टीपू सुल्तान और आंग्ल-मैसूर युद्ध (Tipu Sultan and the Anglo-Mysore Wars)

टीपू सुल्तान और आंग्ल-मैसूर युद्ध

18वीं शताब्दी के अंतिम चरण में दूसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध के दौरान हैदरअली मृत्यु और टीपू सुल्तान का राज्याभिषेक मैसूर की एक प्रमुख घटना है। हैदरअली का पुत्र टीपू सुल्तान अपने पिता के समान भारतीय इतिहास का अप्रतिम योद्धा था, जिसने पिता की मृत्यु के बाद मैसूर की कमान को सँभाला। आज टीपू सुल्तान के नाम पर विवाद पैदा करके उसके नाम को मिटाने की साजिशें की जा रही हैं, किंतु टीपू सुल्तान का नाम इतिहास के पन्नों से मिटा पाना असंभव है। दरअसल भारतीय शासकों में टीपू ही एकमात्र ऐसा सुल्तान है जो अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने की कोशिश में अंग्रेजों से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ था।

टीपू का आरंभिक जीवन

टीपू का पूरा नाम ‘सुल्तान फतेह अलीखान शाहाब टीपू’ था। भारत माँ का यह वीर सपूत कर्नाटक के कोलार जिले के ‘देवनहल्ली’ (यूसुफाबाद) में 20 नवंबर, 1750 को पैदा हुआ था। उसके पिता का नाम हैदरअली और माँ का नाम फकरुन्निसा (फातिमा) था। टीपू के पिता हैदरअली मैसूर साम्राज्य के एक सैनिक थे जो अपनी योग्यता और ताकत के बल पर 1761 ई. में मैसूर के शासक बन गये थे।

टीपू को एक मुसलमान राजकुमार के योग्य शिक्षा मिली थी। वह अरबी, फारसी, कन्नड़ तथा उर्दू में बातचीत कर सकता था और घुड़सवारी, बंदूक तथा तलवार चलाने में सिद्धहस्त था। उसे पालकी में चढ़ना पसंद नहीं था क्योंकि वह इसे केवल स्त्रियों और रोगियों के लिए उपयुक्त मानता था। अपने पिता हैदरअली की तरह टीपू योग्य, पराक्रमी, विद्या-व्यसनी तथा संगीत और स्थापत्य का प्रेमी था। उनकी वीरता से प्रभवित होकर उनके पिता हैदरअली ने ही उसे ‘शेर-ए-मैसूर’ (मैसूर का शेर) की उपाधि दी थी। मैसूर का यह शेर चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध में अंग्रेजों का मुकाबला करते हुए 4 मई, 1799 को वीरगति को प्राप्त हो गया।

यद्यपि टीपू अपने पिता हैदरअली के समान वीर, साहसी, कुशल सेनानायक और महत्वाकांक्षी था, लेकिन उसमें हैदरअली का राजनीतिक विवेक और कूटनीतिक चातुर्य नहीं था। उसके पिता ने दक्षिण में मैसूर की शक्ति का विस्तार आरंभ किया था। इस कारण अंग्रेजों के साथ-साथ निजाम और मराठे भी उसके शत्रु बन गये थे। टीपू ने 18 वर्ष की उम्र में अंग्रेजों के विरुद्ध पहला युद्ध जीता था और अंग्रेज मंगलौर की संधि करने को बाध्य हुए थे।

हैदरअली और आंग्ल-मैसूर संबंध

तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-1792 AD.)

प्रारंभ से ही स्पष्ट था कि मंगलौर की संधि केवल युद्ध-विराम मात्र थी। इस संधि ने टीपू और अंग्रेजों के झगड़े की जड़ को समाप्त नहीं किया था, बल्कि युद्ध को टाल भर दिया था। अंग्रेज टीपू को दक्षिण में अपना सबसे कट्टर दुश्मन समझते थे जो दक्षिण भारत की जीत में उनके लिए प्रमुख बाधक बना हुआ था। टीपू भी अंग्रेजों से बेइंतहा नफरत करता था और अपनी स्वाधीनता के लिए सबसे बड़ा खतरा समझकर उन्हें भारत से बाहर खदेड़ने पर अड़ा हुआ था।

यदि टीपू ने राजनीतिक दूरदर्शिता से काम लेकर निजाम तथा मराठों को वह भूमि वापस कर दी होती, जो उसके पिता ने जीत ली थी तो उसकी उनसे स्थायी मित्रता हो जाती और अंग्रेज उस पर आक्रमण करने का साहस नहीं करते। किंतु इसके विपरीत, टीपू को फ्रांसीसी सहायता पर ज्यादा भरोसा था। उसने विदेशी सहायता प्राप्त करने के लिए फ्रांस और तुर्की में अपने दूत भेजे। इससे टीपू को कोई लाभ तो नहीं हुआ लेकिन अंग्रेजों का संदेह और बढ़ गया।

यद्यपि 1784 ई. के पिट्स ऐक्ट में स्पष्ट कर दिया गया था कि कंपनी कोई नया प्रदेश जीतने का प्रयास नहीं करेगी, फिर भी कॉर्नवालिस जानता था कि टीपू से युद्ध होना अवश्यसंभावी है। इसलिए उसने बसालतजंग की मृत्यु के बाद गुंटूर को निजाम से ले लिया ताकि उत्तरी सरकार को कर्नाटक से जोड़ा जा सके। उसने निजाम को यह आश्वासन दिया कि टीपू ने उसके जिन क्षेत्रों पर अधिकार कर रखा है, उसे वापस दिलाने में अंग्रेज उसकी मदद करेंगे। इस प्रकार कॉर्नवालिस ने निजाम और मराठों से मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित कर 1790 ई. में टीपू के विरुद्ध एक त्रि-दलीय संगठन बना लिया।

1790 ई. में तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध प्रारंभ हो गया। झगड़ा उस समय शुरू हुआ जब ट्रावनकोर के महाराजा ने डच लोगों से कोचीन रियासत में स्थित जैकौटे तथा क्रगानूर मोल लेने का प्रयत्न किया। टीपू कोचीन को अपने अधीन समझता था और उसने ट्रावनकोर के इस प्रयत्न को अपनी सत्ता में हस्तक्षेप मानकर अप्रैल, 1790 ई. में ट्रावनकोर पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेज तो पहले से ही तैयार बैठे थे, उन्होंने ट्रावनकोर के राजा का पक्ष लिया क्योंकि 1784 ई. में उनके बीच इस आशय की एक संधि हुई थी।

कॉर्नवालिस ने निजाम एवं मराठों की सहायता से मैसूर पर चारों ओर से आक्रमण किये। टीपू दो वर्ष तक अंग्रेजों से लड़ता रहा। कॉर्नवालिस को स्वयं मोर्चा सँभालना पड़ा और उसने वैल्लोर तथा अंबूर से होते हुए मार्च, 1791 ई. में बंगलौर को जीत लिया। संसाधनों के अभाव में टीपू अधिक समय तक संघर्ष करने की स्थिति में नहीं था। मराठों तथा निजाम की सहायता से अंग्रेजों ने श्रीरंगापट्टनम को घेर लिया और फरवरी, 1792 ई. में श्रीरंगापट्टनम की बाहरी रक्षा-प्राचीर को ध्वस्त कर दिया। फलतः टीपू को विवश होकर मार्च, 1792 ई. में श्रीरंगापट्टनम की संधि करनी पड़ी।

श्रीरंगापट्टनम की संधि (1792 ई.)

श्रीरंगापट्टनम की संधि के अनुसार टीपू को आधा राज्य अंग्रेजों और उसके सहयोगियों को देना पड़ा जिसे त्रिगुट के सदस्यों ने आपस में बाँट लिया। अंग्रेजों को बड़ा महल, पश्चिम में मालाबार और दक्षिण में डिंडीगल के प्रदेश मिले. निजाम को कृष्णा और पन्ना नदियों के मध्य का प्रदेश और मराठों को पश्चिमी कर्नाटक दिया गया। कुर्ग राज्य, जो टीपू की आधीनता में था, कार्नवालिस ने अंग्रेजों के संरक्षण में ले लिया। इसके साथ ही टीपू को तीन करोड़ तीस लाख रुपये युद्ध का हर्जाना भी देना पड़ा और अपने दो पुत्रों को अंग्रेजों के पास बंधक के रूप में रखना स्वीकार किया।

टीपू सुल्तान और आंग्ल-मैसूर युद्ध (Tipu Sultan and the Anglo-Mysore Wars)
टीपू सुल्तान का आत्म-समर्पण

इस प्रकार तीसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध में टीपू को भारी हानि उठानी पड़ी और उसके लगभग आधे प्रदेशों पर अंग्रेजों, मराठों तथा निजाम का अधिकार हो गया। बड़ी मुश्किल से वह अपना राज्य बचा पाया।

प्रायः कॉर्नवालिस की आलोचना की जाती है कि उसने श्रीरंगापट्टनम की संधि जल्दबाजी में की और टीपू के विनाश को अपूर्ण छोड़ दिया। सही भी है कि यदि कॉर्नवालिस चाहता तो वह टीपू की शक्ति को पूर्णतया विनष्ट करके सारे मैसूर पर अधिकार कर सकता था, लेकिन उसने ऐसा न करके अपनी कूटनीतिज्ञता का ही परिचय दिया। मैसूर राज्य कर्नाटक को मराठा आक्रमणों से बचाता था और इसलिए उसे तब तक बनाये रखना आवश्यक था, जब तक अंग्रेज मराठों की शक्ति को नष्ट करके अपनी शक्ति को नहीं बढ़ा लेते। इस प्रकार कॉर्नवालिस मैसूर को ब्रिटिश तथा मराठा क्षेत्रों के बीच बफर राज्य के रूप में रखना चाहता था। इसके अलावा, मैसूर पर अधिकार करने से निजाम और मराठे भी संशंकित हो जाते और वे अंग्रेजों के प्रति अपनी नीति को बदल सकते थे। संभवतः इसीलिए उसने संरक्षक समिति के अध्यक्ष को लिखा था: ‘हमने अपने शत्रु को प्रभावशाली ढ़ंग से पंगु बना दिया है तथा अपने साथियों को भी शक्तिशाली नहीं बनने दिया।’

चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799 ई.)

भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की एक प्रमुख नीति थी कि ‘पहले युद्ध करो, फिर अपने आपको युद्ध के लिए तैयार करने के लिए शांति की नीति अपनाओ।’ 1798 ई. में घोर साम्राज्यवादी लॉर्ड वेलेजली भारत का गवर्नर-जनरल बनकर आया। इस समय अंग्रेज पूरी दुनिया में फ्रांस के साथ जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रहे थे। वेलेजली भारत में फ्रांससी गतिविधियों को पूरी तरह नष्ट कर देना चाहता था। नेपोलियन के मिस्र के अभियान से भारत पर भी फ्रांसीसी आक्रमण का खतरा मंडराने लगा था। भारत में मैसूर फ्रांसीसी गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था। टीपू 1792 ई. में अपने खोये राज्य को कभी भूल नहीं सका था। वह अंग्रेजों के साथ अपने अवश्यसंभावी युद्ध के लिए अपनी सेना को लगातार मजबूत बनाता रहा। उसने क्रांतिकारी फ्रांस के साथ गठजोड़ की बात भी चलाई और एक ब्रिटिश-विरोधी गठजोड़ बनाने के लिए अफगानिस्तान, अरब और तुर्की में अपने दूत भेजे।

उधर ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली ने निश्चय किया था कि या तो टीपू को पूर्णतया समाप्त कर दिया जाए या उसे पूर्णतया अपने अधीन कर लिया जाए। उसने टीपू पर श्रीरंगपट्टम का संधि के उल्लंघन का आरोप लगाया कि वह निजाम और मराठों से मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध षड्यंत्र कर रहा है अथवा अरब, अफगानिस्तान के जमानशाह, कुस्तुन्तुनिया, मॉरीशस में फ्रांसीसी अधिकारियों के साथ मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा बनाने के लिए पत्र-व्यवहार कर रहा है। उसने टीपू से सहायक संधि स्वीकार करने के लिए कहा, लेकिन वह सहायक संधि के लिए तैयार नहीं हुआ।

ईस्ट इंडिया कंपनी ने हैदराबाद के निजाम के साथ मिलकर अप्रैल, 1799 ई. में चौथी बार टीपू के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। टीपू को किसी भी भारतीय शासक से कोई सहायता नहीं मिली। मैसूर पर अंग्रेजी सेनाओं ने चारों ओर से आक्रमण किया। कर्नाटक से जनरल हेरिस, कुर्ग से जनरल स्टुअर्ट, हैदराबाद से कर्नल सर आर्थर वेलेजली, दक्षिण से कर्नल रीड तथा कर्नल ब्राउन ने एक साथ श्रीरंगपट्टम की ओर बढ़ना शुरू किया। लॉर्ड वेलेजली ने अपने छोटे भाई सर आर्थर वेलेजली को युद्ध का मोर्चा सौंपा एवं स्वयं भी मद्रास आ गया। टीपू ने सीमावर्ती दुर्गों को रक्षापंक्ति बनाया था, लेकिन अंग्रेजों के तोपखाने ने इस रक्षापंक्ति को भंग कर दिया। आर्थर वेलेजली एवं जनरल हैरिस ने मल्लावली नामक स्थान पर टीपू को पराजित किया। जनरल स्टुअर्ट ने 1799 ई. में सेदासरी के युद्ध में टीपू को हरा दिया।

टीपू सुल्तान की वीरगति (1799 ई.)

अपनी पराजयों के कारण विवश होकर टीपू को श्रीरंगपट्टम के दुर्ग में शरण लेनी पड़ी। अंग्रेजी सेना ने दुर्ग को घेर लिया। टीपू ने संधि वार्ता का प्रयास किया, लेकिन संधि की शर्तें इतनी अपमानजनक थीं कि टीपू ने संधि करने से इनकार कर दिया। उसने गर्वपूर्वक घोषणा की, ‘काफिरों का दयनीय दास बनकर और उनके पेंशन-प्राप्त राजाओं और नवाबों की सूची में शमिल होकर जीने से अच्छा एक योद्धा की तरह मर जाना है।’ अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए मैसूर का यह शेर 4 मई, 1799 ई. को वीरगति को प्राप्त हो गया और अंग्रेजों ने दुर्ग पर अधिकार कर लिया। पी. ई. राबर्ट्स के अनुसार ‘इस प्रकार भारत की प्रमुख शक्ति का पतन हो गया जो सदैव ब्रिटिश शक्ति के विनाश के लिए प्रयत्न करती रही थी। इस युद्ध की सफलता के लिए वेलेजली को मार्क्विस की उपाधि प्रदान की गई। उसने अंग्रेजों के सबसे कट्टर शत्रु को नष्ट कर दिया था।

टीपू सुल्तान और आंग्ल-मैसूर युद्ध (Tipu Sultan and the Anglo-Mysore Wars)
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध के बाद मैसूर

टीपू की सेना अंत तक उसके प्रति वफादार बनी रही। उसके परिवार के सदस्यों को वेल्लौर में कैद कर दिया गया। उसका लगभग आधा राज्य अंग्रेजों और उनके सहयोगी निजाम के बीच बँट गया। मैसूर राज्य का शेष भाग पुराने वाडियार वंश के एक नाबालिग बालक को वापस दे दिया गया। नये राजा को मजबूर करके एक विशेष सहायक संधि पर हस्ताक्षर कराये गये, जिसके अनुसार अगर गवर्नर-जनरल आवश्यकता समझे तो राज्य का शासन खुद सँभाल सकता था। अब मैसूर राज्य की शक्ति का पूर्णतया अंत हो गया तथा दक्षिण भारत में मराठे ही अंग्रेजों के एक मात्र शत्रु रह गये।

टीपू सुल्तान की प्रशासनिक व्यवस्था

अठारहवीं शताब्दी में निरंकुश राजतंत्र का बोलबाला था, इसलिए टीपू का प्रशासन भी उससे अलग नहीं हो सकता था। सुल्तान ही देश में समस्त सैनिक, असैनिक तथा राजनैतिक शक्ति का केंद्र होता था, वही अपना विदेश मंत्री, मुख्य सेनापति और न्यायाधीश था। यद्यपि टीपू निरंकुश था, किंतु वह एक संयमी, दयावान, कर्मशील और कर्तव्य-परायण शासक की भाँति अपने कार्यों का संपादन करता था तथा सदैव अपनी प्रजा के हित के लिए कार्य करता था।

केंद्रीय प्रशासन

नवोन्मेषी टीपू को नये सुधारों तथा प्रयोगों से बहुत प्यार था। उसने अपने पिता द्वारा उत्तराधिकार में प्राप्त शासन प्रणाली में सुधार किया। डॉडवेल के अनुसार ‘वह प्रथम भारतीय राजा था जिसने पाश्चात्य परंपराओं को भारतीय प्रजा पर लागू करने का प्रयास किया।’ प्रत्येक विभाग का एक अधिकारी होता था और अनेक निम्न स्तर के अधिकारी उसकी सहायता करते थे। निर्णय पूर्ण वाद-विवाद के बाद बहुमत से लिये जाते थे, किंतु अंतिम निर्णय सुल्तान का ही होता था।

टीपू के प्रशासन में प्रधानमंत्री या वजीर नहीं होता था। राजस्व तथा वित्त, सेना, तोपखाना, वाणिज्य, नाविक, कोष और टंकण जैसे सात मुख्य विभाग थे, जो मीर आसिफ के अधीन होते थे जो स्वयं सुल्तान के प्रति उत्तरदायी होता था। इसके अलावा, डाक तथा गुप्तचर, लोक निर्माण तथा पशु विभाग जैसे तीन छोटे विभाग भी थे।

प्रांतीय एवं स्थानीय प्रशासन

टीपू के राज्य में पहले 7 प्रांत थे, किंतु बाद में उसने अपने राज्य के प्रांतों की संख्या 17 कर दी। प्रांतों के मुख्य अधिकारी आसिफ (असैनिक गवर्नर) तथा फौजदार (सैनिक प्रधान) होते थे और दोनों एक-दूसरे पर नियंत्रण रखते थे। प्रांतों को जिलों, जिलों को ग्रामों में बाँटा गया था। स्थानीय प्रशासन का प्रबंध ग्राम पंचायतें करती थीं।

भूमिकर व्यवस्था

टीपू ने भूमिकर प्रणाली को अधिक कार्यक्षम बनाने का प्रयत्न किया। उसने जागीर देने की प्रथा को खत्म करके राजकीय आय बढ़ाने की कोशिश की। उसने पोलीगारों की पैतृक संपत्ति को कम करने और राज्य तथा किसानों के बीच के मध्यस्थों को समाप्त करने की भी कोशिश की। किंतु उसका भू-राजस्व उतना ही ऊँचा था, जितना अन्य समसामयिक शासकों का। वह पैदावार का एक तिहाई हिससा तक भू-राजस्व के रूप में लेता था। किंतु उसने अब्वाबों की वसूली पर रोक लगा दी। वह भू-राजस्व में भी छूट देने में उदार था।

टीपू सुल्तान ने अधिकाधिक भूमि को जोत में लाने का प्रयास किया। इसके लिए उसने किसानों को हल तथा पशुओं के लिए तकावी श्रण दिया। उसने अपने पिता द्वारा शुरू की गई लालबाग परियोजना को सफलतापूर्वक पूरा किया तथा जल भंडारण के लिए कावेरी नदी के उस स्थान पर एक बाँध की नींव रखी, जहाँ आज कृष्णराज सागर बाँध मौजूद है। किसानों को प्रोत्साहन देने के लिए उसके आमिल जैसे अधिकारी राज्य में भ्रमण करते रहते थे।

व्यापार और वाणिज्य

टीपू आधुनिक उद्योग और व्यापार के महत्त्व से भलीभाँति परिचित था। भारतीय शासकों में यही एकमात्र शासक था जो आर्थिक शक्ति के महत्त्व को सैनिक शक्ति की नींव मानता था। उसने आधुनिक उद्योगों की शुरूआत के लिए प्रयास भी किया। उसने विदेशों से कारीगर बुलाये और कई उद्योगों को राज्य की ओर से सहायता दिया। विदेश व्यापार के विकास के लिए उसने फ्रांस, तुर्की और ईरान में अपने दूत भेजे। उसका विचार चीन और पीगू से भी व्यापार करने का था और इसके लिए उसने एक व्यापार बोर्ड का गठन भी किया था।

टीपू ने चंदन, सुपारी, कालीमिर्च, मोटी इलायची, सोने तथा चाँदी के व्यापार तथा हाथियों के निर्यात को सरकार के एकाधिकार में रखा। उसने राज्य में कारखाने भी लगवाये जहाँ युद्ध के लिए गोला, बारूद, कागज, चीनी, रेशम, छोटे उपकरण तथा कलात्मक वस्तुएँ बनाई जाती थीं। वास्तव में टीपू की व्यापारिक नीति का मुख्य उद्देश्य सरकार को प्रमुख व्यापारिक संस्था बनाना तथा राजकोष को भरना था। वह आर्थिक गतिविधियों को सैनिक और राजनैतिक हितों के अधीन लाना चाहता था।

सैनिक प्रशासन

समकालीन विवशताओं के कारण टीपू को अपना अधिकांश समय सैनिक तैयारी में ही लगाना पड़ा। उसने यूरोपीय सेना के नमूने पर अपनी पदाति सेना को बंदूकों और संगीनों से सुसज्जित किया, किंतु इन हथियारों को मैसूर में ही बनाया जाता था। उसने अपनी सेना को फ्रांसीसी कमांडरों द्वारा प्रशिक्षण का प्रबंध किया और एक फ्रांसीसी टुकड़ी तैयार की। किंतु धीरे-धीरे उसकी सेना में फ्रांसीसी सैनिकों की संख्या कम होती चली गई।

हैदरअली और टीपू दोनों ने नौसेना के महत्त्व को समझा, किंतु वे कभी भी अंग्रेजों की बराबरी नहीं कर सके। हैदरअली ने जिन जलपोतों को बनाया था, वे सभी एडवर्ड ह्यूज ने 1780 ई. में मंगलौर आक्रमण के समय नष्ट कर दिया था। जब तीसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध में अंग्रेजों ने मालाबार तट के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया, तो टीपू सुल्तान के लिए नौसेना का महत्त्व और भी बढ़ गया। 1796 ई. में उसने एक आधुनिक नौसेना खड़ी करने की कोशिश की थी। उसने एक नौसेना बोर्ड का गठन किया और 22 युद्धपोत तथा 20 बड़े फिगेट बनाने की योजना बनाई थी। उसने मंगलौर, वाजिदाबाद तथा मोलीदाबाद में पोतघाट बनाया तथा जहाजों के नमूने स्वयं तैयार कराये थे। अंग्रेज श्रीरंगापट्टनम से दो राकेट ब्रिटेन के वूलविच संग्रहालय की आर्टिलरी गैलरी में प्रदर्शनी के लिए ले गये थे। भारत के पूर्व राष्ट्रपति एवं महान् वैज्ञानिक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने टीपू सुल्तान को विश्व का सबसे पहला राकेट आविष्कारक बताया है।

वास्तव में टीपू के संसाधन अंग्रेजों की अपेक्षा बहुत कम थे। उसे अपनी सीमित शक्तियों का ज्ञान था, ‘मैं अंग्रेजों के स्थल-साधनों को तो समाप्त कर सकता हूँ, किंतु मैं समुद्र तो नहीं सुखा सकता।’

टीपू सुल्तान का मूल्यांकन

टीपू 18वीं शताब्दी के किसी अन्य भारतीय शासक की तुलना में दक्षिण भारत या दूसरे भारतीय शासकों के लिए अंग्रेजी राज के खतरे को अधिक ठीक तरह से समझता था। उदीयमान अंग्रेजी सत्ता के सामने वह दृढ़-निश्चयी शत्रु के रूप में खड़ा हुआ और अंग्रेज भी उसको अपना सबसे खतरनाक दुश्मन समझते थे। वह एक दुस्साहसी योद्धा था और अत्यंत प्रतिभाशाली सेनानायक था। उसकी प्रिय उक्ति थी: ‘शेर की तरह एक दिन जीना बेहतर है, लेकिन भेड़ की तरह लम्बी जिंदगी जीना अच्छा नहीं।’ इसी विश्वास का पालन करते हुए वह श्रीरंगपट्टनम के द्वार पर लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।

टीपू जटिल चरित्रवाला और नये विचारों को ढूढ़ निकालने वाला व्यक्ति था। एक नये कैलेंडर को लागू करना, सिक्का-ढलाई की नई प्रणाली काम में लाना, वर्षों तथा महीनों के लिए अरबी नामों का प्रयोग करना तथा माप-तौल के नये पैमानों को अपनाना उसकी समय के साथ अपने को बदलने की इच्छा के प्रतीक थे। उसके निजी पुस्तकालय में धर्म, इतिहास, सैन्य-विज्ञान, औषधि विज्ञान और गणित जैसे विविध विषयों की पुस्तकें थीं। वह पाश्चात्य विज्ञान और राजनीतिक दर्शन का सच्चा गुणग्राही था। उसकी फ्रांसीसी क्रांति में गहरी दिलचस्पी थी, अपनी राजधानी श्रीरंगापट्टनम में ‘स्वतंत्रता-वृक्ष’ लगवाया और स्वयं एक जैकोबिन क्लब का सदस्य बना। वह स्वयं को ‘नागरिक टीपू’ कहलाना पसंद करता था। टॉमस मुनरो ने टीपू के बारे में सही लिखा है कि, ‘नवीनता की अविभ्रांत भावना तथा प्रत्येक वस्तु के स्वयं ही प्रसूत होने की रक्षा उसके चरित्र की मुख्य विशेषता थी।’

प्रशासक और शासक के रूप में टीपू सफल रहा और उसकी सराहना उसके विरोधियों ने भी की है। टीपू के जमाने में मैसूर के बारे में पर्यवेक्षक मूर लिखता है, ‘यह राज्य खेती-बाड़ी में बढ़ा-चढ़ा, परिश्रमी लोगों की घनी आबादी वाला, नये-नये नगरों वाला और वाणिज्य-व्यापार में बढोत्तरी वाला था।’ सर जॉन शोर ने भी लिखा है कि ‘टीपू के राज्य के किसानों को संरक्षण मिलता था तथा उनको श्रम के लिए प्रोत्साहित और पुरस्कृत किया जाता था। टीपू को अपने सैनिकों की राजभक्ति और विश्वास भी प्राप्त है।’ उसकी सांगठनिक क्षमता का प्रमाण यह है कि जिन दिनों भारतीय सैनिकों के बीच अनुशासनहीनता बहुत सारधारण बात थी, उसके सैनिक अंत तक अनुशासित और उसके प्रति वफादार बने रहे।

साम्राज्यवादी लेखकों ने अपने विकट शत्रु टीपू को बदनाम करने के लिए ‘सीधा-सादा दैत्य’ तथा धार्मिक उन्मादी के रूप में चित्रित किया है। यद्यपि अपने धार्मिक दृष्टिकोण में वह काफी रूढ़िवादी था, किंतु दूसरे धर्मों के प्रति उसका दृष्टिकोण सहिष्णु और उदार था। उसने हिंदू कुर्गों और नायरों का दमन किया, तो मुसलमान मोपलाओं को भी क्षमा नहीं किया। यह सही है कि भारतीय शासकों ने उसका साथ नहीं दिया, किंतु उसने किसी भी भारतीय शासक के विरुद्ध, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, अंग्रेजों से गठबंधन नहीं किया। उसने अपने शासन के सभी महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर हिंदुओं की नियुक्ति की थी। 1791 ई. में जब मराठा घुड़सवारों ने श्रृंगेरी के शारदा मंदिर को लूटा, तो उसने न केवल मंदिर के टूटे भाग की मरम्मत करवाई, बल्कि शारदादेवी की मूर्ति स्थापना के लिए धन भी दिया। टीपू अनेक हिंदू मंदिरों को नियमित रूप से भेंट दिया करता था। उसने श्रीरंगापट्टनम के दुर्ग में स्थित रंगनाथ नरसिंह अथवा गंगाधारेश्वर के मंदिरों की पूजा में कभी हस्तक्षेप नहीं किया, जो उसके महल से बमुश्किल 100 गज की दूरी पर था। इसलिए टीपू पर धर्मांधता होने का आरोप लगाना उचित नहीं है।

टीपू निश्चय ही दक्षिण भारत के इतिहास का एक आकर्षक व्यक्तित्व है। मैसूर के इस शेर ने कभी अपना स्वाभिमान नहीं छोड़ा और वेलेजली की सहायक संधि को कभी स्वीकार नहीं किया। अपनी देशभक्ति तथा स्वतंत्रता के लिए अपने संघर्ष के कारण उसका नाम भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में अमर रहेगा।

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