मराठों का उत्थान: शिवाजी (Rise of the Marathas: Shivaji)

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मराठों का उत्थान

मध्यकालीन भारतीय इतिहास में मराठों का उत्थान एक महत्त्वपूर्ण घटना है। पंद्रहवीं से सत्तरहवीं शताब्दी तक के प्रबल सामाजिक और धार्मिक आंदोलनों का प्रतिनिधित्व करते हुए मराठे एक सशक्त राजनीतिक और सैन्य-शक्ति के रूप में मुगलों के प्रतिद्वंद्वी सिद्ध हुए और उन्होंने अपने पराक्रम से मुगल साम्राज्य के विनाश को सन्निकट ला दिया। सच तो यह है कि भारत का साम्राज्य अंग्रेजों ने मुगलों से नहीं, बल्कि मराठों से ही प्राप्त किया था। छत्रपति शिवाजी राजे भोंसले (1627-1680 ई.) ने औरंगजेब के शासनकाल में ही पश्चिम भारत में राष्ट्रीय राज्य के रूप में मराठा साम्राज्य की नींव डाल दी थी।

मराठों के उत्थान के कारण

सत्तरहवीं शताब्दी में मराठा शक्ति का उत्थान कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। मराठों को संगठित और प्रेरित करने वाली शक्तियाँ शताब्दियों से कार्य कर रही थीं। ग्रांट डफ ने मराठा उत्थान की तुलना सह्याद्रि पर्वत श्रेणियों की दावाग्नि से की है, जो अचानक लगने के बाद भयंकर रूप धारण कर लेती है। किंतु डफ का विचार उचित नहीं है क्योंकि शताब्दियों से महाराष्ट्र में इस प्रकार की सामाजिक और धार्मिक परंपराएँ विकसित हो रही थीं, जिन्होंने महाराष्ट्र के राष्ट्रीय संगठन और सामाजिक एकता में योगदान दिया था।

मराठा शक्ति के उदय का आधार इस विशेष क्षेत्र के निवासी थे, जिन्होंने जाति, भाषा, साहित्य, धर्म और निवास-स्थान की एकता के आधार पर राष्ट्रीयता की भावना को प्रस्फुटित किया और अपनी राष्ट्रीयता को स्वतंत्र करने के लिए एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना का प्रण लिया। वस्तुतः मराठों के उदय का इतिहास मुसलमानों की राजनीतिक दुर्बलता से लाभ उठाकर हिंदू राष्ट्रीयता के निर्माण का ऐसा इतिहास है, जिसमें हिंदुओं के सभी वर्गों ने भाग लिया और मराठा नेताओं ने दिल्ली के साम्राज्य को अपने अधिकार में लेकर ‘हिंदू पादशाही’ के निर्माण के लिए प्रयत्न किया। वास्तव में, मराठों के उत्थान में विभिन्न परिस्थितियों और अनेक कारणों का योगदान था और इनकी समष्टि शिवाजी का शक्तिशाली व्यक्तित्व था, जिन्होंने मराठों के उत्थान का नेतृत्व किया।

भौगोलिक कारण

प्रथमतः महाराष्ट्र के लोगों के चरित्र तथा इतिहास को ढ़ालने में वहाँ के भूगोल का गहरा प्रभाव पड़ा। महाराष्ट्र में तीन भौगोलिक प्रदेश हैं- कोंकण, मालव और देश। मराठा देश दो तरफ से पहाड़ की श्रेणियों से घिरा है- सह्यद्रि उत्तर से दक्षिण तक फैला हुआ है और सतपुड़ा एवं विंध्य पूर्व से पश्चिम तक फैले हुए हैं। यह नर्मदा एवं ताप्ती नदियों द्वारा रक्षित है। घाटियाँ घने जंगलों से आच्छादित हैं। इस प्राकृतिक अवरोध ने मराठों के उत्थान में सहयोग दिया क्योंकि इसमें आसानी से प्रतिरक्षित हो सकने वाले बहुत से पहाड़ी दुर्ग थे। सरदेसाई के अनुसार ‘पश्चिमी घाटों की दुर्जेय पर्वतमाला ने ही मराठों को इस योग्य बनाया कि वे मुसलमानों के विरूद्ध विद्रोह कर सकें, मुगलों की संगठित शक्ति के सामने अपनी राष्ट्रीयता को पुनः प्रदर्शित कर सकें और अपना साम्राज्य स्थापित कर सकें।’

देश की ऊबड़-खाबड़ एवं अनुर्वर भूमि, इसकी अनिश्चित एवं कम वर्षा और कृषि-संबंधी अल्प-साधनों के कारण मराठों में आत्म-निर्भरता, लगन, साहस और स्वाभिमान के गुण प्रकृति-प्रदत्त थे। कठोर पहाड़ी भौगोलिक स्थिति ने यहाँ के निवासियों को परिश्रमी और साहसी बनाया। सरलता उनके जीवन का लक्षण था। किंतु चतुरता और प्रतिशोध की भावना उन्हें प्रकृति ने प्रदान की थी। इस पहाड़ी क्षेत्र के निवासियों में जन्मजात सैनिकों के गुण थे, उनमें अदम्य स्वतंत्रता की भावना थी। निर्धन होने के कारण समाज में समानता थी और उनमें प्राकृतिक आपदाओं से जूझने की शक्ति थी। उनके गाँव प्रायः आत्मनिर्भर थे। जदुनाथ सरकार के अनुसार ‘ऐसे देश में कोई व्यक्ति सुविधा-संपन्न जीवन नहीं बिता सकता था। प्राचीन महाराष्ट्र में कोई परजीवी वर्ग नहीं था।’ इस भौगोलिक स्थिति ने मराठों को उत्तम सैनिकों के गुण प्रदान किये। उनमें छापामार युद्ध का कौशल और शत्रु को चमत्कृत करने की शक्ति थी।

धार्मिक कारण

मराठों के उत्थान में महाराष्ट्र के साधु-संतों ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। तेरहवीं शताब्दी में महाराष्ट्र में पंढरपुर आंदोलन आरंभ हुआ था, जिसके प्रारंभिक संत ज्ञानेश्वर, हेमाद्रि और चक्रधर थे। इन संतों ने महाराष्ट्र के निवासियों में धार्मिक चेतना के साथ-साथ और उनमें सामाजिक एकता भी उत्पन्न की। इस आंदोलन ने कृष्ण के अवतार विठोबा की पूजा पर जोर दिया, आचरण की पवित्रता पर बल देते हुए कर्मकांड का विरोध किया और मानवमात्र की समानता का सिद्धांत स्थापित किया था। इस आंदोलन ने शैव और वैष्णव मतावलंबियों के बीच पारस्परिक कटुता को समाप्त करके धार्मिक सामंजस्य तथा एकता स्थापित किया और जाति प्रथा को अस्वीकार कर दिया था। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इस आंदोलन का नेतृत्व निम्न जाति के संतों ने किया, जिनकी रचनाएँ आज भी महाराष्ट्र में अत्यंत श्रद्धा से गाई जाती हैं। इस आंदोलन के प्रमुख संतों जैसे- एकनाथ, तुकाराम, रामदास (दासबोध) और वामन पंडित ने अपनी रचनाओं को मराठी भाषा में प्रस्तुत किया, जो जनसाधारण के लिए बोधगम्य थी। धर्म-सुधारकों के मराठी भाषा में लिखे गये भक्ति-गीतों के फलस्वरूप पंद्रहवीं तथा सोलहवीं सदियों में एक सबल मराठी साहित्य का विकास हुआ और देशवासियों को श्रेष्ठ आकांक्षाओं के लिए प्रेरणा मिली।

इस प्रकार साहित्य एवं भाषा से महाराष्ट्र के लालों को एकता का एक अन्य बंधन मिला। मराठा धर्म-सुधारकों ने महाराष्ट्र के निवासियों में ईश्वर-भक्ति, मानव समता और कार्य की प्रतिष्ठा जैसे सिद्धांतों का प्रचार कर पुनर्जागरण अथवा आत्म-जागरण के बीजों का रोपण किया और शिवाजी सदृश कार्यकर्त्ताओं के लिए राजनीतिक उद्देश्य के निमित्त आध्यात्मिक पृष्ठभूमि तैयार किया। सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है: ‘शिवाजी द्वारा राजनीतिक एकता स्थापित होने से पूर्व ही महाराष्ट्र में सत्तरहवीं शताब्दी में भाषा, नस्ल और जीवन में एकता स्थापित हो गई थी। जो कुछ थोड़ी-बहुत कमी रह गई थी, वह शिवाजी द्वारा पूरी कर दी गई।’

सामाजिक कारण

महाराष्ट्र के लोग स्वभाव से उदार और सहिष्णु हैं और इस क्षेत्र में आर्य और द्रविड़ रक्त का मिश्रण हुआ है। यहाँ की जनसंख्या में आदिवासियों, जैसे- कोल, भील का भी पर्याप्त अंश है। इस प्रकार के प्रजातीय मिश्रण ने महाराष्ट्र को शक्ति प्रदान की है। महाराष्ट्र के गाँवों में परंपरागत पंचायत प्रणाली बनी रही, भूमि-व्यवस्था रैयतवाड़ी प्रणाली पर आधारित थी और देशमुख या देसाई कर-संग्रहक थे। इन स्वशासी संस्थाओं ने महाराष्ट्र में स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता की भावनाओं को शक्तिशाली बनाया।

महाराष्ट्र के लोगों का जीवन सरल और व्यावहारिक था और उत्तर भारत के समान जाति प्रथा की जटिलताएँ नहीं थीं। संतों की शिक्षाओं से भी सामाजिक समानता स्थापित हुई। रानाडे के अनुसार ‘सोलहवीं शताब्दी में जिस प्रकार प्रोटेस्टेंट सुधारवाद की लहर चली, उसी प्रकार भारतवर्ष में, विशेषतः दक्षिण में पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दियों में धार्मिक, सामाजिक और साहित्यिक सुधारवाद ने जोर पकड़ा। यह धार्मिक आंदोलन कट्टर ब्राह्मणपंथी नहीं, बल्कि प्रगतिवादी था। इसमें पूजा-पाठ की विधि और जन्म के आधार पर वर्णव्यवस्था का विरोध था और पारिवारिक पवित्रता, मानवप्रेम, परोपकार आदि अन्य गुणों का समर्थन था।’ सामाजिक समानता के कारण महाराष्ट्र का राष्ट्रीय आंदोलन संभव हो सका क्योंकि मराठा समाज एकजुट और संगठित था।

राजनीतिक कारण

बहमनी राज्य और बाद के निजामशाही तथा आदिलशाही राज्यों ने मराठों को राजनीतिक और सैनिक प्रशिक्षण का अवसर प्रदान किया था। इन मुस्लिम राज्यों को प्रशासनिक और सैनिक पदों के लिए उत्तर भारत या मध्य एशिया से मुस्लिम प्रवासी नहीं मिलते थे, इसलिए उन्हें स्थानीय मराठों पर निर्भर रहना पड़ता था। इन राज्यों में अनेक मराठा सेनापतियों के नाम जैसे- घटगे, घोरपड़े, जाधव, निम्बाल्कर, शिंदे, डाफले माने आदि मिलते हैं, जो शिवाजी से पहले बड़ी-बड़ी जागीरों के स्वामी थे। शिवाजी के पिता शाहजी भोंसले अहमदनगर राज्य के प्रभावशाली सरदार थे और बीजापुर राज्य में भी उनका पर्याप्त प्रभाव था। इस प्रकार शिवाजी के पूर्व ही मराठा अधिकारियों का एक ऐसा वर्ग बन गया था, जिसे प्रशासनिक कार्यों और सैन्य-संचालन का पर्याप्त अनुभव था। इससे एक मराठा अभिजात वर्ग का भी निर्माण हुआ, जो जागीरदारों के रूप में दुर्गों में रहता था और अपनी सेनाएँ रखता था। इन मराठा सरदारों की अर्द्ध स्वतंत्र सत्ता थी। अब केवल एक ऐसे नेता की आवश्यकता थी, जो इस वर्ग को संगठित करके एक राष्ट्रीय मराठा राज्य का निर्माण कर सके। शिवाजी ने इस वर्ग को अपनी प्रतिभा से संगठित करके राष्ट्रीय मराठा राज्य का निर्माण किया।

सैनिक कारण

दक्षिण में राजनीति पर धर्म का उस प्रकार का प्रभाव नहीं था, जैसा उत्तर भारत में था। दक्षिण के मुस्लिम राज्यों को सैनिकों की भर्ती के लिए स्थानीय मराठों पर ही निर्भर रहना पड़ता था। बड़ी संख्या में मराठे बीजापुर और गोलकुंडों के मुस्लिम राज्यों की सेनाओं में बारगीर और सिलेदार के रूप में भरती होते थे । मलिक अम्बर ने इन मराठा सैनिकों को श्रेष्ठ छापामार सैनिक बना दिया था। इससे मराठों को सैनिक प्रशिक्षण मिला, उनमें नैसर्गिक सैनिक गुणों का विकास हुआ और वे राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित हुए। डॉ. बेनीप्रसाद के अनुसार मराठों ने मुगलों के आक्रमणों से भी युद्ध की शिक्षा प्राप्त की थी। वास्तव में मराठे जन्मजात सैनिक होते हैं।

विजयनगर की प्रेरणा

विजयनगर साम्राज्य की स्मृति भी मराठा शासकों को सदैव प्रेरणा देती रही। इस साम्राज्य की स्थापना ने दक्षिण में हिंदू गौरव को पुनः स्थापित किया था। दक्षिण के लोगों को पहली बार अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमणों का सामना करना पड़ा था। किंतु जब मुहम्मद तुगलक ने दक्षिण में मुस्लिम शासन स्थापित करने का प्रयास किया, तो हिंदुओं ने इसका विरोध किया। इसी विरोध के फलस्वरूप हरिहर और बुक्का द्वारा विजयनगर की स्थापना (1336 ई.) हुई थी। विजयनगर के इस प्रयोग से ही शिवाजी को प्रेरणा मिली थी। उनके पिता शाहजी की जागीरें बैंगलूर, काम्पली, कनकगिरि विजयनगर साम्राज्य के केंद्र रहे थे।

मुगल आक्रमण की प्रतिक्रिया

मुगलों के आक्रमण ने मराठा स्वातंत्र्य की भावना को तीव्र कर दिया था। यह सही है कि बीजापुर, गोलकुंडा और अहमदनगर मुस्लिम राज्य थे, किंतु वे नाममात्र को मुस्लिम थे क्योंकि इन राज्यों में हिंदुओं की प्रधानता थी। धार्मिक सहिष्णुता, सामाजिक सद्भाव, राज्यों का स्थानीय स्वरूप और भाषा की एकता आदि ऐसे कारण थे, जिनके कारण इन राज्यों का इस्लामी स्वरूप नष्ट हो गया था। जब मुगलों के आक्रमण के रूप में दूसरी मुस्लिम लहर दक्षिण में आई, तब महाराष्ट्र इस विदेशी आक्रमण का सामना करने के लिए कटिबद्ध हो गया। इस आक्रमण का सामना करने के लिए नये उपायों और नई प्रेरणा की आवश्यकता थी। रानाडे ने लिखा है कि, ‘बीजापुर, गोलकुंडा और मराठों द्वारा मुगलों का विरोध एक सामयिक आवश्यकता थी, अन्यथा यदि मुगल सफल हो जाते तो दक्षिण भारत का इतिहास तीन सौ साल पीछे हो जाता। यह कार्य शिवाजी ने किया।’

शिवाजी का व्यक्तित्त्व

सत्तरहवीं शताब्दी के आरंभ में महाराष्ट्र में जो सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए, उससे महाराष्ट्र में एक राष्ट्र का गठन व्यावहारिक रूप से हो चुका था। तत्त्कालीन साहित्य में महाराष्ट्र के इस नवजागरण को देखा जा सकता है। भौगोलिक दुरूहता ने महाराष्ट्र के ग्रामों को सुरक्षा प्रदान की थी। उत्तर की भाँति दक्षिण में हिंदू संस्कृति निष्प्राण नहीं हुई थी, मावले और कुनबी सैनिक आक्रमण के प्रतिरोध की क्षमता रखते थे, किंतु बिना शिवाजी के यह समस्त सामग्री व्यर्थ थी। शिवाजी ने मराठा राष्ट्रीय संगठन को नेतृत्व प्रदान किया और उसे राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित किया। उन्होंने पहली बार मराठा स्वातंत्र्य का आदर्श सामने रखा, उदीयमान मराठा राष्ट्र को राजनीतिक अभिव्यक्ति दी और अपने नेतृत्व में स्वतंत्र मराठा राज्य का निर्माण किया।

शिवाजी के नेतृत्व में मराठों का उत्कर्ष

मराठों के उत्कर्ष में शिवाजी का महत्त्वपूर्ण योगदान यह था कि उन्होंने उन्हें राजनीतिक नेतृत्व प्रदान करके उन्हें स्वतंत्रता और स्वराज्य प्रदान किया। उन्होंने ‘छत्रपति’ की उपाधि धारण करके मराठा राज्य की स्थापना की और उन्हें ऐसी राष्ट्रीय चेतना से अनुप्रेरित किया, जिससे औरंगजेब जैसा शक्तिशाली सम्राट भी पराजित हो गया।

मराठों का उत्थान: शिवाजी (Rise of the Marathas: Shivaji)
छत्रपति शिवाजी महाराज

दक्षिण की राजनीतिक स्थिति

जिस समय बहमनी सल्तनत का पतन हो रहा था, उस समय मुगल साम्राज्य अपने चरमोत्त्कर्ष पर था। यह विशाल साम्राज्य बगावतों से दूर और विलासिता में डूबा हुआ था। उस समय शाहजहाँ का शासन था और शहजादा औरंगजेब दक्कन का सूबेदार था। बहमनी के सबसे शक्तिशाली परवर्ती राज्यों में बीजापुर और गोलकुंडा के राज्य थे। शिवाजी के पिता शाहजी ने अहमदनगर के सुल्तान की सेवा में एक अश्वारोही के रूप में अपना जीवन आरंभ किया था। धीरे-धीरे उन्होंने उस राज्य में बहुत-से क्षेत्र प्राप्त कर लिये और निजामशाही शासन के अंतिम वर्षों में वह ‘राजा बनाने वाला’ बन गये थे।

शिवाजी का आरंभिक जीवन

शिवाजी शाहजी भोंसले की प्रथम पत्नी जीजाबाई (राजमाता जिजाऊ) से उत्पनन हुए थे। इनका जन्म 10 अप्रैल, 1627 ई. को पूना के उत्तर में जुन्नार नगर के निकट शिवनेर (शिवनेरी) के पहाड़ी दुर्ग में हुआ था। शिवाजी के जन्म के संबंध में कुछ इतिहासकारों ने 20 अप्रैल, 1627; 9 मार्च, 1630 और 19 फरवरी, 1630 ई. की तिथि प्रस्तावित किया है।

शिवाजी के पिता शाहजी भोंसले (1594-1664 ई.) पहले अहमदनगर के निजामशाही राज्य में एक उच्च पद पर थे। किंतु जब शाहजहाँ ने अहमदनगर को जीत लिया तो 1636 ई. में उन्होंने बीजापुर राज्य में नौकरी कर ली और पुणे की उनकी पुरानी जागीर के अतिरिक्त, जिस पर अहमदनगर राज्य के सेवक के रूप में उसका अधिकार था, उन्हें कर्नाटक में एक विस्तृत जागीर मिल गई थी। इसी दौरान शाहजी ने दूसरा विवाह किया और अपनी दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते के साथ आदिलशाह की तरफ से कर्नाटक में सैन्य-अभियानों के लिए चले गये। शाहजी की दूसरी पत्नी तुकाबाई से तंजोर राज्य के संस्थापकएकोजी का जन्म हुआ था।

शिवाजी का बाल्यकाल शिवनेरी के दुर्ग में अपनी माता जीजाबाई के साथ व्यतीत हुआ। उनकी माता जीजाबाई एक पवित्र आचरण की धर्मनिष्ठ महिला थीं जो अपने पुत्र को प्राचीन हिंदू वीरों की कथाएँ सुनाया करती थीं। वह रामायण, महाभारत, पुराणों से भी कथाएँ सुनाकर उनकी आत्मा को आंदोलित करती रहती थी। इस प्रकार शिवाजी के चरित्र-निर्माण में उनकी माँ का प्रमुख हाथ था। रानाडे के अनुसार, ‘यदि कभी भी महापुरुषों की महानता का कारण उनकी माताओं की प्रेरणाएँ रही हैं, तो जीजाबाई का प्रभाव शिवाजी के चरित्र-निर्माण एवं शक्ति-विकास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।’

किंतु 1636 ई. में शाहजी को शिवनेरी का दुर्ग संधि के अनुसार शाहजहाँ को देना पड़ा, तो शिवाजी अपनी माता के साथ पुणे आ गये, जो जागीर के रूप में शाहजी को प्राप्त हुआ था। शिवाजी की शिक्षा और देखभाल के लिए शाहजी भोंसले ने दादोजी कोंणदेव को नियुक्त किया। वह वयोवृद्ध अनुभवी ब्राह्मण शाहजी की संपत्ति और जगीरों का कुशल नियंता था। एक ओर धर्म-परायण और दृढ़-चरित्र वाली माता जीजाबाई ने शिवाजी के मस्तिष्क में वीरता, परमार्थ-निष्ठा और देशभक्ति की भावना को कूट-कूट कर भरा, तो दूसरी ओर दादोजी कोंणदेव जैसे सुयोग्य आचार्य ने उन्हें घुड़सवारी, तलवारबाजी और निशानेबाजी के साथ-साथ प्रशासन में भी प्रवीण किया। उनके नैतिक गुरु समर्थ गुरु रामदास अकसर कहा करते थेः समस्त मराठों को एकजुट करो और महाराष्ट्र के धर्म का प्रचार करो।’ वह शिवा से कहते थे: माँ एवं मातृभूमि स्वर्ग से भी प्रिय हैं (जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी)।

शिवाजी स्वयं को अपनी माँ की ओर से देवगिरि के यादव कुल से संबंधित बताते थे और पिता की ओर से मेवाड़ के वीर सिसोदिया का वंशज होने का दावा करते थे। इस प्रकार गौरवपूर्ण वंश के होने की भावना, जन्मभूमि के प्राकृतिक सौंदर्य, माता के प्रभाव और संत तुकाराम तथा रामदास जैसे महापुरुषों की प्रेरणा और उपदेशों ने शिवाजी के हृदय में एक स्वतंत्र राज्य के निर्माण की उत्कट आकांक्षा जगा दी। शिवाजी का विवाह 14 मई, 1640 ई. में सइबाई निम्बालकर के साथ लालमहल, पूना में संपन्न हुआ था। बारह वर्ष की आयु में शिवाजी को अपने पिता से पूना की जागीर प्राप्त हुई।

शिवाजी की प्रारंभिक उपलब्धियाँ

आरंभ में शिवाजी के सामने तीन समस्याएँ थीं। एक तो यह कि वह अपने राज्य की स्थापना बीजापुर के क्षेत्रों में ही कर सकते थे। इसलिए यह आवश्यक था कि मुगलों के साथ उनके संबंध अच्छे रहें। दूसरे, बीजापुर राज्य के साथ संघर्ष करने में शाहजी के उत्पीड़न का भय था जो बीजापुर सुल्तान की सेवा में एक सरदार थे। तीसरे, बीजापुर राज्य में अनेक उच्च श्रेणी के मराठा सरदार शिवाजी के मराठा राज्य की स्थापना में सहयोग नहीं करना चाहते थे। ऐसे मराठा सरदारों को भी मराठा राज्य के आदर्श को स्वीकार कराना था। शिवाजी नहीं चाहते थे कि मराठों के बीच रक्तपात हो, इसलिए उन्होंने कूटनीतिक चातुर्य का आश्रय लिया। वह बीजापुर से खुला युद्ध भी नहीं चाहते थे क्योंकि ऐसा करना उनके लिए आत्मघाती हो सकता था।

उस समय बीजापुर का राज्य आपसी संघर्ष और विदेशी आक्रमणों के दौर से गुजर रहा था। दक्कन की सल्तनतों की बढ़ती हुई दुर्बलता और उत्तर में शाही दल के लंबी अवधि तक युद्ध करते रहने के कारण मराठा शक्ति के उत्थान में बड़ी सहायता मिली। बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने बहुत से दुर्गों से अपनी सेना हटाकर उन्हें स्थानीय शासकों या सामंतों के हाथ सौंप दिया था। जब आदिलशाह बीमार पड़ा, तो बीजापुर में अराजकता फैल गई और शिवाजी ने अवसर का लाभ उठाकर बीजापुर की सीमाओं का अतिक्रमण किया।

दुर्गों पर नियंत्रण

पूना की जागीर मिलने के बाद (1641 ई.) शिवाजी ने पहाड़ी प्रदेश के सभी जाति के लोगों को ‘मावला’ नाम देकर संगठित किया और बड़ी चुतराई से अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने का प्रयास किया।। मावलों का सहयोग शिवाजी के लिए बाद में उतना ही महत्त्वपूर्ण साबित हुआ, जितना शेरशाह सूरी के लिए अफगानों का साथ।

शिवाजी ने 1644 ई. में मालवों को साथ लेकर पूना जिले की पश्चिमी पट्टी पर अधिकार कर लिया, जिसे ‘बारह मालव’ कहते थे। इसी वर्ष उन्होंने पूना के उत्तर में बीजापुरी किले कोंडाना तथा रोहिणा पर अधिकार कर लिया। शिवाजी ने बड़ी चतुराई से 1646 ई. में पूना के दक्षिण-पश्चिम में 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थिति तोरण के दुर्ग को बीजापुरी किलेदार से छीन लिया। तोरण दुर्ग में मिली संपत्ति से शिवाजी ने दुर्ग की मरम्मत करवाई और अपनी शक्ति को सुदृढ़ किया। तोरण पर अधिकार करने के बाद शिवाजी ने अपनी चालाकी और सूझबूझ से पूना के आसपास के दुर्गों को जीतना आरंभ कर दिया।

शिवाजी की इस विस्तारवादी की नीति की सूचना से आदिलशाह बहुत क्षुब्ध हुआ। उसने शाहजी राजे को अपने पुत्र को नियंत्रण में रखने की चेतावनी दी। शाहजी राजे ने शिवाजी को पत्र लिखा, किंतु शिवाजी ने अपने पिता की जागीर का प्रबंध अपने हाथों में ले लिया और नियमित लगान बंद कर दिया। शिवाजी ने सुपा के किले पर भी अधिकार कर लिया और अपने चाचा शंभूजी मोहिते को शाहजी राजे के पास कर्नाटक भेज दिया। उसकी सेना का कुछ भाग भी शिवाजी की सेवा में आ गया।

चाकन और कोंडाना

चाकन के किलेदार फिरंगोजी नरसाला ने स्वेच्छा से शिवाजी की अधीनता स्वीकार कर ली, जिससे चाकन के दुर्ग और इंद्रापुर तथा बरमती की चौकियों पर शिवाजी का अधिकार हो गया। शिवाजी ने घूस का सहारा लेकर मावला तानाजी मालुसरे से कोंडाना का दुर्ग छीन लिया। कोंडाना पर अधिकार करके शिवाजी ने उसका नाम ‘सिंहगढ़’ रखा।

पुरंदर

शिवाजी ने 1648 ई. में अपनी चतुराई और कूटनीति से मराठा किलेदार नौलोजी नायक से पुरंदर के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। जब नौलोजी नायक ने शिवाजी की अधीनता स्वीकार करके मराठा राज्य की स्थापना में सहयोग देने का वचन दिया, तो उन्होंने उसको पुरंदर का किलेदार नियुक्त कर दिया। इस प्रकार 1647 ई. तक शिवाजी चाकन से लेकर नीरा तक के एक छोटे भूभाग के अधिपति बन गये थे, जो पहाड़ी दुर्गों की एक लंबी श्रृंखला से सुरक्षित था।

कल्याणी

शिवाजी ने 1648 ई. में आबाजी सोंदेर के नेतृत्व में एक अश्वारोही सेना कोंकण के विरुद्ध भेजी। आबाजी ने कोंकण को जीतते हुए कल्याणी सहित नौ दुर्गों पर अधिकार कर लिया और लूट की सारी संपत्ति रायगढ़ में सुरक्षित कर कोलाबा की ओर बढ़ा, जहाँ उसने मुस्लिम दासता का जुआ उतार फेंकने की चेष्टा में लगे प्रमुखों को अपना सहयोग दिया।

शाहजी राजे की बंदी और युद्ध-विराम (1649-1655 ई.)

शिवाजी की हरकतों से बीजापुर का सुल्तान पहले से ही आक्रोश में था। किंतु शिवाजी की कोंकण में कल्याण की विजय और अन्य उपद्रवी गतिविधियों के कारण बीजापुर के सुल्तान ने 1648 ई. शाहजी को कर्नाटक से बीजापुर बुलवाया और शिवाजी की अवांछित गतिविधियों के संबंध में स्पष्टीकरण माँगा। शाहजी के उत्तर से संतुष्ट न होने पर उसने शाहजी भोंसले को बंदी बना लिया। शाहजी राजे पर गोलकुंडा के शासक कुतुबशाह से साँठगाँठ करने का भी आरोप था, जो आदिलशाह का शत्रु था।

अपने पिता की गिरफ्तारी और जागीरों के हड़प लिये जाने से शिवाजी अत्यंत क्षुब्ध और दुखी हुए। उन्होंने मुगल बादशाह के पुत्र मुरादबख्श के माघ्यम से बादशाह शाहजहाँ से इसमें हस्तक्षेप करने की अपील की। शाहजहाँ ने शिवाजी की अपील को स्वीकार कर उन्हें पाँचहजारी मनसबदार नियुक्त किया। अंततः साम्राज्यीय हस्तक्षेप के भय से बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी को इस शर्त पर मुक्त कर दिया कि वे चार वर्ष तक बीजापुर से बाहर नहीं जायेंगे। यह भी कहा जाता है कि शाहजी की रिहाई बीजापुर के दो प्रभावशाली अमीरों- शरजा खाँ और रंदौला खाँ के हस्तक्षेप का परिणाम थी। जो भी हो, शाहजी की मुक्ति इस शर्त पर आधारित थी कि शिवाजी अपनी गतिविधियों पर नियंत्रण रखेंगे।

इस प्रकार शिवाजी ने 1649 ई. से 1655 ई. तक बीजापुर के विरूद्ध अपनी गतिविधियों पर विराम लगा दिया। इस अवधि का सदुपयोग उन्होंने अपने विजित क्षेत्रों में अपनी सत्ता को सुदृढ़ करने और सेना को संगठित करने में किया।

प्रभुता का विस्तार

जावली पर अधिकार (जनवरी, 1656 ई.)

शाहजी की मुक्ति की शर्तों के मुताबिक शिवाजी ने बीजापुर के क्षेत्रों पर आक्रमण तो नहीं किया, किंतु उन्होंने दक्षिण-पश्चिम में अपनी शक्ति बढ़ाने का प्रयत्न जारी रखा और इस क्रम में उन्होंने जावली के दुर्ग पर अधिकार किया।

जावली का राज्य सातारा के सुदूर उत्तर-पश्चिम में वामा और कृष्णा नदी के बीच में स्थित था। यहाँ का बीजापुरी किलेदार चंद्रराव मोरे स्वयं को मौर्यों का वंशज और उच्च वर्ग का मराठा मानता था। कहा जाता है कि वह मराठों की एकता में बाधक था, किंतु जब उसने अपने सुल्तान के प्रति विश्वासघात करने से इनकार कर दिया, तो जनवरी, 1656 ई. में शिवाजी ने जावली के राजा की हत्या कर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। जावली के दुर्ग में संग्रहीत संपत्ति से शिवाजी ने अपनी शक्ति को सुदृढ़ किया। इसके अलावा, कई मावल सैनिक भी शिवाजी की सेना में सम्मिलित हो गये।

मुगलों से पहली मुठभेड़ (1657 ई.)

मुगलों के साथ शिवाजी की सबसे पहली मुठभेड 1657 ई. में हुई। बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की 1 नवंबर, 1656 ई. को मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद बीजापुर में अराजकता फैल गई, जिसका लाभ उठाकर दक्षिण के मुगल सूबेदार शहजादा औरंगजेब ने 1656 ई. में बीजापुर पर आक्रमण कर दिया। शिवाजी ने औरंगजेब से मैत्री स्थापित करने का प्रयास किया, किंतु जब बात नहीं बनी तो उन्होंने अहमदनगर और जुन्नार के मुगल जिलों पर हमला कर दिया और जुन्नार नगर को लूटा। इससे औरंगजेब बहुत रुष्ट हुआ, किंतु शाहजहाँ के आदेश पर उसे बीजापुर के साथ संधि करनी पड़ी। समय प्रतिकूल देखकर शिवाजी ने भी मुगलों के प्रति कृतज्ञ रहने का वादा करके संधि कर ली। यद्यपि औरंगजेब को शिवाजी पर विश्वास नहीं था और वह उन्हें ‘पहाड़ी चूहा’ कहता था, फिर भी, उसने शिवाजी के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया क्योंकि शाहजहाँ की बीमारी के कारण उत्तर में उसकी उपस्थिति आवश्यक हो गई थी।

कोंकण पर अधिकार (657 ई.)

दक्षिण भारत में औरंगजेब की अनुपस्थिति और बीजापुर की अराजकतापूर्ण राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाकर शिवाजी ने 1657 ई. में जंजीरा के सिद्दियों पर अधिकार करने का असफल प्रयास किया। इसी वर्ष के अंत में शिवाजी ने बीजापुर के क्षेत्र के दक्षिण कोंकण पर आक्रमण किया और कल्याण तथा भिवंडी पर अधिकार कर वहाँ अपना नौसैनिक अड्डा स्थापित किया। इतना ही नहीं, शिवाजी ने दमन के पुर्तगालियों से भी वार्षिक कर वसूल किया। इस प्रकार 1657 ई. के अंत तक मराठे दक्षिण में माहद तक पहुँच गये और शिवाजी 40 से अधिक दुर्गों के स्वामी बन चुके थे।

बीजापुर से संघर्ष
अफजलखाँ के विरूद्ध सफलता (10 नवंबर, 1659 ई.)

बीजापुर का सुल्तान तात्त्कालिक मुगल आक्रमण और आंतरिक-कलह से कुछ समय के लिए मुक्त हो गया, किंतु अब शिवाजी की विस्तारवादी नीति उसके लिए गंभीर चुनौती बन गई थी। शाहजी राजे को पहले ही शिवाजी पर अंकुश लगाने के लिए कहा गया था, किंतु शाहजी ने अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी थी। बीजापुर दरबार में अमीरों का एक वर्ग का नेता अब्दुल्लाह भटारी (अफजल खाँ) था, जो शिवाजी के विरुद्ध कठोर कार्यवाही का पक्षधर था। अंततः शिवाजी के दमन के लिए सुल्तान ने 1659 ई. में अफजल खाँ के नेतृत्व में घुड़सवारों की एक शक्तिशाली सेना भेजी, जिसके पास एक तोपखाना भी था। अफजल खाँ शिवाजी के क्षेत्रों को उजाड़ता और मंदिरों को नष्ट करता हुआ शिरवल के निकट पहुँच गया, किंतु शिवाजी प्रतापगढ़ के दुर्ग पर ही रहे। अफजल खाँ ने अपने एक दूत मराठा ब्राह्मण कृष्णजी भास्कर कुलकर्णी से शिवाजी के पास संदेश भेजा कि यदि शिवाजी बीजापुर की अधीनता स्वीकार कर ले, तो सुल्तान उसे उन सभी क्षेत्रों को सौंप देगा जो उसके नियंत्रण में हैं। साथ ही उसने शिवाजी को बीजापुर के दरबार में एक सम्मानित पद दिलवाने का भी वादा किया।

यद्यपि शिवाजी के मंत्री और सलाहकार इस संधि के पक्ष में थे, किंतु शिवाजी को अफजल खाँ की नीयत पर संदेह हो गया। उन्होंने कृष्णजी भास्कर को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया और अपने दूत पंताजी गोपीनाथ को वस्तुस्थिति का जायजा लेने अफजल खाँ के पास भेजा। गोपीनाथ और कृष्णजी भास्कर से शिवाजी को लगा कि संधि का षड्यंत्र रचकर अफजल खाँ उन्हें कैद करना या मार डालना चाहता है। उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खाँ को एक बहुमूल्य उपहार भेजा और अंततः शिवाजी और अफजल खाँ अपने दो-दो अंगरक्षकों के साथ प्रतापगढ़ के पास मिलने के लिए तैयार हो गये। शिवाजी ने अपनी सुरक्षा के लिए वस्त्रों के नीचे लोहे का कवच पहनकर अपनी पगड़ी के नीचे शिरस्त्राण को धारण किया। उन्होंने अपने हाथ में बधनख और बाँह में एक कटार को भी छिपा लिया था। शिवाजी के दोनों अंगरक्षक जीवमहल और शंभूजी कावजी महान् योद्धा थे।

अफजल खाँ 10 नवंबर, 1659 ई. को प्रतापगढ़ के संधि-स्थल पर अस्त्र-शत्रों से सुसज्जित होकर पहुँचा। उसके अंगरक्षकों में एक सैयद बाँदा भी था, जो महान् तलवारबाज था। कहा जाता है कि संधि-स्थल पर अफजल खाँ ने शिवाजी की गर्दन दबोच ली और अपनी तलवार से वार कर दिया, किंतु शिवाजी अपने कवच और शिरस्त्राण के कारण बच गये। इसके बाद शिवाजी ने अपने वस्त्रों में छिपाये झिलम (बघनख) से अफजल खाँ को मार डाला। संकेत मिलते ही जंगलों में छिपी मराठा सेना ने आक्रमण करके नेतृत्वविहीन बीजपुरी सेना को खदेड़ दिया और उसके पड़ाव को लूट लिया। प्रतापगढ़ युद्ध की यह घटना मराठा इतिहास में एक अमर कथा के रूप में दर्ज हो गई। इससे संपूर्ण महाराष्ट्र में शिवाजी के अदम्य साहस का यश फैल गया और बीजापुर की प्रतिष्ठा को गंभीर आघात पहुँचा।

खाफी खाँ और डफ जैसे यूरोपीय विद्वानों ने शिवाजी द्वारा अफजल के वध को अत्यंत घृणित अपराध बताया है। उनके अनुसार अफजल खाँ ने पहले शिवाजी पर आघात करने की कोशिश नहीं की थी। किंतु मराठा लेखकों ने अफजल के प्रति किये गये शिवाजी के व्यवहार को सर्वथा न्यायोचित ठहराया है। उनके अनुसार अफजल खाँ ने शिवा के विरूद्ध जो पिंजड़ा तैयार किया था, वह स्वयं उसमें फँस गया। इसके पूर्व अफजल ने 1638 ई. में मराठा योद्धा कस्तूररिंग और 1654 ई. में संभाजी के साथ विश्वासघात कर चुका था। सच तो यह है कि यह बीजापुर के सेनापति के आक्रमण के विरुद्ध आत्मरक्षा का कार्य था। जदुनाथ सरकार भी मानते हैं कि ‘यह हीरे को हीरे से काटने का मामला था।’ इसकी पुष्टि समकालीन कारखानों (फैक्टरियों) के प्रमाण से भी होती है।

कोल्हापुर का युद्ध (29 दिसंबर, 1659 ई.)

अफजल खाँ के वध और बीजापुर के पराभव के बाद शिवाजी ने 29 दिसंबर, 1659 ई. को कोल्हापुर के युद्ध में बीजापुर की सेना को पराजित कर पन्हाला तथा उसके निकटवर्ती प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। उन्होंने पवनगढ़ और वसंतगढ़ के दुर्गों पर अधिकार करने के साथ ही रूस्तम खाँ के आक्रमण को भी विफल कर दिया।

पन्हाला का पतन (1660 ई.)

शिवाजी की विस्तारवादी सैन्य-कार्रवाइयों से आतंकित होकर बीजापुर के सुल्तान ने 1660 ई. में सिद्दी जौहर, रूस्तम खाँ, फजल खाँ और बाजी घोरपड़े को मराठा शक्ति को छिन्न-भिन्न करने के लिए भेजा। शिवाजी अभी पन्हाला के दुर्ग को सुदृढ़ कर रहे थे कि बीजापुरी सेना ने पन्हाला के दुर्ग को तीन ओर से घेर लिया। चार माह की घेराबंदी के बाद पन्हाला के दुर्ग का पतन हुआ। सिद्दी जौहर ने शिवाजी के समक्ष संकट पैदा कर दिया, किंतु शिवाजी आत्मसमर्पण का आश्वासन देकर 13 जुलाई, 1660 ई. की रात को अपने 700 सैनिकों के साथ पन्हाला के दुर्ग से निकल कर विशालगढ़ के दुर्ग में पहुँच गये। बीजापुर के दरबार में पन्हाला से शिवाजी के पलायन का कारण सिद्दी जौहर का सुल्तान के प्रति विश्वासघात बताया गया, इसलिए बीजापुर के सुल्तान ने स्वयं फौज की कमान संभाली और पन्हाला, पवनगढ़ तथा कुछ अन्य स्थानों पर पुनः अधिकार कर लिया।

स्वतंत्र शासक के रूप में मान्यता (1662 ई.)

इसी समय कर्नाटक में सिद्दी जौहर ने विद्रोह कर दिया। विद्रोह समाप्त होते ही बीजापुर के सुल्तान ने 1662 ई. में शाहजी की मध्यस्थता से, जो अभी भी बीजापुर राज्य में एक महत्त्वपूर्ण पद पर थे, शिवाजी के साथ एक अल्पकालीन संधि कर ली। इस संधि के अनुसार शिवाजी को स्वतंत्र शासक के रूप में मान्यता मिल गई और शिवाजी के जीते प्रदेशों पर उनका अधिकार मान लिया गया। इस प्रकार उत्तर में कल्याण से लेकर दक्षिण में पोंडा तक का और पूर्व में इंदापुर तथा पश्चिम में डभाल तक का भूभाग शिवाजी के नियंत्रण में आ गया। इस संधि के उपलक्ष्य में शिवाजी ने अपने पिता के जीवनपर्यंत बीजीपुर के साथ शातिपूर्ण संबंधों के निर्वाह का आश्वासन दिया। शिवाजी ने रायरी को अपनी राजधानी बनाकर उसे ‘रायगढ़’ का नया नाम प्रदान किया।

मुगलों के साथ पुनः संघर्ष (1660 ई.)

शिवाजी का मुगलों से पहली बार मुकाबला 1657 ई. में हुआ था जब औरंगजेब ने दक्षिण के सूबेदार की हैसियत से बीजापुर पर आक्रमण किया था और शिवाजी ने मुगलों के दक्षिण-पश्चिम भाग पर आक्रमण कर जुन्नार का लूट लिया था। किंतु मुगलों और बीजापुर के बीच संधि हो जाने के कारण यह संघर्ष समाप्त हो गया था और उत्तराधिकार युद्ध के कारण मुगल लगभग दो वर्ष तक दक्षिण की ओर ध्यान नहीं दे सके।

बादशाह बनने के बाद औरंगजेब ने शिवाजी पर नियंत्रण रखने के उद्देश्य से अपने मामा शाइस्ता खाँ को 1660 ई. में दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया। जनवरी 1660 ई. में शाइस्ता खाँ औरंगाबाद पहुँचा और शिवाजी से निपटने के लिए बीजापुर से सहयोग लिया। शाइस्ता खाँ ने मराठों से पूना और अहमदनगर के बीच के प्रदेशों तथा दुर्गों को छीन लिया। उसने मराठों के साथ भारी लड़ाई के बाद चाकन तथा कल्याण के किले और उत्तरी कोंकण पर भी कब्जा कर लिया। शिवाजी के नेतृत्व में मराठों ने अपना गुरिल्ला युद्ध (छापामार युद्ध) जारी रखा, किंतु खाफी खाँ लिखता है कि, ‘शिवाजी इतने आतंकित हो गये थे कि वह किसी भी स्थल पर एक सप्ताह से अधिक नहीं टिक पाते थे।

शाइस्ता खाँ पर आक्रमण (5 अप्रैल, 1663 ई.)

लगभग दो वर्षों के अनियमित युद्ध के पश्चात् शिवाजी ने मुगल सूबेदार शाइस्ता खाँ पर आक्रमण करने का निश्चय किया, जो पूना के रंगमहल में ठहरा हुआ था। यद्यपि शाइस्ता खाँ ने अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा की पूर्ण व्यवस्था की थी और मराठों के शहर में प्रवेश पर प्रतिबंध था। फिर भी, 4 अप्रैल, 1663 ई. को बारातियों के भेष में शिवाजी 350 मावलों के साथ शहर में घुस गये और आधी रात के बाद 5 अप्रैल को शाइस्ता खाँ के महल में घुसकर चालीस रक्षकों को मार डाला। शाइस्ता तो खिड़की के रास्ते भाग निकला, किंतु उसके हाथ तीन अंगुलियाँ कट गईं। शाइस्ता का पुत्र अबुल फतह और अनेक मुगल सैनिक मुठभेड़ में मारे गये। रात के अंधेरे में शाइस्ता के हरम की कई महिलाएँ भी मारी गईं। शिवाजी सकुशल सिंहगढ़ के पार्श्ववर्ती दुर्ग में चले गये।

इस साहसपूर्ण एवं अद्भुत कार्य से शिवाजी की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई और मुगल उन्हें ‘शैतान का अवतार’ समझने लगे। इस घटना के बाद औरंगजेब ने शाइस्ता खाँ की जगह शाहजादा मुअज्जम को दकन का सूबेदार नियुक्त किया और शाइस्ता को बंगाल की सूबेदारी दे दी।

सूरत की पहली लूट (जनवरी, 1664 ई.)

पिछले चार साल में मुगल सेनाओं ने शिवाजी के पूरे मराठा क्षेत्र को बर्बाद कर दिया था। इसलिए उसका हर्जाना वसूल करने के लिए शिवाजी ने चार हजार घुड़सवारों के साथ जनवरी, 1664 ई. में पश्चिमी समुद्रतट के सबसे समृद्ध बंदरगाह सूरत पर आक्रमण कर उसे छः दिनों तक लूटा। सूरत उस समय पश्चिमी व्यापार का केंद्र था और हिंदुस्तानी मुसलमानों के लिए हज पर जाने का द्वार भी। सूरत की लूट में कोई बाधा नहीं आई क्योंकि वहाँ का शासक अपने पैर सिर पर रखकर भाग गया था। सूरत की लूट से मराठा नायक को लगभग एक करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति मिली। स्थानीय अंग्रेजी और डच फैक्टरियों ने सफलतापूर्वक उनका प्रतिरोध किया और लूटे जाने से बच गईं। इस घटना का जिक्र डच और अंग्रेजों ने अपने लेखों में किया है।

‘राजा’ की उपाधि और मुद्रा का प्रवर्त्तन (1664 ई.)

लगभग इसी समय तुगंभद्रा के दोआब में शिवाजी के पिता शाहजी की मृत्यु हो गई, जहाँ वह सामंतों के व्रिदोह का दमन करने गये थे। पिता की मृत्यु के बाद शिवाजी ने ‘राजा’ की उपाधि धारण की, जिसे अहमदनगर के सुल्तान ने शाहजी को प्रदान किया था। शिवाजी ने अपने नाम की मुद्रा का प्रवर्त्तन भी किया और इस प्रकार अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की।

मुगलों से दूसरी मुठभेड़ (1665 ई.)

सूरत में शिवाजी की लूट से औरंगजेब बहुत खिन्न हुआ क्योंकि सूरत से मुगलों को अत्यंत लाभ होता था। उसने सूरत के फौजदार इनायत खाँ के स्थान पर गयासुद्दीन खाँ को नियुक्त किया और शिवाजी से निपटने के लिए शहजादा मुअज्जम को प्रधान सेनापति तथा जसवंतसिंह को उपसेनापति बनाकर एक विशाल सेना के साथ दक्षिण भेजा। किंतु मुअज्जम और जसवंतसिंह को शिवाजी के विरूद्ध कोई सफलता नहीं मिली।

निराश होकर औरंगजेब ने मुअज्जम और जसवंतसिंह को वापस बुला लिया और 1665 ई. के प्रारंभ में अंबर के राजा जयसिंह और दिलेर खाँ को एक शक्तिशाली सेना के साथ दक्षिण भेजा। दिलेर खाँ (जलाल खाँ दाऊदजई) ही रुहेलखंड के शाहजहाँनाबाद का संस्थापक था।

जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान, यूरोपीय शक्तियों और छोटे सामंतों का सहयोग लेकर शिवाजी पर आक्रमण किया। उसने शिवाजी के चारों ओर शत्रुओं का एक घेरा बनाकर पुरंदर और राजगढ़ (सिंहगढ़) के दुर्गों को घेर लिया। इससे शिवाजी के समक्ष विषम स्थिति उत्पन्न हो गई। दोनों ही गढ़ों के सैनिकों ने कुछ समय तक दृढ़तापूर्वक अपनी सुरक्षा की चेष्टाएँ कीं। पुरंदर के दुर्ग की रक्षा करते हुए बाजीप्रभु तथा वीर सेनापति मुरारबाजी देशपांडे तीन सौ मवालियों के साथ लड़ते हुए मारे गये। अंततः विवश होकर शिवाजी ने राजा जयसिंह के पास संधि का प्रस्ताव भेजा और 22 जून, 1665 ई. को शिवाजी और जयसिंह के बीच पुरंदर की संधि हो गई।

पुरंदर की संधि (22 जून, 1665 ई.)

पुरंदर की संधि की शर्तों के अनुसार शिवाजी को अपने तेईस किले मुगलों को देने पड़े, जिनकी आमदनी चार लाख हूण वार्षिक थी। अब उनके पास रायगढ़ के साथ केवल 12 किले ही शेष रह गये थे। शिवाजी ने मुगलों की अधीनता मान ली और अपने पुत्र शंभाजी को 5000 घुड़सवारों के साथ मुगलों की सेवा में भेजना स्वीकार किया। शिवाजी ने बीजापुर के विरूद्ध मुगलों की सहायता करना स्वीकार किया और यह तय हुआ कि बीजापुर जीतने के बाद कोंकण में चार लाख हूण की वार्षिक आय की भूमि और बालाघाट में पाँच लाख हूण की वार्षिक आय की भूमि शिवाजी को दी जायेगी, किंतु इसके बदले में शिवाजी को 40 लाख हूण 13 किस्तों में मुगलों को देना होगा। इसके अलावा, शिवाजी ने प्रतिवर्ष 5 लाख हूण का राजस्व और दक्कन में मुगल सेना की सहायता के लिए पाँच हजार घुड़सवार देने का भी वादा किया। राज्य के घाटे की पूर्ति के लिए शिवाजी को बीजापुर राज्य के कुछ जिलों में ‘चौथ’ और ‘सरदेशमुखी’ वसूल करने की छूट मिल गई।

वास्तव में पुरंदर की संधि जयसिंह की कूटनीतिक विजय थी क्योंकि इससे मुगलों को बहुत लाभ हुआ, शिवाजी को बड़ी हानि उठानी पड़ी और बीजापुर तथा शिवाजी एक-दूसरे के शत्रु हो गये।

पुरंदर की संधि के बाद जयसिंह बीजापुर से संघर्ष में उलझा रहा, जिसमें शिवाजी ने प्रत्यक्ष रूप से मुगलों की सहायता की। जयसिंह की सलाह पर औरंगजेब ने शिवाजी को आगरे आने का निमंत्रण दिया। औरंगजेब के दरबार में उपस्थित होने को राजी करने के लिए जयसिंह ने शिवाजी से पुरस्कार एवं प्रतिष्ठा की प्रतिज्ञा की, उनकी सुरक्षा के उत्तरदायित्व की शपथ खाई और इस प्रकार शिवाजी को आगरे चलने के लिए राजी कर लिया।

आगरा यात्रा (16 मार्च, 1666 ई.)

शिवाजी को शाही दरबार में भेजने का अभिप्राय था, उन्हें दक्कन के उपद्रवग्रस्त क्षेत्र से हटाना, किंतु जयसिंह के प्रस्ताव को शिवाजी ने क्यों स्वीकार किया? कहा जाता है कि शिवाजी मुगल बादशाह के संबंध में जानकारी प्राप्त करना चाहते थे और राजपूत राजाओं से मिलकर मुगल साम्राज्य की वास्तविक स्थिति से परिचित होना चाहते थे। संभवतः शिवाजी जंजीरा द्वीप पर अधिकार करने के लिए बादशाह की स्वीकृति लेना चाहते थे, जो उस समय सीदी नामक एक शाही नौकर के अधीन था। जो भी हो, ज्योतिषियों के आश्वासन और अपने निकटस्थ पदाधिकारियों की सहमति लेकर 16 मार्च, 1666 ई. को शिवाजी अपने पुत्र शंभाजी सहित पाँच अधिकारियों और 350 सैनिकों के साथ आगरा की ओर प्रस्थान किये और 9 मई, 1666 ई. को आगरा पहुँच गये, जहाँ जयसिंह के पुत्र रामसिंह और एक अन्य शाही अधिकारी मुखलिस खाँ ने उनका स्वागत किया।

आगरा में शिवाजी ( मई, 1666 ई.)

शिवाजी मई, 1666 ई. में जब औरंगजेब के दरबार में पहुँचे, बादशाह अपनी पच्चासवीं सालगिरह मना रहा था, मीरबख्शी असद खाँ के माध्यम से शिवाजी ‘दीवान-ए-खास’ में बादशाह के सामने उपस्थित हुए। बादशाह ने शिवाजी को पाँच हजारी मनसब प्रदान किया और जसवंतसिंह के पीछे खड़ा कर दिया। यद्यपि पाँच हजार का मनसब छोटा नहीं था, किंतु यह शिवाजी के पुत्र शंभाजी और जामाता नाथूजी को मिल चुका था, इसलिए यह शिवाजी को अपमानजनक लगा। जसवंतसिंह के पीछे खड़ा किये जाने से शिवाजी असहज हो गये और औरंगजेब पर विश्वासघात का आरोप लगाते हुए दरबार से बाहर चले गये। इसका परिणाम हुआ कि औरंगजेब ने उन्हें ‘जयपुर भवन’ में, जहाँ वे ठहरे हुए थे, नजरबंद करवा दिया।

आगरा से पलायन (17 अगस्त, 1666 ई.)

अगस्त, 1666 ई. में शिवाजी ने शाही कैद से निकल भागने की योजना बनाई। अपने साहस और युक्ति के बल पर शिवाजी और शंभाजी, दोनों 17 अगस्त, 1666 ई. को मिठाई की टोकरी की छिपकर रामसिंह के ‘जयपुर भवन’ से निकल आये।

छद्म वेष धारण कर शिवाजी मथुरा पहुँचे और वहाँ शंभाजी को एक विश्वासी ब्राह्मण के यहाँ छोड़कर इलाहाबाद, बनारस, गया, पूर्वी बंगाल, पुरी और तेलंगाना होते हुए 2 सितंबर, 1666 ई. को रायगढ़ पहुँच गये। इस प्रकार लगभग नौ माह बाहर रहने के बाद दिसंबर 1666 ई. में शिवाजी ने अपनी राजधानी में प्रवेश किया।

शिवाजी के पलायन से नाराज औरंगजेब ने कोतवाल कुँवर मानसिंह को बुरा-भला कहा और रामसिंह से उसके पद और वेतन को छीन लिया। कहा जाता है कि संदेह के कारण औरंगजेब ने बाद में 2 जुलाई, 1887 ई. को आगरा आते समय बुरहानपुर में जयसिंह की विष देकर हत्या करवा दी थी।

आगरा से लौटने के बाद तीन वर्षों तक शिवाजी मुगलों के साथ शांतिपूर्वक रहे। इस समय का उपयोग उन्होंने अपने आंतरिक प्रशासन को संगठित करने में किया।

शिवाजी की मुगलों से संधि (9 मार्च, 1668 ई.)

1668 ई. में शिवाजी ने कूटनीति का सहारा लेकर जसवंतसिंह की सहायता से मुगलों से संधि करना चाहा। जसवंतसिंह के परामर्श पर बादशाह ने 9 मार्च, 1668 ई. को शिवाजी से संधि-वार्ता को स्वीकार कर लिया। इस संधि के अनुसार औरंगजेब ने शिवाजी को महाराष्ट्र का शासक स्वीकार किया और उन्हें ‘राजा’ की उपाधि दी। शिवाजी को बरार में एक जागीर भी मिली और उनके पुत्र शंभाजी को पाँच हजारी मनसब के पद पर बहाल कर दिया गया। शिवाजी को पूना, चाकन और सूपा के जिले लौटा दिये गये, किंतु सिंहगढ़ और पुरंदर पर मुगलों का अधिपत्य बना रहा।

इस संधि के बाद अगले तीन वर्ष (9 मार्च 1668-1670 ई.) तक मुगलों और मराठों में कोई संघर्ष नहीं हुआ। इस दौरान शिवाजी अपनी शक्ति और प्रशासन को सुदृढ़ करने में लगे रहे।

मुगलों से तीसरी मुठभेड़ (1670 ई.)

शक्ति और प्रशासन के दृढ़ीकरण के पश्चात् शिवाजी ने 1670 ई. में मुगलों के विरूद्ध अभियान छेड़ दिया। इस अभियान में वीर तानाजी मलुसरे ने कोंडाना के दुर्ग को जीत लिया। मुगल सूबेदार शाहआलम और उसके सहायक दिलेर खाँ के आपसी झगड़ों का लाभ उठाकर शिवाजी ने एक-एक करके सिंहगढ़, पुरंदर, माहली, करनाल, लौहगढ़ जैसे उन सभी दुर्गों को जीत लिया, जो पुरंदर की संधि में मुगलों को सौंपे गये थे। शिवाजी को पहली बार मुगल क्षेत्रों से ‘चौथ’ और ‘सरदेशमुखी’ वसूल करने का अवसर मिला। मार्च, 1670 ई. में सूरत के ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारियों ने लिखा था: शिवाजी लुटेरे की भाँति इधर-उधर नहीं घूमता। वह तीस हजार सेना के साथ आक्रमण करता है और जिधर जाता है उधर उसकी विजय होती है। इस बात की उसे चिंता नहीं कि शहजादा उसके आस-पास डेरा डाले हुए है।’

सूरत की दूसरी लूट (3 अक्टूबर, 1670 ई.)

इस अभियान के क्रम में शिवाजी ने 3 अक्टूबर, 1670 ई. को सूरत पर दूसरी बार आक्रमण किया और तीन दिन तक सूरत की पहली लूट की घटनाओं की पुनरावृत्ति होती रही। इस बार मराठे नगद और असबाब के रूप में लगभग 132 लाख रुपये की संपत्ति सूरत से ले गये। यहाँ से लौटते समय शिवाजी ने मुगल सेनापति दाउद खाँ को पराजित किया।

इसके बाद शिवाजी ने अपनी सैनिक गतिविधियों को चतुर्दिक संचालित किया। उन्होंने बरार, बगलाना तथा खानदेश पर आक्रमण किया और सलेहर तथा मुलहेर के दुर्गों को जीत लिया। मराठों ने उत्तर कोंकण पर आक्रमण कर जवाहरनगर और रामनगर को भी अपने अधीन कर लिया। विजयों के इस दौर में शिवाजी ने पन्हाला, पार्ली और सतारा के दुर्गों को भी जीत लिया। 1671-72 ई. में मुगल सेनाओं ने शिवाजी के राज्य पर आक्रमण किये, किंतु असफल रहे। 1672 ई. में शिवाजी ने सूरत से ‘चौथ’ वसूल किया। इस प्रकार जब औरंगजेब उत्तर-पश्चिम के कबायली विद्रोहों में व्यस्त था, तो मराठे अपनी शक्ति की पराकाष्ठा पर थे।

शिवाजी का राज्याभिषेक (6 जून, 1674 ई.)

पश्चिमी महाराष्ट्र में शिवाजी ने अनेक दुर्गों और भू-क्षेत्रों को जीतकर एक स्वतंत्र मराठा साम्राज्य स्थापित कर लिया था, किंतु उनके विरोधी अभी तक शिवाजी को मात्र एक शक्तिशाली और उपद्रवी जागीरदार समझते थे। अतः अपनी स्वतंत्र सत्ता की घोषणा करने और मराठों के समक्ष राजत्त्व का आदर्श प्रस्तुत करने के लिए शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक कराने का निर्णय किया।

मराठों का उत्थान: शिवाजी (Rise of the Marathas: Shivaji)
छत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक

शिवाजी जाति से ‘कुर्मी’ थे, जिन्हें ‘शूद्र’ माना जाता था। इसी कारण उनके राज्याभिषेक में भी कई समस्याएँ आईं। पहले तो पेशवा, जो स्वयं ब्राह्मण था, ने शिवाजी के क्षत्रिय होने का सार्वजनिक रूप से विरोध किया। ब्राह्मणों ने शिवाजी के द्वारा किये गये जाने-अनजाने पापों की सूची बनाई। इसके आधार पर दंड-निर्धारण किया गया और 11,000 ब्राह्मणों को परिवार सहित भोजन, वस्त्र और अन्य सामग्री चार महीने तक देना पड़ा।

अंततः शिवाजी के निजी सचिव बालाजी रावजी के प्रयास से बनारस के गंगाभट्ट नामक ब्राह्मण ने एक लाख रुपये घूस लेकर शिवाजी को ‘सूर्यवंशी क्षत्रिय’ घोषित किया और 6 जून, 1674 ई. को रायगढ़ में शिवाजी का विधिवत् राज्याभिषेक किया। राज्याभिषेक के अवसर पर शिवाजी को स्वर्णमुकुट पहनाया गया, बहुमूल्य रत्नों तथा स्वर्ण-पुष्पों की वर्षा की गई और ‘हिंदवधर्मोद्धारक’ (हिंदू धर्म का रक्षक) की उपाधि दी गई। राज्याभिषेक के दौरान शिवाजी ने अपना हिरण्यगर्भ संस्कार कराया, ‘छत्रपति’ की उपाधि धारण की और अन्य हिंदू शासकों की भाँति एक नया संवत् चलाया। इस घटना को सूरत में अंग्रेजी फैक्ट्री के मुख्य हेनरी ओक्सेंडेंग ने अपनी आँखों से देखा था।

इस प्रकार एक शक्तिशाली योद्धा भी जातिवाद का शिकार होकर क्षत्रियत्व को प्राप्त करने को प्रलोभित किया गया। बहुत-सा धन देकर असंतुष्ट ब्राह्मणों को तुष्ट करने का प्रयास किया गया, किंतु तब भी पुणे के ब्राह्मणों ने शिवाजी को राजा मानने से इनकार कर दिया।

पूरक राज्याभिषेक (4 अक्टूबर, 1674 ई.)

राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही शिवाजी की माता का देहांत हो गया, इसलिए 4 अक्टूबर, 1674 ई. को तांत्रिक विधि से पूरक राज्याभिषेक किया गया और शिवाजी ने दूसरी बार ‘छत्रपति’ की उपाधि ग्रहण की। इस समारोह में ‘हिंदवी स्वराज’ की स्थापना का उद्घोष किया गया और एक स्वतंत्र शासक की भाँति शिवाजी ने अपने नाम के सिक्के चलाये।

दक्षिण में दिग्विजय

राज्याभिषेक के बाद शिवाजी ने मुगल प्रदेशों को लूटा, क्योंकि राजतिलक में अधिक धन व्यय करने के कारण खजाना खाली हो गया था। शिवाजी ने दक्षिण के प्रसिद्ध मुगल सेनापति बहादुर खाँ को पराजित कर लगभग एक करोड़ नकद और दो सौ अच्छी नस्ल के घोड़े लूटने में सफलता प्राप्त की। इसी समय शिवाजी ने बीजापुर के खानदेश और बगलाना के प्रदेशों को भी लूटा। अंततः बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी से संधि कर ली।

कर्नाटक अभियान ((1677-78 ई.)

बीजापुर से संधि कर शिवाजी ने धन प्राप्त करने और कर्नाटक में मराठा राज्य की स्थापना के उद्देश्य से पूर्वी कर्नाटक पर आक्रमण (1677-78 ई.) किया। संभवतः शिवाजी का उद्देश्य मराठा राज्य के लिए एक वैकल्पिक आधार प्राप्त करना था, जहाँ संकट के समय मराठा सरकार शरण ले सके।

वास्तव में कर्नाटक अभियान शिवाजी की कूटनीतिक सफलता का उत्कृष्ट उदाहरण है क्योंकि उनके कर्नाटक अभियान का बीजापुर और गोलकुंडा ने विरोध नहीं किया और मुगल भी उत्तर-पश्चिम में उलझे होने के कारण मराठा राज्य पर आक्रमण नहीं किये।

कर्नाटक अभियान के अंतर्गत शिवाजी ने 1677-78 ई. में जिंजी, बेलूर तथा तिरुवाड़ी को जीतकर तुंगभद्रा से लेकर कावेरी नदी तक के भू-क्षेत्र पर अधिकार कर लिया और ‘जिंजी’ को अपने नवीन क्षेत्र की राजधानी बनाया।

मद्रास, कर्नाटक और मैसूर के पठार में विस्तृत इस प्रदेश में सौ किले थे, जिनसे बीस लाख हूण का वार्षिक राजस्व मिलता था। इसके बाद शिवाजी ने सीदियों से जंजीरा टापू को जीतने का असफल प्रयास किया। इसी उद्देश्य से शिवाजी ने एक नौसेना का निर्माण भी किया था, जिसका प्रमुख ‘मयंक भंडारी’ था।

मुगलों से अंतिम संघर्ष (1679 ई.)

कर्नाटक से लौटने के बाद शिवाजी और मुगलों में पुनः युद्ध आरंभ हो गया। इसका कारण यह था कि शिवाजी ने मुगल आक्रमण के विरुद्ध जंजीरा के सीदियों की सहायता की थी। इसके बाद मुगल सेनापति दिलेर खाँ ने बीजापुर पर आक्रमण किया, किंतु इस युद्ध में शिवाजी ने एक बार फिर बीजापुर की सहायता की।

शिवाजी का अंतिम अभियान 1679 ई. जालना, औरंगाबाद क्षेत्र में हुआ। 23 मार्च, 1680 ई. को शिवाजी ज्वरग्रस्त हुए और एक संक्षिप्त बीमारी के उपरांत शनिवार के दिन 3 अप्रैल, 1680 ई. को उनकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार तीस वर्षों तक निरंतर संघर्ष करते हुए शिवाजी ने स्वतंत्र मराठा राज्य की स्थापना की, जिसमें महाराष्ट्र, कोंकण और कर्नाटक का बड़ा क्षेत्र सम्मिलित था।

शिवाजी की सफलता अद्भुत और चमत्कारपूर्ण थी। औरंगजेब अपने अथक प्रयास के बावजूद शिवाजी की शक्ति को कुचल नहीं सका और मराठे मुगल क्षेत्रों (मुगलई) से निरंतर ‘चौथ’ वसूलने में सफल रहे। ग्रांट डफ ने लिखा है कि जो प्रदेश शिवाजी ने जीता था अथवा जो धन एकत्रित किया था, वह मुगलों के लिए उतना भयावह नहीं था जितना कि शिवाजी का स्वयं का आदर्श, नई विचारधारा और प्रणाली, जो उन्होंने चलाई थी और जो नई प्रेरणा उन्होंने मराठा जाति में फूँक दी थी।

शिवाजी का प्रशासन

शिवाजी एक साहसी सेनापति और सफल विजेता ही नही थे, बल्कि एक कुशल संगठनकर्ता और प्रशासक भी थे। यद्यपि शिवाजी को बचपन में कोई विशेष शिक्षा नहीं मिली थी, किंतु वह भारतीय इतिहास और राजनीति से परिचित थे। शिवाजी स्वयं ‘क्षत्रिय कुलवतमसां’ (क्षत्रिय परिवार के आभूषण) और ‘हिंदवधर्मोद्धारक’ (हिंदू धर्म का रक्षक) थे। उन्होंने शुक्राचार्य और कौटिल्य को आदर्श मानकर कई अवसरों पर कूटनीति का सहारा लिया था। वास्तव में, शिवाजी के प्रशासन का अनुभव के आधार पर क्रमिक विकास हुआ था। उनकी प्रशासनिक व्यवस्था पर स्थानीय आवश्यकताओं, तत्कालीन परिस्थितियों और निरंतर युद्धों का प्रभाव था।

शिवाजी के शासन-प्रबंध की कुछ सामान्य विशेषताएँ थीं, जैसे- ‘अष्टप्रधान’ के मंत्रियों के सुनिश्चित कार्य थे और वे ‘छत्रपति’ के प्रति पूरी तरह उत्तरदायी थे। शासन में योग्यता आधार पर नियुक्तियाँ की जाती थीं, जागीरदारी प्रथा का अभाव था और कर्मचारियों को नकद वेतन देने की व्यवस्था थी। भूमि का सर्वेक्षण करके उपज के आधार पर लगान का निर्धारण किया जाता था, रैयतों से सीधे भूमिकर वसूल किया जाता था और किसानों को राज्य की ओर से ऋण देने की व्यवस्था थी। केवल धार्मिक उद्देश्य को छोड़कर भूमि का अनुदान नहीं दिया जाता था। प्रशासनिक व्यवस्था के मुख्य आधार दुर्ग थे, जिनका पूरे राज्य में जाल बिछा हुआ था।

केंद्रीय शासन व्यवस्था

मध्यकालीन शासकों की तरह शिवाजी की शासन-प्रणाली भी एकतंत्री थी अर्थात् प्रशासन की सारी शक्तियाँ एक निरंकुश राजा की तरह शिवाजी में निहित थीं, किंतु उनकी निरंकुशता लोक-कल्याण की भावना से ओत-प्रोत थी। यद्यपि राज्य में शिवाजी ही अंतिम कानून-निर्माता, प्रधान न्यायाधीश और प्रधान सेनापति थे, किंतु उन्होंने अपनी शक्तियों का प्रयोग स्वार्थपूर्ति के लिए कभी नहीं किया।

अष्टप्रधान

यद्यपि शिवाजी स्वयं ही प्रधानमंत्री थे और शासन की सभी शक्तियाँ उनके हाथ में केंद्रित थीं, फिर भी, उन्होंने प्रशासकीय कार्यों में सहायता के लिए एक सलाहकार परिषद् का गठन किया था, जिसमें आठ मंत्री होते थे। आठ मंत्रियों की इस परिषद् को ‘अष्टप्रधान’ कहा जाता था। वास्तव में आठ प्रधान शिवाजी के सचिवों की तरह कार्य करते थे और शिवाजी द्वारा दिये गये आदेशों को कार्यान्वित करना तथा प्रशासन की देखभाल करना उनका प्रमुख दायित्व था। ‘अष्टप्रधान’ के मंत्री शिवाजी को परामर्श दे सकते थे, किंतु शिवाजी उनके परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं थे।

मराठों का उत्थान: शिवाजी (Rise of the Marathas: Shivaji)
छत्रपति शिवाजी महाराज का ‘अष्टप्रधान’
पेशवा या प्रधानमंत्री

पेशवा छत्रपति के बाद सबसे प्रमुख पद था, जिसे ‘मुख्य प्रधान’ भी कहा जाता था। इसका मुख्य कार्य प्रशासनिक व्यवस्था बनाये रखना, राज्य के विभिन्न अधिकारियों पर नियंत्रण रखना और राज्य की सामान्य भलाई तथा हितों की देख-रेख करना था।

सेनापति या सर-ए-नौबत

सेना के प्रधान को ‘सेनापति’ कहा जाता था, जो युद्ध में सेना का संचालन करता था और सेना की भर्ती, अनुशासन, प्रशिक्षण, अस्त्र-शस्त्रों तथा रसद आदि की व्यवस्था करता था।

अमात्य या मजुमदार

यह वित्त और राजस्व विभाग का प्रमुख था, जो आय-व्यय का लेखा-जोखा रखता था। इसकी तुलना मौर्यकालीन अशोक महान् के ‘महामात्य’ से की जा सकती है।

मंत्री या वाकयानवीस

यह छत्रपति के प्रतिदिन के कार्यों और महत्त्वपूर्ण घटनाओं को लिपिबद्ध करता था। राजा के जीवन का समुचित प्रबंध करना भी मंत्री का ही कार्य था।

सचिव अथवा सुरनवीस

यह राज्य के पत्र-व्यवहार विभाग का प्रमुख था, जो ‘महालों’ एवं ‘परगनों’ की आय की जाँच भी करता था। इसका कार्य संधि-पत्रों का आलेख तैयार करना था और शाही मुहर लगाना भी था।

सुमंत अथवा दबीर

यह विदेशमंत्री और गुप्तचर विभाग का प्रमुख था। राजा को संधि अथवा युद्ध के संबंध में सलाह देना, विदेशी राजदूतों का स्वागत और निवास आदि की व्यवस्था करना, अपने राजदूतों को विदेशों में भेजना और उनके कार्यों का निरीक्षण करना सुमंत का मुख्य कार्य था।

न्यायाधीश

यह न्यायिक मामलों का प्रधान था और दीवानी तथा फौजदारी, दोनों प्रकार के मुकदमों का हिंदू कानून के आधार पर निर्णय करता था।

पंडितराव एवं दानाध्यक्ष

यह राजपुरोहित था, जो दान तथा धार्मिक विभाग का भी प्रमुख होता था।

न्यायाधीश एवं पंडितराव के अतिरिक्त, सभी मंत्रियों को असैनिक कर्त्तव्यों के साथ-साथ सैनिक कार्य भी करना होता था। सेनापति को छोड़कर ‘अष्टप्रधान’ के सभी मंत्री ब्राह्मण होते थे। ‘अष्टप्रधान’ के मंत्रियों के नायब भी होते थे, जिन्हें ‘कारभारी’ या ‘मुत्तलिक’ कहा जाता था। मंत्रियों के अधीन राज्य के विभिन्न विभाग थे, जिनकी संख्या संभवतः तीस से कम नहीं थी।

मराठा राज्य

शिवाजी का प्रशासन मूलतः दक्षिणी व्यवस्था पर आधारित था, किंतु इसमें कुछ मुगल तत्त्व भी शामिल थे। मराठा राज्य के अंतर्गत मुख्यतः दो प्रकार के क्षेत्र थे- ‘स्वराज्य’ क्षेत्र और ‘मुगलई’ क्षेत्र ।

स्वराज्य क्षेत्र

शिवाजी के राज्य को ‘स्वराज्य’ कहा जाता था, जो मराठों के प्रत्यक्ष नियंत्रण में था। यह महाराष्ट्र में ही सीमित था, जो तीन प्रांतों- उत्तरी, दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी में विभाजित था।

मुगलई क्षेत्र

जिन मुगल क्षेत्रों से मराठे केवल ‘चौथ’ और ‘सरदेशमुखी’ वसूल करते थे, उन्हें ‘मुगलई’ (मुल्क-ए-कदीम) कहा जाता था। ऐसे ‘मुगलई’ क्षेत्र प्रशासन के मामले में स्वतंत्र थे। इनके अलावा, हाल ही में जीते गये जिंजी, बेलूर और अन्य क्षेत्र ‘अधिग्रहण सेना’ के अंतर्गत थे।

प्रांतीय प्रशासन

राजस्व-संग्रह तथा प्रशासन के लिए शिवाजी का ‘स्वराज्य’ मुख्यतः तीन प्रांतों- उत्तरी, दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी में बँटा हुआ था। प्रांतों में शिवाजी के द्वारा सूबेदार या प्रांतपति की नियुक्ति की गई थी।

उत्तरी प्रांत

‘स्वराज्य’ क्षेत्र का उत्तरी प्रांत पूना से लेकर सल्हेर तक था, जिसमें उत्तरी कोंकण भी सम्मिलित था। उत्तरी प्रांत का प्रांतपति पेशवा मोरोपंत पिंगले था।

दक्षिणी प्रांत

दक्षिणी प्रांत में दक्षिणी देश और मध्य कोंकण के क्षेत्र सम्मिलित थे। दक्षिणी प्रांत का अन्नाजी दत्तो था।

दक्षिण-पूर्वी प्रांत

तीसरे दक्षिण-पूर्वी प्रांत में दक्षिणी कोंकण, सामंतवाड़ी और उत्तरी केनारा के क्षेत्र सम्मिलित थे। दक्षिण-पूर्वी प्रांत का प्रांतपति दत्तोजी पंत था।

केंद्रीय सरकार की तरह प्रांतपतियों के पास भी एक ‘अष्टप्रधान’ समिति होती थी, जिसकी सहायता के लिए प्रत्येक विभाग में आठ सहायक अधिकारी (मुत्तलिक) होते थे- दीवान, मजुमदार (लेखाधिकारी), फड़नवीस (उपलेखाधिकारी), सबनवीस (लिपिक), कारखानी, चिटनिस (पत्र-लेखक), जमानदार (कार्यपालक) एवं पटनवीस (खजांची)। प्रांतपतियों का मुख्य कार्य अपने प्रांत में शांति-व्यवस्था बनाये रखना, उसकी रक्षा करना और लगान व अन्य करों की वसूली कर केंद्र को भेजना था। प्रत्येक प्रांत ‘परगनों’ या ‘महालों’ और ‘तरफों’ में विभक्त था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ‘गाँव’ थे।

सैन्य-संगठन

शिवाजी के द्वारा मराठी सेना को एक नये ढंग से संगठित करना उनकी सैनिक प्रतिभा का प्रमाण है। शिवाजी ने एक नियमित और स्थायी सेना का गठन किया था, जिसमें चालीस हजार घुड़सवार और दस हजार पैदल सैनिक थे। किंतु कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उनकी सेना में कुल मिलाकर लगभग एक लाख घुड़सवार और एक लाख पैदल सैनिक थे। सभासद बखर के अनुसार शिवाजी की सेना में लगभग बारह सौ साठ हाथियों और डेढ़ से तीन हजार ऊँटों का दल भी था। शिवाजी के गोलंदाज सैनिकों की संख्या ज्ञात नहीं है, किंतु उन्होंने सूरत के फ्रांसीसी निर्देशक से अस्सी तोपों और अपनी तोड़ेदार बंदूकों के लिए काफी सीसा खरीदा था। शिवाजी अपने सैनिक अभियानों का आरंभ अकसर दशहरा के अवसर पर करते थे।

सैन्य-श्रेणियाँ

शिवाजी की घुड़सवार और पैदल सेना, दोनों में अधिकारियों की नियमित श्रेणियाँ थीं। घुड़सवारों की दो श्रेणियाँ थीं- बरगीर और सिलहदार। जिन घुड़सवारों को राज्य की ओर से वेतन और साजो-समान दिये जाते थे, उन्हें ‘पागा’ या ‘बरगीर’ कहा जाता था। दूसरे, ‘सिलहदार’ अपने घोड़े और अस्त्र-शस्त्र की व्यवस्था स्वयं करते थे। इसके लिए उन्हें राज्य की ओर से एक निश्चित रकम दी जाती थी।

शाही घुड़सवारों के दल में 25 घुड़सवारों की एक इकाई बनती थी। 25 घुड़सवारों के ऊपर एक ‘हवलदार’, 5 हवलदारों के ऊपर एक ‘जुमलादार’, दस जुमलादारों के ऊपर ‘एकहजारी’ और पाँच हजारियों के ऊपर ‘पंचहजारी’ होता था। अश्वारोहियों का सर्वोच्च अधिकारी ‘सर-ए-नौबत’ होता था।

पैदल सेना में सबसे छोटी इकाई नौ ‘पायकों’ की थी, जो एक ‘नायक’ के अधीन थे। पाँच ‘नायकों’ के ऊपर एक ‘हवलदार’, दो या तीन हवलदारों के ऊपर एक ‘जुमलादार’, दस जुमलादारों के ऊपर ‘एकहजारी’ और सात एकहजारियों के ऊपर एक ‘सातहजारी’ होता था।

अश्वारोहियों में ‘सर-ए-नौबत’ के अधीन ‘पंचहजारी’ होते थे, किंतु पैदल सेना में ‘सातहजारियों’ पर एक ‘सर-ए-नौबत’ होता था। इसके अतिरिक्त, शिवाजी ने चुने हुए लगभग 20 हजार मावली युवकों को प्रशिक्षित कर अंगरक्षक के रूप में नियुक्त किया था। शिवाजी की सेना में बीजापुर की सेना से निकाले गये सैनिक भी थे।

प्रत्येक उच्च सैन्य-अधिकारी के साथ सबनवीस, कारखानी, मजुमदार और जमानवीस जैसे नागरिक अधिकारी भी होते थे। पैदल कारबारी सैनिक और सिलहदार कृषि-कार्य करते थे। कृषि-कार्य समाप्त होने पर वे ‘मुल्कगीरी’ के लिए सेना में सम्मिलित हो जाते थे।

यद्यपि मराठा सेना एक सेनापति के अधीन होती थी, जो ‘अष्टप्रधान’ (मंत्रिमंडल) का सदस्य होता था, किंतु प्रायः शिवाजी अपनी सेना का नेतृत्व स्वयं करते थे।

दुर्ग या किले

मराठों के इतिहास और शवाजी की प्रशासनिक व्यवस्था में दुर्गों का महत्त्वपूर्ण स्थान था। शिवाजी के राज्य में लगभग 280 दुर्ग थे, जो मराठों की सुरक्षा और आक्रमण के मुख्य आधार थे। प्रत्येक दुर्ग में उसकी सुरक्षा के लिए समान दर्जे के तीन अधिकारी- ‘हवलदार’, ‘सबनवीस’, और ‘सरे-ए-नौबत’ नियुक्त किये जाते थे। तीनों एक साथ मिलकर कार्य करते थे और एक-दूसरे पर नियंत्रण भी रखते थे। शिवाजी दुर्ग के इन अधिकारियों की नियुक्ति में भी जातीय संतुलन का ध्यान रखते थे, जैसे- ‘हवलदार’ और ‘सरे-ए-नौबत’ मराठा होते थे और ‘सबनवीस’ ब्राह्मण होते थे।

समुद्री दुर्ग और नौसेना

मराठा साम्राज्य की सुरक्षा के लिए शिवाजी ने समुद्री किलों का निर्माण और एक नौसेना का गठन भी किया था। तटों की रक्षा के लिए उन्होंने एक बड़ा जहाजी बेड़ा भी बनाया था, जिसमें मुंबई के किनारे की छोटी जातियों को भरती किया गया था। यद्यपि शिवाजी के समय में मराठी जलसेना ने कोई विलक्षण कार्य नहीं किया, फिर भी बाद में अंग्रियों के अधीन मराठा बेड़े ने अंग्रेजों, पुर्तगालियों और डचों को बहुत तंग किया।

शिवाजी की सेना अत्यंत अनुशासित, संगठित और युद्धकला में निपुण थी। छापामार युद्ध प्रणाली में उनकी सेना को महारत हासिल था। सैनिकों की भर्ती, प्रशिक्षण और नियंत्रण को शिवाजी स्वयं देखते थे। यद्यपि शिवाजी नियमित रूप से सैनिकों को वेतन और पुरस्कार देते थे, किंतु उनमें कठोर अनुशासन बनाये रखना उनकी पहली प्राथमिकता थी। उन्होंने सैनिकों के आचरण के लिए कुछ नियम बनाये थे, जिसका पालन करना प्रत्येक सैनिक के लिए अनिवार्य था। उन्होंने अपने सैनिकों को आदेश दे रखा कि वे कृषि और आवासीय इलाकों को कोई नुकसान नहीं पहुँचायेंगे। स्त्रियों को सैन्याभियानों में साथ ले जाने की अनुमति नहीं थी। गायें जब्ती से मुक्त़ थीं, किंतु बैलों को केवल बोझ ढोने के लिए जब्त किया जा सकता था। ब्राह्मणों और पवित्र पुस्तकों को नुकसान पहुँचाने की मनाही थी। इन नियमों को तोड़नेवालों को कठोर दंड दिया जाता था। युद्ध में लूटे हुए माल के संबंध में शिवाजी का आदेश था कि निर्धन लोगों का माल पुलसिया (ताँबे का सिक्का और ताँबे एवं पीतल के बर्तन) पाने वाले के हो जायेंगे, किंतु अन्य बहुमूल्य वस्तुएँ, जैसे- सोना, चाँदी (मुद्रा के रूप में अथवा ऐसे ही), रत्न, जवाहरात पानेवाले के नहीं होंगे। ऐसी वस्तुएँ अधिकारियों के माध्यम से शिवाजी की सरकार को सौंप दी जायेंगी।

राजस्व व्यवस्था
भूमिकर

मराठा राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमिकर था। शिवाजी जमींदारी या जागीरदारी प्रथा के विरूद्ध थे, इसलिए उन्होंने भू-राजस्व वसूली की ठेके की प्रथा को समाप्त कर रैयतवाड़ी व्यवस्था लागू की और सीधे रैयतों से भूमिकर वसूल करने की व्यवस्था की थी। शिवाजी ने 1679 ई. में अन्नाजी दत्तो द्वारा भूमि का सर्वेक्षण कराया और इसके लिए रस्सी के स्थान पर लकड़ी के डंडे (मानक छड़ी) का प्रयोग किया गया, जिसे ‘काठी’ कहा जाता था।

यद्यपि शिवाजी की भू-राजस्व व्यवस्था को मलिक अंबर की व्यवस्था से प्रेरणा मिली थी, किंतु मलिक अंबर माप की इकाई के मानकीकरण में असफल रहा था। मलिक अंबर ने भूमि की माप की इकाई के रूप में जरीब को अपनाया था, जबकि शिवाजी ने ‘काठी’ या ‘मानक छड़ी’ का प्रयोग किया था।

शिवाजी ने भमिकर के निर्धारण के लिए उपज के आधार पर भूमि को तीन श्रेणियों में विभक्त किया था-उत्तम, मध्यम और हीन। भूमि की श्रेणी के अनुसार उपज के आधार पर ही भूमिकर का निर्धारण किया जाता था।

आरंभ में भू-राजस्व की दर संभावित उपज का 33 प्रतिशत थी, किंतु कुछ समय के बाद इसे बढ़ाकर 40 प्रतिशत कर दिया गया। कृषक निश्चित रूप से जानते थे कि उन्हें कितना भूमिकर देना है। भूमिकर नकद अथवा अनाज, दोनों रूपों में दिया जा सकता था।

कृषि को प्रोत्साहन देने के लिए राज्य की ओर से रैयतों को बीज और मवेशी खरीदने के लिए अग्रिम ऋण दिया जाता था, जिसे रैयतें आसान वार्षिक किश्तों में चुका देती थीं। आपदा और अकाल के समय किसानों को राज्य की ओर से अहैतुक सहायता दी जाती थी।

शिवाजी ने अपनी लगान-व्यवस्था के लिए राज्य को 16 प्रांतों में बाँटा था और फिर उन्हें ‘तरफों’ और ‘मौजों’ में विभाजित किया था। ‘तरफ’ का प्रधान ‘कारकून’ होता था। भू-राजस्व वसूलने का कार्य पाटिल, देशमुख या देशपांडे जैसे कर्मचारी करते थे।

फ्रायर जैसे लोगों का यह आरोप लगाना सही नहीं है कि अपने राज्य को पुष्ट बनाने के अभिप्राय से शिवाजी राजस्व-संग्रह के मामले में कठोर थे। आधुनिक अनुसंधानों से यह पूर्णतः सिद्ध हो चुका है कि शिवाजी का राजस्व प्रशासन मानवतापूर्ण, कार्यक्षम और उनकी प्रजा के लिए हितकरी था।

प्रायः कहा जाता है कि शिवाजी ने जागीरदारी प्रथा एवं जमींदारी प्रथा को पूरी तरह समाप्त कर किसानों के साथ सीधा संपर्क स्थापित किया और इस तरह किसानों को शोषण से मुक्त कर दिया था। किंतु लगता है कि शिवाजी इस प्रथा को पूरी तरह समाप्त नहीं कर सके थे। जो भी हो, इतना अवश्य है कि शिवाजी देशमुखों की शक्ति को कम करने में सफल हुए थे। उन्होंने प्रशासनिक सुधार कर आवश्यक निरीक्षण की व्यवस्था की थी।

‘चौथ’ और ‘सरदेशमुखी’

शिवाजी की राजस्व व्यवस्था में आय का एक प्रमुख साधन ‘चौथ’ और ‘सरदेशमुखी’ भी था। महाराष्ट्र के पहाड़ी प्रदेशों से अधिक भूमिकर नहीं आता था। इस कारण शिवाजी प्रायः आसपास के प्रदेशों, मुगल सूबों और बीजापुर राज्य के कुछ क्षेत्रों से ‘चौथ’ और ‘सरदेशमुखी’ वसूल करते थे।

संभवतः ‘चौथ’ लगाने की प्रथा पश्चिमी भारत में पहले से ही प्रचलित थी, क्योंकि कहा जाता है कि रामनगर के राजा ने दमन की पुर्तगाली प्रजा से ‘चौथ’ वसूल किया था। ‘चौथ’ के रूप में उपज का 25 प्रतिशत देना पड़ता था।

‘चौथ’ के स्वरूप के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। सरदेसाई के अनुसार यह ‘कर’ विरोधी अथवा विजित राज्यों से वसूल किया जाता था। रानाडे इसकी तुलना वेलेजली की ‘सहायक-संधि’ से करते हैं। इनके अनुसार यह पड़ोसी राज्यों की सुरक्षा की गारंटी के लिए वसूला जाने वाला कर था। सर जदुनाथ सरकार का मानना है कि ‘चौथ’ एक लुटेरे को घूस देकर उससे बचने का उपाय मात्र था। बहरहाल, ‘चौथ’ का सैद्धांतिक आधार जो भी रहा हो, व्यवहार में यह सैनिक वसूली (चंदा) से अधिक कुछ नहीं था। ‘सरदेशमुखी’ दस प्रतिशत का एक अतिरिक्त कर था, जिसकी माँग शिवाजी महाराष्ट्र के पुश्तैनी ‘सरदेशमुख’ होने की हैसियत से करते थे।

न्याय-व्यवस्था

शिवाजी की न्याय-व्यवस्था प्राचीन पद्धति पर आधारित थी। शुक्राचार्य, कौटिल्य और हिंदू धर्मशास्त्रों के आधार पर मुकदमों में निर्णय दिया जाता था। ग्राम स्तर पर पाटिल या पंचायत के द्वारा न्यायिक कार्य किया जाता था। गाँव में पाटिल फौजदारी मुकदमों को देखता था। सर्वोच्च न्यायालय को ‘हाजिर मजलिस’ कहा जाता था।

धार्मिक नीति

शिवाजी को हिंदू धर्म का रक्षक और उद्धारक के रूप में प्रचारित किया जाता है, किंतु उनका प्रशासन धार्मिक सहिष्णुता पर आधारित था। उनके साम्राज्य में सभी जाति, धर्म के लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त थी और मुसलमानों तक को सेना तथा प्रशासन में स्थान दिया जाता था। शिवाजी ब्राह्मणों की तरह मुसलमान संतों और फकीरों का भी सम्मान करते थे और उन्हें अनुदान देते थे। उन्होंने कई मस्जिदों के निर्माण के लिए भी राज्य की ओर से अनुदान दिया था। तत्त्कालीन लेखक खाफी खाँ ने शिवाजी की धार्मिक सहिष्णुता की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है।

शिवाजी के राज्य का स्वरूप

मराठा राज्य राजतंत्र था, किंतु यह निरंकुश या स्वेच्छाचारी नहीं था। एक परंपरा के अनुसार शिवाजी ने मराठा राज्य स्वामी रामदास को समर्पित कर दिया था और वह केवल न्यासी के रूप में राज्य करते थे। राज्य को निरंतर युद्ध की स्थिति में रहना पड़ता था। इसलिए शिवाजी के नियम स्पष्ट और कठोर थे। शिवाजी ने सभी क्षेत्रों में जनता के सम्मान की रक्षा की। उन्होंने विद्रोह किये, काफिले को लूटे और अनेक मनुष्यों को कष्ट भी दिया, किंतु वह निम्न भावनाओं या कार्यों से पूर्णतया मुक्त थे और वह उन मुस्लिम बच्चों तथा स्त्रियों की रक्षा करते थे जो उनके हाथों में पड़ जाते थे। इस प्रकार शिवाजी राजपद के लिए पूर्ण रूप से योग्य थे, जिसे उन्होंने अपने साहस और गुणों से अलंकृत किया था। वह महत्वांकाक्षी थे, किंतु इसके लिए उन्होंने नैतिक सिद्धांतों की कभी उपेक्षा नहीं थी।

शिवाजी के व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन

ग्रांट डफ ने शिवाजी के चरित्र का मूल्यांकन करते हुए लिखा है कि, ‘शिवाजी अपनी योजनाओं में शौर्यशाली तथा विचारपूर्ण था और उनके क्रियान्वयन में उत्साही, दृढ़ और लगनशील था। किंतु इस प्रशंसनीय पक्ष को देखने पर भी उसकी योजनाओं में विश्वासघात और क्षुद्रता इतनी मिश्रित है और उनके कार्यों में इतनी स्पष्ट है कि उसके निंदनीय चरित्र के इन आक्रामक भागों को बिना घृणा के देखा नहीं जा सकता।’ इसी प्रकार विंसेंट स्मिथ ने भी लिखा है कि ‘शिवाजी डाकू था और उसके द्वारा स्थापित किया राज्य डाकू राज्य था।’

वास्तव में इस विचारधारा का स्रोत शिवाजी का कटु आलोचक मुस्लिम इतिहासकार खाफी खाँ है। खाफी खाँ ने शिवाजी को एक ‘शांतिहर्ता’ और ‘लुटेरा’ के रूप में चित्रित किया है, जो उस समय के एक मुस्लिम इतिहासकार के लिए स्वाभाविक ही था। किंतु इस एकपक्षीय मूल्यांकन से शिवाजी के चरित्र, उनकी महानता और उनकी उपलब्धियों को समझा नहीं जा सकता है।

वास्तव में शासक एवं व्यक्ति दोनों ही रूपों में शिवाजी का भारत के इतिहास में एक प्रतिष्ठित स्थान है। शिवाजी के व्यक्तित्त्व पर उनकी माता जीजाबाई के धार्मिक जीवन और सेवा-भावना का गहरा प्रभाव था। वह आज्ञाकारी पुत्र, निष्ठावान हिंदू और धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। उन्हें अपने पिता से ‘स्वराज’ की शिक्षा मिली थी। जब बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी को बंदी बना लिया, तो एक आदर्श पुत्र की तरह उन्होंने बीजापुर के शाह से संधि कर शाहजी को छुड़वा लिया। उन्होंने शाहजी की मृत्यु के बाद ही ‘राजा’ की उपाधि ग्रहण की और अपना राज्याभिषेक करवाया था।

मराठों का उत्थान: शिवाजी (Rise of the Marathas: Shivaji)
छत्रपति शिवाजी महाराज

शिवाजी का धार्मिक दृष्टिकोण व्यापक और मानवतावादी था। एक सैनिक के रूप में वह धैर्यवान, अदम्य साहसी और वीर थे। उन्होंने दो शक्तिशाली राज्यों- मुगलों और बीजापुर राज्य से युद्ध करके सफलता प्राप्त की थी, जो उनकी विलक्षण सैनिक प्रतिभा का प्रमाण है। शिवाजी में मौलिक संगठन की शक्ति थी, जो उनकी सैन्य-व्यवस्था के सांगठनिक ढ़ाँचे से स्पष्ट है।

एक शासक के रूप में भी शिवाजी की उपलब्धियाँ प्रशंसनीय हैं। उन्होंने धर्मांधता के युग में सहिष्णुता की नीति अपनाई और मुसलमानों तक को अपनी सेना और प्रशासन में स्थान दिया। एक प्रशासक के रूप में उन्होंने निरंतर युद्धों में व्यस्त रहने बावजूद परिस्थितियों के अनुसार श्रेष्ठ प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की, जो उनकी प्रशासनिक क्षमता का प्रमाण है। शिवाजी का यही एक गुण उनको श्रेष्ठ शासक के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए पर्याप्त है। ए. एल. श्रीवास्तव लिखते हैं कि ‘शासक के रूप में शिवाजी ने अपनी प्रजा को केवल शांति एवं सार्वजनिक सहनशीलता ही नहीं प्रदान की, बल्कि बिना किसी भेदभाव के सबको समान रूप से उन्नति करने का अवसर भी दिया।’

शिवाजी पर अकसर तीन आरोप लगाये जाते हैं- वह लुटेरे थे, विश्वासघाती थे और उनका राज्य एक युद्ध-राज्य था। किंतु तीनों ही आरोप बेबुनियाद हैं। एक, शिवाजी को मुगलों, बीजापुर के सुल्तान, पुर्तगालियों और सिदियों से निपटने के लिए एक शक्तिशाली सेना की आवश्यकता थी, किंतु उनके सीमित राज्य से इस सैन्य-व्यय को वहन कर पाना संभव नहीं था। तत्त्कालीन परिस्थितियों में बीजापुर और मुगलों से युद्ध का प्रारंभिक स्वरूप छापामार युद्ध ही हो सकता था और इन राज्यों से लूटपाट करके ही धन प्राप्त किया जा सकता था। मुगल और बीजापुर के सुल्तान भी दक्षिण भारत में यही कर रहे थे और इस लुटपाट को उस समय अनुचित भी नहीं माना जाता था। इसलिए शिवाजी को ‘लुटेरा’ और उनके राज्य को ‘डाकू राज्य’ नहीं कहा जा सकता है। दूसरे, अफजल खाँ स्वयं विश्वासघाती था और इसके पूर्व उसने कई बार विश्वासघात का सहारा लिया था। शिवाजी ने आत्म-रक्षा में उसकी हत्या की थी, इसलिए शिवाजी पर विश्वासघाती होने का आरोप भी सही नहीं है। तीसरे, शिवाजी का संपूर्ण जीवन ही युद्ध और संघर्ष की आश्चर्यजनक कहानी है। इसलिए राज्य के स्वरूप के लिए शिवाजी नहीं, उनकी परिस्थितियाँ उत्तरदायी थीं। इसके बावजूद, शिवाजी का ‘अष्टप्रधान’ उनकी सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था का स्पष्ट प्रमाण है। वास्तव में शिवाजी की सत्ता की कल्पना पूर्णरूप से मौलिक थी। वह राजनीति में यथार्थवादी थे और उन्होंने केवल संभव को ही प्राप्त करने का प्रयास किया।

शिवाजी में उच्चकोटि की रचनात्मक प्रतिभा और राजनीतिक व कूटनीतिक गुण थे। अपनी असाधारण वीरता और कूटनीति के बल पर वह एक जागीरदार के पद से उठकर ‘छत्रपति’ बन बैठे और शक्तिशाली मुगल साम्राज्य के अप्रतिरोध्य शत्रु बन गये। उन्होंने ‘गनिमीकावा’ नामक कूटनीति को अपनाया, जिसमें शत्रु पर अचानक आक्रमण करके उसे हरा दिया जाता है। शक्तिशाली मुगलों से लोहा लेकर उन्होंने दिखा दिया कि बलिदान और संघर्ष से स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है। उन्होंने बड़े कूटनीतिक तरीके से बीजापुर और गोलकुंडा राज्यों से सहायता प्राप्त की और अवसर के अनुसार मुगलों से शांति और युद्ध किये।

शिवाजी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य था- मराठा राज्य का निर्माण। इसके लिए उन्होंने दक्कन में अणुओं की तरह बिखरी हुई मराठा जाति को एकता के सूत्र में बाँधा, उनमें आत्मविश्वास का संचार किया और मुगल साम्राज्य, बीजापुर, पुर्तगालियों तथा जंजीरा के अबीसीनियनों जैसी बड़ी शक्तियों के विरोध के बावजूद स्वतंत्र मराठा ‘स्वराज’ का निर्माण किया।

अपनी मृत्यु के समय शिवाजी एक विस्तृत राज्य छोड़ गये। किंतु कहा जाता है कि शिवाजी के द्वारा अर्जित प्रदेश अथवा कोष मुगलों के लिए उतने खतरनाक नहीं थे, जितना उनके द्वारा मराठा जाति में भरी गई स्वतंत्रता और ‘स्वराज’ की भावना थी। उनके द्वारा निर्मित मराठा राष्ट्र ने मुगल साम्राज्य की अवहेलना की और अठारहवीं सदी में भारत में प्रबल शक्ति बना रहा, जिसके परिणामस्वरूप औरंगजेब का एक वंशज महादजी सिंधिया जैसे मराठा सरदार के हाथों की कठपुतली बन गया। मराठा शक्ति ने भारत में प्रभुता स्थापित करने के लिए अंग्रेजों से भी प्रतिद्वंद्विता की।

शिवाजी अनावश्यक निष्ठुरता और केवल लूट के लिए लूट करनेवाले निर्दयी विजेता नहीं थे। उनके आक्रमणों में और राज्य में भी स्त्रियों और बच्चों के प्रति, जिनमें मुसलमानों की स्त्रियाँ और बच्चे भी सम्मिलित थे, सम्माजनक व्यवहार किया जाता था। खाफी खाँ जैसा कटु आलोचक भी उनके वीरतापूर्ण आचरण की प्रशंसा करता है: ‘शिवाजी ने सदैव अपने राज्य के लोगों के सम्मान की रक्षा करने का प्रयत्न किया था। वह अपने हाथों में आई हुई मुसलमान स्त्रियों और बच्चों के सम्मान की रक्षा सावधानी से करता था। इस संबंध में उसके आदेश बडे कठोर थे और जो कोई भी इनका उल्लंघन करता था, उसे दंड मिलता था।’ रालिंसन ने भी लिखा है कि, ‘वह कभी भी जानबूझकर अथवा उद्देश्यहीन होकर क्रूरता नहीं करते थे। स्त्रियों, मस्जिदों एवं लड़ाई न लड़नेवालों का आदर करना, युद्ध के बाद कत्लेआम या सामूहिक हत्या न करना, बंदियों को सम्मान सहित मुक्त करना, निश्चय ही साधारण गुण नहीं हैं।’

शिवाजी का मूल्यांकन करते हुए एलफिंस्टन ने सही लिखा है कि, ‘एक शक्तिशाली सामंत के पुत्र शिवाजी ने अपना जीवन लुटेरों के साहसी और चतुर कप्तान की भाँति आरंभ किया और उन्नति करके एक निपुण सेनापति और सुयोग्य राजनीतिज्ञ बन गया। उसने वह आदर्श प्रस्तुत किया जिसकी बराबरी उस समय से लेकर आज तक उसके देशवासियों में से कोई नहीं कर सका और न ही उसके समीप पहुँच सका।’ राष्ट्र-निर्माता के रूप में शिवाजी ने केवल एक राजवंश की स्थापना ही नहीं की थी, बल्कि मराठों को मुगल साम्राज्य के विरूद्ध संगठित कर एक राष्ट्र का निर्माण किया और मध्यकालीन भारत के इतिहास में एक नये अध्याय का सृजन किया।

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