देसी रियासतों में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन (Indian National Movement in Princely States)

देसी रियासतों में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन

अंग्रेजों ने भारत पर औपनिवेशिक सत्ता स्थापित करने के लिए जो नीतियाँ अपनाई, उनके चलते भारतीय उपमहाद्वीप के 25वें हिस्से पर भारतीय राजाओं-महाराजाओं का ही शासन कायम रहा। इन रियासतों की संख्या 565 थी जो छोटी-बड़ी हर तरह की थीं, जैसे हैदराबाद, मैसूर और कश्मीर जैसी रियासतों का आकार तो कई यूरोपीय देशों के बराबर था, और कई रियासतें ऐसी थीं जिनकी आबादी मात्र कुछ हजार ही थी। भारतीय रियासतों के अस्तित्व में आने के मुख्य कारण वही थे जिनके कारण ईस्ट इंडिया कंपनी शक्तिशाली बनी। बहुत-सी भारतीय रियासतें स्वायत्तता प्राप्त अथवा अर्धस्वायत्तता प्राप्त इकाइयों के रूप में उत्तर मुगलकाल में बनीं।

भारतीय रियासतों के प्रति ब्रिटिश नीति

1857 के पहले अंग्रेज भारतीय रियासतों को हड़पने का कोई अवसर नहीं चूकते थे। लेकिन 1857 के विद्रोह के बाद उन्होंने भारतीय रियासतों के प्रति अपनी नीति को बदल दिया। विद्रोह के दौरान अनेक देसी रियासतें न केवल अंग्रेजों की वफादार बनी रहीं, बल्कि विद्रोह को कुचलने में उनकी सक्रिय रूप से सहायता भी की थी। वायसराय केनिंग ने कहा भी था कि इन राजाओं ने तूफान में ‘तरंगरोधकों’ का काम किया था। वास्तव में विद्रोह के अनुभव से ब्रिटिश अधिकारियों को यह विश्वास हो गया था कि जनता के विरोध या विद्रोह की स्थिति में ये रियासतें उनका कारगर सहयोगी हो सकती हैं। इसलिए साम्राज्य के आधार के रूप में उनको बनाये रखना तब से ब्रिटिश नीति का एक सिद्धांत रहा है। यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने रियासतों के विलय की नीति को त्याग दिया था, लेकिन इस विलय से बचने के एवज में रियासतों को सर्वश्रेष्ठ शक्ति और असंदिग्ध शासक के रूप में अंग्रेजी सत्ता की ‘सर्वोच्चता’ को स्वीकार करना पड़ा था। अंग्रेजी हुकूमत ने इन रियासतों के राजाओं को किसी भी अंदरूनी या बाहरी खतरे में उनका साथ देने की तथा उनकी सुरक्षा की गारंटी दी थी।

अधिकतर भारतीय रियासतों में निरंकुश स्वेच्छाचारी शासन का बोलबाला था। राजे-रजवाड़े अपनी विलासिता के लिए राजकोष का मनमाना इस्तेमाल करते थे। अनेक रियासतों में वैभव तथा विलासिता के नाम पर पैसा पानी की तरह बहाया जाता था। किसान दमन के शिकार थे, ब्रिटिश शासन की तुलना में रियासतों में मालगुजारी और कर बहुत अधिक और असहनीय थे। अनेक रियासतों में भू-दास प्रथा, गुलामी और बेगार की प्रथा प्रचलित थी। शिक्षा का कोई खास प्रसार या प्रबंध नहीं था; स्वास्थ्य और अन्य सामाजिक सेवाएँ एकदम पिछड़ेपन की हालत में थीं, और प्रेस की स्वतंत्रता, कानून-सम्मत शासन और दूसरे नागरिक अधिकारों का कोई मान नहीं था। इस तरह अधिकांश रियासतें आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी हुई थीं। लेकिन इस गरीबी और पिछड़ेपन के लिए केवल रियासतें ही जिम्मेदार नहीं थीं। इन रियासतों की इस दुर्दशा के लिए मूलतः अंग्रेजी हुकूमत काफी हद तक जिम्मेदार थी। पहले के पूरे इतिहास में आंतरिक विद्रोह या बाहरी आक्रमण की चुनौतियाँ इन भ्रष्ट और पतित राजा-महाराजाओं की मनमानी पर कुछ हद तक नियंत्रण रखती थीं। परंतु ब्रिटिश शासन ने राजाओं को इन दोनों खतरों से सुरक्षित बना दिया और अब वे खुलकर अपने शासन का दुरूपयोग करने लगे।

ब्रिटिश भारत की राजनीति में कभी-कभी रियासतों के राजा भी रूचि लेते थे, जैसे अलवर और भरतपुर के राजा बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में हिंदू राष्ट्रवाद के प्रचंड समर्थक थे। अलवर का राजा जयसिंह इतना बड़ा देशभक्त था कि वह यूरोपियनों से दस्ताने पहने बिना हाथ तक नहीं मिलाता था। भरतपुर में वित्तीय अनियमितताओं के कथित आरोपों के कारण जब राजा को हटा दिया गया था, तो आर्यसमाज, कांग्रेस और जाट महासभा के गठजोड़ ने इस क्षेत्र को पूरे राजस्थान में राष्ट्रवाद का एक प्रमुख केंद्र बना दिया था।

कुछ विवेकशील और दूरदर्शी शासक भी थे जो अपनी रियासतों में कुछ प्रशासनिक सुधार लागू करने और प्रशासन में जनता की भागीदारी का खयाल रखते थे। लेकिन अधिकांश राजे-महराजे अंग्रेजी राज के वफादार थे और ब्रिटिश सरकार राष्ट्रीय एकता के विकास में बाधा डालने तथा उदीयमान राष्ट्रीय आंदोलन का मुकाबला करने के लिए इन राजाओं का इस्तेमाल करती थी।

बीसवीं सदी के पहले दशक में जब गरमपंथ और हिंसा का प्रभाव बढ़ा और फिर दूसरे दशक में जब प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ हुआ तो साम्राज्य के लिए राजाओं, महाराजाओं ने अपनी उपयोगिता साबित करते हुए युद्धकोष में खुलकर दान दिये, मूल्यवान सैनिक सेवाएँ प्रदान की और अपनी रियासतों में सैनिकों की भर्ती को प्रोत्साहित किये। इसके बाद जब असहयोग आंदोलन ने इस उपमहाद्वीप को झकझोरा, तो इन राजाओं ने अपने क्षेत्रों में इस आंदोलन की लहर को रोकने के लिए सरकार की मूल्यवान सेवा की। यही नहीं, जब 1921 में प्रिंस ऑफ वेल्स के दौरे का कांग्रेस ने बहिष्कार किया, तो राजाओं के जोश और शानदार स्वागत के कारण ही वह दौरा थोड़ा-बहुत सम्मानित बन सका था।

प्रथम विश्वयुद्ध के उपरांत भारतीय रियासतों ने अपनी सेवाओं के बदले अधिक संवैधानिक स्वतंत्रता, ब्रिटिश भारत में उठती राजनीति की लहरों से सुरक्षा की अधिक गारंटी और साम्राज्य की सलाह-मशविरा की प्रक्रिया में अधिक भागीदारी की माँग की। फलतः फरवरी 1921 में एक 120 सदस्यों वाले ‘नरेंद्र मंडल’ (चैंबर ऑफ प्रिंसेज) की व्यवस्था की गई ताकि राजे-महाराजे एकसाथ मिल-बैठ सकें और ब्रिटिश मार्गदर्शन में अपने साझे हित के विषयों पर विचार-विमर्श कर सकें। इससे भारतीय रियासतें अंग्रेजी साम्राज्य के अनुग्रहीत पुत्र बन गईं और उन्हें सामूहिक रूप से साम्राज्य का एक स्वतंत्र अंग स्वीकार कर लिया गया। यद्यपि इस चैंबर ने राजाओं के भौतिक और राजनीतिक, दोनों तरह के अलगाव को तोड़ा, किंतु राजनीतिक परंपराओं और ‘सर्वोच्चता’ की भावना के लगातार बढ़ते प्रभाव के कारण नरेंद्र लोग अब चिंतित भी होने लगे थे।

देसी रियासतों में राजनीतिक चेतना

देसी रियासतें ब्रिटिश भारत से कभी पूरी तरह कटी हुई नहीं रहीं, न ही उनकी सीमाएँ कभी अलंघ्य रहीं, क्योंकि उनमें पास के प्रांतों से राष्ट्रवादी राजनीति और सांप्रदायिक तनाव, दोनों का लगातार प्रवेश होता रहता था। ब्रिटिश भारत में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रसार से देसी रियासतों में भी लोकतंत्र, नागरिक अधिकारों तथा उत्तरदायी शासन-प्रणाली के प्रति राजनीतिक चेतना का प्रसार होने लगा था। बीसवीं सदी के पहले और दूसरे दशक के बीच जो क्रांतिकारी ब्रिटिश भारत से भागकर इन रियासतों में आ गये थे, उन्होंने भी जनता के बीच राजनीतिक चेतना जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1920 में छिड़े असहयोग आंदोलन ने इन रियासतों को सबसे अधिक प्रभावित किया और गांधीजी से प्रेरणा प्राप्त की, जैसे 1921 के दौरान जागीरदारों के दमन और भूमिकरों के प्रतिरोध में मेवाड़ का बिजौलिया आंदोलन या मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में सिरोही में भीलों का आंदोलन। मोतीलाल को तो स्थानीय गांधी भी कहा जाने लगा था, जबकि स्वयं गांधीजी ने इस आंदोलन से अपना संबंध तोड़ लिया था।

बीसवीं सदी के तीसरे दशक के आते-आते प्रायः सभी रियासतों में ‘प्रजामंडलों’ के रूप में जन-आंदोलन उभरने लगे थे और वहाँ की जनता संवैधानिक परिवर्तनों, जनतांत्रिक अधिकारों और लोकप्रिय सरकारों की माँग को लेकर आंदोलन करने लगी थी। विभिन्न रियासतों, जैसे- मैसूर, हैदराबाद, उड़ीसा, त्रावनकोर, इंदौर, गयानगर तथा काठियावाड़ और दकन की रियासतों में राजनीतिक गतिविधियों के तालमेल के लिए ‘स्टेट पीपुल्स कॉन्फ्रेंस’ का गठन हुआ। बाद में ये संगठन ‘आल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कॉन्फ्रेंस’ (ऑल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कांग्रेस) नामक एक राष्ट्रीय संगठन से संबद्ध हो गये, जिसकी स्थापना 1927 में हुई और जिसका मुख्यालय बंबई में था। इस संगठन ने लोकतांत्रिक अधिकारों और संवैधानिक परिवर्तनों की माँग उठाई, जिसका उत्तर अधिकांश रियासतों ने तीखी प्रतिशोध भावना और भारी दमन से दिया। लेकिन कुछ रियासतें अपवाद भी थीं, जैसे- बडौदा, मैसूर, त्रावनकोर और कोचीन, जिन्होंने सीमित दायरों में ही सही, कुछ संवैधानिक परिवर्तन करने शुरू कर दिये थे।

कांग्रेस की रियासतों में अहस्तक्षेप नीति

यद्यपि मैसूर या त्रावनकोर जैसी कुछ रियासतों में कांग्रेस की राजनीति काफी पैठ बना चुकी थी, लेकिन 1920 के दशक तक कांग्रेस रियासतों के मामलों में हस्तक्षेप करने से कतराती रही और प्रजा पर राजाओं के परंपरागत अधिकारों को मान्यता देती रही। 1920 में नागपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने पहली बार भारतीय रियासत़ों के प्रति अपनी नीति की घोषणा की जब अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित कर रियासतों के राजाओं से तुरंत उत्तरदायी सरकार के गठन की माँग की गई और रियासतों की जनता को कांग्रेस का सदस्य बनने की अनुमति दी गई। इसके साथ ही कांग्रेस ने यह हिदायत भी दी कि ऐसे लोग रियासतों में कांग्रेस के नाम पर कोई राजनीतिक गतिविधि शुरू नहीं करेंगे। यदि वे चाहें तो व्यक्तिगत रूप से या स्थानीय संगठनों के सदस्य के रूप में ऐसा कर सकते थे।

कुछ इतिहासकारों ने कांग्रेस की इस अहस्तक्षेपवादी नीति का समर्थन करते हुए इसको राष्ट्रीय आंदोलन के लिए फायदेमंद बताया है। तर्क दिया गया है कि ब्रिटिश भारत और देसी रियासतों के राजनीतिक हालात काफी भिन्न थे, एक रियासत की स्थिति दूसरी रियासत की स्थिति से भी भिन्न थी; नागरिक स्वतंत्रता नाम की कोई चीज नहीं थी; संगठन बनाने का अधिकार नहीं था; जनता भयंकर गरीबी और पिछड़ेपन की शिकार थी। सबसे बड़ी बात यह कि कानूनी तौर पर ये रियासतें स्वाधीन रियासतें थीं।’’ सच तो यह है कि कांग्रेस जानबूझ कर बड़ी चतुराई के साथ राजाओं की प्रभुसत्ता-संबंधी परंपरागत अधिकारों को बनाये रखने के लिए रियासतों के मामले में अहस्तक्षेप की आधिकारिक नीति अपना रही थी।

कांग्रेस ने 1928 में एक प्रस्ताव के माध्यम से राजाओं से प्रातिनिधिक संस्थाओं पर आधारित ‘उत्तरदायी शासन लागू करने का’ आग्रह किया तथा ‘पूर्ण उत्तरदायी शासन’ की प्राप्ति के लिए प्रयासरत रियासतों की जनता के ‘वैध और शांतिपूर्ण संघर्ष’ के प्रति ‘सहानुभूति’ और ‘समर्थन’ व्यक्त किया। जवाहरलाल नेहरू ने 1929 में लाहौर अधिवेशन में भी घोषणा की कि ‘‘देसी रियासतें शेष भारत से अलग नहीं रह सकतीं।….इन रियासतों की तकदीर का फैसला सिर्फ वहाँ की जनता ही कर सकती है।’’ बाद के वर्षों में भी कांग्रेस ने रियासतों के राजाओं से अपनी रियासतों में जनता के मौलिक अधिकारों के बहाली की माँग की। लेकिन ऐसी मौखिक सहानुभूति का रियासतों की जनता के आंदोलनों और कांग्रेस की गुप्त शाखाओं के लिए कोई विशेष मतलब नहीं था, क्योंकि जब सविनय अवज्ञा आंदोलन से प्रेरित होकर अनेक रियासतों, विशेषकर राजकोट, जयपुर, कश्मीर, हैदराबाद और त्रावनकोर में जन-संघर्ष चलाये गये, तो भावनगर, जूनागढ़ या काठियावाड़ जैसे थोड़े से अपवादों को छोड़कर अंग्रेजी राज के समर्थक राजे-महाराजे अपने-अपने इलाकों में कांग्रेसी गतिविधियों के दमन के लिए पहले जितने ही भरोसेमंद साबित हुए। यही नहीं, अनेक राजाओं ने सांप्रदायिकता का भी सहारा लिया, जैसे हैदराबाद के निजाम ने जन-आंदोलन को ‘मुस्लिम-विरोधी’ और कश्मीर के महाराजा ने ‘हिंदू विरोधी’ घोषित किया, जबकि त्रावनकोर के महाराजा का दावा था कि जन-आंदोलन के पीछे ईसाइयों का हाथ है।

इन सभी वर्षों के दौरान ब्रिटिश सरकार अपने उन अधीनस्थ सहयोगियों (देसी राजाओं-महाराजाओं) का उपयोग प्रांतों में राष्ट्रवाद की नई शक्तियों के विरुद्ध प्रभावी हथियार के रूप में करती रही। लेकिन जब इन राजे-रजवाड़ों को राष्ट्रवादी नेताओं से अपने शासन-संबंधी आंतरिक स्वतंत्रता को चुनौती मिलने लगी तो वे बौखलाहट के शिकार होने लगे। इस बौखलाहट का एक कारण यह भी था कि अंग्रेजी राज के अधिकारी लगातार ‘सर्वोच्चता’ की शक्ति-सीमाओं को फैलाते रहते थे। 1928 में सर हारकार्ट बटलर की अध्यक्षता में गठित ‘इंडियन स्टेट्स कमेटी’ ने अपनी रिपोर्ट (1929) में घेरे में बंद इन राजाओं को वादे के रूप में केवल यह रियायत दी कि उनकी सहमति के बिना ब्रिटिश भारत में लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित किसी सरकार को सर्वोच्चता का हस्तांतरण नहीं किया जायेगा, लेकिन साथ ही साथ उसने असीमित शक्तियों वाली सर्वोच्च सत्ता की ‘सर्वोच्चता’ पर फिर से बल दिया। इससे सर्वोच्चता का सिद्धांत अभी तक स्वीकृत किसी भी सीमा से आगे तक फैल गया। अब दीवारों से पीठ लग जाने और दो पाटों के बीच में दब जाने के बाद राजे-रजवाड़े राजनीति में रुचि लेना शुरू कर दिये और कुछ नरमपंथी राजनीतिज्ञों से मेलजोल बढ़ाने लगे।

संघीय योजना और देसी रियासतें

चौथे दशक के मध्य में परस्पर जुड़े हुए दो घटनाक्रमों ने रियासतों के तत्कालीन हालात को काफी प्रभावित किया। पहली घटना थी भारत सरकार अधिनियम 1935 के द्वारा देसी रियासतों को शेष भारत से जोड़कर भारत को संघीय स्वरूप प्रदान करने की योजना, जिसका सुझाव सबसे पहले 1928 में नेहरू रिपोर्ट ने दिया था। संघ का विचार रियासतों को बंद घेरे से बाहर निकलने का एक आदर्श रास्ता नजर आया। एक स्वतंत्र अखिल भारतीय संघ में शामिल होकर वे ‘सर्वोच्च्ता की जकड़’ से निकल सकते थे और साथ ही अपनी आंतरिक स्वतंत्रता को भी सुरक्षित रख सकते थे। लेकिन इस विषय पर भी सभी राजे एकमत नहीं थे और महाराजा पटियाला इस गुट के नेता थे। अंततः 11 मार्च 1932 को एक आपसी समझौता (दिल्ली समझौता) हुआ, जिसे 1 अप्रैल 1932 को ‘चैंबर ऑफ प्रिंसेज’ ने अनुमोदित कर दिया। अब संघ की माँग को भारतीय राजाओं की एक संवैधानिक माँग के रूप में पेश किया गया। लेकिन इस माँग के साथ कुछ ऐसे सुरक्षा उपाय भी जुड़े हुए थे जिन्हें निश्चित तौर पर अंग्रेज और राष्ट्रवादी दोनों अस्वीकार कर देते, जैसे- वे संघीय विधायिका की ऊपरी सदन में चैंबर ऑफ प्रिंसेज के सभी सदस्यों के लिए अलग-अलग सीटें, संधियों से प्राप्त अधिकारों की रक्षा, और सबसे बढ़कर संघ से अलग होने का अधिकार।

देसी रियासतों में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन (Indian National Movement in Princely States)
देसी रियासतों के प्रतिनिधिगण

अंग्रेजों को संघ का विचार पसंद था क्योंकि ये राजा प्रांतों के राष्ट्रवादी राजनीतिज्ञों की काट कर रकते थे, लेकिन उनके संघ का विचार राजाओं के संघ के विचार से भिन्न था। अंततः जब 2 अगस्त 1935 को भारत सरकार अधिनियम 1935 को शाही स्वीकृति मिली, तब उसमें शामिल संघ की योजना राजाओं के बहुमत को संतुष्ट नहीं कर सकी। रियासतों से प्रतिनिधि चुनने का अधिकार राजाओं-महाराजाओं को दिया गया था और उनकी संख्या संघीय विधानमंडल की कुल संख्या की एक तिहाई थी। कांग्रेस, राज्य जन-कॉन्फ्रेंस तथा अन्य जन-संगठनों ने माँग की कि रियासतों की जनता खुद अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करे क्योंकि राजाओं के एजेंट जनता के प्रतिनिधि नहीं हो सकते थे। अंततः यह योजना लागू नहीं हो सकी।

दूसरी घटना थी 1937 में ब्रिटिश भारत के विभिन्न प्रांतों के चुनावों में कांग्रेस का नाटकीय राजनीतिक उत्थान, जिससे देसी रियासतों के राजा-महाराजा बौखला उठे। कांग्रेस के सत्ता में आने से रियासतों की जनता में भी एक नई चेतना आई और राजनीतिक सरगर्मियाँ तेज हो गईं। इस नये बदलाव को रियासतों के राजाओं ने भी महसूस किया। कई रियासतों में उत्तरदायी सरकार और नये सुधारों को लेकर आंदोलन शुरू हो गये। जिन रियासतों में कोई जन-संगठन नहीं था, वहाँ बड़ी संख्या में ‘प्रजामंडलों’ का गठन हुआ। अब कांग्रेस विपक्ष में नहीं, सत्ता में थी और कांग्रेसी सरकारें अपने प्रांतों के आसपास की रियासतों के राजनीतिक घटनाओं को प्रभावित कर सकती थीं, लेकिन अभी तक कांग्रेस रियासत़ों में अहस्तक्षेप की नीति पर कायम थी। जयपुर, कश्मीर, राजकोट, पटियाला, हैदराबाद, मैसूर, त्रावनकोर और उड़ीसा जैसी रियासतों में स्थानीय प्रजामंडलों ने बड़े पैमाने पर आंदोलन खड़े किये, लेकिन ब्रिटिश रेजीडेंट के सक्रिय संरक्षण में राजाओं ने अनियंत्रित दमन का सहारा लिया और कांग्रेस अहस्तक्षेप की पुरानी नीति पर चलते हुए इसे चुपचाप देखती रही।

कांग्रेस की हस्तक्षेपवादी नीति

1930 के दशक के उत्तरार्ध में नेहरू और बोस जैसे समाजवादी कांग्रेसी नेता रियासतों को ब्रिटिश भारत के राजनीतिक घटनाक्रमों से जोड़ने के लिए उनमें अधिक हस्तक्षेप की वांछनीयता पर अधिक जोर देने लगे। फलतः कांग्रेस कार्यसमिति ने भी अक्टूबर 1937 में रियासत़ों के जन-आंदोलन को नैतिक और भौतिक समर्थन देने का निर्णय किया। इसके बाद 1938 में कांग्रेस के हरिपुरा सत्र में रियासतों के मामलों में अहस्तक्षेप की परंपरागत कांग्रेसी नीति का परित्याग कर दिया गया और रियासतों के जन-आंदोलनों को समर्थन देने-संबंधी एक प्रस्ताव पारित किया गया। यद्यपि उनको कोई सांगठनिक सहायता नहीं दी जानी थी, लेकिन कांग्रेस कार्यकारी समिति की एक विशेष उपसमिति के नेतृत्व में नेतागण व्यक्तिगत रूप से आंदोलनों में भाग ले सकते थे। दरअसल कांग्रेस ने देख लिया था कि रियासतों की जनता राजनीतिक रूप से जागरूक हो चुकी है और संघर्ष पर उतारू है। कांग्रेस का समाजवादी और वामपंथी गुट तो इसके लिए बहुत पहले से ही कांग्रेस नेतृत्व पर दबाव डाल रहा था। कांग्रेस की नीति-परिवर्तन के संबंध में गांधीजी ने एक भेंटवार्ता में 25 जनवरी 1938 को ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ को स्पष्टीकरण दिया: ‘‘मेरी राय में रियासतों में हस्तक्षेप न करने की नीति सही थी, क्योंकि तब जनता जागरूक नहीं हुई थी। अब, जबकि जनता राजनीतिक रूप से जागरूक हो चुकी है और संघर्ष के लिए तैयार है, पुरानी नीति पर चलना कायरता होगी।’’ कांग्रेस ने 1938 में जब अपने स्वाधीनता के लक्ष्य को परिभाषित किया, तो उसमें रियासतों की स्वाधीनता भी शामिल थी। फरवरी 1939 में नेहरू ने ब्रिटिश भारत तथा रियासतों के राजनीतिक संघर्षों के साझे राष्ट्रीय लक्ष्यों को सामने रखने के लिए ‘ऑल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कॉन्फ्रेंस’ के लुधियाना अधिवेशन की अध्यक्षता की और त्रिपुरी कांग्रेस ने रियासतों की जनता के आंदोलनों में और भी सक्रिय रूप से भाग लेने की संयुक्त कार्रवाई की योजना का अनुमोदन किया। इस प्रकार ब्रिटिश भारत और देसी रियासतों में छिड़े आंदोलन अब खुले रूप में एक-दूसरे से जुड़ गये, जिससे पूरे भारत में एकता की एक नई चेतना फैल गई।

देसी रियासतों में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन (Indian National Movement in Princely States)
पं. जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल

1938 के अंत और 1939 के आरंभ में अगले कुछ महीनों में, कांग्रेस के सक्रिय संरक्षण के साथ, स्थानीय प्रजामंडलों और ऑल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के नेतृत्व में प्रचंडतम जन-आंदोलनों ने भारतीय रियासत़ों, विशेषकर मैसूर, जयपुर, राजकोट, त्ऱावनकोर, कश्मीर और हैदराबाद को हिलाकर रख दिया। मैसूर और राजकोट जैसे कुछ छोटे और मझोले आकार की रियासतें इस तरह के उभार के लिए तैयार नहीं थीं, इसलिए उन्होंने झुककर कांग्रेस के प्रति एक अधिक समझौतावादी रूख अपना लिया और कुछ सांकेतिक रियायतें दीं, लेकिन बड़ी रियासतों ने भयानक हठ के साथ दबाव का जमकर विरोध किया और देर से ही सही, उनको अंग्रेज अधिकारियों की सहायता भी मिली। राजकोट में स्वयं गांधीजी ने एक अग्रणी भूमिका निभाई, लेकिन जब शांतिपूर्ण प्रदर्शन हिंसक दंगों में परिवर्तित हो गये, तो विवश होकर उन्होंने अप्रैल 1939 में यह आंदोलन वापस ले लिया था।

इस तरह 1939 में अधिकांश राजाओं के मतानुसार कांग्रेस अपना असली रंग दिखा चुकी थी। फलतः जनवरी 1939 में जब लिनलिथगो ने एक संशोधित प्रस्ताव में रियासतों को कुछ छोटी-मोटी रियायतें देने की कोशिश की, तो प्रस्तावित संघ के प्रति रियासतों का विरोध और कड़ा हो गया और जून में ‘चैंबर ऑफ प्रिंसेज’ की बंबई सभा ने उसे एक सिरे से अस्वीकार कर दिया। अगस्त 1939 में यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने से राजनीतिक माहौल में जबरदस्त बदलाव आया। भारत सचिव जेटलैंड ने संघ के प्रस्ताव को तुरंत ‘ठंडे बस्ते’ में डाल दिया।

द्वितीय विश्वयुद्ध और देसी रियासतें

नवंबर 1939 में कांग्रेसी सरकारों के इस्तीफा देने और अंग्रेजी हुकूमत द्वारा ‘भारतीय प्रतिरक्षा कानून’ (डिफेंस ऑफ इंडिया रूल) पारित किये जाने के कारण रियासतों में राजनीतिक गतिविधियाँ थम-सी गईं। किंतु 1942 में जब ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन शुरू हुआ तो ब्रिटिश भारत के साथ-साथ रियासतों में भी संघर्ष का शंखनाद हुआ और रियासतों की जनता भारतीय स्वाधीनता के संघर्ष में शामिल हो गई। अब रियासतों में भी ‘भारत छोड़ो’ के नारे गूँजने लगे और रियासतों को भारत का अभिन्न अंग मानने की माँग की जाने लगी।

द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद 1945-47 में हैदराबाद, त्रावनकोर, कश्मीर और पटियाला जैसी अनेक रियासतों में अनेकों जन-आंदोलन हुए, जिसमें लोगों ने अधिक राजनीतिक अधिकार और संविधान सभा में पर्याप्त प्रतिनिधित्व की माँग की। पं. जवाहरलाल नेहरू ने 1945 में उदयपुर में तथा 1947 में ग्वालियर में अखिल भारतीय राज्य जन-सम्मेलन की अध्यक्षता की। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की कि जो रियासतें संविधान सभा में सम्मिलित होने से इनकार करेंगी, उनसे शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया जायेगा।

सत्ता-हस्तांतरण और देसी रियासतें

सत्ता-हस्तांतरण के समय रियासतों की समस्या बड़ी जटिल हो गई, खासकर इसलिए कि ‘ब्रिटिश सर्वोच्चता’ की समाप्ति के बाद 565 रियासतों का भविष्य क्या होगा? औपचारिक संकल्पों और औपचारिक संधियों के द्वारा ब्रिटिश सम्राट ने रियासतों द्वारा कुछ राजनीतिक अधिकारों के समर्पण के बदले उनकी रक्षा का वचन दिया था। बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में ब्रिटेन की मजदूर दल की सरकार सत्ता-हस्तांतरण के बाद रियासतों के इस दायित्व से मुक्त होना चाहती थी। 12 मई 1946 को कैबिनेट मिशन ने घोषणा की कि सत्ता के हस्तांतरण के साथ ही ‘सर्वोच्चता’ समाप्त हो जायेगी और रियासतों को उनके द्वारा छोड़े गये अधिकार वापस मिल जायेंगे। वे या तो ब्रिटिश भारत के उत्तराधिकारी राज्य/राज्यों के साथ या संघीय संबंध बनाने के लिए स्वतंत्र होंगे या फिर अपने हितकारी किसी और राजनीतिक व्यवस्था में बँधने के लिए स्वतंत्र होंगे। इस प्रकार इस घोषणा ने अनजाने में ही राजाओं के मन में यह बात भर दी कि उन्हें स्वतंत्र रहने का विकल्प प्राप्त होगा। इस गलती को ठीक करने के लिए माउंटबेटन की ‘बाल्कन योजना’ में भी कुछ नहीं किया गया और केवल यह कहा गया कि रियासतों को प्रांतों के इस या उस महासंघ में शामिल होने की स्वतंत्रता होगी या फिर वे स्वतंत्र रह सकते हैं। फिर माउंटबेटन ने अनुभव किया कि कांग्रेसी नेता, विशेषकर नेहरू और सरदार पटेल रियासतों की स्वतंत्रता को पसंद नहीं करते हैं। इसलिए उन्होंने राजाओं-महाराजाओं को समझाने का प्रयास किया कि वे केवल तीन क्षेत्रों- संचार, राजनय और प्रतिरक्षा में, जिनमें उनको पहले भी कोई अधिकार प्राप्त नहीं था, अपने अधिकार त्यागकर भारत में शामिल हो जायें। पटेल, जो अब नये राज्य विभाग के प्रमुख थे, इस योजना को मानने के लिए तैयार हो गये, बशर्ते वायसरॉय उन्हें ‘सेबों से भरी एक टोकरी’ दे दें। यह एक कठिन कार्य था क्योंकि जून के आरंभ तक भोपाल, त्रावनकोर, कश्मीर और हैदराबाद जैसी कुछ रियासतों ने स्वतंत्र रहने की इच्छा व्यक्त कर दी थी।

देसी रियासतों में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन (Indian National Movement in Princely States)
सरदार वल्लभभाई पटेल और रियासतों के प्रतिनिधि

अब वायसरॉय के पास उनकी बाँह मरोड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं था, क्योंकि उन्हें कांग्रेस को डोमिनियन स्टेट्स और विभाजन स्वीकार करने पर मनाना था। अंततः वायसरॉय और उनके मंत्रियों ने दबाव डालकर विलय को बढ़ावा दिया। अधिकांश रियासतों ने तीन विषयों- रक्षा, विदेशी मामले और संचार पर अपने अधिकारों का समर्पण कर भारत संघ में शामिल होने के विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। राजे-रजवाड़े विलय-पत्रों पर इसलिए हस्ताक्षर करने के लिए तैयार हो गये क्योंकि उनके समक्ष इसके अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था, और आंतरिक राजनैतिक संरचना में भी कोई परिवर्तन नहीं हो रहा था। लेकिन वायसरॉय पटेल को पूरी टोकरी देने में असफल रहे।

15 अगस्त 1947 तक अधिकांश रजवाड़े भारत में विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर चुके थे, लेकिन कश्मीर के राजा हरिसिंह और हैदराबाद ने स्वतंत्र रहने का निर्णय किया, जबकि जूनागढ़ ने पाकिस्तान में विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिये। फलतः इन मामलों में सरदार पटेल को राजसत्ता के अधिकार का दृढतापूर्वक प्रयोग करना पड़ा। जनता के विद्रोह और भारत सरकार द्वारा की गई नाकेबंदी के कारण विवश होकर जूनागढ़ का नवाब महाबत खाँ पाकिस्तान भाग गया। इसके बाद भारतीय सेना ने राज्य पर अधिकार कर लिया। कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने भी भारत या पाकिस्तान में शामिल होने में आनाकानी की, लेकिन जब कश्मीर पर पाकिस्तान के पठानों और कबाइली फौजी दस्तों ने हमला कर दिया, तो विवश होकर हरिसिंह को भी अक्टूबर 1947 में भारत में मिलने और विलय-पत्र पर हस्ताक्षर करने पर मजबूर होना पड़ा, और इस तरह 1948 के पहले भारत-पाक युद्ध का वातावरण तैयार हुआ।

उधर हैदराबाद के निजाम उस्मान अली की स्वतंत्रता की महत्वाकांक्षा को नष्ट करने के लिए आखिरकार ‘आपरेशन पोलो’ के तहत भारतीय टैंक सितंबर 1948 में हैदराबाद पहुँच गये और 13 दिसंबर 1948 को भारतीय सेना ने हैदराबाद पर नियंत्रण स्थापित कर लिया।

विभाजन और स्वतंत्रता के बाद भारत का एकीकरण और रियासत़ों की समस्या का ‘अंतिम समाधान’ सरदार पटेल और वी.पी. मेनन की कार्यनीतियों के कारण संभव हुआ। जिन छोटी-छोटी रियासतों ने तीन विषयों (रक्षा, विदेशी मामले और संचार) पर अपने अधिकारों का समर्पण कर भारत संघ में शामिल होने के विलय-पत्र पर हस्ताक्षर किये थे, अंततः उन रियासत़ों का प्रजातंत्रीकरण कर उन्हें साथ लगे प्रांतों में या संघीय केंद्र के अधीन शामिल कर लिया गया। अनेक राजाओं को करमुक्त विशेषाधिकार, राज्यपाल एवं राजप्रमुख के पद और अन्य लाभों के रूप में पेंशन देकर रियासत़ों से हटा दिया गया; कुछ को विदेश मिशनों में अधिकतर औपचारिक पद दे दिये गये, किंतु इसका अर्थ यह नहीं था कि वह सभी इस शांतिपूर्ण क्रांति में खुशी-खुशी शामिल हो गये।

भारत संघ में रियासतों के विलय का औचित्य

देसी रियासतों में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन (Indian National Movement in Princely States)
सरदार पटेल और वी.पी. मेनन

रियासतों के विलय और उसके औचित्य पर इतिहासकार एकमत नहीं हैं। कुछ इतिहासकारों ने संधियों के कारण ब्रिटिश सम्राट पर न्यायोचित संधिजनित दायित्वों के एकतरफा हनन की नैतिकता, शुचिता और वैधता पर सवाल उठाये हैं और राजाओं के प्रति आरंभ में माउंटबेटन के लापरवाह रवैये और बाद में उनसे दबंग व्यवहार की आलोचना की है। कुछ अन्य इतिहासकारों को अक्खड़ रियासतों को अपनी टोकरी में लाने के लिए पटेल द्वारा अपनाये गये तरीके भी ‘संदिग्ध वैधता’ से संपन्न लगते हैं। लेकिन अधिकांश इतिहासकार मानते हैं कि देसी रियासतों का अंत ऐतिहासिक दृष्टि से परिहार्य था, क्योंकि निरंकुश शासन पहले ही अतीत के अवशेष हो चुके थे और वे एक नया जीवन पाने की पात्रता नहीं रखते थे। दूसरे शब्दों में ‘दो अलग-अलग भारतों के विरोधाभास का मरना स्पष्ट तौर पर अनिवार्य था।’ इसलिए नये स्वतंत्र भारत में असहाय देसी राजाओं के लिए कोई जगह नहीं रह गई थी।

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