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कन्फ्यूशियस की शिक्षाएँ
‘अगर आपको उत्कृष्ट भविष्य का निर्माण करना है, तो अतीत का अध्ययन करें।’- कन्फ्यूशियस
छठी शताब्दी ईसापूर्व चीन में ही नहीं, बल्कि विश्व इतिहास में नये धार्मिक एवं दार्शनिक सिद्धांतों के प्रणयन-काल के रूप में प्रसिद्ध है। भारत, ईरान, यूनान आदि देशों में भी इस शती में नवीन विचारधारा प्रवाहित हुई थी। इस क्रांतिकारी परिवर्तन से चीन भी अछूता न रहा और इस दृष्टि से परवर्ती चाऊकाल विशेष प्रसिद्ध है क्योंकि इसी समय चीन में कई प्रख्यात दार्शनिकों का आविर्भाव हुआ, जिनमें सर्वाधिक महत्ता कन्फ्यूशियस संप्रदाय को मिली।
परवर्ती चाऊ युग में ‘बसंत और शरद काल’ (771-476 ई.पू.) के बाद चाऊ राजवंश की शक्ति कमजोर पड़ गई और चीन में बहुत से राज्य कायम हो गये, जो सदा आपस में लड़ते रहते थे। इस कारण इसे ‘झगड़ते राज्यों का काल’ (476-421 ई.पू.) कहा गया है। इस समय चीन की जनता को बहुत कष्ट उठाना पड़ रहा था। इसी समय चीनवासियों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने के लिए महात्मा कन्फ्यूशियस का आविर्भाव हुआ। हज़ारों साल बीत जाने के बाद भी महात्मा कन्फ्यूशियस की शिक्षाएं उतनी ही कारगर हैं, जितनी कि तब, जब इनकी रचना की गई थी। उनकी शिक्षाओं ने उस मुश्किल समय में तो चीनी जनता को एकजुट किया ही, बाद में भी जब-जब चीन के सामने कोई बड़ा संकट आया, कन्फ्यूशियस की शिक्षाओं ने चीनी नेताओं और जनता को सही राह दिखाई।
कन्फ्यूशियस
‘कन्फ्यूशियस’ शब्द ‘कुंग-तु-त्जे’ का लैटिन रूप है, जिसका अर्थ होता है- ‘दार्शनिक कुंग’। कन्फ्यूशियस का मूल नाम ‘तु-त्जे’ था। उसने अपने पूर्वज ‘कुंग फांग्सी’ से ‘कुंग’ की उपाधि धारण की थी। इसीलिए उसे ‘कुंग-तु-त्जे’ कहा जाता था, किंतु कालांतर में वह कन्फ्यूशियस नाम से ही प्रसिद्ध हो गया और इतिहास में उसे इसी नाम से जाना जाता है।
कन्फ्यूशियस का आरंभिक जीवन
परंपरागत रूप से माना जाता है कि कन्फ्यूशियस का जन्म 28 सितंबर, 551 ईसापूर्व को चीन में लू राज्य (शान्तुंग का प्राचीन नाम) के कु-फु में हुआ था। उसका पिता शू-लियांग-हाई त्साऊ ज़िले का रक्षक था। शू-लियांग-हाई के कई पुत्रियाँ थी, किंतु कोई पुत्र नहीं था। इसलिए सत्तर वर्ष की अवस्था में उसने येन परिवार की जहेनग्जाई से दूसरा विवाह किया, जिससे उसे कन्फ्यूशियस जैसा पुत्र प्राप्त हुआ। कहा जाता है कि माता ने निचुई की पहाड़ियों में प्रार्थना करके वरदान के रूप में कन्फ्यूशियस को जन्म दिया था। जन्म के तीन वर्ष बाद ही उसके पिता की मृत्यु हो गई, जिसके कारण कन्फ्यूशियस का लालन-पालन उसकी माता को करना पड़ा। इस प्रकार कन्फ्यूशियस का प्रारंभिक जीवन अत्यंत संघर्षमय परिस्थितियों में व्यतीत हुआ।
बचपन से ही कन्फ्यूशियस की रुचि धार्मिक अनुष्ठानों, खेलों और प्राचीन इतिहास के अध्ययन में थी। कन्फ्यूशियस ने अध्ययन के साथ-साथ धनुर्विद्या और संगीत में भी निपुणता प्राप्त कर ली। संगीत में उसकी इतनी लगन थी कि एक बार उसने इसके लिए तीन माह तक मांस नहीं खाया था। कन्फ्यूशियस का मानना था कि दार्शनिक चिंतन और विवाह में कोई विसंगति नहीं है। फलतः 19 वर्ष की अवस्था में उसने ‘सुंग’ प्रदेश की एक कन्या किगुआन से विवाह कर लिया। विवाह के शीघ्र बाद ही कन्फ्यूशियस को एक पुत्र और दो पुत्रियों की प्राप्ति हो गई। किंतु चार वर्ष बाद ही पत्नी को तलाक देने के कारण वैवाहिक संबंध टूट गया और इसके बाद उसने पुनर्विवाह नहीं किया।
गृहस्थ जीवन से विरत होने के बाद कन्फ्यूशियस ने बाईस वर्ष की उम्र में अपने घर में ही एक विद्यालय खोलकर विद्यार्थियों को शिक्षा देना प्रारंभ किया। कन्फ्यूशियस की शिक्षण की विधियाँ विशिष्ट थीं। उन्हीं के शब्दों में: ‘मैं सिर्फ जिज्ञासा पैदा करता हूँ और जोश जगाता हूँ। यदि मैं एक कोना थाम लूँ और विद्यार्थी अन्य तीन कोनों से मुझ तक वापस न पहुँच सके, तो मैं पाठ को आगे नहीं पढ़ाता।’ कन्फ्यूशियस के इस विद्यालय में विद्यार्थियों को इतिहास, काव्य और नीतिशास्त्र की शिक्षा प्रदान की जाती थी। विद्यार्थी अपनी इच्छानुसार शुल्क देते थे। कहा जाता है कि कन्फ्यूशियस ने कुल मिलाकर, 3,000 विद्यार्थियों को शिक्षित किया था और उनमें से 75 के लगभग उच्चकोटि के प्रतिभाशाली विद्वान् थे। वास्तव में कन्फ्यूशियस की सरल शिक्षण-विधि के कारण उनके शिष्यों की संख्या बहुत बढ़ गई थी।
किंतु कन्फ्यूशियस के जीवन में एक बड़ा बदलाव तब आया जब 517 ईसापूर्व में लू राजपरिवार से संबंध रखने वाले दो युवक उनके शिष्य बन गये। उनके साथ कन्फ्यूशियस ने राजधानी की यात्रा की और वहाँ के राजकीय पुस्तकालय में ऐतिहासिक अनुसंधान कार्य किया।
कन्फ्यूशियस को 52 वर्ष की आयु में ‘लू’ राज्य में सरकारी नौकरी मिल गई और उसे चुंग-तू नगर का मुख्य नगर अधिकारी नियुक्त किया गया। इस पद का निर्वाह कन्फ्यूशियस ने बड़ी कुशलता के साथ किया। कहा जाता है कि उसका शासन इतना कठोर था कि यदि मार्ग में किसी की कोई वस्तु गिर जाती थी तो या तो वह पड़ी रहती थी या उसे उसके स्वामी के पास पहुँचा दिया जाता था। इसके बाद कन्फ्यूशियस को सार्वजनिक निर्माण विभाग में कार्यवाहक अधीक्षक तथा इसके बाद राज्य परिषद में पुलिस मंत्री बनाया गया। मंत्री के रूप में उसने दंड के बदले मनुष्य के चरित्र-सुधार पर बल दिया, जिससे कन्फ्यूशियस की लोकप्रियता में वृद्धि हुई। किंतु इस पद पर वह अधिक दिनों तक नहीं रह सका। त्सी के शासक ने लू राज्य के शासक के पास एक नर्तकी भेजी और राजकार्य की उपेक्षा कर राजा तीन दिनों तक उसके पास पड़ा रहा। इस अनैतिकता के कारण उसका मन विक्षुब्ध हो गया और उसने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया।
इसके बाद कन्फ्यूशियस 13 वर्षों तक एक राज्य से दूसरे राज्य में ऐसे आदर्श राजा की खोज में घूमता-फिरता रहा, जो उसके नैतिक विचारों को व्यावहारिक रूप दे सके। किंतु इसमें उसे सफलता नहीं मिल सकी। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वह लू राज्य में लौट आया, जहाँ कुछ वर्ष बाद 72 वर्ष की आयु में 11 अप्रैल, 479 ईसापूर्व को उसकी मृत्यु हो गई। अपनी मृत्यु के समय उसे इस बात का कष्ट रहा कि वह अपने सिद्धांतों को प्रशासन में कार्य-रूप में रूपांतरित नहीं कर सका।
कन्फ्यूशियस एक समाज सुधारक था, धर्म प्रचारक नहीं। उसने ईश्वर के बारे में कोई उपदेश नहीं दिया, किंतु फिर भी बाद में लोग उसे धार्मिक गुरु मानने लगे। कन्फ्यूशियस के समाज-सुधारक उपदेशों से चीनी समाज में एक स्थिरता आई और उसका दर्शनशास्त्र आज भी चीनी शिक्षा का पथ-प्रदर्शक है।
कन्फ्यूशियस के सिद्धांत एवं शिक्षाएँ
कन्फ्यूशियस एक धर्मनिष्ठ, सदाचारी तथा परंपरावादी सुधारक था। उसका विचार था कि अतीत के सिद्धांत और विचार श्रद्धेय हैं और उन्हीं के आचरण से ही समाज, राज्य एवं राष्ट्र का कल्याण संभव है। उसने लोगों को विनयी, परोपकारी, गुणी और चरित्रवान बनने की प्रेरणा दी और बड़ों तथा पूर्वजों के प्रति आदर-सम्मान पर जोर दिया। कन्फ्यूशियस का कहना था कि दूसरों के साथ वैसा बर्ताव न करो जैसा तुम स्वयं अपने साथ नहीं करना चाहते हो। उसके द्वारा प्रतिपादित प्रमुख सिद्धांत व शिक्षाएँ इस प्रकार हैं-
सामाजिक सिद्धांत एवं शिक्षाएँ
कन्फ्यूशियस ने अपनी दार्शनिक विचारधारा में व्यक्ति, परिवार और समाज के महत्व को स्थान दिया है। कन्फ्यूशियस के अनुसार आदर्श समाज का निर्माण राजा-प्रजा, पति-पत्नी, पिता-पुत्र, अग्रज-अनुज एवं मित्र-मित्र के पारस्परिक संबंधों द्वारा होता है। कोई समाज तभी उन्नति कर सकता हैं, जब इन संबंधों में परस्पर माधुर्य हो। यदि संबंधों में कटुता होगी तो समाज भ्रष्ट हो जायेगा। इस प्रकार कन्फ्यूशियस समाज की इकाई परिवार है और परिवार की इकाई मनुष्य को मानता था। अधिकांश सामाजिक दोषों का मूल कारण व्यक्ति की व्यक्तिगत अनुदारता और स्वार्थपरता है। अतः समाज को सुधारने के लिए व्यक्ति को सुधारना आवश्यक है। सामाजिक कल्याणार्थ पितरों की पूजा आवश्यक है। इसीलिए पूर्वजों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए और उनकी उपासना करनी चाहिए। उसकी कल्पना का समाज मनुष्य-निर्मित नहीं, अपितु देव-निर्मित था।
चूंकि, कन्यूशियस वर्गवाद का समर्थक था। अतः उसने विचार प्रकट किया कि शासक, अधिकारी, सामंत, कृषक तथा श्रमिक को अपने-अपने वर्ग में रहकर अपने-अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वाह करना चाहिए। व्यक्ति की श्रेष्ठता कर्म पर अवलंबित होती है। कन्यूशियस की दृष्टि में मनुष्य का चरम लक्ष्य अपनी परिधि में रहकर अपने कर्तव्य का समुचित पालन करना है। वर्ग के अतिक्रमण से सामाजिक व्यवस्था बिगड़ जाती है, किंतु कन्यूशियस वर्ग-परिवर्तन का विरोधी नहीं था। उसका कहना था कि वर्ग-परिवर्तन किया जा सकता है, किंतु मनुष्य जिस वर्ग में जाए, उसे उसी के अनुसार आचरण करना चाहिए।
सदाचार एवं नैतिक सिद्धांत व शिक्षाएँ
कन्फ्यूशियस ने मुख्यतः नैतिकता और आचारशास्त्र पर बल दिया है। कन्फ्यूशियस के अनुसार आदर्श मनुष्य वह है जो अपनी उन्नति के साथ समस्त मानव जाति की उन्नति का प्रयत्न करे। व्यक्तिगत उन्नति, नैतिक आचरण एवं सदाचार से ही संभव है, किंतु मानव जाति की नैतिक उन्नति के लिए व्यक्ति में बुद्धिमत्ता, साहस और परोपकार की भावना का होना आवश्यक है। कन्फ्यूशियस का विश्वास था कि नैतिक बल के समक्ष शस्त्र बल भी निर्बल पड़ जाता है। उसकी दृष्टि में सदाचारी व्यक्ति वही है जिसमें दया, करुणा, ईमानदारी और आत्म-सम्मान की भावना कूट-कूट कर भरी हो। गुण-शून्य व्यक्ति को चाहिए कि वह विवेकशील और प्रबुद्ध व्यक्ति के गुणों को अपने जीवन का आधार बनाये। प्रत्येक मनुष्य को आचरणपरक नियमों जैसे-उठने-बैठने, खाने-पीने, पहनने इत्यादि का परिपालन करना चाहिए। इन शिष्टाचारों के व्यवहार से ही व्यक्ति का सही मूल्यांकन संभव है।
धार्मिक सिद्धांत व शिक्षाएँ
कन्फ्यूशियस के अनुसार ‘ति-येन’ सर्वशक्तिमान शासक है। इसके नीचे अन्य देव हैं, जो मनुष्य को प्रभावित करते हैं। स्वर्ग की उपासना करनी चाहिए। अपने पूर्वजों, पर्वतों, नदियों आदि के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए। ईश्वर का विधान अनंत है; सूर्य, चंद्र शाश्वत हैं; ऋतुएँ अपने समय पर आती हैं। विश्व की सृष्टि होती रहती है। जो ईश्वर के विरुद्ध पाप करता है, उसके लिए प्रायश्चित का कोई स्थान नहीं है। उसके अनुसार देव और देवलोक का ज्ञान मनुष्य की पहुँच से परे है, इसलिए उसे सांसारिक जीवन पर ही ध्यान देना चाहिए और नैतिक उन्नति का सतत प्रयास करना चाहिए।
कन्फ्यूशियस का कहना था कि हमारे लौकिक जीवन के विषय ही इतने अधिक हैं कि लोकोत्तर विषयों के ऊपर नष्ट करने के लिए न तो हमारे पास समय है और न ही शक्ति। एक बार जब उसके एक शिष्य त्जे कुंग ने मृत्यु के विषय में प्रश्न किया, तो कन्फ्यूशियस ने उत्तर दिया कि ‘जब तुम जीवन के विषय में नहीं जानते, तो मृत्यु के विषय में कैसे समझ सकते हो’। कन्फ्यूशियस के इस वक्तव्य में विज्ञान और दर्शन दोनों के तत्त्व सन्निहित है कि क्रमबद्ध, सुव्यवस्थित और सदाचारयुक्त जीने की प्रक्रिया ही जीवन है, जबकि वास्तविक जीवन में भविष्य की अतिशय कल्पना ही मृत्यु है।
राजनीतिक सिद्धांत एवं शिक्षाएँ
कन्फ्यूशियस के राजनीतिक विचार भी नैतिक विचारों के समान सरल थे और आचारशास्त्र पर आधारित थे। कन्फ्यूशियस के अनुसार जो व्यवस्था विश्व और प्रकृति पर नियंत्रण करती है, वही समाज और व्यक्ति को भी नियंत्रित करती है। जैसे ब्रह्मांड और प्रकृति पर ति-येन का शासन है, वैसे समाज पर उसके प्रतिनिधि का। शासक, मंत्री तथा अधिकारियों की स्थिति विश्व व्यापार के अनुरूप है।
कन्फ्यूशियस के अनुसार कोई भी सरकार केवल शस्त्र बल पर स्थिर नहीं रह सकती है। राज्य की स्थिरता का मूलाधार लोकमत होता है और लोकमत की अनुकूलता राजा के चरित्र तथा सुशासन और प्राचीन अनुष्ठानों के विधिवत् पालन करने पर निर्भर होती है। जब किसी राज्य का राजा दुराचारी हो जाता है, तो वह शासन करने की दैवी अनुमति खो देता है और उसके राज्य का तीव्रता से पतन आरंभ हो जाता है। यदि राजा सदाचारी और बुद्धिमान होता है तो राज्य की उन्नति होती है। इसलिए राज्य के स्थायित्व के लिए आवश्यक है कि राजा प्रजा के सामने उच्च चरित्र का आदर्श प्रस्तुत करे और प्राचीन अनुष्ठानों का विधिवत् पालन करता रहे। इस प्रकार नैतिकता से प्रशिक्षित प्रशासक ही राज्य की सार्वभौमिक उन्नति कर सकता है। ऐसा प्रशासक ‘चुन-त्जू’ (भद्रजन) कहलाते हैं।
शासक के साथ-साथ राजकर्मचारियों को भी चरित्रवान एवं अनुशासित होना चाहिए। राजा की अनैतिकता के कारण ही कन्फ्यूशियस ने अपना पद छोड़ दिया था। राजा को अपने अन्यायी पदाधिकारियों को हटाकर उनके स्थान पर सुचरित्र व्यक्तियों को नियुक्त करना चाहिए।
कन्फ्यूशियस का कहना था कि किसी देश में अच्छा शासन और शांति तभी स्थापित हो सकती है जब शासक, मंत्री तथा जनता का प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने स्थान पर उचित कर्तव्यों का पालन करते रहें। कन्फ्यूशियस से एक बार पूछा गया कि यदि उसे किसी प्रदेश के शासन-सूत्र के संचालन का भार सौंपा जाए तो वह सबसे पहला कौन-सा महत्वपूर्ण कार्य करेगा। इसके लिए उसका उत्तर था- ‘नामों में सुधार’। इसका आशय यह था कि जो जिस नाम के पद पर प्रतिष्ठित हो, उसे उस पद से संलग्न सभी कर्तव्यों का विधिवत् पालन करना चाहिए, जिससे उसका वह नाम सार्थक हो। कन्फ्यूशियस के शब्दों में ‘अच्छा शासन राजा के राजा होने, मंत्री के मंत्री होने, पिता के पिता होने और पुत्र के पुत्र होने में है।’
कन्फ्यूशियस की मान्यता थी कि राजा को आत्म-अनुशासन सीखना चाहिए। उसे प्रजा को अपना उदाहरण प्रस्तुत करके निर्देश देना चाहिए और उनके साथ प्रेम और निजी सरोकार से व्यवहार करना चाहिए। अपने विचारों को व्यावहारिक रूप देने के लिए उसने घोषणा की थी कि यदि कोई शासक 12 महीने के लिए उसे अपना मुख्य परामर्शदाता बना ले तो वह बहुत कुछ करके दिखा सकता है और यदि उसे तीन वर्ष का समय दिया जाए तो वह अपने आदर्शों और आशाओं को मूर्त रूप प्रदान कर सकता है।
एक बार कन्फ्यूशियस अपने कुछ शिष्यों के साथ ताई नामक पहाड़ी से होकर कहीं जा रहे थे। एक स्थान पर वह सहसा रुक गए। शिष्यों ने जिज्ञासु नेत्रों से उनकी ओर देखा। वे बोले, ‘आसपास कहीं कोई रो रहा है।’ इतना कहकर वे रुदन को लक्ष्य करके चल पड़े। शिष्यों ने उनका अनुगमन किया। कुछ दूर जाकर उन्होंने देखा कि एक स्त्री रो रही है। उन्होंने बड़ी सहानुभूति से उससे रोने का कारण पूछा। स्त्री ने बताया कि इस स्थान पर उसके पुत्र को एक चीते ने मार डाला। कन्फ्यूशियस ने कहा, ‘किंतु तुम अकेली ही दिख रही हो। तुम्हारे परिवार के अन्य लोग कहां हैं?’ स्त्री ने कातर स्वर में जवाब दिया, ‘अब मेरे परिवार में है ही कौन? इसी पहाड़ी पर मेरे ससुर और पति को भी चीते ने फाड़ डाला था।’ कन्फ्यूशियस ने आश्चर्य से कहा, ‘तो तुम इस भयंकर स्थान को छोड़ क्यों नहीं देती?’ स्त्री बोली, ‘इस स्थान को इसलिए नहीं छोड़ती कि यहां पर किसी अत्याचारी का शासन नहीं है।’
कन्फ्यूशियस ने अपने शिष्यों से कहा, ‘यद्यपि, यह स्त्री करुणा और सहानुभूति की अधिकारिणी है तथापि इसने हम लोगों को एक महान् सत्य प्रदान किया है। वह यह कि ‘अत्याचारी सरकार चीते से भी कठोर होती है।’ अत्याचारी शासन में रहने की अपेक्षा अच्छा है कि किसी पहाड़ी अथवा वन में रह लिया जाए। किंतु यह व्यवस्था सार्वजनिक नहीं हो सकती। इसलिए जनता को चाहिए कि वह अत्याचारी शासन का समुचित विरोध करे और सत्ताधारी को अपना सुधार करने के लिए विवश करने का उपाय करे। अत्याचारी शासन को भय के कारण सहन करने वाला समाज किसी प्रकार की उन्नति नहीं कर सकता। विकासहीन जीवन व्यतीत करता हुआ वह युगों तक नारकीय यातना भोगा करता है और सदैव अवनति के गर्त में ही पड़ा रहकर जिस-तिस प्रकार जीवन व्यतीत करता रहता है। इसलिए दुष्ट के शासन को पलटने के लिए जनता सदैव जागरूक रहना चाहिए।
शैक्षिक एवं चिंतनशील शिक्षाएँ
कन्फ्यूशियस के अनुसार शिक्षण और चिंतन के बीच एक अन्यान्यायोश्रित संबंध है। उसके अनुसार चिंतन के अभाव में शिक्षण व्यर्थ है और शिक्षण के बिना चिंतन खतरनाक है। ज्ञान की प्राप्ति में चार बाधाएँ हैं- पक्षपातपूर्ण मस्तिष्क (स्वेच्छाचारपूर्ण निष्कर्ष), हठधर्मिता, दंभ और कार्य के प्रति उदासीनता। सीखने के लिए आवश्यक है कि विद्यार्थी तटस्थता और ईमानदारी के साथ सीखे। गुरु केवल मार्गदर्शन ही कर सकता है, किंतु व्यक्ति को अपने चरित्र में सौजन्य, सहृदयता, सद्भावना, परिश्रम और दयालुता जैसे गुणों का विकास करना उसकी स्वयं की जिम्मेदारी है। जिसमें सौजन्य का गुण है, उसका कभी अपमान नहीं होगा, जो सहृदय है, वह प्रजा को जीत लेगा, जिसमें दूसरों के प्रति सद्भावना है, वह दूसरों का विश्वास प्राप्त कर लेता है। परिश्रमी अपना लक्ष्य सिद्ध कर लेता है और दयालु दूसरों से सेवा ले सकता है। भद्रजन को अपने भीतर गुणों के विकास की कामना होती है, धन-दौलत की नहीं; इसलिए शिक्षित व्यक्ति को अपने व्यवहार के प्रति सदैव चिंतनशील होना चाहिए।
पारलौकिक सिद्धांत एवं शिक्षाएँ
कन्फ्यूशियस लौकिकवादी थे और पारलौकिक विषयों, जैसे- आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नरक आदि कल्पनातीत विषयों पर अविश्वास प्रकट किया है। गौतम बुद्ध की तरह वह देवताओं के विषय में नहीं पड़ना चाहता था। इसके पीछे उसका मानना था कि इन अदृश्य विषयों के ऊपर समय नष्ट करने का कोई औचित्य नहीं है और बुद्धिमत्ता की बात यही है कि प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण उत्तरदायित्व और ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन करे और देवी-देवताओं का आदर करते हुए भी उनसे अलग रहे। उसका मत था कि जो मनुष्य मानव की सेवा नहीं कर सकता, तो वह देवी-देवताओं की सेवा क्या करेगा।
कन्फ्यूशियस द्वारा प्रतिपादित इन नवीन सिद्धांतों व शिक्षाओं ने चीनियों को बहुत प्रभावित किया। उसके उपदेशों से समाज में स्थिरता आई और राज्य में व्यवस्था स्थापित हुई। अब चीनियों का चरित्र निरंतर उन्नत होने लगा और वे एकता के सूत्र में आबद्ध होने लगे। विलड्यूरेंट का मानना है कि ‘कन्फ्यूशियस के दर्शन की सहायता से चीन ने सामूहिक जीवन, विद्या और ज्ञान के प्रति जिज्ञासा तथा शांत एवं स्थायी संस्कृति का विकास किया और इसी से चीनी सभ्यता को इतनी शक्ति प्राप्त हुई कि अनेक हमलों का सामना करने के बावजूद भी जीवित रही और प्रत्येक आक्रमणकारी को परिवर्तित कर आत्मसात् कर सकी।’ इतिहासकार फिट्जराल्ड के अनुसार कन्फ्यूशियस की शिक्षाओं ने चीनियों के हृदय पर विजय प्राप्त की। आज भी चीन में लगभग एक तिहाई लोग उसके मत के अनुयायी हैं। कालांतर में उसके सम्मान में मूर्ति और मंदिर भी निर्मित होने लगे। उसकी शिक्षाओं को शिलाखंडों पर खुदवाया गया और उन्हें प्रमुख स्थानों पर स्थापित किया गया।
इस प्रकार कन्फ्यूशियस लौकिक जीवन में आस्था रखने वाला प्रथम दार्शनिक था। नैतिक उत्थान द्वारा जीवन को सुसंस्कृत एवं समृद्ध बनाने का उसका मूलमंत्र आज के विज्ञान व प्रौद्योगिकी युग में भी शांति की स्थापना का सबसे सहज मार्ग है।
मेंसियस या माँग-त्जे
कन्फ्यूशियस के विचारों को प्रसारित एवं अक्षुण्ण बनाये रखने का महत्त्वपूर्ण कार्य प्रसिद्ध और प्रतिभाशाली प्रतिभाशाली विचारक मेंसियस (माँग-को अथवा माँग-त्जू) ने किया। इसका वास्तविक नाम ‘माँग-को’ था, जिसे बाद में बदल कर ‘माँग-त्जे’ कर दिया गया।
कन्फ्यूशियस के समान मेंसियस (372-289 ईसापूर्व) का जन्म भी लू राज्य में हुआ था। मेंसियस के ऊपर कन्फ्यूशियस के ग्रंथों से अधिक प्रभाव संभवतः उसकी माँ का प्रभाव पड़ा था, जो चीनी इतिहास में एक ‘आदर्श माँ’ के रूप में प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि उसकी माँ ने उसे एक अच्छा आदमी बनाने के लिए तीन बार निवास स्थान परिवर्तित किया था। पहले वह एक श्मशान के समीप रहती थी, जिससे मेंसियस अंत्येष्टि प्रबंधक से प्रभावित होकर उसी प्रकार का आचरण करने लगा था। इससे ऊबकर वह एक मांस विक्रेता के पड़ोस में चली गई, किंतु यहाँ मेंसियस मारे जाते हुए पशुओं के आर्तस्वर की नकल कर चिल्लाता था। इसके बाद वह एक बाजार के पास चली गई, किंतु वहाँ वह व्यापारी बनने का प्रयास करने लगा। अंत में, कहा जाता है कि यह एक विद्यालय के पास गई जहाँ उसे शांति मिली। जब मेंसियस पढ़ाई-लिखाई से मुख मोड़ने लगा और इधर-उधर घूमने लगा, तो उसको शिक्षा की ओर पुनः उन्मुख करने के लिए एक दिन उसकी माता ने उसकी ढरनी का तागा काट दिया। जब मेंसियस ने इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि ऐसा उसके पढ़ाई से विमुख होने के कारण किया है। इस घटना ने मेंसियस के जीवन को पूर्णतः परिवर्तित कर दिया। इसके बाद वह अध्ययन में लीन हो गया और शीघ्र ही दर्शन का अच्छा विद्वान् बन गया। तत्पश्चात् अपने पूर्व दार्शनिक की भाँति उसने एक विद्यालय की स्थापना करके शिष्यों को शिक्षा देना प्रारंभ कर दिया। उसकी प्रसिद्ध रचना ‘बुक ऑफ मेंसियस’ का चीनी दार्शनिक ग्रंथों में विशिष्ट स्थान है।
कन्फ्यूशियस के आदर्शों को आगे बढ़ाने के कारण मेंसियस को भी प्रसिद्धि मिली। कन्फ्यूशियस के समान उसकी रुचि भी राजनीति में थी और वह भी अपने विचारों को व्यावहारिक रूप देने के लिए किसी ऐसे राजा की खोज में था जो उसके विचारों को व्यावहारिक रूप दे सके।
मेंसियस का भी मानना था कि किसी राज्य की स्थिरता शस्त्रबल पर नहीं, राजा के सुचरित्र पर निर्भर होती है क्योंकि ‘यथा राजा तथा प्रजा’। मेंसियस भी मानता था कि मनुष्य प्रकृत्या अच्छा होता है, आवश्यकता केवल इस बात की है कि उसकी अच्छाई को विकसित करने का समुचित वातावरण प्रदान किया जाए। एक बुद्धिमान राजा को अपने पड़ोसियों से युद्ध करके अपनी शक्ति और समय को नष्ट न करने के बजाय अपनी प्रजा की निर्धनता को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। ऐसे राजाओं के विरुद्ध कोई विद्रोह नहीं होता और जो राजा ऐसा नहीं कर सकते, उन्हें राजा बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है।
मेंसियस या माँग-त्जे की शिक्षाएँ
कन्फ्यूशियस की भाँति मेंसियस की भी तर्कशास्त्र, ज्ञान मीमांसा तथा तत्त्वमीमांसा में कोई रुचि नहीं थी। उसका भी दर्शन मुख्यतः आचारशास्त्र एवं सद्गुणों पर आधारित था। वह शुभ व्यक्तियों द्वारा शुभशासन की स्थापना करना चाहता था। मेंसियस की प्रमुख शिक्षाएँ इस प्रकार हैं-
मेंसियस प्रजातंत्र की अपेक्षा राजतंत्र को श्रेष्ठ मानता था, क्योंकि राजतंत्र में एक व्यक्ति अर्थात् राजा को शिक्षित करने से काम चल सकता है, किंतु प्रजातंत्र में सभी को शिक्षित करना पड़ता है।
मेंसियस भी मानता था कि मनुष्य प्रकृति से ही सच्चरित्रवान है। अतः शासन का दायित्व है कि वह इन गुणों को विकसित करने के लिए समुचित वातावरण प्रस्तुत करे। इसके विकास के लिए संगीत व कला का भी सहारा लिया जा सकता है।
मेंसियस के अनुसार यदि शासक दुराचरण का अवलंबन करता है तो शासित को अधिकार है कि वह उसे पदच्युत कर दे। इस प्रकार मेंसियस सुव्यवस्था के लिए दंड को आवश्यक मानता था और कहता था कि नियत एवं निश्चित अपराध के लिए दंड दिया जाना सर्वथा उचित है।
मेंसियस युद्ध विरोधी था और कहता था कि जो यह कहते हैं कि ‘मैं युद्धवीर कुशल सेनानायक हूँ’ सिद्धांतः अज्ञानी और अपराधी हैं। युद्ध मानवता का विनाशक है। मेंसियस का विचार था कि एक अच्छे शासक को दूसरे देशों से युद्ध करने की अपेक्षा निर्धनता से लड़ना चाहिए, क्योंकि निर्धनता व अशिक्षा ही राज्य में अव्यवस्था पैदा करते हैं। इस प्रकार निर्धनता से लड़ना युद्ध करने की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर है।
मेंसियस के अनुसार शासित वर्ग के कल्याण का उत्तरदायित्व शासक का है। यदि वह अकाल को रोक नहीं सकता, तो उसे अपना पद त्याग देना चाहिए। मेंसियस उपयोगितावादी था। उसके अनुसार जिन कार्यों से प्रजा के नैतिक हितों की सिद्धि नहीं होती, वह व्यर्थ और हानिकारक है, जैसे-युद्ध, विलासिता और कर्मकांड पर व्यय किया गया धन।
मेंसियस का मानना था कि नागरिकों अथवा व्यक्तियों के नैतिकोत्थान से ही सुसंस्कृत राज्य का निर्माण संभव है। अतः राजा को चाहिए कि वह प्रजा के नैतिक आदर्श के विकास के लिए न्यायोचित वातावरण प्रस्तुत करे।
मेंसियस के अनुसार घृणा ही सामाजिक व्याधियों की जड़ है। इससे सामाजिक वर्गभेद का उदय होता है। इस सामाजिक दोष को सार्वभौम स्नेह द्वारा ही दूर किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने पद के अनुसार नियमों व कानूनों का अनुशासनपूर्वक दृढ़ता से पालन करना चाहिए।
मेंसियस के चिंतन में कुछ विसंगतियाँ भी थीं। एक ओर तो वह सार्वभौमिक प्रेम का प्रयोक्ता था, तो दूसरी ओर सत्ता के कठोर प्रयोग करने का समर्थक भी। ये दोनों परस्पर विपरीतार्थक हैं और एक ही वातावरण में एक साथ संभव नहीं है। मेंसियस का विचार था कि राजा की सत्ता उसे स्वर्ग से प्राप्त हुई है और वह तभी तक उसके पास रहेगी जब तक कि स्वर्ग वैसा चाहेगा। इससे राजा की निरंकुशता को बल मिला और कन्फ्यूशियस की इस उपलब्धि को मलीन कर दिया कि राजा की सत्ता उसके सदाचार और प्रजापालन पर आधारित है। इस प्रकार वह राजा के गुणों पर बल नहीं देता।
शुन-कुआंग या सुन-त्जू
कन्फ्यूशियस के विचारों पर चलने वाला चाऊकालीन एक अन्य प्रसिद्ध दार्शनिक शुन-कुआंग या सुन-त्जू (305-235 ईसापूर्व) था।
शुन-कुआंग भी मुख्यतः सुशासन का समर्थक था। किंतु वह ऐसे युग में उत्पन्न हुआ था जब चीन की राजनीतिक तथा सामाजिक स्थिति अव्यवस्थित थी और सभी जगह हिंसात्मक द्वंद व्याप्त था। इस आधार पर शुन-कुआंग की धारणा बन गई कि मनुष्य प्रकृत्या बुरा होता है और उसमें सद्गुण जन्मजात नहीं होता है। फिर भी, शिक्षा द्वारा मनुष्य में सद्गुणों को उत्पन्न किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, मनुष्य बुरा पैदा होता है, किंतु नियमों तथा कानूनों के पालन, सुयोग्य शासकों के आदर्श, अनुष्ठान के नियमित एवं उचित संपादन, प्रयत्न, अभ्यास आदि के द्वारा उसमें इन गुणों को पैदा किया जा सकता है।
शुन-कुआंग ने भी युद्धप्रिय राजाओं की निंदा करते हुए कहा कि ‘उन्हें अपने शत्रुओं की प्रजा को भी शस्त्र-बल से नहीं, बल्कि अपने आदर्श व्यक्तित्व और सदाचरण से जीतने का यत्न करना चाहिए।’
प्राचीन परंपराओं तथा आर्षवचनों में शुन-कुआंग की आस्था थी। वह अंधविश्वास, भूत-प्रेतादि और शकुन-परीक्षण में विश्वास नहीं करता था। स्वर्ग से संबंधित उसने विचार व्यक्त किया है कि यह एक ऐसा विधान है, जहाँ यंत्रवत् पुण्यकर्मा को पुरस्कृत और पापकर्मा को दंडित किया जाता है। इसलिए मनुष्य को शास्त्रीय नियमों का अनुपालन करना चाहिए। आध्यात्मिक और पलायनवादी दर्शन समाज के लिए व्यर्थ हैं। इस प्रकार शुन-कुआंग एक यथार्थवादी विचारक था।
कन्फ़्यूशियसवाद
कन्फ़्यूशियस किसी नवीन धर्म का प्रवर्तक नहीं था। कन्फ़्यूशियस के अनुसार भलाई मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। मनुष्य को यह स्वाभाविक गुण ईश्वर से मिला है। अतः इस स्वभाव के अनुसार कार्य करना ईश्वर की इच्छा का आदर करना है और उसके अनुसार कार्य न करना ईश्वर की अवज्ञा करना है।
कन्फ़्यूशियस ने कभी इस बात का दावा नहीं किया कि उसे कोई दैवी शक्ति या ईश्वरीय संदेश प्राप्त होते थे। वह केवल इस बात का चिंतन करता था कि व्यक्ति क्या है और समाज में उसके कर्तव्य क्या हैं। उसने शक्ति-प्रदर्शन, असाधारण एवं अमानुषिक शक्तियों तथा देवी-देवताओं का जिक्र कभी नहीं किया। उसका कहना था कि बुद्धिमत्ता की बात यही है कि प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण उत्तरदयित्व और ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन करे और देवी-देवताओं का आदर करते हुए भी उनसे अलग रहे। उसका मत था कि जो मनुष्य मानव की सेवा नहीं कर सकता, वह देवी-देवताओं की सेवा क्या करेगा। उसे अपने और दूसरों के सभी कर्तव्यों का पूर्ण ध्यान था, इसीलिए उसने कहा था कि बुरा आदमी कभी भी शासन करने के योग्य नहीं हो सकता, भले ही वह कितना भी शक्ति-संपन्न हो। नियमों का उल्लंघन करनेवालों को तो शासक दंड देता ही है, किंतु उसे कभी यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके सदाचरण के आदर्श प्रस्तुत करने की शक्ति से बढ़कर अन्य कोई शक्ति नहीं है।
कन्फ्यूशियसवाद एक धर्म नहीं, बल्कि एक नैतिक संहिता या दार्शनिक विश्वदृष्टि है। गैर-पश्चिमी चिंतन में धर्म और दर्शन के बीच कहीं अधिक धुंधली रेखा है। अधिकांश पश्चिमी विभेद वास्तव में अपेक्षाकृत आधुनिक परिघटना है, जो पश्चिमी यूरोप के प्रबोधन काल की विशिष्टता है। यद्यपि कन्फ्यूशियसवाद पश्चिमी मानकों के अनुसार एक धर्म नहीं है। किंतु यदि धर्म परा-प्राकृतिक इकाइयों की पूजा है, तो कन्फ्यूशियसवाद निश्चित ही धर्म नहीं है। किंतु, दूसरी ओर यदि धर्म को एक आस्था की पद्धति के रूप में परिभाषित किया जाए, जिसमें नैतिक स्थितियाँ, दैनिक जीवन के लिए दिशा-निर्देश, मानवता का व्यवस्थित दृष्टिकोण और बह्मांड में उसका स्थान आदि सम्मिलित हो, तो कम्पयूशियसवाद निःसंदेह धर्म है।
कन्यूशियस संप्रदाय के ग्रंथ
कन्फ़्यूशियस ने कभी भी अपने विचारों को लिखित रूप देना आवश्यक नहीं समझा। उसका मत था कि वह विचारों का वाहक हो सकता है, उनका स्रष्टा नहीं। वह पुरातत्व का उपासक था, क्योंकि उसका विचार था कि उसी के माध्यम से यथार्थ ज्ञान प्राप्त प्राप्त हो सकता है।
कन्फ़्यूशियस ने कोई ऐसा लेख नहीं छोड़ा जिसमें उसके द्वारा प्रतिपादित नैतिक एवं सामाजिक व्यवस्था के सिद्धांतों का निरूपण मिलता हो। कन्फ्यूशियस की 305 कविताओं का संग्रह ‘शी’ नामक ग्रंथ में मिलता है। किंतु कन्फ्यूशियसवादी परंपरा के केंद्र में ‘नव शास्त्रों’ (नाइन क्लासिक्स) को प्रमाणिक माना जाता है, जिसमें पाँच क्लासिक्स और चार पुस्तकें हैं।
पाँच क्लासिक्स (चिंग)
ई-चिंग
ई-चिंग एक ज्योतिष ग्रंथ है, जिसे अंग्रेजी में ‘बुक ऑफ चेंजेज’ कहा जाता है। यह ग्रंथ चौंसठ हैक्साग्रामों पर आधारित है जो प्रकृति और समाज में यिन और यांग के बीच संबंध को दर्शाता है। ई-चिंग के एक भाग में सामान्य शकुन परीक्षणों तथा शेष में आठ रहस्यमय प्रतीकों का, जिन्हें पाकुआ कहा जाता है, वर्णन किया गया है। प्रत्येक में छः पंक्तियाँ मिलती हैं। किसी में तीन अखंड पंक्तियाँ हैं और तीन खंडित, किसी में दो अखंड है और चार खंडित। इसी प्रकार किसी में खंडित पंक्तियाँ ऊपर हैं और किसी में नीचे। इन अखंड रेखाओं को ‘यांग’ तथा खंउित रेखाओं को ‘यिन’ का प्रतीक माना जाता था। चीनियों का विश्वास था कि विश्व का समस्त ज्ञान इन्हीं प्रतीकों में छिपा है। अनुश्रुतियों के अनुसार इसकी रचना चाऊ वंश के संस्थापक ‘वू’ के पिता ‘वेन वांग’ ने अपने बंदी जीवन के दौरान की थी। इसका संपादक कन्फ्यूशियस को बताया जाता है।
शु-चिंग
शु-चिंग का शब्दिक अर्थ संरक्षित पुस्तकें अथवा बहुमूल्य पुस्तकें हैं, इसलिए इसे अंग्रेजी में ‘क्लासिक्स ऑफ डॉक्यूमेंट्स’ या ‘बुक ऑफ हिस्ट्री’ भी कहा जाता है। यह ऐतिहासिक घटनाओं का अभिलेख है, जो पारंपरिक रूप से चीन के भूतकाल को प्रस्तुत करता है और नैतिक व्यवहार और अच्छे शासन का पाठ प्रदान करता है। इस ग्रंथ का संपादक कन्फ्यूशियस को बताया जाता है।
शी-चिंग
शी-चिंग का शब्दिक अर्थ ‘काव्य-संग्रह’ है, इसलिए उसे ‘क्लासिक ऑफ पोयट्री’ कहा जाता है। प्राचीन चीन के अभिलेखों एवं पुस्तकों में केवल शी-चिंग ही शुद्धतः साहित्यिक कृति है। इसमें कुल 311 गीत व कविताएँ संग्रहीत हैं। कहा जाता है कि इन्हें कन्फयूशियस ने अपने समय में प्रचलित 3,000 कविताओं और गीतों में से संग्रहीत किया था।
चुन-चिऊ
इस ग्रंथ को ‘बसंत एव पतझड़ का इतिहास’ (स्प्रिंग एंड ऑटम एनल्स) भी कहा जाता है। यह लू (771-476 ईसापूर्व) राज्य के राजकीय दस्तावेजों के आधार पर लिखा गया इतिहास है। चुन-चिऊ का लेखक अथवा संपादक स्वयं कन्फ्यूशियस को बताया गया है।
ली-विंग
इस ग्रंथ को ‘रिकॉर्ड ऑफ राइट्स’ भी कहा गया है। यह ‘ली’ (मर्य़ादा के औचित्य) अर्थात् सार्वजनिक जीवन और समारोहों में चीनियों के आचार-व्यवहार के नियम और शिष्टाचार पर तीन पुस्तकों-आई-ली, ली-ची और चाऊ-ली का संकलन है। यह एक प्रकार से कन्फ्यूशियसवादी आत्म-परिष्कार का लेख है।
चार पुस्तकें
पाँच क्लासिक्स के अतिरिक्त चार अन्य ग्रंथ ‘शू’ नाम से विख्यात हैं, जिनमें प्रथम ग्रंथ है- लुन-यू (द एनालेक्ट्स)। यह कन्फ्यूशियस के अपने आदर्श समाज के नुस्खे का अभिलेख है। इसमें कन्फ्यूशियस के शिष्यों द्वारा उसके वचनों और संवादों को संग्रहीत किया गया है।
दूसरा ग्रंथ उसके शिष्य त्साँग-सिन द्वारा लिखित ‘ता-शुएह’ अथवा ‘महान शिक्षा’ (द ग्रेट लर्निंग) है, जिससे यह शिक्षा मिलती है कि विश्व में सौहार्द लाने के लिए पहला चरण व्यक्ति का परिष्कार है।
तीसरा ग्रंथ ‘चुंग बुंग’ या ‘औसत का सिद्धांत’ (द डॉक्ट्रिन ऑफ द मीन) है। इसका लेखक प्रायः कन्फ्यूशियस के पुत्र कुंग-ची को माना जाता है। इस ग्रंथ के अनुसार ब्रह्मांड और मानवजाति में गंभीर प्रयास द्वारा एक्य स्थापित किया जा सकता है।
अंतिम और चौथा ग्रंथ (मेंग-जू) ‘माँग-त्जू-शू’ (बुक ऑफ मेंसियस) है, जिसमें कन्फ्यूशियस के अनुयायी मेंसियस ने कन्फ्यूशियस की शिक्षा को अपने सूक्ति-संग्रहों में संग्रहीत किया है।
वास्तव में, कन्फ्यूशियसवाद चीन की नैतिक और दार्शनिक पद्धति है, जो मानवीय नैतिकता और सही आचरण पर केंद्रित है। कन्फ्यूशियसवाद धर्मनिरपेक्षता का सर्वांगपूर्ण उदाहरण है। इसका मूल सिद्धांत इस स्वर्णिम नियम पर आधारित है कि ‘दूसरों के प्रति वैसा ही व्यवहार करो जैसा तुम उनके द्वारा अपने प्रति किए जाने की इच्छा करते हो’। कन्फ्यूशियस का मुख्य उद्देश्य सामान्य रूप से मनुष्यों के बीच तथा मानवजाति और प्रकृति के बीच सद्भावना को बनाये रखकर पवित्रता को विकसित करना था, इसलिए उसके दर्शन में व्यक्तिगत और सरकारी नैतिकता, सामाजिक संबंधों के औचित्य, न्याय और ईमानदारी पर बल दिया गया है। आज कन्फ्यूशियसवाद की शिक्षा और दर्शन का प्रभाव चीनी, कोरियाई, जापानी, ताईवानी और वियतनामी चिंतन और जीवन पर स्पष्टतः देखा जा सकता है।
‘जो व्यक्ति दूसरों की भलाई करता है, वह अपनी भलाई निश्चित कर लेता है।’ -कन्फ्यूशियस
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