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जैन न्याय शास्त्र का विकास
धर्म, दर्शन और न्याय-इन तीनों के सुमेल से ही व्यक्ति के आध्यात्मिक उन्नयन का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। आचार का नाम धर्म है और विचार का नाम दर्शन है तथा युक्ति-प्रतियुक्ति रूप हेतु आदि से उस विचार को सुदृढ़ करना न्याय है। जैन दर्शन और न्याय के उद्गम बीज जैनश्रुत के बारहवें अंग दृष्टिवाद में प्रचुरमात्रा में विद्यमान हैं। आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त द्वारा निबद्ध षट्खंडागम में, जो दृष्टिवाद अंग का ही अंश है, सिया पज्जत्ता, सिया अपज्जता, मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया, अखंखेज्जा जैसे सिया (स्यात्) शब्द और प्रश्नोत्तरी शैली को लिए प्रचुर वाक्य पाये जाते हैं। षट्खंडागम के आधार पर रचित आचार्य कुंदकुंद के पंचास्तिकाय, प्रवचनसार आदि आर्ष ग्रन्थों में भी इसके उद्गम बीज मिलते हैं। सिय अत्थिणत्थि उहयं, जम्हा जैसे युक्ति-प्रवण वाक्यों एवं शब्द प्रयोगों द्वारा उनमें प्रश्नोत्तरपूर्वक विषयों को दृढ़ किया गया है।
श्वेताम्बर परंपरा में मान्य आगमों में भी जैन दर्शन और न्याय के बीज उपलब्ध हैं। उनमें अनेक जगह से केणट्ठेणं भंते एवमुच्चई जीवाणं, भंते किं सासया असासया? गोयमा। जीवा सिय सासया सिय असासया। गोयमा। दव्वट्ठयाए सासया भवट्ठयाए असासया। जैसे तर्क गर्भ प्रश्नोत्तर प्राप्त होते हैं। सिया या सिय प्राकृत शब्द हैं, जो संस्कृत के स्यात् शब्द के पर्यायवाची हैं, और कथंचिदर्थबोधक हैं तथा स्याद्वाददर्शन एवम् स्याद्वादन्याय के प्रदर्शक हैं। द्वादशांग में अंतिम दृष्टिवाद अंग का जो स्वरूप दिया गया है, उसमें बतलाया गया है कि ‘जिसमें विविध दृष्टियों-वादियों की मान्यताओं का प्ररूपण और उनकी समीक्षा है वह दृष्टिवाद है।’ यह समीक्षा हेतुओं एवं युक्तियों के बिना संभव नहीं है। इससे स्पष्ट है कि जैन दर्शन और जैन न्याय का उदृगम दृष्टिवाद-अंगश्रुत से हुआ है।
जैन मनीषी यशोविजय ने भी लिखा है कि ‘स्याद्वादार्थों दृष्टिवादार्णवोत्थः’ अर्थात् स्याद्वादार्थ-जैन दर्शन और जैन न्याय दृष्टिवादरूप अर्णव (समुद्र) से उत्पन्न हुए हैं। यहाँ यशोविजय ने दृष्टिवाद को अर्णव (समुद्र) बतलाकर उसकी विशालता, गंभीरता और महत्ता को प्रकट किया है तथा उससे स्याद्वाद का उद्भव प्रतिपादित किया है। यथार्थ में स्याद्वाददर्शन और स्याद्वादन्याय ही जैन दर्शन एवं जैनन्याय हैं।
आचार्य समंतभद्र ने सभी तीर्थंकरों को स्याद्वादी कहकर उनके उपदेश को बहुत स्पष्ट रूप में स्याद्वाद-न्याय, जिसमें दर्शन भी अनुर्भूत है, बतलाया है। उनके उत्तरवर्ती अकलंकदेव कहते हैं कि ऋषभ से लेकर महावीरपर्यंत सभी तीर्थंकर स्याद्वादी-स्याद्वाद के उपदेशक हैं। आचार्य समंतभद्र, अकलंकदेव, यशोविजय के सिवाय सिद्धसेन, विद्यानंद और हरिभद्र जैसे दार्शनिकों एवं तार्किकों ने भी स्याद्वाद दर्शन और स्याद्वाद न्याय को जैन दर्शन और जैन न्याय प्रतिपादित किया है। यह संभव है कि वैदिक और बौद्ध दर्शनों का विकास जैन दर्शन और जैन न्याय के विकास में प्रेरक हुआ हो तथा उनकी क्रमिक शास्त्र रचना जैन दर्शन और जैन न्याय की क्रमिक शास्त्र रचना में बलप्रद हुई हो।
जैन न्याय के विकास के प्रमुख चरण
कालक्रम के विकास की दृष्टि से जैन दर्शन और जैन न्याय के विकास को तीन कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है-
- आदिकाल अथवा ‘समंतभद्र काल’ (200 ईस्वी से 650 ईस्वी)
- मध्यकाल अथवा ‘अकलंक काल’ (650 ईस्वी से 1050 ईस्वी)
- उत्तर मध्ययुग अथवा ‘प्रभाचंद्र काल’ (1050 ईस्वी से 1700 ईस्वी)
जैन दर्शन के विकास का आरंभ कुंदकुंद के समय से ही उपलब्ध होने लगता है क्योंकि उनके ‘पंचास्तिकाय’, ‘प्रवचनसार’ आदि प्राकृत ग्रंथों में इस दर्शन के बीज प्राप्त होते हैं। ‘भगवतीसूत्र’, ’स्थानांगसूत्र’ आदि में भी दर्शन की चर्चाएँ मिलती हैं। गृद्धपृच्छ के ‘तत्त्वार्थसूत्र’ में सिद्धांत के साथ दर्शन और न्याय का भी अच्छा प्रारूपण है। आचार्य समंतभद्र स्वामी ने उसी परंपरा को आगे बढ़ाया।
आदिकाल अथवा ‘समंतभद्र काल’ (200 ईस्वी से 650 ईस्वी)
जैन दर्शन के विकास का आरंभ कुंदकुंद के समय से ही उपलब्ध होने लगता है क्योंकि उनके पंचास्तिकाय, प्रवचनसार आदि प्राकृत गंथों में इस दर्शन के बीज प्राप्त हैं। भगवतीसूत्र, स्थानांगसूत्र आदि में भी दर्शन की चर्चाएँ मिलती हैं। गृद्धपृच्छ के तत्त्वार्थसूत्र में सिद्धांत के साथ दर्शन और न्याय का भी प्ररूपण है।
समंतभद्र से पूर्व जैन संस्कृति के प्राणभूत स्याद्वाद को प्रायः आगम रूप ही प्राप्त था और उसका आगमिक विषयों के निरूपण में ही उपयोग किया जाता था तथा सीधी-सादी एवं सरल विवेचना की जाती थी जो सिया, सिय के संदर्भ से स्पष्ट है और इसके समर्थन में विशेष युक्तिवाद की आवश्यकता नहीं थी। ईस्वी की दूसरी-तीसरी शताब्दी का समय भारतवर्ष के दार्शनिक इतिहास में अपूर्व क्रांति का युग था और इस समय विभिन्न दर्शनों में अनेक प्रभावशाली दार्शनिक हुए। इसलिए समंतभद्र के काल में युक्तिवाद की आवश्यकता बढ़ गई।
आचार्य समंतभद्र ने जैन दर्शन और न्याय की परंपरा को न केवल आगे बढ़ाया बल्कि और स्पष्ट किया है। इनकी पाँच कृतियों में चार कृतियाँ उपलब्ध हैं। तीर्थंकरों के स्तवनरूप में होने पर भी इन कृतियों में दर्शन और न्याय के प्रचुर उपकरण पाये जाते हैं, जो प्रायः उनसे पूर्व अप्राप्य हैं। उन्होंने इनमें एकांतवादों का निराकरण करके अनेकांत और स्याद्वाद की प्रस्थापना की है। इनकी चार कृतियाँ हैं- आप्तमीमांसा (देवागम), युक्त्यानुशासन, स्वयंभू और देवनंदि पूज्यपाद तथा जिनशतक। इन ग्रंथों में इन्होंने स्याद्वाद और सप्तभंगनय का सुंदर एवं प्रौढ़ संस्कृत में प्रतिपादन किया है। इससे लगता होता है कि समंतभद्र ने भारतीय दार्शनिक एवं तार्किक क्षेत्र में जैन दर्शन और जैन न्याय के युग प्रवर्तक का कार्य किया है।
यद्यपि महावीर और बुद्ध के अहिंसापूर्ण उपदेशों से यज्ञप्रधान वैदिक परंपरा का प्रभाव बहुत क्षीण हो गया था और श्रमण- जैन तथा बौद्ध परंपरा का, जो अहिंसा, तप, त्याग और ध्यान पर बल देती थी, प्रभाव प्रायः सर्वत्र फैल गया था। किंतु कुछ शताब्दियों के पश्चात वैदिक संस्कृति का पुनः प्रभाव बढ़ गया और वैदिक विद्वानों द्वारा श्रमण-परंपरा के उक्त अहिंसादि सिद्धांतों की आलोचना एवं खंडन आरंभ हो गया था। फलतः बौद्ध परंपरा में अश्वघोष, मातृचेट, नागार्जुन, बसुबिंदु आदि विद्वानों तथा जैन परंपरा में कुंदकुंद, गृद्धपिच्छ, प्रभृति मनीषियों का उद्भव हुआ। इन्होंने अपने सिद्धांतों का संपोषण, प्रतिष्ठापन करने के साथ ही वैदिक विद्वानों की आलोचना का उत्तर भी दिया तथा उनके हिंसापूर्ण क्रियाकांड का खंडन किया। बाद को वैदिक परंपरा में कणाद, जैमिनि, अक्षपाद, वादरायण आदि महा-उद्योगी प्राज्ञ हुए और उन्होंने अपने सिद्धांतों का समर्थन तथा श्रमण विद्वानों के खंडन-मंडन का जवाब दिया।
यद्यपि वैदिक परंपरा वैशेषिक, मीमांसा, न्याय, वेदांत, सांख्य आदि अनेक शाखाओं में विभाजित थी और उनके भी परस्पर खंडन-मंडन आलोचन-प्रत्यालोचन चलता था। किंतु श्रमणों और श्रमण सिद्धांतों के विरुद्ध (खंडन में) सब एक थे और सभी अपने सिद्धांतों का आधार प्रायः वेद को मानते थे। इसी दार्शनिक उठापटक में ईश्वर-कृष्ण, विंध्यवासी, वात्स्यायन, असंग, वसुबंधु आदि विद्वान दोनों परंपराओं में आविर्भूत हुए और उन्होंने स्वपक्ष के समर्थन एवम् परपक्ष के खंडन के लिए अनेक शास्त्रों की रचना की। इस प्रकार वह समय सभी दर्शनों का अखाड़ा बन गया था। सभी दार्शनिक एक दूसरे को परास्त करने में लगे हुए थे। इसका प्रबल प्रमाण इस काल के उपलब्ध दार्शनिक साहित्य हैं।
समंतभद्र का अवदान
इसी समय जैन परंपरा में दक्षिण भारत में महामनीषी समंतभद्र का उदय हुआ, जो प्रतिभाशाली और तेजस्वी पांडित्य से युक्त थे। उन्होंने दार्शनिकों के संघर्ष को देखा और अनुभव किया कि परस्पर के आग्रह से वास्तविक तत्त्व लुप्त हो रहा है। सभी दार्शनिक अपने-अपने पक्षाग्रह के अनुसार तत्त्व का प्रतिपादन कर रहे हैं। कोई तत्त्व को मात्र भाव अस्तित्वरूप, कोई अभाव नास्तित्वरूप, कोई अद्वैत एकरूप, कोई द्वैत अनेकरूप, कोई अपृथक् अभेदरूप आदि मान रहा है। जो तत्त्व वस्तु का एक-एक अंश है, उसका समग्र नहीं है। उन्होंने अपनी रचना ‘आप्तमीमांसा’ में इन सभी एकांत मान्यताओं को प्रस्तुत कर स्याद्वाद से उनका समन्वय कर उन सभी को स्वीकार किया है।
भाववादी का मत था कि तत्त्व भावरूप ही है, अभावरूप नहीं- सर्वं सर्वत्र विद्यते- सब सब जगह है। न प्रागभाव है, न प्रध्वंसाभाव है, न अन्योन्याभाव है, न अत्यंताभाव है। इसके विपरीत शून्यवादी का कथन था कि अभावरूप ही तत्त्व है। शून्य के सिवाय कुछ नहीं है। न प्रमाण है और न प्रमेय है। अद्वैतवादी प्रतिपादन करता था कि तत्त्व एक ही है, अनेक का प्रतिभास माया विजृंभित अथवा अविद्योपकल्पित है। अद्वैतवादी भी एक नहीं थे, वे भिन्न भिन्न रूप में तत्त्व का प्ररूपण करते थे। कोई एक मात्र ब्रह्म का कथन करते थे। कोई मात्र ज्ञान का, कोई मात्र बाह्यार्थ का और कोई शब्दमात्र का निरूपण करते थे।
द्वैतवादी इसका विरोध करके तत्त्व को द्वैत (अनेक) बतलाते थे। वैशेषिक तत्त्व को सात पदार्थ (द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, अभाव) रूप, नैयायिक 16 पदार्थ (प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रह स्थान) रूप, सांख्य 25 (पुरुष, प्रकृति, महान्, अहंकार, 16 का गण, 5 ज्ञानेंद्रिय, 5 कर्मेन्द्रिय, 1 मत, 5 तंमात्राएँ तथा इन 5 तंमात्राओं से उत्पन्न पंचभूत (1. आकाश, 2. वायु, 3. अग्नि, 4. जल, 5. पृथ्वी) रूप कहते थे।
अनित्यवादी कहते थे कि वस्तु प्रति समय नष्ट हो रही है, कोई भी स्थिर नहीं है। अन्यथा जन्म, मरण, विनाश, अभाव, परिवर्तन आदि नहीं हो सकते, जो स्पष्ट दिखाई देते हैं और बतलाते हैं कि वस्तु अनित्य है, नित्य नहीं है।
नित्यवादियों का कहना था कि यदि वस्तु अनित्य होता तो उसके नाश हो जाने पर यह संपूर्ण जगत और वस्तुएँ फिर दिखाई नहीं देतीं। एक व्यक्ति, जो बाल्य, युवा और वार्धक्य में अन्वयरूप से विद्यमान रहता है, स्थायी नहीं रह सकता। अतः वस्तु नित्य है। इस तरह भेद-अभेदवाद, अपेक्षा-अनपेक्षावाद, हेतु-अहेतुवाद, देव-पुरुषार्थवाद आदि एक-एक वाद (पक्ष) को माना जाता था और परस्पर में संघर्ष होता था।
यद्यपि श्रमण और श्रमणेतरों के वादों की चर्चा जैन परम्परा के दृष्टिवाद एवं भगवतीसूत्र और सूत्रकृतांग में तथा बौद्ध परम्परा के त्रिपिटकों में भी उपलब्ध होती है। किंतु वह उतने प्रबल रूप में नहीं है, जितने सशक्त रूप में समंतभद्र के काल में भी उभरकर आई। समंतभद्र ने किसी के पक्ष को मिथ्या बतलाकर तिरस्कृत नहीं किया, अपितु उन्हें वस्तु का अपना एक-एक अंश बताया, क्योंकि वस्तु अनंतधर्मा है। जो उसके जिस धर्म को देखेगा, वही धर्म उसे उस समय दिखाई देगा, ऐसी स्थिति में द्रष्टा को यह विवेक रखना आवश्यक है कि वह वस्तु को उतना ही न मान बैठे। विवक्षित धर्म की अपेक्षा उसका दर्शन और कथन सही होने पर भी अविवक्षित, किंतु विद्यमान अन्य धर्मों की अस्वीकृति होने से वह मिथ्या है। अतः एक-एक अंश को मिथ्या नहीं कहा जा सकता। मिथ्या तभी है, जब वह इतर का तिरस्कार करता है।
आचार्य समंतभद्र ने विपक्ष के सभी उक्त विरोधी पक्ष-युगनों में स्याद्वाद द्वारा सप्तभंगी (सप्तवाक्यनय) की विशद योजना करके उनके आपसी संघर्षों को जहाँ शमन करने की दृष्टि प्रदान की, वहाँ उन्होंने पक्षाग्रहशून्य विचार-सरणिकी समन्वयवादी दृष्टि भी प्रस्तुत की। यही दृष्टि स्याद्वाद है, जो परंपरा से उन्हें प्राप्त थी। स्याद्वाद में सभी पक्षों (वादों) का समादर एवं समावेश है। एकांत दृष्टियों (एकांतवादों) में अपनी-अपनी ही मान्यता का आग्रह होने से उनमें अन्य (विरोधी) पक्षों का न समादर है और न समावेश है।
समंतभद्र की यह अनोखी, किंतु सही अहिंसक दृष्टि भारतीय दार्शनिकों, विशेषकर उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों के लिए मार्गदर्शन सिद्ध हुई। सिद्धसेन, श्रीदत्त, पात्रस्वामी, अकलंकदेव, हरिभद्र, विद्यानंद आदि तार्किकों ने उनका पूरा अनुगमन किया है। संभवतः इसी कारण उन्हें ‘स्याद्वादतीर्थप्रभावक’, ‘स्याद्वादाग्रणी’ आदि रूप में याद किया जाता है। उनसे पूर्व जैन संस्कृत के प्राणभूत ‘स्याद्वाद’ को प्रायः आगम रूप ही प्राप्त था और उसका आगमिक विषयों के निरूपण में ही उपयोग किया जाता था। किंतु उन दोनों का जितना विशद, विस्तष्त और व्यावहारिक प्रतिपादन समंतभद्र की कृतियों में उपलब्ध है, उतना उनसे पूर्व नहीं है। समंतभद्र ने स्याद्वाद द्वारा सप्तभंगनयों (सात उत्तर वाक्यों) से 44 अनेकांतरूप वस्तु की व्यवस्था का विधान किया और उस विधान को व्यावहारिक भी बनाया। उदाहरणार्थ, आप्तमीमांसागत भाववाद और अभाववाद के समन्वय का विवरण प्रस्तुत है, जिसे सप्तभंगी नय व्यवस्था भी कहते हैं।
स्यादस्ति : स्यात् (कथंचित्) वस्तु भावरूप ही है, क्योंकि वह स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव से वैसी ही प्रतीत होती है। यदि उसे परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव से भी भावरूप माना जाए, तो ‘न’ का व्यवहार अर्थात् अभाव का व्यवहार कहीं भी नहीं हो सकेगा। फलतः प्रागभाव के अभाव हो जाने पर वस्तु अनादि (अनुत्पन्न) प्रध्वंसाभाव के अभाव में अनंत (विनाश का अभाव, शाश्वत विद्यमान), अन्योन्याभाव के अभाव में सब सबरूप (परस्पर भेद का अभाव) और अत्यंताभाव के अभाव में स्वरूप रहित (अपने-अपने प्रातिस्विक रूप की हानि) रूप हो जायेगी, जब कि वस्तु उत्पन्न होती है, नष्ट होती है, परस्पर भिन्न रहती है और अपने-अपने स्वरूप को लिए हुए है। अतः वस्तु स्वरूपचतुष्टय की अपेक्षा से भावरूप ही है।
स्यात् नास्ति : स्यात् (कथंचित्) वस्तु अभावरूप ही है, क्योंकि वह परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से वैसा ही अवगत होती है। यदि उसे सर्वथा (स्व और पर दोनों से) अभावरूप ही स्वीकार किया जाए, तो विधि (सद्भाव) रूप में होनेवाले ज्ञान और वचन वे समस्त व्यवहार लुप्त हो जाएंगे और उस स्थिति में समस्त जगत् अंध (ज्ञान के अभाव में अज्ञानी) तथा मूक (वचन के अभाव में गूँगा) हो जाएगा, क्योंकि (शून्य) वाद में न ज्ञेय है, न उसे जानने वाला ज्ञान है, न अभिधेय है और न उसे कहने वाला वचन है। ये सभी (चारों) भाव (सद्भाव) रूप हैं। इस तरह वस्तु को सर्वथा अभाव (शून्य) मानने पर न ज्ञान-ज्ञेय का और न वाच्य-वाचक का व्यवहार हो सकेगा- कोई व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अतः वस्तु पर-तुष्ट्य से अभावरूप ही है।
स्यादस्ति-नास्ति : वस्तु कथंचित् उभयरूप ही है, क्योंकि क्रमशः दोनों विवक्षाएँ होती हैं। ये दोनों विवक्षाएँ तभी संभव हैं जब वस्तु कथंचित दोनों रूप हो। अन्यथा वे दोनों विवक्षाएँ क्रमशः भी सम्भव नहीं है।
स्यात् अवक्तव्य : वस्तु कथंचित् अवक्तव्य ही है, क्योंकि दोनों को एक साथ कहा नहीं जा सकता। एक बार में उच्चरित एक शब्द एक ही अर्थ (वस्तु धर्म-भाव या अभाव) का बोध कराता है, अतः एक साथ दोनों विवक्षाओं के होने पर वस्तु को कह न सकने से वह अवक्तव्य ही है। इन चार भंगों को दिखलाकर वचन की शक्यता और अशक्यता के आधार पर समंतभद्र ने अपुनरुक्त तीन भंग और बतलाकर सप्तभंगी संयोजित की है। उसके तीन भंग निम्न हैं-
- स्यात् अस्ति अवक्तव्य अर्थात् वस्तु कथंचित् भाव और अवक्तव्य ही है।
- स्यात् नास्ति अवक्तव्य अर्थात् वस्तु कथंचित् अभाव और अवक्तव्य ही है।
- स्यात् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्य अर्थात् वस्तु कथंचित भाव, अभाव और अवक्तव्य ही है।
इन 7 से ही वस्तु की सही-सही व्यवस्था होती है। वास्तव में ये सात भंग सात उत्तरवाक्य हैं, जो प्रश्नकर्ता के सात प्रश्नों के उत्तर हैं। इन सात प्रश्नों का कारण उसकी सात जिज्ञासाएँ हैं, उन सात जिज्ञासाओं का कारण उसके सात संदेह हैं और उन सात संदेहों का भी कारण वस्तुनिष्ठ सात धर्म (सत्, असत्, उभय, अवक्तव्यत्व, सत्वक्तव्यत्व, असत्वक्तव्यत्व और सत्वासत्वावक्तव्यत्व) हैं। ये सात धर्म वस्तु में स्वभावतः हैं, और स्वभाव में तर्क नहीं होता। इस तरह समंतभद्र ने भाव और अभाव के पक्षों में होनेवाले आग्रह को समाप्त कर दोनों को सम्यक् बतलाया तथा उन्हें वस्तु के अपने वास्तविक धर्म निरूपित किया।
इसी प्रकार उन्होंने द्वैत-अद्वैत (एकानेक), नित्य-अनित्य, भेद-अभेद, अपेक्षा-अनपेक्षा, हेतुवाद-अहेतुवाद, पुण्य-पाप आदि युगलों के एक-एक पक्ष को लेकर होने वाले विवाद को समाप्त करते हुए दोनों को सत्य बताया और दोनों को ही वस्तुधर्म निरूपित किया। उन्होंने युक्तिपूर्वक कहा कि वस्तु को सर्वथा अद्वैत (एक) मानने पर क्रिया-कारक का भेद, पुण्य-पाप का भेद, लोक-परलोक का भेद, बंध-मोक्ष का भेद, स्त्री-पुरुष का भेद आदि लोक-प्रसिद्ध अनेकत्व का व्यवहार नहीं बन सकेगा, जो यथार्थ है, मिथ्या नहीं है। इसी तरह वस्तु को सर्वथा अनेक स्वीकार करने पर कर्ता ही फल भोक्ता होता है और जिसे बन्ध होता है उसे ही मोक्ष (बंध से छूटना) होता है, आदि व्यवस्था भी नहीं बन सकेगी। इसी प्रकार वस्तु को सर्वथा उभय, सर्वथा अवक्तव्य मानने पर भी लोक व्यवस्था समाप्त हो जायेगी। अतः वस्तु कथंचित एक ही है क्योंकि उसका सभी गुणों और पर्यायों में अन्वय (एकत्व) पाया जाता है। वस्तु कथंचित् अनेक ही है क्योंकि वह उन गुणों और पर्यायों से अविष्कभूत है। यहाँ भी भाव और अभाव की तरह अद्वैत और द्वैत में तीसरे आदि 5 भंगों की और योजना करके सप्तभंगनय से वस्तु को समंतभद्र ने अनेकांत सिद्ध किया है।
नित्य-अनित्य आदि एकान्त मान्यताओं में भी सप्तभंगी पद्धति से समन्वय किया है। उन सभी को वास्तविक बतलाकर वस्तु को नित्य-अनित्य की अपेक्षा अनेकांतात्मक प्रकट किया है। उन्होंने सयुक्तिक प्रतिपादन किया है कि अपने विरोधी के निषेधक सर्वथा (एकांत) के आग्रह को छोड़कर उस (विरोधी) के संग्राहक स्यात् (कथंचित) के वचन से तत्त्व का निरूपण करना चाहिए। इस प्रकार के निरूपण अथवा स्वीकार में वस्तु और उसके सभी धर्म सुरक्षित रहते हैं। एक-एक पक्ष तो सत्यांशों को ही निरूपित या स्वीकार करते हैं, संपूर्ण सत्य को नहीं। संपूर्ण सत्य का निरूपण तो तभी संभव है जब सभी पक्षों को आदर दिया जाये, उनका लोप, तिरस्कार, निषेध या उपेक्षा (अस्वीकार) न किया जाये। समंतभद्र ने स्पष्ट घोषणा की कि ‘निरपेक्ष इतर तिरस्कार पक्ष सम्यक नहीं है, सापेक्ष-इतर संग्राहक पक्ष ही सम्यक (सत्य प्रतिपादक) है।’
श्रवणवेलगोला के शिलालेखों और उत्तरवर्ती ग्रंथकारों के समुल्लेखों आदि से ज्ञात होता है कि समंतभद्र ने अपने समय में प्रचलित एकांतवादों का स्याद्वाद द्वारा अपनी कृतियों में ही समन्वय नहीं किया, अपितु भारत के पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर के सभी देशों तथा नगरों में पदयात्रा करके वादियों से शास्त्रार्थ किया और स्याद्वाद से उन एकांतवादों का विवाद भी समाप्त किया। श्रवणवेलगोला के एक शिलालेख नं0 54 के अनुसार-
पूर्वं पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताड़िता
पश्चान्मालव-सिधु ठक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे।
प्राप्तोहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं
वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम्।।
इस पद्य में समंतभद्र अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि राजन्! मैंने सबसे पहले पाटलिपुत्र (पटना) नगर में भेरी बजाई, उसके बाद मालव, सिंधु ठक्क (पंजाब) देश, काँचीपुर (काँजीवरम) और वैदिश (विदिशा) में बाद के लिए वादियों का आहूत किया और अब करहाटक (कोल्हापुर) में, जहाँ विद्याभिमानी बहुत वादियों का गढ़ है, सिंह की तरह वाद के लिए विचरता हुआ आया हूँ।
वे एक अन्य पद्य में अपना और भी विशेष परिचय देते हुए कहते हैं-
आचार्योऽहं शृणु कविरहं वादिराट् पंडितोऽहं
दैवज्ञोऽहं जिन भिशगहं मान्त्रिकस्तांत्रिकोऽहम्।
राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलाया-
माज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहम्।
यह परिचय भी समंतभद्र ने वाद के लिए आयोजित किसी राजसभा में दिया है और कहा है कि ‘हे राजन्! मैं आचार्य हूँ, मैं कवि हूँ, मैं वादिराट् हूँ, मैं पंडित हूँ, मैं देवज्ञ हूँ, मैं भिषग् हूँ, मैं मांत्रिक हूँ, मैं तांत्रिक हूँ, और तो क्या मैं इस समुद्रवलया पृथ्वी पर आज्ञासिद्ध हूँ- जो आदेश दूँ, वही होता है तथा सिद्ध सारस्वत भी हूँ- सरस्वती मुझे सिद्ध हैं।’
समंतभद्र ने एकांतवादों को तोड़ा नहीं, जोड़ा है और वस्तु को अनेकांतस्वरूप सिद्ध किया है। साथ ही प्रमाण का लक्षण, उसके भेद, प्रमाण का विषय, प्रमाण के फल की व्यवस्था, नयलक्षण, सप्तभंगी की समस्त वस्तुओं में योजना, अनेकांत में भी अनेकांत का प्रतिपादन, हेतुलक्षण, वस्तु का स्वरूप, स्याद्वाद की संस्थापना, सर्वज्ञ की सिद्धि आदि जैन दर्शन एवं जैन न्याय के आवश्यक अंगों और विषयों का भी प्रतिपादन किया, जो उनके पूर्व प्रायः उपलब्ध नहीं होता अथवा बहुत कम प्राप्त होता है। अतएव यह काल जैन दर्शन और जैन न्याय के विकास का आदिकाल है और इस काल को ‘समंतभद्रकाल’ कहा जा सकता है। निःसंदेह, जैन दर्शन और जैन न्याय के लिए किया गया उनका यह महाप्रयास है।
समंतभद्र के इस कार्य को उनके उत्तरवर्ती श्रीदत्त, पूज्यपाद देवनंदि, सिद्धसेन, मल्लवादी, सुमति, पात्रस्वामी आदि दार्शनिकों एवं तार्किकों ने अपनी महत्त्वपूर्ण रचनाओं द्वारा अग्रसारित किया। 63 वादियों के विजेता श्रीदत्त ने जल्प-निर्णय, पूज्यपाद देवनन्दि ने सार-संग्रह, सर्वार्थसिद्धि, सिद्धसेन ने सन्मति तर्क, मल्लवादी ने द्वादशारनयचक्र, सुमतिदेव ने सन्मतिटीका और पात्रस्वामी ने त्रिलक्षणकदर्शन जैसी तार्किक कृतियों की रचना की। दुर्भाग्य से जल्पनिर्णय, सारसंग्रह, सन्मति टीका और त्रिलक्षणकदर्शन आज उपलब्ध नहीं है। सिद्धसेन का सन्मति तर्क और मल्लवादी का द्वादशारनयचक्र उपलब्ध हैं, जो समंतभद्र की कृतियों के आभारी हैं।
इस काल में और भी दर्शन एवं न्याय के ग्रंथ रचे गये होंगे, और जो आज उपलब्ध नहीं हैं। बौद्ध, वैदिक और जैन शास्त्र भंडारों का अभी पूरी तरह अन्वेषण नहीं हुआ। अन्वेषण होने पर कोई ग्रंथ उनमें उपलब्ध हो जाए, यह संभव है। पहले अश्रुत एवं दुर्लभ सिद्धिविनिश्चय, प्रमाण-संग्रह, जैसे अनेक ग्रंथ कुछ दशक पूर्व प्राप्त हुए और अब वे भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुके हैं। जैन साधुओं में धर्म और दर्शन के ग्रंथों को रचने की प्रवृत्ति रहती थी। बौद्ध दार्शनिक शांतरक्षित (7वीं-8वीं शती ) और उनके साक्षात शिष्य कमलशील ने क्रमशः तत्त्वसंग्रह तथा उसकी टीका में जैन तार्किकों के तर्कगंथों के उद्धरण प्रस्तुत करके उनकी विस्तृत आलोचना की है। परंतु वे ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं हैं। इस प्रकार आदिकाल अथवा समंतभद्रकाल (ईस्वी 200 से ईस्वी 650) में जैन दर्शन और जैन न्याय की एक योग्य एवं उत्तम भूमिका बन चुकी थी।
मध्यकाल अथवा ‘अकलंक काल’ (650 ईस्वी से 1050 ईस्वी)
यह काल 650 ईस्वी से 1050 ईस्वी तक माना जाता है। इस काल के आरंभ में जैन दर्शन और जैन न्याय का उत्तुंग एवं सर्वांगपूर्ण महान प्रासाद जिस कुशल एवं तीक्ष्णबुद्धि तार्किक-शिल्पी ने खड़ा किया, वह सूक्ष्म प्रज्ञ-अकलंकदेव थे।
अकलंकदेव के काल में आचार्य समंतभद्र से अधिक दार्शनिक मुठभेड़ थी। एक ओर शब्दाद्वैतवादी भृतहरि, प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल, न्यायनिष्णात नैयायिक उद्योतकर आदि वैदिक विद्वान जहाँ अपने-अपने पक्षों पर आरूढ़ थे, वहीं दूसरी ओर धर्मकीर्ति, उनके तर्कपटु शिष्य एवं समर्थ व्याख्याकार प्रज्ञाकर, धर्मोत्तर, कर्णकगोमि जैसे बौद्ध मनीषी भी अपनी मान्यताओं पर आग्रहबद्ध थे। शास्त्रार्थों और शास्त्रों के निर्माण की पराकाष्ठा थी। प्रत्येक दार्शनिक का प्रयत्न था कि जिस किसी तरह वह अपने पक्ष को सिद्ध करे और परपक्ष का निराकरण कर अपनी विजय प्राप्त करे। इसके अतिरिक्त परपक्ष को असद्प्रकारों से तिरस्कृत एवं पराजित किया जाता है। विरोधी को पशु, अह्नीक, जड़मति जैसे अभद्र शब्दों का प्रयोग तो सामान्य था। यह काल जहाँ तर्क के विकास का मध्याह्न माना जाता है, वहीं इस काल में दर्शन और न्याय का बड़ा उपहास भी हुआ है। तत्त्व के संरक्षण के लिए छल, जाति, निग्रहस्थान जैसे असद साधनों का खुलकर प्रयोग करना और उन्हें स्वपक्षसिद्धि का साधन एवं शास्त्रार्थ का अंग मानना इस काल की देन बन गई थी। क्षणिकवाद, नैरात्मवाद, शून्यवाद, शब्दाद्वैत-ब्रह्माद्वैत, विज्ञानाद्वैत आदि वादों का इस काल में समर्थन किया गया और कट्टरता से विपक्ष का निरास किया गया। सूक्ष्मदृष्टि अकलंक ने इस समग्र स्थिति का अवलोकन कर सभी दर्शनों का गहरा एवम् सूक्ष्म अभ्यास किया और तत्कालीन शिक्षा केंद्रों- काँची, नालंदा आदि विश्वविद्यालयों में प्रछन्न वेश में तत्त्वत्शास्त्रों का अध्ययन किया।
समंतभद्र द्वारा पुनः स्थापित स्याद्वाद और अनेकांत को ठीक तरह से न समझने के कारण दिङ्नाग, धर्मकीर्ति आदि बौद्ध विद्वानों तथा उद्योतकर, कुमारिल आदि वैदिक मनीषियों ने अपनी एकांत दृष्टि का समर्थन करते हुए स्याद्वाद और अनेकंन्त की समीक्षा की। अकलंक ने इन्होंने जैन दर्शन और जैन न्याय के चार महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का भी सष्जन किया, जिनमें उन्होंने न केवल अनेकांत और स्याद्वाद पर किये गये आक्षेपों का उत्तर दिया, अपितु उन सभी एकांतपक्षों में दूषण भी प्रदर्शित किये तथा उनका अनेकांत दृष्टि से समन्वय भी किया।
कारिकात्मक ग्रंथ
आचार्य अकलंकदेव का पहला महत्त्वपूर्ण कार्य यह है कि जैन दर्शन और जैन न्याय के जिन आवश्यक तत्त्वों का विकास और प्रतिष्ठा उनके समय तक नहीं हो सकी थी, उनका उन्होंने विकास एवं प्रतिष्ठा की। बौद्ध परंपरा में धर्मकीर्ति ने बौद्धदर्शन और बौद्धन्याय को प्रमाणवार्तिक एवं प्रमाणविनिश्चय जैसे कारिकात्मक ग्रंथों के रूप में निबद्ध किया है उसी तरह अकलंकदेव ने भी दर्शन और न्याय के कारिकात्मक रूप में चार ग्रन्थों की रचना की। चारों ग्रंथों की कुल 962 कारिकाएँ हैं। प्रत्येक कारिका सूत्रात्मक और गंभीर है।
स्वतंत्र ग्रंथ
जैन न्याय को सुदृढ़ता प्रदान करने के लिए अकलंक ने चार स्वतंत्र ग्रंथ- लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय तथा प्रमाण संग्रह की रचना की।
न्याय-विनिश्चय : इस ग्रंथ में 430 कारिकाएँ हैं जिसमें प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन तीन प्रस्ताव हैं। इनकी तुलना सिद्धसेन विरचित न्यायवतार के प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रुत तथा बौद्धन्यायाचार्य धर्मकीर्ति द्वारा प्रतिपादित प्रत्यक्ष, स्वार्थनुमान एवं परार्थानुमान से की जाती है। न्यायविनिश्चय ग्रंथ पर स्याद्वादविद्यापति आचार्य वादिराज (ईस्वी 1025) ने न्यायविनिश्चयालंकार (न्यायविनिश्चयविवरण) नामक विस्तृत टीका लिखी है। यह ग्रंथ ज्ञानपीठ काशी द्वारा प्रकाशित हो चुका है।
सिद्धि-विनिश्चय : इस ग्रंथ में 12 प्रस्ताव हैं और 367 कारिकाएँ हैं। इनमें प्रमाण, नय, निक्षेप आदि विश्लेषित हैं। सिद्धिविनिश्चय पर तार्किकशिरोमणि आचार्य बृहदनंतवीर्य (ईस्वी 850) ने सिद्धिविनिश्चयालंकार नामक टीका की रचना की है। यह भी ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित हो चुका है।
प्रमाण-संग्रह : इसमें 87 कारिकाएँ हैं जो 9 प्रस्तावों में बँटी हुई हैं। इनमें प्रत्यक्ष, अनुमान, हेतु और हेत्वाभास, वाद, प्रवचन, सप्तभंगी, नय, प्रमाण, निक्षेप आदि की प्रतिष्ठा बड़ी ही तार्किक कुशलता के साथ हुई है। प्रमाणसंग्रह पर तार्किकशिरोमणि आचार्य बृहदनंतवीर्य (ईस्वी 850) ने प्रमाण संग्रहभाष्य नामक टीका की है। किंतु प्रमाण संग्रहभाष्य अनुपलब्ध है। प्रमाण संग्रहभाष्य का उल्लेख स्वयं अनंतवीर्य ने सिद्धिविनिश्चयालंकार में अनेक स्थलों पर किया है। इससे प्रतीत होता है कि वह अधिक विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण व्याख्या रही है। यह ग्रंथ ‘अकलंक ग्रंथत्रय’ में सिंधी ग्रंथमाला से प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रंथ की प्रशंसा में धनंजय कवि ने नाममाला में एक पद्य लिखा है-
प्रमाणमकलंकस्य, पूज्यपादस्य लक्षणम्।
धनंजयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम्।।
अकलंकदेव का प्रमाण, पूज्यपाद का व्याकरण और धनंजय कवि का काव्य ये अपश्चिम-सर्वोत्कृष्ट रत्नत्रय (तीन रत्न) हैं।
लघीयस्त्रय : लघीयस्त्रय में तीन करण हैं- प्रमाण प्रवेश, नय प्रवेश तथा प्रवचन प्रवेश। पहले ये तीन स्वतंत्र ग्रंथों के रूप में थे, किंतु बाद में इन्हें एक ही ग्रंथ लघीस्त्रय के रूप में संकलित कर दिया गया। ऐसा माना जाता है कि जैन न्याय का यह पहला ग्रंथ है, जिसमें प्रमाण, नय और निक्षेप का तार्किक प्रणाली से निरूपण हुआ है। इतना ही नहीं, बल्कि क्षणिकवाद का खंडन भी इसमें किया गया है।
अकलंकदेव ने इस पर संक्षिप्त विवृत्ति भी लिखी है, जिसे स्वोपज्ञविवृत्ति कहते हैं। आचार्य माणिक्यनंदि (ईस्वी 1028) के शिष्य आचार्य प्रभाचंद्र (ईस्वी 1043) ने लघीयस्त्रय पर लघीयस्त्रयालंकार (न्यायकुमुदचंद्र) नाम की विस्तृत एवं प्रौढ़ टीका लिखी है जो कि न्याय का एक अनूठा ग्रंथ है।
टीका ग्रंथ
अकलंक ने उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र तथा समंतभद्र की आप्तमीमांसा पर क्रमशः ‘तत्त्वार्थराजवार्तिक’ तथा ‘अष्टशती’ नामक टीका लिखी है।
तत्त्वार्थराजवार्तिक : यह ग्रंथ उमास्वामी आचार्य के तत्त्वार्थसूत्र की टीकारूप है। तत्त्वार्थवार्तिक व भाष्य तत्त्वार्थसूत्र की विशाल, गंभीर और महत्त्वपूर्ण वार्तिक रूप में व्याख्या है। इसमें अकलंकदेव ने सूत्रकार गृद्धपिच्छाचार्य का अनुसरण करते हुए सिद्धांत, दर्शन और न्याय तीनों का विशद विवेचन किया है। इस ग्रंथ की विशेषता है कि इसमें तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों पर वार्तिक रचकर उन वार्तिकों पर भी भाष्य लिखा गया है, अतः यह ग्रंथ अतीव प्रांजल और सरल प्रतीत होता है।
देवागम-विवृत्ति (अष्टशती) : समंतभद्र द्वारा रचित आप्तमीमांसा की यह भाष्यरूप टीका है। इस वृत्ति का प्रमाण 800 श्लोक प्रमाण है अतः इसका ‘अष्टशती’ यह नाम सार्थक है। इस भाष्य को वेष्टित करके श्री विद्यानंद आचार्य ने 8000 श्लोक प्रमाणरूप से ‘अष्टसहस्री’ नाम का सार्थक टीका गंथ तैयार किया। जैन दर्शन का यह सर्वोपरि ग्रंथ है
अकलंकदेव ने अपने तर्क ग्रंथों में अन्य दार्शनिकों की एकांत मान्यताओं और सिद्धांतों की कड़ी तथा मर्मस्पर्शी समीक्षा की है। जैन दर्शन में मान्य प्रमाण, नय और निक्षेप के स्वरूप, उनके भेद, विषय तथा प्रमाणफल का विवेचन इनमें विशदतया किया है। इसके अतिरिक्त जैन दृष्टि से किये गये प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेदों, प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और मुख्य- इन दो प्रकारों की प्रतिष्ठा, परोक्ष प्रमाण के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम- इन पाँच भेदों में उपमान, अर्थापत्ति, संभव, अभाव आदि अन्य दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत प्रमाणों का अंतर्भाव, सर्वज्ञ की विविध युक्तियों से विशेष सिद्धि, अनुमान के साध्य-साधन अंगों के लक्षण और भेदों का विस्तृत निरूपण, कारण हेतु, पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर आदि अनिवार्य नये हेतुओं की प्रतिष्ठा, अन्यथानुपपत्ति के अभाव से एक अकिंचित्कर हेत्वाभास का स्वीकार और उसके भेद रूप से असिद्धादि हेत्वाभासों का प्रतिपादन, जय-पराजय व्यवस्था, दृष्टांत, धर्मी, वाद, जाति और निग्रहस्थान के स्वरूप आदि का कितना ही नया प्रतिष्ठापन करके जैन दर्शन और जैन न्याय को अकलंकदेव ने न केवल समृद्ध एवं परिपुष्ट किया, अपितु उन्हें भारतीय दर्शनों एवं न्यायों में वह प्रतिष्ठित और गौरवपूर्ण स्थान दिलाया, जो बौद्ध दर्शन और बौद्ध न्याय को धर्मकीर्ति ने दिलाया। अतः अकलंक को जैन दर्शन और जैन न्याय के मध्यकाल का प्रतिष्ठाता और इसीलिए उनके इस काल को ‘अकलंक काल’ कहा जा सकता है।
जैन न्याय की पुनर्प्रतिष्ठा
आप्तमीमांसा में समंतभद्र ने आप्त की सर्वज्ञता और उनके उपदेश-स्याद्वाद (श्रुत) की सहेतुक सिद्धि की है। दोनों में साक्षात (प्रत्यक्ष) और असाक्षात (परोक्ष) का भेद बतलाते हुए उन्होंने दोनों को ‘सर्वतत्त्वप्रकाशक’ कहा है। आप्त (अरहंत) और उनके उपदेश (स्याद्वाद) दोनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनमें अंतर इतना ही है कि जहाँ आप्त वक्ता है वहाँ स्याद्वाद उनका वचन है। यदि वक्ता प्रमाण है तो उसका वचन भी प्रमाण माना जाता है। आप्तमीमांसा में ‘अर्हत्’ को युक्तिपुरस्सर आज्ञा-सिद्ध किया है। वचन ही में से वह भी प्रमाण है।
मीमांसक कुमारिल को यह सहन नहीं हुआ, क्योंकि वे किसी पुरुष को सर्वज्ञ स्वीकार नहीं कर सकते। अतएव समंतभद्र द्वारा मान्य अर्हत् की सर्वज्ञता पर कुमारिल आपत्ति करते हुए कहते हैं-
एवम् यैः केवलज्ञानमिन्द्रियाधनपेक्षिणः।
सूक्ष्मातीतादिविषयं जीवस्य परिकल्पितम्।
नर्ते तदागमात्सिद्ध्येन्न च तेनागमो विना।
अर्थात् ‘जो सूक्ष्म तथा अतीत आदि विषयक अतीन्द्रिय केवलज्ञान जीव (पुरुष) के माना जाता है। वह आगम के बिना सिद्ध नहीं होता और आगम उसके बिना सम्भव नहीं, इस प्रकार दोनों में अन्योन्याश्रय दोष होने से न अर्हत् सर्वज्ञ हो सकता है और न उनका आगम (स्याद्वाद) ही सिद्ध हो सकता है।’ यह ‘अर्हत्’ की सर्वज्ञता और उनके स्याद्वाद पर कुमारिल का एक साथ आक्षेप है। समंतभद्र के उत्तरवर्ती जैन तार्किक आचार्य अकलंक ने कुमारिल के इस आक्षेप का जवाब देते हुए कहा हैं-
एवम् यत्केवलज्ञानमनुमानविजृम्भितम्।
नर्ते तदागमात् सिद्ध्येन्न च तेन विनाऽऽगमः।
सत्यमर्थबलादेव पुरुषातिशयो मतः।
प्रभवः पौरुषेयोऽस्य प्रबन्धेऽनादिरिष्यते।
अर्थात् ‘यह सत्य है कि अनुमान द्वारा सिद्ध केवलज्ञान (सर्वज्ञता) आगम के बिना और आगम केवलज्ञान के बिना सिद्ध नहीं होता, तथापि उनमें अन्योन्याश्रय नहीं है, क्योंकि पुरुषातिशय (केवलज्ञान) को अर्थबल (प्रतीतिवश) से माना जाता है। दोनों (केवलज्ञान और आगम) का प्रबन्ध (प्रवाह) बीजांकुर प्रबंध की तरह अनादि माना गया है। अतः उनमें अन्योन्याश्रय है।’ अतएव अहत् की सर्वज्ञता और उनका उपदेश स्याद्वाद दोनों ही युक्तसिद्ध हैं।
समंतभद्र ने जो अनुमान से सर्वज्ञता (केवलज्ञान) की सिद्धि की है और जिसका कुमारिल ने उक्त प्रकार से आपत्ति उठाकर खंडन किया है, अकलंकदेव ने उसी का बहुत विशदता के साथ सहेतुक उत्तर दिया है तथा सर्वज्ञता (केवलज्ञान) और आगम (स्याद्वाद) में बीजांकुर संतति की तरह अनादि प्रवाह बतलाया है।
बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति ने भी स्याद्वाद पर निम्न प्रकार से आक्षेप किया है-
एतेनैव यत्किंचिदयुक्तमश्लीलमाकुलम्।
प्रलपन्ति प्रतिक्षिप्तं तदप्येकान्तसम्भवात्।
कपिल मत के खंडन से ही अयुक्त, अश्लील और आकुल जो किंचित् (स्यात्) का प्रलाप है वह खंडित हो जाता है, क्योंकि वह भी एकांत सम्भव है।’
यहाँ धर्मकीर्ति ने स्पष्टतया समंतभद्र के ‘सर्वथा एकांत के त्यागपूर्वक किंचित् के विधानरूप’ स्याद्वाद लक्षण का खंडन किया है। समंतभद्र से पूर्व जैन दर्शन में स्याद्वाद का इस प्रकार से लक्षण उपलब्ध नहीं होता। उनके पूर्ववर्ती आचार्य कुंदकुंद ने सप्तभंगों के नाम तो दिये हैं परंतु स्याद्वाद की उन्होंने कोई परिभाषा नहीं की। यहाँ धर्मकीर्ति द्वारा खंडन में प्रयुक्त ‘तदप्येकांत संभवात्’ पद से ध्वनित होता है कि उनके समक्ष सर्वथा एकांत के त्याग रूप स्याद्वाद की वह मान्यता रही है, जो किंचित्, कथाचित् के विधान द्वारा व्यक्त की जाती थी और धर्मकीर्ति ने ‘तदप्येकांतसंभवात्- वह भी एकांत संभव है’ जैसे शब्दों द्वारा उसी का खंडन किया है। धर्मकीर्ति के इस आक्षेप का उत्तर अकलंकदेव ने निम्न प्रकार दिया-
ज्ञात्वा विज्ञप्तिमात्रं परमपि च बहिर्भासिभावप्रवादं,
चक्रे लोकानुरोधान् पुनरपि सकलं नेति तत्त्वं प्रपेदे।
न ज्ञाता तस्य तस्मिन् न च फलमपरं ज्ञायते नापि किंचित्
इत्यश्लीलं प्रमत्तः प्रलपति जडधीराकुलं व्याकुलाप्तः।
‘कोई बौद्ध विज्ञप्तिमात्र तत्त्व को मानते हैं, कोई बाह्य पदार्थ के सद्भाव को स्वीकार करते हैं तथा कोई इन दोनों को लोकदृष्टि से अंगीकार करते हैं और कोई कहते हैं कि न बाह्य तत्त्व है, न आभ्यंतर तत्त्व है, न उनको जानने वाला है और न उसका अन्य फल है, ऐसा विरुद्ध प्रलाप करते हैं, उन्हें अश्लील, उन्मत्त, जड़बुद्धि, आकुल और आकुलताओं से व्याप्त कहा जाना चाहिए।’ अकलंक ने स्याद्वाद पर किये गये धर्मकीर्ति के आक्षेप का ‘सेर को सवा सेर’ जैसा उत्तर दिया है।
एक दूसरी जगह अनेकांत (स्याद्वाद के वाच्य) पर भी धर्मकीर्ति उपहास पूर्वक आक्षेप करते हैं-
सर्वस्ययरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः।
चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रं नाभिधावति।
‘यदि सब पदार्थ उभय रूप-अनेकान्तात्मक हैं, तो उनमें कुछ भेद न होने से किसी को दही खा कहने पर वह ऊँट को खाने के लिए क्यों नहीं दौड़ता।’
यहाँ धर्मकीर्ति ने जिस उपहास एवं व्यंग्य के साथ अनेकांत की खिल्ली उड़ाई है, अकलंकदेव ने भी उसी उपहास के साथ धर्मकीर्ति को उत्तर दिया है-
दध्युष्ट्रादेरभेदत्व- प्रसंगादेकचोदनम्।
पूर्वपक्षमविज्ञाय दूषकोपि विदूषकः।
सुगतोऽपि मृगो जातो मृगोऽपि सुगतः स्मृतः।।
तथापि सुगतो बन्द्यो मृगः खाद्यो यथेष्यते।
तथा वस्तुबलादेव भेदाभेदव्यवस्थितेः।
चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रमभिधावति।
दही और ऊँट को एक बतलाकर दोष देना धर्मकीर्ति का पूर्वपक्ष (अनेकांत) को न समझना है और वे दूषक (दूषण प्रदर्शक) होकर भी विदूषक-दूषक नहीं, उपहास के ही पात्र हैं, क्योंकि सुगत भी पूर्व पर्याय में मृग थे और वह मृग भी सुगत हुआ, फिर भी सुगत वंदनीय और मृग भक्षणीय कहा गया है और इस तरह सुगत और मृग में पर्यायभेद से जिस प्रकार क्रमशः वंदनीय एवं भक्षणीय की भेद-व्यवस्था तथा एकचित्तसंतान की अपेक्षा से उनमें अभेद व्यवस्था की जाती है, उसी प्रकार वस्तुबल (प्रतीतिवश) से सभी पदार्थों में भेद और अभेद दोनों की व्यवस्था है। अतः किसी को ‘दही खा’ कहने पर वह ऊँट को खाने के लिए क्यों दौड़ेगा, क्योंकि सत् सामान्य की अपेक्षा उसे उनमें अभेद होने पर भी पर्याय (पृथक्-पृथक् प्रत्यय के विषय) की अपेक्षा से उनमें स्पष्टतया भेद है। संज्ञा-भेद भी है। एक का नाम दही है और दूसरे का नाम ऊँट है, तब जिसे दही खाने को कहा वह दही ही खायेगा, ऊँट को नहीं, क्योंकि दही भक्षणीय है, ऊँट भक्षणीय नहीं। जैसे सुगत वन्दनीय एवं मृग भक्षणीय है। यही वस्तु-व्यवस्था है। भेदाभेद (अनेकांत) तो वस्तु का स्वरूप है, उसका अपलाप नहीं किया जा सकता।
यहाँ अकलंक ने धर्मकीर्ति के आक्षेप का शालीन उपहासपूर्वक, किंतु चुभने वाला करारा उत्तर दिया है। यह विदित है कि बौद्ध परंपरा में आप्त रूप से मान्य सुगत पूर्वजन्म में मृग थे, उस समय वे मांसभक्षियों के भक्ष्य थे। किंतु जब वही पूर्ण पर्याय का मृग मरकर सुगत हुआ तो वह वंदनीय हो गया। इस प्रकार एकचित्त संतान की अपेक्षा उनमें अभेद है और मृग तथा सुगत इन दो पूर्वापर अवस्थाओं की दृष्टि से उनमें भेद है। इसी तरह जगत की प्रत्येक वस्तु प्रत्यक्षदृष्ट भेदाभेद (अनेकांत) को लिए हुए है। इस तरह अकलंकदेव ने विभिन्न वादियों द्वारा स्याद्वाद और अनेकांत पर आरोपित दूषणों का सयुक्तिक परिहार किया।
अकलंकदेव ने जैन दर्शन और जैन न्याय को जो दिशा दी और उनका जो निर्धारण किया उसी का अनुगमन उत्तरवर्ती प्रायः सभी जैन दार्शनिकों एवं नैयायिकों ने किया है। हरिभद्र, वीरसेन, कुमारनंदि, विद्यानंद, अनंतवीर्य प्रथम, वादिराज, माणिक्यनंदि आदि मध्ययुगीन जैन तार्किकों ने उनके कार्य को आगे बढ़ाया और उसे यशस्वी एवं प्रभावपूर्ण बनाया। उनके गम्भीर एवं सूत्रात्मक निरूपण और चिंतन को इन तार्किकों ने अपने ग्रंथों में सुविस्तृत, सुपुष्ट और सुप्रसारित किया। हरिभद्र की अनेकांतजयपताका, शास्त्रवार्तासमुच्चय, वीरसेन की सिद्धांत एवं तर्कबहुला धवला-जय-धवलाटीकाएँ, वादन्यायविचक्षण, कुमारनंदि का वादन्याय, विद्यानंद के आचार्य विद्यानंद, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, युक्त्यनुशासनालंकार, अनंतवीर्य प्रथम की सिद्धिविनिश्चय टीका व प्रमाणसंग्रहभाष्य, वादिराज के न्याय-विनिश्चय विवरण, प्रमाण-निर्णय और माणिक्यनंदि का परीक्षामुख (आद्य जैन न्यायसूत्र), अकलंक से पूर्णतया प्रभावित उल्लेखनीय दार्शनिक एवं तार्किक रचनाएँ हैं, जिन्हें अकलंककाल (मध्यकाल) की महत्त्वपूर्ण देन कहा जा सकता है।
उत्तर-मध्य युग अथवा ‘प्रभाचंद्र काल’ (1050 ईस्वी से 1700 ईस्वी)
यह काल जैन दर्शन और जैन न्याय के विकास का अंतिम काल कहा जाता है। इस काल में मौलिक ग्रंथों के निर्माण की क्षमता कम हो गई और व्याख्या ग्रंथों का निर्माण मुख्यतया हुआ। यह काल तार्किक ग्रंथों के सफल और प्रभावशाली व्याख्याकार जैन-तार्किक प्रभाचंद्र से आरंभ होता है। उन्होंने इस काल में अपने पूर्ववर्ती जैन दार्शनिकों एवं् तार्किकों का अनुगमन करते हुए जैन दर्शन और जैन न्याय के ग्रंथों पर जो विशालकाय व्याख्या ग्रंथ लिखे हैं, वे अतुलनीय हैं। उत्तरकाल में उन जैसे व्याख्या ग्रंथ नहीं लिखे गये। अतएव इस काल को ‘प्रभाचंद्र काल’ कहा गया है।
प्रभाचंद्र ने अकलंकदेव के लघीयस्त्रय पर लघीयस्त्रयालंकार (न्यायकुमुदचंद्र) व्याख्या लिखी है। न्यायकुमुदचंद्र वस्तुतः न्याय रूपी कुमुदों को विकसित करने वाला चंद्र है। इसमें प्रभाचंद्र ने अकलंक के लघीयस्त्रय की कारिकाओं और उसकी स्वोपज्ञवृत्ति तथा उनके दुरूह पदवाक्यादिकों की विशद् एवं विस्तृत व्याख्या तो की ही है, किंतु प्रसंगोपात्त विविध तार्किक चर्चाओं द्वारा अनेक अनुद्घाटित तथ्यों एवं विषयों पर भी नया प्रकाश डाला है। इसी तरह उन्होंने अकलंक के वाङमय-मंथन से प्रसूत माणिक्यनंदि के आद्य जैन न्यायसूत्र परीक्षामुख पर, जिसे न्यायविद्यामृत कहा गया है, परीक्षामुखालंकार (प्रमेयकमलमार्तंड) नाम की प्रमेयबहुला एवम् तर्कगर्भा व्याख्या रची है। इसमें भी प्रभाचंद्र ने अपनी तर्कपूर्ण प्रतिभा का पूरा उपयोग किया है। इसमें परीक्षामुख के प्रत्येक सूत्र का विस्तृत एवं विशद व्याख्यान किया गया है और अनेक शंकाओं का सयुक्तिक समाधान प्रस्तुत किया है।
आचार्य प्रभाचंद्र के कुछ ही काल बाद अभयदेव ने सिद्धसेन के सन्मतिसूत्र पर विस्तृत सन्मतितर्क टीका लिखी है। यह टीका अनेकांत और स्याद्वाद पर विशेष प्रकाश डालती है। देवसूरि का स्याद्वादरत्नाकर (प्रमाण नयतत्त्वालोकालंकार) टीका भी उल्लेखनीय है। ये दोनों व्याख्याएँ प्रभाचंद्र की उपर्युक्त दोनों व्याख्याओं से प्रभावित एवम् उनकी आभारी है। प्रभाचंद्र की तर्कपद्धति और शैली इन दोनों में परिलक्षित है।
इन व्याख्याओं के अतिरिक्त इस काल में लघु अनंतवीर्य ने परीक्षामुख पर मध्यम परिणाम की परीक्षामुखवृत्ति (प्रमेयरत्नमाला) की रचना की है। यह वृत्ति मूलसूत्रों का तो व्याख्यान करती ही है, सृष्टिकर्ता जैसे वादग्रस्त विषयों पर भी अच्छा एवं विशद प्रकाश डालती है। लघीयस्त्रय पर लिखी अभयचंद्र की लघीयस्त्रयतात्पर्यवृत्ति, हेमचंद्र की प्रमाणमीमांसा, मल्लिषेण सूरि की स्याद्वादमंजरी, आशाधर का प्रमेयरत्नाकर, भावसेन का विश्वतत्त्वप्रकाश, अजितसेन की न्यायमणिदीपिका, अभिनव-धर्मभूषणयति की न्यायदीपिका, नरेंद्रसेन की प्रमाणप्रमेयकलिका, विमलदास की सप्तभंगीतरंगिणी, चारुकीर्ति के अर्थप्रकाशिका तथा प्रमेयरत्नालंकार, यशोविजय के अष्टसहस्रीविवरण, जैनतर्कभाषा और ज्ञानबिंदु इस काल के उल्लेखनीय दार्शनिक एवं तार्किक महान् ग्रंथ हैं।
अंतिम तीन तार्किकों-विमलदास, चारुकीति और यशोविजय ने अपनी रचनाओं में नव्य न्यायशैली को भी अपनाया है, जो गंगेश उपाध्याय (12वीं शती) से उद्भूत हुआ और पिछले तीन-चार दशक तक अध्ययन-अध्यापन में विद्यमान रहा है।
आधुनिक युग के जैन तार्किक (1700 ईस्वी के बाद)
बीसवीं शताब्दी में भी कतिपय दार्शनिक एवं नैयायिक हुए हैं जिन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित दर्शन और न्याय के ग्रंथों का न केवल अध्ययन-अध्यापन किया, अपितु उनका राष्ट्रभाषा हिंदी में अनुवाद एवं संपादन भी किया है। इन लेखकों ने अपने गंथों में अनुसंधानपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएँ भी लिखी हैं, जिनमें ग्रंथ एवं ग्रंथकार के ऐतिहासिक परिचय के साथ ग्रंथ के प्रतिपाद्य विषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आँकलन किया गया है। इस समय कुछ मौलिक ग्रंथ भी हिंदी भाषा में लिखे गये हैं। संतप्रवर न्यायाचार्य गणेशप्रसाद, न्यायाचार्य माणिकचंद्र, सुखलाल संघवी, महेंद्रकुमार न्यायाचार्य, कैलाशचंद्र शास्त्री, दलसुख मालवणिया एवं दरबारी लाला कोठिया न्यायाचार्य आदि के नाम विशेष उल्लेख योग्य हैं।
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