नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ (Nasiruddin Muhammad Humayun)

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नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ

बाबर के चार पुत्रों- हुमायूँ, कामरान, अस्करी और हिंदाल में हुमायूँ सबसे बड़ा था। नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ का जन्म बाबर की पत्नी माहम बेगम के गर्भ से 6 मार्च, 1508 ई. को काबुल में हुआ था। माहम बेगम का बाबर से विवाह 1506 ई. में हुआ था। बाबर ने हुमायूँ की शिक्षा का विशेष प्रबंध किया जिससे हुमायूँ ने शीघ्र ही अरबी, फारसी व तुर्की भाषा को सीख लिया था। इसके अतिरिक्त हुमायूँ की दर्शन-शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र तथा गणित-शास्त्र आदि कई और विषयों में भी रुचि थी। हुमायूँ की प्रतिभा से प्रभावित होकर बाबर ने उसे 12 वर्ष की अल्पायु में 1520 ई. में बदख्शाँ का सूबेदार नियुक्त कर दिया था। बदख्शाँ के सूबेदार के रूप में हुमायूँ ने बाबर के प्रायः सभी भारतीय अभियानों में भाग लिया था। 26 दिसंबर, 1530 ई. को बाबर की मृत्यु हो गई। परंतु बाबर ने अपनी मृत्यु से पहले हुमायूँ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। बाबर की मृत्यु के चार दिन बाद अर्थात् 30 दिसंबर, 1530 ई. को 23 वर्ष की आयु में हुमायूँ का राज्याभिषेक हुआ।

हुमायूँ की प्रारंभिक कठिनाइयाँ

हुमायूँ को अनेक समस्याएँ अपने पिता से विरासत में मिली थीं। बाबर ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण तो कर लिया था, किंतु प्रशासन अभी सुगठित नहीं हुआ था और राज्य आर्थिक स्थिति भी डावाँडोल थी। गुजरात में बहादुरशाह, बंगाल में नसरतशाह, पूर्व में शेरशाह तथा इब्राहिम लोदी के भाई तथा उसके चाचा और भतीजा-महमूद लोदी, आलम खान तथा तातारखाँ अपनी-अपनी शक्ति बढ़ाकर मुगलों को भारत से खदेड़ने के लिए प्रयासरत थे। इसी प्रकार राजपूत भी अपनी शक्ति को संगठित करने का प्रयास कर रहे थे।

नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ (Nasiruddin Muhammad Humayun)
नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ

यद्यपि बाबर ने हुमायूँ को भाइयों से नरमी से पेश आने की सलाह दी थी, किंतु उसकी यह इच्छा कतई नहीं थी कि नव स्थापित मुगल साम्राज्य को विभाजित कर दिया जाए। किंतु बाबर की मृत्यु के बाद पुत्रों में राज्य बाँटने की तैमूरी परंपरा के अनुसार हुमायूँ ने मुगल साम्राज्य को अपने भाइयों में बाँट दिया। उसने कामरान को पंजाब की सूबेदारी प्रदान किया जो पहले से ही काबुल तथा कंधार पर अपना स्वत्व जमाये हुए था। उसने असकरी को संभल, हिंदाल को मेवात का क्षेत्र दिया। वास्तव में साम्राज्य का इस तरह से अविवेकपूर्णढंग से किया गया विभाजन हुमायूँ की भयंकर भूलों में से एक था जो कालांतर में हुमायूँ के लिए आत्मघाती सिद्ध हुआ। यद्यपि हुमायूँ के सबसे प्रबल शत्रु अफगान थे, किंतु भाइयों का असहयोग और हुमायूँ की कुछ व्यक्तिगत कमजोरियाँ उसकी असफलता का कारण बनीं।

जब हुमायूँ आगरा में गद्दी पर बैठा, साम्राज्य में काबुल और कंधार सम्मिलित थे और हिंदुकुश पर्वत के पार बदख्शाँ पर भी मुगलों का ढीला-सा आधिपत्य था। काबुल और कंधार हुमायूँ के छोटे भाई कामरान के अधिकार में थे। किंतु कामरान इन गरीबी से ग्रस्त इलाकों से संतुष्ट नहीं था। उसने लाहौर और मुल्तान की ओर बढ़कर उन पर अधिकार कर लिया। हुमायूँ कहीं और विद्रोह दबाने में व्यस्त था और वह गृहयुद्ध से बचना चाहता था, इसलिए उसने स्थिति को स्वीकार कर लिया। कामरान ने हुमायूँ की प्रभुत्ता स्वीकार कर ली और आवश्यकता पड़ने पर उसकी मदद करने का वादा भी किया। कामरान के इस कृत्य से यह भय उत्पन्न हो गया कि हुमायूँ के और भाई भी अवसर मिलने पर वही कुछ कर सकते थे। किंतु पंजाब और मुल्तान कामरान को देने का एक लाभ हुमायूँ को हुआ कि वह पश्चिम की ओर से निश्चिंत हो गया और पूर्व की ओर अपना ध्यान केंद्रित करने का उसे अवसर मिला।

बाबर के आक्रमण के समय भारत की राजनैतिक दशा 

हुमायूँ की उपलब्धियाँ

1530 ई. में जब बाबर की मृत्यु हुई तो उसने अपने उत्तराधिकारी हुमायूँ के लिए एक विशाल साम्राज्य छोड़ा था, परंतु बाबर के मृत्यु ही बाद मुगल-साम्राज्य के विरोधी तत्त्वों विशेषतः अफगान सरदारों ने सिर उठाना आरंभ कर दिया। हुमायूँ के इन शत्रुओं में अफगान महमूद लोदी, गुजरात का राजा बहादुरशाह तथा शेरशाह सूरी थे।

कालिंजर का अभियान (1531 ई.)

कालिंजर पर आक्रमण हुमायूँ का पहला आक्रमण था। कालिंजर का राजपूत शासक राजा प्रतापरुद्र देव अफगानों के साथ गठजोड़ करने का प्रयत्न कर रहा था। इसलिएः 1531 ई. में हुमायूँ ने एक भारी सेना लेकर कालिंजर के किले पर चारों ओर से घेरा डाल दिया। अभी वह इस दुर्ग को जीत भी नहीं पाया था कि उसे उसे यह सूचना मिली कि अफगान सरदार महमूद लोदी बिहार से जौनपुर की ओर बढ़ रहा है। फलतः हुमायूँ ने कालिंजर के शासक से संधि कर ली और राजा से धन लेकर हुमायूँ वापस जौनपुर की ओर चला गया।

जौनपुर का अभियान (1532 ई.)

हुमायूँ को पूर्व के अफगानों की बढ़ती शक्ति और गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह दोनों से निपटना था। किंतु हुमायूँ को लगा कि अफगान खतरा ज्यादा गंभीर है। इब्राहिम लोदी का भाई महमूद लोदी 1530 में बाबर की मृत्यु के बाद उसने विशेष रूप से सैनिक तैयारियाँ करनी आरंभ कर दी थीं। इन्हीं सैनिक तैयारियों की सूचना पर हुमायूँ ने अपना कालिंजर दुर्ग का घेरा उठा लिया था। हुमायूँ की सेना एवं अफगान महमूद लोदी की सेना के बीच अगस्त, 1532 ई. में दोहरिया नामक स्थान पर युद्ध हुआ। शेरखाँ अफगान सेना में था लेकिन उसने युद्ध में भाग नहीं लिया था। इस युद्ध में हुमायूँ ने महमूद लोदी की अफगान सेना को पराजित कर दिया और जौनपुर पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध में प्रमुख अफगान सरदार मारे गये और महमूद लोदी उड़ीसा भाग गया जहाँ 1542 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

चुनार का घेरा

चूंकि अफगान सेनाओं ने पहले बिहार जीत लिया था। इसलिए 1532 ई. में दोहरिया के युद्ध में महमूद लोदी को पराजित करने के पश्चात् हुमायूँ ने पूर्व की ओर बढ़कर शेरखाँ के विरुद्ध भी कार्यवाही की और चुनार किले का घेरा डाल दिया क्योंकि आगरा से पूर्व की ओर जानेवाले मार्गों पर इस किले का अधिकार था और यह ‘पूर्वी भारत का द्वार’ के रूप में प्रसिद्ध था। कुछ समय पूर्व ही इस पर अफगान शेर खाँ ने अधिकार कर लिया था। शेरखाँ अफगान सरदारों में सबसे ज्यादा शक्तिशाली बन चुका था। फलतः शेरखाँ के विरूद्ध कार्यवाही करना आवश्यक हो गया था।

शेरखाँ से समझौता

चुनार पर चार महीने के घेरे के बाद शेरखाँ और हुमायूँ में किले पर अधिकार को लेकर एक समझौता हो गया। शेरखाँ-हुमायूँ समझौते के अनुसार शेरखाँ ने हुमायूँ की अधीनता स्वीकार कर ली और अपने पुत्र कुतुबखाँ को एक अफगान सैनिक टुकड़ी के साथ हुमायूँ की सेवा में बंधक के रूप में रख दिया। इसके बदले में शेरखाँ को चुनार का किला मिल गया। हुमायूँ ने इस प्रस्ताव को इसलिए स्वीकार कर लिया क्योंकि वह जल्दी ही आगरा लौट जाना चाहता था। वह किसी सरदार के नेतृत्व में चुनार पर घेरा नहीं डाले रहना चाहता था, क्योंकि इससे सेना दो भागों में विभक्त हो जाती, जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं था। शेरखाँ को बिना पराजित किये छोड़ देना हुमायूँ की बड़ी भूल साबित हुई क्योंकि इस मौके का लाभ उठाकर शेरखाँ ने अपनी शक्ति एवं संसाधनों में वृद्धि कर ली।

दीनपनाह की स्थापना

प्रारंभिक सैनिक सफलताओं के बाद हुमायूँ अगले डेढ़ वर्ष दिल्ली के निकट ‘दीनपनाह’ नाम का नया शहर बनवाने में व्यस्त रहा। दीनपनाह के निर्माण का उद्देश्य मित्र और शत्रु दोनों को प्रभावित करना था। बहादुरशाह की ओर से आगरे पर खतरा पैदा होने की स्थिति में यह नया शहर दूसरी राजधानी के रूप में भी काम आ सकता था। इस दौरान उसने भव्य भोजों और मेलों का आयोजन किया।

प्रायः इन कार्यों में मूल्यवान समय नष्ट करने का दोष हुमायूँ पर लगाया जाता है। इस बीच पूरब में शेरशाह अपनी शक्ति बढ़ाने में लगा रहा और बहादुरशाह ने अजमेर को जीत लिया और पूर्वी राजस्थान को रौंद डाला था। यह भी कहा जाता है कि हुमायूँ अफीम का आदी होने के कारण आलसी था। लेकिन ऐसे दोषारोपण का कोई विशेष आधार नहीं है। बाबर शराब छोड़ने के बाद भी अफीम लेता रहा था। हुमायूँ शराब के बदले में या उसके साथ कभी-कभी अफीम खा लेता था। अनेक सरदार भी ऐसा करते थे। लेकिन बाबर या हुमायूँ इन दोनों में कोई भी अफीम का आदी नहीं था।

बहादुरशाह के विरुद्ध अभियान

गुजरात के बहादुरशाह की बढ़ती शक्ति और आगरा के साथ लगी सीमा पर उसकी गतिविधियाँ हुमायूँ के लिए चिंता का कारण थी। वास्तव में कई कारणों से बहादुरशाह की गतिविधियों पर नियंत्रण करना हुमायूँ के लिए आवश्यक था। एक तो, बहादुरशाह ने तुर्की के कुशल तोपची रूमी खाँ की सहायता से एक बेहतर तोपखाने का निर्माण करवाया था और 1531 ई. में मालवा तथा 1532 ई. में रायसीन के किले पर अधिकार कर लिया था। दूसरे, वह केवल इब्राहिम लोदी के संबंधियों को ही शरण देकर संतुष्ट नहीं था। उसने हुमायूँ के उन संबंधियों को भी शरण दिया था जो असफल विद्रोह के बाद जेलों में डाल दिये गये थे और बाद में वहाँ से भाग निकले थे। इसके अलावा, उसने इब्राहिम लोदी के चचेरे भाई तातारखाँ को सिपाही और हथियार दिये ताकि वह 40,000 की फौज लेकर आगरा पर आक्रमण कर सके।

तातरखाँ की चुनौती को हुमायूँ ने जल्दी ही समाप्त कर दिया। मुगल सेना के आगमन पर अफगान सेना तितर-बितर हो गई। तातार खाँ की छोटी-सी सेना हार गई और तातार खाँ स्वयं मारा गया।

बहादुरशाह की सैनिक गतिविधियों पर प्रभावी नियंत्रण के लिए हुमायूँ एक विशाल सेना लेकर आगरा से दक्षिण-पश्चिम की ओर बढ़ा। इस समय बहादुरशाह राजस्थान के प्रसिद्ध राज्य चित्तौड़ पर चढ़ाई किये हुए था। उसने जल्दी ही चित्तौड़ को समर्पण के लिए विवश कर दिया क्योंकि उसके पास बढ़िया तोपखाना था, जिसका संचालन आटोमन निशानची रूमीखाँ कर रहा था।

कहा जाता है कि चित्तौड़ के शासक राणा विक्रमाजीत की माँ साँगा की विधवा रानी कर्णवती (कर्मवती) ने इस अवसर पर हुमायूँ को राखी भेजकर बहादुरशाह के विरुद्ध सहायता माँगी थी। किंतु हुमायूँ ने धार्मिक आधार पर चित्तौड़ की मदद करने से इनकार कर दिया था। वस्तुतः मेवाड़ उस समय आंतरिक समस्याओं में व्यस्त था और हुमायूँ के लिए मेवाड़ की मित्रता सैनिक दृष्टि से सीमित महत्त्व की थी। मुगल-हस्तक्षेप के भय से बहादुरशाह ने राणा से संधि कर ली और काफी धन-दौलत लेकर किला उसके हाथों में छोड़ दिया।

मालवा पर आक्रमण

बहादुरशाह की ओर से आनेवाले खतरे को हमेशा के लिए खत्म करने के लिए हुमायूँ ने मालवा पर आक्रमण किया। बहादुरशाह एवं हुमायूँ के मध्य 1535 ई. में सारंगपुर में संघर्ष हुआ। बहादुरशाह मुगल सेना का सामना नहीं कर सका और मांडू भाग गया। हुमायूँ ने तेजी से उसका पीछा किया और मांडू के दुर्ग को घेर लिया, परंतु बहादुरशाह चालाकी से मांडू से भी भाग निकला और वह चंपानेर के दुर्ग में जाकर छिप गया। बहादुरशाह चंपानेर से अहमदाबाद और अंततः काठियावाड़ भाग गया। इस प्रकार मालवा और गुजरात के समृद्ध प्रदेश और मांडू तथा चंपानेर के किलों में एकत्र विशाल खजाने हुमायूँ के हाथ लग गये। जीत के बाद हुमायूँ ने इन राज्यों को अपने छोटे भाई अस्करी के सेनापतित्व में छोड़ दिया और स्वयं मांडू चला गया।

गुजरात और मालवा में मुगल साम्राज्य के सामने सबसे बड़ी समस्या जनता का गुजराती शासन के प्रति लगाव था। अस्करी अनुभवहीन था और उसके मुगल सरदारों में परस्पर मतभेद था। जन-विद्रोहों, बहादुरशाही सरदारों की सैनिक कार्रवाई और बहादुरशाह द्वारा शीघ्रता से शक्ति के पुनर्गठन से अस्करी घबरा गया। वह चंपानेर की ओर लौटा, किंतु उसे किले में कोई सहायता नहीं मिली क्योंकि किले के सेनापति को उसके इरादों पर संदेह था। वह मांडू जाकर हुमायूँ के सामने नहीं पड़ना चाहता था। अतः उसने आगरा लौटने का निर्णय किया। इससे यह संदेह पैदा हुआ कि वह आगरा पहुँचकर हुमायूँ को अपदस्थ करने का प्रयत्न कर सकता है। हुमायूँ कोई ऐसा मौका देना नहीं चाहता था, इसलिए उसने मालवा छोड़ दिया और राजस्थान में जाकर अस्करी को पकड़ लिया। दोनों भाइयों में बातचीत हुई और वे आगरा लौट गये।

बहादुरशाह ने पुर्तगालियों के सहयोग से पुनः 1536 ई. में गुजरात एवं मालवा पर अधिकार कर लिया। किंतु पुर्तगाली जहाज पर हुए एक झगड़े में फरवरी, 1537 ई. में बहादुरशाह की मौत हो गई जिससे गुजरात की ओर से हुमायूँ को कोई खतरा नहीं रह गया। अब हुमायूँ इस स्थिति में था कि अपनी सारी शक्ति शेरखाँ और अफगानों के विरुद्ध संघर्ष में लगा सके।

शेरखाँ से संघर्ष

आगरा से हुमायूँ की अनुपस्थिति के दौरान (फरवरी 1535-फरवरी 1537 तक) शेरखाँ ने अपनी स्थिति और मजबूत कर ली थी। वह बिहार का निर्विरोध स्वामी बन चुका था। उसके नेतृत्व में अफगान लड़ाके इकट्ठे हो गये थे। यद्यपि वह अब भी मुगलों के प्रति वफादारी का दावा करता था, लेकिन उसने मुगलों को भारत से निकालने के लिए बड़ी चालाकी से योजना बनाई। गुजरात के बहादुरशाह से उसका गहरा संपर्क था। बहादुरशाह ने हथियार और धन आदि से उसकी बड़ी सहायता भी की थी। इस समय उसने एक कुशल और बृहद सेना एकत्र कर ली थी जिसमें 1200 हाथी भी थे। हुमायूँ के आगरा लौटने के कुछ ही दिन बाद शेरखाँ ने ‘सूरजगढ़ के राज’ में बंगाल को हराकर काफी सम्मान अर्जित किया और उसे तुरंत 1,300,000 दीनार (स्वर्ण मुद्रा) देने के लिए विवश किया था।

चुनार के किले पर अधिकार (1538 ई.)

हुमायूँ को 1537 ई. में लगा कि पूर्व में शेरखाँ अपनी शक्ति को दिन-प्रतिदिन बढ़ा रहा है। इसलिए उसने एक नई सेना तैयार कर 1537 ई. के अक्टूबर महीने में पुनः चुनार के किले को घेर लिया। परंतु शेरखाँ के पुत्र कुतुबखाँ ने मुगलों का डटकर सामना किया और लगभग छः महीने तक किले पर अधिकार नहीं करने दिया। अंततः मार्च 1538 ई. में मुगलों ने कूटनीति एवं रूमीखाँ के तोपखाने के प्रयोग से इस दुर्ग को जीत लिया। परंतु उनको इस विजय का कोई विशेष लाभ न हुआ क्योंकि इसी दौरान शेरखाँ ने धोखे से रोहतास के शक्तिशाली किले पर अधिकार कर लिया, जहाँ वह अपने परिवार को सुरक्षित छोड़ सकता था। इसके बाद बंगाल अभियान में प्राप्त गौड़ के खजाने को रोहतास के किले में जमा कर लिया तथा बंगाल पर दुबारा आक्रमण कर उसकी राजधानी गौड़ पर अधिकार कर लिया।

गौड़ की विजय (1538 ई.)

चुनार की सफलता से उत्साहित हुमायूँ बंगाल की राजधानी गौड़ की ओर बढ़ा, परंतु वह अभी वाराणसी में ही था शेरखाँ ने हुमायूँ के पास प्रस्ताव भेजा कि यदि उसके पास बंगाल रहने दिया जाए तो वह बिहार उसे दे देगा, और दस लाख सलाना कर देगा। यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है कि इस प्रस्ताव में शेरखाँ कितना ईमानदार था, लेकिन हुमायूँ बंगाल को शेरखाँ के पास रहने देने के लिए तैयार नहीं था। बंगाल सोने का देश था, उद्योगों में उन्नत था और विदेशी व्यापार का केंद्र था। साथ ही बंगाल का सुल्तान, जो घायल अवस्था में हुमायूँ की छावनी में पहुँच गया था, का कहना था कि शेरखाँ का विरोध अब भी जारी है। इन सब कारणों से हुमायूँ ने शेरखाँ के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और बंगाल पर चढ़ाई करने का निर्णय लिया। बंगाल का सुल्तान अपने घावों के कारण जल्दी ही मर गया। अतः हुमायूँ को अकेले ही बंगाल पर चढ़ाई करनी पड़ी।

बंगाल की ओर हुमायूँ का कूच उद्देश्यहीन था और यह उस विनाश की पूर्वपीठिका थी, जो उसकी सेना में लगभग एक वर्ष बाद चौसा में हुआ। शेरखाँ बंगाल छोडकर दक्षिण बिहार पहुँच गया था। उसने बिना किसी प्रतिरोध के हुमायूँ को बंगाल की ओर बढ़ने दिया ताकि वह हुमायूँ की रसद-पंक्ति को तोड़ सके और उसे बंगाल में फँसा सके।

15 अगस्त, 1538 ई. को जब हुमायूँ ने बंगाल के गौड़ क्षेत्र में प्रवेश किया, तो उसे वहाँ पर चारों ओर उजाड़ एवं लाशों का ढेर दिखाई पड़ा। गौड़ में पहुँचकर हुमायूँ ने तुरंत कानून और व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया और इस स्थान का पुर्ननिर्माण कर इसका नाम ‘जन्नताबाद’ रखा। लेकिन इससे उसकी कोई समस्या हल नहीं हुई। उसके भाई हिंदाल द्वारा आगरा में स्वयं ताजपोशी के प्रयत्नों से उसकी स्थिति और बिगड़ गई। गौड़ में तीन या चार महीने रुकने के बाद हुमायूँ ने आगरा की ओर प्रस्थान किया। उसने पीछे सेना की एक टुकड़ी छोड़ दी।

सरदारों में असंतोष, वर्षा ऋतु और अफगानों के आक्रमणों के बावजूद हुमायूँ अपनी सेना को बक्सर के निकट चौसा तक बिना किसी नुकसान के लाने में सफल रहा। यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी, जिसका श्रेय हुमायूँ को मिलना चाहिए। इसी बीच कामरान, हिंदाल का विद्रोह कुचलने के लिए लाहौर से आगरा की ओर बढ़ आया था। कामरान यद्यपि बागी नहीं हुआ था, लेकिन उसने हुमायूँ की कोई सहायता नहीं की।

चौसा का युद्ध (26 जून, 1539 ई.)

हुमायूँ को शेरखाँ के विरुद्ध अपनी सफलता पर विश्वास था। किंतु शेरखाँ की ओर से शांति के एक प्रस्ताव से धोखा खाकर हुमायूँ कर्मनाशा नदी के पूर्वी किनारे पर चौसा आ गया। कुछ दिन तक अफगान तथा मुगल सेनाएँ एक-दूसरे के सामने खड़ी रहीं, और किसी ने भी एक-दूसरे पर आक्रमण न किया। फिर 26 जून, 1539 ई. को अकस्मात् शेरशाह ने तीन ओर से मुगल सेनाओं का आक्रमण कर दिया। यह आक्रमण इतना आकस्मिक था कि जीवन-रक्षा के लिए मुगल-सैनिक इधर-उधर भाग खड़े हुए और लगभग 7,000 मुगल सैनिक और सरदार मारे गये। हुमायूँ बड़ी मुश्किल से एक भिश्ती की मदद से नदी तैरकर अपनी जान बचा सका। बाद में हुमायूँ ने उस भिश्ती को एक दिन के लिए राजसिंहासन पर बिठाया था। चौसा के युद्ध में सफल होने के बाद शेर ख़ाँ ने अपने को शेरशाह (राज्याभिषेक के समय) की उपाधि से सुसज्जित किया, साथ ही अपने नाम के खुतबे खुदवाये तथा सिक्के ढलवाने का आदेश दिया।

चौसा के बाद केवल तैमूरी राजकुमारों और सरदारों की एकता ही मुगलों को बचा सकती थी। चौसा की पराजय के बाद हुमायूँ ने आगरा वापस आकर अपने भाइयों, सरदारों और संबंधियों से सैनिक सहायता की प्रार्थना की। कामरान की 10,000 सैनिकों की लड़ाका फौज आगरा में उपस्थित भी थी, लेकिन उसने हुमायूँ की सहायता करने से इनकार कर दिया और अपनी सेना सहित लाहौर लौट गया। तभी हुमायूँ को सूचना मिली कि शेरशाह एक विशाल सेना लेकर आगरा की ओर बढ़ रहा है। अतः अब हुमायूँ ने शीघ्र ही लगभग 40 हजार सैनिक इकट्ठे किये तथा शेरशाह का सामना करने के लिए पूर्व की ओर बढ़ा।

कन्नौज की लड़ाई (17 मई, 1740 ई.)

कन्नौज में हुमायूँ के भाग्य की पुनः परीक्षा हुई। बिलग्राम में 17 मई, 1740 ई. को शेरशाह तथा उसकी सेना ने मुगलों पर आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में हुमायूँ के साथ उसके भाई हिंदाल एवं अस्करी भी थे, फिर भी पराजय ने हुमायूँ का साथ नहीं छोड़ा। शेरखाँ ने अपने से कई गुना बड़ी मुगल सेना को हरा दिया और बड़ी सरलता से आगरा और दिल्ली पर अधिकार लिया। इस प्रकार कन्नौज की लड़ाई ने शेरखाँ और मुगलों के भाग्य का निर्णय कर दिया और हिंदुस्तान की राजसत्ता एक बार फिर अफगानों के हाथ में आ गई।

हुमायूँ की असफलता

कुछ इतिहासकारों ने हुमायूँ के अपने भाइयों के साथ मतभेदों और उसके चरित्र पर लगाये गये आक्षेपों को अनुचित रूप से बढ़ा-चढ़ाकर बताया है। बाबर की भाँति ओजपूर्ण न होते हुए भी हुमायूँ ने बंगाल अभियान से पूर्व स्वयं को एक अच्छा सेनापति और राजनीतिक सिद्ध किया था। शेरखाँ के साथ हुई दोनों लड़ाइयों में भी उसने अपने आप को बेहतर सेनापति सिद्ध किया। वास्तव में शेरखाँ के विरुद्ध हुमायूँ की असफलता का सबसे बड़ा कारण उसके द्वारा अफगान शक्ति को समझ पाने की असमर्थता थी। वह समझ ही नहीं सका कि उत्तर-भारत में फैली अफगान जातियाँ कभी भी किसी योग्य नेता के नेतृत्व में एकत्र होकर चुनौती दे सकती थीं।

हुमायूँ का निर्वासन

शेरशाह से परास्त होने के उपरांत राज्यविहीन राजकुमार हुमायूँ पश्चिम की ओर भागा, जहाँ उसने लगभग 15 वर्ष तक घुमक्कड़ों जैसा निर्वासित जीवन व्यतीत किया। बहुत समय तक वह राजस्थान के रेगिस्तानों में भटकता रहा, पर कहीं से भी उसे कोई सहायता प्राप्त नहीं हुई। और साम्राज्य को फिर से प्राप्त करने के लिए योजनाएँ बनाता रहा, लेकिन न तो सिंध का शासक ही इस कार्य में उसकी मदद करने को तैयार था और न ही मारवाड़ का शक्तिशाली शासक मालदेव। उसके अपने भाई भी उसके विरुद्ध थेे और उन्होंने उसे मरवा डालने या कैद करने के प्रयत्न भी किये। हुमायूँ ने इन सब परीक्षाओं और कठिनाइयों का सामना धैर्य और साहस से किया।

हुमायूँ ने अपने परिवार और सहयोगियों के साथ सिंधु नदी के तट पर भक्कर के पास रोहरी नामक स्थान पर पाँव जमाना चाहा। रोहरी से कुछ दूर पतर नामक स्थान था, जहाँ उसके भाई हिंदाल का शिविर था। कुछ दिन के लिए हुमायूँ वहाँ भी रुका। वहीं हिंदाल के आध्यात्मिक गुरु फारसवासी शिया मीरबाबा दोस्त उर्फ मीरअली अकबरजामी की चौदहवर्षीय सुंदर कन्या हमीदाबानो उसके मन को भा गई जिससे उसने विवाह करने की इच्छा जाहिर की। हमीदा की सगाई हो चुकी थी, लेकिन हिंदाल की माँ दिलावर बेगम के प्रयास से 29 अगस्त, 1541 ई. को हुमायूँ और हमीदाबानो का विवाह हो गया।

अकबर का जन्म (23 अगस्त, 1542 ई.)

कुछ दिन बाद अपने साथियों एवं गर्भवती पत्नी हमीदा को लेकर हुमायूँ 23 अगस्त, 1542 ई. को अमरकोट के राजा बीरसाल के राज्य में पहुँचा। हालांकि हुमायूँ अपना राजपाट गवाँ चुका था, फिर भी बीरसाल ने उसका समुचित आतिथ्य किया। अमरकोट में ही 23 नवंबर, 1542 ई. को हमीदा बेगम ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम बदरुद्दीन मोहम्मद अकबर रखा गया। इस समय हुमायूँ के पास बाँटने के लिए कुछ भी नहीं था। उसने थोड़ी-सी कस्तूरी उपस्थित सेनानायकों तथा सरदारों में बाँटी और एक भविष्यवाणी की कि इस बालक का यश कस्तूरी की सुगंध की तरह समस्त संसार में फैलेगी।

हुमायूँ अपने खोये हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने के लिए संघर्षरत था। अंततः उसने ईरान के शाह तहमास्प की सहायता प्राप्त करने के ख्याल से कंधार की ओर चला। बड़ी मुश्किल से उसने सेहवान पर सिंध पार किया, फिर बलूचिस्तान के रास्ते क्वेटा के दक्षिण मस्तंग स्थान पर पहुँचा, जो कंधार की सीमा पर था। इस समय यहाँ पर उसका छोटा भाई अस्करी अपने भाई काबुल के शासक कामरान की ओर से हुकूमत कर रहा था। हुमायूँ को सूचना मिली कि अस्करी उस पर हमला करके उसको पकड़ना चाहता है। हुमायूँ, हमीदा बानू को अपने पीछे घोड़े पर बिठाकर पहाड़ों की ओर भागा, लेकिन साल भर का शिशु अकबर वहीं डेरे में छूट गया। अस्करी अपने भतीजे अकबर को कंधार ले गया जहाँ अस्करी की पत्नी सुल्तान बेगम अकबर की देख-रेख करने लगी।

हुमायूँ द्वारा पुनः राज्य-प्राप्ति

सिंध से हुमायूँ ईरान चला गया जहां उसने ईरान के शाह से सैनिक सहायता की प्रार्थना की। शाह ने हुमायूँ को 14 हजार सैनिक देना स्वीकार किया, परंतु इस शर्त पर कि वह स्वयं इस्लाम के शिया मत को अपना ले और कंधार को जीतकर उसे शाह को वापस कर दे। हुमायूँ ने शाह की इन दोनों शर्तों को स्वीकार कर लिया और ईरान के शाह की सैनिक सहायता से धीरे-धीरे काबुल, कंधार, पंजाब, दिल्ली तथा आगरा आदि सभी प्रदेशों को जीत लिया।

कंधार की विजय

 इस समय कंधार प्रांत हुमायूँ के भाई अस्करी के अधीन था। हुमायूँ ने प्रयास किया कि बिना युद्ध के ही अस्करी उसकी बात को मान ले, परंतु वह इसमें असफल रहा। तब उसको शक्ति का प्रयोग करना ही पड़ा। अस्करी ने डटकर सामना किया, किंतु हार गया। इसके बाद उसने अस्करी को मक्का की धार्मिक यात्रा करने के लिए भेज दिया, जहाँ उसकी मृत्यु हो गई।

काबुल की विजय

 कंधार विजय के बाद काबुल की बारी थी। यहाँ उसका भाई कामरान डटा हुआ था। यहाँ भी हुमायूँ शांतिपूर्वक समझौता करने में असफल रहा और परिणामतः उसने सैनिक शक्ति का प्रयोग कर कामरान को पराजित करके बंदी बना लिया। उसकी आंखें निकाल दी गई और उसको भी अस्करी की भांति मक्का की धार्मिक यात्रा के लिए भेज दिया गया जहाँ उसकी भी मृत्यु हो गई।

लाहौर की विजय

1554 ई. में शेरशाह के उत्तराधिकारी की मृत्यु पर हुमायूँ ने सूरी साम्राज्य में व्याप्त अशांति तथा अव्यवस्था का लाभ उठाने का निश्चय किया। 5 सितंबर, 1554 ई. में हुमायूँ अपनी सेना के साथ पेशावर पहुँचा और फरवरी, 1555 ई. को उसने लाहौर पर अधिकार कर लिया।

मच्छीवाड़ा का युद्ध (15 मई, 1555 ई.)

हुमायूँ को दिल्ली की ओर बढ़ने से रोकने के लिए पंजाब के शासक सिकंदर सूर ने अफगान सरदार नसीबखाँ एवं तातारखाँ के नेतृत्व में 30 हजार सैनिकों को उसका सामना करने के लिए लुधियाना से लगभग 19 मील पूर्व में सतलुज नदी के किनारे स्थित माच्छीवाड़ा के मैदान में भेजा। यहाँ मुगलों ने अफगानों को पछाड़ दिया। इस प्रकार से हुमायूँ मई 1555 ई. में समस्त पंजाब का स्वामी बन गया।

सरहिंद का युद्ध (22 जून, 1555 ई.)

अफगान नेता सिकंदर सूर ने स्वयं हुमायूँ तथा बैरमखाँ की सम्मिलित सैनिक शक्ति को सरहिंद के रणक्षेत्र में रोकने का प्रयास किया। परंतु जून 1555 ई. में सरहिंद के युद्ध में अफगानों की निर्णायात्मक पराजय हुई। इसके पश्चात् विजयी हुमायूँ को 15 वर्ष के प्रवास के बाद पुनः 23 जुलाई, 1555 ई. को दिल्ली के तख्त पर बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

हुमायूँ की मृत्यु (जनवरी, 1556 ई.)

दिल्ली के तख्त पर बैठने के बाद हुमायूँ अधिक दिनों तक सत्ता का भोग नहीं कर सका। जनवरी, 1556 ई. में ‘दीनपनाह’ भवन में स्थित पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरने के कारण उसकी मुत्यु हो गई। लेनपूल ने लिखा है कि ‘हुमायूँ गिरते-पड़ते इस जीवन से मुक्त हो गया, ठीक उसी तरह, जिस तरह तमाम जिंदगी वह गिरते-पड़ते चलता रहा था।’ हुमायूँ को अबुल फजल ने ‘इन्सान-ए-कामिल’ कहकर संबोधित किया है। जिस समय हुमायूँ की मृत्यु हुई, उस समय उसका पुत्र अकबर 13-14 वर्ष का बालक था। हुमायूँ के बाद उसके पुत्र अकबर को उत्तराधिकारी घोषित किया गया और उसका संरक्षक बैरम खाँ को बनाया गया।

हुमायूँ का चरित्र और मूल्यांकन

हुमायूँ अपने पिता बाबर की भाँति सुसंस्कृत और शिक्षित था। तुर्की और फारसी साहित्य के अतिरिक्त उसे भूगोल, गणित, ज्योतिष, धर्मशास्त्र आदि का भी ज्ञान था। फरिस्ता ज्योतिष और नक्षत्रशास्त्र में उसे विशेष दक्षता प्राप्त थी। हुमायूँ ने ज्योतिष के आधार पर एक ताज ‘ताने इज्जत’ बनवाया था। इसका आविष्कार बदख्शाँ में हुआ था। इसी प्रकार हुमायूँ ने एक ‘खरगाह’ का आविष्कार किया था, जो आकाश के 12 राशिचक्रों के अनुसार 12 भागों में विभाजित था। आनंद मंगल के लिए उसे ‘बिसाते निशात’ (आनंद-मंगल का फर्श) कहा गया। यह बिसात (नक्षत्र) ग्रह-पथ एवं तत्व-संबंधी ग्रहों में विभाजित थी। ग्रहों एवं नक्षत्रों के आधार पर हुमायूँ प्रत्येक दिन विशेष रंग का वस्त्र और उसी रंग का मुकुट धारण करता था। हुमायूँ के दरबार में ईरान, तुर्किस्तान, बुखारा और समरकंद के विद्वान् और कवि शोभायमान थे। हुमायूँ ने एक पुस्तकालय का निर्माण करवाया तथा दिल्ली में एक विद्यालय की स्थापना भी की थी। हुमायूँ युद्ध के दिनों में भी पुस्तकों को अपने साथ रखता था।

हुमायूँ एक धर्मपरायण सुन्नी मुसलमान था, किंतु उसमें सांप्रदायिकता तथा धर्म-असहिष्णुता नहीं थी। उसने शिया रीति-रिवाजों को भी अपना लिया था। उसकी प्रमुख पत्नी हमीदाबानू और उसका विश्वस्त सेवक बैरम खाँ शिया थे। यद्यपि उसने युद्ध के अवसरों पर हिंदू धर्म पर चोट करते हुए मंदिरों को नष्ट किया, किंतु सामान्य हिंदुओं के प्रति उसकी नीति कठोर नहीं कही जा सकती है। यदि उसने चित्तौड़ आक्रमण के समय बहादुरशाह पर आक्रमण नहीं किया, तो इसका कारण धार्मिक संकीर्णता न होकर मुस्लिम उलेमाओं के दृष्टिकोण और उनके परामर्श का सम्मान करना था।

हुमायूँ में मानवोचित गुणों की प्रधानता थी। वह उदार और क्षमाशील था। चौसा युद्ध की पराजय के बाद जिस भिश्ती ने गंगा पार करने में उसकी सहायता करके जान बचाई थी, उसने उसे एक दिन के लिए दिल्ली का बादशाह बना दिया था। हुमायूँ के इसी चरित्र के कारण निरंतर उसके भाइयों, संबंधियों और प्रभावशाली मिर्जाओं व सरदारों ने हुमायूँ का साथ छोड़ा, उसकी अवज्ञा की और उसके विरुद्ध विद्रोह भी किये, किंतु हुमायूँ ने सदैव उनको क्षमा किया और सम्मान दिया। जब उसके प्रमुख शत्रु कामरान के अंतिम बार पकड़े जाने पर मुगल अमीरों ने उसे मार डालने की बात की तो हुमायूँ ने कहा था कि, ‘मेरी बुद्धि तो तुम्हारी बातें मानती है, किंतु मेरा दिल नहीं मानता’ और उसने अपने भाई की हत्या करने से इनकार कर दिया। विवशतावश उसने कामरान को अंधा बनाये जाने का आदेश दिया। आर्थिक मामलों में भी वह बड़ा उदार था। शुभ अवसरों पर वह अपने अमीरों व अधिकारियों में अत्यधिक धन बाँटता था, जिसका प्रतिकूल प्रभाव उसके राजकोष पर पड़ा।

हुमायूँ एक आज्ञाकारी पुत्र था, जिसने विषम परिस्थितियों में भी पिता के निर्देशों का पालन किया। यद्यपि हुमायूँ में आत्मविश्वास, साहस व धैर्य की कमी नहीं थी, किंतु वह अस्थिर, सिद्धांतहीन और अतिशय दयालु था। मैलीसन के अनुसार ‘वह चंचल, विचारहीन और अस्थिर था, जिसमें कर्तव्य की ओर झुकने को कोई भी बलवती भावना नहीं थी।’ विलासप्रियता और नशे का आदी होना उसकी बड़ी कमजोरी थी, जिसका लाभ उसके शत्रुओं ने लाभ उठाया।

व्यक्तिगत रूप से हुमायूँ एक कर्मठ व निपुण सैनिक था, किंतु उसमें अच्छे सेनापति के गुण नहीं थे। वह सैन्य-संगठन की अक्षमता और युद्ध के समय गलत रणनीति के कारण सदैव पराजित हुआ। हुमायूँ में दूरदर्शिता और कूटनीतिज्ञता का सर्वथा अभाव था और शेर खाँ ने कई बार उसकी इसी कमजोरी का लाभ उठाया।

हुमायूँ में एक योग्य शासक के गुणों की भी कमी थी। उसकी उदारता और क्षमाशीलता उसके भाइयों और संबंधियों के विद्रोहों का कारण बनी। वह एक योग्य सेनापति भी नहीं था। बाबर के समय में जिस सेना ने पानीपत, खानवाँ और घाघरा के युद्धों में विजय प्राप्त की और हुमायूँ के आरंभिक दिनों में भी गुजरात और मालवा के राज्य को आसानी से अपने अधिकार में किया, वही सेना हुमायूँ के अयोग्य नेतृत्व में कमजोर हो गई। चौसा और कन्नौज के युद्धों में मुगलों की पराजय केवल अकुशल नेतृत्व और रणनीतिक भूल के कारण ही हुई थी।

हुमायूँ एक योग्य शासन प्रबंधक भी नहीं था। वह अपने विजित प्रदेशों में कुशल प्रशासन स्थापित करने में सफल नहीं हुआ, जिसके कारण उसे आर्थिक विपन्नता की स्थिति का सामना करना पड़ा। वस्तुतः हुमायूँ की दुर्बलताएँ ही उसकी असफलता का मुख्य कारण थी।

हुमायूँ का सबसे बड़ा दुर्भाग्य उसकी अनेक कठिनाइयाँ थीं। उसकी असफलता बहुत कुछ परिस्थितियों, बाबर द्वारा छोड़ी गई समस्याओं, उसके शत्रुओं की चतुरता, भाइयों तथा संबंधियों के असहयोग और अफगान आक्रमण पर आधारित थी। इसके बावजूद हुमायूँ दृढनिश्चयी चरित्र का व्यक्ति था। वह अपनी असफलताओं से निराश नहीं हुआ। उसने ईरान के शाह के नाममात्र के सहयोग से ही अपने विद्रोही भाइयों से अफगानिस्तान का राज्य पुनः हस्तगत कर लिया तथा जैसे ही उपयुक्त अवसर मिला, उसने अफगानों से अपने राज्य को पुनः वापस पा लिया। हुमायूँ की भारत की पुनर्विजय उसे भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करने के लिए पर्याप्त है। हुमायूँ का खोया यश और साम्राज्य पुनः मिल गया। वस्तुतः शेर खाँ और अकबर की उपलब्धियों के सामने हुमायूँ की उपलब्धियाँ गौण प्रतीत होती हैं, जबकि हुमायूँ को एक सम्मानित स्थान प्राप्त है। मुगलकाल का महत्त्व केवल उसकी विजयों या शासन व्यवस्था के कारण नहीं, वरन् संस्कृति के प्रोत्साहन, विकास और उपयोगी नीतियों पर आधारित है। हुमायूँ का योगदान औरंगजेब की भाँति मुगल साम्राज्य के विघटन का नहीं, वरन् स्थायित्व की आधारशिला है।

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