वियेना कांग्रेस में यूरोप की संयुक्त व्यवस्था की स्थापना उन्नीसवीं शताब्दी के विश्व इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। नेपोलियन के युद्धों से यूरोप में धन और जन की भारी क्षति हुई थी। नेपोलियन की पराजय के बाद ब्रिटिश विदेशमंत्री कासलरिया और ऑस्ट्रियाई चांसलर मेटरनिख एक ऐसी संयुक्त व्यवस्था स्थापित करना चाहते थे, ताकि वियेना कांग्रेस के निर्णयों को लागू किया जा सके और यूरोप में शांति व्यवस्था को सुरक्षित रखा जा सके। दूसरी ओर, रूस के जार अलेक्जेंडर प्रथम ने अपनी रहस्यवादी प्रवृत्ति और संभवतः बैरोनेस वॉन क्रुडनर के प्रभाव से मानवता और शांति की बहाली के लिए यूरोपीय देशों के गठबंधन की एक अन्य योजना प्रस्तुत की। इन्हीं योजनाओं के आधार पर संयुक्त यूरोपीय व्यवस्था की स्थापना हुई थी।

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Toggleशांति के प्रारंभिक प्रयास
यूरोपीय दार्शनिक चौदहवीं शताब्दी से ही युद्धों की रोकथाम की योजनाएँ प्रस्तुत करते आ रहे थे। किंतु अठारहवीं सदी के प्रारंभ में यूरोप में अंतरराष्ट्रीय संगठन के माध्यम से शांति बनाए रखने की योजनाओं की बाढ़-सी आ गई। 1713 में फ्रांस के एबे सेंट पियरे ने यूट्रेच की संधि पर आधारित एक अंतरराष्ट्रीय संगठन की योजना प्रस्तुत की थी। 1791 में ऑस्ट्रिया के चांसलर काउंट कौनित्ज ने एक प्रपत्र तैयार किया था, जिसमें सभी राज्यों को सार्वजनिक शांति, राज्यों की व्यवस्था, उनके अधिकृत प्रदेशों की अखंडता और संधियों के प्रति आस्था को सुरक्षित रखने के लिए पारस्परिक सहयोग का सुझाव दिया गया था। किंतु अभी तक यूरोप इन शांति योजनाओं को व्यावहारिक रूप देने के लिए तैयार नहीं था। यूरोप के शासकों की आँखें तब खुलीं, जब नेपोलियन के युद्धों ने यूरोप की प्राचीन पद्धतियों का जड़मूल से नाश कर दिया।
यूरोप की संयुक्त व्यवस्था का निर्माण एकता के व्यावहारिक अनुभव का परिणाम था। मित्र राष्ट्रों ने मिलकर नेपोलियन का मुकाबला किया था। अपने अपूर्व सहयोग और संगठन के बल पर ही वे नेपोलियन को पराजित करने में सफल हुए थे। इस विजय का वे तभी उपभोग कर सकते थे, जब वे शांतिकाल में भी एक-दूसरे का सहयोग करते रहें। इस प्रकार वियेना की व्यवस्था को बनाए रखने और फ्रांस की प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाए रखने के लिए भी यूरोपीय राज्यों के बीच सहयोग आवश्यक था।

संयुक्त व्यवस्था का उद्देश्य
मित्र राष्ट्र पारस्परिक सहयोग और संगठन के बल पर ही नेपोलियन को पराजित करने में सफल हुए थे। 1814 में शॉमों की संधि द्वारा इंग्लैंड, ऑस्ट्रिया, प्रशा और रूस ने संकल्प लिया था कि वे वियेना में लिए गए निर्णयों को बनाए रखने, यूरोप में हो रहे राजनैतिक परिवर्तनों की निरंतर निगरानी करने,और समय-समय पर सलाह-मशविरे के लिए अगले बीस वर्षों तक पारस्परिक सहयोग बनाए रखेंगे।
यूरोप की संयुक्त व्यवस्था को स्थापित करने का एक उद्देश्य राष्ट्रीयता और प्रजातंत्र जैसे प्रगतिशील सिद्धांतों का दमन करना भी था। इस समय यूरोप के कई राष्ट्रों में राष्ट्रीयता और प्रजातंत्र के सिद्धांत सिर उठा रहे थे, जिससे प्रतिक्रियावादी शासक भयभीत थे। मेटरनिख जैसे प्रतिक्रियावादियों को लगता था कि इस आसन्न खतरे से निपटने के लिए यूरोप की संयुक्त व्यवस्था को एक हथियार के रूप में उपयोग किया जा सकता है।
इस प्रकार यूरोप में शांति कायम रखने, वियेना में स्थापित व्यवस्था को बनाए रखने और प्रगतिवादी सिद्धांतों का दमन करने के लिए एक संयुक्त यूरोपीय व्यवस्था जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन की आवश्यकता थी। इसके लिए वियेना कांग्रेस में दो योजनाएँ प्रस्तुत की गईं: पहली, ‘पवित्र संघ’ का प्रस्ताव रूस के जार अलेक्जेंडर प्रथम की ओर से और दूसरी, ‘चतुर्मुखी संघ’ की योजना ऑस्ट्रिया के चांसलर मेटरनिख ने प्रस्तुत की।
पवित्र संघ
पवित्र संघ को रूस के जार अलेक्जेंडर की पहल और प्रेरणा ने जन्म दिया था। जार वियेना कांग्रेस से पूरी तरह संतुष्ट नहीं था। नेपोलियन को पराजित करने और वियेना सम्मेलन में सक्रिय भागीदारी से यूरोप में उसका कद बहुत बढ़ गया था। बैरोनेस क्रुडनर और मैडम डी’आकांज के प्रभाव से वह ईसाई धर्म के सिद्धांतों के प्रचार में रहस्यमय ढंग से रुचि लेने लगा था। अलेक्जेंडर का मानना था कि यूरोप के ईसाई शासकों का एक संघ होना चाहिए, जो ईसाई धर्म के पवित्र सिद्धांतों के आधार पर शासक और शासितों के बीच सद्भावना बनाए रखे, ताकि यूरोप में शांति बनी रहे।
जार ने 26 सितंबर 1815 को अपने ‘पवित्र संघ’ की घोषणा की और यूरोप के सभी राजाओं को इस समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए आमंत्रित किया। रूस, प्रशा और ऑस्ट्रिया के शासकों ने तुरंत अपने को ‘दया, शांति और प्रेम’ के ईसाई बंधन में बाँध लिया, लेकिन विभिन्न कारणों से केवल पोप और वैधानिक अड़चन का बहाना लेकर इंग्लैंड के शासक ने इस पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया। यूरोपीय परिवार में केवल तुर्की का सुल्तान ही धार्मिक कारणों से पवित्र संघ के बाहर रखा गया था।
पवित्र संघ का मूल्यांकन
पवित्र संघ की यह स्वीकृति और सफलता अस्थायी थी। कई देशों ने केवल जार को खुश करने के लिए पवित्र संघ पर हस्ताक्षर किए थे। दरअसल, अलेक्जेंडर को छोड़कर किसी ने भी पवित्र संघ पर गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया। मौन समर्थन के बावजूद मेटरनिख इसे ‘ऊँची दुकान, फीका पकवान’ कहता था। बाद में अपने संस्मरण में उसने स्वीकार किया कि ऑस्ट्रिया और प्रशा ने पवित्र संघ को मुख्य रूप से जार को खुश करने के लिए ही स्वीकार किया था।
तालिरां इसे ‘हास्यास्पद समझौता’ कहता था। कासलरिया ने इसे ‘शानदार रहस्यवाद और बकवास’ करार दिया। उसने अपने प्रधानमंत्री को यहाँ तक लिखा कि ‘जार का दिमाग पूरी तरह ठीक नहीं लगता।’ साधारण जनता इसे प्रजातंत्र की भावनाओं को कुचलने का यंत्र समझती थी। जब इंग्लैंड पवित्र संघ में शामिल नहीं हुआ, तो यह मुख्य रूप से रूस, प्रशा,और ऑस्ट्रिया के शासकों की एक पवित्र घोषणा बनकर रह गया।
पवित्र संघ का महत्त्व
प्रत्यक्ष रूप से पवित्र संघ का उद्देश्य यूरोप को ईसाई सिद्धांतों के अनुकूल नियमित और व्यवस्थित करना था, लेकिन वस्तुतः उसका लक्ष्य एकतंत्र का समर्थन और क्रांतिकारी प्रवृत्तियों का दमन करना था। अलेक्जेंडर ने कहा था: ‘सारी दुनिया के उदारपंथी, क्रांतिकारी और कार्बोनारी के सदस्य सरकारों के नहीं, अपितु धर्म के विरुद्ध षड्यंत्र कर रहे हैं।’ वास्तव में, उसे यह षड्यंत्र अपने निरंकुश तंत्र के विरुद्ध लगता था। वह स्वभाव से युद्धप्रेमी नहीं था, लेकिन वह भ्रांतियों और कुंठाओं का शिकार था। 1825 तक जार अलेक्जेंडर का यह संघ नाममात्र के लिए चलता रहा और उनकी मृत्यु के साथ इसका अंत हो गया।
चतुर्मुखी संधि
चतुर्मुखी संधि या मित्र-मंडल की स्थापना का प्रस्ताव ऑस्ट्रिया के मेटरनिख की ओर से आया था, जिसके फलस्वरूप 20 नवंबर 1815 को रूस, प्रशा और ऑस्ट्रिया ने इंग्लैंड के साथ मिलकर एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। चतुर्मुखी संधि का एक लक्ष्य यह था कि अब तक हुई संधियों, जैसे पेरिस और शॉमों का पालन होता रहे। दूसरा लक्ष्य भविष्य को ध्यान में रखकर निर्धारित किया गया था कि समय-समय पर मिलकर यूरोप की स्थिति का सर्वेक्षण किया जाएगा। यदि यूरोप में शांति और सुव्यवस्था की कोई समस्या उठ खड़ी हो, तो उसके समाधान के लिए आवश्यक नीति और कार्यवाही का निर्धारण भी मिलकर किया जाएगा। इस तरह एक यूरोपीय व्यवस्था का जन्म हुआ, जो सर्वथा अभिनव प्रयोग था।
कांग्रेस प्रणाली
चतुर्मुखी संधि पर हस्ताक्षर के बाद यूरोपीय समस्याओं पर विचार करने के लिए समय-समय पर यूरोपीय राज्यों के सम्मेलन होने लगे। इन्हीं सम्मेलनों को ‘यूरोप की संयुक्त व्यवस्था’ या ‘कांग्रेस प्रणाली’ कहते हैं। चतुर्मुखी संधि की यह व्यवस्था पवित्र संघ से भिन्न और अपेक्षाकृत अधिक व्यावहारिक थी, क्योंकि इसके द्वारा वियेना सम्मेलन की प्रादेशिक व्यवस्था की अखंडता और शासकों की प्रभुसत्ता को सुरक्षित रखने का प्रयास किया गया था।
चतुर्मुखी संधि के अंतर्गत 1818 में एक्स-ला-शापेल, 1820 में ट्रोपो, 1821 में लाइबेख, 1822 में वेरोना और 1825 में सेंट पीटर्सबर्ग में सम्मेलन आयोजित किए गए। इस प्रकार लगभग दस वर्ष तक बड़े राज्यों के सम्मेलनों द्वारा यूरोपीय समस्याओं को सुलझाने के प्रयास किए गए। इसलिए इसे ‘कांग्रेस का युग’ भी कहते हैं।
एक्स-ला-शापेल की कांग्रेस (1818)
सम्मेलनों के क्रम में चतुर्मुखी संधि के हस्ताक्षरकारी राज्यों का पहला सम्मेलन 1818 में एक्स-ला-शापेल में हुआ। इस सम्मेलन में तीन वर्षों की राजनीतिक स्थितियों का आकलन करने के बाद निर्णय लिया गया कि अब फ्रांस से विजेता देशों की सेनाएँ हटा ली जाएँ, क्योंकि वहाँ अब अशांति की संभावना नहीं थी और राजा की सत्ता स्थापित हो गई थी। इंग्लैंड के प्रस्ताव पर फ्रांस को भी चतुर्मुखी संधि में शामिल कर लिया गया, जिससे यह ‘पंचमुखी संधि’ बन गई। इससे स्थिति बदल गई, क्योंकि फ्रांस पर कड़ी नजर रखना ही संधि का प्रमुख उद्देश्य था। इसके बाद कांग्रेस के समक्ष अनेक मामले आए। डेनमार्क ने स्वीडन के विरुद्ध सहायता माँगी। हेस्से के इलेक्टर ने राजा की पदवी के लिए आवेदन दिया। जर्मनी के राजाओं की अपनी समस्याएँ थीं। मोनाको की जनता ने अपने राजा के विरुद्ध शिकायत की।
एक्स-ला-शापेल की कांग्रेस ने प्रायः सभी समस्याओं पर ध्यान दिया। स्वीडन के राजा से जवाब-तलब किया गया, मोनाको के राजा को शासन के दोषों को दूर करने का आदेश दिया गया। कांग्रेस के इन निर्णयों के कारण यूरोप में संयुक्त व्यवस्था की शक्ति और प्रभाव में काफी वृद्धि हुई। मेटरनिख ने खुश होकर लिखा कि उस छोटी-सी कांग्रेस से अधिक सुंदर कांग्रेस उसने कभी नहीं देखी थी।
फिर भी, एक्स-ला-शापेल की कांग्रेस अभी समाप्त भी नहीं हुई थी कि यूरोपीय व्यवस्था में मतभेद के स्वर उभरने लगे। मित्र राज्यों में पहला अंतर्विरोध स्पेन के दक्षिण अमेरिकी उपनिवेशों को लेकर प्रकट हुआ। दक्षिण अमेरिका के उपनिवेश पहले स्पेन के अधीन थे। जब स्पेन पर नेपोलियन का अधिकार हुआ था, तब वे स्वतंत्र हो गए थे। इन उपनिवेशों में इंग्लैंड को व्यापार करने की सुविधा मिल गई थी। स्पेन ने पुनः उपनिवेशों पर अपने अधिकार की माँग की। कासलरिया ने इसे स्पेन का घरेलू मामला बताया, जिससे यूरोप की शांति को कोई खतरा नहीं था। मेटरनिख स्पेन की मदद करना चाहता था, लेकिन इंग्लैंड के विरोध के कारण नहीं कर सका। इसके अलावा, कांग्रेस दो मुख्य प्रश्नों को नहीं सुलझा सकी: एक, दास-व्यापार और दूसरा, समुद्री डाकुओं का। वियेना कांग्रेस ने दास-व्यापार की निंदा की थी, लेकिन यह अनैतिक कार्य पूर्ववत चल रहा था। इसका अंत करने के लिए इंग्लैंड ने सुझाव दिया कि सभी राष्ट्रों को एक-दूसरे के जहाजों की तलाशी लेने का अधिकार होना चाहिए, परंतु यह प्रस्ताव पास नहीं हो सका।
उत्तरी अफ्रीका के समुद्री डाकू भूमध्यसागर में व्यापारिक जहाजों को लूट लेते थे। समुद्री डाकुओं के उन्मूलन के लिए रूस के जार ने प्रस्ताव रखा कि रूस को युद्धपोत भेजने का अधिकार मिलना चाहिए। लेकिन इंग्लैंड नहीं चाहता था कि रूसी जहाज भूमध्यसागर में प्रवेश करें, इसलिए यह प्रस्ताव भी नामंजूर हो गया। इससे स्पष्ट हो गया कि मित्र राष्ट्रों के बीच मतैक्य का अभाव था।
ट्रोपो कांग्रेस (1820)
दो वर्ष बाद 1820 में ट्रोपो में दूसरी कांग्रेस में मित्र राष्ट्रों के मतभेद खुलकर सामने आए। स्पेन में 1820 में रीगो नामक एक कर्नल ने विद्रोह कर पुराने संविधान की घोषणा कर दी। अलेक्जेंडर ने स्पेन में रूसी सेना भेजने का प्रस्ताव किया, लेकिन इंग्लैंड ने इसका विरोध किया और मेटरनिख ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया। इसी बीच जब नेपल्स में विद्रोह की पुनरावृत्ति हुई, तो मेटरनिख को चिंता हुई कि इस आग के उत्तर की ओर बढ़ने से ऑस्ट्रिया भी चपेट में आ जाएगा। मेटरनिख को नेपल्स की जितनी चिंता थी, उतनी स्पेन की नहीं। उसने तुरंत ट्रोपो में कांग्रेस का अधिवेशन बुलाया। अधिवेशन शुरू होते ही मेटरनिख ने कुछ ऐसे प्रस्ताव रखे, जो इंग्लैंड और फ्रांस को मान्य नहीं थे। मेटरनिख ने प्रस्ताव रखा : “यदि किसी राज्य में राष्ट्रीय आंदोलन होने लगे, जिसके परिणामस्वरूप पड़ोसी राज्यों के सामने खतरा उत्पन्न हो जाए या इसकी संभावना हो, तो पड़ोसी राज्यों को अपनी सेनाओं द्वारा उन आंदोलनों का दमन करने का अधिकार होगा। कांग्रेस को अधिकार हो कि वह वियेना में स्थापित व्यवस्था की रक्षा के लिए मित्र राष्ट्रों की सेना का उपयोग करे।” मेटरनिख के इस सिद्धांत को ‘ट्रोपो सिद्धांत’ कहते हैं। रूस, प्रशा और ऑस्ट्रिया ने इस हस्तक्षेप नीति को तुरंत स्वीकार कर लिया, किंतु ब्रिटेन ने इसका कड़ा विरोध किया और फ्रांस ने उसका साथ दिया। उनका कहना था कि किसी भी देश का राष्ट्रीय आंदोलन उसका आंतरिक मामला है और उसमें किसी अंतरराष्ट्रीय संस्था द्वारा हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। इस प्रकार आंग्ल-फ्रांसीसी विरोध के कारण सशस्त्र हस्तक्षेप की नीति पारित नहीं हो सकी, लेकिन यूरोपीय व्यवस्था कायम रही।
लाइबेख कांग्रेस (1821)
साल भर बाद 1821 में लाइबेख में कांग्रेस का तीसरा अधिवेशन बुलाया गया। इटली के राज्यों में विद्रोह हो रहे थे। नेपल्स के राजा फर्डिनेंड को विद्रोहियों ने भगा दिया था। पीडमॉन्ट भी कार्बोनारी विद्रोह की चपेट में था।
लाइबेख कांग्रेस में मेटरनिख ने रूस और प्रशा का समर्थन प्राप्त करके एक बड़ी सेना नेपल्स भेजी और वहाँ के विद्रोह का दमन कर पुरानी व्यवस्था लागू कर दी। इसी प्रकार ऑस्ट्रिया की सेना ने पीडमॉन्ट के क्रांतिकारी विद्रोह को भी कुचल दिया। इंग्लैंड के विरोध को दरकिनार करते हुए मेटरनिख ने स्पष्ट कर दिया कि संधि में शामिल अन्य देशों की सहमति पर ध्यान दिए बिना वह ऑस्ट्रिया के हितों और क्रांति के विरोध के लिए निकटवर्ती देशों में हस्तक्षेप करेगा।
वेरोना कांग्रेस (1822)
कांग्रेस का अंतिम अधिवेशन 1822 में वेरोना में हुआ। स्पेन की समस्या अब भी नहीं सुलझी थी। स्पेन में क्रांतिकारियों ने काफी उपद्रव मचा रखा था। चूँकि स्पेन फ्रांस का पड़ोसी था, इसलिए कांग्रेस ने प्रस्ताव किया कि स्पेन के राजा को सहायता देने के लिए फ्रांस को सेना भेजने का अधिकार दिया जाए। इंग्लैंड ने प्रस्ताव का विरोध किया और अन्य राज्यों के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप न करने के सिद्धांत की दुहाई दी। लेकिन ऑस्ट्रिया, रूस और प्रशा पर इस विरोध का कोई असर नहीं हुआ और फ्रांस को स्पेन में सेना भेजने की अनुमति मिल गई। फ्रांसीसी सेना ने स्पेन जाकर विद्रोह का दमन करके फर्डिनेंड को गद्दी पर बैठा दिया। स्पेन में पुनः उसका निरंकुश शासन कायम हो गया। इस बीच यूनानियों ने तुर्की के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इंग्लैंड यूनानियों की मदद करना चाहता था। उसने प्रस्ताव रखा कि जिस प्रकार स्पेन के राजा को संघ द्वारा सहायता दी गई, उसी प्रकार यूनानियों को भी सहायता दी जाए। मेटरनिख ने इस सुझाव को नहीं माना, तो इंग्लैंड असंतुष्ट होकर यूरोपीय व्यवस्था से अलग हो गया।
इंग्लैंड के विदेशमंत्री कासलरिया की मृत्यु के बाद उनके स्थान पर कैनिंग की नियुक्ति हुई। कैनिंग ने हस्तक्षेप की नीति के विरुद्ध स्पष्ट घोषणा की: “हर राष्ट्र अपने लिए और ईश्वर हम सबके लिए।” जब पुर्तगाल में स्पेन ने हस्तक्षेप करना चाहा, तो कैनिंग ने पुर्तगाल के उदारवादियों की मदद की। उसने कहा: “हस्तक्षेप करना एक बात है और हस्तक्षेप रोकने के लिए हस्तक्षेप करना दूसरी बात है।” उसने वियेना के विजेताओं के बीच हुए समझौते को भंग होता देखकर उसे बचाने की कोई कोशिश नहीं की। उसने स्पष्ट कहा: “खुदा का शुक्र है कि अब कोई कांग्रेस नहीं होगी।”
पवित्र संघ
स्पेन में निरंकुश शासन की पुनर्स्थापना के बाद दक्षिण अमेरिका में स्पेन के उपनिवेशों की समस्या फिर सामने आई। कांग्रेस ने इस प्रस्ताव पर विचार शुरू किया कि स्पेन के राजा को अमेरिकी उपनिवेशों पर पुनः अधिकार स्थापित करने के लिए सहायता दी जाए। इंग्लैंड ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। इसी समय संयुक्त राज्य अमेरिका को यूरोपीय संघ के इरादों का पता चल गया। फलस्वरूप राष्ट्रपति मुनरो ने दिसंबर 1823 में अपना प्रसिद्ध मुनरो सिद्धांत घोषित किया कि अमेरिकी महाद्वीप में उपनिवेशों के लिए अब कोई संभावना नहीं है और यूरोप के देश इस ओर कुदृष्टि न डालें। राष्ट्रपति मुनरो की यह घोषणा यूरोप की संयुक्त व्यवस्था पर एक कुठाराघात था, जिसके प्रहार से संघ कभी सँभल नहीं सका और उसका अंत हो गया। ब्रिटिश विदेश सचिव कैनिंग ने गर्व से कहा: “मैंने पुरानी दुनिया के संतुलन को ठीक करने के लिए नई दुनिया की सृष्टि कर दी है।”
वास्तव में, रूस, ऑस्ट्रिया और प्रशा औपनिवेशिक देश नहीं थे, इसलिए उन्हें प्रशांत या अटलांटिक महासागरों के पार जाकर हस्तक्षेप करने में कोई रुचि नहीं थी। फ्रांस अकेले कुछ करने की स्थिति में नहीं था और इंग्लैंड निश्चय ही इसका विरोध करता। इस प्रकार धीरे-धीरे अमेरिका के उपनिवेश स्वतंत्र होने लगे और उन्हें अमेरिका ही नहीं, इंग्लैंड की भी मान्यता मिलने लगी।
सेंट पीटर्सबर्ग की कांग्रेस (1825)
यूरोप के दक्षिण-पूर्व में स्थित बाल्कन प्रायद्वीप में तुर्की साम्राज्य लड़खड़ा रहा था और वहाँ राष्ट्रवादी शक्तियाँ उभर रही थीं। रूस के जार अलेक्जेंडर ने बाल्कन में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए जनवरी 1825 में सेंट पीटर्सबर्ग में दो सम्मेलन बुलाए। इंग्लैंड इन सम्मेलनों की कार्यवाणही से अलग रहा, जिससे इनकी महत्ता कम हो गई। चूँकि बाल्कन प्रायद्वीप में ऑस्ट्रिया और रूस के हित टकराते थे, इसलिए ऑस्ट्रिया भी रूस के एकतरफा निर्णयों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। फ्रांस और इंग्लैंड भी रूस का साथ नहीं देते और संभवतः उसका सक्रिय विरोध करते। फलस्वरूप ये सम्मेलन असफल हो गए, और इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय सहयोग की पूरी व्यवस्था ध्वस्त हो गई, जिससे यूरोप की संयुक्त व्यवस्था का विघटन हो गया।
यूरोप की संयुक्त व्यवस्था की असफलता के कारण
कई कारणों से यूरोप की संयुक्त व्यवस्था की असफलता अवश्यंभावी थी। अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए समान आदर्श और हित या विभिन्न हितों के बीच महत्तम समीकरण की आवश्यकता होती है। यूरोप की संयुक्त व्यवस्था के सदस्य राष्ट्रों के बीच न तो राजनीतिक हितों में समानता थी और न ही शासन संस्थाओं में। जहाँ ऑस्ट्रिया, रूस और प्रशा निरंकुश तंत्र के पोषक थे, वहीं इंग्लैंड और फ्रांस प्रजातंत्र के। इस सैद्धांतिक मतभेद के कारण वे किसी एक समस्या पर एक दृष्टि से विचार ही नहीं कर सकते थे। ऑस्ट्रिया, प्रशा, और रूस के शासक इस व्यवस्था का उपयोग प्रजातंत्र की बाढ़ को रोकने के लिए एक बाँध के रूप में करना चाहते थे, जबकि इंग्लैंड इसे एक फाटक के रूप में उपयोग करना चाहता था, ताकि उदारता और राष्ट्रीयता की भावना का प्रवेश आवश्यकतानुसार हो सके।
कासलरिया का मानना था कि चतुर्मुखी संघ को अन्य शासकों और राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है, जबकि रूस, प्रशा और ऑस्ट्रिया का मानना था कि यूरोप में शांति बनाए रखने के लिए किसी भी देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किया जा सकता है। वास्तव में, प्रत्येक सदस्य यूरोप के आंतरिक और बाह्य मामलों पर केवल अपने हितों के अनुकूल ही सोचता था।
यूरोप की संयुक्त व्यवस्था की स्थापना शांति बनाए रखने के लिए की गई थी। किंतु मेटरनिख के नेतृत्व में यह प्रतिक्रियावाद का साधन बन गई। प्रतिक्रियावादी राजनीतिज्ञों ने भरसक प्रयास किया कि यथास्थिति बनी रहे और क्रांतियों की पुनरावृत्ति न हो। यूरोप ने क्रांति का स्वाद चखा था। क्रांति की व्यावहारिक उपलब्धियाँ—स्वतंत्रता, समानता और राष्ट्रीयता के सिद्धांत नेपोलियन की विजयों के साथ सारे यूरोप में फैल चुकी थीं। राष्ट्रवादी चेतना तेजी से बढ़ रही थी, जबकि मेटरनिख और उनके सहयोगी यूरोपीय व्यवस्था को हथियार बनाकर उन्हें कुचलने का प्रयास कर रहे थे। फलस्वरूप लोकतंत्र, उदारवाद और राष्ट्रवाद की प्रगतिशील धारा के प्रबल वेग ने निरंकुश शासकों की इस प्रतिक्रियावादी व्यवस्था के बाँध को तोड़ दिया।
यूरोप की संयुक्त व्यवस्था का कोई संगठनात्मक ढाँचा भी नहीं था। न तो इसका कोई स्थायी कार्यालय था और न ही कोई कर्मचारी। यह नेपोलियन के युद्धों के बाद केवल शांति बनाए रखने की इच्छाओं का परिणाम था। यूरोप के सभी देश चाहते थे कि कोई क्रांति या तानाशाह सिर न उठाए, लेकिन साथ ही वे यह भी चाहते थे कि उनमें से कोई अधिक शक्तिशाली न हो जाए।
इसके अलावा, इंग्लैंड का रवैया शुरू से अन्य विजेताओं से अलग था। ऐसा नहीं था कि इंग्लैंड एक उदार और जनवादी देश था। वहाँ अनुदार पूँजीपतियों और सामंतों के हाथ में सत्ता थी और वे अपने उपनिवेशों, जैसे भारत में निरंतर हस्तक्षेप करते थे, लेकिन यूरोप में वे हस्तक्षेप की नीति का विरोध करते थे। इससे एक तो यूरोप में कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं बन सकता था, दूसरे उनके आदर्शवाद और प्रजातंत्र की हिमायत का मुखौटा भी बना रहता था। सबसे बड़ी बात यह थी कि उनके आर्थिक हित सुरक्षित रहते थे।
यूरोप की संयुक्त व्यवस्था का महत्त्व
मेटरनिख की सारी व्यवस्था 1848 की क्रांति में जलकर राख हो गई। लेकिन अपनी तमाम कमजोरियों और गलतियों के बावजूद, यूरोपीय व्यवस्था अंतरराष्ट्रीय सहयोग की दिशा में पहला महत्त्वपूर्ण कदम थी। युद्धकाल में एक दुश्मन के विरुद्ध कई देशों का सहयोग स्वाभाविक है, लेकिन शांतिकाल में शांति बनाए रखने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग का यह अनोखा उदाहरण था। समय आने पर जब अंतरराष्ट्रीय सहयोग अनिवार्य रूप से बढ़ा, तो यूरोप की संयुक्त व्यवस्था जैसे प्रारंभिक प्रयोगों का इतिहास निश्चित रूप से काम आया।










