गुर्जर प्रतिहार वंश (Gurjara Pratihara Dynasty)

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गुर्जर प्रतिहार वंश

हर्षोत्तरकाल में गुर्जरात्रा प्रदेश में प्रतिहार राजवंश का उदय हुआ, जो गुर्जरों की एक राजपूत शाखा से संबंधित होने के कारण गुर्जर-प्रतिहार के नाम से जाने जाते हैं। गुर्जरदेश या गुर्जरात्रा क्षेत्र का विस्तार राजस्थान राज्य के पूर्वी हिस्से और गुजरात राज्य के उत्तरी हिस्से तक था। यद्यपि गुर्जर प्रतिहारों की प्राचीनता पाँचवीं शताब्दी ईस्वी तक जाती है, किंतु छठी शताब्दी के प्रारंभ से गुर्जरों ने पंजाब, मारवाड़ और भडौंच में अपने राज्य स्थापित कर लिये थे।

गुर्जर प्रतिहार राजवंश ने आठवीं शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारंभ तक शासन किया। आरंभ में इनकी राजधानी मंडोर, भीनमल और अवंति (उज्जयिनी) रही, किंतु 836 ई. के आसपास इन्होंने कन्नौज को अपनी राजनीतिक सत्ता का केंद्र बनाया और नवीं शताब्दी के अंत के पहले ही इस राजवंश की शक्ति सभी दिशाओं में फैल गई थी।

गुर्जर प्रतिहारों की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने अरब आक्रांताओं के प्रसार को रोका और उनको सिंध से आगे नहीं बढ़ने दिया। इस प्रकार अरबों के प्रसार को रोककर गुर्जर प्रतिहारों ने वास्तव में भारत के प्रतिहारी (द्वार-रक्षक) का कार्य किया।

ऐतिहासिक साधन

प्रतिहार वंश के इतिहास की जानकारी अभिलेखों, साहित्यिक ग्रंथों तथा अरब लेखकों के विवरणों से मिलती है। प्रतिहार अभिलेखों में सर्वाधिक उल्लेखनीय मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति है। यद्यपि इसमें कोई तिथि अंकित नहीं है, फिर भी, यह प्रतिहार वंश के शासकों की राजनैतिक उपलब्धियों तथा उनकी वंशावली को जानने का मुख्य स्रोत है। इस राजवंश के राजाओं के अन्य अनेक लेख भी जोधपुर, घटियाला आदि स्थानों से मिले हैं, जिनसे गुर्जर प्रतिहारकालीन घटनाओं पर प्रकाश पड़ता है।

प्रतिहारों के समकालीन पाल तथा राष्ट्रकूट वंशों के लेखों से भी प्रतिहार शासकों के साथ उनके संबंधों का ज्ञान होता है। उनके सामंतों के कई लेख भी मिले हैं, जो उनके साम्राज्य-विस्तार तथा शासन-संबंधी घटनाओं पर प्रकाश डालते हैं।

प्रतिहार युग की अनेक साहित्यिक कृतियों से भी तत्कालीन राजनीति तथा संस्कृति का ज्ञान होता है। बाण ने अपनी रचना ‘हर्षचरित’ में गुर्जरों का उल्लेख किया है। संस्कृत का विद्वान् राजशेखर प्रतिहार शासकों- महेंद्रपाल प्रथम और उसके पुत्र महीपाल प्रथम के दरबार में रहा था। उसने अपने ग्रंथों- ‘काव्यमीमांसा’, ‘कर्पूरमंजरी’, ‘विद्धशालभंजिका’, ‘बालरामायण’ एवं ‘भुवनकोश’ में तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का वर्णन किया है। जयानक द्वारा रचित ‘पृथ्वीराजविजय’ से पता चलता है कि चहमान शासक दुर्लभराज प्रतिहार नरेश वत्सराज का सामंत था और उसकी ओर से पालों के विरुद्ध संघर्ष में शामिल हुआ था।

जैन लेखक चंद्रप्रभासूरि के ग्रंथ ‘प्रभाकर-प्रशस्ति’ से नागभट्ट द्वितीय के संबंध में कुछ सूचनाएँ मिलती हैं। कश्मीरी कवि कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ से मिहिरभोज की उपलब्धियों का ज्ञान प्राप्त होता है।

सुलेमान, अल्बरूनी, अलमसूदी जैसे अरब लेखकों के विवरणों से भी गुर्जर प्रतिहारों के इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ता है। अरब यात्रियों ने गुर्जर प्रतिहारों को ‘जुर्ज’ कहा है। सुलेमान ने मिहिरभोज की शक्ति एवं उसके राज्य की समृद्धि का विवरण दिया है। एक दूसरे लेखक अलमसूदी से, जो दसवीं शताब्दी के प्रारंभ में पंजाब आया था, महीपाल प्रथम के विषय में कुछ रोचक सूचनाएँ मिलती हैं। उसने गुर्जर प्रतिहार शासक को ‘अल-गुजर’ और राजा को ‘‘बरूआ’ कहकर संबोधित किया है। प्रायः सभी मुसलमान लेखकों ने प्रतिहारों की शक्ति, देशभक्ति और उनकी समृद्धि की प्रशंसा की है।

गुर्जर प्रतिहार वंश की उत्पत्ति

विभिन्न राजपूत राजवंशों की उत्पत्ति की तरह गुर्जर-प्रतिहार वंश की उत्पत्ति और इनके नाम में ‘गुर्जर’ शब्द का अर्थ इतिहासकारों के बीच विवाद का विषय रहा है। कुछ इतिहासकार गुर्जर-प्रतिहारों को अन्य राजपूतों की तरह विदेशी मानते हैं, जबकि अधिकांश विद्वानों की धारणा है कि गुर्जर-प्रतिहार भारतीय थे।

विदेशी उत्पत्ति

राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति के समर्थक विद्वानों, जैसे- कैम्पबेल और जैक्सन आादि ने गुर्जर-प्रतिहारों को ‘खजर’ नामक जाति की संतान बताया है, जो छठी शताब्दी ईस्वी के आसपास हूणों के साथ भारत में आई थी। किंतु खजर नामक किसी विदेशी जाति के विषय में किसी भारतीय अथवा विदेशी साक्ष्य से कोई सूचना नहीं मिलती है।

चंदबरदाई के पृथ्वीराजरासो में प्रतिहारों और तीन अन्य राजपूत राजवंशों की उत्पत्ति माउंट आबू में एक यज्ञ-अग्निकुंड से बताई गई है। इस अग्निकुंड-संबंधी मिथक के आधार पर कर्नल टाड जैसे इतिहासकारों का विचार है कि विदेशी जातियों को अग्नि-अनुष्ठान में शुद्ध करने के बाद हिंदू जाति व्यवस्था में शामिल किया गया था।

किंतु पृथ्वीराजरासो में अग्निकुल के राजपूतों की जो कथा मिलती है, उसकी ऐतिहासिकता संदिग्ध है। अग्निकुंड-संबंधी कथा का उल्लेख रासो की प्राचीन पांडुलिपियों में नहीं मिलता है। इस प्रकार प्रतिहारों के विदेशी मूल की उत्पत्ति का कोई निर्णायक प्रमाण नहीं है।

भारतीय उत्पत्ति

सी.वी. वैद्य, जी.एस. ओझा, दशरथ शर्मा जैसे अधिकांश भारतीय विद्वान् अन्य राजपूतों की तरह गुर्जर प्रतिहारों को भी भारतीय मानते हैं। इस राजवंश के शासकों ने अपने कबीले के लिए ‘प्रतिहार’ पदनाम का प्रयोग किया है। किंतु नीलकुंड, राधनपुर तथा देवली शिलालेखों में प्रतिहारों को ‘गुर्जर’ कहा गया है। गुर्जर का अर्थ है- ‘गुर्जर देश का प्रतिहार अर्थात् शासक’। वास्तव में ‘गुर्जर’ शब्द स्थानवाचक है, जातिवाचक नहीं। पुलकेशिन् द्वितीय के ऐहोल लेख में पहली बार ‘गुर्जर’ जाति का उल्लेख मिलता है। यदि गुर्जर जाति बाहर से आकर भारतीय समाज में समाहित हुई होती, तो उसका कोई न कोई साक्ष्य अवश्य मिलता।

प्रतिहार अपनी पैतृक परंपरा ‘हरिश्चंद्र’ नामक ब्राह्मण से भी जोड़ते हैं और तैत्तिरीय ब्राह्मण में प्रतिहारी नामक वैदिक याजकों का उल्लेख मिलता है। इस आधार पर प्रतिहारों को ब्राह्मण मूल का माना जा सकता है।

किंतु ग्वालियर अभिलेख के अनुसार प्रतिहार शासक अपने को पौराणिक नायक लक्ष्मण के वंश से संबंधित करते हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने भाई राम के लिए प्रतिहार (द्वार-रक्षक) के रूप में काम किया था। राजशेखर भी अपने संरक्षक महेंद्रपाल को ‘रघुकुल तिलक’ और ‘रघुग्रामिणी’ तथा महिपाल को ‘रघुवंश मुक्तामणि’ की उपाधि दी है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी ‘गुर्जर’ (कु-चे-लो) राज्य और उसकी राजधानी ‘भीनमाल’ (पि-लो-मो-ली) की चर्चा करते हुए उसके नरेश को ‘क्षत्रिय’ बताया है।

संभवतः कालांतर में गुर्जरों ने ‘क्षात्र-धर्म’ ग्रहण कर लिया था। अनेक आधुनिक विद्वानों की भी धारणा है कि आठवीं शताब्दी के मध्य के लगभग प्रतिहारों के पूर्वज राष्ट्रकूट शासकों के अधीन उज्जैन में प्रतिहार के पद पर काम करते थे, इसलिए इस राजवंश को प्रतिहार कहा जाने लगा। इस प्रकार गुर्जर-प्रतिहार विदेशी नहीं, अपितु प्राचीन भारतीय सूर्यवंशी क्षत्रिय या बह्मक्षत्रियों की संतान थे।

प्रतिहारों का आदि स्थान

गुर्जर प्रतिहारों का मूलस्थान निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। प्रतिहार राजाओं के जोधपुर और घटियाला शिलालेखों से लगता है कि गुर्जर प्रतिहारों का मूलस्थान गुर्जरात्र था। ह्वेनसांग के विवरण के आधार पर स्मिथ जैसे कुछ इतिहासकार मानते हैं कि प्रतिहारों का मूलस्थान आबू पर्वत के उत्तर-पश्चिम में जालोर क्षेत्र में स्थित भीनमल था और गुर्जर प्रतिहारों ने यहीं से अपनी सत्ता का प्रारंभ किया था। हरिश्चंद्र रे जैसे कुछ विद्वानों के अनुसार इनकी सत्ता का प्रारंभिक केंद्र मांडवैपुरा (मंडोर) था।

किंतु अधिकांश विद्वानों का अनुमान है कि गुर्जर प्रतिहारों का मूलस्थान उज्जयिनी (अवंति) था। वास्तव में प्रतिहारों का संबंध अवंति से ही रहा होगा, क्योंकि एक जैन ग्रंथ ‘हरिवंश पुराण’ में प्रतिहार शासक वत्सराज का संबंध अवंति से बताया गया है।

प्रतिहारों वंश का आरंभिक इतिहास

गुर्जर प्रतिहार वंश (Gurjara Pratihara Dynasty)
कन्नौज के लिए त्रिपक्षीय संघर्ष और प्रतिहार राज्य की सीमाएँ

स्रोतों से ज्ञात होता है कि गुर्जर प्रतिहारों की 26 शाखाएँ थीं, जिनमें मंडोर के प्रतिहारों की शाखा सबसे प्राचीन थी। जोधपुर और घटियाला शिलालेखों के अनुसार गुर्जर प्रतिहार वंश का आदि पुरुष हरिश्चंद्र था, जिसने सर्वप्रथम मांडवैपुरा (मंडोर) को जीतकर गुर्जर प्रतिहार राजवंश की राजधानी को स्थापित किया था।

प्रतिहार वंश की शाखाएँ

आदि पुरुष हरिश्चंद्र की दो पत्नियाँ थी- एक क्षत्राणी भद्रा और दूसरी ब्राह्मणी। इन दोनों पत्नियों की संतानों ने क्रमशः मंडोर और मालवा में गुर्जर प्रतिहारों की दो शाखाएँ स्थापित की। इस प्रकार क्षत्रिय पत्नी भद्रा से उत्पन्न पुत्र मंडोर में शासन करने लगे, जबकि ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न पुत्र उज्जैन में।

क्षत्रिय पत्नी भद्रा के चार पुत्र थे- भोगभट्ट, कद्दक, रज्जिल और दह। किंतु मंडोर की वंशावली उसके तीसरे पुत्र रज्जिल से ही प्रारंभ होती है।

मंडोर के प्रतिहार वंश के दसवें शासक शीलुक ने वल्ल देश के शासक भाटी देवराज को पराजित किया। उसकी भाटी वंश की महारानी पद्मिनी से बाउक और दूसरी रानी दुर्लभदेवी से कक्कुक नाम के दो पुत्र पैदा हुए।

बाउक ने 837 ई. की जोधपुर प्रशस्ति में अपने वंश का विवरण अंकित करवाया और उसे मंडोर के एक विष्णु मंदिर में स्थापित किया था। कक्कुक ने दो शिलालेख उत्कीर्ण करवाये, जो घटियाला के लेख के नाम से प्रसिद्ध हैं। उसके द्वारा घटियाला और मंडोर में जयस्तंभ भी स्थापित किये गये थे।

अंततः प्रतिहार शासक नागभट्ट प्रथम के समय गुजरात तक साम्राज्य-विस्तार होने के कारण मंडोर और मालवा की दोनों शाखाएँ एक हो गईं और प्रतिहार राज्य की राजधानी (भीनमाल) कर दी गई।

कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार

नागभट्ट प्रथम (730-760 ई.)

गुर्जर प्रतिहार वंश का संस्थापक नागभट्ट प्रथम (730-760 ई.) था। वह संभवतः भीनमाल के चावड़ा शासक चावदास का सामंत था। लगता है कि सिंध के अरबों के आक्रमणों के कारण चावड़ा साम्राज्य का पतन हो गया और नागभट्ट को अपनी सत्ता के विस्तार का अवसर मिल गया। उसने अपनी शक्ति को सुदृढ़ कर मेड़ता तथा भीनमाल पर अधिकार कर लिया और मालवा तथा भड़ौच तक के क्षेत्रों को जीत लिया। ह्वेनसांग ने भीनमल के गुर्जर राज्य का उल्लेख किया है।

मिहिरभोज के ग्वालियर अभिलेख से पता चलता है कि गुर्जर प्रतिहार सम्राट नागभट्ट ने शक्तिशाली म्लेच्छ शासक की विशाल सेना को नष्ट किया था। वास्तव में आठवीं शताब्दी में अरब आक्रमणकारी सिंध और मुल्तान पर अधिकार कर चुके थे। संभवतः सिंध के अरब राज्यपाल जुनैद के नेतृत्व में अरब सेना ने आगे बढ़कर मालवा, जुर्ज और अवंति पर आक्रमण किया, लेकिन नागभट्ट प्रथम अरबों को आगे बढ़ने से रोक दिया था और उनके द्वारा रौंदे हुए अनेक प्रदेशों को पुनः जीत लिया।

ग्वालियर अभिलेख में कहा गया है कि वह म्लेच्छ राजा की विशाल सेना को नष्ट करने और लोगों की रक्षा के लिए विष्णु के रूप में उपस्थित हुआ था। मुस्लिम लेखक अल् बिलादुरी के विवरण से पता चलता है कि जुनैद को मालवा (उज्जैन) के विरुद्ध सफलता नहीं मिल सकी थी।

ऐसा लगता है कि नागभट्ट ने अरबों को पराजित कर भड़ौच के आस-पास का क्षेत्र छीन लिया और अपनी ओर से चहमान सामंत भर्तृवड़ढ (द्वितीय) को वहाँ का शासक नियुक्त किया। इसकी पुष्टि हंसोट अभिलेख से होती है, जो नागभट्ट के समय में जारी करवाया गया था। इसके पहले अरबों ने जयभट्ट को पराजित कर भड़ौच पर अपना अधिकार कर लिया था। किंतु नागभट्ट ने पुनः भड़ौच पर अपना अधिकार स्थापित कर भतृवड्ढ को शासक बनाया। इस प्रकार नागभट्ट ने गुजरात तथा राजपूताना के एक बड़े भाग को जीत कर अवंति (उज्जैन) में अपनी राजधानी की स्थापना की और अरब आक्रमणकारियों को पराजित कर उनकी विस्तारवादी महत्वाकांक्षा को नियंत्रित किया। संभवतः इसीलिए नागभट्ट प्रथम को ‘नागावलोक’ एवं ‘मलेच्छों का विनाशक’ कहा गया है।

नागभट्ट प्रथम विद्वानों और कलाकारों का संरक्षक था। उसने जैन विद्वान् यक्षदेव को अपने दरबार में संरक्षण दिया था।

ककुस्थ और देवराज (760-775 ई.)

नागभट्ट प्रथम के पश्चात् उसका भतीजा ककुस्थ (कक्कुक) प्रतिहार वंश की गद्दी पर बैठा। ग्वालियर लेख में उसे ‘वंश के यश को बढ़ाने वाला’ कहा गया है, किंतु लगता है कि वह एक साधारण शासक था।

ककुस्थ के बाद उसका छोटा भाई देवराज प्रतिहार वंश का शासक हुआ। यद्यपि इसकी किसी विशेष उपलब्धि के संबंध में कोई जानकारी नहीं है, किंतु मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति से पता चलता है कि उसने बहुसंख्यक भूभृतों तथा उनके शक्तिमान समर्थकों की गति को समाप्त कर दिया था। इससे लगता है कि संभवतः वह अपने शत्रुओं को पराजित करने में सफल हुआ था।

ककुस्थ और देवराज ने संभवतः 760 ई. से 775 ई. तक शासन किया। इसके बाद देवराज की पत्नी भूयिकादेवी से उत्पन्न पुत्र वत्सराज प्रतिहार वंश की गद्दी पर बैठा।

वत्सराज (775-800 ई.)

गुर्जर-प्रतिहार वंश का चतुर्थ नरेश वत्सराज (775-800 ई.) देवराज का पुत्र था। इस शक्तिशाली शासक को प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जा सकता है। वत्सराज ने अपने समकालीन अनेक राज्यों के विरूद्ध सैनिक अभियान किया और अपने वंश के गौरव को स्थापित करने का प्रयास किया।

ग्वालियर अभिलेख से पता चलता है कि वत्सराज ने प्रसिद्ध भंडीवंश को पराजित कर उसके राज्य को छीन लिया। कुछ विद्वान् इस वंश की पहचान हर्ष के ममेरे भाई भंडि द्वारा स्थापित वंश से करते हैं। लेकिन यह संदिग्ध है क्योंकि यह निश्चित नहीं है कि भंडि ने कोई स्वतंत्र वंश अथवा राज्य स्थापित किया था।

कुछ अन्य इतिहासकार भंडीवंश को जोधपुर लेख में उल्लिखित भट्टिकुल से जोड़ते हैं, जो प्रतिहार शासक बाउक की माता पद्मिनी से संबंधित था। इससे लगता है कि वत्सराज ने जोधपुर पर अधिकार कर लिया, जिससे प्रतिहारों की दोनों शाखाएँ एक हो गईं।

इसकी पुष्टि दौलतपुर और ओसिया लेख से भी होती है, जिसके अनुसार वत्सराज ने भट्टियों को पराजित कर गुर्जरता अथवा मध्य राजपूताना पर अधिकार कर लिया था। जिनसेन के ‘हरिवंश पुराण’ में वत्सराज को पश्चिमी क्षेत्र का स्वामी बताया गया है।

त्रिकोणीय संघर्ष

इस समय कन्नौज उत्तर भारत की राजनीति का केंद्र बन चुका था। इसलिए कन्नौज पर अधिकार करने के लिए त्रिकोणीय संघर्ष आरंभ हुआ। इस त्रिपक्षीय संघर्ष में पश्चिम और उत्तर क्षेत्र से गुर्जर प्रतिहार, पूर्व से बंगाल के पाल नरेश और दक्कन के राष्ट्रकूट शामिल थे।

त्रिकोणीय संघर्ष का आरंभ वत्सराज ने किया, जब उसने बंगाल के पाल शासक को पराजित कर कन्नौज के आयुधवंशीय इंद्रायुध को अपने अधीन कर लिया। राष्ट्रकूट नरेश गोविंद तृतीय के राधनपुर से प्राप्त अभिलेख से भी ज्ञात होता है कि वत्सराज ने गौड़ देश के शासक को पराजित किया था। इसके अनुसार ‘मदांध वत्सराज ने गौड़ की राजलक्ष्मी को आसानी से हस्तगत कर उसके दो राजछत्रों को छीन लिया था।’

जयानककृत पृथ्वीराजविजय से भी पता चलता है कि उसके चहमान वंश के सामंत दुर्लभराज ने गौड़ देश पर आक्रमण कर विजय प्राप्त किया था।

कुछ इतिहासकार मानते हैं कि प्रतिहारों और पालों के बीच संघर्ष दोआब में कहीं हुआ था और प्रतिहार सेनाएँ बंगाल में नहीं घुसी थीं। जो भी हो, बंगाल-विजय वत्सराज की सबसे बड़ी सफलता थी। यह पराजित नरेश पालवंशी शासक धर्मपाल था। अब वत्सराज उत्तर भारत के एक विशाल भूभाग का स्वामी बन बैठा।

अभी प्रतिहार शासक वत्सराज और पाल शासक धर्मपाल का संघर्ष समाप्त ही हुआ था कि दक्षिण के राष्ट्रकूट शासक ध्रुव धारावर्ष (780-793 ई.) ने 786 ई. के आसपास मालवा में नर्मदा नदी को पार किया और वत्सराज को बुरी तरह पराजित किया। पराजित वत्सराज ने भागकर राजपूताना के मरुदेश में शरण ली। राधनपुर तथा बनी दिंदोरी के राष्ट्रकूट लेखों से पता चलता है कि ध्रुव ने वत्सराज को पराजित करने के साथ-साथ उन दोनों श्वेत राजछत्रों को भी हस्तगत कर लिया, जिन्हें उसने गौड़नरेश से छीना था। उसने वत्सराज द्वारा गौड़ नरेश के जीते क्षेत्रों पर भी अधिकार कर लिया और वत्सराज को पुनः अपने पुराने क्षेत्र जालोर से शासन करना पडा।

संजन तथा सूरत अभिलेखों से संकेत मिलता है कि ध्रुव के वापस लौटने के बाद पाल नरेश धर्मपाल ने कन्नौज के शासक इंद्रायुध को हटाकर उसके स्थान पर चक्रायुध को अपने अधीन शासक के रूप में नियुक्त किया। उसने कन्नौज में एक दरबार किया, जिसमें उत्तर भारत के अधीनस्थ राजाओं ने भाग लिया। इसमें वत्सराज को भी उपस्थित होना पड़ा तथा उसकी स्थिति अधीन शासक जैसी हो गई।

वत्सराज का शासनकाल कला और संस्कृति के विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसके काल में उद्योतन सूरी ने ‘कुबलयमाला’ और आचार्य जिनसेन सूरी ने ‘हरिवंश पुराण’ की रचना की। इसी नरेश ने ओसिया में एक महावीर मंदिर का निर्माण भी करवाया था, जो पश्चिमी राजस्थान का सबसे प्राचीन मंदिर माना जाता है।

नागभट्ट द्वितीय (800-833 ई.)

वत्सराज के बाद उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय (800-833 ई.) गुर्जर-प्रतिहार वंश की गद्दी पर बैठा, जो सुंदरदेवी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। उसने अपने वंश की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया।

नागभट्ट को आरंभ में अपने पिता वत्सराज की भाँति राष्ट्रकूट नरेश गोविंद (793-814 ई.) के आक्रमण का सामना करना पड़ा। राष्ट्रकूट नरेश गोविंद ने अपने भाई इंद्र को गुजरात का राज्यपाल बनाकर नागभट्ट द्वितीय पर आक्रमण किया और मालवा पर अधिकार कर लिया। अमोघवर्ष के नीलगुंड शिलालेख (866 ई.) में उल्लेख है कि उसके पिता गोविंद तृतीय ने चित्रकूट के गुर्जरों को अपने अधीन किया था।

नागभट्ट और राष्ट्रकूट नरेश गोविंद के बीच युद्ध संभवतः बुंदेलखंड के किसी क्षेत्र में लड़ा गया था। आगे बढ़कर गोविंद ने चक्रायुध तथा धर्मपाल को भी पराजित किया और विजय करते हुए वह हिमालय तक जा पहुँचा। किंतु इस बार भी व्यक्तिगत कारणों से गोविंद को दक्षिण वापस लौटना पड़ा।

किंतु नागभट्ट अपनी पराजय से हताश नहीं हुआ। मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति के अनुसार उसने अपनी शक्ति को सृदृढ़ कर राष्ट्रकूटों से मालवा छीन लिया और आगे बढ़कर आध्र, सिंध, विदर्भ तथा कलिंग के राजाओं को पराजित कर अपने अधीन कर लिया। ग्वालियर प्रशस्ति में कहा गया है कि इन क्षेत्रों के राजाओं ने उसके सम्मुख उसी प्रकार आत्मसमर्पण कर दिया, जिस प्रकार से पतंग दीपशिखा के समक्ष करते हैं। संभव है कि पूर्व में पाल तथा दक्षिण में राष्ट्रकूटों की शक्ति से भयभीत होकर इन राज्यों ने प्रतिहार नरेश के समक्ष समर्पण किया हो।

ग्वालियर प्रशस्ति के अनुसार नागभट्ट ने चक्रायुध को पराजित कर कन्नौज पर अधिकार लिया। इसके बाद उसने आगे बढ़कर पाल नरेश धर्मपाल के विरुद्ध अभियान किया। मुंगेर के समीप एक युद्ध में उसने धर्मपाल के नेतृत्ववाली पाल सेना को पराजित किया। इस युद्ध में कक्क, बाहुक, धवल तथा शंकरगण उसके सामंतों ने भी भाग लिया था। चाट्सु लेख में कहा गया है कि शंकरगण ने गौड़नरेश को हराया और समस्त विश्व को जीतकर अपने स्वामी को समर्पित कर दिया। यहाँ स्वामी से तात्पर्य नागभट्ट से ही है। इस प्रकार चक्रायुध तथा पाल शासक धर्मपाल को पराजित कर नागभटृट द्वितीय ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया।

मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति में कहा गया है कि नागभट्ट द्वितीय ने आनर्त (उत्तरी काठियावाड़), किरात (हिमालय की तलहटी का वन प्रदेश), तुरुष्क (पश्चिमी भारत के मुस्लिम अधिकृत क्षेत्र), वत्स (प्रयाग और कौशांबी का क्षेत्र) और मत्स्य (पूर्वी राजपूताना) आदि पर बलपूर्वक अधिकार कर लिया। संभवतः शाकम्भरी के चाहमान शासक भी उसकी अधीनता स्वीकार करते थे।

वास्तव में नागभट्ट ने एक विशाल प्रतिहार साम्राज्य की स्थापना की, जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पश्चिम में गुजरात से लेकर पूरब में बंगाल तक विस्तृत था। अपनी महानता एवं पराक्रम को सूचित करने के लिए उसने ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ की उपाधि धारण की थी। नागभट्ट द्वितीय ने पश्चिम में पुनः अरबों के प्रसार को रोक दिया और गुजरात के सोमनाथ मंदिर का पुनः जीर्णोद्धार करवाया, जिसे अरब आक्रांताओं ने नष्ट कर दिया था। नागभट्ट ने 833 ई. में जलसमाधि लेकर अपनी जीवन-लीला को समाप्त कर दिया।

रामभद्र (834-840 ई.)

नागभट्ट द्वितीय के बाद उसका उत्तराधिकारी रामभद्र (834-840 ई.) हुआ, जो रानी इष्टदेवी से उत्पन्न हुआ था। उसे ‘राम’ तथा ‘रामदेव’ के नाम से भी जाना जाता है। रामभद्र ने भी अपने पिता की भाँति ‘महाराजा’, ‘महाराजाधिराज’, ‘परमेश्वर’ आदि उपाधियाँ धारण की थी।

मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति से पता चलता है कि रामभद्र के सामंत शासकों ने अपनी अश्व सेना के द्वारा घमंडी सेनानायकों को बंदी बना लिया था। इस शत्रु की पहचान पाल शासक से की जाती है। लगता है कि रामभद्र के समय में प्रतिहारों को पालों के हाथों पराजय उठानी पड़ी और अपने कुछ पूर्वी प्रदेशों को देवपाल को देने पड़े थे, क्योंकि नारायणपाल के बादल लेख से पता चलता है कि देवपाल ने गुर्जर राजाओं के घमंड को चूर-चूर कर दिया था। यहाँ गुर्जर राजाओं से तात्पर्य रामभद्र से ही लगता है।

संभवतः रामभद्र को तुरूष्कों तथा यवनों के आक्रमण का भी सामना करना पड़ा था, जिन्हें ग्वालियर प्रशस्ति में ‘क्रूर’ और ‘पापी’ कहा गया है। इतिहासकारों का अनुमान है कि तुरूष्कों के विरूद्ध युद्ध में ही रामभद्र को वीरगति मिली थी।

प्रतिहार सत्ता का चरर्मोत्कर्ष

मिहिरभोज या भोज प्रथम (836-885 ई.)

रामभद्र की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मिहिरभोज (836-885 ई.) उसका उत्तराधिकारी हुआ। उसका जन्म रामभद्र की पत्नी अप्पादेवी से हुआ था। उसे दौलतपुर लेख में ‘प्रभास’ और ग्वालियर चतुर्भज लेख में ‘आदिवराह’ भी कहा गया है।

मिहिरभोज के शासनकाल के संबंध में अभिलेखों और साहित्यिक स्रोतों से पर्याप्त जानकारी मिलती है। लेखों में बराह लेख, दौलतपुर अभिलेख, देवगढ़ स्तंभ शिलालेख, पहेवा लेख और चाट्सू अभिलेख अधिक महत्वपूर्ण हैं।

मिहिरभोज गुर्जर प्रतिहार वंश का सबसे प्रतापी और प्रभावशाली शासक था। इतिहासकारों ने उसके शासनकाल को प्रतिहार साम्राज्य के लिए स्वर्णकाल बताया गया है। अरब लेखकों ने भी मिहिरभोज के शासनकाल की समृद्धि की प्रशंसा की है।

मिहिरभोज की उपलब्धियों के संबंध में उसकी ग्वालियर प्रशस्ति में कहा गया है कि ‘अगस्त्य ऋषि ने तो केवल विंध्य पर्वत का विस्तार अवरूद्ध किया था, किंतु उसने (भोज ने) कई राजाओं पर आक्रमण कर उनका विस्तार रोक दिया।’ वास्तव में, मिहिरभोज ने राजा बनने के बाद अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए कलचुरि चेदि तथा गुहिलोत वंशों के साथ मैत्री-संबंध स्थापित किया। अपनी शक्ति को सुदृढ़ कर मिहिरभोज ने मध्य भारत तथा राजपूताना के प्रांतों को पुनः अपने अधीन किया।

उत्तर भारत में किये गये उसके अभियानों में गुहिलवंशी हर्षराज, जो उसका एक सामंत था, ने भोज की सहायता की थी। चाट्सु लेख के अनुसार हर्षराज ने उत्तर भारत के राजाओं को पराजित कर भोज को घोड़े उपहार में दिये थे। कलचुरिवंशी गुणांबोधिदेव भोज का सामंत था।

पहेवा (पूर्वी पंजाब) लेख से सूचित होता है कि हरियाणा प्रदेश उसके राज्य में शामिल था। भोज का एक खंडित लेख दिल्ली में पुराना किला से मिला है, जो इस क्षेत्र पर उसके अधिकार का सूचक है। देवगढ़ (झांसी) तथा ग्वालियर के लेखों से मध्य भारत पर भोज के अधिकार की पुष्टि होती है।

मिहिरभोज के समय में भी प्रतिहारों की पालों तथा राष्ट्रकूटों के साथ पुरानी प्रतिद्वंद्विता चलती रही। मिहिरभोज दो पाल राजाओं- देवपाल तथा विग्रहपाल का समकालीन था। एक ओर जहाँ पाल लेख प्रतिहारों पर विजय का विवरण देते हैं, वहीं दूसरी ओर प्रतिहार लेख पालों पर विजय का दावा प्रस्तुत करते हैं। पालकालीन बादल लेख में कहा गया है कि देवपाल ने गुर्जर नरेश को पराजित किया। इसके विपरीत ग्वालियर लेख में वर्णित है कि ‘जिस लक्ष्मी ने धर्म (पाल) के पुत्र का वरण किया था, उसी ने बाद में भोज को दूसरे पति के रूप में चुना।’ लगता है कि प्रारंभिक युद्ध में देवपाल को मिहिरभोज के विरुद्ध सफलता प्राप्त हुई थी, लेकिन उसकी मृत्यु के उपरांत उसके उत्तराधिकारी नारायणपाल के समय में अथवा देवपाल के शासन के अंतिम दिनों में ही मिहिरभोज ने अपनी पराजय का बदला ले लिया और पाल साम्राज्य के पश्चिमी भागों पर अधिकार कर लिया था। चाट्सु लेख में भी वर्णित है कि उसने गौड़नरेश को पराजित किया तथा पूर्वी भारत के शासकों से कर प्राप्त किया था।

पालों से निपटने के बाद मिहिरभोज ने अपने साम्राज्य के दक्षिण में प्रदेशों को जीतने के लिए एक अभियान शुरू किया और अपने दूसरे प्रबल शत्रु राष्ट्रकूटों को पराजित करने में सफल रहा। मिहिरभोज दो राष्ट्रकूट राजाओं- अमोघवर्ष और कृष्ण द्वितीय का समकालीन था।

अमोघवर्ष शांत प्रकृति का शासक था। उसके समय में मिहिरभोज ने उज्जैन पर अधिकार करते हुए नर्मदा नदी तक धावा बोला। किंतु लेखों से पता चलता है कि ध्रुव ने उसकी सेना को पराजित कर भगा दिया था। यह ध्रुव राष्ट्रकूटों की गुजरात शाखा का ध्रुव द्वितीय था, जो अमोघवर्ष का सामंत था। इस लेख से लगता है कि भोज को राष्ट्रकूट क्षेत्रों में कोई सफलता नहीं मिली थी।

अमोघवर्ष के पुत्र कृष्ण द्वितीय (878-911 ईस्वी) के समय में भी प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों के बीच संघर्ष चलता रहा। चूंकि इस समय राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय चालुक्यों के साथ युद्ध में फँसा हुआ था, इसलिए भोज ने कृष्ण द्वितीय पर आक्रमण कर उसे नर्मदा नदी के तट पर पराजित कर दिया और मालवा, दक्कन और गुजरात पर अधिकार कर लिया।

इसके बाद भोज ने गुजरात की ओर आगे बढ़कर खेटक (खेड़ा जिला) के आस-पास के भूभाग को जीत लिया। गुजरात शाखा के राष्ट्रकूटों का 888 ई. के बाद कोई उल्लेख नहीं मिलता, जो इस बात का प्रमाण है कि यह प्रदेश प्रतिहारों ने जीत लिया था।

देवली तथा करहद के राष्ट्रकूट अभिलेखों से पता चलता है कि भोज तथा कृष्ण के बीच उज्जयिनी में एक भीषण युद्ध हुआ, जिसमें कृष्ण ने भोज को भयाक्रांत कर दिया। किंतु ऐसा लगता है कि इस युद्ध का कोई निर्णायक परिणाम नहीं निकला और मालवा पर भोज का अधिकार बना रहा।

कश्मीर नरेश शंकरवर्मन उत्पल के लिए कहा जाता है कि उसने भोज की शक्ति को रोका था। परंतु यह स्पष्ट नहीं है कि इसमें सत्यांश कितना है। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ में कहा गया है कि भोज का साम्राज्य उत्तर में कश्मीर तक फैला हुआ था और उसने पंजाब की भी विजय की थी। एक शिलालेख में भी कहा गया है कि भोज के क्षेत्र सतलुज नदी के पूर्व में फैले हुए थे।

पूर्व में गोरखपुर के कलचुरि उसके सामंत थे तथा संपूर्ण अवध का क्षेत्र उसके अधीन था। कहल लेख (गोरखपुर जिला) से पता चलता है कि कलचुरि शासक गुणांबोधि ने भोज से कुछ भूमि प्राप्त किया था।

दक्षिणी राजस्थान के प्रतापगढ़ से भोज के उत्तराधिकारी महेंद्रपाल का लेख मिला है, जो उस भाग पर उसके अधिकार का सूचक है। बुंदेलखंड के चंदेल भी उसकी अधीनता स्वीकार करते थे।

भोज की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण उपलब्धि उसके द्वारा मुस्लिम आक्रांताओं के विस्तार पर अंकुश लगाना था। उसके प्रतिरोध के कारण मुसलमान आक्रांता दक्षिण अथवा पूर्व की ओर नहीं बढ़ सके। सुलेमान ने उसे ‘बरूआ’ कहा है। सुलेमान ने लिखा है कि जर्ज (गुर्जरों) के राजा के पास असंख्य सेनाएँ हैं और किसी भी भारतीय राजकुमार के पास इतनी सुंदर अश्वारोही सेना नहीं है। दसवीं शताब्दी के ‘हुदुद-उल-आलम’ में भी कहा गया है कि भारत के अधिकांश राजाओं ने शक्तिशाली ‘कन्नौज के राय’ की सर्वोच्चता को स्वीकार किया था, जिसकी शक्तिशाली सेना में 150,000 घुड़सवार और 800 हाथी थे।

इस प्रकार विभिन्न क्षेत्रों की विजयों के फलस्वरूप भोज ने एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया, जो उत्तर-पश्चिम में सतलज, उत्तर में हिमालय की तराई, पूर्व में पाल साम्राज्य की पश्चिमी सीमा, दक्षिण-पूर्व में बुंदेलखंड और वत्स की सीमा, दक्षिण-पश्चिम में सौराष्ट्र, तथा पश्चिम में राजस्थान के अधिकांश क्षेत्रों में फैला हुआ था। रमेशचंद्र मजूमदार ने लिखा है कि भोज ने एक प्रबल शासक के रूप में ख्याति अर्जित कर ली थी। वह अपने साम्राज्य में शांति बनाये रखने तथा बाह्य आक्रमणों से उसकी रक्षा करने में सक्षम रहा। वह मुसलमानों के आक्रमणों के विरुद्ध एक सुरक्षा-दीवार की भाँति खड़ा था और अपने उत्तराधिकारियों को अपने कार्यों की एक विरासत दे गया।

भोज वैष्णव धर्मानुयायी था और उसने उसने विष्णु के सम्मान में ही ‘आदिवराह’ और ‘प्रभास’ का विरुद्ध धारण किया था, जो उसके चाँदी के सिक्कों पर उत्कीर्ण है। 915-916 ई. में सिंध की यात्रा करने वाले मुस्लिम यात्री अलमसूदी ने लिखा है कि ‘अपनी शक्ति के केंद्र मुल्तान में अरबों ने एक सूर्यमंदिर को तोड़ने से बचा रखा था। जब भी प्रतिहारों के आक्रमण का भय होता था, तो वे उस मंदिर की मूर्ति को नष्ट कर देने का भय पैदा कर अपनी रक्षा कर लेते थे।’

बिलादुरी भी कहता है कि अरबों ने अपनी रक्षा के लिए एक झील के किनारे अलहिंद सीमा पर ‘अल-महफूज’ नामक एक शहर बसाया था। अरब यात्री सुलेमान ने भोज के साम्राज्य, शासन और तत्कालीन व्यापार और समृद्धि की बड़ी प्रशंसा की है। उसने उसे अरबों तथा मुसलमानों का सबसे बड़ा शत्रु बताया है। इन विवरणों से स्पष्ट है कि भोज ने पश्चिम में अरबों के प्रसार को रोक दिया था।

भोज की रजत मुद्राएँ ‘द्रम्म’ प्रचुर संख्या में मिली हैं, जो उसके विस्तृत साम्राज्य और सुदीर्घ शासनकाल का प्रमाण हैं। उसके सिक्कों पर फारसी प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगत होता है। उसने संभवतः भोजपुर नगर की स्थापना भी करवाई थी।

महेंद्रपाल प्रथम (885-910 ई.)

मिहिरभोज प्रथम के बाद उसकी पत्नी चंद्रभट्टारिका देवी से उत्पन्न पुत्र महेंद्रपाल प्रथम (885-910 ई.) प्रतिहार वंश का शासक बना। महेंद्रपाल प्रथम के शासनकाल से संबंधित घटनाओं की सूचना कई लेखों से मिलती है। लेखों में उसे ‘परमभट्टारक’, ‘महाराजाधिराज’, ‘परमेश्वर’ आदि कहा गया है। दक्षिणी बिहार तथा बंगाल के कई स्थानों से उसके अपने लेख मिले हैं। इनमें बिहारशरीफ (पटना) से उसके शासनकाल के चौथे वर्ष के दो लेख, रामगया तथा गुनरिया (गया) से प्राप्त आठवें तथा नौवें वर्ष के लेख, इटखौरी (हजारीबाग) का लेख तथा पहाड़पुर (राजशाही-बंगाल) से प्राप्त पाँचवे वर्ष का लेख विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। किंतु महेंद्रपाल के पिता भोज का कोई लेख इन क्षेत्रों से नहीं मिलता है। इससे लगता है कि इन स्थानों की विजय महेंद्रपाल ने ही की थी।

अभिलेखों से लगता है कि महेंद्रपाल ने पालों से मगध और उत्तर बंगाल को छीन लिया था। महेंद्र का समकालीन पाल शासक नारायणपाल था। मगध क्षेत्र से उसके शासनकाल के सत्रहवें वर्ष का लेख मिलता है। किंतु इसके बाद फिर चौवनवें वर्ष का लेख मिलता है। इससे सूचित होता है कि इस अवधि (17-54 वर्ष) में मगध क्षेत्र पर प्रतिहारों का अधिकार हो गया था।

महेंद्रपाल ने और आगे विजय करते हुए बंगाल तक का प्रदेश भी जीत लिया होगा, जैसा कि उसके पहाड़पुर लेख से प्रमाणित होता है। काठियावाड़, पूर्वी पंजाब, झाँसी तथा अवध से भी उसके लेख मिलते हैं, जो उसके साम्राज्य-विस्तार के सूचक हैं।

मालवा का परमार शासक वाक्पति भी संभवतः महेंद्रपाल की अधीनता स्वीकार करता था। काठियावाड़ के चालुक्य शासक भी उसके सामंत थे, जैसा कि ऊणा लेख से ध्वनित होता है। यहीं से दो अन्य लेख मिले हैं, जिनमें चालुक्य बलवर्मा तथा उसके पुत्र अवंतिवर्मा का उल्लेख सामंत के रूप में मिलता है।

कश्मीर के राजा शंकरवर्मन के आक्रमणों के फलस्वरूप महेंद्रपाल की राज्य-सीमा कुछ घट गई थी, परंतु अन्य किसी प्रकार के हृास की सूचना नहीं मिलती।

राष्ट्रकूट नरेश गोविंद चतुर्थ के एक लेख में कहा गया है कि कृष्ण द्वितीय ने किसी बड़े शत्रु को पराजित कर खेटकमंडल (गुजरात) पर अपनी ओर से किसी व्यक्ति को राजा बनाया था। इससे ध्वनित होता है कि उसके पूर्व कुछ समय के लिए महेंद्रपाल ने गुजरात के खेटक क्षेत्र को भी जीत लिया था, किंतु बाद में राष्ट्रकूटों ने उस पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार महेंद्रपाल ने एक अत्यंत विस्तृत साम्राज्य पर शासन किया। उसने जीवन-पर्यंत अपने शत्रुओं को दबाकर रखा।

महेंद्रपाल न केवल एक विजेता एवं साम्राज्य निर्माता था, अपितु कुशल प्रशासक एवं विद्या और साहित्य का महान् संरक्षक भी था। उसकी राज्यसभा में प्रसिद्ध विद्वान् राजशेखर निवास करते थे, जो उसके राजगुरु थे। राजशेखर ने ‘कर्पूरमंजरी’, ‘काव्यमीमांसा’, ‘विद्धशालभंजिका’, ‘बालभारत’, ‘बालरामायण’, ‘भुवनकोश’, ‘हरविलास’ जैसे प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की। इस प्रकार महेंद्रपाल के शासनकाल में राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से प्रतिहार साम्राज्य की अभूतपूर्व प्रगति हुई।

महेंद्रपाल प्रथम की दो प्रधान रानियाँ थीं- एक का नाम देहनागादेवी तथा दूसरी का नाम महादेवी था। देहनागादेवी के पुत्र का नाम भोज और महादेवी के पुत्र का नाम महीपाल था। महेंद्रपाल की मृत्यु के उपरांत संभवतः दोनों सौतेले भाइयों में गृहयुद्ध प्रारंभ हो गया।

भोज द्वितीय (910-912 ई.)

महेंद्रपाल की मृत्यु के बाद भोज द्वितीय (910-912 ई.) ने कुछ समय के लिए प्रतिहार वंश के सिंहासन पर अधिकार कर लिया। कोक्कलदेव के बिल्हारी लेख से संकेत मिलता है कि इस कार्य में भोज को अपने सामंत चेदिनरेश कोक्कलदेव प्रथम से सहायता मिली थी। लेख में कहा गया है कि कोक्कलदेव ने समस्त पृथ्वी को जीतकर दो कीर्त्ति-स्तंभ स्थापित किये-दक्षिण में कृष्णराज तथा उत्तर में भोजदेव। बनारस दानपत्र में भी कहा गया है कि कोक्कल ने भोज को अभयदान दिया था। लेकिन 912 ई. के आसपास उसे उसके सौतेले भाई महीपाल ने पदच्युत् कर दिया।

महीपाल प्रथम (913-944 ई.)

कुछ समय बाद सौतेले भाई महीपाल प्रथम (913-944 ई.) ने भोज को पदस्थ कर सिंहासन पर अधिकार कर लिया। खुजराहो लेख से पता चलता है कि हर्षदेव ने क्षितिपाल को सिंहासन पर पुनर्स्थापित किया था (पुनर्येनक्षितिपालदेवनृपतिः सिंहासने स्थापित)। यहाँ क्षितिपाल से तात्पर्य महीपाल से ही है। इससे स्पष्ट है कि महीपाल ने चंदेल राजा हर्षदेव की सहायता से भोज को पराजित किया था।

महीपाल के दरबारी कवि राजशेखर ने उसे ‘आर्यावर्त का महाराजाधिराज’ कहा है और उसकी उपलब्धियों का वर्णन करते हुए लिखा है कि उसने मरलों के सिरों के बालों को झुकाया, मेकलों को अग्नि के समान जला दिया, कलिंग राज को युद्ध से भगा दिया, करल राज की केलि का अंत किया, कुलूतों को जीता, कुंतलों के लिए परशु का काम किया और रमठों की लक्ष्मी को बलपूर्वक अधिग्रहीत कर लिया था।

इनमें मुरल संभवतः नर्मदा घाटी की कोई जाति थी। राजशेखर ने इसे कावेरी तथा वनवासी के मध्य स्थित बताया है। मेकल राज्य नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक में स्थित प्रदेश था। कलिंग उड़ीसा में तथा केरल तमिल देश में स्थित था। कुलूत तथा रमठ की स्थिति पंजाब में थी।

यद्यपि राजशेखर का यह विवरण काव्यात्मक अतिशयोक्ति है, किंतु इसमें संदेह नहीं है कि इन प्रदेशों में से अधिकतर क्षेत्रों पर प्रतिहारों का पहले से ही अधिकार था। संभव है कि महीपाल की संकटग्रस्त स्थिति का लाभ उठाकर कुछ राज्यों ने अपनी स्थिति सुदृढ़ कर स्वाधीनता घोषित कर दी।

महीपाल ने पुनः इन क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया हो। गुजरात जैसे दूरवर्ती प्रदेश पर भी महीपाल का अधिकार बना रहा क्योंकि वहाँ उसका सामंत धरणिवराह शासन कर रहा था।

परंतु राष्ट्रकूटों ने प्रतिहारों को शांतिपूर्वक शासन नहीं करने दिया और कन्नौज के प्रतिहार वंश की राजलक्ष्मी विचलित होने लगी। खंभात (काम्बे) दानपत्र से पता चलता है कि राष्ट्रकूट नरेश इंद्र तृतीय (914-928 ई.) ने 916 ई. में मालवा पर आक्रमण कर उज्जैन पर अधिकार कर लिया। उसकी सेना ने यमुना नटी को पार कर कुशस्थल नामक प्रसिद्ध महोदय नगर (कन्नौज) को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इंद्र तृतीय के अभियान में उसके चालुक्य सामंत नरसिंह ने भी सहायता की थी। इसका उल्लेख नरसिंह का आश्रित कन्नड कवि पम्प (941 ई.) ने अपने ग्रंथ ‘पम्पभारत’ में किया है। इस प्रकार कुछ समय के लिए राष्ट्रकूटों ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया और महीपाल को अपनी जान बचाकर भागना पड़ा।

परंतु इंद्र तृतीय के प्रत्यावर्तन के पश्चात् महीपाल ने पुनः अपनी स्थिति को सुदृढ़ कर लिया। उसने चंदेल तथा गुहिलोत वंश के अपने सामंतों की सहायता से कन्नौज के साथ-साथ गंगा-यमुना के दोआब, बनारस, ग्वालियर तथा पश्चिम में काठियावाड़ तक के प्रदेशों पर पुनः अपना स्वामित्व स्थापित कर लिया।

क्षेमेश्वर के नाटक ‘चंडकौशिकम्’ में महीपाल को ‘कर्नाट का विजेता’ कहा गया है। अधिकांश विद्वान् इस महीपाल की पहचान प्रतिहारवंशी महीपाल से ही करते हैं और कर्नाट से तात्पर्य राष्ट्रकूट प्रदेश से मानते हैं। चाट्सु लेख से भी पता चलता कि महीपाल के सामंत भट्ट ने अपने स्वामी की आज्ञा से किसी दक्षिणी शत्रु को जीता था। संभवतः महीपाल ने इंद्र तृतीय के हाथों अपनी पराजय का बदला लेने के लिए राष्ट्रकूटों पर आक्रमण कर उनके कुछ दक्षिणी प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था।

संभवतः पालों ने बिहार के उन क्षेत्रों पर पुनः अधिकार कर लिया, जिन्हें पहले महेंद्रपाल ने विजित किया था। पाल नरेश राज्यपाल तथा गोपाल द्वितीय के लेख क्रमशः नालंदा तथा गया से पाये गये हैं, जो महीपाल के समकालीन थे। इस प्रकार स्पष्ट है कि कुछ समय के लिए प्रतिहारों की स्थिति कमजोर पड़ गई थी और बिहार का एक बड़ा भाग पालों के अधिकार में चला गया था।

महिपाल के समय (915-16 ई.) में ही अलमसूदी ने भारत की यात्रा की थी। उसने महीपाल की अपार शक्ति एवं साधनों की प्रशंसा की है। उसके अनुसार महीपाल के सैनिकों की कुल संख्या सात से नौ लाख के बीच थी, जिसे उसने साम्राज्य के चारों दिशाओं में तैनात कर रखा था।

इस प्रकार महीपाल प्रतिहारों की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने में सफल रहा। 944 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

महेंद्रपाल द्वितीय (944-948 ई.)

महीपाल के उपरांत महेंद्रपाल द्वितीय (944-948 ई.) राजा हुआ। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि राष्ट्रकूट शासक इंद्र तृतीय के आक्रमण के फलस्वरूप प्रतिहार साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। किंतु महेंद्रपाल का एक लेख दक्षिणी राजपूताने के प्रतापगढ़ से मिला है, जिसमें दशपुर (मंदसोर) में स्थित एक ग्राम को दान में दिये जाने का उल्लेख है। इससे स्पष्ट है कि महेंद्रपाल के समय तक प्रतिहारों का मालवा क्षेत्र पर अधिकार पूर्ववत् बना रहा। वहाँ उसका सामंत चहमानवंशी इंद्रराज शासन करता था।

प्रतिहार साम्राज्य का विघटन

महेंद्रपाल द्वितीय के बाद 960 ई. तक प्रतिहार वंश में चार शासक हुए- देवपाल (948-954 ई.), विनायकपाल द्वितीय (954-955 ई.), महीपाल द्वितीय (955-956 ई.) और विजयपाल (956-960 ई.)

देवपाल (948-954 ई.) के समय में गुर्जर-प्रतिहारों की दुर्बलता का लाभ उठाकर राजस्थान के क्षेत्र प्रतिहारों के हाथ से निकल गये। 950 ई. के आसपास चंदेलों ने मध्य भारत में ग्वालियर और कालिंजर के दुर्गों को प्रतिहारों से छीन लिया। खजुराहो लेख में चंदेल नरेश यशोवर्मन् को ‘गुर्जरों के लिए जलती हुई अग्नि के समान’ कहा गया है।

विजयपाल द्वितीय (956-960 ई.) के समय तक आते-आते प्रतिहार साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों पर कई स्वतंत्र राजवंश शासन करने लगे। चालुक्यों ने गुजरात में, परमारों ने मालवा में और चंदेलों तथा चेदियों ने यमुना-नर्मदा के मध्यवर्ती भाग में अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। इसके अलावा, हरियाणा के तोमर और शाकंभरी के चहमान भी प्रतिहारों की अधीनता से मुक्त हो गये।

वास्तव में दसवीं शती के मध्य में प्रतिहार साम्राज्य पूर्णतया छिन्न-भिन्न हो गया और विजयपाल के पुत्र राज्यपाल (960-1018 ई.) का राज्य सिकुड़कर कन्नौज के आस-पास केवल गंगा और यमुना नदियों के मध्यवर्ती प्रदेश तक ही सीमित रह गया। जब गजनी के महमूद ने 1018-19 ई. में कन्नौज पर आक्रमण किया, तो दुर्बल प्रतिहार शासक राज्यपाल ने बिना किसी प्रतिरोध के महमूद गजनबी के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।

महमूद के लौट जाने के बाद राज्यपाल को दंड देने के लिए चंदेल नरेश विद्याधर ने राजाओं का एक संघ बनाकर कन्नौज पर आक्रमण किया। दूबकुंड लेख से पता चलता है कि विद्याधर के सामंत कछवाहावंशी अर्जुन ने राज्यपाल पर आक्रमण कर उसकी हत्या कर दी।

अभिलेखों में राज्यपाल के दो उत्तराधिकारियों- त्रिलोचनपाल (1018-1027 ई.) तथा यशपाल (1024-1036 ई.) का नाम मिलता है।

गुर्जर-प्रतिहार वंश का अंतिम राजा यशपाल था। 1036 ई. में यशपाल की मृत्यु के साथ ही प्रतिहार वंश का अंत हो गया। लेखों से पता चलता है कि 1090 ई. के आसपास चंद्रदेव ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया और गहड़वाल वंश की स्थापना की।

प्रतिहारकालीन सांस्कृतिक जीवन

शासन-व्यवस्था

प्रतिहार शासन-व्यवस्था में राजा का प्रमुख स्थान था। गुर्जर प्रतिहार नरेशों की शक्ति असीमित होती थी। राजा ही सामंतों, प्रांतीय प्रमुखों और न्यायधीशों की नियुक्ति करता था। चूंकि राजा की शक्ति का स्रोत उसके सामंतों की सेना होती थी, इसलिए सामंतगण राजा की स्वच्छंदता पर रोक लगा सकते थे। युद्ध के समय सामंत राजा को सैनिक सहायता देते थे और स्वयं सम्राट के साथ युद्धभूमि में जाते थे।

प्रशासनिक कार्यों में राजा की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद् होती थी। मंत्रिपरिषद् के दो अंग होते थे-आभयंतर उपस्थान और बहिर उपस्थान। आभयंतरीय उपस्थान में राजा के कुछ चुने हुए विश्वासपात्र ही सम्मिलित होते थे, जबकि बहिर उपस्थान में मंत्री, सेनानायक, महाप्रतिहार, महासामंत, महापुरोहित, महाकवि, ज्योतिषी तथा अन्य प्रमुख व्यक्ति सम्मिलित होते थे। मुख्यमंत्री को ‘महामंत्री’ या ‘प्रधानमात्य’ कहा जाता था।

शिक्षा और साहित्य

शिक्षा: शिक्षा का प्रारंभ उपनयन संस्कार से होता था। उपनयन के पश्चात बालक को गुरुकुल भेजा जाता था। विद्यार्थी को गुरुकुल में ही रहकर विद्या-अध्ययन करना होता था, जहाँ आवास और भोजन की व्यवस्था निःशुल्क थी। ब्राह्मण बालक को चौदह विद्याओं के साथ-साथ कर्मकांड का भी अध्ययन कराया जाता था। क्षत्रिय बालक को बहत्तर कलाएँ सिखाई जाती थीं, किंतु उसे अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुणता प्राप्त करना आवश्यक होता था। जहाँ आवास और भोजन की व्यवस्था निःशुल्क थी।

विद्वान् गोष्ठियों में एकत्र होकर साहित्यक चर्चा करते थे। बडी-बडी सभाओं में शास्त्रार्थ के माध्यम से विद्वानों के विद्वता की पहचान की जाती थी। विजेता को राजा की ओर से जयपत्र प्रदान किया जाता था और जुलुस निकाल कर उसका सम्मान किया जाता था।

प्रतिहार काल में कान्यकुब्ज (कन्नौज) विद्या का एक प्रमुख केंद्र था। राजशेखर के अनुसार कन्नौज में कई गोष्ठियों के आयोजन हुआ था। उसने ‘बह्मसभा’ की भी चर्चा की है, जो उज्जैन और पाटलिपुत्र में भी हुआ करती थीं। इन सभाओं में कवियों की परीक्षा होती थी। परीक्षा में उत्तीर्ण कवि को रथ और रेशमी वस्त्र से सम्मानित किया जाता था।

साहित्य: साहित्य के क्षेत्र में भीनमाल एक बड़ा केंद्र था। यहाँ कई महान साहित्यकार हुए जिनमें ‘शिशुपालवध’ के लेखक माघ का नाम बहुत महत्वपूर्ण है। माघ के वंश में सौ वर्ष तक कविता होती रही और संस्कृत तथा प्राकृत में कई ग्रंथों की रचना हुई। विद्वानो ने माघ की तुलना कालिदास, भारवि तथा दंडिन से की है। माघ के समकालीन जैनकवि हरिभद्रसूरि ने ‘धूर्तापाख्यान’ की रचना की है। हरिभद्रसूरि का सबसे प्रसिद्ध प्राकृत ग्रंथ ‘समराइच्चकहा’ है। हरिभद्र के शिष्य उद्योतन सूरि ने 778 ई. में जालोर में ‘कुवलयमाला’ ग्रंथ की रचना की।

गुर्जर प्रतिहार शासक स्वयं विद्वान् थे और विद्वानों को राज्याश्रय भी प्रदान करते थे। भोज प्रथम के दरबार में भट्ट धनेक का पुत्र बालादित्य रहता था, जिसने ग्वालियर प्रशस्ति की रचना की थी। इस काल का प्रमुख कवि और नाटककार राजशेखर था, जो महेंद्रपाल प्रथम का गुरु था। वह बालकवि से कवि और फिर कवि से राजकवि के पद पर प्रतिष्ठित हुआ था। इसी समय ‘कर्पूरमंजरी’ तथा संस्कृत नाटक ‘बालरामायण’ को अभिनीत किया गया था।

प्रतिहार काल में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों भाषाओं में साहित्यों की रचना हुई। किंतु प्राकृत ग्रंथों का लेखन धीरे-धीरे कम होता गया और उसका स्थान अपभ्रंश ने ले लिया। इस काल में ब्राह्मणों की तुलना में जैनों द्वारा अपेक्षाकृत अधिक ग्रंथ लिखे गये।

धर्म और धार्मिक जीवन
वैष्णव और शैव

प्रतिहारकालीन समाज में वैष्णव और शैव दोनों मत के लोग थे। इस राजवंश के राजा प्रायः अपने ईष्टदेव को बदलते रहते थे। यद्यपि भोज प्रथम भगवती का उपासक था, लेकिन उसने विष्णु के मंदिर का भी निर्माण करवाया था। इसी प्रकार महेंद्रपाल ने शैव मतानुयायी होते हुए भी वट-दक्षिणी देवी के लिए दान दिया था।

इस काल में विष्णु के अवतारों की पूजा की जाती थी। कन्नौज में चतुर्भुज विष्णु और विराट विष्णु की अत्यंत सुंदर प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित थीं। कन्नौज के प्रतिहार नरेश वत्सराज, महेंद्रपाल द्वितीय और त्रिलोचनपाल शिव के उपासक थे। उज्जैन में महाकाल का प्रसिद्ध मंदिर था। प्रतिहारों ने बुंदेलखंड़ में भी अनेक शिवमंदिरों को बनवाया था।

साहित्य और अभिलेखों से पता चलता है कि लोग धार्मिक अवसरों पर गंगा, यमुना अथवा संगम (प्रयाग) पर स्नान कर दान देते थे। तत्कालीन ग्रंथों में दस प्रमुख तीर्थों का वर्णन मिलता है, जिसमें गया, वाराणसी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रभास, नैमिषक्षेत्र, केदार, कुरुक्षेत्र, उज्जयिनी तथा प्रयाग आदि थे। धार्मिक कार्य के निमित्त दिये गये भूमि या गाँव से राज्य कोई कर नहीं वसूल करता था।

बौद्ध धर्म

प्रतीहारकाल में पश्चिम की ओर सिंध प्रदेश में और पूर्व में बिहार और बंगाल में बौद्ध धर्म का प्रचलन था। इसका मुख्य कारण संभवतः गुप्तकाल में ब्राह्मण मतावलंबियों द्वारा बौद्धधर्म के अधिकांश सिद्धांतों को अपना कर बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार मान लेना था।

जैन धर्म

गुर्जर राजाओं ने जैनों के साथ उदारता का व्यवहार किया। पश्चिमी भारत के राजस्थान, गुजरात, मालवा और सौराष्ट्र जैनधर्म के प्रसिद्ध केंद्र थे, जिसका श्रेय हरिभद्र सूरि जैसे जैन आचायों को है। हरिभद्र ने अनेक ग्रंथों कि रचना की। नागभट्ट द्वितीय का अध्यात्मिक गुरु वप्पभट्ट सूरि को माना जाता है। नागभट्ट ने ग्वालियर में जैन मंदिर बनवाया था।

कला एवं स्थापत्य

गुर्जर-प्रतिहार कला के अवशेष हरियाणा और मध्यभारत के एक विशाल क्षेत्र में फैले हुए हैं। गुर्जर-प्रतिहरों ने खुले मंडप वाले अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया, जिसे गुर्जर-प्रतिहार शैली के नाम से जाना जाता है। गुर्जर स्थापत्य शैली में सज्जा और निर्माण शैली का पूर्ण समन्वय परिलक्षित होता है। अपने पूर्ण विकसित रूप में गुर्जर प्रतिहार मंदिरों में मुखमंडप, अंतराल और गर्भग्रह के अतरिक्त अत्यधिक अलंकृत अधिष्ठान, जंघा और शिखर होते थे। कालांतर में गुर्जर स्थापत्य कला की इस शैली को चंदेलों, चालुक्यों और अन्य गुर्जर राजवंशों ने अपनाया। पश्चिमी भारत के महावीर और मध्य प्रदेश के बटेश्वर (मुरैना जिला) जैसे मंदिरों का निर्माण गुर्जर प्रतिहारों के शासन के दौरान ही हुआ था।

गुर्जर प्रतिहार वंश (Gurjara Pratihara Dynasty)
बटेश्वर के मंदिर समूह

प्रतिहार शासन का महत्व

उत्तर भारत के इतिहास में प्रतिहारों के शासन का महत्वपूर्ण स्थान है। हर्ष की मृत्यु के बाद प्रतिहारों ने पहली बार उत्तरी भारत में एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की और लगभग डेढ सौ वर्षों तक इस विशाल साम्राज्य के स्वामी बने रहे। उन्होंने अरब आक्रमणकारियों का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया और भारत-भूमि की रक्षाकर अपना अपने प्रतिहार नाम को सार्थक किया। मुसलमान लेखकों ने भी उनकी शक्ति एवं समृद्धि की प्रशंसा की है। ग्वालियर प्रशस्ति का यह विवरण मात्र अतिशयोक्ति नहीं है कि म्लेच्छ आक्रमणकारियों से देश की स्वाधीनता और संस्कृति की रक्षा करने के लिए नागभट्ट एवं मिहिरभोज जैसे नरेश नारायण, विष्णु, पुरुषोत्तम और आदिवराह के अवतार-स्वरूप थे।

गुर्जर प्रतिहारों ने न केवल कन्नौज के प्राचीन वैभव को वापस किया, बल्कि उसे आचार-विचार, सुसंस्कार एवं सभ्यता की दृष्टि से एक अनुकरणीय नगर भी बना दिया। इस समय शक्ति तथा सौंदर्य में कन्नौज की बराबरी करने वाला कोई दूसरा नगर नहीं था। गुर्जर प्रतिहारों के शासनकाल में ही भारत सोने की चिड़िया कहा जाता था। यही नहीं, कुछ इतिहासकार हर्ष के बजाय प्रतिहार शासक महेंद्रपाल प्रथम को ही हिंदू भारत का अंतिम महान् शासक स्वीकार करते हैं।

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