्ट्रों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों का विकास करना और विश्व-शांति को सुदृढ़ बनाने के उपाय करना।
- विश्व को सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं मानवीय समस्याओं के समाधान के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना और मानवाधिकार तथा मौलिक स्वतंत्रता के प्रति सम्मान की भावना का विकास करना।
- संयुक्त राष्ट्र संघ को विवादों को निष्पक्षता से सुलझाने वाला संघ सिद्ध करना, ताकि विश्व के राष्ट्र इसके प्रति श्रद्धा और सम्मान रखें।
इस प्रकार जहाँ राष्ट्र संघ (लीग ऑफ नेशन्स) की प्रसंविदा में राजनीतिक उद्देश्यों को प्रमुखता दी गई थी, वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ घोषणापत्र के मूल उद्देश्यों में मानव-कल्याण के कार्यों को प्रमुखता दी गई है।
सिद्धांत: संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं-
- संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी सदस्य राष्ट्रों की सार्वभौमिकता और समानता अक्षुण्ण है।
- सभी सदस्य राष्ट्र संयुक्त राष्ट्र संघ के नियमों का पालन करेंगे।
- पारंपरिक झगड़ों का निपटारा सभी सदस्य राष्ट्र शांतिमय उपायों से करेंगे।
- कोई भी सदस्य राष्ट्र किसी राष्ट्र की प्रादेशिक अखंडता और राजनीतिक स्वतंत्रता के विरुद्ध कोई ऐसा कार्य नहीं करेगा, जिससे उस राष्ट्र और संयुक्त राष्ट्र संघ का अपमान हो।
- संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य राष्ट्रों के अतिरिक्त अन्य राष्ट्र भी संघ के सिद्धांतों का पालन करें।
- संयुक्त राष्ट्र संघ किसी भी राष्ट्र के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
- किसी राष्ट्र के विरुद्ध कार्यवाही के समय सभी सदस्य राष्ट्र संयुक्त राष्ट्र संघ के सिद्धांतों के अनुरूप संघ की पूरी सहायता करेंगे।
संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता
संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र के अनुच्छेद 3 से 6 में सदस्यता का विस्तृत उल्लेख किया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र के दायित्वों को स्वीकार करने वाला कोई भी शांतिप्रिय देश इस विश्व संस्था का सदस्य बन सकता है। प्रथम प्रकार के सदस्यों को प्रारंभिक सदस्य कहा जाता है। इसमें ऐसे सदस्य राष्ट्र सम्मिलित हैं, जिन्होंने सैन फ्रांसिस्को सम्मेलन में भाग लिया था या संयुक्त राष्ट्र संघ के विधान को स्वीकार कर धारा 110 के अनुसार उस पर हस्ताक्षर किया था। इस प्रकार के सदस्य राष्ट्रों की संख्या 51 थी। दूसरे निर्वाचित सदस्य हैं, जो संघ के उद्देश्यों एवं सिद्धांतों को स्वीकार करते हुए एक प्रार्थना-पत्र देकर सुरक्षा परिषद की संस्तुति पर साधारण सभा की स्वीकृति से संघ के सदस्य बने हैं।
घोषणापत्र में सदस्य देशों की सदस्यता को निलंबित करने की भी व्यवस्था है। यदि कोई सदस्य संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के सिद्धांतों का अतिक्रमण या उल्लंघन करता है, तो संघ सुरक्षा परिषद की संस्तुति और साधारण सभा की स्वीकृति से उस राष्ट्र की सदस्यता को निलंबित कर सकता है। बाद में उपयुक्त समझे जाने पर पुनः उसकी सदस्यता लौटाई जा सकती है, किंतु इसके लिए भी सुरक्षा परिषद की अनुशंसा और साधारण सभा की स्वीकृति आवश्यक है। राष्ट्र संघ (लीग ऑफ नेशन्स) के विपरीत, संयुक्त राष्ट्र संघ चार्टर में किसी सदस्य देश द्वारा सदस्यता त्याग की कोई व्यवस्था नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के अंग
संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र की 7वीं धारा में उसके छः अंगों का उल्लेख है- साधारण सभा, सुरक्षा परिषद, आर्थिक एवं सामाजिक परिषद, प्रन्यास परिषद, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय और सचिवालय।
साधारण सभा (जनरल असेम्बली)
साधारण सभा संयुक्त राष्ट्र संघ की केंद्रीय सभा है, जिसे संघ की व्यवस्थापिका कहा जाता है।
साधारण सभा का संगठन: संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी सदस्य राष्ट्र साधारण सभा के सदस्य होते हैं। इस समय साधारण सभा में 193 सदस्य राष्ट्रों का प्रतिनिधित्व है। साधारण सभा का अधिवेशन वर्ष में एक बार सितंबर माह के तीसरे मंगलवार से आरंभ होकर दिसंबर के मध्य तक चलता है। इसमें एक सदस्य राष्ट्र के पाँच प्रतिनिधि भाग ले सकते हैं, किंतु मतदान केवल एक ही सदस्य कर सकता है। विशेष परिस्थितियों में साधारण सभा सुरक्षा परिषद या संघ के आधे से अधिक सदस्यों की सिफारिश पर असाधारण अधिवेशन बुला सकती है।
साधारण सभा अपने प्रत्येक वार्षिक अधिवेशन की शुरुआत पर एक नये सभापति (अध्यक्ष) और साधारण सभा के सात मुख्य समितियों के उपाध्यक्षों (उपसभापतियों) का चुनाव करती है। सभा की कार्यवाही दो तिहाई मत से स्वीकृत होती है।
साधारण सभा के प्रथम अधिवेशन का सभापतित्व पाल हेनरी स्पार्क ने किया था। 8वें अधिवेशन के लिए भारतीय प्रतिनिधि विजयलक्ष्मी पंडित निर्वाचित हुई थीं। वर्ष 2021-22 में 76वें सत्र के लिए मालदीव के विदेश मंत्री अब्दुल्ला शाहिद को संयुक्त राष्ट्र साधारण सभा का अध्यक्ष चुना गया था।
साधारण सभा के कार्य एवं शक्तियाँ: साधारण सभा के कार्यों और उसकी शक्तियों का उल्लेख घोषणापत्र की धारा 10 से 17 तक में किया गया है। चार्टर के अनुच्छेद 13 के अनुसार राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक और स्वास्थ्य संबंधी क्षेत्रों में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने के लिए साधारण सभा प्रारंभिक अध्ययन द्वारा जाँच-पड़ताल की व्यवस्था करती है और उस विषय में अपनी सिफारिशें भी प्रस्तुत करती है। यही सभा आर्थिक एवं सामाजिक समिति के सदस्यों का निर्वाचन और उनके कार्यों को स्वीकृत भी करती है। साधारण सभा सुरक्षा परिषद की संस्तुति पर नये सदस्यों को राष्ट्रसंघ में सम्मिलित होने की स्वीकृति देती है और सुरक्षा परिषद् की संस्तुति से अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करती है। सुरक्षा परिषद के 10 अस्थायी सदस्यों का निर्वाचन भी यही सभा करती है। यह सरंक्षण परिषद के सदस्यों का निर्वाचन और उसके कार्यों का निरीक्षण कर सकती है। साधारण सभा को सुरक्षा परिषद तथा संघ के अन्य विभागों की वार्षिक रिपोर्ट प्राप्त करने और उन पर विचार करने का अधिकार है। संयुक्त राष्ट्र संघ का बजट स्वीकार करने का अधिकार भी इसी सभा को है। साधारण सभा पुराने सदस्यों के नियम-भंग करने पर सुरक्षा परिषद की सिफारिश पर सभा की कार्यवाही में भाग लेने से रोक सकती है या उन्हें संघ से निष्कासित कर सकती है।
यद्यपि शांति और सुरक्षा स्थापित करने का कार्य सुरक्षा परिषद का है, किंतु साधारण सभा भी इस संबंध में सीमित कार्यवाही कर सकती है। किंतु यदि विषय सुरक्षा परिषद के विचाराधीन है, तो वह इस विषय में कुछ नहीं कर सकती। 1950 ई. में शांति और सुरक्षा प्रस्ताव के पारित हो जाने के बाद साधारण सभा को यह अधिकार मिल गया है कि यदि सुरक्षा परिषद अपने सदस्यों के एकमत न होने पर अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा स्थापित करने में असफल रहती है, तो साधारण सभा उस विषय पर तुरंत विचार कर सकती है। यही नहीं, यदि सुरक्षा परिषद किसी समस्या का समाधान नहीं कर पा रही है, तो साधारण सभा सामूहिक कदम उठाने का अनुरोध कर सकती है। कोरिया के प्रश्न पर रूसी हस्तक्षेप के विरुद्ध साधारण सभा ने इस अधिकार का प्रयोग किया था।
इस प्रकार साधारण सभा संयुक्त राष्ट्र संघ का एक ऐसा अंग है, जिसकी परिधि से राष्ट्र संघ का कोई भी उद्देश्य बाहर नहीं है। केसलर के अनुसार, ‘शायद ही कोई ऐसा अंतर्राष्ट्रीय विषय हो जिस पर यह सभा विचार या सिफारिश न कर सकती हो।’ सीनेटर ने इस साधारण सभा को ‘संसार की नगर सभा’ (टाउन और मीटिंग ऑफ द वर्ल्ड) कहा है। कुछ विद्वान इसे विश्व का ‘उन्मुक्त अंतःकरण’ या ‘विश्व का लघु संसद’ भी कहते हैं।
साधारण सभा के कार्यों के संचालन के लिए विभिन्न समितियाँ होती हैं। इस समय साधारण सभा का कार्य सात मुख्य समितियों में विभाजित है, जिनमें प्रत्येक सदस्य राष्ट्र अपना एक प्रतिनिधि भेज सकता है। सात मुख्य समितियाँ हैं- राजनीतिक और सुरक्षा समिति (पॉलिटिकल एंड सेक्यूरिटी कमेटी), आर्थिक और वित्तीय समिति (इकोनॉमिक एंड फाइनेंशियल कमेटी), सामाजिक, मानवीय एवं सांस्कृतिक समिति (सोशल, ह्यूमनीटैरियन एंड कल्चरल कमेटी), न्यास समिति (ट्रस्टीशिप कमेटी), प्रशासनिक एवं बजट समिति (एडमिनिस्ट्रेटिव एंड बजटरी कमेटी), वैधानिक समिति (लीगल कमेटी) और विशेष राजनीतिक समिति (स्पेशल पॉलिटिकल कमेटी)।
इसके अलावा, दो और प्रक्रियात्मक (प्रोसीड्यूरल) समितियाँ होती हैं- सामान्य समिति और प्रमाणपत्र समिति। साधारण सभा अथवा उसकी अन्य समितियाँ विशेष उद्देश्यों के लिए विशेष समितियाँ भी नियुक्त कर सकती है।
सुरक्षा-परिषद (सेक्युरिटी कौंसिल)
संयुक्त राष्ट्र संघ का सर्वाधिक शक्तिशाली और महत्त्वपूर्ण अंग सुरक्षा परिषद है, जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यपालिका भी कहा जाता है। इसके संगठन, मतदान-पद्धति, कार्यों और अधिकारों का उल्लेख संघ के घोषणापत्र के पाँचवें अध्याय की धारा 23 से 32 में है।
सुरक्षा परिषद का संगठन: सुरक्षा परिषद में कुल 15 सदस्य होते हैं- 5 स्थायी और 10 अस्थायी। इसके स्थायी सदस्य देश चीन, फ्रांस, ब्रिटेन, सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका हैं। चार्टर की मूल व्यवस्था के अनुसार पहले सुरक्षा परिषद में केवल 11 सदस्य थे- 5 स्थायी और 6 अस्थायी, किंतु 1965 ई. में संघ के चार्टर में संशोधन करके सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 15 कर दी गई। स्थायी सदस्य देशों के अलावा 10 अस्थायी सदस्यों को साधारण सभा के दो तिहाई सदस्यों द्वारा दो वर्ष के लिए चुना जाता है, किंतु इन अस्थायी सदस्यों का चुनाव करते समय प्रादेशिक प्रतिनिधित्व का घ्यान रखा जाता है।
सुरक्षा परिषद को अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की स्थापना करने के लिए अविलंब कार्यवाही करना होता है। इसलिए संघ की 21वीं धारा के अनुसार इसके स्थायी सदस्यों के प्रतिनिधियों को न्यूयॉर्क में सदैव उपस्थित रहना पड़ता है, जो एक माह में दो बार बैठक करते हैं क्योंकि दो बैठकों के बीच 14 दिन से अधिक का अंतराल नहीं होना चाहिए। सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष का चुनाव एक माह के लिए परिषद के सदस्यों द्वारा अंग्रेजी वर्णमाला के अनुसार बारी-बारी से किया जाता है, जो सुरक्षा परिषद की बैठकों की अध्यक्षता करता है। इस प्रकार सुरक्षा-परिषद का अध्यक्ष प्रतिमाह बदलता रहता है।
मतदान और वीटो का अधिकार: सुरक्षा परिषद किसी भी मामले में निर्णय सदस्यों का मतदान कराकर लेती है। सुरक्षा परिषद का प्रत्येक सदस्य एक वोट दे सकता है। किसी भी मामले में निर्णय के लिए कम-से-कम नौ मत आवश्यक हैं। इन नौ मतों में पाँच स्थायी सदस्यों के मत अनिवार्य हैं। यदि स्थायी सदस्यों में से कोई भी सदस्य निर्णय से असहमति व्यक्त करता है या प्रस्ताव के विरोध में मतदान करता है, तो प्रस्ताव स्वीकृत नहीं होता है। इसको सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों का निषेधाधिकार (वीटो पॉवर) कहा जाता है। सुरक्षा परिषद किसी समस्या पर विचार करने के लिए किसी ऐसे राज्य को भी आमंत्रित कर सकती है, जो संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य न हो, किंतु ऐसे आमंत्रित सदस्यों को मत देने का अधिकार नहीं होता है।
निषेधाधिकार (वीटो पॉवर): संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र की धारा 27 में सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों- रूस, अमेरिका, ब्रिटेन, चीन और फ्रांस को निषेधाधिकार (वीटो पॉवर) की शक्ति दी गई है। इसका प्रयोग कर सुरक्षा परिषद का कोई भी स्थायी सदस्य किसी भी महत्त्वपूर्ण मामले के निर्णय को रद्द कर सकता है। यद्यपि स्थायी सदस्यों के निषेधाधिकार (वीटो पॉवर) से अकसर सुरक्षा परिषद के कार्यों की प्रगति में बाधा उत्पन्न होती है, किंतु निषेधाधिकार का होना भी आवश्यक है, क्योंकि कश्मीर के प्रश्न पर रूस ने निषेधाधिकार (वीटो पॉवर) का ही प्रयोग कर अमेरिका की इच्छा को पूर्ण होने से रोका था। रूस ने ही 1964 ई. में सीरिया और इजरायल के प्रश्न पर वीटो का प्रयोग किया था।
सुरक्षा परिषद के कार्य: संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र की धारा 24 के अनुसार सुरक्षा परिषद का मुख्य कार्य अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाये रखना है। इसके लिए संघ के सभी सदस्य सुरक्षा परिषद के निर्णय को मानने के लिए बाध्य हैं। सुरक्षा परिषद अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा के संबंध में लिये गये अपने निर्णयों को क्रियान्वित करती है, शांति और सुरक्षा भंग होने की आशंका पर विवादों की जाँचकर उसकी रिपोर्ट साधारण सभा में प्रस्तुत करती है और नये राष्ट्रों की संघ की सदस्यता के लिए सिफारिश करती है।
अंतर्राष्ट्रीय शांति की स्थापना के लिए सुरक्षा परिषद मुख्यतः चार उपायों का प्रयोग करती है। पहले यह परिषद प्रतिपक्षियों को आपसी समझौते से समस्या का समाधान करने का सुझाव देती है। समझौते के असफल होने पर परिषद मध्यस्थता या न्यायालय द्वारा समस्या के समाधान की सलाह देती है। इस प्रयास के असफल हो जाने पर परिषद आक्रमणकारी राष्ट्र के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबंध की सलाह दे सकती है और इन सभी उपायों के असफल हो जाने पर परिषद आक्रांता देश के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही कर सकती है। विश्व निशस्त्रीकरण आयोग सुरक्षा परिषद के ही अधीन है, जिसकी स्थापना 11 जनवरी, 1952 ई. को की गई थी।
इस प्रकार सुरक्षा परिषद संयुक्त राष्ट्र संघ का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। चूंकि अंतराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाये रखना सुरक्षा परिषद की मुख्य जिम्मेदारी है, इसलिए इसे ‘विश्व का सिपाही’ भी कहा जाता है। ई.पी. चेज ने सुरक्षा परिषद को ‘संयुक्त राष्ट्र संघ का हृदय’ बताया है। चेज के अनुसार संकट का समय हो या शांति का, संघ के दूसरे अंग कार्य कर रहे हों या न कर रहे हों, वर्ष का कोई भी समय हो……सुरक्षा परिषद अपना कार्य करती रहती है।
आर्थिक एवं सामाजिक परिषद (इकोनॉमिक एंड सोशल कौंसिल या इकोसोक)
परिषद का संगठन: आर्थिक एवं सामाजिक परिषद (इकोसोक) संयुक्त राष्ट्र संघ का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग है, जो विश्व के लोगों में शांति और मैत्रीपूर्ण व्यवहार स्थापित करने का कार्य करती है। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर की धारा 61 के अनुसार आरंभ में इस परिषद में साधारण सभा द्वारा निर्वाचित 18 सदस्य थे, किंतु पहले अगस्त 1965 ई. में चार्टर में संशोधन द्वारा इस परिषद के सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 27 की गई और इसके बाद 1973 ई. में पुनः एक संशोधन के बाद परिषद के सदस्यों की संख्या 54 कर दी गई है।
आर्थिक एवं सामाजिक परिषद (इकोसोक) एक स्थायी संस्था है, किंतु इसके एक तिहाई सदस्य प्रति तीन वर्ष के बाद परिषद के कार्य से मुक्त हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में, इसके एक तिहाई सदस्य प्रतिवर्ष 3 वर्ष के लिए चुने जाते हैं। किंतु अवकाश ग्रहण करने वाला सदस्य पुनः निर्वाचित हो सकता है।
परिषद (इकोसोक) अपने अध्यक्ष का चुनाव स्वयं करती है, जिसमें छोटे-बड़े राष्ट्रों का भेदभाव नहीं होता है और बहुमत के आधार पर निर्णय लिये जाते हैं। इसकी बैठक वर्ष में दो बार- अप्रैल में न्यूयॉर्क में और जुलाई में जिनेवा होती है, किंतु आवश्यकतानुसार विशेष परिस्थिति में भी इसकी बैठकों का आयोजन किया जा सकता है।
परिषद के उद्देश्य और कार्य: आर्थिक और सामाजिक परिषद (इकोसोक) का उद्देश्य मानव अधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए इनके उन्नयन और प्रसार के लिए कार्य करना है। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए परिषद के अधीन विभिन्न आयोगों, विशिष्ट अभिकरणों और समितियों की स्थापना की गई है।
परिषद द्वारा गठित आयोगों के दो रूप है- कार्यात्मक और प्रादेशिक। कार्यात्मक आयोग के रूप में परिषद ने आर्थिक और व्यावसायिक आयोग, परिवहन और संचार आयोग, मानव अधिकार आयोग, सांख्यिकी आयोग, जनसंख्या एवं विकास आयोग, सामाजिक विकास आयोग, महिला उत्थान आयोग, मादक द्रव्य आयोग, अपराध नियंत्रण और अपराध न्याय आयोग आदि का गठन किया है। प्रादेशिक आयोगों के अंतर्गत यूरोप और एशिया तथा सुदूरपूर्व के लिए आर्थिक आयोग गठित किये गये हैं।
आयोगों के अतिरिक्त, परिषद के अंतर्गत अनेक अनेक विशिष्ट अभिकरण और समितियाँ हैं जो सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और मानव कल्याण के कार्यों में संलग्न हैं, जैसे- अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, खाद्य एवं कृषि संगठन, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व स्वास्थ्य संगठन, संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संघ, अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण तथा विकास बैंक, विश्व डाक संघ, अंतर्राष्ट्रीय तार संचार संघ, अंतर्राष्ट्रीय शरणार्थी संघ, अंतर्राष्ट्रीय नागरिक उड्डयन संघ आदि। परिषद की मुख्य स्थायी समितियों में प्राविधिक सहायता समिति, अंतर्राष्ट्रीय संस्था से संपर्क करने वाली समिति, गैर-सरकारी संगठनों या संस्थाओं से संबंधित परामर्श समिति, कार्य-सूची समिति और अंतरिम कार्यक्रम समिति प्रमुख हैं।
यह परिषद (इकोसोक) साधारण सभा के अंतर्गत कार्य करती है, किंतु इसका कार्य केवल सिफारिश करना है। वास्तव में, आर्थिक व सामाजिक परिषद (इकोसोक) कोई नीति निर्धारित करने वाली संस्था नहीं है, बल्कि एक विशिष्ट समिति के समान है और इसका उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक एवं सामाजिक सहयोग के क्षेत्र में व्यावहारिक कार्य करना है। यही कारण है कि कुछ इतिहासकार इस परिषद को ‘बातूनी सुरक्षा परिषद की मौन बहन’ मानते है।
प्रन्यास परिषद (ट्रस्टीशिप कौंसिल)
संयुक्त राष्ट्र संघ ने पिछड़े क्षेत्रों अथवा राष्ट्रों के उन्नयन के लिए राष्ट्रसंघ के संरक्षण व्यवस्था (मैंडेट सिस्टम) के स्थान पर प्रन्यास व्यवस्था को अपनाया है। इस अंतर्राष्ट्रीय प्रन्यास व्यवस्था का विवरण संयुक्त राष्ट्र संघ घोषणापत्र के अध्याय 12 के अनुच्छेद 75 से 85 में मिलता है। प्रन्यास व्यवस्था का तात्पर्य है कि उन्नत और विकसित राष्ट्र अव्यवस्थित और अविकसित प्रदेशों का शासन अपने धरोहर के रूप में करें, जिससे वहाँ की जनता में जागृति उत्पन हो और उनका जीवन-स्तर ऊँचा उठाया जा सके।
अध्याय 13 के अनुच्छेद 86 से 91 तक प्रन्यास परिषद का विवरण दिया गया है। यह परिषद उन प्रदेशों के शासन-प्रबंध के लिए उत्तरदायी है, जो राष्ट्रसंघ के शासनाधीन रहे हों और केंद्रीय शक्तियों द्वारा अपहृत किये गये हों तथा सुरक्षा परिषद की अधीनता में स्वेच्छा से आये हों।
प्रन्यास परिषद का वर्ष में दो बार अधिवेशन होता है और प्रत्येक अधिवेशन में परिषद के सभापति का निर्वाचन होता है। इसकी मतदान-व्यवस्था के संबंध में चार्टर की धारा 9 में लिखा है कि प्रन्यास परिषद के प्रत्येक सदस्य का एक मत होगा और निर्णय परिषद में उपस्थित तथा मत देने वाले सदस्यों के बहुमत के आधार पर किया जायेगा।
चार्टर की 76वीं धारा के अंतर्गत प्रन्यास परिषद के उद्देश्य भी निर्धारित किये गये है। अंतर्राष्ट्रीय शांति तथा सुरक्षा को बढ़ावा देना, प्रन्यास क्षेत्रों के निवासियों में जाति, धर्म, भाषा तथा लिंग का भेदभाव किये बिना मानव-अधिकारों और उनकी मूल स्वतंत्रताओं के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना प्रन्यास परिषद का मूल उद्देश्य है।
प्रन्यास परिषद अपने संरक्षित क्षेत्रों के निवासियों की सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षणिक अवस्था की रिपोर्ट साधारण सभा के समक्ष प्रस्तुत करती है। यह परिषद संरक्षित क्षेत्रों का निरीक्षण कर पता करती है कि संरक्षक राष्ट्र प्रन्यास पद्धति से शासन कर रहे हैं या नहीं। वह संरक्षक राष्ट्र से वार्षिक रिपोर्ट माँगती है और संरक्षण क्षेत्रों के निवासियों की शिकायतें सुनकर उनका निराकरण करती है।
राष्ट्रसंघ की संरक्षण व्यवस्था के अंतर्गत इस परिषद के कार्यक्षेत्र में केवल जर्मनी और तुर्की के उपनिवेश ही आये थे, किंतु संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रन्यास व्यवस्था के अंतर्गत समस्त परतंत्र देश भी इसके कार्य-क्षेत्र में आ गये। प्रन्यास परिषद के गंभीर प्रयासों के फलस्वरूप नवंबर 1994 ई. में अमेरिका द्वारा प्रशासित प्रशांत दीप के स्वतंत्र होने के साथ सभी प्रन्यास भूभाग स्वाधीन कर दिये गये हैं और प्रन्यास परिषद के कार्य लगभग समाप्त हो गये हैं। इस प्रकार प्रन्यास व्यवस्था का यह विकास विश्व में राजनीतिक नैतिकता का ऊँचा मापदंड है।
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (इंटरनेशनल कोर्ट)
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय संयुक्त राष्ट्रसंघ का महत्त्वपूर्ण न्यायिक अंग है। चार्टर के अध्याय 14 में धारा 92 से 96 तक इसके संगठन एवं क्षेत्राधिकार का उल्लेख किया गया है। अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की आधिकारिक भाषाएँ फ्रांसीसी और अंग्रेजी हैं।
संगठन: संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र के अधीन अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को हेग (हॉलैंड) के शांति महल (पीस पैलेस) में 3 अप्रैल, 1946 ई. को स्थापित किया गया, किंतु इसका उद्घाटन अधिवेशन 18 अप्रैल, 1946 ई. को हुआ था। इस न्यायालय में 15 न्यायाधीश होते हैं, जिनका चुनाव सुरक्षा परिषद तथा साधारण सभा द्वारा संयुक्त रूप से 9 वर्ष के लिए किया जाता है और इन्हें फिर से भी चुना जा सकता हैं। इस न्यायालय के न्यायाधीशों को किसी राजनीतिक और शासन-संबंधी या किसी दूसरे व्यवसाय में भाग लेने का अधिकार नहीं है। हर तीन साल के बाद पाँच न्यायाधीश सेवानिवृत्त होते हैं, किंतु एक राज्य से दो न्यायाधीश एक साथ नहीं हो सकते हैं।
न्यायाधीश अपने में से ही एक अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष का तीन वर्ष के लिए चुनाव करते हैं। न्यायालय की कार्यवाही के लिए नौ न्यायाधीशों का उपस्थित होना आवश्यक होता है। किंतु जिस देश के विवाद के विषय में न्यायालय विचार कर रहा हो, उस देश का न्यायाधीश उस मामले में भाग नहीं ले सकता है। किसी विशेष विवाद के उपस्थित होने पर न्यायालय अस्थायी न्यायाधीशों की नियुक्ति कर सकता है, जो अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में विवाद रहने तक अपने पद पर बने रहते हैं। न्यायालय अपने अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और अन्य अधिकारियों का चुनाव स्वयं करता है और केवल न्यायालय ही किसी न्यायाधीश को पदच्युत् कर सकता है।
क्षेत्राधिकार: हेग स्थित अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय से न्याय प्राप्त करने के अधिकारी देशों को क्षेत्राधिकार की दृष्टि से तीन भागों में विभक्त किया गया है- ऐच्छिक क्षेत्राधिकार, अनिवार्य क्षेत्राधिकार और परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार। ऐच्छिक क्षेत्राधिकार के अधीन न्यायालय अपनी संविधि की धारा 36 के अनुसार उन सभी मामलों पर विचार कर सकता है, जिनको संबंधित राज्य न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें राज्य ही न्यायालय के विचारणीय पक्ष होते हैं, व्यक्ति नहीं।
अनिवार्य क्षेत्राधिकार को वैकल्पिक क्षेत्राधिकार भी कहा जाता है। इसके अधीन संविधि पर हस्ताक्षर करने वाला कोई भी राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय सुविधाओं के प्रयोग करने की शक्ति स्वयं प्राप्त कर लेता है। किंतु इसके लिए दोनों पक्षों की स्वीकृति अनिवार्य है। किसी भी राष्ट्र की इच्छा के विरुद्ध न्यायालय में कोई अभियोग नहीं लगाया जा सकता।
परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार के अंतर्गत अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय साधारण सभा, सुरक्षा परिषद और अन्य मान्यता प्राप्त संस्थाओं द्वारा सौंपे गये प्रश्नों पर परामर्श देने का कार्य करता है। किंतु अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय सिफारिश के रूप में न होकर अंतिम निर्णय के रूप में होते हैं और दोनों ही पक्षों को उसका निर्णय मानना पड़ता है। इसके अलावा, यह न्यायालय संयुक्त राष्ट्र संघ के नेतृत्व में कृषि करते समय मारे जाने वाले या अपंग किये जाने वाले व्यक्तियों को हर्जाना देने की राशि का निर्णय भी करता है। इस अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की सहयता ऐसे देश भी ले सकते हैं, जो संयुक्त राष्ट्र के सदस्य नहीं हैं।
सचिवालय (सेक्रेटेरिएट)
सचिवालय संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रशासनिक अंग है। इसका विस्तृत विवरण संयुक्त राष्ट्र संघ घोषणापत्र के 15वें अध्याय में अनुच्छेद 97 से 101 तक दिया गया है। चार्टर के अनुच्छेद 97 के अनुसार सचिवालय का एक महासचिव होता है, जिसकी नियुक्ति सुरक्षा परिषद के अनुमोदन पर साधारण सभा और अन्य तीन परिषदें 5 वर्षों के लिए करती हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रथम महासचिव नार्वे के ट्रिग्वेली थे और वर्तमान महासचिव पुर्तगाल के एंटोनियो गुटेरेस हैं।
महासचिव के कार्य: महासचिव संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रमुख प्रशासकीय अधिकारी होता है। वह साधारण सभा, सुरक्षा परिषद, आर्थिक तथा सामाजिक परिषद, प्रन्यास परिषद आदि विभागों की बैठकों की व्यवस्था करता है, स्वयं उनकी बैठकों में भाग लेता है और इनके कार्यों की समीक्षा करके अपनी रिपोर्ट तैयार करता है। वह साधारण सभा द्वारा निर्देशित नियमों के तहत वार्षिक बजट तैयार कर उसे साधारण सभा में प्रस्तुत करता है, साधारण सभा के नियमों के अनुरूप सचिवालय के कर्मचारियों की नियुक्ति करता है और संघ के वर्षपर्यंत किये गये कार्यों की वार्षिक रिपोर्ट साधारण सभा में प्रस्तुत करता है।
यद्यपि महासचिव एक प्रशासनिक अधिकारी होता है, किंतु अपने पद का लाभ उठाते हुए वह राजनीतिक कार्य भी संपन्न करता है और कभी-कभी अशक्त राष्ट्रों का भ्रमण भी करता है। यदि महासचिव को लगता है कि अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ तनावपूर्ण हैं और विश्व की शांति खतरे में है, तो वह तुरंत इसकी सूचना साधारण सभा को देता है। सचिवालय के कार्यों के सुचारू संचालन के लिए बहुत से अधिकारी तथा कर्मचारी हैं, जो प्रायः संघ के सभी सदस्य देशों से लिये जाते हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्य
संयुक्त राष्ट्र संघ अपनी स्थापना से लेकर आज तक विश्व-शांति की स्थापना के लिए अंतर्राष्ट्रीय विवादों को हल करने और मानव जाति के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उन्नयन के कार्यों में संलग्न है। इस दौरान संयुक्त राष्ट्र संघ को अनेक कठिनाइयों व समस्याओं का सामना करना पड़ा है। अपने उद्देश्यों में इस विश्व निकाय को सफलता एवं असफलता दोनों मिली है। इसने अनेक ऐसे अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक विवादों का समाधान किया है, जिनसे शांति-भंग की आशंका थी, किंतु कुछ विवादों में निषेधाधिकार (वीटो पॉवर) के कारण बाधाएँ आईं और गतिरोध बना हुआ है। इस प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्यों को मुख्यतया दो भागों में बाँटा जा सकता है- राजनीतिक कार्य और मानव कल्याण के कार्य।
राजनीतिक कार्य
राजनीतिक कार्यों के अंतर्गत संयुक्त राष्ट्र संघ ने विभिन्न देशों के विवादों को सुलझाने की दिशा में कार्य किया है-
ईरान की समस्या
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के कुछ ही दिनों बाद 1 जनवरी, 1946 ई. को ईरान ने संयुक्त राष्ट्र संघ में शिकायत की कि सोवियत संघ उसके अजरबैजान प्रांत में विद्रोह भड़का रहा है और तेल-संबंधी सुविधाओं के लिए उस पर दबाव डाल रहा है। यही नहीं, वह ईरान से अपनी सैनिक टुकड़ियाँ भी वापस नहीं हटा रहा है।
सोवियत संघ ने संयुक्त राष्ट्र संघ में ईरान के प्रस्ताव पर विचार करने का कड़ा विरोध किया, किंतु परिषद ने बहुमत से दोनों पक्षों को सीधी बातचीत करके विवाद सुलझाने और उसकी सूचना देने का प्रस्ताव पारित किया। कुछ समय तक सोवियत संघ ने टाल-मटोल किया और प्रस्ताव को स्थगित करवाने का प्रयास किया। किंतु जब सुरक्षा परिषद ने कठोर रुख अपनाया, तो मई, 1946 ई. के आते-आते ईरान तथा सोवियत संघ ने आपस में समझौता कर लिया और रूस ने ईरान से अपनी सेनाएँ हटा नी। इस प्रकार विवाद सुलझ गया और ईरान ने सुरक्षा परिषद से अपना प्रस्ताव वापस ले लिया। यह संयुक्त राष्ट्र संघ की पहली उपलब्धि थी।
इंडोनेशिया का विवाद
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद इंडोनेशिया को जापान के आधिपत्य से मुक्ति मिल गई और वहाँ स्वतंत्र गणराज्य की स्थापना हो गई। किंतु हॉलैंड की सरकार दक्षिण पूर्व एशिया के अपने साम्राज्य पर शिकंजा ढीला नहीं करना चाहती थी, इसलिए उसने इंडोनेशिया के विरुद्ध संघर्ष छेड़ दिया। किंतु अब परिस्थितियाँ बदल चुकी थीं। भारत और आस्ट्रेलिया ने इंडोनेशिया में हॉलैंड की सैनिक कार्यवाही को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में मामला उठाया। प्रारंभ में हॉलैंड ने सुरक्षा परिषद और विश्व जनमत की उपेक्षा की, किंतु अंततः हॉलैंड को युद्ध बंदकर इंडोनेशिया से अपनी सेनाएँ हटानी पड़ी और 27 दिसंबर, 1949 ई. को इंडोनेशिया में स्वतंत्र गणतंत्रात्मक सरकार का गठन हो गया। इस प्रकार इंडोनेशिया की समस्या को भी हल कर लिया गया।
यूनान की समस्या
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन की सेनाएँ यूनान में प्रवेश कर गई थीं, किंतु युद्ध के बाद भी वहाँ से नहीं हटीं और साम्यवादियों का दमन करने लगीं, जिससे साम्यवादियों और ब्रिटिश सेना के बीच संघर्ष छिड़ गया। रूस ने इस मामले को 21 फरवरी, 1946 ई. को सुरक्षा परिषद में उठाया। फलतः सुरक्षा परिषद ने एक जाँच आयोग गठित किया, किंतु जाँच आयोग के प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया गया।
सीरिया और लेबनान की समस्या
सीरिया और लेबनान में ब्रिटिश और फ्रांसीसी सेनाएँ डटी हुई थीं। इन दोनों देशों ने 14 फरवरी, 1946 ई. को सुरक्षा परिषद में अपील की कि वह इंग्लैंड और फ्रांस को उनके देशों से तुरंत सेनाएँ हटाने के आदेश दे। अंततः सुरक्षा परिषद के प्रयास से फ्रांस और इंग्लैंड ने सीरिया और लेबनान से अपनी सेनाएँ हटा ली।
बर्लिन की नाकेबंदी
1948 ई. में पश्चिमी देशों ने पूर्वी बर्लिन में त्रिक्षेत्र की स्थापना करने के पश्चात् पोड्समाउथ समझौते की व्यवस्था का अतिक्रमण कर पश्चिमी जर्मनी में नई मुद्रा का प्रचलन कर दिया। इससे पूर्वी जर्मनी के व्यापार में बाधा आने लगी और रूस ने 24 जून, 1848 ई. को पश्चिम बर्लिन की नाकेबंदी कर दी। चूंकि पश्चिमी भागों का मार्ग पूर्वी भाग से होकर जाता था, इसलिए पश्चिमी देशों को समस्या का सामना करना पड़ा। इस मामले में सुरक्षा परिषद के हस्तक्षेप से 4 मई, 1949 ई़ को एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार 12 मई, 1949 ई. को आधी रात के एक मिनट बाद बर्लिन की सोवियत नाकाबंदी हटा ली गई।
ब्रिटेन और ईरान का मामला
ईरान की सरकार द्वारा मई, 1951 ई. में ऐंग्लो-ईरानियन आयल कंपनी का राष्ट्रीयकरण करने पर ब्रिटेन ने इसके विरोध में अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में अपील की और स्पष्ट किया कि मामले पर जब तक अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय अपना निर्णय नही देता, तब तक कंपनी कोई उत्पादन न करे। ईरान द्वारा इस घोषणा की अवमानना पर मामला सुरक्षा परिषद में चला गया। सुरक्षा परिषद ने इसे न्यायालय के निर्णय पर छोड़ दिया। 22 जुलाई, 1952 ई. को न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वह इस समस्या पर विचार करने के लिए सक्षम नहीं है। अतः इंग्लैंड द्वारा ईरान के विरुद्ध की गई शिकायत का कोई अस्तित्व नहीं रह गया।
कोरिया की समस्या
द्वितीय महायुद्ध के प्रारंभ से पहले कोरिया पर जापान का प्रभुत्व था, किंतु द्वितीय महायुद्ध में जापानी सेनाओं के आत्मसमर्पण के बाद परिस्थितियाँ बदल गईं और रूस तथा अमेरिका ने एक समझौते पर हस्ताक्षर कर क्रमशः उत्तरी तथा दक्षिणी कोरिया प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार कोरिया का विभाजन उत्तरी कोरिया और दक्षिणी कोरिया के रूप में हो गया और दोनों एक-दूसरे पर अधिकार करने का प्रयत्न करने लगे।
25 जून, 1950 ई. में उत्तरी तथा दक्षिणी कोरिया के बीच युद्ध आरंभ हो गया। जब मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में पहुँचा तो सुरक्षा परिषद ने कोरिया की दोनों सरकारों को तुरंत युद्ध बंद करने का आदेश दिया। पहले तो उत्तरी कोरिया ने चीनी गणतंत्र की शह पर सुरक्षा परिषद के आदेशों की अनदेखी की, किंतु बाद में 27 जुलाई, 1953 ई. को संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयासों से कोरिया का युद्ध समाप्त हो गया और वहाँ शांति बहाल हो गई।
फिलिस्तीन की समस्या
अरब देशों और फिलिस्तीन का झगड़ा संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के समय से ही उसकी कार्य-सूची में है। किंतु दोनों पक्षों की हठधर्मिता के कारण इस समस्या का समाधान अभी तक नहीं हो सका है।
प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद फिलिस्तीन संरक्षण व्यवस्था के अधीन ब्रिटेन को मिला था। किंतु शीघ्र ही अरबों और यहूदियों के मध्य संघर्ष प्रारंभ हो गया, जिससे वहाँ अव्यवस्था और तनाव फैल गया। यहूदी फिलिस्तीन को अपना धर्मस्थल मानते थे और वहाँ अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करना चाहते थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दोनों जातियों के बीच यह संघर्ष और तेज हो गया। फरवरी, 1947 ई. में ब्रिटेन ने घोषणा की कि उसके लिए अब फिलिस्तीन में संरक्षण व्यवस्था बनाये रखना संभव नहीं है। ब्रिटेन ने इस समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाया। संयुक्त राष्ट्र संघ के सतत प्रयासों से अरब और इजराइल राष्ट्रों में संधियाँ अवश्य हो गईं, किंतु आज भी छिटपुट संघर्ष चल रहा है।
स्वेज नहर विवाद
1956 ई. में पश्चिम एशिया में एक नई समस्या उत्पन्न हुई। 1869 ई. में निर्मित स्वेज नहर का संचालन एक स्वेज कंपनी करती थी, जिसमें ब्रिटेन व फ्रांस की हिस्सेदारी थी। मिस्र के राष्ट्रपति कमाल अब्दुल नासिर ने एक बाँध बनाने के लिए सोवियत संघ से समझौता कर लिया और जुलाई, 1956 ई. में स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया। फलतः स्वेज नहर पर अधिकार करने के लिए ब्रिटेन और फ्रांस ने मिलकर मिस्र पर आक्रमण कर दिया और इजराइल ने भी उनका साथ दिया। मिस्र ने संयुक्त राष्ट्र संघ में अपील की। भारत के वी.के. कृष्ण मेनन ने मिस्र की जोरदार वकालत की और सोवियत संघ ने भी कठोरता से विरोध किया। यहाँ तक कि सुरक्षा परिषद की ओर से संपूर्ण अरब-इजराइल सीमांत पर युद्ध-विराम का उल्लंघन रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ को आपात सेना नियुक्त करनी पड़ी। बाद में, स्वेज नहर की व्यवस्था एक स्वतंत्र निकाय को सौंपकर संघ ने इस विवाद को हल करने में सफलता प्राप्त की।
कश्मीर की समस्या
संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद की कार्य-सूची में भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर का विवाद आज भी जीवित है। भारत-विभाजन के समय से ही पाकिस्तान और भारत कश्मीर पर अपने अधिकार का दावा करते रहे हैं। 22 अक्टूबर, 1947 ई. को जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण किया, तो सुरक्षा परिषद ने दोनों देशों को कश्मीर के अपने-अपने क्षेत्रों से सेनाएँ वापस बुलाने को कहा, किंतु किसी पक्ष ने उसे स्वीकार नहीं किया। 1965 ई. और 1971 ई. में दो बार पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किये, किंतु उसे पराजित होना पड़ा। इसके बाद सुरक्षा परिषद ने जनमत संग्रह के लिए एक मंच स्वीकार करने की संस्तुति की, किंतु भारत पहले पाक द्वारा अधिकृत क्षेत्र को खाली कराने की अपनी माँग पर अड़ा रहा। इसके बाद भी संयुक्त राष्ट्र संघ ने कभी सर ओवेन डिम्सन को तो कभी डॉ. ग्राहम को कश्मीर विवाद सुलझाने के लिए भेजा, किंतु दोनों पक्षों के अड़ियल रवैये के कारण यह विवाद अभी भी लटका हुआ है।
इस प्रकार अनेक विवादों को हल करने में संयुक्त राष्ट्रसंघ का पूर्ण योगदान रहा है, किंतु निःशस्त्रीकरण की समस्या का समाधान करने में सफल नहीं रहा। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति तथा पश्चिमी एशिया के संकट के स्थायी समाधान अभी भी नहीं हो सके हैं, फिर भी इस विश्व निकाय को कई बार विश्व शांति स्थापित करने में सफलता मिली है।
मानव कल्याण के कार्य
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के साथ-साथ मानव-कल्याण के कार्यों को प्रधानता दी गई है, जिससे विश्व के सभी मानव परस्पर सौहार्दपूर्ण वातावरण में परस्पर मैत्रीपूर्ण भाव से सुख व शांति का जीवन व्यतीत कर सकें। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रमुख अंग के रूप में आर्थिक-सामाजिक परिषद की व्यवस्था की गई है।
आर्थिक कार्य
संयुक्त राष्ट्र संघ अपने संस्थापना काल से ही उत्पादन, वितरण, उपभोग, मुद्रा एवं अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य-व्यापार जैसे आर्थिक समस्याओं के समाधान में लगा है। इन आर्थिक कार्यों के संपादन के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, खाद्य एवं कृषि संगठन, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं अंतर्राष्ट्रीय वित्त निगम जैसे चार संगठन स्थापित किये गये हैं।
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की स्थापना 1919 ई. में की गई थी, जो मजदूरों, मिल-मालिकों एवं सरकारों के त्रिपक्षीय संबंधों की व्याख्या करती है, उनकी समस्याओं का समाधान करती है और श्रमिकों की स्थिति सुधारने के उद्देश्य से विभिन्न प्रकार की सामाजिक योजनाएँ बनाती है। खाद्य एवं कृषि संगठन का मुख्य कार्य खाद्य एवं कृषि संबंधी समस्याओं का अध्ययन और अनुसंधान, विश्व में खाद्य-सामग्री तथा कृषि की परिस्थितियों का निरीक्षण तथा विभिन्न सरकारों को इस संबंध में आँकड़े, अनुमान और भावी संभावनाओं से अवगत कराना है।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्थापना 27 दिसंबर, 1945 ई. को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा संबंधी सहयोग, वृद्धि, विनिमय की बाधाओं को दूर करने, उसमें स्थिरता लाने तथा विश्व व्यापार के विस्तार में सुविधाएँ प्रदान करने के लिए की गई थी।
अंतर्राष्ट्रीय वित्त निगम की स्थापना जुलाई, 1946 ई. में की गई थी। इसके कुल 53 सदस्य हैं, जो अंतर्राष्ट्रीय बैंक से संबद्ध हैं। इसका मुख्य कार्य आर्थिक विकास हेतु धन का विनियोजन करना और निजी क्षेत्र में पूँजी लगाने वालों को ऋण की सुविधा उपलब्ध कराना है।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रारंभ में ही अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संगठन का गठन सयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावित घोषणा-पत्र के आधार पर किया था। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को निर्वाध रूप से चलाने के उद्देश्य से 1947 ई. में चुंगी एव व्यापार के लिए आम समझौते का प्रारूप तैयार किया गया, जो ‘गैट’ के नाम से प्रसिद्ध है।
1964 ई. में जिनेवा में 120 देशों के प्रतिनिधियों का संयुक्त राष्ट्र संघ व्यापार विकास सम्मेलन (अंकटाड) हुआ। इस सम्मेलन के द्वारा अल्पविकसित देश बड़े और विकसित देशों से कुछ रियायतें और व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करने में सफल हुए। इस सम्मेलन में इस कार्य के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ से एक स्थायी संस्था स्थापित करने की संस्तुति की गई थी। इसके बाद साधारण सभा ने उसी वर्ष सम्मेलन को स्थायी रूप दे दिया।
संचार संबंधी कार्य
संयुक्त राष्ट्र संघ विभिन्न राष्ट्रों के मध्य संचार, डाक और यातायात सुविधाओं को अधिक सरल बनाने के लिए भी कार्य करता है। इस कार्य के लिए अंतर्राष्ट्रीय सैनिकेत्तर हवाई संगठन, सार्वभौमिक पोस्टल संघ, अंतर्राष्ट्रीय दूर संचार संघ, विश्व ऋतु विज्ञान संगठन, अंतर्राष्ट्रीय सामुद्रिक परामर्शदाता संगठन जैसे अनेक संगठन स्थापित किये हैं।
शैक्षणिक कार्य
शैक्षणिक कार्यों को संपन्न करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने 4 नवंबर, 1945 ई. को शैक्षणिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन की स्थापना की थी, जिसे ‘प्रजातंत्र का अग्रदूत’ माना जाता है। इस संस्था का मुख्य कार्य ग्रामीण क्षेत्रों में प्रौढ़ शिक्षा के संबंध में विचार-गोष्ठियों का आयोजन करना, विशेष समस्याओं का समाधान करने के लिए विशेषज्ञ भेजना, वैज्ञानिकों के मध्य संपर्क व संबंध स्थापित करना और अध्ययन के संबंध में छात्रवृत्तियाँ प्रदान करना आदि है।
स्वास्थ्य-सुरक्षा संबंधी कार्य
स्वास्थ्य सुरक्षा के क्षेत्र में कार्य करने के लिए दो संगठन स्थापित किये गये थे- प्रथम विश्व स्वास्थ्य संगठन, दूसरे, संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय बाल आपातकालीन कोष। विश्व स्वास्थ्य संगठन का मुख्य कार्य अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य के कार्यों का संचालन एवं समन्वय करना, महामारियों तथा बीमारियों के उन्मूलन के कार्यों को प्रोत्साहित करना, आहार, पोषण, आवास, सफाई तथा कार्य करने की दशाओं में सुधार करना, शिशु एवं मातृ कल्याण कार्यों में वृद्धि करना, स्वास्थ्य शिक्षा एवं प्रशिक्षण के स्तर को ऊपर उठाना, खाद्य पदार्थों, दवाइयों और अन्य ऐसी वस्तुओं के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय मानक निश्चित करना है। इस संगठन के प्रयास से यूनान में मलेरिया बीमारी का औसत 95 प्रतिशत से घटकर 5 प्रतिशत रह गया है। भारत में भी इसने क्षय रोग, एड्स और पालियो के उन्मूलन हेतु महत्त्वपूर्ण किसये किया है।
आपातकालीन कोष का मुख्य कार्य शिशु-कल्याण की सेवाओं का आयोजन एवं प्रशिक्षण, संक्रामक रोगों की रोकथाम करना, बाल पोषण की व्यवस्था करना आदि है।
संयुक्त राष्ट्र संघ का मूल्यांकन
संयुक्त राष्ट्र संघ निःसंदेह राष्ट्र संघ की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट संस्था सिद्ध हुई है। यह सही है कि यह विश्व निकाय निःशस्त्रीकरण, दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद नीति, कांगो के मामले और यूक्रेन युद्ध जैसे अनेक विवादों का समाधान करने में असफल रहा है, किंतु कई अवसरों पर युद्ध के संकट को टालने में इस संस्था ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं। मानव-कल्याण के लिए आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और स्वास्थ्य के क्षेत्र में इस संस्था द्वारा किये गये कार्य सराहनीय हैं। साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद जैसी समस्याओं का उन्मूलन करने में संयुक्त राष्ट्र संघ की सफलता निर्विवाद है। यह संस्था विश्व-बंधुत्व और अंतर्राष्ट्रीय सौहार्द बढ़ाने में भी सफल रही है। यद्यपि इस विश्व संस्था पर अमेरिका का प्रभाव और नियंत्रण स्पष्ट है, फिर भी विश्व-शांति के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ आशा की महत्त्वपूर्ण किरण है।