बहादुर शाह प्रथम ( 1709-1712)
बहादुर शाह प्रथम दिल्ली का सातवाँ मुगल बादशाह था, जिसका मूल नाम ‘कुतुब-उद-दीन मुहम्मद मुअज्जम’ था। उसका पूरा नाम ‘अबुल-नस्र सैयद कुतुब-उद-दीन मुहम्मद शाहआलम बहादुर शाह बादशाह’ था। बहादुर शाह प्रथम का जन्म 14 अक्टूबर 1643 ई. को बुरहानपुर में हुआ था और वह मुगल सम्राट औरंगजेब का दूसरा पुत्र था। इसकी माता का नाम नवाब बाई था, जो राजौरी के राजा राजू की पुत्री थी। बहादुर शाह प्रथम को ‘शाहआलम प्रथम’ या ‘शाह-ए-बेखबर’ के नाम से भी जाना जाता है।
बहादुर शाह प्रथम को औरंगजेब ने 1663 ई. में दक्षिण के दक्कन पठार क्षेत्र और मध्य भारत में अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया था। 1683-1684 ई. में उसने दक्षिण बंबई (वर्तमान मुंबई) के गोवा के पुर्तगाली इलाकों में मराठों के विरुद्ध सेना का नेतृत्व किया, किंतु पुर्तगालियों की सहायता न मिलने के कारण उसे पीछे हटना पड़ा था। 1699 ई. में औरंगजेब ने उसे काबुल (वर्तमान अफगानिस्तान) का सूबेदार नियुक्त किया था।
औरंगजेब की मृत्यु 3 मार्च 1707 ई. को अहमदनगर में हुई। कुछ इतिहासकार उसकी मृत्यु की तिथि शुक्रवार, 20 फरवरी 1707 ई. को मानते हैं। मुगल शहजादों में उत्तराधिकार के लिए अकसर खूनी संघर्ष होता ही था। औरंगजेब के सबसे महत्त्वाकांक्षी पुत्र अकबर ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह किया था और औरंगजेब की मृत्यु से बहुत पहले ही निर्वासन में उसकी मृत्यु हो गई थी। इस प्रकार औरंगजेब की मृत्यु के समय उसके केवल तीन पुत्र जीवित थे—मुहम्मद मुअज्जम, मुहम्मद आजम शाह और मुहम्मद कामबख्श। औरंगजेब के जीवित पुत्रों में मुअज्जम सबसे ज्येष्ठ पुत्र था, जो पेशावर का सूबेदार था।
उत्तराधिकार का युद्ध
औरंगजेब की मृत्यु के समय शहजादा मुअज्जम पेशावर के निकट जमरूद में था, जबकि शहजादा आजम शाह मालवा के उपद्रव का दमन करने जा रहा था। तीसरा पुत्र शहजादा मुहम्मद कामबख्श, जिसे औरंगजेब ने बीजापुर का सूबेदार नियुक्त किया था, परेंदा में मराठों के विरुद्ध युद्ध में व्यस्त था।
औरंगजेब के तीनों शहजादों में आजम शाह सबसे निकट था और पिता की मृत्यु की सूचना पाते ही वह अहमदनगर पहुँच गया। औरंगजेब की वसीयत के अनुसार उसका शव औरंगाबाद के उत्तर-पश्चिम में शेख जैनुद्दीन की मजार के निकट खुल्दाबाद में दफना दिया गया। इसके बाद उसके तीन पुत्रों में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष आरंभ हो गया।
शहजादा मुअज्जम को जब जमरूद में 12 मार्च 1707 ई. को बादशाह औरंगजेब की मृत्यु की खबर मिली, तो उसने लाहौर के लिए प्रस्थान किया। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र मुइजुद्दीन को, जो थट्टा और मुल्तान का सूबेदार था, लाहौर पहुँचने का आदेश भेजा। लाहौर के निकट ‘पुल-ए-शाह’ नामक स्थान पर शहजादा मुअज्जम ने 22 अप्रैल 1707 ई. को ‘बहादुर शाह’ के नाम से अपना राज्याभिषेक किया। दूसरे दिन उसने रावी नदी को पारकर लाहौर में शिविर स्थापित किया, जहाँ उसके पुत्र शहजादा मुइजुद्दीन से उसकी भेंट हुई। यहीं सैयद बंधु भी उसकी सेवा में उपस्थित हुए। बहादुर शाह ने लाहौर में दरबार आयोजित कर मुनीम खाँ और अन्य अमीरों को पदों से सम्मानित किया। लाहौर में ही उसने बादशाह के रूप में अपना नाम ‘खुतबा’ में पढ़वाया और सिक्के चलवाए।
बहादुर शाह (मुअज्जम) का आगरा पर अधिकार
लाहौर से सरहिंद होता हुआ मुअज्जम 19 मई 1707 ई. को दिल्ली पहुँचा और वहाँ के शाही खजाने पर अधिकार कर लिया। यहाँ उसने कुछ सैनिकों की भर्ती कर अपनी सैनिक संख्या में वृद्धि की। यहीं उसे सूचना मिली कि उसका पुत्र अजीमुद्दीन आगरा के किले पर अधिकार करने में असफल रहा है। अतः बहादुर शाह (मुअज्जम) ने मुनीम खाँ को आगे बढ़कर आगरा के किले पर अधिकार करने का आदेश दिया। 21 मई 1707 ई. को बहादुर शाह स्वयं शेष सेना के साथ मथुरा होता हुआ 1 जून 1707 ई. को आगरा पहुँच गया और दहर-आरा बाग में अपना शिविर लगाया। आगरा के शाही खजाने से उसे चौबीस करोड़ रुपये के मूल्य का सोना, चाँदी और सिक्के मिले। यहीं चूड़ामणि जाट, गोपाल सिंह भदौरिया और अन्य अमीर आजम शाह से असंतुष्ट होकर बहादुर शाह की सेना में सम्मिलित हो गए।
आजम शाह ने अपने पिता की अंत्येष्टि क्रिया के पश्चात् कुछ दिन शोक में व्यतीत किए। औरंगजेब की मृत्युशय्या पर तकिये के नीचे हमीदुद्दीन खाँ को एक ‘वसीयतनामा’ मिला, जिसमें उसने अपनी अंत्येष्टि तथा साम्राज्य के उत्तराधिकार आदि के संबंध में कुछ निर्देश लिख छोड़े थे। उसने उत्तराधिकार युद्ध से बचने के लिए अपने पुत्रों को साम्राज्य को आपस में विभाजित करने की सलाह दी थी। किंतु आजम शाह ने वसीयतनामा को अनदेखा कर 4 मार्च 1707 ई. को ईद-उल-अज़हा के अवसर पर अहमदनगर में अपना राज्याभिषेक कराया और ‘अबुल फैज मुइनुद्दीन मुहम्मद आजम शाह बादशाह गाजी’ की उपाधि धारण की। उसने अपना नाम ‘खुतबा’ में पढ़वाया और अपने नाम के सिक्के भी ढलवाए। इस अवसर पर उसने शहजादों तथा अमीरों के मनसब में वृद्धि की और उन्हें पुरस्कृत भी किया। इसके बाद आजम शाह ने दिल्ली और आगरा पर अधिकार करने का निश्चय किया। उसने तोपखाने को अनावश्यक समझ कर उसे अहमदनगर में ही छोड़ दिया और स्वयं 9 मार्च को प्रस्थान किया। वह 23 मार्च को औरंगाबाद पहुँचा, जहाँ असद खाँ के पुत्र जुल्फिकार खाँ, तरबियत खाँ, राव दलपत बुंदेला, राम सिंह हाड़ा, छत्रसाल राठौड़ आदि भी उसकी सेना में सम्मिलित हो गए, जिससे उसकी स्थिति काफी सुदृढ़ हो गई। 25 मार्च को आजम शाह ने औरंगाबाद से प्रस्थान किया और बुरहानपुर, सिरोंज, दोराहा होते हुए 31 मई को ग्वालियर से 30 मील पहले सराय इमांब पहुँचा। वहीं उसके पुत्र बेदार बख्श ने सूचना मिली कि अजीमुद्दीन (बहादुर शाह का पुत्र) आगरा पहुँच चुका है और बहादुर शाह भी दिल्ली पर अधिकार कर आगरा के निकट पहुँच गया है। यह सूचना मिलते ही आजम शाह 31 मई को ग्वालियर पहुँच गया। दूसरे दिन उसने ग्वालियर से आगरा के लिए प्रस्थान किया और 5 जून 1707 ई. को वह घौसपुर पहुँच गया, जहाँ उसके पुत्र बेदार बख्श ने उसका स्वागत किया। इस समय उसकी सैनिक संख्या लगभग एक लाख दस हजार थी। यहीं सेना को युद्ध के लिए तैयार करते हुए आजम शाह ने कहा था कि ‘आगरा पहुँचने पर उनके वेतन में एक चौथाई की वृद्धि की जाएगी’।
जाजऊ का युद्ध (20 जून 1707 ई.)
दिल्ली से आगरा जाते समय बहादुर शाह को मथुरा में सूचना मिली कि आजम शाह आगरा की ओर बढ़ रहा है। बहादुर शाह ने युद्ध को टालने के लिए अपने भाई आजम शाह को पत्र लिखा: ‘युद्ध में मुसलमानों का रक्तपात उचित नहीं है क्योंकि दोनों एक ही डाल के दो फूल हैं और औरंगजेब द्वारा प्रस्तावित बँटवारे को मानकर समझौता कर लेना चाहिए। यदि बिना युद्ध किए आजम शाह को संतोष नहीं है, तो वह उससे द्वंद्व युद्ध कर अपनी लालसा पूर्ण कर सकता है। इसमें से जो जीवित बचे, वह मुगल साम्राज्य का उत्तराधिकारी हो।’ किंतु आजम शाह ने उत्तर दिया कि एक कंबल के नीचे दस संन्यासी सो सकते हैं, किंतु एक साम्राज्य में दो बादशाह नहीं रह सकते।
अब बहादुर शाह के सामने युद्ध के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। उसने डेढ़ लाख घुड़सवारों की सेना के साथ आगरा से धौलपुर के लिए प्रस्थान किया, किंतु आजम शाह के आने की सूचना से बहादुर शाह आगरा के दक्षिण में जाजऊ के निकट रुक गया। यह स्थान सामूगढ़ के निकट था, जहाँ औरंगजेब ने दारा को पराजित किया था।
20 जून 1707 ई. में बहादुर शाह ने अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार किया। किंतु इसी बीच आजम शाह के सैनिकों ने अजीमुद्दीन (बहादुर शाह का पुत्र) के सैनिकों पर आक्रमण कर दिया और रुस्तम दिल खाँ मीर तुजुक को बंदी बना लिया। बहादुर शाह के सेनापति मुनीम खाँ ने तीनों शहजादों के साथ आजम शाह की सेना पर आक्रमण किया। युद्ध में आजम शाह के पुत्र बेदार बख्श और वलाजाह लड़ते हुए मारे गए, किंतु आजम शाह बिना घबराहट के युद्ध करता रहा। जुल्फिकार खाँ ने आजम शाह को युद्धस्थल से हट जाने और पुनः युद्ध की तैयारी करने की सलाह दी, किंतु आजम शाह ने क्रुद्ध होकर उसे युद्धस्थल से भगा दिया। जुल्फिकार खाँ अपने पिता असद खाँ के पास ग्वालियर चला गया। उसके जाते ही अनेक सेनापति आजम शाह का साथ छोड़ दिए। अंततः 20 जून 1707 ई. में आजम शाह युद्ध में मारा गया। आजम शाह तथा उसके पुत्रों के शवों को चंदन के ताबूत में आगरा से दिल्ली लाया गया और हुमायूँ के मकबरे में उन्हें दफना दिया गया।
बहादुर शाह का राज्याभिषेक
इस युद्ध में विजय के बाद बहादुर शाह ने आजम शाह के सेनापतियों और सैनिकों को शाही सेना में सम्मिलित कर लिया और उन्हें उचित पद एवं सम्मान प्रदान किया। उसने 19 जून 1707 ई. को आगरा में ‘बहादुर शाह’ के नाम से अपना राज्याभिषेक कराया।
बहादुर शाह ने राज्याभिषेक के अवसर पर अपने पुत्र मुइजुद्दीन को ‘जहाँदार शाह’ की पदवी तथा 20,000 जात और 15,000 सवार का मनसब, अजीमुद्दीन को ‘अजीम-उस-शान’ की पदवी तथा 18,000 जात और 14,000 सवार का मनसब, रफी-उल-कद्र को ‘रफी-उस-शान’ की पदवी तथा 16,000 जात और 11,000 सवार का मनसब, खुजिस्ता अख्तर को ‘जहाँ शाह’ की पदवी तथा 14,000 जात और 9,000 सवार का मनसब प्रदान किया। इसके साथ ही जहाँदार शाह को थट्टा और मुल्तान की सूबेदारी, अजीम-उस-शान को बंगाल और पटना की सूबेदारी, रफी-उस-शान को काबुल की सूबेदारी और जहाँ शाह को मालवा की सूबेदारी प्रदान की गई। इन्हें अपने-अपने प्रांतों में नायब नियुक्त करने का भी अधिकार दिया गया। उसने मुनीम खाँ को 7,000 जात एवं 7,000 सवार का मनसब, ‘खान-ए-खाना जफर जंग’ की पदवी, आगरा की सूबेदारी और दो करोड़ दम पुरस्कार स्वरूप देकर उसे साम्राज्य के वजीर के पद पर प्रतिष्ठित किया। मुनीम खाँ के ज्येष्ठ पुत्र नईम खाँ को ‘महावत खाँ बहादुर’ की पदवी, 5,000 का मनसब तथा तृतीय बख्शी के पद पर नियुक्त किया गया। मुनीम खाँ के दूसरे पुत्र मुकर्रम खाँ को ‘खान-ए-जमान’ की पदवी और 4,000 का मनसब दिया गया। बहादुर शाह के आदेशानुसार ग्वालियर से असद खाँ अपने परिवार और आजम शाह की रानियों सहित जुलाई 1707 ई. में बादशाह की सेवा में उपस्थित हुआ। असद खाँ को 8,000 जात और 8,000 सवार का मनसब, ‘वकील-ए-मुतलक’ का पद तथा लाहौर की सूबेदारी प्रदान की गई। उसके पुत्र जुल्फिकार खाँ को ‘अमीर-उल-उमरा नुसरत जंग बहादुर’ की पदवी, 7,000 जात एवं 7,000 सवार का मनसब, प्रथम बख्शी का पद और असद खाँ के नायब का पद भी दिया गया। दक्षिण से आए चिनकिलिच खाँ को 6,000 का मनसब, तथा ‘खान-ए-दौरान’ की पदवी और अवध की सूबेदारी तथा गोरखपुर की फौजदारी दी गई। इस प्रकार बहादुर शाह प्रथम ने अमीरों को पद और सम्मान देकर उन्हें संतुष्ट करने का प्रयास किया।
कामबख्श का उत्थान
कामबख्श बादशाह औरंगजेब का छोटा पुत्र था, जिसे फरवरी 1707 ई. में बीजापुर का सूबेदार नियुक्त किया गया था। कामबख्श जब परेंदा में था, तो उसे औरंगजेब की मृत्यु का समाचार मिला था। यह समाचार सुनते ही उसके अनेक अमीर शहजादा आजम शाह को शक्तिशाली मानकर उसके पास चले गए। कामबख्श ने अपने विश्वासपात्र अहसन खाँ मीर मलंग की सलाह पर गुलबर्गा पहुँचकर अपना राज्याभिषेक किया, ‘दीन-ए-पनाह’ की पदवी धारण की और अपना नाम सिक्कों पर अंकित करवाया। उसने हकीम मोहसिन को ‘तकर्रब खाँ’ की पदवी दी और वजीर के पद पर नियुक्त किया। अहसन खाँ मीर मलंग को 5,000 जात और 5,000 सवार के साथ मीर बख्शी का पद दिया गया। इसके बाद कामबख्श ने बीजापुर किले का घेरा डाल दिया। किंतु दो महीने के घेरे के बाद सैयद नियाज खाँ ने किला कामबख्श को सौंप दिया। बीजापुर के किले पर अधिकार स्थापित करने के बाद कामबख्श ने दक्षिण के अन्य किलों को जीतने के लिए एक सेना संगठित किया और नुसरताबाद तथा इम्तियाजगढ़ी के किलों पर अधिकार कर लिया।
गुलबर्गा से कामबख्श ने कर्नाटक की ओर प्रस्थान किया और अर्कोट में दाऊद खाँ पन्नी को पराजित किया। कामबख्श ने जनवरी 1708 ई. में हैदराबाद के किले पर अधिकार किया। उसने नांदेड़ पर अधिकार करने के लिए मुहम्मद जाहिद को भेजा, किंतु वह युद्ध में मारा गया। इससे सशंकित होकर कामबख्श ने अपने अनेक सेनापतियों की हत्या करवा दी और हैदराबाद में अत्याचार करना आरंभ कर दिया। यहीं से कामबख्श के सितारे गर्दिश में जाने लगे।
बहादुर शाह का दक्षिण अभियान
जनवरी 1708 ई. में जब बहादुर शाह अजमेर के निकट ठहरा था, उसे कामबख्श के राज्याभिषेक की सूचना मिली थी। उसने जय सिंह और अजीत सिंह से समझौता कर कामबख्श से निपटने के लिए सैनिक तैयारियाँ आरंभ कर दी। 23 मार्च को उसने अजमेर से दक्षिण के लिए प्रस्थान किया और मई 1708 ई. में नर्मदा पारकर वह बुरहानपुर पहुँच गया। वहीं से उसने औरंगजेब के वसीयतनामे के अनुसार शांतिपूर्ण समझौते के लिए कामबख्श को मातबर खाँ के द्वारा एक पत्र भेजा, जिसमें उसने कामबख्श को सलाह दी थी कि वह औरंगजेब की वसीयत के अनुसार बीजापुर तथा हैदराबाद के प्रांतों को लेकर संतोष करे। किंतु कामबख्श ने मातबर खाँ के अलावा उसके सभी साथियों की हत्या करवा दी। उसने मातबर खाँ के द्वारा बहादुर शाह को उत्तर भिजवाया कि यह सही है कि अनावश्यक युद्ध करना निंदनीय है, किंतु उसने वसीयतनामे के अनुसार ही बीजापुर तथा गोलकुंडा पर अधिकार किया है, इसलिए इसमें बहादुर शाह को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
कामबख्श का पतन और मृत्यु
बहादुर शाह अपने भाई को क्षमा करना चाहता था, किंतु उसके पुत्रों और अमीरों ने उसकी समझौतावादी नीति के प्रति असहमति व्यक्त की और कहा कि एक साम्राज्य में एक ही बादशाह होना चाहिए। इसके बाद, बहादुर शाह कामबख्श से युद्ध करने के लिए तैयार हो गया।
बहादुर शाह ने 15 जून 1708 ई. को बुरहानपुर से हैदराबाद के लिए प्रस्थान किया। जब वह हैदराबाद के निकट पहुँचा, तो 27 नवंबर को दाऊद खाँ पन्नी ने उपहार सहित उससे भेंट की। जनवरी 1709 ई. में बहादुर शाह के हैदराबाद पहुँचने पर कामबख्श के बहुत से सैनिक बहादुर शाह से मिल गए। समकालीन इतिहासकार खाफी खाँ के अनुसार जब युद्ध से पहले कामबख्श के सैनिकों की गणना की गई तो उनकी संख्या चार या पाँच सौ से अधिक नहीं थी। बहादुर शाह ने अपने सैनिकों को मुनीम खाँ तथा जुल्फिकार खाँ के नेतृत्व में बाँट दिया और जनवरी 1709 ई. को कामबख्श पर अचानक आक्रमण कर दिया। कामबख्श पराजित हुआ और घायल अवस्था में बंदी बनाकर शाही शिविर में लाया गया, किंतु शीघ्र ही 14 जनवरी 1709 ई. को उसकी मृत्यु हो गई। कामबख्श और उसके पुत्र के शव दिल्ली भेज दिए गए, जहाँ उन्हें हुमायूँ के मकबरे में दफन कर दिया गया।
बहादुर शाह की नीतियाँ और उपलब्धियाँ
बहादुर शाह का राजपूतों से संबंध
बहादुर शाह प्रथम ने राजपूतों के प्रति शांति और समझौते की नीति अपनाई। औरंगजेब की मृत्यु के समय जोधपुर के अतिरिक्त अन्य राजपूत राजाओं से मुगलों के संबंध संतोषजनक थे। किंतु औरंगजेब की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार युद्ध की विभिन्न परिस्थितियों के कारण मुगल-राजपूत संबंध पहले की अपेक्षा कटु हो गए। 1707 ई. में जब बहादुर शाह ने काबुल से आगरा के लिए प्रस्थान किया, उस समय आमेर के राजा जय सिंह का छोटा भाई विजय सिंह और बूंदी का शासक बुध सिंह उसकी सेवा में थे।
आजम शाह ने जब दक्षिण से उत्तर भारत की ओर प्रस्थान किया तो आमेर का राजा जय सिंह, कोटा का राजा राव राम सिंह हाड़ा, दतिया का शासक राव दलपत बुंदेला आदि उसके साथ थे। उदयपुर के राणा अमर सिंह और जोधपुर के राजा अजीत सिंह इस उत्तराधिकार के युद्ध में तटस्थ रहे।
जाजऊ में बहादुर शाह और आजम शाह के बीच होने वाले युद्ध में दोनों पक्षों की ओर से राजपूतों ने भाग लिया था। आजम शाह की ओर से राम सिंह हाड़ा और दलपत बुंदेला ने अपने प्राण दे दिए। जय सिंह युद्ध के बीच में ही पाला बदलकर बहादुर शाह से मिल गया था। यद्यपि बहादुर शाह इससे प्रसन्न हुआ, किंतु जय सिंह अपने भाई विजय सिंह की भाँति बहादुर शाह का विश्वासपात्र नहीं हो सका। यही कारण था कि युद्ध के बाद उसे मालवा की सूबेदारी के स्थान पर नगरकोट की केवल फौजदारी दी गई थी। संभवतः बहादुर शाह आमेर की राजगद्दी उसके भाई विजय सिंह को देना चाहता था। इस कारण उसने आमेर को खालसा में लेने का निश्चय किया।
जोधपुर के राजा अजीत सिंह ने गृहयुद्ध का लाभ उठाकर जोधपुर के नायब फौजदार जाफर कुली खाँ को भगाकर जोधपुर पर अधिकार कर लिया और अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी।
बहादुर शाह ने सितंबर 1707 ई. में मेहरबान खाँ को जोधपुर का फौजदार नियुक्त किया और जोधपुर पहुँचने का आदेश दिया। मुगल सेना के आगमन की सूचना पाकर उदयपुर के राणा अमर सिंह ने बहादुर शाह की सेवा में उपहारादि भेजा, जिसे उसने स्वीकार कर लिया।
राजपूताना की गंभीरता को देखते हुए बहादुर शाह स्वयं जय सिंह के साथ जनवरी 1708 ई. में आमेर पहुँचा। उसने आमेर के प्रशासन के लिए अहमद सईद बारहा को वहाँ का फौजदार नियुक्त किया और उसका नाम बदलकर ‘इस्लामाबाद’ कर दिया। इसके बाद उसने 13 जनवरी 1708 ई. को अजमेर के लिए प्रस्थान किया। इस बीच बहादुर शाह को सूचना मिली कि शाही फौजदार मेहरबान खाँ ने, जिसे जोधपुर पर अधिकार करने के लिए भेजा गया था, अजीत सिंह को पराजित कर मेड़ता पर अधिकार कर लिया है और उदयपुर का राणा अमर सिंह परिवार सहित पहाड़ों में छिप गया है। यहीं उसे दक्षिण से यह भी सूचना मिली कि वहाँ कामबख्श ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी है, अपना नाम ‘खुतबा’ में पढ़वाया और सिक्कों पर भी अंकित करवाया। अब बहादुर शाह जोधपुर की समस्या को शीघ्र निपटाकर दक्षिण जाना चाहता था। अजीत सिंह भी जोधपुर पर पुनः मुगल आक्रमण नहीं चाहता था। अंततः फरवरी 1708 ई. में अजीत सिंह तथा दुर्गादास अपने अन्य राजपूत साथियों के साथ मेड़ता में बहादुर शाह की सेवा में उपस्थित हुए और उसकी आधीनता स्वीकार की। अजीत सिंह को 3,500 जात और 3,000 सवार के साथ तीन परगने जागीर के रूप में दिए गए। इसी अभियान में बहादुर शाह ने उदयपुर के राणा अमर सिंह को भी अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया।
चित्तौड़ से बहादुर शाह दक्षिण के लिए चल पड़ा। अभी वह नर्मदा के तट पर ही था कि अजीत सिंह, दुर्गादास और जय सिंह अपने सैनिकों सहित वहाँ से भाग निकले। इससे बहादुर शाह क्रोधित तो हुआ, किंतु कामबख्श की समस्या को अधिक गंभीर जानकर उसने उनका पीछा नहीं किया। यहीं उसने जय सिंह के भाई विजय सिंह को 3,000 जात और 2,500 सवार का मनसब, ‘मिर्जा राजा’ की पदवी तथा आमेर की गद्दी प्रदान की।
राजपूत राजाओं का त्रिगुट
शाही शिविर से भागकर अजीत सिंह (जोधपुर) और जय सिंह (आमेर) उदयपुर पहुँचे, जहाँ राणा अमर सिंह ने उनका स्वागत किया। मुगलों के विरुद्ध आमेर, जोधपुर और उदयपुर के राजपूत राजाओं ने एक ‘त्रिगुट’ का निर्माण किया। इस ‘त्रिगुट’ को सुदृढ़ करने के लिए उदयपुर के राणा अमर सिंह ने अपनी पुत्री ‘चंद्रकुंवर’ का विवाह जय सिंह से कर दिया। जून 1708 ई. में ‘त्रिगुट’ की संयुक्त सेना के 30 हजार सैनिकों ने जोधपुर पर अधिकार कर लिया और शाही फौजदार मेहरबान खाँ को वहाँ से भागना पड़ा। जुलाई 1708 ई. में अजीत सिंह जोधपुर की राजगद्दी पर बैठा।
जोधपुर की विजय के बाद 20 हजार राजपूत सैनिकों ने आमेर पर अधिकार कर लिया और मुगल फौजदार हुसैन खाँ को वहाँ से निष्कासित कर दिया। इस प्रकार आमेर पर जय सिंह का अधिकार हो गया। यही नहीं, राजपूतों ने हिंडौन और बयाना पर भी अधिकार कर लिया।
बहादुर शाह ने राजपूतों की इन विद्रोही गतिविधियों से निपटने के लिए असद खाँ को आदेश दिया। संभवतः वर्षा ऋतु के कारण असद खाँ राजपूतों के विरुद्ध कोई सैनिक कार्यवाही नहीं कर सका। वर्षा के समाप्त होते ही हुसैन खाँ ने अपने सहयोगियों राजा बहादुर, अहमद सईद खाँ और चूड़ामणि जाट के साथ आमेर पर आक्रमण किया। किंतु यह अभियान असफल रहा और राजा बहादुर युद्ध में मारा गया। इस विजय से उत्साहित होकर जय सिंह और अजीत सिंह की संयुक्त सेना ने मेड़ता पर अधिकार कर लिया।
इसके बाद अक्टूबर 1708 ई. में राजपूतों और मुगल सेना के बीच ‘सांभर का युद्ध’ हुआ। युद्ध में सैयद हुसैन खाँ बारहा की मृत्यु के बाद राजपूतों ने सांभर और डीगवाना पर भी अधिकार कर लिया। इस प्रतिकूल परिस्थिति में शहजादा अजीम-उस-शान ने बहादुर शाह को राजपूतों से संधि करने की सलाह दी। बहादुर शाह ने असद खाँ को राजपूत राजाओं से संधि वार्ता आरंभ करने का आदेश दिया। जय सिंह अपने लिए मालवा और अजीत सिंह के लिए गुजरात की सूबेदारी चाहते थे। किंतु जब जय सिंह को गुजरात और अजीत सिंह को काबुल की सूबेदारी दी गई तो उन्होंने असद खाँ के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।
बहादुर शाह प्रथम राजपूत समस्या का सम्यक् समाधान चाहता था। इसलिए उसने जुलाई 1709 ई. में औरंगाबाद से उत्तर भारत के लिए प्रस्थान किया। किंतु अजीत सिंह और जय सिंह में किसी कारण से मनमुटाव हो गया। इसलिए राजपूतों ने एक बार पुनः संधिवार्ता आरंभ की। शहजादा अजीम-उस-शान तथा असद खाँ भी समझौते के पक्ष में थे। इसी समय पंजाब में बंदा बहादुर के नेतृत्व में सिक्खों का विद्रोह भी बढ़ रहा था। इस कारण राजपूतों से संधि कर ली गई। मई 1710 ई. में जब बहादुर शाह दादवाँ की सराय में ठहरा हुआ था, तो राजपूत राजाओं के प्रतिनिधि उसकी सेवा में उपस्थित हुए। उसने जय सिंह, अजीत सिंह तथा अमर सिंह को क्षमा किया और उन्हें मनसब प्रदान किए। 24 मई 1710 ई. को एक आदेश जारी कर जय सिंह को आमेर और अजीत सिंह को जोधपुर के राज्य दे दिए गए। बहादुर शाह ने अजीत सिंह को 4,000 जात एवं 4,000 सवार का मनसब और जय सिंह को 3,500 जात और 3,500 सवार का मनसब दिया। इन राजपूत राजाओं ने सिक्खों के विरुद्ध युद्ध में मुगलों की सहायता की।
बहादुर शाह प्रथम ने अन्य राजपूत राज्यों के प्रति भी यही नीति अपनाई। उत्तराधिकार के युद्ध में कोटा के राजा राम सिंह ने आजम शाह का पक्ष लिया था और बूंदी के राजा बुध सिंह ने बहादुर शाह का साथ दिया था। राम सिंह के मृत्योपरांत बुध सिंह को ‘राव सजा’ की पदवी और कोटा राज्य दिया गया, किंतु राम सिंह के उत्तराधिकारी के विरोध के कारण वह वहाँ अधिकार नहीं कर सका। इसी प्रकार बहादुर शाह ने राजा दलपत बुंदेला (जो आजम शाह की ओर से युद्ध करते हुए मारा गया था) के दतिया राज्य में दलपत के पुत्र बिहारी चंद के विरुद्ध उसके दूसरे पुत्र राम चंद्र के उत्तराधिकार का समर्थन किया। फलतः राम चंद्र बिहारी चंद के विरोध के डर से बहादुर शाह प्रथम के पास लौट गया।
इस प्रकार बहादुर शाह की राजपूत नीति का उद्देश्य राजपूताना में अपने प्रभुत्व को बढ़ाना था। यही कारण था कि उसने आमेर में जय सिंह के स्थान पर विजय सिंह को राजगद्दी प्रदान करने की चेष्टा की। किंतु जय सिंह ने अजीत सिंह तथा राणा अमर सिंह के साथ मिलकर इसका विरोध किया। जोधपुर पर मुगल आक्रमण का कारण राजा अजीत सिंह की उद्दंडता और उसकी विद्रोही गतिविधियाँ थीं।
मराठों से संबंध
बहादुर शाह प्रथम ने मराठों के प्रति अस्थिर नीति अपनाई और उनके साथ शांति स्थापित करने की असफल कोशिश की। उसने शिवाजी के पौत्र शाहू को, जो 1689 ई. से ही मुगल दरबार में बंधक था, मुक्त कर दिया और सतारा का राजा बनाकर महाराष्ट्र जाने की अनुमति दे दी।
आजम शाह के विरुद्ध प्रस्थान करते समय दिसंबर 1707 ई. में भुसावर में बहादुर शाह ने शाहू के भाई भुवन सिंह को अपना राजदूत बनाकर शाहू के पास भेजा और कहा कि वह कामबख्श के विरुद्ध उसकी सहायता करे। किंतु शाहू उस समय ताराबाई से संघर्षरत था। इसलिए उसने अपने सेनापति नेमाजी सिंघनिया को सहायता के लिए भेजा, जिसने बहादुर शाह की ओर से कामबख्श के विरुद्ध युद्ध में भाग लिया था। कामबख्श को पराजित करने के बाद स्पष्ट था कि बहादुर शाह शाहू का समर्थन करेगा। दक्षिण से लौटते समय जब बादशाह बुरहानपुर में था, शाहू ने अपने प्रतिनिधि गदाधर प्रह्लाद के द्वारा ‘चौथ’ और ‘सरदेशमुखी’ वसूल करने के अधिकार की माँग की। जहाँ एक ओर मीर बख्शी जुल्फिकार खाँ शाहू के पक्ष में था, वहीं वजीर मुनीम खाँ ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। इसी समय ताराबाई ने भी माँग की कि मराठा राज्य का वास्तविक उत्तराधिकारी उसके पुत्र शिवाजी द्वितीय को माना जाए और उसे ‘सरदेशमुखी’ वसूल करने का अधिकार दिया जाए। ताराबाई ने यह भी वचन दिया कि वह दक्षिण में मुगल साम्राज्य के विरोधियों का दमन करेगी।
अब बहादुर शाह प्रथम मराठा समस्या को लेकर बड़ी उलझन में पड़ गया, क्योंकि शाहू के संबंध में उसके वजीर और मीर बख्शी में मतभेद था। ऐसी स्थिति में उसने शिवाजी द्वितीय और शाहू, दोनों को मराठा राज्य का वैधानिक उत्तराधिकारी स्वीकार कर लिया और कहा कि उन दोनों के युद्ध में जो पक्ष विजयी होगा, वही ‘सरदेशमुखी’ वसूल करेगा। इस प्रकार बहादुर शाह ने मराठों में आपसी युद्ध को प्रोत्साहित किया।
बहादुर शाह प्रथम के दक्षिण से हटते ही वहाँ मराठों का उपद्रव आरंभ हो गया। शाहू ने प्रचार किया कि बहादुर शाह ने उसके उत्तराधिकार को स्वीकार कर लिया है, किंतु ‘चौथ’ वसूलने का अधिकार प्रदान करने में विलंब कर रहा है। दाऊद खाँ ने मराठों में फूट डालकर अनेक मराठा सरदारों को अपनी ओर मिला लिया। ताराबाई के कुछ समर्थक भी दाऊद से मिल गए। 1710 ई. में शाहू ने बीजापुर पर आक्रमण कर लूटमार की। अब मराठों में कलह एवं वैमनस्य बढ़ गया था।
फरवरी 1711 ई. में वजीर मुनीम खाँ की मृत्यु के बाद जुल्फिकार खाँ और शहजादा अजीम-उस-शान का मुगल राजनीति में प्रभाव बढ़ गया। संभवतः इसी समय दाऊद खाँ पन्नी ने शाहू से एक गुप्त संधि की, जिसके अनुसार उसने शाहू को छह प्रांतों की ‘चौथ’ तथा ‘सरदेशमुखी’ देने का वचन दिया, किंतु शर्त थी कि ‘सरदेशमुखी’ की वसूली मराठों द्वारा न होकर दाऊद खाँ के अधिकारी करेंगे और शहजादों तथा उच्च अमीरों की जागीर से ‘चौथ’ या ‘सरदेशमुखी’ नहीं वसूली जाएगी। संभवतः दाऊद खाँ पन्नी ने शाहू को संतुष्ट करने के लिए यह मौखिक संधि की थी क्योंकि इसके बाद भी मुगल क्षेत्रों में मराठे लूट-मार करते रहे। ताराबाई के मराठा सवारों ने भी मुगल प्रदेशों को लूटना आरंभ कर दिया। दाऊद खाँ ने खानदेश पर आक्रमण करने के लिए हिरामंद को एक सेना के साथ भेजा, जिसने ताराबाई की सेना को पराजित किया। इससे ताराबाई की शक्ति दिन-प्रतिदिन घटने लगी और शाहू का प्रभाव बढ़ने लगा। इस प्रकार बहादुर शाह के शासनकाल के अंत तक वहाँ की परिस्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया।
सिक्खों से संबंध
सिक्खों के दसवें और अंतिम गुरु गोविंद सिंह ने 1699 ई. में ‘खालसा’ की स्थापना की थी। जब गोविंद सिंह औरंगजेब के निमंत्रण पर उससे मिलने दक्षिण जा रहे थे, उन्हें औरंगजेब के मृत्यु की सूचना मिली। गोविंद सिंह ने दक्षिण जाने का विचार त्याग दिया और पंजाब के लिए लौट पड़े। अभी वह दिल्ली के निकट पहुँचे थे कि बहादुर शाह के एक दूत ने उनसे आगामी उत्तराधिकार के युद्ध में आजम शाह के विरुद्ध बहादुर शाह की सहायता करने का प्रस्ताव रखा, जिसे गुरु गोविंद सिंह ने स्वीकार कर लिया। कहा जाता है कि गुरु गोविंद सिंह ने अपने सैनिकों द्वारा जाजऊ की लड़ाई में बहादुर शाह का साथ दिया था। युद्ध की समाप्ति के बाद बहादुर शाह ने गोविंद सिंह को खिलअत, भेंट आदि देकर सम्मानित किया और संभवतः शाही मनसब पुनः प्रदान किया। इससे लगा कि मुगलों और सिक्खों के बीच पुराने मतभेद समाप्त हो जाएँगे और एक नए युग का सूत्रपात होगा।
बादशाह कछवाहा राजपूतों के विरुद्ध कार्यवाही करने राजपूताना गया था कि उसे अपने भाई कामबख्श के विद्रोह के कारण दक्षिण जाना पड़ा और निवेदन करके गुरु गोविंद सिंह को भी अपने साथ ले गया। नांदेड़ पहुँचकर बहादुर शाह ने गुरु गोविंद सिंह को मराठों के विरुद्ध नियुक्त किया और उन्हें वहीं छोड़कर स्वयं आगे बढ़ गया। नांदेड़ में एक अफगान सैनिक ने शत्रुतावश गोविंद सिंह को कटार से घायल कर दिया, जिसके कारण 7 अक्टूबर 1708 ई. को नांदेड़ में ही गोविंद सिंह की मृत्यु हो गई। गुरु गोविंद सिंह की हत्या के एक वर्ष बाद एक शक्तिशाली सिक्ख नेता के रूप में बंदा बहादुर का उदय हुआ, जिसके नेतृत्व में सिक्खों ने मुगलों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।
बंदा एक हिंदू परिवार में पैदा हुआ था और उसका नाम ‘लक्ष्मण देव’ था। उसने गुरु गोविंद सिंह के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर सिक्ख धर्म स्वीकार कर लिया और अपना नाम ‘बंदा बहादुर’ रख लिया।
बंदा बहादुर ने पंजाब के विभिन्न हिस्सों के सिक्खों को एकजुट कर मुगलों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और कैथल, समाना, शाहाबाद, अंबाला, कुरुक्षेत्र और सिरहिंद पर अधिकार कर लिया। उसने सरहिंद के फौजदार वजीर खाँ को पराजित कर मार डाला और सरहिंद पर अधिकार कर लिया। बंदा बहादुर ने स्वयं को ‘सच्चा बादशाह’ घोषित किया, लोहगढ़ को अपनी राजधानी बनाकर अपना टकसाल स्थापित किया और एक स्वतंत्र सिक्ख राज्य की स्थापना का प्रयत्न किया। बंदा ने सरहिंद, सोनीपत, सिरहिंद और उत्तर प्रदेश के कई स्थानों पर भयानक लूटपाट की।
बंदा के विद्रोह की सूचना बहादुर शाह प्रथम को दक्षिण से लौटते समय नवंबर 1709 ई. को मिली। उसने जैनुद्दीन को सरहिंद का फौजदार नियुक्त किया और अन्य प्रमुख अमीरों को सिक्खों के दमन के लिए पहुँचने का आदेश दिया। बहादुर शाह ने स्वयं जून 1710 में सिरहिंद के किले में बंदा बहादुर को घेर लिया, किंतु बंदा किले में भागकर लोहगढ़ के दुर्ग में पहुँच गया। लोहगढ़ का किला गुरु गोविंद सिंह ने अंबाला के उत्तर-पूर्व में हिमालय की तराई में बनवाया था। बहादुर शाह ने लोहगढ़ को घेरकर सिक्खों से कड़ा संघर्ष किया और 1711 ई. में पुनः सरहिंद पर अधिकार कर लिया, किंतु अंधकार का लाभ उठाकर बंदा पहाड़ियों में जाकर छिप गया। बहादुर शाह ने मुनीम खाँ तथा हमीदुद्दीन खाँ को बंदा तथा उसके साथियों के विरुद्ध नियुक्त कर लोहगढ़ से लाहौर की ओर प्रस्थान किया। इस बीच फरवरी 1711 ई. में वजीर मुनीम खाँ की मृत्यु हो गई और बादशाह लाहौर पहुँचकर वजीरत की समस्या को सुलझाने में व्यस्त हो गया।
बहादुर शाह प्रथम की व्यस्तता का लाभ उठाकर सिक्खों ने पुनः विद्रोह कर लूट-मार करना आरंभ कर दिया। शम्स खाँ तथा बयाजीद खाँ ने विद्रोही सिक्खों के दमन का प्रयास किया, किंतु सिक्ख सरदार बाज सिंह और फतेह सिंह के विरुद्ध युद्ध में शम्स खाँ मारा गया और बयाजीद खाँ घायल हो गया। बहादुर शाह ने मई 1711 ई. में रुस्तम दिल खाँ और मोहम्मद अमीन खाँ को सिक्ख विद्रोहियों से निपटने का आदेश दिया, जिन्होंने ‘कसूर के युद्ध’ में सिक्खों को पराजित किया। इसके बाद भी, बंदा ने बटाला में लूट-मार की तथा वहाँ आग लगाकर जम्मू की पहाड़ियों में भाग गया। इस प्रकार बहादुर शाह के शासन के आरंभिक वर्षों में मुगल साम्राज्य और सिक्खों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध रहे। किंतु गुरु गोविंद सिंह की हत्या से मुगल-सिक्ख संबंध में पुनः कटुता आई और बंदा के नेतृत्व में सिक्खों ने पुनः विद्रोह आरंभ कर दिए।
बुंदेलों और जाटों से मित्रता
बहादुर शाह प्रथम ने बुंदेला सरदार ‘छत्रसाल’ से मेल-मिलाप किया, जिसके परिणामस्वरूप छत्रसाल मुगलों का एक निष्ठावान सामंत बन गया। बादशाह ने जाट सरदार चूड़ामणि से भी मित्रता कर ली और चूड़ामणि ने बंदा बहादुर के विरुद्ध अभियान में बादशाह का साथ दिया।
खुतबा विवाद (मई 1710 ई.)
बहादुर शाह प्रथम ने मई 1710 ई. में आदेश दिया कि साम्राज्य में शुक्रवार की नमाज में ‘खुतबा’ पढ़ते समय पैगंबर मुहम्मद के उत्तराधिकारियों में अली के ‘वली’ को भी जोड़ दिया जाए। किंतु सुन्नी जनता और उलेमा ने इस आदेश का विरोध किया। सितंबर 1711 ई. में इस ‘नए खुतबा’ को पढ़ते समय अहमदाबाद के ‘खतीब’ को हत्या कर दी गई। लाहौर के ‘खतीब’ ने इस ‘नए खुतबा’ को पढ़ने से इनकार कर दिया, तो उसे कारागार में डाल दिया गया। अक्टूबर 1711 ई. में ‘खुतबा में परिवर्तन’ के आदेश के कारण अनेक स्थानों पर उसके विरुद्ध उपद्रव होने लगे। अंततः बहादुर शाह को ‘खुतबा’ में परिवर्तन का आदेश वापस लेना पड़ा और औरंगजेब के शासनकाल की तरह ‘खुतबा’ पढ़ा जाने लगा।
बहादुर शाह की मृत्यु (27-28 फरवरी 1712 ई.)
बादशाह प्रथम जनवरी 1712 ई. में लाहौर में था, जब उसका स्वास्थ्य खराब हो गया। 24 फरवरी को उसने अपना अंतिम सार्वजनिक प्रदर्शन किया और 27-28 फरवरी की रात में उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु ‘तिल्ली के बढ़ने’ अथवा ‘पेट की बीमारी’ के कारण हुई थी। 11 अप्रैल 1712 ई. को उसके शरीर को उसकी विधवा मेहर परवर और चिनकिलिच खाँ की देखरेख में दिल्ली ले जाया गया, जहाँ उसे 15 मई को मेहरौली में 13वीं शताब्दी के प्रसिद्ध सूफी संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह के निकट मोती मस्जिद (पर्ल मस्जिद) के प्रांगण में दफना दिया गया।
बहादुर शाह के सिक्के
बहादुर शाह प्रथम ने सोने, चाँदी और ताँबे के सिक्के जारी किए, यद्यपि उसके पूर्ववर्तियों के सिक्के विभिन्न भुगतान के लिए प्रयोग किए जाते रहे। औरंगजेब के शासनकाल के ताँबे के सिक्कों को उसके नाम के साथ पुनः ढाला गया था। अन्य मुगल बादशाहों के विपरीत, बहादुर शाह के सिक्कों पर दोहे में उसके नाम का प्रयोग नहीं किया गया था; यद्यपि कवि दानिशमंद खाँ ने सिक्कों के लिए दो पंक्तियों की रचना की थी।
धर्म एवं धार्मिक नीति
बहादुर शाह प्रथम एक धर्मनिष्ठ मुसलमान था। सैनिक अभियानों के समय यदि मार्ग में किसी सूफी संत की दरगाह मिल जाती, तो वह उसकी जियारत किए बिना कभी आगे नहीं बढ़ता था। यद्यपि बहादुर शाह का जन्म एवं पालन-पोषण सुन्नी परिवेश में हुआ था, किंतु उसने शिया परंपराओं से अपना संबंध जोड़ने की चेष्टा की और राज्याभिषेक के समय उसने अपने नाम के पहले ‘सैयद’ की पदवी धारण की। इससे लगता है कि वह सुन्नी एवं शिया मतावलंबियों के बीच फैली कटुता को समाप्त कर धार्मिक सद्भाव उत्पन्न करना चाहता था। औरंगजेब की भाँति उसने शियों को उच्च प्रशासनिक पद देने में कोई संकोच नहीं किया। उसने असद खाँ को वकील, मुनीम खाँ को वजीर और जुल्फिकार खाँ को मीर बख्शी के पदों पर प्रतिष्ठित किया, जबकि यह तीनों ही शिया मतावलंबी थे। ‘सैयद’ की पदवी धारण करने वाला बहादुर शाह प्रथम एकमात्र मुगल बादशाह था।
जहाँ तक हिंदुओं के प्रति बहादुर शाह प्रथम के दृष्टिकोण का सवाल है, वह उनके विरुद्ध नहीं था। यद्यपि उसने स्त्रियों, बच्चों, अपाहिजों, निर्धनों तथा शाही सेवा करने वाले व्यक्तियों के अतिरिक्त अन्य गैर-मुसलमानों से ‘जजिया’ वसूल किया, किंतु उसने प्रशासन में उनके साथ कोई भेदभाव नहीं किया। उसने उनकी योग्यता अनुसार उन्हें उच्च मनसब और पद प्रदान किए। बहादुर शाह के शासनकाल के दौरान मंदिरों को भी नहीं तोड़ा गया। अपने पाँच वर्ष के संक्षिप्त शासनकाल के दौरान बहादुर शाह ने संगीत को नए सिरे से समर्थन दिया।
बहादुर शाह का मूल्यांकन
बहादुर शाह प्रथम का जीवन अपने पिता औरंगजेब के साथ युद्ध शिविरों में पुष्पित एवं पल्लवित हुआ था। औरंगजेब ने उत्तराधिकार के युद्ध के समय दारा के विरुद्ध प्रस्थान करते समय दक्षिण का शासन-भार अपने पुत्र बहादुर शाह को प्रदान किया था। उस समय उसकी आयु चौदह वर्ष तथा चार मास थी, किंतु उसने बड़ी दृढ़तापूर्वक अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह किया। बादशाह बनने के बाद औरंगजेब ने उसे विभिन्न सैनिक अभियानों पर भेजा और सूबेदार के पद पर नियुक्त किया। अपने पिता के संदेही प्रवृत्ति के कारण उसे 1687 ई. से 1694 ई. तक सात वर्ष की अवधि कारागार में बितानी पड़ी थी। इस प्रकार विभिन्न परिस्थितियों से गुजरने के कारण वह दृढ़ एवं परिपक्व हो चुका था।
बहादुर शाह ने मुगल साम्राज्य के वैभव को वापस लाने के लिए हरसंभव प्रयास किया और राजपूतों, सिक्खों, मराठों और अन्य समकालीन शक्तियों के साथ अच्छा संबंध बनाने का प्रयास किया, किंतु उसे अपने उद्देश्य में सफलता नहीं मिल सकी। उसने मीर बख्शी के पद पर आसीन जुल्फिकार खाँ को दक्कन की सूबेदारी प्रदान कर एक ही अमीर को एक साथ दो महत्त्वपूर्ण पद प्रदान करने की परंपरा आरंभ की। उसके समय में ही वजीर के पद के सम्मान में वृद्धि हुई, जिसके कारण वजीर का पद प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा बढ़ी।
बहादुर शाह प्रथम के शासनकाल में 1711 ई. में एक डच प्रतिनिधि शिष्टमंडल जेसुअस केटेलार के नेतृत्व में मुगल दरबार में आया था, जिसमें एक पुर्तगाली महिला ‘जूलियानी’ की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। उसकी इस भूमिका के कारण उसे ‘बीबी फिदवा’ की उपाधि दी गई थी।
बहादुर शाह प्रथम स्वभाव से शांतिप्रिय और एक उदार मुगल बादशाह था। बहादुर शाह की शांतिप्रिय नीति के कारण कुछ इतिहासकार उसे ‘कायर’ बादशाह की संज्ञा देते हैं। सिंहासनारोहण के समय उसकी आयु 63 वर्ष थी, इसलिए वह सक्रिय रूप से कार्य नहीं कर सकता था। कहा जाता है कि राजकीय कार्यों के प्रति वह इतना लापरवाह था कि उसकी उपाधि ही ‘शाह-ए-बेखबर’ हो गई थी।
बहादुर शाह प्रथम की दुर्बलता और निष्क्रियता के कारण मुगल दरबार में षड्यंत्र होने लगे, जिसके कारण अमीरों के दो दल बन गए थे—ईरानी दल और तूरानी दल। ईरानी दल के अमीर ‘शिया मत’ को मानते थे, जिसमें असद खाँ और उसके बेटे जुल्फिकार खाँ जैसे अमीर थे, जबकि तूरानी दल के अमीर ‘सुन्नी मत’ के समर्थक थे, जिसमें ‘चिनकिलिच खाँ और फिरोज गाजीउद्दीन जंग जैसे लोग सम्मिलित थे।
बहादुर शाह प्रथम का मूल्यांकन करते हुए सिडनी ओवन ने लिखा है कि, ‘यह अंतिम बादशाह था जिसके लिए कुछ अच्छे शब्द कहे जा सकते हैं। इसके पश्चात् मुगल साम्राज्य का तीव्रगामी और पूर्ण पतन मुगल सम्राटों की राजनैतिक तुच्छता और शक्तिहीनता का द्योतक था।’ वास्तव में, बहादुर शाह प्रथम का शासनकाल महान मुगलों के वैभव की अंतिम झलक थी, जो उसके पश्चात् शीघ्रता से समाप्त हो गई।










