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1909 का भारतीय परिषद् अधिनियम
1892 के भारतीय परिषद् अधिनियम के सत्तरह वर्ष बाद एक और अधिनियम पारित किया गया, जिसे ‘1909 का भारतीय परिषद् अधिनियम’ कहते हैं। इस अधिनियम के जन्मदाता भारत सचिव मार्ले तथा गवर्नर जनरल लॉर्ड मिंटो थे, इसलिए इसे ‘मार्ले-मिंटो सुधार’ के नाम से भी जाना जाता है। यद्यपि यह अधिनियम भारत के संवैधानिक विकास में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन करने में असफल रहा, किंतु इसने भारत को स्वशासन की सड़क के प्रथम चरण तक पहुँचा दिया।
अधिनियम पारित होने के कारण
1892 का अधिनियम भारतीय आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सका। व्यवस्थापिका सभा एक परामर्शदात्री संस्था बनकर रह गई थी। परिषदों के अतिरिक्त गैर-सरकारी सदस्यों की वृद्धि और निर्वाचन की व्यवस्था दिखावा मात्र थी। उनके अधिकार क्षेत्र बहुत सीमित थे और उनके सदस्यों की शक्ति पर विभिन्न प्रकार के प्रतिबंध थे। इसलिए 1892 के अधिनियम से भारतीयों को बहुत निराशा हुई और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने और अधिक सुधारों के लिए आंदोलन शुरू कर दिये।
ब्रिटिश सरकार के हठवादी रवैये के कारण पूरे देश में राजनीतिक असंतोष और अशांति फैल गई थी। राष्ट्रीय आंदोलन पर गरमवादी नेताओं का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। सेक्रेटरी ऑफ स्टेट लॉर्ड मार्ले तथा भारत में वायसरॉय लॉर्ड मिंटो दोनों ही सहमत थे कि इस अशांति को दूर करने के लिए शासन में सुधार लाना आवश्यक हो गया है।
अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भारतीयों में असंतोष तो था ही, अकाल और प्लेग ने आग में घी का काम किया। 1895-96 में अकाल के कारण हजारों लोग अकाल काल-कवलित हो गये। 1897 में प्लेग की महामारी फैली जिसमें सरकारी रिपोर्ट के अनुसार लगभग दो लाख लोग मृत्यु की भेंट चढ़ गये। अंग्रेज सैनिकों ने प्लेगग्रस्त लोगों को सहायता देने के बजाय अपमानजनक व्यवहार किया, जिससे जनता में विद्रोह की आग भड़क उठी। महाराष्ट्र के प्लेग कमिश्नर मि. रैंड और एक सैन्य अधिकारी मि. आयर्स्ट की गोली मारकर हत्या कर दी गई। दामोदर को इस अपराध के लिए मृत्युदंड दिया गया और लोकमान्य तिलक को अपने भाषणों और लेखों द्वारा भारतीय जनता को भड़काने के आरोप में अठारह माह के कारावास की सजा मिली। इन घटनाओं से भारतीय जनता के असंतोष में और अधिक वृद्धि हुई।
लॉर्ड कर्जन की साम्राज्यवादी तथा प्रतिक्रियावादी नीतियों ने भारत में राजनीतिक अशांति फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसने प्रशासनिक कार्यकुशलता के नाम पर राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने के लिए कलकत्ता निगम अधिनियम (1899), भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम (1904) और बंगाल का विभाजन (1905) आदि कई ऐसे कदम उठाये, जिससे राष्ट्रवादियों की भावनाओं को गहरी चोट लगी। 1904 में उसने घोषणा की कि ‘सिविल सर्विसेज के उच्च पदों पर केवल अंग्रेज ही नियुक्त किये जाने चाहिए, क्योंकि शासक जाति का सदस्य होने के नाते वे भारतीयों से अधिक योग्य एवं श्रेष्ठ होते हैं।’ 1905 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह के भाषण में उसने भारतीयों का अपमान किया।
कर्जन ने 16 अक्टूबर, 1905 को बंगाल का विभाजन कर दिया, जिसका सारे देश ने एक स्वर से विरोध किया। लॉर्ड मार्ले ने भी अपनी पुस्तक ‘रिकलैक्शंस’ में स्वीकार किया है कि ‘कर्जन के केंद्रीकरण की नीति में उदारपंथी सिद्धांतों, महारानी विक्टोरिया की घोषणा का उल्लंघन, भारतीय नैतिकता के विरुद्ध घृणास्पद शब्दों का व्यवहार तथा बंग-भंग जैसे कार्यों ने उसके शासनकाल को अत्यंत लोकप्रिय तथा क्रांतिपूर्ण बना दिया।
कुछ ऐसी राजनीतिक घटनाएँ घटीं, जिनका भारत के राष्ट्रीय आंदोलन पर व्यापक प्रभाव पड़ा। 1896 में छोटे से अबीसीनिया ने इटली को तथा 1905 में एशिया के छोटे से देश जापान ने रूस को पराजित कर दिया। इन घटनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया कि यूरोपियन शक्तियाँ अजेय नहीं हैं। इससे एशिया में एक नये युग का उद्भव हुआ और एशियावासियों के हृदय में एक नवीन चेतना का संचार हुआ। लॉर्ड कर्जन ने भी कहा था कि जापान की इस विजय की गूँज नवचेतना की अंगड़ाई लेती हुई पूर्व की गलियों में एक धमाके की तरह पहुँची है।
बीसवीं शताब्दी के आरंभ में भारत की आर्थिक दशा बहुत बिगड़ गई। भू-राजस्व में वृद्धि की गई और सिंचाई कर की दरें बढा दी गईं। उद्योग-धंधे नष्ट हो गये, जिससे आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ गये। शिक्षित नवयुवकों के लिए अच्छी नौकरी पाने के सभी रास्ते बंद थे। बढ़ती महँगाई के कारण मध्यम वर्ग के लोगों के लिए गुजारा करना कठिन हो गया। इससे भारतीयों में निराशा और असंतोष की भावना फैलने लगी थी।
राष्ट्रीयता के प्रवाह को रोकने के लिए अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई और मुसलमानों को प्रोत्साहित कर भारतीय राजनीति में सांप्रदायिकता का बीज बोया। आगा खाँ के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल 1 अक्टूबर, 1906 को मुसलमानों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व की माँग की, जिसे लॉर्ड मिंटो ने पूरा करने का वादा किया। वस्तुतः भारत में सांप्रदायिक निर्वाचन पद्धति का जन्मदाता लॉर्ड मिंटो ही था। ढाका में 30 दिसंबर, 1906 को मुस्लिम लीग की स्थापना हुई और लीग ने 1908 और 1909 में अपनी पृथक् निर्वाचनमंडल की माँगों को दुहराया। इस प्रकार सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के लिए भी सुधार की आवश्यकता थी।
ब्रिटिश सरकार ने एक ओर राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने के लिए मुसलमानों को हिंदुओं से पृथक् करने का प्रयास किया, तो दूसरी ओर उसने राजनीतिक अशांति को रोकने के लिए प्रतिक्रियावादी तथा दमनकारी नीति अपनाई, जिसके कारण नवयुवकों में क्रांति और आतंकवाद की भावना फैलने लगी थी। सरकार को लगा कि कांग्रेस की बागडोर गरमपंथियों के हाथों में जा सकती है, इसलिए उसने गैर-क्रांतिकारियों का मन जीतने के लिए संवैधानिक सुधार करना आवश्यक समझा।
1905 में कांग्रेस ने गोखले की अध्यक्षता में बनारस में एक प्रस्ताव पास किया था, जिसमें कहा गया था कि भारत का शासन भारतीयों के हित में होना चाहिए और कालांतर में भारत में भी उसी प्रकार का शासन स्थापित होना चाहिए, जैसाकि ब्रिटिश साम्राज्य के अन्य स्वशासित उपनिवेशों में है। कांग्रेस अध्यक्ष गोखले ने यह भी माँग की कि प्रांतीय तथा केंद्रीय विधान परिषदों में सुधार लाया जाना चाहिए।
दिसंबर, 1905 में इंग्लैंड में उदारपंथियों का मंत्रिमंडल बना, तो मार्ले भारत सचिव नियुक्त किया गया। वह वायसरॉय लॉर्ड मिंटो के साथ मिलकर भारत में तेजी से फैल रही अशांति को रोकना चाहता था। लॉर्ड मिंटो ने सुधार के संबंध में प्रस्ताव तैयार करने के लिए सर ए. एरण्डल की अध्यक्षता में एक कमेटी नियुक्त किया। मिंटो ने एरण्डल कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर एक प्रलेख मार्च, 1907 में भारत सचिव के पास भेजा। जॉन मार्ले ने प्रलेख में दिये गये सुझावों का निरीक्षण कर भारत सरकार को इन सुझावों के संबंध में प्रांतीय सरकारों की राय प्राप्त करने का निर्देश दिया। प्रांतों की राय के बाद भारत सरकार ने अपनी रिपोर्ट मार्ले के माध्यम से ब्रिटिश सरकार को भेज दिया। इन्हीं सुझावों के आधार पर फरवरी, 1909 में भारतीय परिषद् अधिनियम 1909 पारित किया गया, जिसे ‘मार्ले–मिंटो सुधार’ (Marley-Minto Reform) भी कहा जाता है। इस अधिनियम को 1910 में लागू किया गया।
मार्ले-मिंटो सुधार का उद्देश्य केवल परिषदों के अधिकार और उनके कार्य-क्षेत्र का विस्तार करना मात्र था। लॉर्ड मार्ले ने औपनिवेशिक स्वशासन के विचार पर अपनी स्वीकृति नहीं दी और गोखले को स्पष्ट बता दिया कि, ‘यह विचार चंद्रमा को लेने के लिए रोने जैसा है।’ 8 दिसंबर, 1908 को मार्ले ने लॉर्ड सभा में स्पष्ट कर दिया था कि, ‘इन सुधारों का उद्देश्य संसदीय प्रणाली की स्थापना कतई नहीं है।’
अधिनियम की प्रमुख धाराएँ
मार्ले-मिंटो सुधार भारत के संवैधानिक इतिहास में एक सीमा-चिन्ह है, जो भारत में प्रतिनिधि संस्थाओं के विकास की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। इसके द्वारा भारतीयों को न केवल विधि-निर्माण के क्षेत्र में, अपितु देश के नित्य-प्रति के प्रशासन में भी शामिल करने का प्रयास किया गया। इसके द्वारा केंद्रीय तथा प्रांतीय परिषदों की सदस्य संख्या एवं उनकी शक्तियों में भी वृद्धि की गई। इसमें कुछ निर्वाचित सदस्य लेने की व्यवस्था भी की गई।
मार्ले-मिंटो सुधार इसलिए भी महत्त्वपूर्ण थे कि इनमें सीमित मताधिकार और परोक्ष निर्वाचन के साथ-साथ मुसलमानों को पृथक् चुनाव प्रणाली और विशेष प्रतिनिधित्व देने का प्रयास किया गया, जिसके कारण भारत के राजनीतिक जीवन में एक नये युग का आरम्भ हुआ। अधिनियम की मुख्य धाराएँ निम्नलिखित थीं-
विधान परिषदों के आकार में वृद्धि
1909 के अधिनियम द्वारा इस अधिनियम के द्वारा केंद्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गई। सभी निर्वाचित सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से चुने जाते थे। स्थानीय निकायों से निर्वाचन परिषद् का गठन होता था। ये प्रांतीय विधान परिषदों के सदस्यों का चुनाव करती थी। प्रांतीय विधान परिषद् के सदस्य केंद्रीय व्यवस्थापिका के सदस्यों का चुनाव करते थे। केंद्रीय विधान परिषद् के अतिरिक्त सदस्यों की संख्या 16 से बढ़ाकर 60 कर दी गई। इसमें 27 निर्वाचति व 33 मनोनीत सदस्य थे। कार्यकारणी के 6 सदस्य, 1 सेनाध्यक्ष, 1 प्रांतीय गवर्नर व गवर्नर जनरल को मिलाकर 69 सदस्यों की केंद्रीय लेजिस्लेटिव कौंसिल की स्थापना की गई। बंगाल, संयुक्त प्रांत, बिहार, उड़ीसा, बंबई और मद्रास में विधान परिषद् के सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 50 और पंजाब, बर्मा, असम की विधान परिषद् के सदस्यों की संख्या 30 निश्चित की गई।
केंद्रीय विधान परिषद् में सरकारी बहुमत
केंद्रीय विधान परिषद् में चार प्रकार के सदस्य थे- पदेन सदस्य, नामजद सरकारी अधिकारी, नामजद गैर-सरकारी अधिकारी और निर्वाचित सदस्य। गवर्नर जनरल और उसकी कार्यकारिणी परिषद् के सभी सदस्य केंद्रीय विधान परिषद् के सदस्य थे, जो पदेन सदस्य कहे जाते थे। भारत सरकार जिन सरकारी अधिकारियों को केंद्रीय विधान परिषद् का सदस्य नामित करती थी, उन्हें नामजद सरकारी अधिकारी कहा जाता था। सरकार ऐसे व्यक्तियों को भी नामित करती थी, जो सरकारी अधिकारी नहीं होते थे, किंतु उनका जनता में बहुत अधिक प्रभाव होता था। वे सब नामजद गैर-सरकारी सदस्य कहलाते थे। जो व्यक्ति चुने जाते थे, उनको निर्वाचित सदस्य कहा जाता था। निर्वाचित सदस्य प्रायः चैंबर ऑफ कॉमर्स, जिला बोर्ड, नगरपालिकाओं और बडे़-बडे़ जमींदारों द्वारा चुने जाते थे।
केंद्रीय विधान परिषद् में सरकारी सदस्यों का बहुमत रखा गया, ताकि कानून बनाने में किसी प्रकार की कठिनाई न हो। अपने सुधार-संदेश में भारत सचिव ने लिखा था ‘आपकी परिषद् अपने विधि-निर्माण संबंधी तथा कार्यकारी, दोनों ही स्वरूपों की दृष्टि से ऐसी बनी रहनी चाहिए कि उसके पास सम्राट, सरकार और साम्राज्य की पार्लियामेंट के प्रति उन दायित्वों के, जो अब हैं और भविष्य में सदा रहने चाहिए, लगातार और बिना अड़चन के पूरा करने की शक्ति बनी रहे।’
केंद्रीय विधान परिषद् के 69 सदस्यों में से 37 सरकारी और 32 गैर-सरकारी सदस्य होते थे। 37 सरकारी सदस्यों में से 28 गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत होते थे और शेष नौ पदेन सदस्य होते थे। पदेन सदस्यों में गवर्नर नजरल, उसकी परिषद् के छः साधारण सदस्य तथा दो असाधारण सदस्य, प्रधान सभापति और जिस राज्य में परिषद् की बैठक हो रही हो, उसके अध्यक्ष होते थे। 32 गैर-सरकारी सदस्यों में से 5 गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत और शेष 27 निर्वाचित सदस्य होते थे। निर्वाचित सदस्यों के बारे में सरकारी प्रवक्ताओं का विचार था कि भारत में विभिन्न जातियों, उपजातियों, धर्मों और संप्रदायों के लोग निवास करते हैं, जिनके हित एक-दूसरे के विरोधी हैं, इसलिए भारतीय विधान परिषदों की रचना में निर्वाचन के सिद्धांत का उपयोग करने के लिए प्रतिनिधित्व वर्गों और हितों के आधार पर दिये जायें।
पहली बार पृथक् निर्वाचन व्यवस्था का प्रारंभ किया गया। मुसलमानों को प्रतिनिधित्व में विशेष रियायत दी गई। उन्हें केंद्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों में जनसंख्या के अनुपात से अधिक प्रतिनिधि भेजने का अधिकार मिला। फलतः केंद्रीय विधान परिषद् के 27 निर्वाचित सदस्य इस प्रकार लिये जाने थे- पाँच मुसलमानों द्वारा, छः हिंदू जमींदारों द्वारा, एक मुस्लिम जमींदार द्वारा, एक बंगाल के चैंबर ऑफ कॉमर्स द्वारा, एक बंबई के चैंबर ऑफ कॉमर्स द्वारा और शेष तेरह नौ प्रांतों के विधान परिषदों के गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा। इन सदस्यों की अवधि तीन वर्ष थी।
प्रांतीय विधान परिषदों में गैर-सरकारी बहुमत
प्रांतीय विधान परिषदों में गैर-सरकारी बहुमत स्थापित किया गया। केंद्रीय विधान परिषद् की तरह प्रांतीय विधान परिषदों में भी चार प्रकार के सदस्य थे- सरकारी, गैर-सरकारी, मनोनीत और निर्वाचित। प्रांतों की विधान परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत कई कारणों से हानिकारक नहीं था। एक, प्रांतीय विधान मंडलों की विधि-निर्माण संबंधी शक्तियां अत्यधिक सीमित तथा मर्यादित थीं। दूसरे, अगर कोई प्रांतीय परिषद् सरकार की इच्छा के विरुद्ध कानून बना देती, तो गवर्नर अपने निषेधाधिकार का प्रयोग कर उसे रद्द कर सकता था। तीसरे, गैर-सरकारी सदस्य विभिन्न हितों और वर्गों के प्रतिनिधि होने के कारण सरकार के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा नहीं बना सकते थे। चौथे, बंगाल के अलावा सभी प्रांतीय परिषदों में नामजद गैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत था, चुने हुए गैर-सरकारी सदस्यों का नहीं और सरकार को नामजद गैर-सरकारी सदस्यों की राजभक्ति पर पूरा विश्वास था।
नामांकित गैर-सरकारी सदस्यों के लिए विनियमों द्वारा कोई विशेष योग्यताएँ निर्धारित नहीं की गई थीं। नामांकन की व्यवस्था उन वर्गों तथा हितों को प्रतिनिधित्व देने के लिए की गई थी, जिन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हुआ था। निर्वाचित सदस्यों की योग्यताओं के संबंध में विस्तृत नियम बनाये गये थे। बंगाल, बंबई तथा मद्रास के केवल नगरपालिकाओं और जिला बोर्डों के सदस्य ही विधान परिषद् के सदस्य हो सकते थे, लेकिन उत्तर प्रदेश की परिषद् का सदस्य बनाने के लिए इस प्रकार की कोई शर्त नहीं थी।
प्रांतीय परिषदों की सदस्यता के लिए इच्छुक उम्मीदारों के लिए जायदाद संबंधी योग्यता निर्धारित की गई थी, किंतु ऐसे व्यक्ति निर्वाचन में भाग नहीं ले सकते थे जो- (1) ब्रिटिश प्रजाजन न हों, (2) सरकारी अधिकारी, (3) स्त्रियाँ, (4) पागल, (5) 23 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति, (6) दिवालिया और (7) पदच्युत किये गये सरकारी कर्मचारी। सरकार किसी को भी चुनाव लड़ने से रोक सकती थी। इस अधिकार का उपयोग राष्ट्रीय नेताओं को अयोग्य घोषित करने के लिए आसानी से किया जा सकता था। ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रीय नेताओं के लिए परिषदों का सदस्य बनना बहुत कठिन था। इसके अतिरिक्त, विशेष वर्गों के निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़नेवाले उम्मीदवारों से विशिष्ट योग्यताओं की आशा की जाती थी।
सीमित तथा भेदभावपूर्ण मताधिकार
1909 के अधिनियम द्वारा भारतीयों को परिषदों के चुनाव में भाग लेने का जो अधिकार दिया गया, वह अत्यंत समीति था। वह अनेक प्रकार के भेदभावों पर आधारित था और प्रत्येक प्रांत में भिन्न-भिन्न था। उदाहरणार्थ, केंद्रीय विधान परिषद् के चुनाव के लिए जमींदारों के चुनाव क्षेत्रों से वही जमींदार मत दे सकते थे, जिनकी बहुत अधिक आमदनी थी। मद्रास में यह अधिकार उनको दिया गया, जिनकी वार्षिक आय 15,000 थी या जो 10,000 रुपया वार्षिक भूमिकर देते थे। प्रांतीय परिषदों के सदस्य चुनने वाले मतदाताओं के लिए भी इसी प्रकार की कुछ कठोर योग्यताएँ निर्धारित की गई थीं। बंगाल में यह अधिकार उनको दिया गया, जिनके पास राजा या नवाब की उपाधि थी। मध्य प्रांत में यह अधिकार उनको मिला, जो ऑनेरेटी मजिस्ट्रेट थे। सुरेंद्रनाथ बनर्जी के अनुसार ‘कई चुनाव क्षेत्रों में मतदाताओं की संख्या 22 से अधिक नहीं होती थी, जबकि बडे़ से बडे़ चुनाव क्षेत्रों में मतदाताओं की संख्या 650 थी।’
केंद्रीय तथा प्रांतीय परिषदों के विभिन्न चुनाव क्षेत्रों तथा विभिन्न प्रांतीय परिषदों के लिए मताधिकार की योग्यताएँ एक-दूसरे से भिन्न थीं। मुसलमानों में भी मताधिकार की योग्यताएँ प्रत्येक प्रांत में भिन्न-भिन्न थीं। यही नहीं, मुसलमानों और गैर–मुसलमानों के मताधिकार की योग्यताओं में भी भिन्नता थी। जो मुसलमान हजार रुपये वार्षिक आमदनी पर आयकर देता था, भूमि कर देता था, उसे मत देने का अधिकार था, लेकिन इसके विपरीत तीन लाख की आमदनी पर कर देनेवाले किसी हिंदू, पारसी या ईसाई को यह अधिकार नहीं था। इसी प्रकार प्रत्येक ऐसे मुसलमान स्नातक को वोट देने का अधिकार था, जिसे बी.ए. पास किये पाँच वर्ष हुए हो, लेकिन यही अधिकार हिंदू, पारसी या ईसाई को नहीं था, चाहे उसे बी.ए. पास किये हुए बीस वर्ष ही क्यों न हो गये हों।
विधान परिषद् के कार्य-क्षेत्र का विस्तार
इस अधिनियम द्वारा विधान परिषदों के सदस्यों के कार्यों तथा अधिकारों में वृद्धि की गई। इसके पहले सदस्यों को पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं था, किंतु इस अधिनियम द्वारा मूल प्रश्न करने वाले सदस्य को पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया। स्पष्ट है कि दूसरे सदस्य पूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे। विधान परिषद् के सदस्यों को बजट पर बहस करने और प्रस्ताव पेश करने का अधिकार तो मिला, किंतु वे बजट पर मतदान नहीं कर सकते थे। सैनिक तथा कुछ अन्य विशेष मदों पर सदस्यों को बहस करने का अधिकार नहीं था। सदस्यों को सार्वजनिक हित-संबंधी प्रस्ताव प्रस्तुत करने तथा उस पर मत देने का अधिकार मिला, किंतु ऐसे प्रस्ताव पेश करने के लिए पंद्रह दिन पहले सूचना देना आवश्यक था। विधान परिषद् का अध्यक्ष किसी भी प्रस्ताव को बिना कारण बताये अस्वीकार कर सकता था। यही नहीं, वह सार्वजनिक हित का बहाना लेकर किसी भी प्रस्ताव को पेश करने से मना भी कर सकता था। यही नहीं, किसी प्रश्न-विशेष का उत्तर देने के लिए कार्यकारिणी बाध्य भी नहीं थी।
प्रांतीय परिषदों के आकार में वृद्धि एवं भारतीयों की नियुक्ति
सपरिषद् गवर्नर जनरल को भारत सचिव की स्वीकृति से बंगाल में कार्यकारिणी परिषद् का निर्माण करने का अधिकार दिए गया जिसमें अधिक से अधिक चार सदस्य हों। अन्य प्रांतों में भी कार्यकारिणी परिषद् का निर्माण किया जा सकता था, किंतु ब्रिटिश संसद ऐसा करने से रोक सकती थी। इस अधिनियम ने सरकार को अन्य कार्यकारिणी परिषदों की रचना करने की शक्ति इस शर्त पर प्रदान की कि पार्लियामेंट के दोनों सदनों में से कोई भी इसका निषेध (वीटो) कर सकता है। इस अधिनियम द्वारा भारत सचिव को बंबई तथा मद्रास की कार्यकारिणी परिषदों के सदस्यों की संख्या दो से बढ़ाकर चार कर देने का अधिकार मिल गया। इनमें से कम से कम आधे सदस्य अर्थात् दो सदस्य ऐसे होने चाहिए, जो कम से कम बारह वर्ष तक सम्राट की सेवा में भारत रह चुके हों।
इस अधिनियम में कार्यकारिणी परिषदों में भारतीयों की सम्मिलित करने की इच्छा व्यक्त की गई थी। परिषदों तथा ब्रिटिश नौकरशाही के विरोध के बावजूद भी ब्रिटिश मंत्रिमंडल ने इस संबंध में अपनी स्वीकृति दे दी। 1907 में भारत सचिव मार्ले ने दो भारतीयों- के.जी. गुप्ता और सैयद हुसैन बिलग्रामी को इंडिया कौंसिल का सदस्य नियुक्त किया था। अब गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में सर एस.पी. सिन्हा को कानून सदस्य नियुक्त किया गया। इस प्रकार 1907 में भारत मंत्री ने स्वयं अपनी परिषद् में दो भारतीयों को रखकर जो कदम उठाया था, उसकी अपेक्षा यह कदम निश्चित रूप से अधिक महत्त्वपूर्ण था।
सांप्रदायिक और पृथक् निर्वाचन पद्धति
इस अधिनियमम द्वारा सांप्रदायिक और पृथक् निर्वाचन प्रणाली को अपनाया गया। मुसलमानों को सामान्य निर्वाचन में भाग लेने का अधिकार दिया गया और साथ ही उन्हें पृथक् मत देने का अधिकार भी दिया गया। मुसलमानों को केंद्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषदों में उनकी जनसंख्या के अनुपात से अधिक सदस्य भेजने का अधिकार मिला। इसके अतिरिक्त उनको अपने प्रतिनिधि सीधे चुनकर भेजने का अधिकार दिया गया, परंतु हिंदुओं को इस प्रकार की कोई रियायत नहीं दी गई।
केंद्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषदों में मुसलमानों को अपने अलग प्रतिनिधित्व चुनने का अधिकार दिया गया। इतना ही नहीं, उनको पृथक् प्रतिनिधित्व देने के लिए विभिन्न व्यवस्थापिका सभाओं में स्थान सुरक्षित रखे गये। इसी प्रकार, जमींदारों, डिस्ट्रिक्ट बोर्डों, व्यापारियों एवं नगरपालिकाओं इत्यादि को भी पृथक् प्रतिनिधित्व दिया गया। इस प्रकार सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व तथा पृथक्-पृथक् प्रतिनिधित्व को मार्ले-मिंटो सुधार द्वारा औपचारिक मान्यता प्रदान की गई, जो बाद में भारत के लिए घातक सिद्ध हुई।
अधिनियम के दोष
भारतीय जनता देश में उत्तरदायी सरकार की स्थापना की माँग के लिए आंदोलन कर रही थी, लेकिन इन सुधारों से ‘पूरी वस्तु न देकर केवल उसकी छाया ही मिली।’ दरअसल मार्ले का उद्देश्य भारत में उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना था ही नहीं। दिसंबर, 1908 में उसने हाऊस ऑफ लार्ड्स में कहा था कि ‘मैं भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना की एक क्षण के लिए भी कामना नहीं करूँगा।’ 13 मई, 1909 को मार्ले ने एक बार फिर वही दोहराया, ‘हमारे जीवनकाल में और आगामी कई पीढ़ियों तक भारतवर्ष के लिए स्वराज्य प्राप्त करना असंभव है।’ वस्तुतः इन सुधारों द्वारा भारतीयों को जो चींजें दी गईं, वह बिल्कुल अर्थ-शून्य ‘केवल चंद्रमा की चमक की भाँति थे।’
रैम्जे मैक्डोनॉल्ड के अनुसार मार्ले-मिंटो सुधार जनवाद और नौकरशाही के बीच एक अधूरा और अल्पकालीन समझौता था। इन सुधारों का उद्देश्य कुछ भारतीय प्रतिनिधियों को संविधान-निर्माण और प्रशासन-कार्य में सहयोग प्राप्त कर एक प्रकार का संवैधानिक एक की स्थापना करना था। इन सुधारों द्वारा भारतीयों को अपने देश के शासन-प्रबंध में भाग लेने का अधिकार नहीं मिला। परिषदों में सदस्यों की संख्या बहुत बढ़ा दी गई, किंतु तत्काल एक चेतावनी भी दे दी गई कि नई परिषदों का अभिप्राय यह नहीं है कि संसदीय प्रणाली को आरंभ किया जाये।
इस अधिनियम ने भारतीय राष्ट्रीयता के प्रवाह को अवरुद्ध करने के लिए जान-बूझकर दो प्रमुख संप्रदायों- हिंदुओं और मुसलमानों में फूट का बीज बो दिए, जो 1947 में भारत-विभाजन का कारण बना। पृथक् निर्वाचन-प्रणाली द्वारा विभिन्न वर्गों, हितों तथा संप्रदायों में परस्पर फूट डालने का प्रयास किया गया, जिससे राष्ट्रीय एकता को गहरा आघात पहुँचा। भारत सचिव मार्ले ने वायसरॉय मिंटो को लिखा भी था कि पृथक् निर्वाचन क्षेत्र बनाकर हम ऐसे घातक विष के बीज बो रहे हैं, जिसकी फसल बड़ी कड़वी होगी। कुछ ही वर्षों में सिख, हरिजन, ऐंग्लो-इंडियन आदि संप्रदाय भी अपने हितों की रक्षा के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व की माँग करने लगे। अंग्रेजों ने भारतीय राष्ट्रवाद की बढ़ती हुई धार को कुंद करने के लिए एक संप्रदाय को दूसरे संप्रदाय के विरुद्ध खड़ा कर दिया, जिसके कारण राष्ट्रीय संगठन छिन्न-भिन्न होने लगा। जवाहरलाल नेहरू के अनुसार इससे पृथकतावादी प्रवृत्तियाँ पैदा हुईं तथा अंत में भारत के विभाजन की माँग की गई। गाँधीजी ने कहा कि मार्ले-मिंटो सुधारों ने हमारा सत्यानाश कर दिया। मुसलमानों को अलग प्रतिनिधित्व प्रदान करके उन्हें सदा के लिए भारत के अन्य नागरिकों से पृथक् कर दिया गया। आगा खाँ ने भी लिखा कि लॉर्ड मिंटो ने हमारी माँगों को स्वीकार करके ऐसी व्यवस्था का सूत्रपात किया, जो ब्रिटिश सरकार के भारत-संबंधी भावी संवैधानिक पगों का आधार बनी रही और जिसके अनिवार्य परिणामों के रूप में भारत का बँटवारा तथा पाकिस्तान का जन्म हुआ।
1909 के अधिनियम द्वारा अपनाई गई निर्वाचन व्यवस्था दोषपूर्ण थी। इसमें जनता को केंद्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषदों के लिए प्रतिनिधि भेजने का अधिकार नहीं था। इस अधिनियम के अनुसार मताधिकार का क्षेत्र सीमित था और मत देने का अधिकार बहुत थोडे़ लोगों को दिया गया था। मतदान-संबंधी अर्हताएँ इतनी कठोर थीं कि नये चुनाव क्षेत्रों में गिनती के कुछ व्यक्तियों को ही वोट देने का अधिकार था। केंद्रीय व्यवस्थापिका के सबसे बडे़ निर्वाचन क्षेत्र में केवल 650 मतदाता थे और सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में औसतन 22 मतदाता। प्रांतीय विधान परिषदों के निर्वाचन क्षेत्रों में भी मतदाताओं की कुल संख्या 100 से अधिक नहीं थी।
इसके अतिरिक्त केंद्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषदों की रचना के लिए निर्वाचन की पद्धति अप्रत्यक्ष या कभी-कभी दोहरी अप्रत्यक्ष अपनाई गई थी। नगरों या गाँवों में उपकरदाता नगरपालिकाओं या स्थानीय बोर्डों के लिए अपने प्रतिनिधियों का निर्वाचन करते थे। फिर वे सदस्य प्रांतीय परिषदों के सदस्यों का निर्वाचन करते थे। इस तरह से केंद्रीय विधान परिषद् में मत देने का अधिकार केवल प्रांतीय विधान परिषद् के सदस्यों को ही था। साधारण जनता इस मतदान में भाग नहीं ले सकती थी। फलतः मतदाताओं तथा प्रतिनिधियों के बीच संपर्क नहीं हो पाता था और व्यवस्थापिका सभा के कार्यों पर मतदाताओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था।
यद्यपि व्यवस्थापिका सभाओं के सदस्यों के आलोचना-संबंधी अधिकार बढ़ा दिये गये, किंतु मार्ले भारत में प्रजाात्मक प्रणाली को लागू किये जाने के पक्ष में नहीं था। वह चाहता था कि व्यवस्थापिका सभाएँ केवल परामर्शदात्री संस्था के रूप में रहें, न कि स्वतंत्र कानून बनानेवाली संस्था के रूप में। प्रांतीय समितियों के स्वतंत्र इकाइयों के रूप में विकसित होने की कोई भी आशा शेष नहीं रही, क्योंकि मार्ले ने अत्यधिक विकेंद्रीकरण की भावना को प्रोत्साहित किया। केंद्रीय तथा प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाएँ सच्ची प्रतनिध्यात्मक संस्थाओं का रूप नहीं ले सकीं। उत्तरदायी शासन की माँग करनेवाले भारतीयों के लिए यह निराशाजनक था।
1909 के सुधारों द्वारा भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना नहीं की गई, अपितु मुसलमानों को पृथक् प्रतिनिधित्व देकर उनका समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया गया जिससे यह स्पष्ट हो गया कि ब्रिटिश सरकार ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति पर चलते हुए भारत पर शासन करना चाहती है।
1909 के सुधारों द्वारा सभी संप्रदायों के मतदाताओं को समान अधिकार नहीं दिया गया। हिंदू मतदाताओं के लिए बहुत ऊँची योग्यता रखी गईं, जबकि मुसलमान मतदाताओं के लिए निम्नतम् योग्यता। मध्यवर्गीय मुस्लिम जमींदारों, भूमि-स्वामियों, व्यापारियों तथा स्नातकों को मत देने का अधिकार दिया गया, जबकि इन्हीं वर्गों के गैर-मुस्लिम लोगों को वोट देने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। पाँच वर्ष पुराने हर मुसमलान स्नातक को वोट देने का अधिकार था, किंतु 30 वर्ष पूराने हिंदू, पारसी और ईसाई स्नातकों को वोट का अधिकार नहीं दिया गया।
इस अधिनियम द्वारा बहुसंख्यक हिंदू संप्रदाय के साथ घोर अन्याय किया गया। जिन विधान परिषदों में हिंदुओं का बहुमत था, अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के नाम पर मुसलमानों को उनकी जनसंख्या के अनुपात से अधिक सदस्य भेजने का अधिकार दिया गया, लेकिन पंजाब, पूर्वी बंगाल तथा आसाम में, जहाँ हिंदू अल्पसंख्यक थे और मुसलमानों का बहुमत था, हिंदुओं को मुसलमानों जैसा कोई संरक्षण नहीं दिया गया। इसके अतिरिक्त मुसलमानों को तो अपने प्रतिनिधि सीधे चुनकर भेजने का अधिकार मिला, किंतु हिंदुओं को इस प्रकार की कोई सुविधा नहीं दी गई।
इस अधिनियम में भारतीय प्रशासन का अत्यधिक केंद्रीकरण कर दिया गया। प्रांतों पर केंद्र्र के नियंत्रण को शिथिल नहीं किया गया। राजस्व, प्रशासन तथा विधि निर्माण के क्षेत्र में सरकार का प्रांतों पर नियंत्रण पूर्ववत् बना रहा। केंद्रीकरण की प्रवृत्ति भविष्य में स्थानीय संस्थाओं तथा स्वशासन की प्रगति के मार्ग में बहुत बड़ी साधा सिद्ध हुई।
केंद्रीय विधान परिषद् में सरकारी सदस्यों की संख्या गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या से अधिक थी। वे सरकारी गुट के रूप में कार्य करते थे। वे अपनी इच्छानुसार वोट नहीं दे सकते थे, सरकार की आज्ञा के बिना न तो प्रश्न पूछ सकते थे, न कोई प्रस्ताव पेश कर सकते थे। मतदान के समय उन्हें सरकार के पक्ष में और गैर-सरकारी सदस्यों के विपक्ष में मत देना पड़ता था। पुन्निया ने सरकारी सदस्यों के कार्यों के विषय में टिप्पणी करते हुए लिखा है कि ‘गैर-सरकारी सदस्यों के भाषण चाहे कितने ही तर्कपूर्ण क्यों न हों और उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये सुझाव चाहे कितने ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हो, मतदान के समय ये सरकारी सदस्य सदा ही सरकार के पक्ष में तथा गैर-सरकारी सदस्यों के विपक्ष में वोट देते थे। निर्वाचित सदस्यों की उपस्थिति मखौल बन गई थी।’ 1910 में गोखले की शिकायत थी कि जब सरकार किसी विशेष रूख को अपनाने के लिए एक बार इरादा कर लेती है, तो फिर गैर-सरकारी सदस्य चाहे जितना कहें, उससे सरकार के रूख में कोई तबदीली नहीं आती है।
प्रांतीय विधान परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत था, किंतु इनकी कोई व्यावहारिक उपयोगिता नहीं थी। गैर-सरकारी सदस्य सदैव सरकार के इशारों पर नाचते थे और बराबर उसी का समर्थन करते थे। वे अधिक राजभक्ति दिखाकर अपने भविष्य को और अधिक उज्ज्वल बनाना चाहते थे। इसके अतिरिक्त गैर-सरकारी सदस्य परिषदों की बैठकों में उतने नियमित रूप से उपस्थित नहीं होते थे, जितने के सरकारी सदस्य। इससे परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों का पलड़ा और भी हल्का हो जाता था।
इस प्रकार मार्ले-मिंटो सुधार यद्यपि 1892 के पहले अधिनियम की अपेक्षा काफी आगे था, परंतु इसने कोई वास्तविक शक्ति प्रदान नहीं की। विधान परिषदों के सदस्यों की शक्तियाँ बहुत सीमित थीं। वे कार्यकारिणी से प्रश्न पूछ सकते थे, परंतु कार्यकारिणी के सदस्य उन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं थे। सदस्यों को सार्वजनिक मामलों पर प्रस्ताव पास करने का अधिकार था, किंतु उनके प्रस्ताव केवल सिफारिशें ही होती थीं। यह सरकार की इच्छा पर निर्भर था कि उनको माने या न माने। विधान-परिषदों के सदस्य बजट पर बहस कर सकते थे, परंतु केंद्रीय या प्रांतीय सरकार के एक रुपये पर भी उनका सीधा नियंत्रण नहीं था। मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य सरकारी सदस्यों के साथ ही रहते थे और इससे सरकार को कानून पारित करवाने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती थी। इसके अतिरिक्त गवर्नर जनरल इन सब मामलों पर वीटो का अधिकार भी प्राप्त था। सरकार भारतीय सदस्यों को बिल्कुल अंत में बोलने की आज्ञा देती थी और उनके विचारों की तनिक भी परवाह नहीं करती थी, इसलिए भारतीयों को बहुत दुःख होता था।
इस अधिनियम में ऐसे नियम और विनियम बनाये गये, जिनके कारण सदस्यों के अधिकार और सीमित हो गये। इन विनियमों द्वारा अनेक गरमवादी राष्ट्रीय नेताओं को चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया गया। फलतः इन सुधारों से विधान परिषदें रबर की मुहर बन गईं। ‘अमृत बाजार पत्रिका’ ने 17 नवंबर, 1909 को लिखा था, ‘शून्य के साथ यदि कोई शून्य जोड़ भी दिया जाए, तब भी वह शून्य, शून्य ही रहता है।’ वस्तुतः विधान सभाएँ जनता का प्रतिनिधित्व करनेवाले विधायकों के स्थान पर अजायबघर के रूप में बदल गई थीं।
इस प्रकार 1909 के सुधार के द्वारा केंद्रीय सरकार की नियंत्रण नीति को पुनः लागू कर दिया गया तथा स्थानीय सरकारों को पुनः याद दिला दिया गया कि उनके अफसर व्यवस्थापिका सभाओं में भारतीय सरकार के निश्चयों के संबंध में आलोचनात्मक रवैय्या न अपनायें। डॉ. जकारिया ने कहा कि इसमें एक ओर प्रगतिशील कदमों का समावेश किया गया था तथा दूसरी ओर उन पर इतने बंधन लगा दिये गये थे कि वे निरर्थक हो गये थे। प्रजातांत्रिक निर्वाचन सिद्धांत अप्रजातांत्रिक सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व से जुड़ा हुआ था, सरकारी बहुमत को समाप्त कर दिया गया था, फिर भी, निर्वाचित सदस्य अल्पमत में थे। परिषदों की सदस्य संख्या तथा अधिकार क्षेत्र में वृद्धि की गई थी, फिर भी, संसदीय सरकार की स्थापना नहीं की गई। कार्यकारिणी परिषदों में भारतीयों को स्थान दिया गया, फिर भी सत्ता अंग्रेजों के हाथ में रही।
अधिनियम का मूल्यांकन
मार्ले-मिंटो सुधार एकदम निरर्थक भी नहीं थे। यह अधिनियम 1892 के अधिनियम की अपेक्षा निःसंदेह एक प्रगतिशील कदम था। गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी और भारत सचिव की कौंसिल में भारतीयों को स्थान दिया गया। विधान परिषदों का विस्तार किया गया और इसके सदस्यों के अधिकारों में भी वृद्धि की गई। इस अधिनियम द्वारा अप्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया और विधान परिषद् के सदस्यों को सार्वजनिक हित के मामलों पर प्रस्तावों को प्रस्तुत करने का अधिकार दिया गया। भारतीयों को सरकार की आलोचना करने तथा सुझाव देने का अधिकार प्राप्त मिला, यद्यपि सरकार भारतीयों की बात को मानने के लिए बाध्य नहीं थी।
इन सुधारों के द्वारा भारतीयों को राजनीतिक परिषदों में सम्मिलित किया गया। वहाँ उन्होंने अपनी राजनीतिक योग्यता एवं उच्चकोटि की मानसिक क्षमता का प्रमाण दिये। इन प्रतिभाशाली गैर-सरकारी सदस्यों ने यह साबित कर दिया कि यदि उन्हें उचित अवसर दिया जाए, तो वे कौंसिलों में बहुत उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं। गवर्नर जनरल की परिषद् में भारतीयों को सम्मिलित किया जाना भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं था। इससे उन्हें प्रशासनिक कार्यों में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ और सरकार की गुप्त परिषदों में भी झाँकने का मौका मिला। इसके अतिरिक्त सदस्यों ने राष्ट्रीय विचारों के प्रचार के लिए इन परिषदों का सार्वजनिक मंच के रूप में प्रयोग किया।
इस अधिनियम ने भारतीय संविधान को उस स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया, जहाँ से पीछे जाना संभव नहीं था। यही कारण है कि 1917 में मॉण्टेंग्यू को यह घोषणा करनी पड़ी कि ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य भारत में धीरे-धीरे उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना है। अतः यह अधिनियम संवैधानिक विकास के दृष्टिकोण से भारतीय स्वशासन की दिशा में यह एक महत्त्वपूर्ण कदम था। लॉर्ड मार्ले ने ठीक कहा था कि यह ग्रेट ब्रिटेन और भारत के मध्य संबंधों के इतिहास में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अध्याय का आरंभ था और भारत के प्रति ब्रिटिश उत्तरदायित्व के इतिहास में एक नया पन्ना पलटने के समान था।
यह अधिनियम 1892 के अधिनियम से अधिक प्रगतिशील था, लेकिन ये परिवर्तन केवल मात्रा में थे, प्रकार में नहीं। यह सत्य है कि इन सुधारों द्वारा भारतीयों को शासन अधिकार-संबंधी विशेष रियायतें नहीं मिलीं, लेकिन यदि 1909 में ये सुधार न किये जाते, तो राष्ट्रीय आंदोलन का नियंत्रण अवश्य ही उदारपंथियों के हाथ से निकलकर गरमपंथियों के हाथ में चला जाता और ऐसी दशा में प्रजातांत्रिक स्वतंत्रता का भारत में नियमित ढंग से विकास न हो पाता।
इस अधिनियम के द्वारा भारतीयों को उत्तरदायी शासन का प्रशिक्षण भी प्रदान किया गया, जिसके बिना वे 1919 के अधिनियम के आधार पर स्थापित व्यवस्थापिकाओं का पूर्ण उपयोग करने में असमर्थ रहते। व्यापक दृष्टिकोण से ये सुधार स्वशासन की ओर बढ़ने के आवश्यक तथा उपयोगी चरण थे। यद्यपि विधान परिषद् के सदस्य सरकार से अपनी बात नहीं मनवा सकते थे, किंतु उन्होंने राष्ट्रीय विचारों का प्रचार करने के लिए इन विधान परिषदों का सार्वजनिक मंच के रूप में प्रयोग किया और जनता को जगाने में सफल रहे।
मार्ले-मिंटो सुधार नवंबर, 1910 में लागू किये गये, किंतु भारतीय जनता इनसे संतुष्ट नहीं हुई, क्योंकि इनके द्वारा भारतीयों को कोई वास्तविक शक्ति नहीं दी गई थी। इस अधिनियम की सबसे बड़ी कमी यह थी कि पृथक् अथवा सांप्रदायिक आधार पर निर्वाचन की पद्धति लागू की गई और जो चुनाव-पद्धति अपनाई गई, वह इतनी अस्पष्ट थी कि जन-प्रतिनिधित्व प्रणाली एक प्रकार की बहुत-सी छननियों में से छानने की प्रक्रिया बन गई।
केंद्र में सरकारी अधिकारियों का बहुमत था, जिसके कारण सरकार अपनी कोई भी बात आसानी से मनवा सकती थी। प्रांतों में भी सरकार नामित गैर-सरकारी अधिकारियों की सहायता से सभी कानूनों को सरलता से पारित करवा सकती थी। इसके अतिरिक्त, प्रांतीय परिषदों पर केंद्रीय सरकार का कठोर नियंत्रण था, जिसके परिणामस्वरूप वे अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकती थीं। चुनाव प्रणाली ऐसी थी कि चुने हुए सदस्य अपने-अपने संप्रदायों के हितों की रक्षा करने के लिए सरकार के अधिक से अधिक वफादार बनने का प्रयत्न करते थे। गवर्नर जनरल और गवर्नर अपने विशेषाधिकार (वीटो) का प्रयोग कर कुछ भी कर सकते थे।
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