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1848 ई. की क्रांतियाँ
वियेना कांग्रेस में संगठित प्रतिक्रियावाद यूरोप के सहज विकास के मार्ग में एक दीवार बनकर खड़ा हो गया था। इस दीवार का सजग प्रहरी घोर प्रतिक्रियावादी मेटरनिख था। लेकिन जब दीवार से टकरानेवाली प्रगतिशील धारा का प्रवाह बढ़ा तो वह बालू की दीवार साबित हुई। फ्रांस में 1830 ई. की जुलाई क्रांति अनिवार्य नहीं थी, उसे थोड़ी सूझ-बूझ से टाला जा सकता था। लेकिन 1848 ई. की बात दूसरी थी। 1848 ई. की फ्रांसीसी क्रांति के परिणामस्वरूप यूरोप में कुल मिलाकर 17 क्रांतियाँ हुई। कहावत मशहूर हो गई कि जब फ्रांस को छींक आती है तो सारे यूरोप को जुकाम हो जाता है।
वास्तव में पिछले दशक में यूरोप के वैचारिक जगत में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए थे। सुधारवादी विचारधारा के स्थान पर अब समाज के ढाँचे में आमूल परिवर्तन की बात होने लगी थी। प्रतिरोधों के बावजूद औद्योगिक क्रांति की लहर यूरोप तक भी आ पहुँची थी। नगरों में मजदूरों की संख्या ही नहीं बढ़ रही थी, उनका असंतोष और संगठन भी बढ़ रहा था। अब यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो गई थी कि समाज में परिवर्तन राजा के बदलने या सुधारों की लीपा-पोती करने से होने वाला नहीं है।
1848 ई. की क्रांतियों के सामान्य कारण
1848 ई. की क्रांति के पीछे प्रतिक्रियावादी शक्तियों की दमनकारी नीति के बावजूद हो रहे मौलिक परिवर्तन थे जो आर्थिक जीवन और वैचारिक जगत दोनों को बड़ी तेजी से प्रभावित कर रहे थे। मेटरनिख युग का मूलमंत्र परिवर्तन का हरसंभव विरोध था जिसके कारण आवश्यक सुधार भी नहीं किये जा रहे थे। यूरोप के शासक सुधार के लिए तैयार ही नहीं थे। वे ऊपरी शांति के नीचे परिवर्तन की धधकती आकांक्षा को नहीं देख पा रहे थे। क्रमिक परिवर्तन और सुधारों के अभाव में असंतोष और आक्रोश का विस्फोट होना स्वाभाविक था।
वास्तविकता यह थी कि अठाहरवीं शताब्दी के अंत में औद्योगिक क्रांति ने इंग्लैंड के अर्थतंत्र को झकझोर डाला था। अब पश्चिमी यूरोपीय देशों में भी औद्योगीकरण और मशीनों का प्रयोग तेजी से होने लगा था। इस पूँजीवादी अभ्युत्थान के कारण परंपरागत अर्थतंत्र टूट रहा था, लेकिन उसका नया रूप अभी पूरी तरह विकसित नहीं हो सका था। परिणामतः पश्चिमी यूरोपीय देश भारी आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे थे। उत्पादन के नये तरीकों से पश्चिमी यूरोप के जीवन का हर क्षेत्र उद्वेलित था। शासकगण स्थिति को समझना ही नहीं चाह रहे थे। पूँजीपतियों की शक्ति बढ़ रही थी और वह शासन-सत्ता पर अधिकार करना चाह रहा था। नगरों की जनसंख्या बढ़ रही थी और मजदूर गाँव से शहर आकर और अधिक असंतुष्ट हो रहा था। नगरों में मजदूरों की संख्या बढ़ने और उनके एक साथ रहने के कारण उनका व्यक्तिगत असंतोष अब समवेत रूप में एक ताकत बनता जा रहा था। इस समय औद्योगिक विकास के कारण समाज के बारे में नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता हुई। अब जनसाधारण और श्रमिक को प्रजा मानकर उसकी भलाई करने के ढकोसलों का भंडाफोड़ हो गया था और उनके वास्तविक अधिकारों की बात की जाने लगी थी। समाज का यह नया विश्लेषण समाजवाद के नाम से जाना जाने लगा था। इस दिशा में ऐतिहासिक योगदान जर्मन दार्शनिक कार्ल मार्क्स का था। उसने इतिहास की भौतिकवादी (द्वंद्वात्मक भौतिकवाद) व्याख्या की और मानव के विकास में उत्पादन तथा विनिमय के बदलते तरीकों के साथ विभिन्न वर्गों के संघर्ष को निर्णायक बताया। 1848 में ही मार्क्स ने एक छोटी सी पुस्तिका ‘कम्युनिस्ट मैनीफैस्टो’ प्रकाशित की, जिसमें समाजवादी विचारधारा का सार था और मजदूरों का आह्वान था: ‘सर्वहारा के पास खोने के लिए बंधनों के अतिरिक्त कुछ नहीं है, और पाने के लिए सारी दुनिया है। इसलिए दुनिया के मजदूरों एक हो!’ इस तरह यह स्पष्ट था कि 1848 ई. की क्रांतियों के मुख्य कारण अलग-अलग देशों में चाहे जो भी रहे हों, उनके मूल में यही आधारभूत कारण मौजूद थे।
फ्रांस : 1848 ई. की क्रांति
1830 ई. में 57 वर्षीय लुई फिलिप फ्रांस का शासक बना जो अपने उदारवादी विचारों के कारण ‘नागरिक राजा’ कहा जाने लगा था। मध्यवर्ग और मजदूरों तक से उसके अच्छे संबंध थे। देश में नेपोलियन की गाथाओं के बढ़ते प्रभाव के प्रति भी वह संवेदनशील था और उसने इंग्लैंड से अनुरोध करके नेपोलियन की अस्थियाँ सेंट हेलेना से फ्रांस मँगा ली थीं। मृत नेपोलियन का उतना ही स्वागत हुआ था जितना कभी जीवित नेपोलियन का हुआ करता था। दूसरी ओर फ्रांस में उद्योगों की वृद्धि हो रही थी। वहाँ मजदूरों में अशांति और उनके बीच समाजवादी विचारों का जोर भी बढ़ रहा था। ऐसी स्थिति में लुई फिलिप के लिए बहुत गतिशील और प्रभावशाली नीति अपनाना जरूरी था।
फ्रांसीसी जनता चार्ल्स दशम के दमनकारी शासन से त्रस्त थी, वह लुई फिलिप से सुधारों की अपेक्षा करती थी। लेकिन प्रारंभिक उत्साह के बाद लुई फिलिप की कमजोरियाँ बाहर झाँकने लगी थीं। लुई फिलिप ने पदग्रहण के बाद धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया और अपने विरोधियों को शांत करने के लिए स्वर्णिम मध्यममार्गी नीति अपनाई, जिससे फ्रांस का हर वर्ग उसका विरोधी हो गया।।
1848 ई. की फ्रांसीसी क्रांति के कारण
समाजवाद का विकास
1848 ई. की फ्रांसीसी क्रांति की पृष्ठभूमि समाजवादियों ने तैयार की थी। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप फ्रांस में जहाँ उद्योगपतियों को मुनाफा हो रहा था, वहीं मजदूरों के दुःख एवं कठिनाइयों में बढ़ोत्तरी हो रही थी। काम के घंटों की अधिकता, कारखानों में बच्चों व स्त्रियों के शोषण से फ्रांस में समाजवादी विचारधारा के उदय की पृष्ठभूमि बनी। यद्यपि समाजवादी विचारक आपस में सहमत नहीं थे, परंतु सभी मजदूरों के हितों के पक्षधर और उनके लिए संघर्ष की पृष्ठभूमि बनाने में लगे हुए थे। वास्तव में लुई फिलिप का शासन पूँजीपतियों के हक में उन्हीं पर आधारित था। यह निश्चित था कि ऐसे शासन का श्रमिक वर्ग विरोध करेगा।
सेंट साइमन फ्रांस का पहला व्यक्ति था जिसने समाज के बहुसंख्यक मजदूर वर्ग के लिए एक समाजवादी योजना प्रस्तुत की थी। रूसो की पुस्तक ‘सामाजिक समझौता’ की भाँति फ्रांस के दूसरे समाजवादी लुई ब्लांक ने अपनी पुस्तक ‘श्रम संगठन’ में मजदूरों के हितों का प्रतिपादन किया और सरकार की आर्थिक नीतियों की कड़ी आलोचना की। लुई ब्लांक ने लुई फिलिप की सरकार को पूँजीपतियों की सरकार घोषित किया और यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि प्रत्येक व्यक्ति को काम पाने का अधिकार है और राज्य का यह दायित्व है कि वह उसे काम दे। लुई ब्लांक ने अपने समाजवादी विचारों द्वारा बहुसंख्यक मजदूरों को राजतंत्र को उखाड़ फेंकने की प्रेरणा दी। लुई ब्लांक की पुस्तक ‘श्रम संगठन’ 1848 की क्रांति का बाईबिल बन गई थी। मार्क्स की मानें तो फिलिप का राजतंत्र एक संयुक्त कंपनी (ज्वाइंट स्टाक कंपनी) की तरह था और फिलिप की हैसियत इस कंपनी के निदेशक मात्र की थी जो राष्ट्र की संपत्ति का इस्तेमाल कर रहा था और जिसका लाभ मंत्रियों, सभा के सदस्यों और सीमित मतदाताओं के बीच बाँट लिया जाता था।
विभिन्न दलों द्वारा लुई का विरोध
लुई फिलिप के गद्दी पर बैठते समय फ्रांस में कई तरह की विचारधाराओं का प्रचार हो रहा था। कट्टर राजतंत्रवादी बूर्बो वंश की पुनर्स्थापना चाहते थे और चार्ल्स दशम के पौत्र को फ्रांस की गद्दी पर देखना चाहते थे। प्रगतिशील लोग प्रजातांत्रिक और सामाजिक सुधारों की माँग कर रहे थे। वे चाहते थे कि फ्रांस में मजदूरों की सरकार स्थापित हो, जो दुनिया भर के शोषित या पीड़ित लोगों की मदद करे। गणतंत्रवादी लोग राजतंत्र का अंतकर फ्रांस में गणतंत्र की स्थापना करने चाहते थे। बोनापार्टिस्ट दल नेपोलियन की उपलब्धियों और उसके समय के फ्रांस की गरिमा का प्रचार कर नेपोलियन के किसी वंशज को राजगद्दी पर बिठाना चाहता था। इस प्रकार फ्रांस के प्रायः सभी दल लुई फिलिप को गद्दी से उतारने के लिए विद्रोह कर रहे थे। इन विद्रोहों के दमन के लिए समाचारपत्रों पर फिर से नियंत्रण लगाया गया, पत्रकारों को सजाएँ दी जाने लगी तथा नये कानून और उन्हें लागू करने के लिए नई अदालतें बनाई गईं। निरंकुशता बढ़ने लगी। लोकसभा पर भ्रष्ट तरीके अपनाकर नियंत्रण कर लिया गया। मताधिकार पुनः सीमित कर दिया गया। सभा के सदस्यों को सरकारी प्रलोभन देकर अपने पाले में किया जाने लगा। फिलिप की बढ़ती प्रतिक्रियावादिता ने विरोधियों को और अधिक उग्र कर दिया।
मध्यम वर्ग की प्रधानता
लुई की मध्यममार्गी नीति भी क्रांति का एक प्रमुख कारण थी। लुई फिलिप ने गद्दी पर बैठने पर जनता को एक उदार संविधान दिया था, किंतु लुई फिलिप के उदार संविधान से जनता को कोई खास लाभ नहीं हुआ। अभी भी मताधिकार का आधार धन था, इसलिए प्रतिनिधि सभा में मध्यम वर्ग की प्रधानता थी। लुई फिलिप की ‘मध्यमवर्गीय सरकार’ में सभी नियम-कानून मध्यम वर्ग के हितों के अनुकूल ही बनते थे। मध्यम वर्ग की ही सहायता से लुई फिलिप ने 18 वर्ष तक शासन किया। निम्न और मजदूर वर्ग के लोग लुई फिलिप की नीतियों से असंतुष्ट थे।
लुई फिलिप की असफल विदेश नीति
लुई फिलिप की विदेश नीति अत्यंत दुर्बल थी और पूर्णतः असफल रही। बेल्जियम और पूर्वी समस्या के मामले में फ्रांस को इंग्लैंड से मात खानी पड़ी जिसके कारण फ्रांस के सभी राजनीतिक दल उसके विरोधी हो गये थे। दरअसल लुई फिलिप की विदेश नीति इंग्लैंड की पिछलग्गू बनने की नीति थी, जबकि फ्रांसीसी जनता चाहती थी कि एक गौरवपूर्ण विदेश नीति अपनाकर फ्रांस यूरोप का सरताज बने। इस प्रकार फिलिप की विदेश नीति से भी जनता असंतुष्ट थी।
गुइजो की अनुदारवादी नीति
लुई फिलिप ने अपने शासन के आरंभिक 10 साल में 10 मंत्री बदले, लेकिन समस्याओं का कोई सकारात्मक हल नहीं निकला। 1840 ई. में लुई ने गुइजो को अपना प्रधानमंत्री बनाया, जो मूलतः अनुदार और प्रतिक्रियावादी था। गीजो के बारे में कहा जाने लगा था कि ‘वह कुछ नहीं करता, यही उसकी शक्ति और यही उसकी कमजोरी है।’ गुइजो मजदूरों की दशा में सुधार करने का विरोधी था और इसीलिए वह उनके लिए कोई कानून बनाना नहीं चाहता था। फिर भी, सुधारों से स्थिति सँभाली जा सकती थी। लुई नेपोलियन कहा करता था, ‘हम सुधार नहीं करते, क्रांति करते हैं।’ फ्रांस में यही हुआ।
इसी बीच दो महत्वपूर्ण घटनाएँ हुईं। 1845-46 ई. में फसलें खराब हो गईं। रूखा-सूखा भोजन भी कठिन हो गया। भूख से तंग लोगों ने दंगे शुरू कर दिये और सामान्य लोगों का असंतोष बहुत बढ़ गया। दूसरे, 1847 में इंग्लैंड के अर्थतंत्र को बहुत बड़ा झटका लगा। बैंक असफल होने लगे तथा उद्योग बंद हो चले। इंग्लैंड की आर्थिक मंदी का सारे यूरोप पर असर पड़ा। जनवरी 1848 ई. में तौक्विल ने पार्लियामेंट में गरजकर पूछा, ‘क्या अब भी कल का इंतजार होगा?’ गीजो हमेशा की तरह निष्किय मुस्कुराता रहा। धीरे-धीरे फ्रांस की जनता और सभी राजनीतिक दल लुई फिलिप के विरुद्ध हो गये।
1848 ई. की क्रांति की घटनाएँ
1848 ई. आते-आते फ्रांस की जनता का असंतोष चरमसीमा पर पहुँच गया। फ्रांस की प्रमुख पार्टियाँ लुई फिलिप की विरोधी थीं। वैधतावादी इसलिए विरोधी थे कि फिलिप बूर्बो वंश का नहीं था और शुरू में जैकोबिन रह चुका था, बोनापार्टिस्ट इसलिए विरुद्ध थे कि वह नेपोलियन के समर्थकों के मार्ग में अवरोध था, जबकि गणतंत्रवादी गणतंत्र की स्थापना करना चाहते थे। समाजवादी पार्टी वाले मजदूरों की गिरती आर्थिक दशा के कारण लुई के विरोधी थे। कैथोलिक लोग गुइजो के इसलिए विरोधी थे क्योंकि गुइजो प्रोटेस्टेंट था। मध्यमवर्गीय लोग मताधिकार में वृद्धि की माँग ठुकराये जाने के कारण गुइजो के विरोधी हो गये थे। इसी मताधिकार में वृद्धि की माँग ने फ्रांस को क्रांति की और धकेल दिया। गुइजो ने जब इस माँग का विरोध किया तो दीयर ने मताधिकार के वृद्धि की माँग करते हुए गुइजो का प्रबल विरोध किया।
1848 ई. में क्रांतिकारियों ने सुधारवादी माँगों के समर्थन में जनता से हस्ताक्षर करवा कर लुई फिलिप को एक प्रार्थना-पत्र देकर सुधारों की माँग करने की योजना बनाई। दीयर एवं उसके साथी पेरिस में जगह-जगह सुधार-भोजों का आयोजन करने लगे। सुधारवादी आंदोलन का यह तरीका फ्रांस के इतिहास में ‘सुधार भोज’ के नाम से जाना जाता है। फ्रांस के लोगों ने 22 फरवरी अमेरिका के क्रांतिकारी नेता जार्ज वाशिंगटन के जन्मदिन पर 22 फरवरी, 1848 ई. का दिन क्रांति के लिए चुना। 22 फरवरी को लुई फिलिप ने सुधार-भोजों और पेरिस में एकत्र हुए लोगों पर प्रतिबंध लगा दिया। इस पर पेरिस में दंगे शुरू हो गये और फ्रांस की सड़कों पर जनता ‘गुइजो का नाश हो’, ‘सुधारवादी जिंदाबाद’ के नारे लगाने लगी। शांति एवं व्यवस्था की स्थापना के लिए भेजे गये राष्ट्रीय रक्षकों ने क्रांतिकारियों और जनता पर गोली चलाने से इनकार कर दिया।
लुई फिलिप ने घबड़ाकर गुइजो को पदच्युत् कर कुछ सुधारों की घोषणा की। गणतंत्रवादियों के नेतृत्व में भीड़ ने गुइजो के मकान को घेर लिया, तो गीजो के घर की रक्षा करते समय सैनिकों ने भीड़ पर गोली चला दी थी जिसमें 23 क्रांतिकारी मारे गये और 30 घायल हो गये। मृत शहीदों के लिए भीड़ उत्तेजित हो गई। 24 फरवरी को क्रांतिकारियों ने शहीदों के शवों को एक गाड़ी में रखकर एक भव्य जुलूस निकाला। उत्तेजित जनता राजतंत्र का अंत करने पर उतारू हो गई और ‘सुधार जिंदाबाद’ के नारों का स्थान ‘गणतंत्र जिंदाबाद’ के नारों ने ले लिया। कवि लामार्टिन भी भीड़ को वश में कर सकने में असमर्थ था। 24 फरवरी को फ्रांस की जनता ने राजमहल को घेर लिया और सेना ने राजा लुई फिलिप की रक्षा करने से इनकार कर दिया। लुई को मजबूरन अपने पौत्र पेरिस के काउंट के पक्ष में सिंहासन छोडना पड़ा। लुई फिलिप स्मिथ छद्म नाम से भेष बदलकर अपनी पत्नी सहित इंग्लैंड भाग गया और गुइजो ने भी ऐसा ही किया।
फ्रांस की जनता की भीड़ ने राजमहल को लूट लिया और राज सिंहासन को जला दिया। 1848 ई. की क्रांति में भी फ्रांस के बूर्जुआ की प्रमुखता बनी रही, पर यह निश्चित था कि धनिकों की जगह अब छोटे पूँजीपतियों का प्रभाव भी बढ़ चला था। अस्थायी सरकार का अध्यक्ष लामार्टिन नहीं चाहता था कि पेरिस में लोग गणतंत्र की घोषणा कर दें। उसने धीरे-धीरे सारे महत्वपूर्ण पद पूँजीपतियों और मध्यवर्गीय लोगों में बाँट दिये। लेकिन इस बार मजदूर पहले से अधिक संगठित थे। उनके नेता रास्पाइ ने साफ कह दिया कि यदि गणतंत्र की घोषणा नहीं हुई तो मजदूर स्वयं निर्णय करेंगे। इस चेतावनी का असर हुआ और दो घंटे के अंदर ही सारा नगर फ्रांसीसी गणतंत्र के नारों से गूँजने लगा।
1830 की फ्रांसीसी क्रांति (जुलाई क्रांति)
1848 ई. की क्रांति के परिणाम
क्रांति का प्रमुख उद्देश्य लुई फिलिप के अप्रगतिशील शासन में सुधारों की माँग थी, किंतु यह सुधारवादी माँग आकस्मिक रूप से गणतंत्र की स्थापना में बदल गई। 1848 की क्रांति के फलस्वरूप फ्रांस के ओर्लियन राजतंत्र (1830-1848 ई.) का अंत हो गया और फ्रांस में द्वितीय गणतंत्र की स्थापना हुई। इस क्रांति के साथ ही फ्रांस में समाजवादियों का लुई ब्लांक के नेतृत्व में एक राजनीतिक शक्ति के रूप में उदय हुआ, यद्यपि बाद में गणतंत्रवादियों के समक्ष इनका पराभव हो गया।
इस क्रांति के परिणामस्वरूप नेपोलियन बोनापार्ट के भतीजे नेपोलियन तृतीय को राष्ट्रपति के चुनाव में भारी सफलता मिली और वह द्वितीय गणतंत्रवादी सरकार का प्रधान बन गया।
इसके अलावा, 1848 ई. की क्रांति के फलस्वरूप् यूरोपीय देशों के निरंकुश शासन की नींव हिल गई और राजनीतिक विचारों में परिवर्तन की एक लहर पैदा हुई।
1848 की क्रांति ने सामाजिक एवं आर्थिक समानता पर विशेष जोर दिया। 1848 ई. की क्रांति के फलस्वरूप राष्ट्रीय एकता और संवैधानिक स्वतंत्रता के विचारों का प्रसार हुआ। इस क्रांति ने सामूहिक चेतना के युग का आरंभ किया और यह सिद्ध किया कि राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक अन्यायों के विरूद्ध लड़ने के लिए जनता किसी नेतृत्व की प्रतीक्षा नहीं करती है।
अन्य देशों में क्रांतियाँ
आस्ट्रिया
आस्ट्रिया में मेटरनिख और उसकी पद्धति के बावजूद प्रगतिशील विचारधाराओं का उत्थान होता रहा था, इसलिए जब 1848 ई. में फ्रांस में क्रांतियों की लहर आई तो आस्ट्रिया में विद्रोह ने विकराल रूप धारण कर लिया। वियेना की जनता ने 13 मार्च, 1848 ई. को मेटरनिख एवं सम्राट के महलों को घेर लिया। उत्तेजित जनता ‘मेटरनिख मुर्दाबाद’ के नारे लगा रही थी। उसके बाद वही हुआ जो इस स्थिति में होता है। पुलिस ने भीड पर गोली चलाई जिसमें कुछ लोग मारे गये। इससे उत्तेजना और बढ गई तथा जगह-जगह बलवे होने लगे। मेटरनिख समझ गया कि अब उसकी सत्ता के अंत का समय आ गया है। स्थिति की गंभीरता को पहचान कर वह अपने पद से त्यागपत्र देकर वेश बदलकर इंग्लैंड भाग गया। उसकी सारी व्यवस्था मिट्टी में मिल गई। किंतु मेटरनिख के पलायन के अतिरिक्त 1848 की क्रांति का कोई नतीजा नहीं निकला। आस्ट्रियन सम्राट का निरकुश शासन ज्यों-का-त्यों कायम रहा।
1848 ई. की क्रांति की प्रेरणा से वियेना, हंगरी, बोहेमिया, इटली, जर्मनी, प्रशा, स्विट्जरलैंड और हालैंड आदि में वैधानिक शासन की माँग को लेकर जन-आंदोलन हुये और उन्हें सफलता भी मिली। विशेष रूप से स्विट्जरलैंड में संघीय गणतंत्र की स्थापना स्थाई सिद्ध हुई।
1848 ई. की क्रांति का मूल्याँकन
1848 ई. में सारे यूरोप में छोटी-बड़ी सत्रह क्रांतियाँ हुईं। कहीं तो कुछ ही दिनों में उसे समाप्त कर दिया गया, कहीं कुछ उदारवादी परिवर्तन करने के बाद क्रांतिकारियों का प्रभाव कम होते ही उसे समाप्त कर दिया गया। फ्रांस में कुछ दिनों के लिए मौलिक परिवर्तनों की शुरुआत हुई, पर वहाँ भी लुई नेपोलियन के राष्ट्रपति चुने जाते ही क्रांति का प्रभाव समाप्त हो गया। आस्ट्रिया में मेटरनिख का पतन अवश्य हो गया था, लेकिन आस्ट्रिया अपनी पुरानी नीति पर चलता रहा और आस्ट्रिया या जर्मनी में उदार और प्रगतिशील कार्यक्रम नहीं शुरू हो सके।
1848 ई. की क्रांति इस अर्थ में 1789 ई. और 1830 ई. की क्रॉंति से भिन्न थी कि इसमें पूँजीपतिवर्ग और मजदूर वर्ग के बीच का अंतर्विरोध भी प्रकट होने लगा। इस क्रांति से श्रमिक वर्ग को यह स्थायी सबक मिला कि पूँजीपति वर्ग उसका नेतृत्व करके अपना लाभ उठाता है और वास्तव में वह वर्ग उसका विरोधी है। इस क्रांति के बाद समाजवादी आंदोलनों और संगठन में वैज्ञानिक समाजवाद का प्रभाव बढ़ता गया और समाजवादी संगठन सारे यूरोप में प्रसार पाने लगा।
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