Table of Contents
सुमेरियन सभ्यता
मेसोपोटामिया में जिन सभ्यताओं का विकास हुआ, उनमें कालक्रम की दृष्टि से सुमेरियन सभ्यता प्रथम है। इसके नामकरण का आधार सुमेर नामक नगर है। यह दजला-फरात घाटी का दक्षिणी भाग है। इसके उत्तर-पश्चिम में अक्काद है। प्राचीनकाल में सुमेर और अक्काद के मध्य कोई निश्चित सीमा नहीं थी। फिर भी साधारणतः निप्पुर नगर के उत्तर का भूभाग अक्काद और दक्षिण का भाग सुमेर कहलाता था।
सुमेर की भौगोलिक स्थिति के कारण इसे भ्रमणशील मानवों ने सबसे पहले अपने स्थायी जीवन के लिए उपयुक्त पाया और यहाँ एक ऐसी सभ्यता का विकास किया, जिसने आने वाली मेसोपोटामिया की सभ्यताओं के लिए आधारशिला का कार्य किया। वस्तुतः दजला-फरात घाटी में पल्लवित-पुष्पित होने वाली सभ्यताओं को मूल प्रेरणा सुमेरिया से ही मिली थी। मेसोपोटामिया में सामाजिक एवं आर्थिक संगठन, कानून, धर्म, लिपि तथा विज्ञान आदि के बहुत से तत्त्वों के आविष्कर्ता सुमेरियन ही थे।
सुमेरियन सभ्यता की प्राचीनता
सुमेरियन सभ्यता मिस्री सभ्यता से प्राचीनतर हैं। इस सभ्यता का आविर्भाव सर्वप्रथम पश्चिमी एशिया में दजला और फ़रात, अफ्रीका में नील, तथा भारत में सिंधु की घाटियों में हुआ। इनमें सिंधु सभ्यता की न तो उदयकालीन अवस्था की पूर्ण जानकारीः मिल सकी है और न राजनीतिक इतिहास ही ज्ञात है। कुछ ऐसे संकेत मिलते हैं जिनसे लगता है कि यह सभ्यता संभवतः सुमेरियन और मिस्री सभ्यताओं से भी पुरानी थी, किंतु इनके आधार पर निश्चित निष्कर्ष निकालना असंभव है। इसके विपरीत पुरातात्त्विक और आभिलेखिक साक्ष्यों से सुमेरियन और मिस्री सभ्यताओं के विकास की क्रमिक अवस्थाओं की पर्याप्त जानकारी मिल चुकी है और उनके राजनीतिक इतिहास की एक रूपरेखा भी प्रस्तुत की जा सकती है। किंतु इन दोनों सभ्यताओं में कौन-सी सभ्यता प्राचीनतर है, इस संबंध में इतिहासकार एकमत नहीं हैं।
ब्रेस्टेड और इलियट स्मिथ जैसे बहुत से विद्वानों का विचार है कि मिस्र में सभ्यता का आविर्भाव सुमेर से पहले हुआ था। ऐतिहासिक युग के आरंभ में जब सुमेर बहुत-से नगर राज्यों में विभाजित था, उस समय मिस्र में संयुक्त राज्य की स्थापना हो चुकी थी। जाता है, जो प्रारंभिक मिस्री सभ्यता की विकसित अवस्था का सूचक है। किंतु विल ड्यूरेण्ट के अनुसार जैसे-जैसे सभ्यताओं के संबंध में जानकारी बढ़ती है, वैसे-वैसे इस बात की संभावना बढ़ती जाती है कि सुमेरियन सभ्यता मिस्री सभ्यता से प्राचीनतर है। जिस समय मिस्र की सभ्यता का इतिहास प्रारंभ होता है, सुमेरियन कलाकार ऐसी मूर्तियाँ बनाने लगे थे जिनका निर्माण कई शताब्दियों के अनुभव से ही संभव था। यद्यपि परवर्ती साक्ष्यों से मिस्र के राजनीतिक इतिहास पर चतुर्थ सहस्राब्दी ईसापूर्व के अंतिम चरण से ही सूचना मिलने लगती है, फर भी, सुमेर के प्राचीनतम् अभिलेख और विधि संहिताएँ मिस्री अभिलेखों से निश्चितरूप से प्राचीनतर हैं। द मोर्गों का मानना है कि ताम्र का प्रयोग भी मिस्र में सुमेर से कुछ बाद में प्रारंभ हुआ था। रथ, पहिये और कुम्हार के चाक के संबंध में भी यही कहा जा सकता है। प्राग्वंशीय पुरातात्त्विक स्रोतों के अनशीलन के आधार पर हेनरी फ्रैंकफर्ट भी मानते हैं कि प्रारंभिक राजवंशों के काल में मिस्र पर सुमेरियन संस्कृति का निश्चितरूप से प्रभाव पड़ा था। इसका संकेत विशेषतः सुमेरियन ढंग की बेलनाकार मुद्राओं से भी मिलता है जो मिस्र के प्राचीनतम् युग में मिलती हैं और इसके बाद एकदम विलुप्त हो जाती हैं। मैस्पेरो के अनुसार तो मिस्र की प्राग्वंशीय लिपि भी सुमेरियन लिपि से प्रभावित थी। किंतु इसका आश्य यह नहीं है कि सुमेरियन प्रभाव के बिना मिस्र की संस्कृति का उदय और विकास असंभव था। इतना निश्चित है कि मिस्री सभ्यता का उदय और विकास स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार हुआ था और यदि उसकी उदयकालीन अवस्था पर सुमेरियन सभ्यता प्रभाव पड़ा भी हो, तो वह नगण्य ही रहा। यही नहीं, मिस्र के निवासियों ने अपनी सभ्यता को शीघ्र ही इतना विकसित कर लिया कि उसके सामने सुमेर की सभ्यता भी फीकी पड़ गई। फिर भी इतना स्पष्ट है कि मिस्र के प्रारंभिक ऐतिहासिक युग में भी सुमेरियन संस्कृति का पर्याप्त विकास हो चुका था।
ऐतिहासिक साधन
यहूदी और यूनानी साहित्य
आज से लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व तक पश्चिमी एशिया की प्राचीन सभ्यताओं के इतिहास जानने के मुख्य साधन यूनानी साहित्य और यहूदी धर्मग्रंथ थे। किंतु ये ग्रंथ कैल्डियनों, असीरियनों और बेबीलोनियनों से परिचित होते हुए भी सुमेरियनों से सर्वथा अनभिज्ञ थे। यहूदी बाइबिल से असीरियन और कैल्डियन इतिहास की जानकारी मिलती है, किंतु प्राचीन बेबीलोन और सुमेर के इतिहास पर इससे कोई प्रकाश नहीं पड़ता है।
बाइबिल में एक स्थान पर किसी जाति के पूर्व से शिन्नार (सुमेर) में आकर बसने का उल्लेख है, किंतु इसे असंदिग्ध रूप से सुमेर का पर्याय नहीं माना जा सकता है। ‘इतिहास का पिता’ कहे जाने वाले यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस ने जब पाँचवी शताब्दी ईसापूर्व में फारस और यूनान के संघर्ष का इतिहास लिखने के लिए बेबीलोनिया और मिस्र जैसे देशों की यात्रा की, तब उसने किसी से भी ‘सुमेर’ और ‘सुमेरियन’ शब्द नहीं सुना था। पाँचवी शताब्दी ईसापूर्व का दूसरा यूनानी लेखक टीसियस हखामनी सम्राट् अर्तजवीज का राजवैद्य रहा था। किंतु उसकी पुस्कों में भी हखामनी शासनकाल से पहले के इतिहास के बारे में काल्पनिक आख्यानों के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
कैल्डियन विद्वान् बेरोसॉस 280 ईसापूर्व में एंटियोकस सोटर के शासनकाल में बेबीलोन में मर्दुक के मंदिर में पुजारी था। उसने बेबीलोनिया का इतिहास लिखा, किंतु प्रलय-संबंधी सुमेरियन आख्यानों से परिचित होते हुए भी वह सुमेरियन जाति और सभ्यता से पूर्णतः अनभिज्ञ था। इसी प्रकार कैल्डिया का अंतिम सम्राट नवोनिडस (555-538 ई.पू.) भी सारगोन से परिचित होते हुए सुमेरियनों से अपरिचित था। उसने कहीं भी सुमेरियन राजाओं का उल्लेख नहीं किया है।
पुरातात्त्विक साक्ष्य
आधुनिक काल में सुमेरियन, बेबीलोनियन और असीरियन सभ्यताओं को प्रकाश में लाने का श्रेय किंग टॉमस, दि सरजाक, लेयार्ड रॉलिंसन, जार्ज स्मिथ, लियोनार्ड वूली जैसे पुरातत्त्ववेत्ताओं को है। इन्होंने 19वीं शताब्दी के मध्य में असीरियनों का इतिहास जानने के लिए बेबीलोनिया में उत्खनन कार्य प्रारंभ किया। किंतु बेबीलोनिया के प्राचीन स्तरों में इन्हें एक और जाति के अस्तित्व के प्रमाण मिले। 1850 ईस्वी में सर्वप्रथम हिंक्स ने बताया कि बेबीलोनियन सेमाइटों को कीलाक्षर (क्यूनीफॉर्म) लिपि की जानकारी एक अन्य प्राचीनतर जाति से हुई थी, जो अपने भूक्षेत्र को सुमेर या शिनार कहती थी। ऑपर्ट ने इस अज्ञात जाति को सुमेरियन नाम दिया। लगभग उसी समय अंग्रेज पुराविद् रालिंसन ने बिहिस्तून के पास एक ऊँचे टीले पर ईरानी शासक डेरियस का एक शिलालेख खोज निकाला, जिसमें फारसी और बेबीलोनियन भाषा का मिश्रण था। इससे सुमेरियन भाषा का ज्ञान बढ़ा और सुमेरियन लेखों को पढ़ा जाना संभव हुआ।
इसके बाद उन्नीसवीं सदी के मध्यकाल से लेकर अंतिम चरण तक उर, एरिडु, उरुक (एरेक), लगश आदि नगरों का उत्खनन किया गया और अनेक उपयोगी सूचनाएँ प्रकाश में आईं। 19वीं शताब्दी ई. के अंतिम चरण में फ्रेंच विद्वानों ने लगश नगर से सुमेरियन राजाओं की सूचियाँ प्राप्त की। अमरीकी विद्वान् लियोनार्ड वूली ने 1922-1929 ईस्वी के बीच लगभग सात वर्ष तक पेंसिलवानिया विश्वविद्यालय संग्रहालय तथा ब्रिटिश संग्रहालय के संयुक्त तत्वावधान में ईरान के प्राचीन नगर उर का उत्खनन किया। लियोनार्ड वूली को खुदाई में ‘उर की प्रसिद्ध राजसमाधि’ के साथ कोष, मिट्टी की तख्तियाँ, इमारतों के खंडहर तथा विभिन्न कलात्मक वस्तुएँ मिलीं, जो ‘उर ऑफ द कैल्डीज’ में प्रकाशित हुईं। इससे सुमेरियन सभ्यता के प्राचीनतम् ऐतिहासिक युग की जानकारी मिली। इसके बाद 1948 ई. में ओरियंटल इंस्टीट्यूट ऑफ द यूनीवर्सिटी ऑफ शिकागो तथा यूनीवर्सिटी म्यूजियम इन फिलाडेल्फिया के तत्त्वावधान में निप्पुर में पुनः उत्खनन करके अनेक महत्त्वपूर्ण अभिलेख खोज निकाले गये। इस प्रकार पुरातात्विक खोजों कारण आज सुमेरियनों के संबंध में जितनी सूचनाएँ मिल चुकी हैं, उतनी संभवतः अन्य किसी भी प्राचीन जाति के संबंध में नहीं मिली है। उनकी मूर्तियों, मुद्रा-चित्र और स्थापत्य से उनकी वेषभूषा और शरीर-संरचना पर और उनके मंदिरों, महलों, औजारों, अस्त्र-शस्त्रों, वाद्य-यंत्रों तथा आभूषणों इत्यादि के द्वारा उनकी भौतिक सभ्यता तथा दैनिक सुख-सुविधाओं पर प्रकाश पड़ता है। यही नहीं, हजारों की संख्या में प्राप्त उनके अपने अभिलेखों और मुद्राओं तथा परवर्ती युग के बेबीलोनियन अभिलेखों से भी उनके सामाजिक और राजनीतिक संगठन, आर्थिक व्यवस्था, ज्ञान-विज्ञान, धर्म, दर्शन तथा साहित्य की जानकारी मिलती है।
सुमेरियन जाति
इतिहास के प्रारंभ से ही बेबीलोनिया में दो जातियाँ निवास करती थीं- उत्तरी बेबीलोनिया अर्थात् अक्काद में सेमेटिक और दक्षिणी बेबीलोनिया अर्थात् सुमेर में सुमेरियन। किंतु दोनों ही जातियाँ न केवल शारीरिक बनावट, बल्कि भाषा, वेशभूषा और रहन-सहन में भी परस्पर भिन्न थीं। सुमेरियनों का कद नाटा, नाक ऊँची और नुकीली, बाल काले और माथा पीछे की ओर ढलुआ होता था। सुमेरियन सिर को सदैव और मुख को प्रायः केशरहित रखते थे। मूँछ रखने की प्रथा बिलकुल नहीं थी। इसके विपरीत, सेमाइट दाढ़ी और बाल रखते थे। इन दोनों जातियों में मेसोपोटामियन सभ्यता को जन्म देने का श्रेय सुमेरियनों को प्राप्त है।
मेसोपोटामियन सभ्यता के जन्मदाता सुमेरियन वास्तव में किस जाति से संबद्ध थे, यह स्पष्ट नहीं है। सुमेरियन नाम जातिवाची नहीं है, क्योंकि यह नाम तो उन्हें सुमेर नामक भूभाग में बसने के कारण मिला था। अधिकांश इतिहासकारों का अनुमान है कि वे सुमेर के मूल निवासी नहीं थे, बल्कि किसी दूसरे भूभाग से किसी समय आकर यहाँ बस गये थे। किंतु सुमेरियन कौन थे, कब और कहाँ से आये थे, इन प्रश्नों का निर्णयात्मक उत्तर नहीं दिया जा सका है। इसका सबसे बड़ा कारण सुमेरियनों की भाषा है। सुमेरियनों की भाषा में कई भाषाओं का संमिश्रण है, जिसकी समता न तो किसी सेमेटिक भाषा से की जा सकती है और न ही किसी भारोपीय भाषा से। इससे अनुमान किया जाता है कि सुमेरियन जाति के आगमन के पूर्व इस प्रदेश में सेमेटिक जाति की कोई अत्यंत प्राचीन शाखा बसी हुई थी, जिसको पराजित करके सुमेरियनों ने इस प्रदेश पर अधिकार स्थापित किया और उनकी संस्कृति के कुछ तत्त्वों को आत्मसात् कर लिया। प्रायः सभी इतिहासकार मानते हैं कि सुमेरियन सेमेटिक जाति के नहीं थे और सुमेर में इनका आगमन पूरब से हुआ था। पुरानी बाइबिल (ओल्ड टेस्टामेंट) में भी एक स्थान पर एक शिकारी जाति के पूर्व से आकर ‘शिन्नार’ (सुमेर) में बसने का उल्लेख मिलता है। संभवतः यह संकेत सुमेरियनों की ओर ही है।
ओल्ड टेस्टामेंट के आधार पर हॉल जैसे इतिहासकारों का अनुमान है कि यदि सुमेरियन पूरब से आये थे, तो उनका संबंध भारत की द्रविड़ जाति से हो सकता है। बलूचिस्तान में आज भी द्रविड़ जाति के अस्तित्व के संकेत मिलते हैं। फारस में ईरानी आर्यों के आगमन के पूर्व जो जाति निवास करती थी, वह भी द्रविड़ जाति से मिलती-जुलती थी। इस आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि सुमेरियन मूलतः सिंधुघाटी के निवासी थे। वहाँ से वे बलूचिस्तान और फारस होते हुए दजला और फरात की घाटियों में जाकर बस गये। संभवतः वे समुद्र मार्ग से सुमेर आये थे, क्योंकि एक असीरियन आख्यान में कहा गया है कि ओऑनिज नामक देवता ने, जो समुद्री मार्ग से आया था, सुमेर के निवासियों को सभ्य बनाया।
ब्रैडेल मानते हैं कि सुमेरियन वस्तुतः आर्य थे और उनके शासकों का तादात्म्य पुराणों में उल्लिखित प्राचीन आर्य राजाओं के साथ स्थापित किया जा सकता है। प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता लैंगडन के अनुसार मोहनजोदड़ो की लिपि और मुहरें, सुमेरियन लिपि और मुहरों से मिलती-जुलती हैं। सुमेर के प्राचीन नगर उर के उत्खनन में हड़प्पाई बर्तन पाये गये हैं। मोहनजोदड़ो के कूबड़वाले बैल की मूर्ति सुमेर के पवित्र वृषभ से मिलती है। यही नहीं, हड़प्पा में मिले सिंगारदान की बनावट भी उर में मिले सिंगारदान जैसी ही है। ‘सुमेर’ शब्द भी पौराणिक सुमेरु पर्वत की याद दिलाता है। इन तथ्यों के आलोक मे पुराविदों का अनुमान है कि सुमेरियनों और हड़प्पाइयों के बीच विशेष संबंध था। यद्यपि यह मत सत्य के निकट प्रतीत होता है, किंतु ज्ञान की वर्तमान अवस्था में सुमेरियनों को द्रविड या आर्य मानना संभव नही है।
सुमेरियन तथा मंगोलियन भाषा की कतिपय समानताओं के आधार पर पिजॉन तथा बॉल जैसे कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि सुमेरियन मूलतः मंगोलिद परिवार से संबद्ध थे। इलियट स्मिथ जैसे कुछ इतिहासकार सुमेरियनों को विदेशी न मानकर सुमेर का ही मूल निवासी बताते हैं और उन्हें भूमध्यसागरीय जाति की कत्थई रंग की शाखा से संबंधित करते हैं। किंतु इस मत को भी स्वीकार करना कठिन है क्योंकि इलियट प्रागैतिहासिक मिस्र के निवासियों को भी भूमध्यसागरीय जाति का अंग मानते हैं, जिनकी शारीरिक विशेषताएँ निश्चित रूप से सुमेरियनों से भिन्न थीं। इस प्रकार स्पष्ट है कि सुमेरियन और प्रागैतिहासिक मिस्री, दोनों ही भूमध्यसागरीय जाति के सदस्य नहीं हो सकते हैं।
जो भी हो, इतना निश्चित है कि सुमेरियन कुछ समय तक एलम में रहे थे और वहाँ अपनी सभ्यता की छाप छोड़ी थी। सुमेरियन भाषा में ‘कुर’ शब्द का अर्थ ‘देश’ और ‘पर्वत’ दोनों होता है। उन्होंने लिपि में नदी और झील के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग किया है, उनसे स्पष्ट है कि वे अपने मूल देश में नदियों से अपरिचित, किंतु झीलों मे परिचित थे। भौगोलिक दृष्टि से भी सुमेरियन किसी पर्वतीय प्रदेश के मूल निवासी प्रतीत होते हैं क्योंकि वे अपने देवताओं का निवास पूरब दिशा में स्थित एक पर्वत पर मानते थे और प्राचीन युग में अपने मकान लकड़ी के बनाते थे। इससे स्पष्ट है कि उनका निवास किसी ऐसे स्थान पर था, जहाँ पर्वत और जंगल बहुतायत में थे। पर्वतीय प्रदेश से इनके संबंध का एक प्रमाण इनका ‘जिगुरत’ नामक भवन भी है। इस प्रकार सुमेरियन मूलतः एलम के निवासी प्रतीत होते हैं, क्योंकि यह प्रदेश पर्वतीय था और यहाँ जंगलों की बहुलता थी। पुरातात्विक खोजों से भी स्पष्ट है कि एलम की प्राचीन सभ्यता में बहुत से सुमेरियन तत्व मिलते हैं।
राजनीतिक इतिहास
सुमेर और अक्काद का ज्ञात राजनीतिक इतिहास लगभग 3200 ई. पू. से प्रारंभ होता है। उस समय ये दोनों प्रदेश छोटे-छोटे प्रतिस्पद्धी नगर-राज्यों में विभाजित थे। इनमें अक्काद के किशु, सिप्पर, कुथा तथा ओपिस और सुमेर के एरेक (उरूक), लारसा, ईशिन, लगश, उर तथा एरिडु इत्यादि नगर राज्य अपने-अपने सीमित भू-क्षेत्र में एक-दूसरे से लगे हुए विकसित हुए थे। इनमें एरिडु, एरेक (उरूक) तथा उर फरात के पश्चिम में, निप्पुर, ईशिन तथा लारसा पूर्व में, किश तथा बेबीलोन निकट-पूर्व में और लगश दोनों नदियों के बीच में स्थित थे। इन नगर-राज्यों के अध्ययन करने से पता चलता है कि 3200 ईसापूर्व के पहले ही इनका उत्कर्ष काल बीत चुका था।
बेरोसॉस के इतिहास, कीलाक्षर (क्यूनीफॉर्म) अभिलेखों और विभिन्न नगरों के उत्खननों से प्राप्त पुरावशेषों के आधार पर सुमेरिया के राजनीतिक इतिहास को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- पौराणिक काल और ऐतिहासिक काल, जिन्हें प्राक्-प्रलयकाल और प्रलयोत्तरकाल भी कहा जाता है।
पौराणिक काल
प्राक्-प्रलयकालीन सुमेरियन इतिहास बेबीलोनिया के पौराणिक आख्यानों पर आधारित है। बेरोसॉस के अनुसार 3200 ई.पू. से पहले बेबीलोनिया के निवासी बर्बर और असभ्य थे। सर्वप्रथम ओऑनिज नामक एक देवता, जो आधा मछली था, समुद्र से निकल कर आया; उसने सुमेरियनों को खेती करना, लिखना तथा अन्य अनेक कलाएँ और विज्ञान सिखाये। ओऑनिज और उसके उत्तराधिकारियों ने लंबे समय तक शासन किया। इस वंश के अंतिम शासक एक्सीसूथ्रोस के शासनकाल में जल-प्रलय हुआ।
कीलाक्षर (क्यूनीफॉर्म) अभिलेखों से पता चलता है कि प्राक्-प्रलयकालीन सुमेरिया स्वर्ग के समान था, जहाँ सभी प्रकार की समृद्धि थी, किंतु जिद या ‘ज्युसुद्र (बेरोसॉस का एक्सीसूथ्रोस) के शासनकाल में जलप्रलय हुआ और सब कुछ नष्ट हो गया। जलप्रलय के इस आख्यान को पूर्णतः काल्पनिक नहीं माना जा सकता है, क्योंकि लियोनार्ड वूली को 1929 ई. में उर नगर के उत्खनन के दौरान 60 मीटर नीचे 12 मीटर मोटी मिट्टी एवं तलछट का जमाव मिला है, जो संभवतः महाप्रलय के कारण ही बना था। इसके नीचे पुनः विकसित सभ्यता के अवशेष मिलने से लगता है कि इसी सभ्यता का वर्णन प्रलयकालीन इतिहास में किया गया है।
प्राक्-प्रलयकालीन सुमेरियन राज्यों में एरिडु, बैद तिबिरा, लरक, सिप्पर तथा शुरुप्पक का उल्लेख मिलता है। इनमें एरिडु प्राचीनतम् राज्य था, जहाँ के पौराणिक शासक एलुलिम तथा अलल्गर ने अनुश्रुतियों के अनुसार क्रमशः 28,800 वर्ष तथा 36,000 वर्ष तक शासन किया। इसके पश्चात् दो राजाओं ने कुल 64,800 वर्ष तक राज्य किया। एरिडु के बाद राजनीतिक शक्ति बैद तिबिरा में स्थानांतरित हो गई, जहाँ तीन राजाओं ने, जिनमें स्वयं दुमुजी भी था, 1,08,000 वर्ष तक शासन किया। इसके बाद लरक के एक शासक ने 28,000 वर्ष तक, सिप्पर के एक शासक ने 21,000 वर्ष तक तथा शुरुप्पक के एक शासक ने 18,800 वर्ष तक शासन किया। इसके बाद महाप्रलय हुआ और सभी नगर काल-कवलित हो गये। उसी के भगनावशेष के ऊपर कालांतर में ऐतिहासिक सभ्यता का विकास हुआ।
प्राक्-प्रलयकालीन सुमेरियन इतिहास में सत्य और कल्पना का ऐसा मिश्रण गिलगामेश आख्यान में भी मिलता है। गिलगामेश एरेक का पौराणिक शासक था, और शमश नापिश्तिम नामक आदि पुरुष का, जो महाप्रलय में भी बच गया था, वंशज था। गिलगामेश अत्यंत वीर और शक्तिशाली शासक था, जिसने हुम्बाबा नामक दैत्य का वध किया था। यद्यपि पौराणिक आख्यानों को पूर्णतः सत्य नहीं माना जा सकता है, किंतु इन आख्यानों में नगरों को स्वतंत्र राज्यों के रूप में दिखाया गया है। आभिलेखिक साक्ष्यों से भी ज्ञात होता है कि प्राक्-प्रलयकाल में सुमेर, उर, किश, एरेक तथा लगश की प्रतिष्ठा अधिक थी। इनमें उर सुमेर के प्राचीनतम् राजवंशों का शासन-क्षेत्र होने के कारण सर्वाधिक प्रसिद्ध था।
ऐतिहासिक काल
प्रांरभिक राजवंश
सुमेरियन अभिलेखों से पता चलता है कि जलप्रलय के पश्चात् 3200 ईसापूर्व के आसपास सुमेर में क्रमशः किश, एरेक तथा उर नगर-राज्यों का प्रभुत्व स्थापित हुआ। इनमें किश का प्रभुत्व 24,000 और एरेक का 2,000 वर्षों तक माना गया है, जो स्पष्टतः असंभव है। किंतु उर का उत्कर्ष एक ऐतिहासिक घटना है। उर के इस प्रथम राजवंश की स्थापना मेस-अन्ने-पद्द ने 3200 ईसापूर्व के लगभग की थी। उर के इस प्रथम राजवंश को सुमेर का प्रथम ऐतिहासिक वंश कहा जा सकता है क्योंकि एक तो, अभिलेखों में उर के इस राजवंश के चार शासकों का शासनकाल 177 वर्ष माना गया है, जो असंभव नहीं है, और दूसरे, उर के उत्खनन में मिली समाधियों के अवशेष इसी समय के हैं।
किश के प्रथम राजा का नाम उतुग (लगभग 3100 ईसापूर्व) था, जो जाति से सुमेरियन था। उसके कुछ समय बाद किश पर सेमाइटों का अधिकार हो गया। किंतु किश के अंतिम सेमाइट शासक को एरेक के सुमेरियन शासक एन-शकुश-अन्ना ने अपदस्थ कर दिया और शीघ्र ही उर पर भी अधिकार कर लिया। इस प्रकार किश के पश्चात् सुमेर में एरेक का प्रभुत्व स्थापित हुआ।
किंतु प्रांरभिक राजवंश काल में सबसे शक्तिशाली राज्य लगश था। लगश के राजवंश का संस्थापक उर-नन्शे था। उसने उर को पराजित किया, और उम्मा के शासक को हराया। उसे अनेक नहरें, मंदिरों और अन्नागारों के निर्माण का श्रेय दिया गया है। उसके एक उत्तराधिकारी इयन्नातुम ने भी उम्मा नगर-राज्य को पराजित किया, जिसका उल्लेख उसके प्रसिद्ध ‘गृध्र-पाषाण’ में मिलता है। इसके अलावा, उसने किश, एरेक, उर तथा एलम के शासकों को भी पराजित किया था। उम्मा और लगश के बीच झगड़े का प्रमुख कारण शत-एल-हई नामक नहर के जल का बटँवारा था।
इयन्नातुम के बाद उसके भतीजे एंतेमेन के समय में पुनः लगश और उम्मा से संघर्ष आरंभ हो गया। संभवतः मारी के शासक इस संघर्ष में उम्मा की मदद कर रहे थे। एंतेमेन की उपलब्धियों का वर्णन मिट्टी के लेखों में मिलता है, जिनसे लगता है कि वह लगश की प्रतिष्ठा बहाल करने में सफलता हुआ था।
इस वंश का अंतिम शासक उरु-कगिना (लगभग 2415-2400 ईसापूर्व) था। उरु-कगिना इतिहास में अपने न्यायिक, सामाजिक और आर्थिक सुधारों के कारण जाना जाता है। वास्तव में उरु-कगिना के समय तक लगश के पुजारी एवं उच्चाधिकारी विजित देशों से प्राप्त धन के कारण बहुत आलसी तथा विलासी हो गये थे और सुमेर की जनता पर बहुत अत्याचार करते थे। उरु-कगिना ने राज्य में फैली अराजकता को समाप्त करने के लिए बहुत से करों को बंद करा दिया और पुजारियों पर कड़ा प्रतिबंध लगा दिया। यह इतिहास की पहली घटना है कि जब किसी शासक ने प्रचलित करों को कम किया था। किंतु उरु-कगिना के इन सुधारों के कारण राज्य का उच्च वर्ग उसके विरुद्ध हो गया और उम्मा के शासक लूगल जग्गेसी ने, जो उरु-कगिना का शत्रु था, 2400 ईसापूर्व के आसपास लगश पर आक्रमण कर उसे अपदस्थ कर दिया।
एरेक का उत्कर्ष
लूगल जग्गेसी
उम्मा के शासक लूगल जग्गेसी (2400-2371 ईसापूर्व) ने एरेक को भी जीत लिया और उसे अपनी राजधानी बनाया। उसके समय में सुमेर और अक्काद का नेतृत्व एक बार पुनः एरेक के हाथ में चला गया। लूगल जग्गेसी ने किश के विद्रोह का दमन किया, ओपिस को जीता तथा पश्चिम में अमर्रु (सीरिया) और पिलीस्तीन को पराजित किया। इसी के समय में पहली बार सीरिया पर अधिकार किया गया था। अपनी विजयों के फलस्वरूप लूगल जग्गेसी ने ‘एरेक तथा सुमेर का राजा’ पदवी धारण की। लुगल जग्गेसी केवल पच्चीस वर्ष ही शासन कर सका। इसके बाद इस वंश का अंत हो गया और सुमेरिया में एक अज्ञात कुलशील, किंतु प्रतिभाशाली व्यक्ति शर्रुकिन का उदय हुआ, जिसने लुगल जग्गेसी को अपदस्थ कर एक नये राजवंश और नये साम्राज्य की स्थापना की, जिसे ‘अक्काद का साम्राज्य’ कहा जाता है।
सेमाइटों का उत्कर्ष और अक्कादी साम्राज्य
अक्कादी साम्राज्य का संस्थापक शरु-गी या शर्रुकिन अक्काद के सेमाइट कुल से संबंधित था, इसलिए उसके द्वारा स्थापित साम्राज्य को ‘सेमाइट साम्राज्य’ भी कहा जाता है। मेसोपोटामिया के इतिहास में यह पहला सेमाइट साम्राज्य था। सेमाइट बहुत प्राचीन काल से अक्काद में शांतिपरक जीवन व्यतीत कर रहे थे। इन सेमाइटों की अपनी संस्कृति समुन्नत नहीं थी, इसलिए प्रारंभ से ही इन्होंने सुमेरियन संस्कृति को अपना लिया था। शर्रुकिन की विजय से सुमेर और अक्काद के इतिहास में एक नये अध्याय का सृजन हुआ, जो सुमेरियन शक्ति के अंत और सेमेटिक जाति के सुमेरीकरण के प्रारंभ का सूचक है। इसके पश्चात् सुमेर और अकाद का इतिहास इस प्रक्रिया की क्रमिक प्रगति का इतिहास है। इसके बाद सुमेरियन राजनीतिक शक्ति के रूप में शनैः शनैः खत्म होते गये। इतना ही नहीं, एक जाति के रूप में भी उनका अंत हो गया। दूसरी ओर सेमाइट धीरे-धीरे सुमेरियन संस्कृति के रंग में रंगते गये। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप बेबीलोनिया के इतिहास में राजनीतिक उथल-पुथल होने के बावजूद सांस्कृतिक परिवर्तन बहुत अधिक नहीं हो सका। इस प्रकिया का दूसरा अध्याय बेबीलोन पर पश्चिमी सेमाइटों के आधिपत्य के युग में लिखा गया, जब सुमेरियन राजनीतिक शक्ति केवल फारस की खाड़ी के तटवर्ती प्रदेश तक सीमित रह गई। इसका अंतिम अध्याय कसाइटों के शासनकाल से संबंधित है, जिन्होंने इस समुद्रतटीय राज्य को जीतकर सुमेरियन राजनीतिक शक्ति का सदैव के लिए अंत कर दिया।
सेमाइट साम्राज्य वंश का संस्थापक सारगोन प्रथम
सेमाइट साम्राज्य वंश का संस्थापक शर्रुकिन इतिहास में सरगोन (2371-2316 ईसापूर्व) प्रथम के नाम से प्रसिद्ध है। इसे सेमेटिक इतिहास में ‘राष्ट्रीय वीर’ के रूप में याद किया जाता है। यद्यपि किंग जैसे कुछ इतिहासकारों की धारणा है कि शर्रुकिन और सारगोन दोनों अलग-अलग व्यक्ति थे। किंतु अधिकांश इतिहासकार दोनों को एक ही मानते हैं और यहाँ भी दोनों को एक ही माना गया है।
सारगोन की गणना बेबीलोनिया के महान शासकों में की जाती है। बेबीलोनिया के इतिहास में सारगोन को वही स्थान प्राप्त है, जो मिस्र में मेनिज और भारत में चंद्रगुप्त मौर्य को। सरगोन ने न केवल उम्मा के शासक लूगल-जग्गेसी को अपदस्थ कर सुमेर पर अधिकार किया, बल्कि बेबीलोनिया में प्रथम संयुक्त-राज्य की स्थापना की।
सारगोन प्रथम के प्रारंभिक जीवन और उसकी व्यक्तित्व के संबंध में अनेक पौराणिक कहानियाँ और आख्यान प्रचलित हैं। नव-असीरियन काल में लिखित एक ग्रंथ के अनुसार सारगोन का जीवन-चरित मूसा एवं कृष्ण के समान था। एक सुमेरियन आख्यान में सारगोन स्वयं कहता है : ‘‘मैं, सारगोन, शक्तिशाली राजा, अक्काद का राजा हूँ। मेरी माँ निर्धन थी; अपने पिता को मैं नहीं जानता।…. मेरी माँ ने मुझे गुप्त रूप से जन्म दिया; उसने मुझे एक नरकुल (रीड) के संदूक में बंद कर मुझे नदी में छोड़ दिया।……नदी मुझे बहाकर अक्की नाम के माली के पास ले आई।….अक्की ने मुझे पाल कर बड़ा किया, अक्की ने मुझे माली बनाया।’’ इसी आख्यान के शेष भाग में उसे किश के शासक की कृपा प्राप्त करने और अंत में विद्रोह द्वारा राज्य हस्तगत करते दिखाया गया है।
अनुश्रुति की ऐतिहासिकता पर विश्वास करना कठिन है क्योंकि ऐतिहासिक शोधों से ज्ञात होता है कि सारगोन का पिता दति एमलिल किश के राजा के अधीन अक्काद प्रदेश के एक छोटे से नगर का अधिकारी था। अपने पिता की भाँति सारगोन भी कुछ समय किश में एक उच्च पदाधिकारी रहा था। बाद में उसने विद्रोह करके किश पर अधिकार कर लिया।
किश पर अधिकार करने के बाद सारगोन प्रथम ने एरेक के लूगल-जग्गेसी को पराजित कर उसका मान-मर्दन किया। कहा जाता है कि लूगल जग्गेसी के पास पचास एनसी थे, फिर भी उसको पराजित करने में सारगोन को कोई कठिनाई नहीं हुई।
सारगोन की सामरिक उपलब्धियाँ
लूगल जग्गेसी के मान-मर्दन और एरेक पर अधिकार करने के बाद सारगोन ने उर, लगश तथा उम्मा जैसे सभी सुमेरियन और अक्कादी नगर-राज्यों को जीत लिया और सभी प्रमुख नगरों में मंदिर और राजप्रासाद बनवाये। तत्कालीन अभिलेखों से भी पता चलता है कि सारगोन ने बेबीलोनिया के उत्तर तथा पूर्व में स्थित गुती प्रदेश, जागरोस के पर्वतीय प्रदेश तथा पूर्वी एशिया माइनर में भी सफलता प्राप्त की। सुमेर पर अपने पूर्ण प्रभुत्व का प्रदर्शन के लिए उसने एक प्रतीकात्मक अभियान किया और अपने अस्त्रों को फारस की खाड़ी में स्नान करवाया।
इन समकालीन स्रोतों के अलावा, बेबिलोनियन जनश्रुतियों से भी सारगोन की सफलता के संबंध में कुछ सूचनाएँ मिलती हैं। निनेवेह से प्राप्त सातवीं शताब्दी ईसापूर्व के एक शकुन-सूचक अभिलेख में कहा गया है कि उसने पश्चिमी समुद्र (भूमध्यसागर) को पार कर दक्षिण-पूर्वी द्वीप समूह पर तीन वर्ष तक शासन किया। एक अन्य अभिलेख के अनुसार उसने फारस की खाड़ी तक अपनी सत्ता स्थापित की और दिलमुन द्वीप को अपने अधीन किया। संभवतः उसने एलम पर भी कई बार आक्रमण किये थे। किंतु लगता है कि इन आक्रमणों का उद्देश्य एलम को विजित करना नहीं, बल्कि केवल लूटपाट करना था। कुछ इतिहासकार सारगोन को भूमध्य सागर पारकर इजियन द्वीपसमूह पर भी अधिकार करने का श्रेय देते हैं, किंतु यह मत संदिग्ध है। सुदूर कप्पाडोसिया से सारगोन प्रथम के संबंधों की पुष्टि तेल-अमर्ना से 1913 ईस्वी में प्राप्त एक तख्ती से होती है, जिसके अनुसार बुरुशंड नगर में व्यापारियों ने सारगोन प्रथम से सहायता की याचना की थी। अधिकांश विद्वानों का अनुमान है कि सारगोन का राज्य पश्चिमी प्रदेश (सीरिया) से पूर्वी समुद्र (फारस की खाड़ी) तक विस्तृत रहा होगा।
सारगोन प्रथम की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
सारगोन प्रथम एक विजेता और कुशल प्रशासक होने के साथ-साथ महान सुधारक भी था। अपनी सामरिक योजनाओं को कार्यान्वित करने के साथ-साथ उसके निर्देशन में न केवल प्रशासनिक सुधार किये गये, बल्कि अनेक मंदिर एवं राजप्रासाद बनवाये और सिंचाई की समुचित व्यवस्था की गई। सारगोन ने सुमेरियन कानूनों एवं धार्मिक ग्रंथों को संग्रहीत कर सेमिटिक भाषा में अनुवाद करवाया और उन्हें मंदिरों में संरक्षित किया। लगभग दो हजार वर्ष बाद असीरियन सम्राट अशुरबनिपाल की आज्ञा से उनकी प्रतिलिपियाँ बनाई गईं। सारगोन ने समस्त साम्राज्य में संदेश-संचार प्रणाली को भी व्यवस्थित किया। उसकी एक पुत्री एन्हेदुआना उर में चंद्रदेव की पुजारिन थी, जिसे सुमेरियन भजनों को संरक्षित करने का श्रेय प्राप्त है। सारगोन की महान् सफलताओं के कारण ही अक्काद वंश के आधिपत्य का समय ‘सारगोन का युग’ के नाम से जाना जाता है। परवर्ती काल में बेबीलोन के शासक सदैव सागोन को एक आदर्श राजा मानते रहे और उसके समान बनने का प्रयास करते रहे। इस प्रकार सारगोन प्रथम का शासनकाल राजनीतिक एवं सांस्कृतिक समुन्नयन की दृष्टि से महत्वपूर्ण था। सारगोन प्रथम को अपने 56 वर्षीय शासनकाल के अंतिम दिनों में सामूहिक विद्रोह का सामना करना पड़ा। अंततः विद्रोहियों ने उसे बेदी बना लिया और लगभग 2316 ईसापूर्व में उसकी मृत्यु हो गई।
सारगोन प्रथम के उत्तराधिकारी
सारगोन प्रथम के बाद उसका पुत्र रिमुश (2316-2306 ईसापूर्व) सेमाइट वंश का उत्तराधिकारी हुआ। यद्यपि उसने बड़े उत्साह से विद्रोहियों से निपटने का प्रयास किया, लेकिन अल्पकालीन शासन के बाद किसी सेवक ने उसकी हत्या कर दी। रिमुश के बाद उत्तराधिकार उसके जुड़वा भाई मनिश्तुसु (2269- 2306-2292 ईसापूर्व) को मिला। मनिश्तुसु ने फारस की खाड़ी के विरुद्ध एक सैनिक अभियान भेजा और समुद्रपार के 32 नगरों के राजाओं को पराजित किया।
मनिश्तुसु के पश्चात् उसका पुत्र नरामसिन (2291-2255 ईसापूर्व) इस वंश का दूसरा प्रतापी शासक था। नरामसिन का शासनकाल युद्धों एवं सैनिक अभियानों से भरा पड़ा है। उसके समय के अभिलेखों और नबोनिडस की पुरातात्विक खोजों से पता चलता है कि उसने लुल्लुबी के शासक सतुनी को पराजित किया और इस विजय के उपलक्ष्य में ‘नरामसिन-पाषाण’ नामक स्मारक बनवाया था, जिसे अक्कादी युग की सर्वोत्तम कलाकृति माना जा सकता है। उसने एलम, मेसोपोटामिया के उत्तर-पूर्व और मागन (पूर्वी अरब) में भी अपनी विजय पताका फहराई। बेबीलोनियन अनुश्रुतियों में भी उसकी एलम और मागन विजयों का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार नरामसिन ने सुमेर एवं अक्काद की क्षीण शक्ति को पुनः पुनर्जीवित करने का प्रयास किया और ‘चतुर्दिक (ब्रह्मांड) का स्वामी’ तथा ‘अक्काद के देवता’ की उपाधि धारण की।
सेमाइटों का सांस्कृतिक कायाकल्प
अकादी वंश के प्रभुत्व की प्रथम शताब्दी सुमेर और अक्काद की संस्कृति के चरमोत्कर्ष का काल है। छोटे-छोटे नगर-राज्यों को संगठित करके अक्कादी शासकों ने प्रथम महान् सेमेटिक साम्राज्य की स्थापना की। यद्यपि यह साम्राज्य स्थायी सिद्ध नहीं हुआ, फिर भी इसकी स्मृति सहस्राब्दियों तक प्रेरणा का स्रोत बनी रही। सेमाइटों ने सुमेरियन लिपि अपनाई, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था तथा युद्धकला में सुमेरियनों से शिक्षा प्राप्त की, पंचांग (कैलेंडर) तथा भार और नाप के परिमाणों का ज्ञान प्राप्त किया और उद्योग-धंधे तथा विविध कलाएँ सीखी। स्थापत्य में शीघ्र ही वे अपने गुरुओं की समता करने लगे और मुद्रा निर्माण कला में तो वे उनसे आगे निकल गये।
अक्कादी सेमाइटों का हृास और पतन
नरामसिन के बाद 2255 ईसापूर्व में शर-कलि-शर्री अक्कादी साम्राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। इसे आंतरिक झगड़ों में उलझा देखकर एलम के गवर्नर पुजुर-इंशुशिनक ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। लगभग 2230 ईसापूर्व में शर-कलि-शर्री भी आंतरिक विद्रोह और षड्यंत्र का शिकार हो गया। इसके बाद अक्कादी वंश का तेजी से अधःपतन होने लगा। शर-कलि-शर्री के बाद उत्पन्न अराजकता का लाभ उठाकर अनेक राज्यों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी।
गुती का उत्कर्ष
सारगोन प्रथम के अक्कादी साम्राज्य का अंत गूती नामक एक जाति ने किया। गुती टाइग्रिस और ज़ाग्रोस पर्वत के बीच की पहाड़ियों में रहने वाली एक खूंखार और बर्बर जाति थी। 2250 ईसापूर्व के आसपास इन गुतियों ने आक्रमण कर संपूर्ण उत्तरी और दक्षिणी बेबीलोनिया तथा एलम पर अधिकार कर लिया और लगभग 125 वर्ष (2250-2120 ईसापूर्व) तक इस क्षेत्र पर अपना आधिपत्य बनाये रखा। इन गुतियों के संबंध में कुछ नामों के अलावा और कोई सूचना नहीं है। इस गुती आधिपत्य का अंत संभवतः एरेक के राजा एनसी उतु-हेगल ने किया।
एनसी उतु-हेगल (2120-2113 ईसापूर्व)
गुतियों के अराजकतापूर्ण शासन से मुक्त कराने का श्रेय एरेक (उरूक) के एनसी उतु-हेगल को है, जिसने कई नगर राज्यों की सहायता से 2120 ईसापूर्व के आसपास अंतिम गुति शासक तिरिकन को बंदी बना लिया और स्वयं शासक बन बैठा। एरेक की इस सफलता से सुमेरियन जाति के पुनरुस्थान का युग आरंभ हुआ। एनसी उतु-हेगल (2120-2113 ईसापूर्व) के नेतृत्व में एरेक (उरूक) का गौरव तो बढ़ा, किंतु शीघ्र ही उर के गवर्नर उर-नम्मु ने उसकी हत्या करके सिंहासन पर अधिकार कर लिया।
लगश का द्वितीय साम्राज्य (2200-2110 ईसापूर्व)
जिस समय उर-नम्मु के सफल नेतृत्व में उर नगर-राज्य विकासमान था, उसी समय लगश के प्रसिद्ध पटेसी गुडिया के नेतृत्व में लगश में एक नवीन साम्राज्य की स्थापना हुई, जिसे सुमेरियन इतिहास में ‘लगश का द्वितीय साम्राज्य’ कहा जाता है। यद्यपि एक विजेता के रूप में गुडिया को एलम पर आक्रमण करने के अतिरिक्त कोई विशेष सफलता नहीं मिली, फिर भी, वह अपने धार्मिक कृत्यों, उदारता, न्यायप्रियता और भवन-निर्माण में रुचि रखने के कारण सुमेर के इतिहास में प्रसिद्ध रहा है। उसके लेखों से पता चलता है कि उसके व्यापारिक संबंध मगन, मेलुहा, गूबी तथा दिल्मुन से थे। उसके बाद लगश का गौरव घटने लगा और उसका स्थान उर के नगर-राज्य ने ले लिया।
उर का तृतीय राजवंश (2112-2004 ईसापूर्व)
उर-नम्मु ने एरेक के एनसी उतु-हेगल की हत्या कर उर में जिस नये राजवंश की स्थापना की थी, वह मेसोपोटामिया के इतिहास में ‘उर का तृतीय राजवंश’ के नाम से प्रसिद्ध है। उर-नम्मु ने एरेक, निप्पुर, लगश तथा उर में अनेक भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया।
उर-नम्मु (2112-2094 ईसापूर्व) द्वारा स्थापित साम्राज्य सारगोन प्रथम के साम्राज्य से अधिक स्थायी सिद्ध हुआ। इस काल को सुमेरियन इतिहास में स्वर्णकाल की संज्ञा दी जाती है, क्योंकि इस काल में सुमेरियन सभ्यता एवं संस्कृति का चरमोत्कर्ष हुआ। इसी समय चंद्रदेव नन्न का मंदिर तथा जिगुरातों का निर्माण हुआ और इसी समय सबसे प्राचीन उर-नम्मु की विधि-संहिता का संकलन भी हुआ। उर-नम्मु 2094 ईसापूर्व में गुतियनों से लड़ता हुआ युद्ध में मारा गया। इसके बाद शुल्गी उर के तृतीय वंश का शासक हुआ।
शुल्गी या दुंगी
उर के तृतीय राजवंश का सर्वाधिक ख्यातिनामा शासक शुल्गी या दुंगी (2094-2046 ईसापूर्व) था। शुल्गी या दुंगी के कुशल नेतृत्व में सुमेरियन साम्राज्य का चतुर्दिक विस्तार हुआ। उसने समस्त बेबीलोनिया पर अधिकार करके ‘उर नरेश’ ‘चतुर्दिक का स्वामी’ तथा ‘सुमेर और अक्काद का राजा’ विरुद धारण किये। ‘सुमेर और अक्काद का राजा’ विरुद धारण करने वाला शुल्गी पहला सुमेरियन शासक है। इन उपाधियों के साथ-साथ उसने दैवी पदवियाँ भी धारण की थी। इन उपाधियों और पदवियों को धारण करने के लिए उसके पास पर्याप्त कारण भी थे। उसने एलम पर पूर्णरूपेण विजय प्राप्त की, जगरोस की पर्वतीय जातियों को पराजित किया और उर, एरेक, लगश, कृथा तथा सूसा (एलम) इत्यादि नगरों में विभिन्न देवताओं के मंदिरों का निर्माण करवाया। यही नहीं, उसने पंचांग में भी आवश्यक सुधार करवाया और माप-तौल का नया पैमाना भी लागू किया।
किंतु सुमेरियन इतिहास में शुल्गी या दुंगी अपनी विधि-संहिता के कारण अधिक प्रसिद्धि है। सुमेर में प्राचीनतम् विधि संहिताएँ मिल जाने के कारण यद्यपि शुल्गी या दुंगी की विधि-संहिता को विश्व की प्राचीनतम् विधि-संहिता होने का गौरव नहीं दिया जा सकता, फिर भी, इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि परवर्ती बेबीलोनियन शासक हम्मूराबी की विश्व-प्रसिद्ध विधि-संहिता शुल्गी (दुंगी) की विधि-संहिता का संशोधित और परिवर्धित संस्करण मात्र है।
शुल्गी के उत्तराधिकारी और सुमेर का अधःपतन
शुल्गी की 2046 ईसापूर्व में मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी अधिक समय तक शासन नहीं कर सके। शुल्गी के बाद क्रमशः अमर-सिन (2046-2039 ईसापूर्व), शु-सिन (2038-2029 ईसापूर्व) तथा इब्बी-सिन (2028-2004 ईसापूर्व) ने शासन किया। इब्बी-सिन के शासनकाल के चौबीसवें वर्ष में एलम के एलमाइट शासक ने उर पर आक्रमण किया और इब्बी-सिन को पराजित कर बंदी बनाकर एलम ले गया। सुमेर के नगर बुरी तरह तहस-नहस कर दिये गये। उर की खुदाई में एलमाइटों द्वारा किये गये विध्वंस के प्रमाण मिले हैं। इस प्रकार 2005 ईसापूर्व के आसपास न केवल उर के तृतीय राजवंश का अंत हो गया, बल्कि सुमेरिया का स्वतंत्र अस्तित्व भी समाप्त हो गया।
उर के पतन के बाद से लेकर हम्मूराबी के उदय तक सुमेर में कोई नगर संयुक्त-राज्य की स्थापना नहीं कर सका और देश नये आक्रमणकारियों का शिकारगाह बना रहा। इस बीच इयु-उरा ने ईशिन नगर में एक नये वंश की स्थापना की। यद्यपि इस वंश की शक्ति उर के समान नहीं थी, फिर भी इस वंश के शासकों ने एलमाइटों के प्रसार को रोकने का प्रयास किया, लेकिन असफल रहे।
अठारहवीं शताब्दी ईसापूर्व के मध्य बेबीलोनिया पर उत्तर की ओर से सेमेटिक जाति की एक नई शाखा ने, जो इतिहास में पश्चिमी सेमेटिक अथवा अमरु (एमोराइट) नाम से प्रसिद्ध है, आक्रमण करना आरंभ किया। लगभग उसी दौरान दक्षिण में एलमी शासक कुदुर-मबुक ने आक्रमण किया और उर पर अधिकार कर लिया। उसके पुत्र रिमसिन ने लारसा की विजय कर उसे अपनी शक्ति का केंद्र बनाया। इस प्रकार बेबीलोनिया का अठारहवीं शताब्दी ईसापूर्व के अंत का इतिहास त्रि-शक्ति संघर्ष का इतिहास है। इस समय उतर में पश्चिमी सेमाइट बेबीलोन को केंद्र बनाकर संपूर्ण सुमेर और अक्काद को जीतने का सपना देख रहे थे और दक्षिण में एलमी शासक लारसा को केंद्र बनाकर उत्तर की ओर बढ़ना चाह रहे थे। इन दोनों शक्तियों के बीच ईशिन का राज्य अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखने का प्रयास कर रहा था। इस त्रि-शक्ति संघर्ष में अंततः पश्चिमी सेमाइटों को सफलता मिली और उन्होंने हम्मूराबी के नेतृत्व में बेबीलोनिया के इतिहास का दूसरा अध्याय लिखा।
सुमेरियन सभ्यता के प्रमुख तत्व
सुमेरियन राजनीतिक सरंचना
नगर-राज्यों का संगठन
तीसरी सहस्राब्दी ई.पू. के आरंभ में सुमेर छोटी-छोटी राजनीतिक इकाइयों में बँटा हुआ था, जिन्हें आधुनिक परिभाषा के अनुसार ‘नगर-राज्य’ कहा जा सकता है। प्रत्येक राज्य में एक प्रधान नगर और उसके चारों ओर कृषि-योग्य भूमि होती थी। कभी-कभी ऐसे नगर के अधीन और उसके द्वारा शासित दो-तीन क़स्बे या गाँव भी रहते थे। प्रत्येक नगर के मध्य में मुख्य देवता का मंदिर होता था, जहाँ पुजारी निवास करता था। वही पुजारी समस्त प्रशासनिक, धार्मिक एवं आर्थिक कार्यों को नौकरशाही की सहायता से संचालित करता था।
यद्यपि नगर-राज्यों में वास्तविक प्रभुत्व पुजारियों का था और मंदिर ही समस्त शक्तियों का केंद्र थे, फिर भी नगर-राज्यों में एक प्रकार का धार्मिक प्रजातंत्र था। सामान्यतः प्रत्येक नगर में नागरिकों की एक संसद थी, जिसमें दो सदन होते थे। एक सदन के सदस्य संभवतः नगर के सभी वयस्क पुरुष होते थे, परंतु दूसरे सदन की सदस्यता कुछ अनुभवी व्यक्तियों तक सीमित रहती थी। इन्हें आधुनिक भाषा में लोकसभा (असेंबली) और सीनेट कह सकते हैं। यद्यपि इन सभाओं का विस्तृत वर्णन बहुत बाद के अभिलेखों में मिलता है, किंतु प्राचीन अभिलेखों से यह स्पष्ट है कि ये सभाएँ अति प्राचीन काल में भी विद्यमान थीं और प्रत्येक नगर-राज्य में समय-समय पर नागरिकों की जनसभा होती थी। गिलगामेश के आख्यान में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि उसको अपनी राजधानी एरेक की लोकसभा और सीनेट से प्रायः परामर्श करना पड़ता था। दूसरे शब्दों में, सुमेरियन इतिहास के उषाकाल में नगर की सत्ता जनसभाओं के हाथ में थी और राजा को उनके परामर्श के अनुसार शासन करना होता था। इस दृष्टि से सुमेरियनों को ‘प्रजातंत्र का जनक’ और उनकी जनसभाओं को ‘विश्व की प्राचीनतम जनसभाएँ’ कहा जा सकता है। यूनान के प्रजातांत्रिक नगर-राज्यों की स्थापना के लगभग पच्चीस सौ वर्ष पूर्व सुमेर में प्रजातांत्रिक परंपराओं का मिलना निःसंदेह आश्चर्यजनक है।
लूगल, पटेसी और एनसी
सुमेर का यह आदिम प्रजातंत्र 3000 ईसापूर्व के बाद धीरे-धीरे विलुप्त होने लगा। इसका कारण यह था कि इस प्रकार की व्यवस्था में आकस्मिक संकटों के समय शीघ्रता से निर्णय नहीं लिया जा सकता था। इसलिए व्यवहार रूप में संकट काल के लिए एक सर्वोच्च पदाधिकारी की नियुक्ति की जाने लगी, जिसे ‘पटेसी’ या ‘लूगल’ कहा जाता था। यद्यपि इन दोनों शब्दों में कोई विशेष अंतर नहीं माना जाता था, और प्रारंभ में प्रत्येक शासक प्रायः दोनों विरुद धारणा करता था, फिर भी साधारणतः ‘लूगल’ शब्द ‘राजा’ और ‘पटेसी’ ‘देवता का प्रतिनिधि’ अर्थ में प्रयुक्त होते थे।
आरंभ में ‘पटेशी’ का पद वंशानुगत होता था और वह नगर-राज्य का शासक, नगर का प्रधान पुरोहित, न्यायाधीश, सेनानायक तथा सिंचाई व्यवस्था का अधीक्षक होता था। इस तरह उसे राजनीतिक एवं धार्मिक दोनों प्रकार की महत्ता मिली थी।
‘लूगल’ का पद पटेशी की अपेक्षा अधिक सम्मानित था क्योंकि जब कोई पटेशी दो-चार नगर राज्यों को जीतकर अपने नगर में मिला लेता था, तब वह पटेशी के स्थान पर ‘लुगल’ की उपाधि धारण करता था। उम्मा के एक शासक ने ‘लुगल’ उपाधि धारण की थी, इसलिए वह इतिहास में लुगल जग्गेसी के नाम से प्रसिद्ध है। जब कोई ‘लुगल’ अपनी शक्ति खो बैठता था, तो वह पुनः ‘पटेशी’ हो जाता था, जैसे- लगश का शासक इयन्नातुम अपने को पहले पटेसी और लूगल दोनों कहता है, किंतु कुछ समय बाद केवल पटेसी। पटेशी और लुगल दोनों शाही भवनों में रहते थे। इस प्रकार के दो शाही भवनों के भग्नावशेष किश एवं एरिडु से प्राप्त हुए हैं।
प्रारंभ में लुगल पद अस्थायी होता था और संकट काल बीत जाने पर सत्ता पुनः जनसभा को मिल जाती थी। परंतु नगरों की संख्या बढ़ने, उनके प्रायः झगड़ते रहने और बाह्य आक्रमणों के कारण व्यवहार में, कम से कम कुछ नगरों में ‘लुगल’ पद स्थायी हो गया। शेष नगरों में वहाँ के प्रधान मंदिरों के प्रधान पुजारी लुगलों के समान राजनीतिक नेता बन गये। लेकिन उन्होंने ‘लुगल’ के स्थान पर ‘एनसी’ विरुद धारण किया, जिसका अर्थ था ‘देवता का वायसराय’। पटेशी अथवा एनसी एक प्रकार से देवता के प्रतिनिधि होते थे। सिद्धांततः ‘लुगल’ और ‘एनसी’ दोनों पद वंशानुगत नही थे और जनसभा अथवा देवता द्वारा ये पद किसी को भी प्रदान किये जा सकते थे।
कालांतर में बाह्य आक्रमणों के कारण लुगल का महत्व बढ़ता गया और लुगल का राजप्रासाद मंदिर का प्रतिंद्वदी हो गया। राज्य के समस्त कार्य, जो पहले मंदिर में होते थे, राजप्रासाद में भी होने लगे, जैसे- प्रशासन, कर-संग्रह, युद्ध का संचालन, न्याय, मंदिरों का निर्माण एवं जीर्णोद्धार, सिंचाई का प्रबंध और नई नहरों का निर्माण इत्यादि। सुमेरिया से बहुत से ऐसे रिलीफ चित्र मिले हैं, जिनमें शासक को नये मंदिर-निर्माण के लिए ईंट ले जाते हुए दिखाया गया है।
इस प्रकार मंदिर और राजप्रासाद सुमेरियन राज्य के दो मुख्य स्तंभ थे, किंतु धीरे-धीरे मंदिरों के कार्य घटते चले गये और वे केवल धार्मिक तथा समाज की भलाई के कार्यों तक ही सीमित हो गये। दूसरी ओर लुगल (राजा) की शक्ति बढ़ती गई और वंशानुगत राजतंत्र की स्थापना हो गई।
सुमेरियन साम्राज्यवाद का जन्म
तीसरी सहस्राब्दी ई.पू. के प्रारंभ में सुमेरियन शासन व्यवस्था एक आदर्श थी। किंतु इसके बाद एनसियों की महत्वाकांक्षाओं के बढ़ने और उनके द्वारा अपने पद का दुरुपयोग करने के कारण इसमें दोष उत्पन्न होने लगे। वे नगर के अन्य मंदिरों में अपने सगे-संबंधियों को नियुक्त करने लगे और राज्य की अधिकांश भूमि को अपनी व्यक्तिगत संपत्ति मानने लगे। यही नहीं, बहुत से एनसी नगर सभाओं की उपेक्षा कर अपने राज्य में जनता से अधिक कर वसूल कर उन पर अत्याचार करने लगे। लगश के शासक उरुकगिना ने इस अव्यवस्था का अंत करने के लिए कुछ सुधार करने का प्रयास किया, किंतु उसे उम्मा के शासक लुगल जग्गेसी ने पराजित कर पदच्युत् कर दिया।
वास्तव में उरुकगिना की असफलता समय में परिवर्तन का सूचक थी। अब सुमेरियन जनता स्वयं राजनीतिक एकता की आवश्यकता महसूस करने लगी थी। सुमेर में सांस्कृतिक और धार्मिक एकता पहले से विद्यमान थी, इसलिए राजनीतिक जीवन में भी इसकी अभिव्यक्ति होना स्वाभाविक था। उत्तर-पश्चिम और पूर्व से आने वाले आक्रमणकारियों को छोटे-छोटे नगर नहीं रोक सकते थे, इसके लिए भी देश में राजनीतिक एकता की आवश्यकता थी। व्यापार की प्रगति के लिए भी इन छोटी राजनीतिक इकाइयों का एक सूत्र में बाँधा जाना आवश्यक था। किंतु राजनीतिक एकता की स्थापना एक व्यक्ति के अधिनायकत्व द्वारा ही संभव थी। एनसियों को अभी तक ‘देवता का प्रतिनिधि’ मात्र माना जाता था, किंतु अब उन्हें ‘देवता का अवतार’ या स्वयं ‘देवता’ माना जाने लगा। प्रारंभ में बहुत से शासक अपनी मूर्ति मंदिर में इसलिए रखवाते थे कि देवता के मन में उनकी स्मृति बनी रहे। किंतु बाद में स्वयं इन मूर्तियों की पूजा होने लगी। अब यह भी माना जाने लगा कि राजा प्रजा का प्रतिनिधि होता है और उस पर आने वाली विपत्ति भावी राष्ट्रीय दुर्घटना की सूचक होती है, अतः उसे अशुभ शक्तियों से बचाना चाहिए। इसके लिए राजा को पवित्र करने वाले लंबे अनुष्ठान किये जाने लगे। इस प्रकार का दैवी सम्मान सबसे पहले सारगोन प्रथम और नरामसिन को मिला। सारगोन को उसके प्रदेश का देवता माना जाता था। नरामसिन के नाम के साथ प्रायः ‘देवता’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इसके बाद यह प्रथा सुमेर में भी लोकप्रिय हो गई। लगश के पटेसी गुडिया को ‘देवता’ कहा जाता था और शुल्गी भी अपने को ‘देवता’ कहता था। शुल्गी के सम्मान में एक मंदिर का निर्माण भी किया गया था।
सारगोन और उसके वंशजों ने देश में राजनीतिक एकता स्थापित करने का विशेष रूप से प्रयास किया क्योंकि वे सुमेरियन राजाओं के समान नगर राज्यों की परंपराओं से बँधे हुए नहीं थे। यद्यपि वे समस्त सुमेर और अक्काद का स्वामी होने का दावा करते थे, किंतु सुमेर के निवासी उन्हें विजातीय और विदेशी मानते थे। इसलिए अक्कादी नरेशों ने अपने व्यक्तिगत अनुयायियों का दल बनाया और उन्हें मंदिरों की भूमि प्रदान की, जिससे सुमेर में भी उनको समर्थन मिला। इसी समय राजा के प्रति प्रजा की भक्ति का सिद्धांत भी लोकप्रिय हुआ और नरामसिन के समय में नगरों के गवर्नर ‘राजा का दास’ जैसी उपाधि धारण करने लगे। साधारण जनता में राजा के प्रति भक्ति बढ़ाने के लिए न्यायालयों में राजा के नाम पर शपथ लेने की पद्धति चलाई गई और एक समान पंचांग का प्रचलन करके संपूर्ण देश में एकता लाने का प्रयास किया गया। किंतु सारगोन और उसके उत्तराधिकारियों द्वारा किया गया एकीकरण का यह प्रयत्न सफल नहीं हो सका और सुमेरियन सांस्कृतिक एकता की राजनीतिक क्षेत्र में स्थायी अभिव्यक्ति नहीं हो सकी।
दरअसल, सुमेर में प्रादेशिक स्वतंत्रता की भावना इतनी प्रबल थी कि अवसर पाते ही केंद्रीय शक्ति के विरुद्ध विद्रोह होने लगते थे। सुमेर के चारों ओर बसी अर्ध सभ्य जातियाँ ऐसे अवसरों की ताक में रहती थीं और वे तुरंत उर, लगश, निप्पुर और किश जैसे समृद्ध नगरों को लूटने के लिए आक्रमण कर देती थीं। इस प्रदेश में स्थापित सभी साम्राज्यों का इसी प्रकार दुःखपूर्ण अंत हुआ। सारगोनी साम्राज्य का पतन जगरोस की ओर से आनेवाली गूती जाति के आक्रमण के कारण और उर के तृतीय राजवंश का अंत एलमी तथा पश्चिमी सेमेटिक जातियों के आक्रमणों के कारण हुआ। परवर्ती काल में हम्मूराबी के वंश को हित्ती और कसाइट जातियों ने उखाड़ फेंका तो असीरियनों को मीडों ने। इसी प्रकार कैल्डियनों द्वारा स्थापित अंतिम बेबीबलोनियन साम्राज्य का अंत फारस के आक्रमण के कारण हुआ था।
सुमेरियन न्याय एवं दंड-व्यवस्था
सुमेरियन विधि संहिताएँ
सुमेरिया में प्रारंभ में न्याय एवं दंड-व्यवस्था प्रचलित रीति-रिवाजों और परंपराओं पर आधारित था। बाद में, जब विशाल साम्राज्यों की स्थापना के बाद रीति-रिवाजों के पारस्परिक विरोध और भिन्नता के कारण समाज में अंतर्विरोध पैदा होने लगा तो सुमेरियन शासकों ने प्रचलित कानूनों और परंपराओं को संग्रहीत और व्यवस्थित करके विधि संहिता (कोड) का रूप दिया। पहले प्राचीनतम् विधि संहिता के निर्माण का श्रेय परवर्ती बेबीलोनियन शासक हम्मूराबी को दिया जाता था, किंतु पिछले दो दशकों में सुमेरियन नगरों से कई प्राचीनतर विधि संहिताएँ प्रकाश में आई हैं। उर के तृतीय राजवंश के संस्थापक उरनम्मु को प्राचीनतम् विधि-संहिता के निर्माण का श्रेय दिया जाता है, किंतु खंडितावस्था में मिलने के कारण यह बहुत उपयोगी नहीं है। उरनम्मु के उत्तराधिकारी शुल्गी की विधि-संहिता अपेक्षाकृत अच्छी अवस्था में मिली है, जिससे तत्कालीन समाज और न्यायिक व्यवस्था पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। बेबीलोनियन साम्राज्य के प्रसिद्ध शासक हम्मूराबी ने निश्चित रूप् से शुल्गी की विधि-संहिता से प्रेरणा प्राप्त की थी।
सुमेरियन न्याय व्यवस्था
सुमेरियन न्याय-व्यवस्था का मंदिरों से घनिष्ठ संबंध था। पुजारी ही प्रायः न्यायाधीश के रूप में कार्य करते थे, किंतु वे वास्तविक न्यायाधीश न होकर केवल मध्यस्थ, लेख्य प्रमाणक एवं अभिनिर्णायक मात्र होते थे। सामान्यतया मंदिरों में ही मुकदमे प्रस्तुत किये जाते थे, किंतु सुमेरियन न्यायालयो में किसी मुकदमे पर तभी विचार किया जाता था जब वादी, उसका परिवार अथवा उसका कोई मित्र न्यायालय के निर्णय को कार्यान्वित करने का वचन देता था। मुक़दमेबाजी कम करने के लिए पंच भी नियुक्त किये जाते थे जो प्रत्येक मामले को न्यायालय में जाने के पहले शांतिपूर्वक सुलझाने की कोशिश करते थे। सभी प्रकार के मुकदमे मश्किम नामक अधिकारी सुनता था। यदि वह निर्णय नहीं कर पाता था, तो अन्य व्यावसायिक न्यायाधीशों की मदद ली जाती थी। यदि पीड़ित इस निर्णय से भी संतुष्ट नहीं होता था, तो वह सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकता था। निप्पुर तथा अन्य कुछ नगरों में संभवतः नागरिक सभाओं को भी न्याय संबंधी अधिकार प्राप्त थे।
उर के तृतीय राजवंश के पतन के पूर्व वहाँ एक प्रांतीय न्यायालय भी था, जिसकी अध्यक्षता नगरपति करता था। उसकी सहायता कुलीनों की एक समिति करती थी। उर के इब्बीसिन (2029-2006 ई.पू.) को इस प्रकार की एक समिति को संबोधित करते हुए दिखाया गया है। न्यायाधीश निर्णय करते समय पुराने मुक़दमों के निर्णयों को मिसाल के रूप में प्रस्तुत करते थे। वादी तथा प्रतिवादी, दोनों को अपनी वकालत स्वयं करनी पड़ती थी। वकीलों के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं मिला है।
सुमेरियन दंड-व्यवस्था
सुमेरियन दंड-व्यवस्था परवर्ती काल की अपेक्षा सरल थी और दंड-निर्धारण में अकसर उदार दृष्टिकोण अपनाया जाता था। जैसे- व्यभिचार के अपराध में भी कोई पति अपनी व्यभिचारिणी पत्नी को छोड़ नहीं सकता था, बल्कि दूसरा विवाह करके उसे पहली पत्नी को दूसरी पत्नी की दासी के रूप में रखना पड़ता था। भागे हुए दास को शरण देने वाले को केवल कुछ जुर्माना देना पड़ता था और स्वामी की आज्ञा न मानने वाले दास को बेच दिया जाता था। इस प्रकार के अपराधों के लिए बेबीलोनिया के हम्मूराबी की विधि-संहिता में कठोर दंड की व्यवस्था की गई थी।
दंड का निर्धारण करते समय वादी और प्रतिवादी की सामाजिक प्रतिष्ठा का ध्यान रखा जाता था। एक ओर उच्च वर्ग के सदस्यों की हत्या साधारण नागरिकों की हत्या से और साधारण नागरिक की हत्या दासों की हत्या से बड़ा अपराध माना जाता था, तो दूसरी ओर अपराधी के उच्च वर्ग का होने पर उसे कठोरतम् दंड दिया जाता था। किंतु साधारण व्यक्ति अथवा दास के अपराधी होने पर दंड क्रमशः कम होता जाता था। वास्तव में, उच्च वर्ग ही देश का शासक एवं रक्षक था, इसलिए व्यवस्था बनाये रखने के लिए उच्च वर्ग के सदस्यों को अनैतिक आचरण के लिए कठोरतम् दंड देना आवश्यक माना जाता था।
सुमेरियन दंड-व्यवस्था की कुछ अन्य विशेषताएँ भी महत्वपूर्ण थी। एक तो, यह ‘शठे शाठ्यं समाचरेत’ के सिद्धांत पर आधारित थी। इसके अनुसार यदि कोई व्यक्ति किसी की आँख फोड़ देता था, तो बदले में उसकी आँख फोड़ दी जाती थी। यहाँ तक कि पुत्र की हत्या करने पर हत्या करने वाले के पुत्र की हत्या की जाती थी। दूसरे, क़ानून के अनुसार न्यायालय का कार्य केवल वादी और प्रतिवादी के मध्य फैसला करना था। निर्णय को व्यावहारिक रूप देना, अर्थात् अपराधी को दंड देना वादी का कार्य माना जाता था। सरकारी कर्मचारी केवल वादी की सहायता कर सकते थे। तीसरे, सुमेरियन कानूनों के अनुसार आकस्मिक और नियोजित मानव-हत्या में कोई अंतर नहीं माना जाता था। इसलिए अनजाने में किसी व्यक्ति के द्वारा दूसरे व्यक्ति की हत्या हो जाने पर भी अपराधी को मृत व्यक्ति के परिवार को धन देना पड़ता था।
सैन्य संगठन एवं युद्धकला
सुमेरियनों ने इतिहास में पहली बार युद्धकर्म को एक कला के रूप में विकसित किया। युद्धों का नेतृत्व पटेशी करता था। नगर के लड़ने योग्य निवासियों की सूची मंदिर के पुजारियों के पास रहती थी, जो शांतिकाल में मंदिरों में काम करते थे और युद्धकाल में भारी अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित होकर अपने पटेसी के नेतृत्व में पंक्तिबद्ध होकर शत्रु पर आक्रमण करते थे। अक्कादी शासकों ने एक व्यवस्थित सेना का गठन किया था। कहा जाता है कि अक्काद नरेश सारगोन प्रथम के पास 5,400 पैदल सैनिक थे, जो उसके साथ नित्य भोजन करते थे। संघर्ष प्रायः पड़ोसी नगरों पर अधिकार करने अथवा व्यापारिक मार्गों के उपभोग एवं माल इत्यादि के लिए होते थे। अक्कादी शासक मनिश्तुसु ने चाँदी और पत्थर के लिए एलम पर आक्रमण किया था। कभी-कभी नदियों के मार्ग-परिवर्तन के कारण भी युद्ध छिड़ जाता था।
सुमेरियन सैनिकों के अस्त्र मुख्यतः भाला, बरछी और फरसा थे। युद्ध के दौरान सुमेरियन सैनिक विशाल ढालों से अपने शरीर को ढक लेते थे और सिर की रक्षा के लिए शिरस्त्राणों का प्रयोग करते थे, जो चमड़े और ताँबे से बनाये जाते थे। सुमेरियनों के शिरस्त्राण युद्ध में शरीर की रक्षा के लिए धातु के प्रयोग के सबसे पहले उदारहण हैं। आक्रमणात्मक युद्ध में सुमेरियन चार पहिये वाले रथों का प्रयोग करते थे, किंतु इनमें घोड़े के स्थान पर संभवतः गधे जुते होते थे। लगता है कि सुमेरियन घोड़े के प्रयोग से अपरिचित थे। आरंभ में सुमेरियनों को धनुष-बाण का ज्ञान नहीं था। इसकी जानकारी उन्हें अक्कादी सेमाइटों से मिली। ‘नरामसिन पाषाण’ में राजा को धनुष धारण किये हुए दिखाया गया है। धनुष-बाण की जानकारी से सुमेरियन-अकादी सेनाओं की सामरिक क्षमता बढ़ गई क्योंकि वे धनुष-बाण की सहायता से शत्रु पर दूर से ही आक्रमण कर सकते थे।
सुमेरियन युद्ध-क्षेत्र में क्रूरता और नृशंसता का प्रदर्शन करते थे। सुमेरियन वर्ष के नामकरण में सैनिक विजयों का उल्लेख करते थे। विजय के बाद बंदियों की नृशंसतापूर्वक हत्या करना, मंदिरों को लूटना और नगरों को तहस-नहस करना सामान्य बात थी। उम्मा के लूगल जग्गेसी ने लगश का किस तरह विघ्वंस किया था, उसकी स्मृति एक कविता में सुरक्षित है। बंदियों का 1/10 भाग देवताओं को बलि के रूप में भी चढ़ाया जाता था। कभी-कभी बंदियों को दास बनाकर बेच दिया जाता था।
सुमेरियन सामाजिक जीवन
सामाजिक वर्ग
प्राचीन सुमेरियन समाज मुख्यतः तीन वर्गों में विभक्त था- उच्च, साधारण और निम्न। उच्च वर्ग में शासक, राजपरिवार के सदस्य, उच्चपदाधिकायिों और पुरोहितों की गणना होती थी। साधारण वर्ग में मध्यम श्रेणी के स्वतंत्र नागरिकों, जैसे-कृषकों, व्यापारियों, लिपिकों, शिल्पियों, कारीगरों और तीसरे निम्नवर्ग में दासों और सर्फों को गिना जाता था। इन तीनों सामाजिक वर्गों के रहन-सहन और जीवन-स्तर में बड़ा अंतर था। उच्च वर्ग के सदस्यों को समाज में विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त थी और उनका जीवन सुविधा-संपन्न तथा विलासिता से परिपूर्ण था। साधारण वर्ग के सदस्य स्वतंत्र थे और उन्हें निम्न वर्गों के सदस्यों की अपेक्षा अधिक सुविधाएँ प्राप्त थीं, किंतु उनकी सामाजिक स्थिति उच्च वर्ग के सदस्यों की अपेक्षा निम्नतर थी। सुमेरियन समाज में निम्नवर्ग के दासों और सर्फों की स्थिति सबसे दयनीय थी, जो मुख्यतः खेती, सिंचाई और निर्माण-कार्य करते थे। दास या तो युद्धबंदी होते थे या फिर ऋण न चुका पाने के कारण दास बना लिये गये थे।
स्त्रियों की स्थिति
सुमेरियन समाज में स्त्रियों की स्थिति काफी अच्छी थी। यद्यपि सिद्धांततः पति को अपनी पत्नी और बच्चों को बेचने तथा बंधक रखने का अधिकार था, किंतु व्यवहार में ऐसा बहुत कम होता था। सुमेर में स्त्रियों को ऐसे बहुत से अधिकार मिले थे, जो उन्हें अन्य अनेक देशों में परवर्ती युगों में भी नहीं मिल सके। विवाह में मिले धन पर केवल वधू का अधिकार माना जाता था और वह अपनी इच्छानुसार उसे खर्च कर सकती थी। पति या वयस्क पुत्र न होने की दशा में पत्नी ही पारिवारिक संपत्ति की देख-भाल करती थी। वह सार्वजनिक तथा धार्मिक कार्यों में स्वतंत्र रूप से भाग ले सकती थी, पति से अलग स्वतंत्र रूप से व्यापार कर सकती थी और स्वतंत्र रूप से दासियाँ रख सकती थी। पत्नी के व्याभिचारिणी होने पर भी पति उसे तलाक नहीं दे सकता था, इस स्थिति में पति को दूसरा विवाह करके पहली पत्नी को दूसरी पत्नी की दासी के रूप में रखना पड़ता था।
इन सुविधाओं के बदले स्त्रियों को कई बंधन सहने पड़ते थे। नैतिक क्षेत्र में उसको पुरुष से अधिक उत्तरदायित्व निभाना होता था। स्त्रियों से आशा की जाती थी कि वह अधिक से अधिक संतान पैदा करेगी और यदि कोई स्त्री ऐसा नहीं कर पाती, तो उसे तलाक दिया जा सकता था। सुंदर युवतियों को मंदिरों में देवताओं की सेवा के लिए देवदासी के रूप में रखने की परंपरा थी, जो एक प्रकार से देवता की रखैल होती थीं। किंतु देवदासी बनना हीन कार्य नहीं माना जाता था। जब परिवार की किसी युवती को देवार्पित किया जाता था, तो उत्सव मनाया जाता था और उसके विवाह में दिया जानेवाला दहेज उसे भेंट में दे दिया जाता था। किंतु यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसी कन्याएँ मुख्यतः किस वर्ग से संबंधित होती थीं। बच्चों को किसी प्रकार के क़ानूनी अधिकार नहीं प्राप्त थे। उनके माता-पिता उन्हें छोड़ सकते थे, बेच सकते थे और नगर से निकलवा सकते थे।
वेषभूषा और आभूषण
उच्च वर्ग की स्त्रियों की स्थिति निम्न वर्ग की स्त्रियों से अधिक अच्छी थी। उच्च वर्ग की स्त्रियाँ विलासिता का जीवन व्यतीत करती थीं। सुमेरियन नगरों से उत्खनन में उनके विलासितापूर्ण जीवन से संबंधित श्रृंगारोपकरण और आभूषण प्रचुर मात्रा में मिले हैं, जिससे पता चलता है कि उच्च वर्ग की स्त्रियाँ अपने आँख, ओंठ इत्यादि को विभिन्न प्रकार के रंजक द्रव्यों से रंजित करती थीं और अंगूठी, कंठहार, कड़े, पाजेब, कर्णफूल जैसे अनेक प्रकार के कीमती आभूषण धारण करती थीं।
निम्न वर्ग की स्त्रियों का जीवन उच्च वर्ग की स्त्रियों के जीवन से पूरी तरह भिन्न था, क्योंकि उन्हें उच्च वर्ग की स्त्रियों की तरह भौतिक सुख-सुविधाएँ उपलब्ध नहीं थीं। उर ही शाही समाधि में राजाओं के साथ रानियों और सेवकों के दफनाये के प्रमाण मिले हैं, जिससे लगता है कि सुमेरियन समाज में सती जैसी किसी प्रथा का प्रचलन रहा होगा।
सुमेरियन सभ्यता में आर्थिक जीवन
बेबीलोन के परवर्ती धार्मिक आख्यानों से संकेत मिलता है कि आरंभ में संपूर्ण संपूर्ण दक्षिणी बेबीलोनिया दलदलों से भरा हुआ था। संभवतः 4000 ई. पू. के आसपास सुमेरियनों ने फारस की खाड़ी के उत्तर में स्थित दलदलों को सुखाना, नदियों में आनेवाली बाढ़ों को रोकने के लिए बाँध बनाना और सिंचाई के लिए नहर खोदना आरंभ कर दिया था।
बेबीलोनियन धार्मिक साहित्य में दलदलों को सुखाकर खेती करने के संबंध में कुछ कथाएँ मिलती हैं। एक आख्यान में बेबीलोनियन देवता मर्दुक को आदि काल में जल और भूमि को पृथक् करके व्यवस्था स्थापित करने और मनुष्यों के रहने के लिए घरों का निर्माण करने का श्रेय दिया गया है। इस आख्यान के एक दूसरे संस्करण से पता चलता है कि मर्दुक ने आदि जल दैत्य तियामत को पराजित करके जल के ऊपर नरकुल को डाला और उसे धूल से आच्छादित करके भूमि का निर्माण किया था। इसके बाद उसने पृथिवी को समुद्र से अलग करने के लिए बाँध बनाये और ईंटों से मकानों और नगरों का निर्माण किया। इससे स्पष्ट है कि मर्दुक ने सुमेरियन एनकी का स्थान ले लिया था क्योंकि आरंभ में सुमेरियन देवता एनकी जल देवता था। इस प्रकार तियामत को पराजित करने वाला एनकी ही रहा होगा। लेकिन बाद में, जब धार्मिक आख्यानों का सेमेटिकीकरण हुआ, तो एनकी का स्थान सेमेटिक देवता मर्दुक को दे दिया गया। जो कुछ भी हो, इतना स्पष्ट है कि सुमेर में दलदलों को सुखाने और प्रथम नगरों की स्थापना का कार्य सुमेरियनों ने ही किया था और वही तियामत के वास्तविक विजेता थे।
सुमेरियनों ने दलदलों को सुखाकर न केवल कृषि-योग्य भूमि तैयार किया, बल्कि सिंचाई की भी समुचित व्यवस्था की। पहले मंदिरों के पुजारियों ने यहाँ नहरों के निर्माण की शुरूआत की थी और बाद में साम्राज्य काल में राजाओं ने पुरानी नहरों के रख-रखाव और नई नहरों के निर्माण पर विशेष ध्यान दिया। हेरोडोटस बताता है कि बेबीलोनिया में नदियों में आनेवाली बाढ़ से खेतों को डूबने से बचाने के लिए प्रत्येक खेत के चारों ओर मिट्टी की ऊँची दीवार बना दी जाती थी और बाढ़ के जल को एक स्थान पर एकत्र कर लिया जाता था। फिर उसे नहरों और ‘शडूफ’ (ढकुली अथवा रहट) की सहायता से खेतों में पहुँचाया जाता था।
सुमेर की मंदिर व्यवस्था
सुमेरियन सभ्यता में भूमि, पशुपालन, उद्योग-धंधे और व्यापार राजा के एकाधिकार में न होकर अधिकतर मंदिरों के हाथ में थे। वास्तव में जिस प्रकार सुमेरियन राजनीतिक जीवन का केंद्र नगर थे, उसी प्रकार नगरों के राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक जीवन का केंद्र वहाँ के देव मंदिर थे। यद्यपि प्रत्येक नगर में बहुत-से मंदिर होते थे, किंतु उनमें नगर देवता का मंदिर प्रधान माना जाता था। प्रत्येक मंदिर के पास बड़ी संख्या में पदाधिकारी, पुजारी, पशुपालक, मछुआरे, माली, व्यापारी और दास इत्यादि रहते थे, जो सामूहिक रूप से देवता के सेवक कहलाते थे। मंदिर के पास बहुत-सी भूमि भी होती थी जो कई भागों में विभाजित रहती थी। इसका एक भाग ‘निगेन्ना’ कहलाता था, जो सामूहिक होता था, जिसमें मंदिर के सभी सेवकों को काम करना पड़ता था। दूसरा भाग ‘कुर’ कहलाता था जो मंदिर के सदस्यों में बँटा होता था और तीसरा भाग ‘रुललू’ लगान पर उठाया जाता था। लगान उपज का 1/6 से 1/3 तक होता था, जिसे खाद्यान्न और चाँदी के रूप में वसूल किया जाता था। नगर का प्रत्येक नागरिक किसी न किसी मंदिर का सदस्य होता था, इसलिए उसे ‘कुर’ भूमि का एक अंश मिल ही जाता था, लेकिन सामूहिक भूमि ‘निगेन्ना’ में अनिवार्य रूप से काम करना पड़ता था। ‘निगेन्ना’ में कार्य करने के लिए मंदिर औजार, हल, हल चलाने के लिए पशु (बैल और गधे) और बीज इत्यादि देता था। स्वतंत्र नागरिकों के पास व्यक्तिगत रूप से अधिक भूमि नहीं होती थी। नगरों और बाँधों की मरम्मत के लिए बेगार भी ली जाती थी। मंदिर का प्रधान पुजारी ‘संगु’ सामूहिक भूमि की उपज को मंदिर के सदस्यों में बाँटता था और अपने खर्च के लिए एक भाग रख लेता था। संगु की सहायता ‘नुबंद’ नाम का पदाधिकारी करता था, जो खेतों और भंडारगृहों की देखभाल करता था। नुबंद के अधीन भी कई निरीक्षक होते थे, जो निरीक्षण और व्यवस्था में उसकी सहायता करते थे। मंदिरों की संपत्ति खाद्यान्न, तिलहन, फल, खजूर, सुरा, ऊन, खाल एवं बहुमूल्य पाषाण, कलात्मक उपकरण और अस्त्र-शस्त्र इत्यादि के रूप में भंडारगृहों में सुरक्षित रखे जाते थे। प्रत्येक वस्तु की मात्रा और विभिन्न विभागों की आय और व्यय का पूरा हिसाब रखा जाता था।
सुमेर की मंदिर व्यवस्था तीसरी सहस्राब्दी ईसापूर्व की प्रथम शताब्दियों तक ठीक-ठाक चलती रही क्योंकि सुमेर की भूमि इतनी उर्वर थी कि कम परिश्रम में ही पर्याप्त पैदावार हो जाती थी; और पुजारी, व्यापारी, दस्तकार तथा मजदूर, सभी वर्गों को थोड़ा-बहुत काम करना पड़ता था। इस प्रकार के ‘धार्मिक समाजवाद’ का प्राचीन काल में दूसरा कोई उदाहरण अभी तक नहीं मिला है।
कृषि-कर्म
सुमेरियन राष्ट्रीय आय का प्रमुख स्रोत कृषि-कर्म था। उर्वरता की दृष्टि से दजला-फरात घाटी का वही महत्व था, जो प्राचीन मिस्र में नील नदी घाटी का। हेरोडोटस बेबीलोनिया की उर्वरता से अत्यधिक प्रभावित हुआ था। यद्यपि अधिकांश भूमि पर नगर शासकों, मंदिरों अथवा सैनिक अधिकारियों का स्वामित्व रहता था, किंतु इन पर खेती का कार्य मुख्यतः लगानधारी किसानों या दासों द्वारा की जाती थी। खेतों में हल चलाने के लिए गधों एवं आनेगर का प्रयोग किया जाता था। सुमेरियन हलों की यह विशेषता थी कि उनमें जोतने के साथ ही साथ एक नलिका द्वारा बीज बोने की भी व्यवस्था थी। हल की उपयोगिता के कारण ही हेनरी लूकस जैसे विद्वान् इसे ‘हल-प्रधान संस्कृति’ कहते हैं, जिसका विकास संभवतः नवपाषाणकालीन कुदाल के आधार पर हुआ था।
सुमेर में मुख्यतः गेहूँ, जौ, दाल, तिल, मटर, खजूर तथा विभिन्न प्रकार की सब्जियों की खेती की जाती थी। मंदिरों की देख-रेख में फलों के बाग लगाये जाते थे। नदियों, नहरों तथा तटीय क्षेत्रों के किनारे, खजूर उगाये जाते थे और मछली पालन किया जाता था।
निप्पुर से प्राप्त लगभग 1700 ईसापूर्व के एक अभिलेख से संकेत मिलता है कि सुमेरियनों ने कृषि की सुविधा के लिए विश्व का पहला ‘कृषि-पंचांग’ विकसित कर लिया था। इस पंचांग में एक कृषक अपने पुत्र को कृषि करने के समय, विधि और औजार आदि की जानकारी देता है। एक अन्य अभिलेख से ज्ञात होता है कि सुमेर में बागों में फलों के छोटे पौधों को धूप और वायु से बचाने के लिए उनके बीच में ऊँचे और घनी छाया देने वाले पेड़ लगाने की पद्धति भी प्रचलित थी। सामान्यतः गाँव में अनाज उत्पादित कर नगरों में भेजा जाता था और इसके बदले में नगरों से आवश्यक वस्तुएँ गाँवों में आती थीं। गाँवों की उपज का एक भाग नगर शासक को मिलता था। कृषि-योग्य भूमि की पैमाइश और बीज तथा उत्पादन का हिसाब-किताब बड़ी सावधानी से रखा जाता था।
पशुपालन
सुमेरियनों का दूसरा प्रमुख व्यवसाय पशुपालन था, जिससे सुमेरियनों को अच्छी आमदनी होती थी। पशुओं में गाय, बैल, भेड, बकरी, सूअर, गधे, ओनेगर, कुत्ते आदि पाले जाते थे। संभवतः गाय की देवी के रूप में कल्पना की गई थी, क्योंकि उर के समीप से गौदेवी का बना हुआ मंदिर मिला है। मंदिरों के अधिकार में बड़ी संख्या में भेड़, बकरी और सुअर आदि रहते थे, जिनके रहने के लिए अलग-अलग बाड़े की व्यवस्था थी। संभवतः पशुचारकों, विशेषकर सुअर चराने वालों का एक पृथक वर्ग होता था, जिनकी सहायता के लिए रखवाले कुत्ते रखे जाते थे।
पशुओं का उपयोग कई प्रकार से किया जाता था। कुछ दुधारू पशुओं से दूध प्राप्त किया जाता था। उर के समीप निर्मित गौदेवी के मंदिर से प्राप्त भितिचित्रों से तत्कालीन दुग्ध उद्योग के विषय में सूचनाएँ मिलती हैं। सुमेरियन हल खींचने के लिए बैलों का और पहियेदार गाड़ी खींचने के लिए गधे तथा खच्चर जैसे पशुओं का प्रयोग करते थे। संभवतः घोड़े से वे परिचित नहीं थे। कुछ जंगली पशुओं के शिकार किये जाने की भी सूचना मिलती है। भितिभित्रों से ज्ञात होता है कि नहरों तथा नदियों में मछली पालने का धंधा भी होता था।
उद्योग-धंधे
यद्यपि सुमेरियन अर्थव्यवस्था मूलतः कृषि-कर्म और पशुपालन पर आधारित थी, किंतु सुमेर में कला-कौशल पर आधारित अनेक उद्योग-धंधे भी भी विकसित थे। मंदिरों में बड़ी संख्या में बढ़ई, जुलाहे और लुहार जैसे कारीगर रहते थे जो विविध प्रकार की आवश्यक वस्तुओं- उपकरण, औजार, वस्त्र और बर्तन इत्यादि का निर्माण करते थे। स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद जो वस्तुएँ बच जाती थीं उनको अन्य नगरों और विदेशों में बिकने के लिए भेज दिया जाता था।
औद्योगिक वस्तुओं को तैयार करने के लिए सुमेरियन केवल देश में उपलब्ध कच्चे माल का ही प्रयोग नहीं करते थे, बल्कि विदेशों से भी कच्चे माल का आयत करते थे। सुमेरियन कारीगर रेशेदार पदार्थों से धागा और कपड़ा बनाते थे, खालों से जूते, कपड़े एवं चीजों का निर्माण करते थे। इसके अतिरिक्त, आयातित लकड़ी से बढ़ई फर्नीचर बनाते थे। लकड़ी की नावें और गाड़ियाँ भी बनाई जाती थीं। सुमेरिया में मुख्यतः धातु उद्योग, वस्त्रोद्योग तथा गाड़ी बनाने के उद्योग प्रचलित थे।
धातु का प्रयोग ; सुमेरियन बहुत पहले से ही धातुओं से उपकरण बनाने की विधि से परिचित हो चुके थे। वे ताँबे को पीटकर और साँचे में ढालकर मूर्तियाँ, अस्त्र-शस्त्र और विविध प्रकार के उपकरण बनाना जानते थे। सुमेरियनों के कुछ उपकरणों से पता चलता है कि ताँबे में टिन मिलाकर काँसा बनाने की विधि का ज्ञान भी उन्हें बहुत पहले हो चुका था। ताँबे और काँसे के अतिरिक्त सुमेरियन सोना, चाँदी और सीसे की सहायता से विभिन्न प्रकार के बर्तन एवं आभूषण बनाने में निपुण थे। चूंकि सुमेरिया में कच्चे माल की कमी थी, इसलिए उन्हें ताँबा, टिन, सोना, चाँदी और सीसे जैसे खनिजों का बाहर से आयात करना पड़ता था।
वस्त्र-निर्माण : सुमेरियनों का दूसरा मुख्य उद्योग वस्त्र-निर्माण अर्थात् कपड़ा बुनना था। यहाँ भेड़ों से पर्याप्त मात्रा में ऊन मिल जाता था, जिसके कारण सुमेरियनों ने बहुत पहले ही ऊनी वस्त्र बुनना आरंभ कर दिया था। ऊनी वस्त्रों के साथ-साथ सुमेरियन सूती वस्त्रों का भी निर्माण करते थे और इसके लिए एक विशेष प्रकार के सन की खेती करते थे। वस्त्रोद्योग एक विशेष वर्ग के हाथ में था, जो सूत कातने से लेकर बुनने और रंगने तक का कार्य करता था।
गाड़ी बनाने के उद्योग : सुमेरिया में रथ और गाड़ी बनाने का कार्य भी बड़े पैमाने पर होता था। वस्तुतः विश्व में पहिये के प्रथम आविष्कारक सुमेरियन ही थे, क्योंकि यहाँ की खुदाई में रथों के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं। किश से मिली पहियेदार गाड़ियाँ संभवतः विश्व की सबसे पुरानी गाड़ियाँ हैं। सुमेरियन लोग रथों और गाड़ियों में लकड़ी के पहिये का प्रयोग करते थे और उस पर ताँबे या चमड़े का हाल चढ़ाया जाता था। इसके अतिरिक्त, सुमेर में बर्तन, रोटी, शराब, ईंट और मूर्ति बनाने का व्यवसाय भी प्रचलित था।
व्यापार-वाणिज्य
सुमेरियन सभ्यता में व्यापार-वाणिज्य उन्नत अवस्था में था। सुमेर में प्राकृतिक संसाधनों की कमी थी, किंतु खजूर और अनाज की उपज तथा औजार, आभूषण और ऊनी वस्त्र जैसी वस्तुओं के निर्माण के कारण सुमेरियनों को विदेशों से व्यापार संबंध स्थापित करने में बड़ी सहायता मिली। सुमेरवासी विभिन्न कृषि-उत्पादों जैसे- अनाज, खजूर, वस्त्र, चमड़ा, ऊनी वस्त्र, फल इत्यादि को बाहर भेजकर उसके बदले अपने आवश्यकता की वस्तुओं का आयात करते थे। सुमेरिया में ही सर्वप्रथम बहीखाता लिखने और ऋण प्रदान करने की व्यवस्था का आरंभ हुआ।
प्रारंभिक युग में सुमेरियन व्यापार में मंदिरों का बोलबाला था और अच्छे बाजार देवालयों के निकट स्थित होते थे। प्रायः मंदिर के सदस्य ही व्यापारियों और सौदागरों के रूप में स्थानीय वस्तुओं को बाहर भेजकर बदले में विदेशों से मंदिरों के उपयोग के लिए कीमती पत्थर, सोना, चाँदी, ताँबा, रत्न, मणियाँ, हाथीदाँत, इमारती लकड़ी और चंदन की लकड़ी इत्यादि लाते थे। बाद में कुछ स्वतंत्र व्यापारियों ने भी यह कार्य शुरू कर दिया था। सुमेरिया में उर नगर व्यापार का प्रसिद्ध केंद्र था। वास्तव में सुमेरियन लोग दैनिक जीवन में काम आने वाली आवश्यक वस्तुओं में आत्मनिर्भर थे और विदेशों से अधिकांशतः विलासिता की वस्तुओं का ही आयात करते थे।
सुमेरियन व्यापारी भारत, मिस्र व खाड़ी के देशों के साथ व्यापारिक वस्तुओं का आयात-निर्यात करते थे। पूर्व में सुमेरियनों के व्यापारिक संबंध सिंधु-घाटी तक फैले हुए थे। इसका प्रमाण सुमेरियन नगरों की खुदाई में मिलने वाली सैंधव मुद्राएँ हैं। पश्चिम में उनका व्यापार भूमध्यसागर के पूर्वी तट तक विस्तृत था, जहाँ सुमेरियन व्यापारी मिस्री व्यापारियों के साथ प्रतिद्वंद्विता करते थे।
सुमेरियन फारस की खाड़ी में स्थित ओमान से ताँबा, तोरूस से चाँदी, सीरिया, एशिया माइनर से टिन और बदख्शाँ से वैदूर्य का आयात करते थे। अभिलेखों में उल्लिखित ‘मेलुहा’ का समीकरण मोहनजोदड़ो से किया गया है, जहाँ से ताँबा आयात किया जाता था। आयात-निर्यात अधिकांशतः व्यापारिक काफिलों के द्वारा होता था और वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए बैलों, गधों और ऊँटों का प्रयोग किया जाता था। जहाँ जल यातायात की सुविधा प्राप्त थी, वहाँ नौकाओं का प्रयोग भी किया जाता था।
सुमेरियनों ने व्यापारिक समझौतों को लेखबद्ध करने की प्रथा प्रारंभ कर दी थी। व्यापारिक लेन-देन के अनुबंध, बाहर भेजी जाने वाली वस्तुओं तथा बाहर से आने वाली वस्तुओं के उल्लेख मिट्टी की पट्टियों पर किये जाते थे। मिट्टी की पट्टियों पर सुमेरियन लिपि में लिखे असंख्य व्यापारिक लेख उत्खनन (इब्ला से) में प्राप्त हुए हैं।
सुमेरियन बिल, रसीद और हुंडियों के प्रयोग से भी परिचित थे। व्यापारिक अनुबंधों को लेखबद्ध करना ही नहीं, उन पर गवाहों का हस्ताक्षर कराना भी आवश्यक समझा जाता था, ताकि कोई अनुबंध तोड़ न सके। अपने माल को लोकप्रिय बनाने के लिए आज की तरह कमीशन देने और एजेंट भेजने की प्रणाली भी सुमेरियन सभ्यता में शुरू हो चुकी थी।
सारगोनी वंश और उर के तृतीय राजवंश के समय विदेशी व्यापार में बड़ी उन्नति हुई। इसका एक कारण सुमेरियन और सेमाइट शासकों की सैनिक सफलताएँ थीं, जिसके कारण सुमेर का संबंध दूरस्थ देशों से स्थापित हुआ। दूसरे, सारगोन, नरामसिन और शुल्गी जैसे शासक व्यक्तिगत रूप से व्यापारियों की सुविधाओं का ध्यान रखते थे। सुमेरियन व्यापारिक प्रगति का एक तीसरा कारण व्यापार-पद्धति में सुधार भी था।
आरंभ में सुमेरियन व्यापार वस्तु-विनिमय पर अधारित था, किंतु सारगोन युग की सार्वभौमिक प्रगति के बाद वस्तुओं के विनिमय के स्थान पर धातु को विनिमय माध्यम के रूप में प्रयुक्त किया जाने लगा। अभी तक वास्तविक मुद्रा प्रणाली का प्रचलन नहीं हुआ था और विनिमय के लिए अकसर चाँदी की एक निश्चित भार की छड़ें प्रयुक्त की जाती थीं, जिनका भार एक शेकल के बराबर होता था। तौल के रूप में शेकेल के प्रयोग की पुष्टि ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ से भी होती है, जिसके अनुसार अब्राहम ने चार सौ शेकेल चाँदी से एक गुहा खरीदा था। संभवतः फारसी मुद्रा सिग्लोई का स्रोत सुमेरिया का शेकेल ही है।
सुमेरिया में व्यापारिक प्रगति के लिए ऋण देने की भी व्यवस्था थी। अलग-अलग वस्तुओं पर ब्याज की दरें अलग-अलग होती थी। उर के तृतीय राजवंश के समय में उधार पर ब्याज की दर 33.5 प्रतिशत थी। विलड्युरेंट के अनुसार ‘यदि ब्याज की दर के आधार पर किसी समाज की स्थिति का अनुमान किया जाए तो सुमेरियन व्यापारी एक अनिश्चित एवं असुरक्षित आर्थिक एवं राजनीतिक वातावरण में रहते थे।’
सुमेरियन धर्म एवं धार्मिक अवधारणाएँ
सुमेरियन धर्म आदर्श एवं उदात्त नहीं था, फिर भी इनके जन-जीवन में धर्म का विशिष्ट स्थान था। धर्म के केंद्र मंदिर सुमेरियनों की राजनीति तथा अर्थवयवस्था के मुख्य संचालक थे और राजा एक प्रकार से देवता का प्रतिनिधि माना जाता था। सुमेरियनों में धार्मिक भावना के विकास का कारण भय, कल्पना और विश्वास था। वे जिन वस्तुओं से भयभीत होते थे, उन्हें दैवीय स्वरूप प्रदान कर देते थे। इसलिए संसार की उत्पत्ति तथा विनष्ट होने के संबंध में अनेक पौराणिक आख्यान प्रचलित थे।
सुमेरियनों की विश्व-संबंधी कल्पना
सुमेरियनों का विश्वास था कि ब्रह्मांड का निर्माण ब्रह्मांडीय जन्मों की एक श्रृंखला के माध्यम से हुआ था। आदि काल में ‘नम्मू’ देवी के रूप में केवल जल था। नम्मू से एक देवी पर्वत का आविर्भाव हुआ, जिसकी तली ‘की’ (पृथ्वी) नाम की देवी और शिखर ‘अन’ (आकाश) नाम का देवता था। प्रारंभ में दोनों संयुक्त थे, किंतु कालांतर में ‘की’ और ‘अन’ के संभोग से ‘एनलिल’ (वायुदेव) का जन्म हुआ। एनलिल ने अपने पिता ‘अन’ और माँ ‘की’ को स्वर्ग और पृथ्वी बनाने के लिए अलग कर दिया और सूर्य, चंद्रमा तथा ग्रहादि को जन्म दिया। इस प्रकार, सुमेरियनों के अनुसार ‘विश्व अनंत और असीम महासमुद्र में स्थित पृथिवी तथा आकाश और उनके मध्य विचरण करने वाली वायु एनलिल है। इसलिए सुमेरियन विश्व के लिए ‘अनकी’ शब्द प्रयुक्त करते थे और एननिल को सृष्टि के देवता के रूप में मानते थे।
सुमेरियन देव-संसद
सुमेरियन आरंभ से ही एक देवसमूह के अस्तित्व में विश्वास रखते थे, जिन्होंने विश्व का निर्माण किया है। उनके अनुसार विश्व का कोई भी अंश ऐसा नहीं है जहाँ किसी देवता का वास न हो। इस प्रकार वे भी किसी वस्तु को अचेतन नहीं मानते थे। मानव की तरह सभी देवता एक विश्व-राज्य के सदस्य हैं। विश्व-राज्य में प्रत्येक देवता के अधिकारों और कर्त्तव्यों की एक निश्चित सीमा है अर्थात् प्रत्येक देवता एक विशिष्ट क्षेत्र में ही शक्तिमान है। कुछ देवता चंद्रमा, सूर्य तथा अन्य ग्रहों के, कुछ वायु, तूफान, पर्वत, नदियों और वर्षा जैसी प्राकृतिक शक्तियों के, कुछ नगर, राज्य और परिवार जैसी संस्थाओं के और कुछ हल, ईंट और कुल्हाड़ी जैसे उपकरणों के स्वामी हैं। इस प्रकार प्रत्येक जाति, व्यक्ति, नगर एवं राज्य, यहाँ तक कि प्रत्येक स्थान के भी अपने-अपने देवता थे। स्वाभावतः इनमें कुछ देवता बड़े और कुछ छोटे थे, किंतु सभी देवता ‘देव-संसद’ के सदस्य माने जाते थे, जिसका उल्लेख सुमेरियन साहित्य में यत्र-तत्र मिलता है।
विश्व की सर्वोच्च शक्ति के रूप में देव-संसद सभी देवताओं और मनुष्यों के भाग्य पर विचार करती है। इस देव-संसद में चार देवताओं को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है।
सुमेरियनों के अनुसार विश्व आकाश, वायु, जल और पृथिवी से बना है; इसलिए इनको नियंत्रित करने वाले अन, एनलिल और एनकी नामक देवता तथा निन्माह या निन्हुर्सग नाम की देवी सर्वोच्च माने जाते थे। इन चारों में कभी ‘अन’ को और कभी ‘एनलिल’ को ‘देवाधिदेव’ या ‘देवराज’ बताया गया है। इसके अलावा, ‘तामुज’, ‘इया’, ‘उतु’, ‘सिन’, ‘शमश’ आदि भी महत्वपूर्ण देवों की कल्पना विभिन्न रूपों में की गई थी।
सुमेरियन देव-संसद के प्रमुख देव
आकाशदेव अन
आरंभ में सुमेरियन आकाशदेव ‘अन’ को, जिसे बेबीलोनियन युग में ‘अनु’ कहा जाता था, सर्वोच्च देवता या देवराज मानते थे। वही विश्व-राज्य के सदस्य देवताओं को उनके पद और अधिकार देता था। यह कानून एवं व्यवस्था का देवता था और इसकी आज्ञाओं और नियमों को सभी देवताओं को मानना पड़ता था। इसकी पूजा साधारणतः समस्त सुमेर में होती थी, परंतु उसका उरुक (बाइबिल का एरेक) में स्थित मंदिर विशेष रूप से प्रसिद्ध था। तृतीय सहस्राब्दी ईसापूर्व में इसका महत्व कम हो गया और वायुदेव ‘एनलिल’ को देवराज माना जाने लगा। 60 का अंक इसका प्रतीक माना जाता था।
वायुदेव एनलिल
एनलिल को झंझावात और तूफान का देवता माना जाता था, जिसे कई अभिलेखों में ‘देवपिता’ ‘पृथिवी और आकाश का स्वामी’ और ‘सभी देशों का स्वामी’ बताया गया है। माना जाता था कि यही समस्त सृष्टि को अपने नियमों से व्यवस्थित करता है; इसी की इच्छा से सूर्योदय होता है और वनस्पति एवं अन्न उत्पन्न होते हैं। इसी के कारण मानव की भलाई के लिए हल इत्यादि उपकरण अस्तित्व में आये। यही देव-संसद की दंडाज्ञाओं को कार्यान्वित करता था और भारतीय इंद्र की तरह नगरों को नष्ट करता था। सुमेरियनों का विश्वास था कि एनलिल ने ही देवताओं की इच्छा से एलमी आक्रमण के रूप में उर नगर का विध्वंस किया था। सुमेर के शासक यह दावा करते थे कि एनलिल ने ही उनको राजा बनाया था। एनलिल का सबसे प्रसिद्ध मंदिर निप्पुर में था। यह ‘कुर’ कहलाता था और सुमेर का प्रमुख धर्म केंद्र था। एनलिल का प्रतीक 50 का अंक था।
जलदेव एनकी
सुमेरियन देवसमूह में तीसरा महत्वपूर्ण स्थान एनकी का था। इसे ‘अन्जु’ अथवा ‘जल का अधिपति’ कहा गया है। संभवतः प्राचीनतम् युग में यह पृथिवीदेव था और इसे ‘अनु’ का पुत्र माना जाता था, किंतु बाद में इसे पृथिवी के जीवनदायक जल के रूप में स्वतंत्र देव मान लिया गया। कालांतर में सुमेरियनों ने जल को ज्ञान और बुद्धि का प्रतीक मान लिया और एनकी को एनलिल के मंत्री का पद दिया। एनलिल के मंत्री के रूप में एनकी ही एनलिल के निर्णयों को कार्यान्वित करता था और नदियों, नहरों तथा सिंचाई के अन्य साधनों को नियंत्रित और उत्पादक शक्तियों को संगठित करता था। 40 का अंक एनकी का प्रतीक माना जाता था।
पृथिवीदेवी निन्माह
सुमेरियन देवसमूह में चौथा स्थान पृथिवी को प्राप्त था। कभी-कभी इसको एनकी से भी अधिक महत्वपूर्ण स्थान दे दिया जाता था। पृथिवी का प्राचीनतम नाम ‘की’ था। पृथिवी का सबसे सुंदर स्वरूप निन्हुर्सग (पृथिवी माता) था, जिसमें वह जीवन के अक्षय स्रोत के रूप में प्रति वर्ष भूमि को हरियाली से ढक देती थी। उर्वरता की देवी के रूप में इसे ‘निनतु’ (जन्मदात्री) कहा गया है। कुछ स्थानों पर इसे बच्चे को दुग्धपान कराते हुए माता के रूप में चित्रित किया गया है। यह देव-संसद में ‘अन’ और ‘एनलिल’ के साथ बैठती थी, इसलिए इसे ‘निन्माह’ (राजरानी या भाग्य विधात्री) कहा गया है।
अन्य देवता
सुमेरियन देवसमूह में इन चार प्रमुख देवताओं के अलावा अन्य सैकड़ों देवता थे, जिनकी पूजा पूरे सुमेर में विविध रूपों में की जाती थी। इनमें नीति और आचार के देवता ‘इया’, सूर्य देवता ‘ऊतू’ और प्रेम की देवी ‘इनन्ना’ प्रमुख हैं। ‘इया’ का एरेक में स्थित मंदिर समस्त सुमेर में प्रसिद्ध था। यह विपत्ति के समय मानव को शुभ और विवेकपूर्ण मंत्रणा देनेवाला देवता था। सूर्य देवता ‘ऊतू’ और प्रेम की देवी ‘इनन्ना’ का संबंध चंद्रदेव ‘सिन’ अथवा ‘नन्ना’ से बताया गया है। बेबिलोनियन युग में सेमाइटों के सूर्य देवता ‘शमस’ का ‘ऊतू’ के साथ और प्रेम की देवी ‘ईश्तर’ का ‘इनन्ना’ के साथ तादात्म्य स्थापित कर दिया गया। इन्नना का सबसे प्रसिद्ध मंदिर एरेक में था।
सुमेरियनों ने अपने देवताओं की कल्पना मानव रूप में की थी और इस प्रकार उनके देवी-देवता मानवीय आवश्यकताओं एवं दुर्बलताओं की परिधि के बाहर नहीं थे। मानव और देवता में केवल यही अंतर था कि देवता अमर्त्य, शक्तिशाली और जगतस्रष्टा थे, जबकि मनुष्य मर्त्य, दुर्बल और केवल नगर-निर्माता थे। यूनानी देवताओं के समान सुमेरियन देवता भी एक पर्वत पर निवास करते थे, जो पूर्व में उस स्थान पर अवस्थित था जहाँ से सूर्य उदय होता है। मंदिरों में देव-प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित रहती थी और उन्हें विभिन्न प्रकार के खाद्य-पदार्थ और पेय अर्पित करके उनसे अप्रत्यक्ष रूप से संबंध स्थापित किया जा सकता था। संभवतः आरंभ में नरबलि की प्रथा प्रचलन था, किंतु बाद में इसका स्थान पशुबलि ने ले लिया क्योंकि सुमेर से प्राप्त एक मिट्टी की पट्टी पर मनुष्य के स्थान पर भेड़ के प्रयोग का उल्लेख किया गया है।
द्वैतवाद का अभाव
सुमेरियन बहुदेववादी थे और उनके देवता सत्य और न्याय के संरक्षक थे। फिर भी, सुमेरियन देवताओं में शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ विद्यमान थीं, किंतु शुभ प्रवृत्तियाँ ही सक्रिय थी, अशुभ प्रवृत्तियों की केवल कल्पना की गई थी। वास्तव में अशुभ प्रवृत्तियाँ शुभ प्रवृत्तियों के ही अधीन थीं। यद्यपि अशुभ के प्रेरक देवता के रूप में नर्गल की कल्पना की थी, किंतु इसका स्थान प्रायः गौण ही रहा। इस प्रकार सुमेरियन एक ही देवता में शुभ और अशुभ दोनों गुणों का सन्निधान मानते थे, जैसे एनलिल यदि एक ओर सृष्टि का जनक था, तो दूसरी ओर विनाश का कारण भी था। इसी प्रकार सूर्यददेव शमश की किरणें यदि एक ओर मनुष्य में जीवन का संचार करती थीं, तो उसका दूसरी ओर आवश्यकता पड़ने पर पल भर में सृष्टि का विनाश भी कर सकती थीं।
सुमेरियन धर्म में कर्मकांड
सुमेरियन धर्म में नैतिकता और आध्यात्मिकता का कोई स्थान नहीं था, इसलिए धार्मिक अनुष्ठानों को संपन्न करने वाला चरित्रहीन व्यक्ति भी धार्मिक हो सकता था। देवता मनुष्य द्वारा दैवी नियमों को तोड़ने के कारण अप्रसन्न नहीं होते थे, बल्कि बलि न दिये जाने पर नाराज होते थे। सुमेरियन लोग मंदिर में देव-प्रतिमाओं के सम्मुख अनाज, खजूर, अंजीर, तेल, मधु, दूध और पशुओं की भेंट अर्पित करके प्रार्थना करते थे कि उन्हें सिंचाई के लिए पर्याप्त जल मिले, उनके खेतों की पैदावार बढ़े और उन्हें बाढ़ से मुक्ति मिले। सुमेरियन नगरों के उत्खनन में पाये गये विविध प्रकार के पूजा-पात्रों और रिलीफ-चित्रों से उनकी धार्मिक क्रियाओं पर प्रकाश पड़ता है।
परलोक विषयक कल्पना
यद्यपि सुमेरियन धर्म पूर्णतया लौकिक था, फिर भी कुछ देवता परलोक से विशेष रूप से संबंधित थे। परलोक के संबंध में सुमेरियनों की धारणा थी कि अच्छी-बुरी सभी मृतात्माएँ पृथिवी के नीचे ‘कुर’ अथवा पाताल (शियोल) नामक स्थान में रहती थीं। इसमें प्रवेश करने के लिए उन्हें ‘मृत्यु की नदी’ (वैतरणी) को पार करना पड़ता था। पाताल का शासन प्रेम की देवी इन्नना की बड़ी बहिन ‘एरेसकीगल’ और उसके पति प्लेग के देवता ‘नर्गल’ के हाथ में था। प्राचीन वीर गिल्गामेश वहाँ का न्यायाधीश था। इसके अतिरिक्त, एनलिल के तीन पुत्र भी यहाँ रहते थे। ‘कुर’ के संबंध में एक आख्यान मिलता है, जिसे ‘इना का पाताल में अवतरण’ कहा जाता है। इसमें कहा गया है कि एक बार स्वर्ग की रानी इनन्ना पर्यवेक्षण करने के लिए पाताल गई। परंतु पाताल के नियमानुसार वहाँ जाकर कोई लौट नहीं सकता था, इसलिए वहाँ जाने पर इनन्ना को भी मरना पड़ा। एनकी की सहायता से उसे पुनरुज्जीवन तो मिला, किंतु स्वर्ग लौटने की अनुमति इस शर्त पर मिली कि वह अपने स्थान पर किसी और देवता को पाताल में रहने के लिए भेज देगी। इनन्ना ने लौटकर अपने पति दुमूजी को मारकर पाताल भेज दिया। यह आख्यान बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह संभवतः इतिहास की पहली कथा है जिसमें किसी प्राणी के पाताल से लौटने का उल्लेख मिलता है।
मृतक-संस्कार
लौकिकवादी होने के कारण सुमेर में मृतक संस्कार का उतना महत्व नहीं था, जितना मिस्री धर्म में था। सुमेरियन लोग अपने मृतकों को प्रायः मकान के प्रांगण अथवा कमरे में फर्श के नीचे गाड़ देते थे। सामान्य लोगों को प्रायः चतुर्भुजाकार कब्र में लिटाकर उस पर कच्ची ईंटों की मेहराब-सी बना दी जाती थी। कभी-कभी मृतकों को दो विशाल मृद्भांडों में लिटाकर उनके मुँह जोड़ दिये जाते थे। समाधियों में मृतकों के साथ दैनिक उपयोग की वस्तुएँ- उपकरण, मृद्भांड एवं रजत, स्वर्ण और ताम्र के आभूषण और अस्त्र-शस्त्र आदि रखे जाते थे। संभवतः सुमेरियनों का विश्वास था कि मरने के बाद भी मृतात्मा को दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है। उर की राजसमाधि से, जिसका उत्खनन 1929 ई. में वूली के नेतृत्व में आंग्ल-अमरीकी अभियान ने किया था, मृत राजा के साथ न केवल अस्त्र-शस्त्र और आभूषण, बल्कि रानियों, अंगरक्षकों, सेवकों, दासियों और यहाँ तक कि बैलों के भी दफनाये जाने के प्रमाण मिले हैं। किंतु जनसाधारण में इसका प्रचलन नहीं था और सुमेर से इस प्रकार की राजसमाधि का कोई उदाहरण नहीं मिला है।
नैतिक दर्शन और व्यावहारिक सदाचार
सुमेरियनों का विश्वास था कि व्यवस्थित समाज का अस्तित्व उच्चतर दैवीशक्तियों के बिना संभव नहीं है और दैवीशक्तियाँ सदैव न्यायशील होती हैं, इसलिए उनकी आज्ञा का पालन करना श्रेयस्कर होता है। सुमेरियन अपने देवी-देवताओं की पूजा करते थे, और अपने राष्ट्र, राज्य तथा समाज के प्रति भी विनयी, श्रद्धावान और आज्ञाकारी बने रहने का प्रयास करते थे, किंतु इसका उद्देश्य पारलौकिक लाभ नहीं, बल्कि लौकिक सृद्धि और सुख-सुविधा प्राप्त करना था। किंतु इसकी प्राप्ति अनिवार्यतः हो ही जायेगी, वे ऐसा नहीं मानते थे।
सुमेरियन कल्पना के अनुसार मनुष्य विश्व-राज्य में दास मात्र है, इसलिए वह विश्व की प्रक्रिया को किसी प्रकार भी प्रभावित नहीं कर सकता था। इस प्रकार नैतिक आदर्शों के ऊपर ईश्वर की इच्छा प्रधान थी। सृष्टि का निर्माण और उर का विध्वंस देवताओं की इच्छा से ही हुआ था।
सुमेरियन लोग मानते थे कि मनुष्य का सृजन देवताओं की सेवा करने के लिए ही हुआ है और उनकी आज्ञा का पालन करना उसका सबसे बड़ा कर्त्तव्य है। वास्तव में सुमेर में व्यक्तिगत देवता के प्रति मनुष्य की निष्ठा और भक्ति को सर्वोच्च स्थान दिया गया था। इसके प्रतिदान में उसका देवता उसकी सुरक्षा का प्रबंध करता था और प्रसन्न होने पर पदोन्नति और पारितोषिक देता था। इस प्रकार सुरक्षा, स्वास्थ्य, दीर्घायु, पुत्र, धन, और समाज में आदरणीय स्थान आज्ञाकारिता और विनयशीलता के लाभ थे। इस दृष्टि से व्यक्तिगत देवता व्यक्ति और विश्व की शक्तियों- देवताओं के बीच कड़ी के समान था। उसका उपासक आशा करता था कि वह अपनी सामर्थ्य के अनुसार उसकी सहायता करेगा और आवश्यकता पड़ने पर बड़े देवताओं से उसकी सिफारिश करेगा। इस प्रकार, सुमेरियन जीवन-दृष्टि के अनुसार श्रेष्ठ जीवन का प्रतिफल किसी निश्चित नियम के अनुसार नहीं मिलता था। विनयशीलता से मनुष्य अपने व्यक्तिगत देवता की कृपा प्राप्त कर सकता था, किंतु यह आवश्यक नहीं था कि कृपा सदैव मिलेगी ही। इस प्रकार सुमेरियनों के नैतिक दर्शन का निष्कर्ष यही था कि मनुष्य को जीवन में जो दुःख-सुख मिलते हैं, उन्हें देवताओं की इच्छा मानकर स्वीकार करना चाहिए।
सुमेरियनों के व्यक्तिगत अथवा सामाजिक जीवन में सदाचार का अभाव नहीं था। इनके व्यावहारिक जीवन की जो झाँकी इनके विभिन्न आख्यानों में मिलती है, उनसे ज्ञात होता है कि मेसोपोटामिया की अन्य सभ्यताओं, विशेषकर असीरियनों एवं कैल्डियनों की अपेक्षा सुमेरियनों का जीवन सदाचारपूर्ण था। उनके संपूर्ण साहित्य में, एक-दो स्थलों को छोड़कर, कहीं भी अश्लील वर्णन नहीं मिलता है। समाज में दास प्रथा का अस्तित्व था, किंतु दासों के साथ अच्छा व्यवहार न किये जाने का कोई संकेत नहीं मिलता। सुमेरियन जुआ जैसी घृणित प्रथा से दूर थे। उनके समाज में शिक्षित वर्ग का आदर होता था और अपने देश के धार्मिक आख्यानों और सुदीर्घ इतिहास को जानना पुण्यकर्म माना जाता था। इस प्रकार कुछ दोषों के बावजूद सुमेरियनों का सामाजिक और व्यक्तिगत आचार-व्यवहार उनकी सभ्यता की प्राचीनता के अनुसार वस्तुतः प्रशंशनीय था।
आख्यानों की प्रधानता
सुमेरियन धर्म आख्यानपरक था। यहाँ कई प्रकार के आख्यान रचे गये थे। इनमें सृष्टि एवं प्रलय के आख्यान विशेष प्रचलित थे। इनका प्रभाव परवर्ती हिब्रू धर्मकथाओं पर पड़ा। जिस दैवी-संघर्ष का वर्णन सृष्टि आख्यान में मिलता है, उसमें अंतिम विजय मार्दुक की होती है। इसमें विश्व की रचना मार्दुक द्वारा मारे गये एक व्यक्ति (प्रतिद्वंदी) द्वारा कल्पित है। मनुष्य मिट्टी तथा रक्त के मिश्रण से बना है। इस आख्यान में बर्बरता का पुट अधिक है और नैतिक एवं आध्यात्मिक तत्त्व सर्वथा उपेक्षित हैं। इसी प्रकार जल-प्रलय संबंधी आख्यान में कहा गया है कि एक बार देवता मनुष्य जाति को नष्ट करने के लिए जल-प्रलय करने पर उतारू हो गये। किंतु एनकी ने शर्मपाक के रहनेवाले ज्युसुद्र नामक व्यक्ति को यह रहस्य बता दिया। ज्युसुद्र ने एनकी के आदेशानुसार एक नौका बनाकर उसमें अनेक जीवों, अन्नादि को भर लिया और परिवार सहित उस पर सवार हो गया। फिर इतना भयंकर जल-प्रलय हुआ कि देवता तक कुत्तों की भाँति भय से काँपने लगे। सात दिन के जल-प्रलय के बाद देवताओं का क्रोध शांत हुआ और ज्युसुद्र ने उन्हें बलि देकर प्रसन्न किया। उन्होंने ज्युसुद्र को अमृतत्व दिया और ‘दिलमुन’ पर्वत पर, जहाँ से सूर्य उदय होता है, स्थान दिया। देवताओं ने भविष्य में ऐसा कभी न करने का निश्चय किया।
यद्यपि सुमेरियन प्रलय आख्यानों में बर्बरता एवं प्राचीनता का पुट अधिक है, किंतु इनकी ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्ता कम नहीं है। संभवतः सुमेरिया में ही सबसे पहले इस आख्यान की परिकल्पना की गई थी। बाद में इसे अन्य संस्कृतियों में अपनाया गया। ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ में जिस प्रलयाख्यान का वर्णन मिलता है, उसका मूल स्रोत सुमेरियन आख्यान ही रहा होगा। कुछ विद्वान् इस पर बेबीलोनियन आख्यान का प्रभाव मानते हैं, किंतु लगता है कि यह आख्यान सुमेरिया से ही बेबिलोन गया रहा होगा। भारतीय वैदिक एवं पौराणिक वांग्मय में भी प्रलयाख्यान मिलता है। किंतु यह स्पष्ट नहीं है कि भारतीय आख्यान सुमेरिया का ऋणी है या सुमेरियन आख्यान भारत का। जो भी हो, प्रलय की कथा अति प्राचीन है, जिसे परंपरा और विश्वास के अनुसार विश्व के विभिन्न धर्मों में स्थान मिला है।
सुमेरियन राजनीतिक दर्शन
सुमेरियन विश्व-दृष्टि में मानव-राज्य का कोई अस्तित्व नहीं था, क्योंकि उनके अनुसार केवल देव-संसद द्वारा शासित विश्व-राज्य ही सार्वभौम सत्ता-संपन और बाह्य नियंत्रण से मुक्त था। सुमेरियनों के नगर-राज्य, राज्य न होकर विश्व-राज्य के अंतर्गत जागीर या रियासतें मात्र थे जो विभिन्न देवताओं के अधिकार में थीं और उनका उद्देश्य मानव कल्याण न होकर जागीरदार देवता का आर्थिक हित था।
सुमेरियन नगर-राज्य के केंद्र नगर-देवता के मंदिर थे, जो राज्य की भूमि के एक बहुत बड़े भाग का स्वामी होते थे। मंदिर के देवता के पास बड़ी संख्या में दैवी और मानवीय सेवक होते थे, जिनमें मानवीय सेवक-कृपक और दास- मकानों और खेतों में काम करते थे और दैवी सेवक यानी छोटे देवता उनका निरीक्षण करते थे। मानवीय सेवकों पर नियंत्रण के लिए ‘एनसी जैसे मानवीय निरीक्षक भी नियुक्त किये जाते थे। ‘एनसी’ एक प्रकार से ‘देवता की जागीर का प्रबंधक’ होता था। वही प्रधान न्यायाधिकारी और प्रधान सेनापति भी होता था और अपने नगर देवता के प्रतिनिधि के रूप में दूसरे नगरों के एनसियों से बातचीत करता था। युद्ध और शांति-विषयक निर्णय लेने का अधिकार केवल देवता को था और एनसी केवल उसकी आज्ञाओं को कार्यान्वित करता था। अपने स्वामी नगर-देवता की सलाह लेने के लिए एनसी पशुबलि, स्वप्न और ज्योतिषी का आश्रय लेता था। तीसरी सहस्राब्दी ई.पू. के बाद जब विशाल साम्राज्य की स्थापना हुई, तो सुमेरियनों ने नगर-राज्य के समान राष्ट्र-राज्य की कल्पना की, जिसका मूल उनके सार्वभौमसत्ता संपन्न विश्व-राज्य के सिद्धांत में सन्निहित था।
सुमेरियन कला एवं स्थापत्य
कला के क्षेत्र में प्राचीन सुमेरियन अपने समकालीन नीलघाटी के निवासियों की बराबरी नहीं कर सके। संभवतः प्राकृतिक संसाधनों के अभाव और निरंतर बाह्याक्रमणकारियों से त्रस्त होने के कारण भी उन्हें कलात्मक विकास का पर्याप्त अवसर नहीं मिल सका था। फिर भी, सुमेरिया की खुदाई में प्रासाद, देवालय (जिगुरत), मेहराब, गुंबद, स्तंभ, मूर्तियाँ, बर्तन, आभूषण, मुहर, और वाद्य-यंत्र आदि के जो नमूने मिले हैं, उनसे पता चलता है कि सुमेरियन सभ्यता के लोगों को विभिन्न कलाओं का ज्ञान था। उनकी कला सादगी और सरलता से परिपूर्ण थी, किंतु उसमें युद्ध-संबंधी स्थापत्यों की प्रधानता है।
वास्तुकला
सुमेरियन वास्तुकला में कोई विशेष प्रगति नहीं कर सके। इसका कारण संभवतः दजला फरात घाटी में पत्थरों एवं लकड़ियों का अभाव था। सुमेरियनों ने अपने भवनों के निर्माण में मिट्टी, नरकुल, ताड़-वृक्षों और कच्ची तथा पक्की ईंटों का प्रयोग किया था। सुमेरियन वास्तुकार भवन बनाने से पूर्व उसकी एक योजना बना लेते थे और इसके बाद निर्माण-कार्य आरंभ करते थे।
भवन निर्माण के पहले चरण में सुमेरियन नरकुलों को भूमि में वर्गाकार, आयताकार या वृत्ताकार गाड़कर अपनी झोपड़ी बनाते थे और नरकुल के सिरों को मोड़कर मेहराबदार और गुंबदाकार स्वरूप प्रदान करते थे।
विकास के दूसरे चरण में मिट्टी के टीलों पर ऊँचे आधार वाले कच्ची-पक्की ईंटों के भवन बनाये गये। इस पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनाई जाती थीं। सामान्य नागरिकों के भवनों की आधार-योजना बहुत सरल थी। इन भवनों में कई कमरे होते थे, जिसके बीच में एक विशाल कमरा (हॉल) होता था, जिससे होकर अन्य कमरों में जाया जाता था। आंतरिक कक्षों को धूप से बचाने के लिए विशेष प्रबंध किया जाता था।
भवन-निर्माण के तीसरे चरण में कुलीन लोगों के भवन 10 से 12 मीटर ऊँचे चबूतरे पर बनाये जाते थे। पहले भवन के मध्य में जो विशाल कमरा होता था, उसके स्थान पर खुला आँगन बनाया जाता था और उसके चारों ओर कमरे बने होते थे। भवन में अंदर जाने का केवल एक संकरा रास्ता होता था, जिससे देखने में ये भवन किले के समान लगते थे। राजमहल में मुख्य मुख्य द्वार के दोनों ओर दायें-बायें सुराख किये जाते थे ताकि सुरक्षा प्रहरी आने-जाने वालों की गतिविधियों पर नजर रख सकें। फर्श तथा प्लास्टर की गई अंदर की दीवारों को विभिन्न रंगों तथा चित्रों से सजाया जाता था। एक स्थानीय शासक के भवनावशेष से पता चलता है कि शासकों के भवनों में दो प्रांगण और आधुनिक भवनों की तरह अतिथि कक्ष, शयन कक्ष, मुख्य कक्ष, प्रतीक्षा कक्ष तथा शौचालय बनाये जाते थे और सेवकों के लिए पृथक् कमरे होते थे। भवनों में खिड़कियों का प्रयोग बहुत कम किया जाता था, किंतु पानी के लिए कुएँ बनाये जाते थे। पानी के निकास के लिए प्रायः पक्की ईंटों की मेहराबदार नालियाँ बनाई जाती थीं। सुमेरियन अपने भवनों को सीमित रूप में ही सही, लेकिन सुंदर फर्नीचरों से सुसज्जित करने का प्रयास करते थे।
स्तंभों और मेहराबों का प्रयोग
सुमेरियन वास्तुकार स्तंभों और मेहराबों के प्रयोग से परिचित थे। निप्पुर से लगभग पाँच हजार वर्ष पुरानी एक मेहराबदार नाली का अवशेष मिला है। उर की राजसमाधि में प्रयुक्त मेहराब तो संभवतः और भी अधिक पुरानी है। द्वितीय सहस्राब्दी ईसापूर्व के प्रारंभ तक उर में दरवाजों में मेहराब का सामान्य प्रयोग होने लगा था। पता चलता है कि सुमेरियन वास्तुकार मेहराब के प्रयोग से केवल दरवाजे ही नहीं, छत बनाने में भी निपुण थे।
प्राचीन सुमेर के लोग स्तंभों के प्रयोग से भी परिचित थे। एरेक से लगभग 3000 ईसापूर्व के कुछ बड़े स्तंभ मिले हैं, जिनका व्यास 2.5 मीटर है। इससे लगभग दो-तीन सौ वर्ष के बाद के स्तंभ किश नगर से पाये गये हैं। अन्ने-पाद-दा द्वारा निर्मित अल-उबैद के मंदिर और उर-नम्मु द्वारा उर के एक मंदिर में भी स्तंभों का प्रयोग किया गया था। सुमेरियन मेहराब, चापछत (वाल्ट) और स्तंभों के साथ-साथ गुंबद बनाना भी जानते थे।
मंदिर और जिगुरत
सुमेरियन सभ्यता के केंद्र नगर थे और नगरों के केंद्र मंदिर। सुमेरियन मंदिर वस्तुतः प्राचीर से परिवेष्टित एक विशाल भवन समूह होता था, जिसमें मंदिर के साथ-साथ भंडारगृह, कार्यालय इत्यादि भी होते थे। मंदिरों में ही पुजारियों, देवदासियों और सेवकों के रहने की व्यवस्था होती थी। मंदिर-निर्माण के लिए बहुमूल्य पत्थर बाहर से मँगाये जाते थे। नानार के मंदिर में पॉलिशदार टाइल्स, संगमरमर तथा सोने का प्रयोग किया गया था।
अर्थव्यवस्था से घनिष्ठ रूप से संबंधित होने के कारण सुमेरियन मंदिरों का अत्यधिक महत्व था। तृतीय सहस्राब्दी ईसापूर्व में यहाँ वर्गाकार पिरामिडनुमा मंदिरों का निर्माण किया गया था, जिन्हें ‘जिगुरत’ या ‘जिकुरत’ कहा गया है। सुमेरियन भाषा में ‘जिगुरत’ शब्द का अर्थ होता है- ‘पर्वत निवास’। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि सुमेरियन मूलतः पर्वतीय प्रदेश के निवासी थे, इसलिए उन्होंने अपने देवताओं के लिए पर्वताकार भवनों का निर्माण किया और उन्हें जिगुरत नाम दिया था। कुछ अन्य लोगों का विचार है कि जिगुरत एक प्रकार के स्वर्ग-सोपान थे।
जिगुरत के पूर्ण अवशेष न मिलने के कारण इसके वास्तविक आकार-प्रकार के संबंध में मतभेद है। नवबेबिलोनियन युग के एक कीलाक्षर (क्यूनीफॉर्म) लेख में बेबीलोन के प्रसिद्ध जिगुरत के, जिसे बाइबिल में ‘टावर ऑफ बाबेल’ कहा गया है, आकार-प्रकार का विवरण दिया गया है। वूली के नेतृत्व में किये गये उर के उत्खनन से भी जिगुरत के अवशिष्ट भाग मिले हैं। टेलर के नेतृत्व में संपन्न उर के उत्खनन में एक मीनार के ऊपरी भाग से एक लेख भी मिला है, जिसमें भवन के निर्माण का इतिहास लिखा है। यह लेख 550 ईसापूर्व का है। इसके अनुसार टावर की स्थापना उर-नम्मु तथा उसके पुत्र शुल्गी ने की थी, किंतु वे इसे पूर्ण नहीं कर सके थे। नेबु-नैद ने इसे पूरा किया था। जिगुरत के संबंध में यह पहला आभिलेखिक उल्लेख है।
जिगुरत के आकार-प्रकार के संबंध में अनुमान है कि जिगुरत एक ऐसा घनाकार अट्टालक होता था जिसका निर्माण एक प्रशस्त वेदिका के ऊपर किया जाता था। इसके ऊपर क्रमशः लघुतर होते हुए सीढ़ीदार पिरामिड की तरह कई चबूतरे होते थे, जिन पर कमरे बने होते थे। इसके अगले भाग में तीन सीढ़ियाँ बनाई जाती थीं- दो तिरछी और एक सीधी। तीनों सीढ़ियाँ भवन की आधी ऊँचाई पर पहुँच कर एक द्वार के सामने मिल जाती थीं। निप्पुर के जिगुरत में ये सीढ़ियाँ 150 फुट ऊँची थीं। कुछ जिगुरतों में कई समतल छज्जे बनाये जाते थे, जो हरियाली से ढ़के रहते थे। जिगुरत में सबसे ऊपर वर्गाकार मंदिर होता था, जिसमें एक खुला प्रांगण और उसके पीछे देवस्थान बनाया जाता था। संभवतः यहाँ देवता आकर निवास करते थे। थार्नडाइक का अनुमान है कि इस स्थल से वायु अथवा प्रकाश से संबंधित किसी पर्वत देवता की पूजा की जाती थी या स्वर्ग के लोगों को देखा जाता था।
निप्पुर में एनलिल के जिगुरत का, जो सुमेरियनों की दृष्टि में सबसे महत्त्वपूर्ण था, बाहरी भाग पक्की ईंटों से बनाया गया था। सुमेरियन जिगुरतों में सर्वाधिक प्रसिद्ध उर-नम्मु द्वारा निर्मित उर का जिगुरत था, जो लगभग 2000 ईसापूर्व में बनाया गया था। उर-नम्मु के जिगुरत का निचला हिस्सा 61 मीटर लंबा और 55 मीटर चौड़ा था और इसकी कुल ऊँचाई 21 मीटर थी। इसमें प्रयुक्त उत्तलता के सिद्धांत का अनुकरण सोलह सौ वर्ष बाद पाँचवीं शती ईसापूर्व में यूनानियों ने किया।
सुमेरियन वास्तुकृतियों के अवशेषों से लगता है कि सुमेरियन वास्तुकार परंपरावादी थे, किंतु उनमें मौलिकता की कमी नहीं थी। संभवतः परंपरा के दबाव में उनकी मौलिकता को मुखरित होने का पूरा अवसर नहीं मिला। सुमेरियन कारीगरों की परंपरावादी प्रवृत्ति का पूर्ण विकास सार्वजनिक भवनों के निर्माण में दिखाई देता है, जबकि शासकीय समाधियों और सर्वसाधारण के भवनों में उनकी मौलिकता स्पष्ट परिलिक्षित होती है। इस प्रकार मेसोपोटामिया में तोरण, गुंबद और बुर्ज के प्रथम निर्माता सुमेरियन वास्तुकार ही थे।
मूर्ति कला
सुमेरियनों को वास्तुकला की अपेक्षा मूर्ति कला के क्षेत्र में अधिक सफलता मिली थी। उनकी प्रारंभिक मूर्ति कला के कुछ सुंदर नमूने उर के प्रथम राजवंश की समाधियों से मिले हैं, जो अत्यधिक आकर्षक एवं स्वाभाविक हैं।
सुमेरियन स्थापत्य मूर्तियों में पाषाण पर उत्कीर्ण दूध-उद्योग के दृश्य, ‘उर की पताका’, ‘इयन्नातुम का गृध्र-पाषाण’ और ‘नरामसिन-पाषाण’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उर की पताका में सुमेरियन कलाकारों ने उर के एक शासक की विजययात्रा का चित्रण किया है, जिसमें उर के शासक को विजयोपरांत रथ पर सवार होकर लौटते हुए दिखाया गया है। शत्रु सैनिक बंदी बनाकर घसीटे जा रहे हैं अथवा रथ के नीचे रौंदे जा रहे हैं। उर के सैनिक पंक्तिबद्ध होकर प्रयाण कर रहे हैं। एक अन्य दृश्य में विजय के उपलक्ष में आयोजित उत्सव का चित्रण है। इसमें राजपुरुष कुर्सियों पर बैठे हुए हैं और हाथों में प्याले लिये हुए हैं। उर की पताका के निर्माण में नीलम, शंख तथा गुलाबी चूना-पत्थर का उपयोग किया गया है।
सुमेरियन स्थापत्य कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण इयन्नातुम के गृध्रपाषाण है, जो लगश के शासक इयन्नातुम ने उम्मा पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में उत्कीर्ण कराया था। इसमें इयन्नानुम को गधों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर बैठकर अपने सैनिकों का नेतृत्व करते हुए दिखाया गया है। उसके सैनिक मृत शत्रुओं के शरीरों को रौंदते हुए पंक्तिबद्ध चल रहे है, सैनिकों के सिर शिरस्त्राणों से ढँके हुए हैं और बाल बाहर लटके हुए हैं, किंतु मुख केश रहित हैं। इसी प्रकार की वेषभूषा और सज्जा इयन्नानुम की है। पाषाण के एक अन्य स्थल पर निन्गिरशु देवता को लगश का राजचिह्न धारण किये हुए दिखाया गया है। इसमें गृध्रों को शत्रु सैनिकों के मृत शरीरों का भक्षण करते हुए प्रदर्शित किया गया है, इसीलिए इसे ‘गृध्र-पाषाण’ कहते हैं।
सुमेरियन स्थापत्य कला का सर्वोत्तम उदाहरण नरामसिन-पाषाण हैं, जिसमें तीसरी सहस्राब्दी ईसापूर्व के अक्कादी शासक नरामसिन की सतुनी नामक शासक पर विजय का चित्रण है। इसमें नरामसिन को हाथ में धनुष-बाण लिए हुए पर्वतीय ढलानों पर चढ़ता हुआ दिखाया गया है। शासक के शरीर पर कवच नहीं है, परंतु सिर शिरस्त्राण से ढ़का है। उसके सम्मुख सतुनी घायल अवस्था में गिरा पड़ा है और अपनी गरदन से बाण निकालने का प्रयास कर रहा है। सतुनी के पीछे त्राण माँगती हुई एक मानवाकृति है। नरामसिन के पीछे और नीचे की ओर स्थित ढलानों पर उसके सैनिक धनुष, भाले और पताकाएँ लिए चढ़ रहे हैं। आकाश की ओर मार्तंड एवं नक्षत्र प्रकाशमान हैं।
सुमेरिया से स्वतंत्र मूर्तियाँ भित्ति मूतियों की अपेक्षा कम हैं। उर के एक मंदिर के सामने चबूतरे पर वृषभ की एक मूर्ति मिली है और उसी के समीप द्वार पर एक सिंहमुखी चील की मूर्ति है, जो हिरण के एक जोड़े पर पंख फैलाये बैठी है। इसी प्रकार उर से ही एक चाँदी की गाय का सिर मिला है, जो तत्कालीन विकसित कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। वास्तव में सुमेरियन कला धर्म से सर्वथा असंबद्ध और परंपराओं के बंधन से मुक्त थी, इसलिए उनके द्वारा चित्रित मानवों और पशुओं की आकृतियों में कौशल और कल्पना का अद्भुत समन्वय मिलता है।
अन्य विविध कलाएँ
वास्तु और स्थापत्य के साथ-साथ सुमेरियन मुद्रा-निर्माण, भांड-निर्माण तथा आभूषण निर्माण में भी सफल माने जा सकते हैं। विश्व इतिहास में चाक के प्रथम आविष्कर्ता सुमेरियन ही थे। आरंभ में जब चाक का ज्ञान नहीं था, वे हाथ से बर्तन बनाते थे। चाक के आविष्कार के बाद वे चाक की सहायता से बर्तन बनाने लगे थे। किंतु सुमेरियन बर्तनों के जो अवशेष मिले हैं, वे बहुत आकर्षक नहीं हैं और इस मामले में वे सिंधुघाटी के निवासियों की बराबरी नहीं कर सके।
सुमेरियन कलाकार धातुओं से उच्चकोटि के बर्तन, आभूषण और अस्त्र-शस्त्र बनाना जानते थे। उर की समाधियों से कई धातुपात्र पाये गये हैं, जो ताँबे और चाँदी से बनाये गये थे। यहाँ से प्राप्त रजतपात्र समूहों में एक ट्रे और एक जग मिला है जिसका उपयोग संभवतः धार्मिक अवसरों पर किया जाता था। चाँदी के साथ-साथ सोने के भी बहुत से पात्र मिले हैं, जिसमें एक कटोरा विशेष महत्वपूर्ण है। धातु के साथ-साथ सुमेरियन दुधिया पत्थर से भी बर्तन बनाना जानते थे। संभवतः शीशे के बर्तन भी सर्वप्रथम सुमेर में ही बनाये गये थे।
उर की समाधि से एक स्वर्णनिर्मित राजमुकुट मिला है, जिस पर उच्चकोटि की कलाकारी की गई है। वास्तव में सोने का जितना अच्छा और बारीक काम सुमेरियनों ने 2700 ईसापूर्व किया था उतना कभी और कहीं नहीं किया गया। लगश से प्राप्त चाँदी के एक बर्तन पर बहुत सुंदर नक्काशी मिलती है। इसके बीच में एक सिंहमुखी चील को दिखाया गया है, जो अपने पंजों में दो सिंहों को और प्रत्येक सिंह एक-एक जंगली बकरी को पकड़े हुए हैं।
सुमेरियन लोग पत्थर को तराश कर मुद्रा-चिह्न बनाने की कला में प्रवीण थे। व्यापारिक लेन-देन के लिए सुमेरियन व्यापारी मिट्टी की पट्टी पर लिखने के बाद उस पर अपना मुद्रा-चिह्न अंकित करते थे। इनका आकार-प्रकार समयानुसार बदलता रहता था। प्रारंभ में इन्हें वर्गाकार, गोल ओर अंडाकार बनाया जाता था, किंतु कुछ समय बाद बेलनाकार मुद्राएँ भी बनने लगीं। आरंभ में इन मुद्राओं पर पशुओं के चित्र बनाये जाते थे; किंतु परवर्ती कालों में बेलनाकार मुद्राओं पर संबंधित व्यक्ति के नाम के साथ-साथ धार्मिक कथाओं के दृश्य अंकित किये जाने लगे। कलात्मक दृष्टि से सुमेरियन मुद्राएँ निश्चित रूप से मिस्र और बेबीलोन की परवर्ती मुद्राओं से श्रेष्ठतर हैं। इन मुद्राओं के निर्माण में सफेद चलसडॉनी, गहरे लाल जैस्पर जैसे पत्थरों का प्रयोग किया जाता था। कुछ मुद्राएँ स्फटिक की मिली हैं, जो परदर्शी हैं।
बौद्धिक उपलब्धियाँ
लिपि का विकास
सर्वप्रथम लिपि और लेखन-कला का विकास समेरियनों ने किया। सुमेरियन पुजारियों को अपने मंदिरों की आय-व्यय का विवरण रखना पड़ता था। चतुर्थ सहस्राब्दी ईसापूर्व की अंतिम शताब्दियों में उन्होंने मिट्टी की पाटियों पर रेखाएँ खींचकर मंदिरों में पशुओं और वस्तुओं की संख्या लिखना प्रारंभ कर दिया था। धीरे-धीरे इन संख्याओं के साथ उन वस्तुओं और पशुओं के चित्र भी बनाये जाने लगे, ताकि वस्तुओं और पशुओं की संख्या अलग-अलग याद रखी जा सके। सुमेर के एक नगर से प्राप्त प्राचीनतम् अभिलेखों पर इसी प्रकार के चित्र और संख्याएँ उत्कीर्ण हैं। इस वस्तु-चित्र लिपि को अंग्रेजी में ‘पिक्टोग्राम’ कहा गया है।
किंतु इस आदिम चित्रलिपि से सुमेरियनों की आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो पाती थी। इसलिए सुमेरियनों ने चित्रों को सरलतर और संक्षिप्त करना प्रारंभ किया। किंतु चित्रलिपि में केवल कुछ स्थूल पदार्थों का भाव अभिव्यक्त किया जा सकता था, सभी का नहीं। उदाहरण के लिए इसमें सिर की आकृति बनाकर सिर का भाव प्रकट किया जा सकता था, परंतु मुँह का भाव प्रकट करने में कठिनाई होती थी। इस कठिनाई को दूर करने के लिए उन्होंने वस्तुचित्रों में कुछ परिवर्तन करके उन्हें भिन्न अर्थ देने की विधि अपनाई। जैसे सिर की आकृति में टोड़ी के नीचे एक छोटी रेखा खींचकर उसे ‘मुँह’ मान लिया। कभी-कभी दो या अधिक वस्तुचित्रों को मिलाकर अभीष्ट भाव व्यक्त करने का प्रयास किया जाता था। जैसे स्त्री की आकृति बनाकर केवल ‘स्त्री’ का भाव प्रकट किया जा सकता था, यह नहीं बताया जा सकता था कि वह स्वतंत्र स्त्री है अथवा दासी। इस समस्या को हल करने के लिए स्त्री के साथ ‘कुर’ अर्थात् पर्वत का चित्र बनाकर ‘दासी’ का भाव अभिव्यक्त किया जाने लगा क्योंकि सुमेर में दासियाँ प्रायः पर्वतीय प्रदेश से लाई जाती थीं। इस प्रकार चित्रलिपि, वस्तुबोधक होने के साथ-साथ भावबोधक हो गई।
किंतु भावचित्रों की सहायता से केवल स्थूल पदार्थों का ही बोध कराना संभव था, अमूर्त्त विचारों जैसे सौंदर्य, दिन, स्वप्न इत्यादि को अभिव्यक्त करना असंभव था। कभी-कभी दो चित्र मिलकर दो अर्थ व्यक्त कर अर्थ-भ्रम उत्पन्न करते थे, जैसे ‘राजा महल को जाता है, यह वाक्य लिखने के लिए ‘राजा’ और ‘महल’ का अंकन ही पर्याप्त नहीं था, क्योंकि इन दो शब्द चित्रों का अर्थ ‘यह राजा का महल है’ भी हो सकता था। इन समस्याओं को हल करने के लिए सुमेरियनों ने अनेक विधियाँ अपनाई। अब सुमेरियन एक ही वस्तुचित्रों के एक से अधिक, परंतु परस्पर संबद्ध अर्थ मानने लगे। जैसे सूर्य के चित्र से सूर्य के अतिरिक्त दिन का और हल के चित्र से हल के अतिरिक्त कृषक का भाव अभिव्यक्त किया जाने लगा। परंतु इससे भी प्रगति एक सीमा पर जाकर रुक गई क्योंकि अनेक विचारों को स्थूल वस्तु चित्रों के माध्यम से अभिव्यक्त करना सर्वथा असंभव था।
लिपि के क्षेत्र में अगला विकास वस्तु चित्रों की ध्वनि और उनके अर्थ को पृथक् करके किया गया। सुमेरियन लिपि में अभी तक प्रत्येक चित्र से अभिव्यक्त वस्तु का अथवा उससे मिलता-जुलता अर्थ ही ग्रहण किया जाता था। इसके आगे की प्रगति के लिए आवश्यक था कि चित्र को वस्तुबोधक न मानकर ध्वनिबोधक (फोनेटिक) माना जाए। उदाहरण के लिए सुमेरियन भाषा में ‘ती’ शब्द का अर्थ होता था- ‘बाण’ अथवा ‘जीवन’। इनमें बाण का चित्र बनाना संभव था, ‘जीवन’ का चित्र बनाना असंभव। किंतु ‘बाण’ का चित्र बनाकर यदि उसे केवल ‘ती’ ध्वनि के रूप में ग्रहण किया जाता बाण वस्तु के अर्थ में नहीं, तो उस वस्तु चित्र का प्रयोग ‘जीवन’ के अर्थ में भी हो सकता था। जैसे किसी सुमेरियन को यह कहना होता कि ‘एनलिल देवता जीवन देता है’ तो वह ‘एनलिल’ के बाद ‘बाण’ अर्थात् ‘ती’ का चित्र बनाकर अपना आशय प्रकट कर सकता था। इस प्रकार सुमेरियन लगभग 3000 ईसापूर्व तक वस्तुचित्रों से ध्वनि-चित्रों तक पहुँच गये।
ध्वनिचित्रों के आविष्कार से शब्दांश लिपि (सिलेबिक स्क्रिप्ट) का विकास बहुत आसान हो गया। शब्दांश लिपि उस लिपि को कहते हैं, जिसमें किसी एक शब्द को लिखने के लिए उस शब्द में प्रयुक्त होने वाली ध्वनियों के बोधक चित्रों को संयुक्त कर दिया जाए। जैसे- यदि ‘गो’ शब्द का भाव गाय का चित्र बनाकर व्यक्त किया जाए तो वह चित्र-लिपि होगी और यदि गाय के चित्र का प्रयोग ऐसे शब्दों को लिखने में किया जाए जिनमें ‘गो’ शब्द आया है, जैसे ‘गोरखपुर’, तो वह शब्दांश लिपि मानी जायेगी।
शब्दांश लिपि के विकास से लिपि संबंधी कुछ कठिनाइयाँ हल हो गईं, किंतु अभी भी कई कठिनाइयाँ बनी हुई थी। एक कठिनाई किसी वाक्य में अनेकार्थी चिन्हों का अर्थ निश्चित करने की थी, जैसे- ‘एनलिल-ती’ वाक्य में ‘ती’ के दो अर्थ होते थे- बाण तथा जीवन। यदि प्रयोग-प्रसंग से स्पष्ट न हो, तो ‘ती’ का निश्चित अर्थ प्राप्त करना कठिन था। सुमेरियन लोग इस कठिनाई को दूर करने के लिए सूचक-चिह्नों या संकेतों का प्रयोग करते थे। जैसे ‘एनलिल ती’ वाक्य में ‘ती’ का अर्थ ‘बाण’ होने पर वे उसके आगे काष्ठबोधक ‘गीश’ नामक शब्द-चित्र बना देते थे। इसी प्रकार हल-चिह्न कृषक एवं हल दोनों क बोधक था। किंतु हल आशय व्यक्त करने के लिए उसके साथ ‘गीश’ ’शब्द चित्र तथा कृषक का आशय व्यक्त करने के लिए मनुष्यबोधक ‘लू’ चिह्न जोड़ दिया जाता था। इस प्रकार सुमेरियन चित्रलिपि वस्तुबोधक, भावबोधक, ध्वनिबोधक, शब्दांशात्मक तथा संकेत-सूचक रूपों में विकसित हुई, किंतु वे शब्दांश लिपि से आगे विशुद्ध वर्णमाला तक नहीं पहुँच सके अर्थात् शब्दांशों को सरल करके व्यंजनों का आविष्कार नहीं कर सके। किंतु उनकी चित्रलिपि इतनी विकसित और वैज्ञानिक थी कि वे इनके माध्यम से अपने विचारों को अभिव्यक्त करने में भलीभाँति समर्थ हो गये थे। इस लिपि में संसार के सबसे पुराने व्यापारिक खाते बनाये गये और खातों में दुहरी प्रविष्टि या डबल एंट्री व्यवस्था का प्रयोग शुरू हुआ, जो आज तक प्रचलित है। इसी लिपि में प्राचीन कैलेंडर का भी निर्माण हुआ।
लेखन-कला का विकास
सुमेर में मिस्र के समान पेपाइरस रीड से कागज बनाने की सुविधा नहीं थी। किंतु वहाँ मिट्टी प्रचुरता से प्राप्य थी, इसलिए सुमेरियन व्यापारिक दस्तावेजों, पत्रों, तथा अनुबंधों के लिए मिट्टी की पाटियों (टेब्लेट्स) का प्रयोग करते थे, जबकि स्मारक लेखों या प्रशस्तियों के लिए प्रस्तर-शिलाओं या धातु-पत्रों का प्रयोग किया जाता था। पहले गीली मिट्टी की आयताकार या वर्गाकार या अन्य आकारों में पाटियाँ बना ली जाती थीं। इसके बाद गीली पाटियों पर नरकुल (रीड) की नुकीली कलम की सहायता से लिखा जाता थे। प्रारंभ में कलम की नोंक अत्यंत तेज रहती थी, किंतु बाद में गीली मिट्टी पर शब्द-चित्रों की गोल रेखाओं को खींचने में कठिनाई हुई तो नोंक को मोटा किया जाने लगा। पाटियों पर लिखते समय कलम का प्रयोग खरोंच कर नहीं, बल्कि दबाकर किया जाता था और जब एक चित्र पूरा हो जाता था तो कलम को उस स्थान से उठा लिया जाता था और दूसरी जगह रखते थे। कलम की नोंक के वक्र-झुकाव के कारण चित्र का एक सिरा दूसरे सिरे की अपेक्षा अधिक चौड़ा हो जाता था, जिससे उसका आकर त्रिकोण या कील के समान हो जाता था। इस प्रकार की आकृति के लिए लैटिन भाषा में ‘क्युनियस्’ शब्द आता है, इसलिए सुमेरियन लिपि को कीलाक्षर (क्यूनीफॉर्म) लिपि कहा जाता है। ‘उर’ नगर की खुदाई में मिट्टी की तीस हजार तख्तियाँ मिली हैं, जिन पर कीलाकार लिपि के चिह्न अंकित हैं। विद्वानों ने इसे एक विशाल पुस्तकालय बताया है। अनुमानतः कीलाक्षर लिपि में अक्षरों की संख्या 250 से 300 तक रही होगी।
मिट्टी की पाटियाँ लिखने के बाद धूप में सुखाने पर सख्त और आग में पका लेने पर पत्थर के समान कठोर और स्थायी हो जाती थीं। बाहर भेजने के लिए उसे गीला ही मिट्टी के लिफाफे में भर दिया जाता था, लेकिन पाटी को लिफाफे में चिपकने से बचाने के लिए दोनों के बीच में मिट्टी का चूर्ण डाल दिया जाता था। इसके बाद पत्र और लिफाफे को सुखाकर आग में पका लिया जाता था। कीलाकार लिपि को सबसे पहले पढ़ने का श्रेय हेनरी रॉलिंसन को है, जिन्होंने दारा के बेहिस्तून लेख की सहायता से, जो लगभग 100 मीटर की ऊँचाई पर था, इसका पाठ प्रस्तुत किया था।
सुमेरियन लिपि पश्चिमी एशिया की प्राचीनतम् ज्ञात लिपि है। इसका प्रयोग सुमेरियनों के अतिरिक्त अन्य बहुत-सी जातियों ने किया। सेमाइटों के पास अपनी कोई लिपि नहीं थी, इसलिए उन्होंने सुमेरियन लिपि को ही अपनी भाषा के लिए प्रयुक्त किया। असीरियनों और कैल्डियनों ने भी इसी लिपि में अपने अभिलेख उत्कीर्ण कराये। कालांतर में हित्तियों ने अपनी राष्ट्रीय चित्राक्षर (हाइरोग्लाइफिक) लिपि के साथ इसका प्रयोग किया। दूसरी सहस्राब्दी ईसापूर्व में यह पश्चिमी एशिया और मिस्र के राज्यों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय लिपि के रूप में प्रयुक्त हुई।
सुमेरियन शिक्षा-पद्धति
सुमेरियन शिक्षा-पद्धति और पाठशालाएँ कीलाक्षर (क्यूनीफॉर्म) लिपि के आविष्कार का परिणाम थीं। आरंभ में सुमेरिया में मंदिरों का प्रयोग विद्यालय के रूप में होता था, किंतु 3000 ईसापूर्व के मध्य तक सुमेर में कीलाक्षर लिपि की शिक्षा देने वाली पाठशालाओं का जाल-सा बिछ गया था। तीसरी सहस्राब्दी ईसापूर्व के अंतिम चरण के ऐसे दसियों हजार अभिलेख मिले हैं, जो संभवतः पाठशालाओं में पाठ्य-पुस्तकों के रूप में प्रयुक्त होते थे। सुमेरियन पाठशालाओं का मुख्य उद्देश्य देश के राजकीय कार्यालयों, मंदिरों और व्यापारियों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए लिपिकों को प्रशिक्षण देना था। किंतु इस व्यावहारिक लक्ष्य के बावजूद सुमेरियन पाठशालाएँ कालांतर में विद्या और संस्कृति का केंद्र बन गईं। सुमेर के विद्वान् अध्यापक विद्यार्थियों को शिक्षा देने के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान की उन्नति के लिए शोधकार्य भी करते थे। पाठशाला के प्रधान अध्यापक को ‘उम्मिया’ कहा जाता था, जो अपने सहयोगी अध्यापकों की सहायता से विद्यार्थियों को लिखना सिखाता था और सुमेरियन भाषा की शब्दावली को याद करवाता था। जब सुमेर पर अक्कादी सेमाइटों का अधिकार स्थापित हुआ, तो सुमेरियन विद्वानों ने विश्व के प्राचीनतम् शब्दकोष बनाये, जिनमें सुमेरियन शब्दों का अक्कादी भाषा में अर्थ दिया हुआ था।
सुमेरियन साहित्य
प्रारंभ में सुमेरिया में सुमेरियन भाषा प्रचलित थी, बाद में अक्कादी सेमाइटों के समय सेमिटिक भाषा का प्रचलन हुआ। सुमेरियन साहित्य और आख्यान, केवल सुमेरियन भाषा में ही नहीं, बल्कि सेमेटिक भाषा में भी लिखे गये, विशेषकरः अक्कादी युग में। वास्तव में अक्कादी सेमाइट सुमेरियन भाषा को पवित्र मानते थे। पुरातत्वविद् सारजाक को टेलो स्थान से गुडिया (गूडी) के समय के एक पुस्तकालय का भग्नावशेष मिला था, जिसमें 30,000 से अधिक मिट्टी की पाटियाँ सलीके से रखी थीं। आधुनिक विद्वानों को अथक परिश्रम के बाद इस साहित्य को पढ़ने और समझने में सफलता मिली। सुमेरियन साहित्य के अंतर्गत धार्मिक एवं पौराणिक आख्यान, काव्य, स्तुतियाँ और पूजागीत, कहावतें, गल्प और निबंध इत्यादि की गणना की जा सकती है। इस प्रकार संपूर्ण सुमेरियन साहित्य को मुख्यतः दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य।
सुमेरियन धार्मिक साहित्य
सुमेरियन साहित्य का अधिकांश भाग धार्मिक और पौराणिक आख्यानों से संबंधित है। एक कथानक के अनुसार एनकी ने फारस की खाड़ी की ओर से आकर सर्वप्रथम मनुष्य को खेती करना सिखया। एक दूसरी कथा इना का पाताल में अवतरण है। सुमेरियन धार्मिक साहित्य के अंतर्गतः ‘जल-प्रलय का आख्यान’ भी महत्वपूर्ण है, जिसका उल्लेख विश्व की अनेक प्राचीन सभ्यताओं में विविध रूपों में मिलता है।
धार्मिक आख्यानों के साथ-साथ अनेक प्राचीन वीरों के साहसपूर्ण कृत्यों से संबंधित पौराणिक आख्यान भी महत्वपूर्ण हैं। इन वीरों में एन्मरकर, लुगलबंद और लुगलबंद का पुत्र गिलगामेश अत्यंत प्रसिद्ध हैं। किंतु जितनी लोकप्रियता गिलगामेश महाकाव्य को मिली, उतनी किसी और को नहीं। यद्यपि सुमेर में गिलगामेश के साहसपूर्ण कृत्यों की बहुत-सी कथाएँ प्रचलित थीं, किंतु गिलगामेश आख्यान को महाकाव्य का रूप 2000 ई.पू. के आसपास बेबिलोनियन युग में मिला। गिलगामेश से संबंधित कम से कम छः कथाएँ कुछ खंडितावस्था में प्राप्त हुई हैं।
गिलगामेश आख्यान के बेबीलोनियन रूपांतर के अनुसार एरेक के प्रथम राजवंश का पाँचवा शासक गिलगामेश आरंभ में बहुत अत्याचारी और विलासी था। एरेक के नागरिकों को बचाने के लिए देवताओं ने एनकीडू नामक देव को, जो आधा आदमी और आधा वृषभ था, भेजा। एनकीडू और गिलगामेश में युद्ध हुआ, किंतु अंत में दोनों मित्र बन गये। इसके बाद दोनों ने मिलकर बहुत से साहसपूर्ण कार्य किये। एक आख्यान में एनकी और गिलगामेश द्वारा एलम के हुंबाबा अथवा हुम्बाबा नामक दैत्य के वध का वर्णन है। एक दूसरे आख्यान में गिलगामेश द्वारा उस दैवी वृषभ के वध का वर्णन है, जिसे इनन्ना देवी ने क्रुद्ध होकर गिलगामेश की हत्या के लिए भेजा था, क्योंकि उसने इनन्ना देवी के प्रणय-निवेदन को ठुकरा दिया था। एक अन्य आख्यान में गिल्गामेश द्वारा अमरता प्राप्त करने के प्रयत्न एवं असफलता का वर्णन मिलता है। एक दूसरे आख्यान में एनकिडू के पातालगमन एवं प्रत्यावर्तन का वर्णन किया गया है।
सुमेरियन लौकिक साहित्य
सुमेरियन संभवतः लौकिक साहित्य से परिचित नहीं थे। उन्हें इतिहास लेखन का भी ज्ञान नहीं था क्योंकि तीसरी सहस्राब्दी ईसापूर्व के अंत में उनकी गतिविधि मात्र अपने प्राचीन राजाओं की सूचियाँ तैयार करने तक सीमित रही और इसमें भी कल्पनाएँ अधिक हैं। यद्यपि उन्होंने कई प्रकार के गीतों की रचना की थी, किंतु उनमें से अधिकांशतः पूजा से संबंधित थे।
सुमेरियन लौकिक साहित्य के अंतर्गत मुहावरे और कहावतें महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनके कुछ मुहावरे सुंदर और आधुनिक मुहावरों के समान ही थे। एक शताब्दी पहले माना जाता था कि मुहावरों की रचना सर्वप्रथम हिब्रुओं (यहूदियों) ने की थी। बाद में कुछ समय तक यह श्रेय मिस्रवासियों को दिया जाता रहा। किंतु अब यह माना जाने लगा हैं कि मुहावरों के आदि रचयिता सुमेरियन ही थे। ‘बिना भोजन के मोटापा नहीं’; ‘जिसके पास धन है वह प्रसन्न रह सकता है, जिसके पास अन्न है वह भी प्रसन्न रह सकता है, किंतु जिसके पास कुछ नहीं है वह सो सकता है’; दोस्ती एक दिन की, किंतु खून का संबंध जन्म भर का’, आदि कहावतों की प्रतिच्छाया परवर्ती साहित्य में मिलती है।
वैज्ञानिक प्रगति
सुमेरवासी कृषि विज्ञान से पूर्णतः परिचित थे। दूसरी सहस्राब्दी ईसापूर्व के एक थपूए के लेख में एक कृषक अपने पुत्र को कृषि से संबंधित पूरे वर्ष में किये जाने वाले कार्यों की जानकारी देता है, जिससे पता चलता है कि सुमेरियन कृषकों को ‘कृषि-पंचांग’ का ज्ञान था और वे विभिन्न ऋतुओं के आगमन एवं उनकी विशेषताओं से परिचित थे। कृषिकर्म की आवश्यकता के कारण सुमेरियनों ने ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं, जैसे-ज्यॉमिति, खगोल, ज्योतिष, अंक-पद्धति, भार की इकाइयाँ आदि को जन्म दिया। एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि सुमेरियन छोटे पौधों को धूप और वायु से बचाने के लिए उनके पास बीच-बीच में बड़े-बड़े, घनी छाया देनेवाले वृक्ष लगा देते थे। पौधों की रक्षा की विधि उनके वाटिका विधान से परिचित होने का प्रमाण है।
सुमेरियनों ने काल गणना के लिए प्राचीन सुमेरिया के चंद्रदेव नन्नार में प्रति माह होने वाले परिवर्तनों को आधार बनाया और 29 या 30 दिन के एक चंद्रमास की कल्पना की। किंतु 12 महीने बाद ऋतु की पुनरावृत्ति देखकर 12 माह को एक इकाई वर्ष ‘चांद्रवर्ष’ मान लिया गया, जिसमें 6 माह 29 दिन के और 6 माह 30 दिन के होते थे। इस प्रकार इनके एक चांद्रवर्ष में कुल 354 दिन होते थे। चंद्र और सौर वर्षों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए आगामी तीन-चार वर्ष में एक अधिमास जोड़ दिया जाता था। प्राचीन सुमेरियन संवत् के प्रयोग से परिचित नहीं थे, इसलिए वर्ष की गणना और उसका नामकरण उस वर्ष की किसी महत्त्वपूर्ण घटना या सैनिक विजय के आधार पर करते थे।
सुमेरियन गणित और बीजगणित से परिचित थे। संभवतः उन्हें गुणा, भाग, वर्गमूल और घनफल आदि की जानकारी थी और विविध कार्यों में वे इसका उपयोग करते थे। सुमेरियनों की अंक-पद्धति षाष्ठिक पद्धति पर आधारित थी। उनकी अंक पद्धति में 1, 10 और 60 चिह्न गणना के आधार थे। एक से नौ तक के अंकों के लिए एक ही चिह्न का आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जाता था। 10 के लिए दूसरा चिह्न था। उन्होंने दस में छह का गुणा करके 60 के अंक को दूसरी इकाई के रूप में मान्यता दी थी। साठ के लिए वही चिह्न था, जो एक के लिए, किंतु 60 ध्वनित करने के लिए इसे बड़ा बना दिया जाता था। जैसे- 145 लिखने के लिए पहले दो बार 60 अंक लिखते थे, फिर दो बार 10 के चिह्नों को लिखा जाता था। अंत में 5 के लिए 1 के चिह्न का पाँच बार प्रयोग किया जाता था। इस प्रकार सुमेरियन अंक-पद्धति में साठ को वही स्थान प्राप्त था जो आज सौ को है। जिस प्रकार आज 300 को ‘तीन’ ‘सौ’ कहते हैं, उसी प्रकार सुमेरियन इसे ‘पाँच’ ‘साठ’ कहते थे। अनुमान किया जाता है कि सुमेरियनों ने ही सबसे पहले एक घंटे को साठ मिनट में और मिनट को साठ सेकेंड में विभाजित किया था।
सुमेरिया सभ्यता के लोगों की बौद्धिक प्रतिभा का परिचय ज्योतिष और खगोलशास्त्र के क्षेत्र में भी मिलता है। उन्हें शनि (सैटर्न), शुक्र (वीनस), बृहस्पति (जुपिटर), बुध (मर्करी), मंगल (मार्स), चंद्र और सूर्य का ज्ञान था। सुमेरियन नक्षत्रवेत्ता रात के समय जिगुरत पर चढ़कर नक्षत्रों की गतिविधियों का अध्ययन करता था और भविष्यवाणी करता था। उन्हें चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण की भी जानकारी थी।
सुमेरियन नाप-तौल की इकाई ‘मीना’ अथवा ‘मिन’ था, जो 60 ‘शेकल’ के बराबर होता था और 60 ‘मीना’ का भार एक ‘टैलेंट’ के बराबर होता था। इस प्रकार प्रत्येक एक-दूसरे से साठ गुना बड़ा होता था अर्थात् 60 शेकेल = 1 मीना और 60 मीना = 1 टैलेंट।
सुमेरियन रसायन विज्ञान और वनस्पति विज्ञान से भी परिचित थे। उन्हें टिन तथा ताँबा को मिलाकर काँसा तैयार करने की जानकारी थी। उन्हें विविध धातुओं को गलाकर अस्त्र बनाने की विधि का ज्ञान था। इस सभ्यता के लोगों को भौगोलिक ज्ञान भी था। सुमेरिया के उत्खनन में 2707 ईसापूर्व का एक मानचित्र मिला है, जिसमें पृथ्वी का आकार गोल दिखाया गया है और सात महासागरों का उल्लेख किया गया है।
सुमेरियन चिकित्साशास्त्र मुख्यतः अंधविश्वास और जादू-टोने तक सीमित था। सुमेरियन रोग या बीमारी का कारण भूतप्रेतादि अथवा असत् शक्तियों के प्रकोप को मानते थे, इसलिए वे औषधि की अपेक्षा मंत्र-तंत्र एवं आभिचारिक क्रियाओं पर अधिक विश्वास करते थे। फिर भी, तीसरी सहस्राब्दी ईसापूर्व के आसपास वैद्यों का एक वर्ग चिकित्सा शास्त्र को वैज्ञानिक रूप देने लगा था। तीसरी सहस्राब्दी ईसापूर्व के मध्य के एक अभिलेख में एक वैद्य का चिकित्सा-संबंधी नुस्खा मिला है, जिसे विश्व की ‘प्राचीनतम् भेषज-संहिता’ कहा जा सकता है। 2700 ईसापूर्व के लगभग लुलु उर का एक प्रसिद्ध वैद्य था। अठारहवीं शती ईसापूर्व के एक लेख में निनिसिन्ना देवी को ‘सुमेरियनों की चिकित्सिका’ कहा गया है।
सुमेरियन सभ्यता की महत्ता एवं देन
पश्चिमी एशिया की अनुवर्तिनी संस्कृतियों के लिए पृष्ठभूमि का निर्माण किया और इस दृष्टि से उन्हें ‘सभ्यता का जनक’ कहा जा सकता है। सुमेरियनों ने सुमेर के दलदलों को सुखाकर प्राचीनतम् नगर बसाये, कीलाक्षर लिपि का आविष्कार और विकास किया, गिलगामेश जैसे वीरों की कथाओं और इनन्ना का पाताल-अवतरण जैसे धार्मिक आख्यानों को जन्म देकर साहित्य-सृजन की परंपरा आरंभ की और व्यवस्थित शिक्षा-पद्धति तथा पुस्तकालयों की स्थापना की। प्राचीन विश्व में सुमेरियनों ने ही राजनीतिक क्षेत्र में सबसे पहले नगर एवं नगर-राज्य की कल्पना की और कुलीनतंत्र एवं साम्राज्यवाद जैसे तत्त्व अस्तित्व में आये।
दजला-फरात की उर्वर घाटी में सिंचाई की विधियों के प्रथम आविष्कर्ता सुमेरियन ही थे। व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्र में अनुबंध पत्रों का उपयोग, करों में सुधार और मूल्य-निर्धारण में सोने-चाँदी के निश्चित भार के टुकड़ों का प्रयोग सबसे पहले सुमेरियनों ने ही किया। प्राचीन विश्व में सर्वप्रथम सुमेरियनों ने ही प्रचलित परंपराओं एवं नियमों को संकलित कर उसे विधिसंहिता का रूप दिया। कला के क्षेत्र में विशाल जिगुरतों और महलों का निर्माण, स्तंभों और मेहराबों का प्रयोग, संदर कलात्मक मुद्राओं और आभूषणों का निर्माण उनकी कल्पना-शक्ति और सौंदर्य भावना का प्रमाण हैं।
सुमेरियन कीलाक्षर लिपि को मेसोपोटामिया की अन्य संस्कृतियों ने भी ग्रहण किया। सुमेरियन मृदापत्र लेखों का प्रचलन असीरियन युग तक बना रहा। गिलगामेश तथा प्रलयाख्यानों का प्रभाव मेसोपोटामिया के बाहर यहूदी और भारतीय आख्यानों में भी अपनाया गया। सुमेरिया में सबसे पहले व्यवस्थित शिक्षा-पद्धति और पुस्तकालयों की स्थापना की गई। सुमेरियन गणित, ज्योतिष तथा चिकित्साशास्त्र के बहुत से प्रयोग परवर्ती मेसोपोटामिया संस्कृतियों में अपनाये गये।
इन्हें भी पढ़ सकते हैं-
सिंधुघाटी सभ्यता में कला एवं धार्मिक जीवन
बाबर के आक्रमण के समय भारत की राजनैतिक दशा
विजयनगर साम्राज्य का उत्थान और पतन
प्रथम विश्वयुद्ध, 1914-1918 ई.
पेरिस शांति-सम्मेलन और वर्साय की संधि
द्वितीय विश्वयुद्ध : कारण, प्रारंभ, विस्तार और परिणाम
यूरोप में पुनर्जागरण पर बहुविकल्पीय प्रश्न-1
प्राचीन भारतीय इतिहास पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1
जैन धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1
बौद्ध धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1
आधुनिक भारत और राष्ट्रीय आंदोलन पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1
भारत के प्राचीन इतिहास पर आधारित क्विज-1
भारत के मध्यकालीन इतिहास पर आधारित क्विज-1
भारत के मध्यकालीन इतिहास पर आधारित क्विज-1