कुलोत्तुंग चोल तृतीय (Kulottunga Chola III, 1178–1218 AD)

कुलोत्तुंग तृतीय (Kulottunga III, 1178–1218 AD)

कुलोत्तुंग तृतीय ‘परकेशरिवर्मन’ चोल राजवंश का अंतिम महान शासक था, जिसने 1178 से 1218 ई. तक शासन किया। राजाधिराज द्वितीय ने अपने शासनकाल के अंतिम दिनों में कुलोत्तुंग तृतीय को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया था, किंतु दोनों के आपसी संबंधों की कोई स्पष्ट सूचना नहीं मिलती है।

अपने राज्याभिषेक के बाद कुलोत्तुंग तृतीय ने सर्वप्रथम आंतरिक प्रशासन को व्यवस्थित और सुदृढ़ किया। इसके बाद, उसने चोलों के केंद्रीय प्रशासन को मजबूत करने के लिए होयसलों, मदुरा के पांड्यों, वेनाड के चेरों, पोलोन्नरुवा के सिंहलियों और वेलनाडु तथा नेल्लोर के चोडों के विरूद्ध सैनिक कार्रवाई कर उन्हें अपने नियंत्रण में किया। उसने चोल सामंत आडिगैमन द्वारा शासित करूर पर भी अधिकार किया और गंगावाड़ी और तगादुर के आसपास के क्षेत्रों में अतिक्रमण करने वाले होयसाल शासक वीरबल्लाल द्वितीय को भी निकाल बाहर किया। किंतु अपने शासन के अंतिम समय में उसे पांड्यों की नवोदित शक्ति के सामने नतमस्तक होना पड़ा और संभवतः उनकी अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।राजराज तृतीय और उसके उत्तराधिकारी राजेंद्र तृतीय के अभिलेखों में कुलोत्तुंग तृतीय को ‘पेरियदेवर’ (महान राजा) कहा गया है।

कुलोत्तुंग तृतीय की सामरिक उपलब्धियाँ

कुलोत्तुंग तृतीय का शासनकाल विघटनकारी शक्तियों के विरूद्ध उसके व्यक्तिगत विजय की कहानी है। वह अपने पूर्ववर्तियों राजराज चोल द्वितीय और राजाधिराज चोल द्वितीय से अलग दूसरी मिट्टी से बना था। इसने न केवल साम्राज्य के बाहरी हिस्सों पर केंद्रीय प्रशासन की पकड़ को मजबूत किया, बल्कि विद्रोही सामंतों को भी अपने नियंत्रण में रखा।

कुलोत्तुंग चोल तृतीय (Kulottunga Chola III, 1178–1218 AD)
कुलोत्तुंग तृतीय के समय चोल साम्राज्य
पांड्यों के विरूद्ध अभियान

राजाधिराज द्वितीय की भाँति कुलोत्तुंग तृतीय को भी पांड्यों की राजनीति में भाग लेना पड़ा। चिदंबरम्, तिरुक्कैयूर, तिरुविडमरुदूर, श्रीरंगम्, पदुक्कोट्टै आदि लेखों में पता चलता है कि कुलोत्तुंग तृतीय को पांड्यों के विरूद्ध तीन सैन्य-अभियान करने पड़े।

कुलशेखर के विश्वासघात के बाद राजाधिराज द्वितीय ने वीरपांड्य को मदुरा के राजसिंहासन पर आसीन किया था। किंतु बाद में वीरपांड्य ने भी चोलों का साथ छोड़कर सिंहल शासक पराक्रमबाहु (इलांगई) के साथ गठबंधन कर लिया। इस समय तक कुलशेखर की मृत्यु हो चुकी थी, किंतु कुलशेखर का एक संबंधी विक्रमपांड्य, वीरपांड्य को अपदस्थ कर पांड्य सिंहासन पर अधिकार करना चाहता था। विक्रमपांड्य ने कुलोत्तुंग तृतीय से मदद माँगी, जिससे पांड्यों और चोलों के बीच संघर्ष पुनः आरंभ हो गया।

पहला अभियान (1182 ई.)

कुलोत्तुंग तृतीय ने विक्रमपांड्य की सहायता के लिए 1182 ई. के आसपास पांड्य राज्य पर आक्रमण किया। एक ओर चोल तथा विक्रमपांड्य और दूसरी ओर वीरपांड्य तथा सिंहली सेना थी। चोलों ने बड़ी सरलता से वीरपांड्य और सिंहल की संयुक्त सेना को पराजित कर दिया। वीरपांड्य भाग गया और कुलोत्तुंग तृतीय ने विक्रमपांड्य को मदुरा की गद्दी पर बिठा दिया। कुलोत्तुंग तृतीय का पांड्यों के साथ यह पहला युद्ध था, जो संभवतः 1182 ई. के आसपास हुआ था।

दूसरा अभियान (1188 ई.)

कुलोत्तुंग तृतीय को पांड्यों के विरूद्ध दूसरा अभियान उस समय करना पड़ा, जब वीरपांड्य ने सिंहल के सहयोग से कुलोत्तुंग के विरूद्ध 1188-89 ई. में पुनः युद्ध छेड़ दिया और पांड्य सिंहासन को हस्तगत करने का प्रयास किया। संभवतः इसमें केरल का शासक भी उसकी मदद कर रहा था। फलतः कुलोत्तुंग तृतीय ने 1188 ई. में नेट्टुर के युद्ध में वीरपांड्य और उसके सहायोगी केरलों को पराजित कर दिया। इस प्रकार वीरपांड्य की कुलोत्तुंग तृतीय को हराने और पांड्य सिंहासन को हस्तगत करने की कोशिशें बेकार हो गईं।

वीरपांड्य ने भागकर केरल के कोइलोन में शरण ली। अंततः श्रीलंका के शासक से कोई मदद न मिल पाने के कारण वीरपांड्य ने केरल के शासक के साथ कुलोत्तुंग तृतीय के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। कुलोत्तुंग ने दोनों को क्षमा कर दिया और वीरपांड्य को कुछ जागीर तथा संपत्ति दे दी।

तीसरा अभियान (1205 ई.)

कुछ दिनों की शांति के बाद चोल-पांड्य संघर्ष पुनः आरंभ हो गया और कुलोत्तुंग तृतीय को तीसरी बार पांड्यों के विरूद्ध अभियान करना पड़ा। विक्रमपांड्य के बाद उसका पुत्र जाटवर्मन कुलशेखर 1190 ई. में पांड्य राज्य का राजा हुआ। कुलशेखर प्रथम ने 1205 ई. चोल शासक चोल कुलोत्तुंग तृतीय के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। कुलोत्तुंग तृतीय को कुलशेखर को दंडित करने के लिए पांड्य राज्य पर आक्रमण करना पड़ा। इस युद्ध के परिणाम के संबंध में पांड्य और चोल लेखों में अलग-अलग दावे किये गये हैं। कुलशेखर की एक प्रशस्ति के अनुसार पांड्यों के चिन्ह के सामने चोलों का सिंह और चेरों का चिन्ह धनुष भयभीत होकर छिप गये थे। इसके विपरीत, चोल लेखों में कहा गया है कि कुलोत्तुंग तृतीय ने पांड्यों को पराजित कर मत्तियूर और कलिंगकोट्टै पर अधिकार कर लिया।

संभवतः जाटवर्मन कुलशेखर ने परिवार सहित कुलोत्तुंग तृतीय के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया और कुलोत्तुंग तृतीय ने कुलशेखर को उसका राज्य वापस कर दिया। किंतु इस बीच चोलों ने मदुरा में पांड्यों के प्राचीन राज्याभिषेक भवन को नष्ट कर दिया और उसे गदहों से जुतवाकर वहाँ ज्चार की बुआई करवा दी थी। पांड्यों के विरूद्ध इस सफलता के उपलक्ष्य में कुलोत्तुंग तृतीय ने ‘चोल-पांड्यम्’ की उपाधि धारण की थी।

होयसल के साथ युद्ध

द्वितीय पांड्य अभियान अर्थात् 1188 ई. के बाद कुलोत्तुंग तृतीय ने होयसलों के विरूद्ध अभियान किया। कुलोत्तुंग तृतीय का समकालीन होयसल शासक वीरबल्लाल द्वितीय था। चोल अभियान का कारण यह था कि होयसल वीरबल्लाल द्वितीय ने पश्चिमी चालुक्य राजा सोमेश्वर चतुर्थ को और यादव-सेउण वंश के राजा भीलम को पराजित कर कन्नड़ क्षेत्र में चोल सामंत आदिगैमन द्वारा शासित तगादुर जैसे कोंगु क्षेत्र से सटे क्षेत्रों पर अधिकार करने का प्रयास किया था।

कुलोत्तुंग तृतीय और वीरबल्लाल द्वितीय के बीच 1188 ई. के आसपास युद्ध हुआ, जिसमें वीरबल्लाल द्वितीय बुरी तरह पराजित हुआ। किंतु इस युद्ध के बाद चोलों और होयसलों के बीच मित्रता हो गई और वीरबल्लाल ने न केवल चोल राजकुमारी चोलमहादेवी से विवाह किया, बल्कि अपनी पुत्री सोमलादेवी का विवाह कुलोत्तुंग तृतीय से कर दिया। होयसलों के साथ कुलोत्तुंग तृतीय की यह कूटनीति उसके शासन के अंतिम दिनों में उसके लिए बड़ी हितकर सिद्ध हुई।

उत्तर की ओर अभियान

श्रीरंगम् तथा पुडुकोट्टै लेखों से पता चलता है कि कुलोत्तुंग तृतीय ने वेंगी तक आक्रमण किया था। उसने तेलगु चोड शासक नलसिद्ध तथा उसके भाई तम्मुसिद्ध को 1187 ई. में अपने अधीन किया। इस बीच कोंगु और कन्नड़ देशों में कुलोत्तुंग तृतीय की व्यस्तता का लाभ उठाकर तेलुगु चोड शासक नल्लसिद्ध ने 1192-93 ई. में काँची पर अधिकार कर लिया। फलतः 1193-1195 ई. के बीच कुलोत्तुंग ने नल्लसिद्ध चोड और उसके सहयोगी सामंतों के विरूद्ध अभियान किया और 1196 ई. में नलसिद्ध चोड को काँचीपुरम् से बाहर खदेड़ कर काँची पर पुनः अधिकार कर लिया।

पांड्यों के विरूद्ध पहले अभियान के बाद चोल कुलोत्तुंग तृतीय ने होयसलों, काँची में तेलुगु चोडों और वेंगी में वेलनाडु चोडों के विरूद्ध अभियान किया था। इसके बाद, काकतीयों के साथ उसका युद्ध हुआ। 1208 ई. में कुलोत्तुंग तृतीय ने वेलनाडु के चोडों के विरूद्ध पुनः अभियान किया और बड़ी आसानी से वेंगी को पुनः जीत लिया। किंतु बाद में, काकतीय शासक गणपतिदेव ने वेलनाडु के चोडों को अपने अधीन कर लिया, जिससे कुलोत्तुंग तृतीय की शक्ति दुर्बल पड़ गई।

वेंगी पर आक्रमण

कुलोत्तुंग तृतीय ने अपने लेखों में वेंगी को उत्तरी सरकार में सूचीबद्ध किया है, जो आधुनिक प्रकाशम, पश्चिम गोदावरी और आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिलों का क्षेत्र है। उसने 1208 ई. में वेंगी पर आक्रमण कर अपने अधीन करने का दावा किया है। यद्यपि इस अभियान का विवरण उपलब्ध नहीं है, किंतु संभवतः कुलोत्तुंग ने काकतीय साम्राज्य की राजधानी वारंगल में प्रवेश कर लिया था, जहाँ उस समय शक्तिशाली सम्राट गणपति का शासन था। चूंकि इस समय वेंगी में काकतीयों की शक्ति बढ़ रही थी, इससे लगता है कि कुलोत्तुंग तृतीय ने वेंगी के उत्तर की ओर अभियान किया और इस दौरान काकतीय सेना के साथ उसका युद्ध हुआ। पुडुकोट्टै लेखों तथा कुलोत्तुंग कावै से भी पता चलता है कि कुलोत्तुंग चेर और कोंगु को जीतता हुआ करुवूर तक पहुँच गया था।

पांड्यों का उत्थान

कुलोत्तुंग को अपने शासन के अंतिम दिनों में मारवर्मन सुंदरपांड्य के हाथों हार का सामना करना पड़ा और यहीं से चोलों के पतन की कहानी शुरु हो गई। कुलोत्तुंग ने 1205 ई. में जाटवर्मन कुलशेखर को पराजित कर मदुरा में पांड्यों के राज्याभिषेक भवन को ध्वस्त कर दिया था, किंतु उसने पराजित पांड्य शासक को पुनः सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दिया था। जाटवर्मन कुलशेखर के छोटे भाई और उत्तराधिकारी मारवर्मन सुंदरपांड्य ने 1215-16 ई. में चोल राज्य पर आक्रमण किया। सुंदरपांड्य ने तंजौर और उरैयूर को लूट लिया और प्रतिशोधस्वरूप तंजावुर के अयिरत्ताली में चोलों के राज्याभिषेक भवन में अपना वीराभिषेक कराया। बढ़ती उम्र और सामंतों से असहयोग के कारण कुलोत्तुंग तृतीय को अपने उत्तराधिकारी राजराज तृतीय के साथ राजधानी से भागना पड़ा। पांड्य शासक ने अपनी सेना के साथ चिदंबरम् पहुँचकर नटराज के मंदिर में पूजा-अर्चना की।

कुलोत्तुंग तृतीय ने होयसल वीरबल्लाल द्वितीय से सहायता की अपील की, जिसका चोलों के साथ वैवाहिक गठबंधन था। वीरबल्लाल ने अपने पुत्र वीरनरसिंह द्वितीय के अधीन एक सेना श्रीरंगम् भेजी। अंततः मारवर्मन सुंदरपांड्य ने चोलों के साथ शांति स्थापित कर ली और कुलोत्तुंग तृतीय को चोल गद्दी पर पुनः प्रतिष्ठित कर दिया। संभवतः कुलोत्तुंग तृतीय और उसके पुत्र राजराज तृतीय ने पांड्यों की अधीनता स्वीकार कर ली और वार्षिक कर देना स्वीकार किया। इस प्रकार चोलों की कीमत पर पांड्यों के दूसरे साम्राज्य का पुनरुत्थान हुआ, किंतु यह चोलों के साम्राज्य का अंत नहीं था।

कुलोत्तुंग तृतीय का मूल्यांकन

कुलोत्तुंग तृतीय अपने पूर्ववर्तियों से कमतर नहीं था। उसके समय में चोल साम्राज्य की प्रतिष्ठा लगभग पूर्ववत् बनी रही। यद्यपि पांड्य, काकतीय, होयसल और यादव शक्तिशाली हो रहे थे, किंतु चोलों के ऊपर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। उसके शिलालेखों में उसे मदुरा के पांड्यों, ईलम या श्रीलंका के शासक, करूर के चेरों और वायनाड के राजाओं का विजेता और पांड्यमुकुट के रूप में वर्णित किया गया है। यद्यपि शासन के अंतिम दिनों में उसे पांड्यों से पराजित होना पड़ा, फिर भी, वह परांतक प्रथम (52 वर्ष) और कुलोत्तुंग प्रथम (50 वर्ष) के बाद सबसे अधिक समय (40 वर्ष) तक शासन करने वाला चोल शासक था।

वास्तव में, कुलोलुंग तृतीय महान चोल नरेशों की परंपरा में अंतिम महान शासक था। उसके समय में भी चोल साम्राज्य की राजधानी गंगैकोंडचोलपुरम् बनी रही और तंजोर, उरैयूर तथा आयिरत्तालि संभवतः इसकी उपराजधानियाँ थीं। उसने वीरराजेंद्रदेव, त्रिभुवनवीरचोलदेव, मुडिबलमुशोल, त्रिभुवनचक्रवर्ती, शोलकेरलदेव तथा मदुरैयुमपांडियन मुडिलत्तलै कोंडसलिय जैसी उपाधियाँ धारण की थी। संभवतः राजाक्कल तंबिरान तिरुवोदि उसका कोई उपनाम था। उसकी प्रधान रानी भुवनमुलुदैयाल थी।

कुलोत्तुंग तृतीय एक प्रशासनिक सुझबूझ वाला लोकोपकारी शासक था, जिसने न केवल राज्य की विकास-संबंधी गतिविधियों पर विशेष ध्यान दिया, बल्कि अपनी प्रजा के कल्याण के लिए हरसंभव प्रयास किया। उसके शासनकाल के तेईसवें तथा चौबोसवें वर्ष के लेखों से पता चलता है कि 1201 तथा 1202 ई. के बीच चोल साम्राज्य में एक भयंकर अकाल पड़ा था। 1201 ई. के एक अभिलेख के अनुसार उस अकाल के कारण खाद्यान्नों के दाम इतने बढ़ गये थे कि एक बेल्लाल तथा उसकी दो पुत्रियों ने स्वयं को दास-दासियों के रूप में 110 काशु में एक मठ में बेच दिया था। एक लेख से पता चलता है कि कुलोत्तुंग तृतीय ने अपनी प्रजा की भलाई के लिए जलाशयों और नदियों पर तटबंधों का निर्माण करवाया, बड़े पैमाने पर राहत-कार्य शुरू करवाया और श्रमिकों को उचित पारिश्रमिक दिये जाने की व्यवस्था की थी।

कुलोत्तुंग तृतीय विद्या एवं साहित्य का उदार संरक्षक भी था। 1213 ई. के एक लेख के अनुसार उसके शासनकाल में तिरुवोरियर में एक विद्यालय की स्थापना की गई थी, जिसमें व्याकरण का अध्ययन-अध्यापन होता था। उसके शासनकाल में उसके आध्यात्मिक गुरु ईश्वरशिव के पिता श्रीकांत शंभु ने एक धर्मशास्त्रीय ग्रंथ सिद्धांत-रत्नाकर की रचना की थी। कुछ इतिहासकारों के अनुसार कुलोत्तुंग तृतीय के शासनकाल में ही कंबन ने रामावतारम् (तमिल रामायण) की रचना की थी।

कुलोत्तुंग तृतीय का शासनकाल निर्माणात्मक कार्यों और कलात्मक उन्नति के लिए भी प्रसिद्ध है। वस्तुतः उसका शासनकाल चोल वास्तुकला के इतिहास में अंतिम महान युग का सूचक है। इस चोल नरेश को अनेक मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थलों के निर्माण, मरम्मत और जीर्णोद्धार का श्रेय प्राप्त है। उसके द्वारा बनवाया गया कुंभकोणम के त्रिभुवनम् में सरबेश्वर या कंपहरेश्वर (त्रिभुवनवीरेश्वर) मंदिर कलात्मक दृष्टि से द्रविड़ वास्तुकला का एक भव्य उदाहरण है। यद्यपि यह मंदिर अपने आकार-प्रकार में तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर जैसा है, किंतु कई अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं, जो इसे तंजावुर और गंगैकोंडचोलपुरम् के बृहदेश्वर मंदिरों से पृथक् करती हैं, जैसे- सरबेश्वर मंदिर की दीवारों पर रामायण की घटनाओं का अंकन और इसे कुलोत्तुंग के आध्यात्मिक गुरु ईश्वरशिव द्वारा पवित्र किया जाना। इसके अलावा, कुलोत्तुंग ने अपने पूर्वजों द्वारा बनवाये गये चिदंबरम् के शिवमंदिर, श्रीरंगम् के श्रीरंगनाथस्वामी जैसे मंदिरों के साथ-साथ काँची के एकमेश्वर तथा मदुरा के हालाहलस्य के मंदिरों का भी जीर्णोद्धार और नवीनीकरण करवाया था। उसके शासनकाल में ही तिरुवरुर के शिवमंदिर में सभामंडप और वाल्मीकेश्वर तथा गिरिजेंद्रजादेवी (सिवकामी) मंदिर के गोपुर और आहाते का निर्माण हुआ था।

कुलोत्तुंग तृतीय की लगभग 1218 ई. में मृत्यु हो गई। उसके बाद उसके पुत्र और उत्तराधिकारी राजराज चोल तृतीय (1218-1256 ई.) ने चोल राज्य की बागडोर संभाली।

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