सिंध और मुल्तान पर अरब आक्रमण (Arab Invasion of Sindh and Multan)

अरब आक्रमण

शक्तिशाली गुप्तों के पतन के बाद हर्षवर्धन (606-647 ई.) ने एक बार पुनः भारत में एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास किया, जिसमें उसे कुछ हद तक सफलता भी मिली। यद्यपि वह संपूर्ण उत्तर भारत को अपने शासन के अधीन नहीं कर सका, फिर भी, उसका साम्राज्य शक्ति और संपन्नता की दृष्टि से इतना समर्थ था कि किसी बाह्य आक्रमणकारी ने भारत की ओर नजर उठाने साहस नहीं किया।

किंतु र्षवर्धन की मृत्यु के बाद न केवल उसका साम्राज्य विखंडित हो गया, बल्कि एक बार पुनः राजनीतिक विकेंद्रीकरण की प्रवृत्तियाँ क्रियाशील हो गईं, जिसके परिणामस्वरूप भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक छोटी-छोटी राजनीतिक शक्तियों का उत्कर्ष हुआ, जो पारस्परिक प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या के कारण आपसी संघर्ष में अपनी शक्ति का अपव्यय करती रहीं। उत्तर भारत, विशेषकर उत्तरी-पश्चिमी भारत के इसी राजनीतिक विकेंद्रीकरण के दौरान 8वीं सदी के आरंभ में सिंध पर अरबों का आक्रमण हुआ, जिसके दूरगामी परिणाम सामने आये।

सिंध और मुल्तान की भौगोलिक स्थिति

प्राचीन सिंध की भौगोलिक सीमाओं को स्पष्ट रूप से निर्धारित करना संभव नहीं है। साहित्यिक उल्लेखों में ‘सिंधु-सौवीर’ की चर्चा मिलती है। ह्वेनसांग के अनुसार सातवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यहाँ शूद्र जाति का एक बौद्धधर्मानुयायी राजा शासन करता था। किंतु सिंध का सर्वाधिक उल्लेख अल-बिलाधुरी जैसे मुसलमान इतिहासकारों ने ही किया है, जिनके अनुसार सिंध की सीमाएँ काफी विस्तृत थीं और मुल्तान भी उसी में सम्मिलित था। अरबों के आक्रमण के समय पूरब में रेगिस्तानी प्रदेशों से लेकर दक्षिण-पश्चिम में बलूचिस्तान और मकरान के अधिकांश भागों तक तथा दक्षिण में समुद्रपर्यंत सिंधु नदी की घाटी के सारे निचले प्रदेश सिंध में सम्मिलित थे।

सिंध और मुल्तान पर अरब आक्रमण (Arab Invasion of Sindh and Multan)
सिंध और मुल्तान की स्थिति

ऐतिहासिक स्रोत

सिंध के इतिहास की जानकारी के स्रोत बहुत सीमित हैं। हर्षवर्धन के काल में भारत की यात्रा पर आये ह्वेनसांग से बहुत कम सूचनाएँ मिलती हैं। 7वीं-8वीं शताब्दी ईस्वी के सिंध में अरबों के घुसपैठ का वर्णन ‘चचनामा’ नामक एक फारसी ग्रंथ में मिलता है, जिसकी रचना अली कूफी ने 1226 ई. में की थी, जो संभवतः किसी लुप्त अरबी पांडुलिपि का अनुवाद था। ‘चचनामा’ को ‘फतहनामा सिंध’ तथा ‘तारीख-अल-हिंद व सिंध’ भी कहा जाता है। ‘चचनामा’ में सिंध की राजधानी ‘अरोर’ बताई गई है।

‘चचनामा’ पर आधारित ‘तारीख-ए-सिंध’ (तारीख-ए-मासूमी) नामक ग्रंथ भी सिंध के इतिहास के लिए कुछ उपयोगी है। इसकी रचना 1600 ई. में मीर मुहम्मद मासूम ने थी। इसमें अरबों की विजय से लेकर मुगल सम्राट अकबर तक के सिंध के इतिहास का वर्णन है। इसके अलावा, कतिपय राजपूत अभिलेखों और अल-बिलाधुरी की पुस्तक ‘किताब फुतुह-उल-बुलदान’ से भी अरब आक्रमण के संबंध में कुछ सूचनाएँ मिलती हैं।

किंतु चचनामा और तारीख-ए-मासूमी के विवरण बहुत बाद में अनुश्रुतियों के आधार पर लिखे गये हैं और उनमें विभिन्न शासकों के अथवा उनके वंशों के जो शासनकाल दिये गये हैं, उनमें अनेक त्रुटियाँ हैं। यह भी निश्चित नहीं है कि ह्वेनसांग ने सिंध के जिस शूद्र राजा की चर्चा की है, वह रायवंश का ही कोई शासक था अथवा किसी अन्य वंश का था।

अरब आक्रमण के पूर्व सिंध की राजनीतिक स्थिति

सातवीं शताब्दी में ह्वेनसांग अपनी भारत यात्रा के दौरान सिंध गया था और बताता है कि वहाँ शुद्र जाति का एक बौद्धधर्मानुयायी राजा शासन करता था, किंतु वह राजा का नाम नहीं बताता। ‘चचनामा’ से पता चलता है कि 711-12 ई. में मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के समय वहाँ शासन करने वाले ब्राह्मण राजा दाहिर के पहले सिंध पर रायवंश का अधिकार था। उसके अनुसार, सिंध पर रायदीवाजी, रायसिंहरस और रायसाहसी नामक तीन शासकों ने शासन किया था। उनके बाद तारीख-ए-मासूमी (तारीख-ए-सिंध) के अनुसार रायसिंहरस द्वितीय और रायसाहसी द्वितीय नामक दो और राजाओं ने 137 वर्षों तक शासन किया।

‘चचनामा’ के अनुसार रायसाहसी द्वितीय का एक चच नामक ब्राह्मण मुख्यमंत्री था, जिसने रायसाहसी की हत्या करके उसकी विधवा रानी सोहंदी से विवाह कर लिया और रानी की सहायता से सिंध में एक नये राजवंश की स्थापना की। कहा जाता है कि चच एक शक्तिशाली और सफल शासक था, जिसने हिंदू और बौद्ध दोनों धर्मों की जनता का विश्वास जीतकर सिंध में एक विस्तृत राज्य की स्थापना की। अपनी आक्रामक, रक्षात्मक और उदार नीतियों के बल पर उसने कश्मीर तक अपनी सीमाओं का विस्तार किया और कई समकालीन राजाओं को पराजित किया।

चच के दो पुत्र थे-दाहिर और दाहिरसिय। चच के चालीस वर्षों के लंबे शासन के बाद उसका भाई चंदर सिंध की गद्दी पर बैठा। चंदर के शासन के बाद उसके पुत्र दुराज और भतीजे दाहिर (चच का पुत्र) के बीच उत्तराधिकार का युद्ध हुआ, जिसमें दाहिर को विजय मिली। इसके बाद दाहिर और दाहिरसिय ने सिंध के राज्य को आपस में आधा-आधा बाँट लिया। दाहिरसिय की मृत्यु के बाद दाहिर पूरे सिंध और मुल्तान का राजा हो गया। यद्यपि दाहिर एक शक्तिशाली शासक था, किंतु अरबी विद्रोहियों तथा समुद्री लुटेरों को संरक्षण देने के कारण सिंध में उसका विरोध होने लगा था। दाहिर की नीतियों से ईराक के गवर्नर का क्रोध भड़क उठा और सिंध को अरबों के आक्रमण का सामना करना पड़ा।

अरबों का आक्रमण

अरब आक्रमण के कारण

आठवीं शती के प्रारंभिक वर्षों के सिंध के इतिहास की सर्वप्रमुख घटना अरबों का आक्रमण थी। किंतु अरब आक्रमण कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, बल्कि इसकी पृष्ठभूमि बहुत पहले ही तैयार हो चुकी थी। थाना, देबल, खंभात, सोपारा, कोलिमल्लि और मलाबार के बंदरगाहों से अरबों के व्यापारिक संबंध सदियों पुराने थे। वहाँ उनके जहाज आते रहते थे और सीरिया तथा मिस्र होते हुए यूरोप तक व्यापारिक वस्तुएँ लेकर जाते थे। इस प्रक्रिया में अनेक अरब व्यापारी भारत के पश्चिमी समुद्र तट पर स्थायी रूप से बस गये थे, जिन्हें स्थानीय शासकों और जनता समर्थन भी प्राप्त था।

किंतु छठीं-सातवीं शताब्दी में इस्लाम धर्म के उदय और उसके तीव्र प्रसार ने अरबों के दृष्टिकोण में भी परिवर्तन कर दिया। फलतः हजरत मुहम्मद की मृत्यु (632 ई.) के एक शताब्दी के अंदर ही खलीफा ने तलवार के बल पर इस्लाम धर्म का प्रसार सीरिया, मेसोपोटामिया, ईरान, अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, ट्रांस ऑक्सीयाना, दक्षिणी फ्रांस, पुर्तगाल, मिस्र और अफ्रीका के संपूर्ण उत्तरी तट तक कर दिया। अब अरबवासी भी इस्लाम के प्रचार में रुचि लेने लगे और उनके सैनिक और धार्मिक उत्साह के कारण भारत और अरब के व्यापारिक संबंधों की आपसी शांति भंग हो गई।

भारत उस समय ‘मूर्तिपूजकों के देश’ के रूप में प्रसिद्ध था और अरब लोग हिंदुओं की मूर्तिपूजा, अवतारवाद और बहुदेववाद से घृणा करते थे। अतः अरब लोग भारत में मूर्तिपूजा को समाप्त करना और इस्लाम का प्रसार करना अपना पवित्र कर्तव्य मानते थे और यह कार्य सैनिक शक्ति के बिना संभव नहीं था।

धार्मिक उद्देश्यों के अतिरिक्त, अरबों में भारत से धन प्राप्त करने की लालसा भी थी कयोंकि उन्हें भारत की धन-संपदा की जानकारी पहले से ही थी। मंदिरों में अकूत संपत्ति एकत्र थी, जिसे लूटने से आर्थिक उद्देश्य की पूर्ति के साथ-साथ धार्मिक उद्देश्यों की भी पूर्ति होती। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि सिंध में अपना राज्य स्थापित कर अरब भारत के भीतरी भाग में भी धर्म-प्रचार कर सकते थे। इसलिए उन्होंने एक सोची-समझी योजना के अंतर्गत सिंध-विजय की योजना बनाई। सिंघ की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों ने अरबों के हौसले को और अधिक बढ़ाया।

आरंभिक अरब आक्रमण

अरबों ने भारत पर सबसे पहला आक्रमण प्रथम खलीफा उमर के समय 636-637 ई. में बंबई के निकट थाना पर समुद्र मार्ग से किया और खंभात की खाड़ी के भड़ौंच जैसे बंदरगाहों को लूटा। यद्यपि अरबों का यह अभियान असफल रहा, किंतु इसी समय अनेक अरब व्यापारी भारत के मालाबार समुद्र तट पर आकर बस गये और भारत के लोग पहली बार इस्लाम के संपर्क में आये।

‘चचनामा’ से ज्ञात होता है कि अरबों ने दूसरा आक्रमण खलीफा उस्मान के समय में (643-44 ई.) अब्दुल्ला बिन उमर के नेतृत्व में स्थल-मार्ग द्वारा देबल के बंदरगाह पर किया, किंतु चच के एक गर्वनर ने न केवल अरब सेनापति को मार डाला, बल्कि अरबों को बुरी तरह पराजित कर खदेड़ दिया। इसके कुछ समय बाद 659 ई. में अल-हरीस ने और 664 ई. में अल-मुहल्लब ने सिंध पर आक्रमण किया, किंतु भारतीय प्रतिरोध के कारण अरबों को अपने आरंभिक आक्रमणों में कोई विशेष सफलता नहीं मिली।

अरब आक्रांताओं ने समुद्री मार्ग से विफल होकर स्थलमार्ग से सिंध की ओर बढ़ने का प्रयत्न किया। किंतु खैबर-बोलन दर्रो से काबुल जाबुल राज्यों की सतर्कता और किक्कान के निवासियों के विरोध के कारण अरब आगे नहीं बढ़ सके। अब उनके समक्ष सिंध पहुँचने का एकमात्र रास्ता मकरान था। अरब मकरान और सिस्तान पर अधिकार करने में सफल हुए और इसी मार्ग से उन्होंने सिंघ पर विजय प्राप्त की।

मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण

मोहम्मद बिन कासिम का सिंध पर आक्रमण भारतीय इतिहास की रोमांचकारी घटना है। सिंध पर मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के कई कारण बताये गये हैं। एक, मुहम्मद बिन कासिम एक वीर योद्धा था और वह भारत को जीतकर अरब साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था। दूसरे, मुहम्मद बिन कासिम भारत की अतुल धन-संपत्ति को लूटना चाहता था और तीसरे, वह भारत में इस्लाम का प्रसार करना चाहता था। संभवतः दाहिर का अरब के विद्रोहियों को शरण देना और समुद्री लुटेरों को संरक्षण देना भी मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण का था।

‘चचनामा’ के आधार पर मुहम्मद बिन कासिम के भारत पर आक्रमण का तात्कालिक कारण बताया जाता है कि आठवीं शताब्दी के प्रारंभ में लगभग 708 ई. में श्रीलंका के राजा ने कुछ मुसलमान युवतियों और बहुमूल्य उपहारों से भरे हुए आठ जहाज दमिश्क के खलीफा वलीद की सेवा में भेजा, जिसे सिंध के देवल बंदरगाह के निकट कुछ समुद्री डाकुओं ने लूट लिया। उस समय सिंध और मुल्तान पर ब्राह्मण राजा दाहिर का शासन था।

ईराक के गवर्नर हज्जाज ने दाहिर के पास क्षतिपूर्ति करने और लुटेरों को दंडित करने के लिए संदेश भेजा। किंतु दाहिर ने हज्जाज की माँग को यह कहकर ठुकरा दिया कि समुद्री लुटेरे उसके राज्य की प्रजा नहीं हैं और उन्हें दंडित करने का उत्तरदायित्त्व उसका नहीं है। दाहिर के उत्तर से हज्जाज क्रुद्ध हो गया। इसी बीच मकरान से कुछ अपाराधी और विद्रोही लोगों ने सिंध में शरण ली और उन्होंने राजा दाहिर के नेतृत्व में एक गुट बना लिया। इससे उत्तेजित होकर हज्जाज ने खलीफा वालिद की अनुमति से पहले 711 ई. में अपने सेनापति ओबैदुल्ला को, फिर 712 ई. में बुदैल को बारी-बारी से दाहिर पर आक्रमण के लिए भेजा, किंतु दाहिर की सेना ने दोनों अरब सेनापतियों को पराजित करके मार डाला।

अंत में, हज्जाज ने 712 ई. में अपने 17 वर्षीय भतीजे और दामाद मुहम्मद बिन कासिम को 6000 घुड़सवारों, 6000 ऊँटसवारों और 3000 भारवाही ऊँटों पर लदी हुई युद्ध सामग्री के साथ सिंध पर आक्रमण करने और दाहिर को दंडित करने के लिए भेजा।

अरब आक्रमण की प्रमुख घटनाएँ

मुहम्मद बिन कासिम ने 712 ई. में मकरान (बलूचिस्तान) के मार्ग से भारत में प्रवेश किया। कासिम के मकरान पहुँचने पर वहाँ का गवर्नर मुहम्मद हारुन अपनी सेना और पाँच तोप जैसे यंत्रों के साथ उसकी सेना में मिल गया। संभवतः दाहिर की उत्पीड़क नीतियों से असंतुष्ट जाटों, मेढ़ों और बौद्धों ने भी आक्रमणकारियों का स्वागत किया। कासिम ने दाहिर से असंतुष्ट जाटों और मेहरों को भी अपनी सेना में भरती कर लिया, जिससे उसकी सेना की संख्या 50,000 तक पहुँच गई।

देबल विजय

मुहम्मद बिन कासिम ने एक बड़ी सेना लेकर 712 ई. में देबल पर आक्रमण किया और उसे घेर लिया। दाहिर या तो अरब आक्रमण से भयभीत होकर या सामरिक तैयारी करने के लिए सिंधु के पश्चिमी प्रदेशों को छोड़कर उसके पूर्वी किनारे पर चला गया। दाहिर के भतीजे ने राजपूतों से मिलकर किले की रक्षा करने का प्रयास किया, किंतु असफल रहा और मुहम्मद बिन कासिम का देबल नगर पर अधिकार हो गया। मंदिरों को तोड़कर उनके स्थान पर मस्जिदें बनाई गईं और जनता को जबरदस्ती मुसलमान बनाया गया। देवल के 17 वर्ष से अधिक आयु वाले ऐसे सभी पुरुष मार डाले गये, जिन्होंने कासिम की अधीनता नहीं मानी। तीन दिन तक नगर में जन-संहार और लूटमार चलता रहा। कासिम को बहुत धन-राशि और बुद्ध की शरण में रहने वाली 75 सुंदर स्त्रियाँ मिलीं। लूट के माल का 5वाँ भाग हज्ज़ाज के पास भेजकर शेष को सेना में बाँट दिया गया।

नेऊन (नीरून) का आत्मसमर्पण

देबल पर अधिकार करने के बाद मुहम्मद-बिन-कासिम नेऊन (नीरून) की ओर बढ़ा। नेऊन पाकिस्तान में वर्तमान हैदराबाद के दक्षिण में स्थित था। दाहिर ने सुरक्षा की कोई समुचित व्यवस्था नहीं की और न ही आक्रमणकारी को रोकने का प्रयास किया। उसने नेउन की रक्षा का दायित्व एक पुजारी को सौंपकर अपने पुत्र जयसिंह को ब्राह्मणाबाद बुला लिया। नेऊन में बौद्धों और श्रमणों की संख्या अधिक थी। उन्होंने युद्ध करने की बजाय कासिम का स्वागत किया। इस प्रकार बिना युद्ध किये ही मीर कासिम का नेऊन दुर्ग पर अधिकार हो गया।

सेहवान (सिविस्तान) की विजय

नेऊन (नीरून) के बाद मुहम्मद बिन कासिम सेहवान (सिविस्तान) की ओर बढ़ा। इस समय वहाँ का शासक दाहिर का चचेरा भाई बजहरा (माझरा) था। उसने बिना युद्ध किये ही नगर छोड़ दिया और शीसम के जाटों के यहाँ भाग गया। सेहवान के बौद्धों ने नगर अरबों को सौंपकर ‘जजिया’ देना स्वीकार किया। इस प्रकार बिना किसी कठिनाई के सेहवान पर कासिम का अधिकार हो गया।

शीसम के जाटों पर विजय

सेहवान के बाद मुहम्म्द बिन कासिम ने शीसम के जाटों पर आक्रमण किया क्योंकि उन्होंने बजहरा (माझरा) को शरण दी थी। जाटों में से ही एक अरबों से मिल गया, जिससे अरबों ने जाटों को पराजित कर दिया और बजहरा (माझरा) मार डाला गया। इस तरह जाटों ने मुहम्म्द बिन कासिम की अधीनता स्वीकार कर ली।

राओर विजय

सीसम विजय के बाद मुहम्म्द बिन कासिम ने सरदार मोकाह की सहायता से सिंधु नदी को पार किया और राओर की ओर बढ़ा, जहाँ दाहिर ने भागकर शरण ली थी। वहाँ कई दिनों तक अरबों और दाहिर की सेनाएँ एक-दूसरे के सामने खड़ी रही। अंत में, 20 जून, 712 ई. को दाहिर और मुहममद बिन कासिम की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ। अंततः राओर के युद्ध में दाहिर की पराजय हुई और वह मारा गया।

दाहिर का पुत्र जयसिंह राओर दुर्ग की रक्षा का दायित्व अपनी माँ रानीबाई पर छोड़कर ब्राह्मणावाद भाग गया। दाहिर की रानी रानीबाई ने 1500 सैनिकों के साथ वीरतापूर्वक राओर दुर्ग की रक्षा करने का प्रयास किया, किंतु सफलता न मिलने पर जौहर कर लिया और कासिम का राओर पर नियंत्रण स्थापित हो गया।

ब्राह्मणाबाद पर अधिकार

राओर विजय के बाद मुहम्मद बिन कासिम ने ब्राह्मणाबाद की ओर प्रस्थान किया, जहाँ दाहिर के बेटे जयसिंह का शासन था। कहा जाता है कि ब्राह्मणाबाद में दाहिर के पुत्र जयसिंह ने अरबों के विरूद्ध सशक्त मोर्चेबंदी की थी, किंतु जयसिंह के कई मंत्री तथा अन्य लोग कासिम से मिल गये। अंततः जयसिंह अपनी पराजय निश्चित जानकर चित्तौड़ (चित्तूर) भाग गया और बाह्मणाबाद पर कासिम का अधिकार हो गया। कासिम ने यहाँ के खजाने पर अधिकार कर लिया और दाहिर की दूसरी विधवा रानी लाड़ी के साथ उसकी दो पुत्रियों- सूर्यदेवी तथा परमलदेवी को बंदी बना लिया।

अरोर की विजय

ब्राम्हणाबाद के पतन के बाद कासिम ने सिंध की राजधानी ‘अरोर’ पर अधिकार कर लिया, जो दाहिर के अन्य पुत्र के शासन में था। इस प्रकार मुहम्मद बिन कासिम ने संपूर्ण सिंध पर अधिकार कर लिया और अरबों की सिंध विजय पूरी हो गई।

मुल्तान पर अधिकार

713 ई. के आरंभ में मुहम्मद बिन कासिम सिंध को जीतने के बाद मुल्तान की ओर बढ़ा। एक विश्वासघाती ने अरबों को उस जलधारा के बारे में बता दिया, जिससे मुल्तान में दुर्ग निवासियों को जल की आपूर्ति होती थी। कासिम ने उस जलधारा को रोक दिया, जिससे विवश होकर दुर्ग के निवासियों को आत्मसमर्पण करना पड़ा और कासिम का नगर पर अधिकार हो गया। यहाँ से अरबों को इतना सोना मिला कि उन्होंने मुल्तान का नाम ‘स्वर्णनगर’ (सोने का नगर) रख दिया। मुल्तान की विजय मुहम्मद बिन कासिम की भारत में अंतिम विजय थी।

इस प्रकार मुल्तान सहित लगभग पूरे सिंध पर अरबों ने बड़ी सरलता से अधिकार कर लिया। अरबों के विरूद्ध भारतीयों की असफलता का कारण अरबों की सैनिक तैयारी और मुहम्मद बिन कासिम का कुशल सैनिक नेतृत्त्व तो था ही, सिंध के राजा दाहिर का नकारापन और उसकी अदूरदर्शिता भी पराजय का एक प्रमुख कारण थी। दाहिर की जनविरोधी नीतियों से जनता के अधिकांश वर्ग, प्रधानतः जाट, वेदन, मेहर और बौद्ध धर्मावलंबी उससे असंतुष्ट थे। कहा तो यह भी जाता है कि दाहिर की सेना में एक अरबी टुकड़ी भी थी, जिसने उसका साथ छोड़कर आक्रांताओं का साथ दिया था। राजा दाहिर के साथ जिन भारतीय सैनिकों ने कासिम का सामना किया, उन्हें बिलाजुरी ने ‘तकाकिरा’ बताया है, जो अरबी भाषा में में ‘ठाकुर’ का बहुबचन ह्रै। जो भी हो, अरबों सिंध और मुल्तान पर अधिकार करने में सफल सफलता मिल गई।  सिंध विजय के बाद दाहिर ने वहाँ न्याय और शांति का राज स्थापित किया।

मुहम्मद बिन कासिम की मृत्यु

मुहम्मद बिन कासिम की सिंध और मुल्तान की विजयों से मुसलमानों को पहली बार भारतीय भूमि के एक क्षेत्र पर अधिकार कर लेने में सफलता मिली। किंतु 715 ई. में खलीफा वालिद की मृत्यु के बाद नये खलीफा सुलेमान (714-717 ई.) की आज्ञा से मुहम्मद-बिन-कासिम को प्राणदंड दे दिया गया।

‘चचनामा’ में मुहम्मद बिन कासिम के प्राणदंड दिये जाने का यह कारण बताया गया है कि उसने दाहिर की जिन दो पुत्रियों को खलीफा सुलेमान (714-717 ई.) के यहाँ भेंट-स्वरूप में भेजा था; उन्होंने कासिम से बदला लेने के लिए खलीफा से यह झूठी शिकायत की कि मुहम्मद बिन कासिम ने पहले ही उनका शीलभंग कर दिया है। फलतः खलीफा ने क्रुद्ध होकर मुहम्मद-बिन-कासिम को बैल की खाल मे भरकर सिलवा दिया, जिसके कारण तीन दिन बाद मुहम्मद-बिन-कासिम की मृत्यु हो गई। बाद में, जब दाहिर की पुत्रियों ने स्वीकार किया कि उन्होंने अपने पिता की हत्या के प्रतिरोध मे झूठ बोला था, तो खलीफा ने क्रोधित होकर दोनों को घोड़ों की पूंछ से बाँधकर उनकी भी हत्या करवा दी। किंतु ‘चचनामा’ के इस विवरण पर बहुत विश्वास करने की आवश्यकता नहीं है।

आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार मुहम्मद बिन कासिम की मृत्यु का वास्तविक कारण राजनीतिक था। 715 ई. में खलीफा वालिद के पश्चात् सुलेमान खलीफा बना, जो मुहम्मद बिन कासिम के चाचा और उसके सुसर हज्जाज (ईराक के गवर्नर) से शत्रुता रखता था। हज्जाज की मृत्यु के बाद उसके क्षेत्र पर मुहम्मद बिन कासिम का अधिकार हो गया था, जबकि सुलेमान मुहम्मद बिन कासिम को सिंध से हटाना चाहता था। खलीफा सुलेमान ने यज़ीद को सिंध का नया सूबेदार नियुक्त किया, जिसे पहले हज्जाज ने कैद करके प्रताड़ित किया था। मकरान और सिंध के गवर्नर के रूप में यजीद ने मुहम्मद बिन कासिम को बंदी बनाकर 18 जुलाई, 715 को मोसुल (ईराक) में मार डाला।

मुहम्मद बिन कासिम की मृत्यु से अरबों का भारत में विस्तार रुक गया। सिंध के अनेक सरदारों ने इस्लामी सत्ता का जुआ अपने कंधों से उतार फेंका और खलीफा का अधिकार ‘देवल से सैंधव समुद्र तक’ के एक छोटे क्षेत्र मात्र तक सीमित रह गया।

अरबों की सिंध-विजय के परिणाम

अरबों की सिंध-विजय के परिणामों संबंध में इतिहासकारों के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रहे हैं। इतिहासकार लेनपूल के अनुसार ‘सिंध पर अरबों का अधिकार भारतीय इतिहास में एक क्षेपक मात्र था और वे इस विशाल देश के केवल एक किनारे मात्र को छू सके। इस्लाम की वह ऐसी विजय थी, जिसका कोई परिणाम नहीं निकला।’ वूल्जे हेग के अनसार ‘अरबों की सिंध विजय भारत के इतिहास की एक साधारण और महत्त्वहीन घटना थी और इस विस्तृत देश के एक कोने पर ही इसका प्रभाव पड़ा था।’ इसी प्रकार रमेशचंद्र मजूमदार भी इसे एक ‘महत्त्वहीन परिणामवाली घटना’ मानते है। इन इतिहाकारों के अनुसार, सिंध की अरब विजय का कोई स्थायी परिणाम नहीं निकला। कुछ दूसरे इतिहासकारों का विचार है कि अरब आक्रमण से समस्त उत्तरी भारत दहल उठा था।

सच तो यह है कि अरब आक्रमण न तो उतना महत्त्वहीन था जितना कुछ विद्वानों ने प्रमाणित करने का प्रयास किया है, और न ही उतना महत्त्वपूर्ण था जितना कुछ अन्य इतिहासकार मानते हैं। अरब आक्रमण के परिणाम बहुत कुछ भारत पर ईरानी और यूनानी आक्रमणों के समान ही हुए। यह सही है कि राजनीतिक दृष्टि से अरबों की सिंध विजय अस्थायी सिद्ध हुई और अरबवासी मात्र सिंध पर ही अधिकार कर सके। यह भी सही है कि अरबों को जिस प्रकार एशिया, अफ्रीका या यूरोप के विभिन्न भागों में सफलता मिली थी, वैसी सफलता उन्हें सिंध में नहीं मिल सकी। इसलिए आर.सी. मजूमदार इसे ‘महत्त्वहीन परिणामवाली घटना’ मानते हैं।

अरबों की विजय राजनीतिक दृष्टिकोण से महत्त्वहीन थी, किंतु परिणामविहीन नहीं थी। अरबों की विजय भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना के लिए महत्त्वपूर्ण कड़ी सिद्ध हुई। अरब कबीले सिंध के कई नगरों में बस गये और उन्होंने मंसूरा, बैजा, महफूजा तथा मुल्तान में अपनी बस्तियाँ स्थापित कर उपनिवेश बना लिये। मुहम्मद बिन कासिम ने हिंदुओं से ‘जजिया’ वसूल कर इस्लामी राज्य में रहने और अपने धर्म का पालन करने की स्वीकृति दी। इस प्रकार ‘सिंध-विजय ने इस्लामी नीतियों में एक नवीन युग का आरंभ किया।’ ‘जजिया’ से बचने के लिए अनेक भारतीय मुसलमान बन गये, जिससे सिंध एक मुस्लिम बहुसंख्यक प्रांत बन गया।

अरबों की सिंध-विजय के सांस्कृतिक परिणाम तो और भी महत्त्वपूर्ण हुए। आरंभ में अरबों ने सिंध में धार्मिक उन्माद दिखाया, मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनवाई, इस्लाम धर्म अपनाने के लिए जनता को बाध्य किया, गैर इस्लाम धार्मिकों की हत्या की और उन्हें गुलाम बनाया, किंतु सिंध में बस जाने के पश्चात् अरबों का यह धार्मिक उन्माद जाता रहा और तत्त्कालीन राजनीतिक और सामाजिक परिस्थिति से बाध्य होकर उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई। मंदिरों का विध्वंस बंद हो गया और मुल्तान का प्रसिद्ध सूर्यमंदिर नहीं तोड़ा गया। अरबों ने भारतीयों से प्रशासन और वास्तु-निर्माण के कार्यों से संबंधित महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त की और उन्हें महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक पद सौंपे गये।

दीर्घकालिक दृष्टि से भी अरबों ने राजनीतिक ढाँचे में एक महत्त्वपूर्ण नीति का प्रचलन किया। उन्होंने इस्लाम धर्म और इस्लामी राज्यों के बीच अंतर रखा। मध्ययुग में अलाउद्दीन खिलजी, मुहम्मद-बिन-तुगलक और शेरशाह ने धर्मपंथियों पर जो अंकुश लगाये थे और राज्य के मामलों में उनके हस्तक्षेप पर जो प्रतिबंध लगाये थे, उस नीति के बीज अरबों के दृष्टिकोण में दिखाई देते हैं।

अरबों ने भारतीयों से सामाजिक संपर्क स्थापित किया और वैवाहिक संबंध भी बनाये, जिससे अरब और भारतीय और नजदीक आये। पहली बार इसी समय भारतीय मुसलमानों के एक नये वर्ग का उदय हुआ। उनके इस कार्य में उन्हें हिंदुओं में व्याप्त ऊँच-नीच के भावों, छुआछूत के दोषों और सामाजिक विषमताओं से बहुत मदद मिली, क्योंकि इस्लाम धर्म में नवदीक्षितों को भी उन्होंने बराबरी का स्थान दिया गया। अरबों ने सिंध में ‘ऊँटपालन’ और ‘खजूर की खेती’ का प्रचलन किया और ‘दिरहम’ नामक सिक्के का प्रचलन करवाया।

यद्यपि सांस्कृतिक आदान-प्रदान के क्रम में भारतीय इस सांस्कृतिक संपर्क से अधिक लाभ नहीं उठा सके, फिर भी, अरबों के सहयोग से भारतीय व्यापारी पश्चिमी जगत, विशेषतकर अफ्रीका में अपनी व्यापारिक गतिविधियाँ संचालित कर सके और अब सिंघ भी एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बन गया।

अरबों ने भारतीयों से चिकित्सा, दर्शन, नक्षत्र विज्ञान, गणित और शासन-प्रबंध का ज्ञान प्राप्त किया और इसे यूरोप तक पहुँचाया। हेवेल के अनुसार, ‘यह भारत था, यूनान नहीं, जिसने इस्लाम को उसकी युवावस्था में शिक्षा दी, उसके दर्शन और रहस्यवादी विचारों का निर्माण किया और साहित्य, कला तथा स्थापत्य में इसकी विशिष्ट अभिव्यक्ति को अनुप्राणित किया।’ अरबों ने बग़दाद में ‘बैतूल’ (हिकमत) ज्ञानगृह नामक संस्था स्थापित की, जहाँ भारतीय ज्ञान-विज्ञान से संबंधित ग्रंथों को एकत्रित किया जाता था और उसका अरबी में अनुवाद कार्य होता था।

खलीफाओं और उनके वजीरों के संरक्षण में गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त (598-668) के गणितीय खगोल विज्ञान के ग्रंथ ‘ब्रह्मस्फुटसिद्धांत’ और ‘खंड-खाद्यक’ का अलफाजरी जैसे विद्धानों ने भारतीय विद्वानों की सहायता से अरबी में अनुवाद किया। ‘ब्रह्मस्फुटसिद्धांत’ का अरबी नाम ‘इल्म-उल-साहिब’ (अल-सिंद-हिंद) और ‘खंड-खाद्यक का ‘अल-अर्कंद’ रखा गया। अलबरूनी के अनुसार, अरबों द्वारा प्रयुक्त संख्याओं के चिह्न ‘हिंदू चिह्नों के सर्वसुंदर स्वरूप से निकले थे।’ इस प्रकार गणित और शून्य के ज्ञान के लिए अरब लोग भारतीयों के ही ऋणी हैं। अमीर खुसरो के अनुसार अबूमशर नामक अरब ज्योतिषी ने बनारस आकर 10 वर्षों तक ‘सिद्धांतज्योतिष’ का अध्ययन किया था। विष्णुशर्मा के ‘पंचतंत्र’ का अरबी भाषा में अनुवाद ‘कलीला और दिमना’ आज भी पूरे अरब जगत में लोकप्रिय है। बाद में मेवाड़ के शासक संग्रामसिंह द्वितीय के समय में नूरुद्दीन ने इसका चित्रांकन किया था।

इसी प्रकार सूफी संप्रदाय भी बौद्धधर्म के अनेक सिद्धांत, जैसे- सूफियों का संतवाद, माला धारण करने का ढंग, फना (निर्वाण) का सिद्धांत और उसे प्राप्त करने के लिए विभिन्न अवस्थाओं (मुकामात) संबंधी विश्वास भारतीय दर्शन और विश्वासों, विशेषतकर बौद्ध विश्वासों से प्रभावित थे। अरबों की चित्रकला, संगीत और स्थापत्यकला के विकास में भी भारतीयों का योगदान रहा।

इस प्रकार स्पष्ट है कि जीवन, विज्ञान और धर्म के अनेक क्षेत्रों में सिंध में अरब अधिकार के साथ एक ऐसे युग का सूत्रपात हुआ, जिसे हिंदू मुसलमान संस्कृतियों के भविष्य में होने वाले पारस्परिक आदान-प्रदान की पृष्ठभूमि तैयार हुई। अतः अरबों की सिंध विजय ‘परिणामविहीन विजयमात्र’ नहीं थी।

पश्चिमी भारत के अन्य क्षेत्रों पर अरब आक्रमण

आठवी शताब्दी में सिंध, मुल्तान और पंजाब के कुछ भागों पर अरबों का राजनीतिक प्रभाव स्थापित हुआ। अलमंसूर सिंध में अरबों की राजधानी बनी। अरब विजय के परिणामस्वरूप मुल्तान और सिंध में अरब स्थायी रूप से बस गये। धीरे-धीरे अरबों का प्रभाव-क्षेत्र सिंधु की निचली उपत्यका में मुल्तान से अल-मंसूर और देबल तक विस्तृत हो गई। पूर्व में उनके प्रभाव-क्षेत्र की सीमा गुर्जर-प्रतिहार राज्य की सीमा तक पहुँच गई।

वास्तव में, खलीफा हिशाम (724-743 ई.) के समय जब जुनैद को सिंध का गवर्नर नियुक्त किया गया, तो उसने पुनः एक बार अरब सत्ता को भारत में विस्तृत करने का प्रयत्न किया। जुनैद ने जयसिंह को बंदी बना लिया, जिससे सिंध क्षेत्र से हिंदू शासन का अंत हो गया।

अरब लेखकों के अनुसार जुनैद ने गुर्जरों को परास्त किया। अल बिलाधुरी भी बताता है कि जुनैद ने उजैन (उज्जैन), बहरीमद, अल-मालिबह, अल्कीराज, मिरमाद, अल-मंदल, दहनाज और बरवास नामक स्थानों पर आक्रमण किये और अल्बैलमान और अल-जुर्ज को जीत लिया। अलमसूदी का भी कहना है कि सिंध के गवर्नर जुनैद ने मारवाड़, मंदसोर, मालवा, भड़ौच और सौराष्ट्र पर विजय प्राप्त की और गुर्जरों को पराजित किया। यद्यपि जुनैद के आक्रमणों के परिणामस्वरूप राजस्थान और गुजरात का कुछ भाग थोड़े दिनों के लिए अरबों के आक्रमण का शिकार तो हुए, किंतु उनकी सफलताएँ अस्थायी रहीं। उनके आगे बढ़ने के प्रयत्नों को उनकी समकालीन अनेक भारतीय राजाओं ने सफलतापूर्वक रोक दिया।

लाट के चालुक्य शासक पुलकेशिराज ‘अवनिजनाश्रय’ के 738-739 ई. के नौसारी अभिलेख से ज्ञात होता है कि सिंध, कच्छ, सौराष्ट्र, चापोत्कट, मौर्य और गुर्जर राजाओं को आक्रांत करने वाले किसी ‘ताजिक’ आक्रमणकारी ने नौसारी पर भी आक्रमण किया था, किंतु उसे पुलकेशिराज ने हराया। उस विजय के कारण उसे ‘दक्षिणापथसधारा’ (दक्षिण का ठोस स्तंभ), ‘चल्लुकीकुललंकार’ (चालुक्य वंश का गहना या आभूषण), ‘पृथ्वीवल्लभ’ (पृथ्वी का प्रिय) जैसी उपाधियाँ मिलीं।

पुलकेशिराज के अलावा, प्रतिहार शासक नागभट्ट प्रथम को भी भोज प्रथम की ग्वालियर प्रशस्ति में ‘म्लेच्छों’ अर्थात् अरबों को पराजित करने का श्रेय दिया गया है। भृगुकच्छ-नांदीपुरी का गुर्जर राजा जयभट्ट चतुर्थ भी ‘ताजिकों’ अर्थात् अरबों को पराजित करने का दावा करता है। संभवतः उसने अरबों के वल्लभी पर आक्रमण के समय अपने मित्र राजा शीलादित्य पंचम के साथ अथवा उसकी ओर से यह युद्ध किया था।

इसी प्रकार उत्तर पश्चिम में कश्मीर-कांगड़ा की ओर मुक्तापीड ललितादित्य और यशोवर्मा ने भी अरबों को आगे बढ़ने से रोका। उनके बाद धीरे-धीरे गुर्जर प्रतिहारों का दबाव इतना बढ़ गया कि अरब लोग सिंध के पूर्व अथवा दक्षिणपूर्व का कोई भी विजित प्रदेश अपने अधिकार में नहीं रख सके।

जुनैद का उत्तराधिकारी तमीम शिथिल और दुर्बल था। उसके समय अरबों को सिंध में अपनी रक्षा करना भी कठिन हो गया। अल बिलाधुरी कहता है कि अरबों ने अपनी रक्षा के लिए एक झील के किनारे अलहिंद की सीमा पर ‘अलमहफूज’ (सुरक्षित) नामक एक नगर बसाया था।

अब्बासी खलीफा अलमंसूर (745-775 ई.) के समय अरबों ने एक बार पुनः सिंध और उसके आगे अपनी सत्ता को मजबूत करने का प्रयत्न किया, किंतु उसे भी कोई स्थायी सफलता नहीं मिल सकी। बाद में, वहाँ के अनेक मुसलमान सरदार आपस में ही लड़ने लगे और खलीफाओं की कमजोरी के कारण उन पर अरब का कोई केंद्रीय नियंत्रण नहीं रह गया। उन्होंने खलीफा की अधीनता मानने और उसे कोई कर या भेंट आदि देने से भी इनकार कर दिया, यद्यपि धार्मिक मामलों में खलीफा अब भी समूचे इस्लामी जगत का प्रधान माना जाता रहा।

नवीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश के बाद खलीफाओं का सिंध पर रहा-सहा नियंत्रण भी समाप्त हो गया। इस प्रकार तीन सौ वर्षों के सतत् प्रयास के बाद भी अरब मंसूरा और मुल्तान की दो छोटी रियासतों तक ही सीमित रह गये और अरब सिंध और मुल्तान के बाहर अपना व्यापक राजनीतिक प्रभाव स्थापित करने में विफल रहे।

यद्यपि अरबों का राजनीतिक प्रभाव सिंध के बाहर नहीं था, तथापि अरब व्यापार-वाणिज्य के उद्देश्य से सिंध से बाहर, विशेषकर दक्षिण भारत में बसने लगे। राष्ट्रकूटों ने अरबों को व्यापारिक सुविधाओं के साथ-साथ धार्मिक स्वतंत्रता भी प्रदान की। इसलिए अरब लेखक राष्ट्रकूटों की प्रशंसा करते हैं और राष्ट्रकूटों को ‘बलहार’ की उपाधि से संबोधित करते हैं। अल-मसूदी के अनुसार, कोकण में सिराफ, बसरा, अमन और बगदाद से आये हुए करीब 10,000 मुसलमान रहते थे। वहाँ का राजा मुस्लिम समुदाय के प्रमुख या हजमत को नियुक्त करता था। कोंकण के अतिरिक्त मलाबार, आंध्र, मद्रास, मैसूर, गुजरात, काठियावाड़ में भी बड़ी संख्या में अरबी लोग निवास करते थे। उत्तर और मध्य भारत में गुर्जर-प्रतिहारों के विरोध के कारण अरबी और भारतीय संस्कृति का व्यापक संपर्क नहीं हो सका, किंतु दक्षिण भारत में अरब इस्लाम धर्म का व्यापक प्रचार करने में सफल रहे।

व्यापारिक संपर्क

अरब विजय के परिणामस्वरूप आठवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य हिंद-अरब व्यापारिक संपर्कों का सर्वाधिक विकास हुआ। भारत-अरब व्यापार के विकास का सबसे अधिक विस्तार अब्बासी खलीफा द्वारा बगदाद की स्थापना के बाद हुआ। बगदाद और अरब सागर में फारस के सागर द्वारा सीधा व्यापारिक संपर्क स्थापित हुआ। बसरा अंतरराष्ट्रीय मंडी के रूप में विकसित हुआ जहाँ भारत, चीन, मिस्र, पूर्वी अफ्रीका और अन्य देशों से व्यापारिक सामान आते थे और उन्हें अरब साम्राज्य के विभिन्न भागों में पहुँचाया जाता था। इसी प्रकार फारस की खाड़ी स्थित शिराफ बंदरगाह से भारत, चीन और अन्य पूर्वी देशों को अरब संसार के सामान निर्यात किये जाते थे। हिंद-अरब व्यापार के विकास के कारण भारत में अनेक बंदरगाहों की समृद्धि बढी। अरब भूगोलवेत्ता भारत स्थित बंदरगाहों, जैसे-देबल, काम्बे, भड़ौंच, थाना, सिदाबूर (गोवा), क्विलो (सभी दक्षिण पश्चिमी तट पर स्थित) तथा काल-आवर (कोरोमंडल तट) का उल्लेख करते हैं। मस्कट से क्विलों तक सीधा व्यापार होता था। अरब व्यापारियों की गतिविधियों के केंद्र दक्षिणी समुद्रतट थे; किंतु अरब व्यापारी सिंघ, पंजाब, बंगाल, असम तथा कश्मीर से भी व्यापारिक संपर्क बनाये हुए थे। गुजरात और काठियावाड़ में भी अरब गतिविधियाँ बढ़ी हुई थीं। गुजरात में अन्हिलवाड़ (पाटन) अरब व्यापारियों के आकर्षण का केंद्र था। अरब यात्री सुलेमान और अल-मसूदी के अनुसार शिराफ से अरब जहाज रवाना होकर मस्कट होते हुए दो महीने में क्विलो बंदरगाह पहुँचते थे। क्विलो से पाक का मुहाना पारकर जहाज बालिन (तंजौर) पहुँचते थे। यहाँ से विभिन्न दिशाओं के लिए समुद्री मार्ग निकलते थे। चीन जाने वाले जहाज अंडमान-निकोबार तथा कलाह होते हुए कैंटन जाते थे और बंगाल की खाड़ी की ओर जानेवाले जहाज कंज और समुंदर होकर गंगा के मुहाने की ओर जाते थे।

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