भारत में हिंद-यवन शासन (Indo-Greek Rule in India)

मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ ही विकेंद्रीकरण की प्रवृत्तियाँ क्रियाशील हो उठीं और भारत […]

भारत में हिंद-यवन शासन (Indo-Greek Rule in India)

मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ ही विकेंद्रीकरण की प्रवृत्तियाँ क्रियाशील हो उठीं और भारत की राजनीतिक एकता कुछ समय के लिए खंडित हो गई। इस काल में भारत पर पुनः उत्तर-पश्चिम से विदेशियों के आक्रमण होने लगे। इनमें सबसे पहले आक्रांता बैक्ट्रिया के ग्रीक थे, जिन्हें प्राचीन भारतीय साहित्य में ‘यवन’ कहा गया।

ऐतिहासिक साधन

हिंद-यवन शासकों के इतिहास की पुनर्रचना में साहित्यिक स्रोतों, सिक्कों और पुरातात्विक खोजों से सहायता मिलती है। पतंजलि के ‘महाभाष्य’ और ‘गार्गी संहिता’ में यवनों के आक्रमण का उल्लेख है। कालिदासकृत ‘मालविकाग्निमित्र’ से भी पुष्यमित्रकालीन यवन आक्रमण के कुछ विवरण मिलते हैं। इसके साथ ही क्रमदीश्वर के ‘सिद्धांत-कौमुदी’ और बौद्ध ग्रंथों- ‘दिव्यावदान’, ‘ललितविस्तर’, ‘मंजुश्रीमूलकल्प’, ‘मिलिंदपन्हो; आदि से भी हिंद-यवन शासकों के संबंध में महत्वपूर्ण सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। ‘मिलिंदपन्हो’ नामक ग्रंथ से मिनेंडर नामक यूनानी शासक के विषय में जानकारी मिलती है। जस्टिन, स्ट्रैबो, प्लूटार्क आदि के विवरणों और ‘पेरिप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी’ से भी हिंद-यवन इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।

हिंद-यवन शासकों का इतिहास लिखने में सिक्के बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं। इसके पूर्व भारतीय सिक्कों पर केवल देवताओं के चित्र अंकित रहते थे, शासक का नाम या तिथि उत्कीर्ण नहीं की जाती थी। जब उत्तर-पश्चिमी भारत पर बैक्ट्रिया के यूनानी राजाओं का शासन प्रारंभ हुआ, तो सिक्कों पर राजाओं के नाम और तिथियाँ उत्कीर्ण की जाने लगीं। वास्तव में सिक्कों के इतिहास की दृष्टि से यह काल अभूतपूर्व है। सिक्कों की मात्रा से नहीं, अपितु विविध धातुओं और विविध इकाइयों में मिलने वाले सिक्कों से यह संकेत मिलता है कि मुद्रा-प्रणाली जन-जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी थी। इसके अलावा, फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) से प्राप्त रेह अभिलेख, बजौर घाटी से प्राप्त एक मंजूषा और खारवेल के हाथीगुम्फा शिलालेख जैसे स्रोतों से भी हिंद-यवन शासकों के इतिहास के निर्माण में सहायता मिलती है।

सिकंदर और उसके बाद का साम्राज्य

सिकंदर ने अपने पीछे एक विशाल साम्राज्य छोड़ा था, जिसमें मैसेडोनिया, सीरिया, बैक्ट्रिया, पार्थिया, अफगानिस्तान और उत्तर-पश्चिमी भारत के कुछ भाग सम्मिलित थे। इस साम्राज्य का काफी बड़ा भाग सिकंदर के बाद सेल्यूकस के अधीन रहा। यद्यपि अफगानिस्तान और भारत के उत्तर-पश्चिम के भाग उसे चंद्रगुप्त मौर्य को समर्पित करने पड़े, किंतु बैक्ट्रिया पर सेल्यूकस का आधिपत्य बना रहा। एंटियोकस द्वितीय (ई.पू. 261-246) के शासनकाल में ई.पू. 250 के आसपास पार्थिया अर्सेस के नेतृत्व में और बैक्ट्रिया डायोडोटस के नेतृत्व में स्वतंत्र हो गया।

एंटियोकस तृतीय

सेल्यूकस वंश के एंटियोकस तृतीय (ई.पू. 223-187) ने पार्थिया और बैक्ट्रिया को अपने अधीन करने का प्रयास किया। उसने पार्थिया पर आक्रमण किया, परंतु सफल नहीं हुआ। उसने पार्थियन राजा अर्सेस तृतीय के साथ संधि कर ली और फिर बैक्ट्रिया पर आक्रमण किया।

इस समय बैक्ट्रिया की राजगद्दी पर यूथीडेमस विराजमान था, जो एक वीर और शक्तिशाली राजा था। दो वर्ष तक वह निरंतर एंटियोकस के साथ युद्ध करता रहा और सीरियन सम्राट उसे परास्त करने में असफल रहा। अंत में, विवश होकर एंटियोकस ने यूथीडेमस के साथ संधि कर ली और संधि को स्थिर करने के लिए अपनी पुत्री का विवाह यूथीडेमस के पुत्र डेमेट्रियस के साथ कर दिया।

पार्थिया और बैक्ट्रिया के साथ संधि करने के बाद एंटियोकस तृतीय ने ई.पू. 206 में भारत के विरुद्ध एक अभियान का नेतृत्व किया। यह अभियान हिंदुकुश पर्वत को पारकर काबुल घाटी के एक शासक ‘सुभगसेन’ (सोफेगेसनस) के विरुद्ध किया गया था। सुभगसेन को पॉलिबियस ने ‘भारतीयों का राजा’ कहा है। संभवतः सुभगसेन द्वारा सांकेतिक समर्पण के बाद एंटियोकस 500 हाथी और हर्जाने की बड़ी धनराशि लेकर वापस चला गया।

डेमेट्रियस (दमेट्रियस)

सीरियन सम्राट एंटियोकस के साथ संधि और विवाह संबंध हो जाने के बाद बैक्ट्रिया के राजवंश की बहुत उन्नति हुई। उसने समीप के अनेक प्रदेशों को जीतकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। बैक्ट्रिया के इस उत्कर्ष का प्रधान श्रेय डेमेट्रियस को है, जो सीरियन सम्राट एंटियोकस तृतीय का दामाद था। ग्रीक लेखक स्ट्रैबो के अनुसार डेमेट्रियस और मिनेंडर के समय बैक्ट्रिया के यवन राज्य की सीमाएँ दूर-दूर तक पहुँच गई थीं। उत्तर में चीन की सीमा से लगाकर दक्षिण में सौराष्ट्र तक इन बैक्ट्रियन राजाओं का साम्राज्य विस्तृत था। बैक्ट्रिया के राजाओं के सिक्के बड़ी संख्या में भारत और अन्य देशों में प्राप्त हुए हैं।

भारत में हिंद-यवन शासन (Indo-Greek Rule in India)
हिंद-यवन शासक डेमेट्रियस, जिसकी गढ़ी हुई हाथी-टोपी भारत पर उसके अधिकार का सूचक है

डेमेट्रियस, जिसकी गढ़ी हुई हाथी-टोपी भारत पर उसके अधिकार का सूचक है, हिंद-यूनानी शासक था, जो अपने पिता यूथीडेमस की मृत्यु के बाद बैक्ट्रिया के यवन राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। सिकंदर के बाद डेमेट्रियस संभवतः पहला यूनानी शासक था, जिसकी सेना भारतीय सीमा में प्रवेश कर सकी। उसने एक विशाल सेना के साथ लगभग ई.पू. 183 में हिंदुकुश पर्वत को पारकर सिंधु और पंजाब पर अधिकार कर लिया। ग्रीक विवरणों में उसे भारत का राजा कहा गया है और इसमें संदेह नहीं कि भारत की विजय करते हुए वह दूर मध्यदेश तक चला आया था। इस समय भारत में संभवतः मौर्य वंश का शासन था। सिकंदर के आक्रमण के समय पंजाब में कठ, मालव, क्षुद्रक आदि जो शक्तिशाली गणराज्य थे, इस समय वे अपनी स्वतंत्रता खो चुके थे और उनकी सैन्य शक्ति नष्ट हो गई थी। यवनों के आक्रमण को रोकने की उत्तरदायित्व अब उन मौर्य सम्राटों पर थी, जिन्हें भारतीय साहित्य में अधार्मिक और प्रज्ञादुर्बल कहा गया है। ये सम्राट यवनों का मुकाबला कर सकने में असमर्थ रहे।

डेमेट्रियस के भारतीय अभियान की पुष्टि पतंजलि के महाभाष्य, गार्गी संहिता और ‘मालविकाग्निमित्रम् से होती है। पतंजलि ने महाभाष्य में ‘अरुणद् यवनः साकेतम्, अरुणद् यवनः माध्यमिकाम्’ लिखकर जिस यवन आक्रमण का संकेत किया है, वह संभवतः डेमेट्रियस का ही आक्रमण था, जो उस समय (ई.पू. 185 में) हुआ था, जबकि अंतिम मौर्य राजा बृहद्रथ मगध के राजसिंहासन पर आरूढ़ था। माना जाता है कि सेनानी पुष्यमित्र ने सेना के समक्ष उसकी हत्या कर जो स्वयं राज्य प्राप्त कर लिया, उसका कारण भी संभवतः यही था कि यवन आक्रमण का मुकाबला न कर सकने के कारण सेना और जनता बृहद्रथ के विरुद्ध हो गई थी।

काशीप्रसाद जायसवाल जैसे इतिहासकारों के अनुसार कलिंगराज खारवेल के हाथीगुम्फा शिलालेख में भी डेमेट्रियस के आक्रमण का उल्लेख है। लेख में दिमित (डेमेट्रियस) की सेना सहित उपस्थिति पाटलिपुत्र से 70 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में स्थित राजगृह में बताई गई है। यद्यपि अनेक इतिहासकार इस पाठ को संदिग्ध मानते हैं, किंतु हाथीगुम्फा लेख में एक ऐसे यवन राजा का उल्लेख है, जो खारवेल के आक्रमण की सूचना से घबराकर मथुरा की ओर भाग गया था। संभव है कि यह यवन राजा डेमेट्रियस ही रहा हो। किंतु डेमेट्रियस का आक्रमण और खारवेल का समय आदि विषयों पर इतिहासकारों में बहुत मतभेद रहा है।

अनेक इतिहासकारों का मत है कि गार्गी संहिता के युगपुराण में जिस यवन राजा के आक्रमण का उल्लेख है और जो मथुरा, पांचाल और साकेत की विजय करता हुआ पाटलिपुत्र तक पहुँच गया था, वह यही दिमित या डेमेट्रियस था। यद्यपि गार्गी संहिता में इस यवन आक्रमण का उल्लेख मौर्य राजा शालिशुक के वृत्तांत के साथ किया गया है, परंतु संभव है कि यह डेमेट्रियस के ही आक्रमण का निर्देश करता हो। डेमेट्रियस शायद मगध या मध्य देश में कलिंग नरेश खारवेल की सैन्य-शक्ति के कारण नहीं टिक सका।

डेमेट्रियस के भारतीय आक्रमण के संबंध में कतिपय अन्य निर्देश भी उपलब्ध हैं। क्रमदीश्वर के सिद्धांत-कौमुदी में ‘दत्तमित्री’ नामक एक नगर का उल्लेख है, जो सिंधु-सौवीर घाटी में स्थित था। संभवतः यह दत्तमित्री नगरी डेमेट्रियस के द्वारा ही बसाई गई थी। काशीप्रसाद जायसवाल गार्गी संहिता के युगपुराण में उल्लिखित धर्मगीत नामक एक यवन राजा की पहचान डेमेट्रियस या दिमित्र से करते हैं। इस प्रकार डेमेट्रियस ने पश्चिमोत्तर भारत में हिंद-यूनानी सत्ता की स्थापना की और साकल को अपनी राजधानी बनाया। उसने भारतीय राजाओं की उपाधि धारण कर यूनानी और खरोष्ठी लिपि में सिक्के भी चलवाए।

यूनानी लेखक स्ट्रैबो के विवरणों से पता चलता है कि डेमेट्रियस के भारत आक्रमण में मिनेंडर (मिलिंद) उसका सहयोगी था। स्ट्रैबो के अनुसार इन विजयों का लाभ कुछ मिनेंडर ने और कुछ डेमेट्रियस ने प्राप्त किया था। इससे टार्न जैसे इतिहासकारों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि मिनेंडर और डेमेट्रियस ने एक ही समय में सम्मिलित रूप से भारत पर आक्रमण किया था और मिनेंडर डेमेट्रियस का ही सेनापति था। बाद में मिनेंडर ने भी अपना पृथक और स्वतंत्र राज्य स्थापित किया।

युक्रेटाइडीज

जिस समय डेमेट्रियस और मिनेंडर भारत विजय में संलग्न थे, उनके अपने देश बैक्ट्रिया में उनके विरुद्ध क्रांति हो गई और युक्रेटाइडीज नामक एक सेनापति ने ई.पू. 171 के लगभग बैक्ट्रिया के राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। टार्न के अनुसार यह युक्रेटाइडीज संभवतः सीरियन सम्राट एंटियोकस चतुर्थ का भाई था। सूचना मिलने पर डेमेट्रियस तुरंत भारत से बैक्ट्रिया वापस गया और चार महीने के घेरे के बावजूद उसे युक्रेटाइडीज के विरुद्ध युद्ध में कोई सफलता नहीं मिली।

अब डेमेट्रियस और मिनेंडर का बैक्ट्रिया के साथ कोई संबंध नहीं रहा और वे उत्तर-पश्चिमी भारत में ही दो स्वतंत्र राजाओं की भाँति शासन करने लगे। इन दोनों यवन राजाओं के राज्यों में कौन-कौन से प्रदेश उनके अधीन थे, इसका निश्चित रूप से निर्धारण करना संभव नहीं है।

डेमेट्रियस के समान बैक्ट्रिया के नए यवन राजा युक्रेटाइडीज ने भी भारत पर आक्रमण किए। ग्रीक लेखकों के विवरणों के अनुसार उसने भारत में 1,500 नगरों को जीतकर अपने अधीन किया था। जस्टिन के अनुसार भी उसने भारत (सिंधु प्रदेश) की विजय की थी। स्ट्रैबो के अनुसार युक्रेटाइडीज झेलम नदी तक बढ़ आया था। संभवतः युक्रेटाइडीज ने उत्तर-पश्चिमी भारत के कुछ प्रदेशों को जीत लिया था और उसके आक्रमणों के कारण डेमेट्रियस और मिनेंडर के हाथ से पश्चिमी पंजाब और गंधार के प्रदेश निकल गए थे। युक्रेटाइडीज के सिक्के पश्चिमी पंजाब से पाए गए हैं, जिन पर यूनानी और खरोष्ठी लिपियों में लेख मिलते हैं। इससे लगता है कि ये सिक्के पश्चिमोत्तर प्रदेश में चलाने के उद्देश्य से ही ढाले गए थे।

युक्रेटाइडीज की भारतीय क्षेत्रों की विजयों के परिणामस्वरूप पश्चिमोत्तर भारत में दो यवन-राज्य स्थापित हो गएकृएक तो युक्रेटाइडीज और उसके वंशजों का राज्य, जो बैक्ट्रिया से झेलम तक फैला था और जिसकी राजधानी तक्षशिला थी, और दूसरा यूथीडेमस के वंशजों का राज्य, जो झेलम से मथुरा तक विस्तृत था, जिसकी राजधानी साकल (स्यालकोट) थी।

युक्रेटाइडीज बहुत दिनों तक अपने जीते हुए राज्य का उपभोग नहीं कर सका। कहा जाता है कि अपोलोडोटस (ई.पू. 175-156) युक्रेटाइडीज का पुत्र था, जिसने अपने पिता की हत्या करके उसके रक्त पर अपना रथ चलाया और उसके शव का अंतिम संस्कार भी नहीं करने दिया। अपोलोडोटस ने अपने नाम के सिक्के चलाए। कुछ इतिहासकारों के अनुसार अपोलोडोटस युक्रेटाइडीज का पुत्र नहीं, वरन् उसका प्रतिद्वंद्वी था।

जस्टिन के अनुसार युक्रेटाइडीज के पुत्र हेलियोक्लीज ने बैक्ट्रिया जाते समय उसकी हत्या की थी। हेलियोक्लीज बैक्ट्रिया का अंतिम यवन राजा था। उसके शासनकाल में शकों ने बैक्ट्रिया पर आक्रमण कर वहाँ से यवन-सत्ता का अंत कर दिया। यद्यपि शकों के आक्रमणों के कारण बैक्ट्रिया से युक्रेटाइडीज के राजवंश का अंत हो गया था, किंतु उसके साम्राज्य के भारतीय प्रदेश बाद में भी हेलियोक्लीज की अधीनता में बने रहे और वे स्वतंत्र राजा के रूप में शासन करते रहे। बैक्ट्रिया हाथ से निकल जाने के बाद भी कम से कम 35 यवन राजाओं के सिक्के इस प्रदेश से प्राप्त हुए हैं। प्रथम शती ई.पू. में कुषाण आक्रांताओं ने इनको अपने अधीन कर लिया।

मिनेंडर (मिलिंद)

हिंद-यवन शासकों में सबसे महत्वपूर्ण शासक मिनेंडर (ई.पू. 160-120) था, जो बौद्ध साहित्य में ‘मिलिंद’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह संभवतः डेमेट्रियस के वंश का था। क्लासिकल लेखकों ने मिनेंडर के साथ-साथ अपोलोडोटस का नामोल्लेख किया है, जो डेमेट्रियस का छोटा भाई था और उसके साथ भारत पर आक्रमण में भाग लिया था। संभव है कि डेमेट्रियस के बाद उसने कुछ समय के लिए शासन भी किया हो, किंतु उसके शासनकाल के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।

स्ट्रैबो, जस्टिन और प्लूटार्क जैसे क्लासिकल लेखकों ने मिनेंडर की गणना महान यवन विजेताओं में की है। स्ट्रैबो लिखता है कि उसने सिकंदर से अधिक प्रदेश जीते थे और हाइफेनस (व्यास) नदी पार कर ‘इसेमस’ (कालिंदी अथवा यमुना नदी, जिसे प्राचीन साहित्य में ‘इक्षुमती’ कहा गया है) तक पहुँच गया था। शिवकोट (बजौर घाटी) से प्राप्त एक धातुगर्भ-मंजूषा पर मिनेंडर का नाम अंकित है। मिनेंडर के सिक्के काबुल से मथुरा और बुंदेलखंड तक मिले हैं। पेरिप्लस के अनुसार मिलिंद के सिक्के भड़ौच के बाजारों में बहुत चलते थे।

भारत में हिंद-यवन शासन (Indo-Greek Rule in India)
हिंद-यवन शासक मिनेंडर

पतंजलि के महाभाष्य में उल्लेख है कि यूनानियों ने अवध में साकेत और राजस्थान में चित्तौड़ के निकट माध्यमिका का घेरा डाला। गार्गी संहिता के युगपुराण खंड से पता चलता है कि दुष्ट, वीर यवनों ने साकेत, पांचाल (गंगा-यमुना दोआब) और मथुरा को जीतकर पाटलिपुत्र तक धावा मारा, किंतु घरेलू युद्धों के कारण वे तुरंत लौट आए। संभव है कि गार्गी संहिता में जिस दुरात्मा वीर यवन राजा द्वारा प्रयाग पर अधिकार करके कुसुमपुर अर्थात् पाटलिपुत्र में भय उत्पन्न करने का उल्लेख है, वह मिलिंद ही हो। उसके विविध प्रकार के बहुत से सिक्के उत्तर भारत के विस्तृत क्षेत्रों, यहाँ तक कि यमुना के दक्षिण से भी मिले हैं। मथुरा से उसके और उसके पुत्र स्ट्रैटो प्रथम के सिक्के मिले हैं।

पुरातात्त्विक साक्ष्यों से भी इस बात के संकेत मिलते हैं कि गंगा घाटी में ई.पू. दूसरी शती के मध्य में बड़ा विध्वंस हुआ था। इसकी पुष्टि रेह (फतेहपुर) से प्राप्त एक संक्षिप्त अभिलेख से भी होती है जिसमें मिनेंडर का स्पष्ट उल्लेख है। इससे स्पष्ट है कि मिनेंडर एक विस्तृत साम्राज्य का स्वामी था, जो झेलम से मथुरा तक फैला था। इसकी राजधानी साकल (स्यालकोट) थी, जो तत्कालीन शिक्षा और व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र थी और पाटलिपुत्र के समान समृद्ध थी। मिलिंदपन्हो के अनुसार ‘यह नगर अनेक आरामों, उद्यानों और तड़ागों से सुशोभित था, नगर के चारों ओर प्राचीर और परिखा (खाई) बनवाई गई थी।’

कुछ इतिहासकारों का विचार है कि मिनेंडर ने युक्रेटाइडीज के वंशजों से भी कुछ प्रदेशों को छीन लिया था क्योंकि काबुल घाटी और सिंधु क्षेत्र से उसकी मुद्राएँ मिलती हैं। मिनेंडर के सिक्के गुजरात, काठियावाड़ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से भी पाए गए हैं। उसके पाँच प्रकार के चाँदी के सिक्के मिलते हैं, जिनकी तौल 32-35 रत्ती के बीच है। मुख भाग पर मुकुट धारण किए हुए राजा का सिर और यूनानी विरुद के साथ उसका नाम मिलता है और पृष्ठ भाग पर खरोष्ठी में मुद्रालेख ‘महरजस पतरस मिलिंद्रस’ उत्कीर्ण है। मिनेंडर के कुछ ताँबे के सिक्के भी पाए गए हैं, जिन पर यूनानी और प्राकृत भाषा में ‘महरजस ध्रामिकस मिनिंद्रस’, ‘बेसिलियस सोटेरस मिनिंद्राय’, ‘बेसिलियम डिकेआय मिनिंद्राय’ आदि अंकित है।

मिनेंडर के सिक्के

मिनेंडर (मिलिंद) ने भारत में अपनी सीमाओं के विस्तार के साथ प्रशासन को स्थायित्व प्रदान किया। वह अपने विशाल साम्राज्य का शासन राज्यपालों की सहायता से चलाता था। शिवकोट धातुगर्भ-मंजूषा लेख में वियकमित्र और विजयमित्र नामक उसके राज्यपालों का उल्लेख है, जो स्वातघाटी में शासन करते थे।

भारत में हिंद-यवन शासन (Indo-Greek Rule in India)
मिनेंडर के सिक्के

मिनेंडर प्रथम हिंद-यूनानी शासक था, जिसने बौद्ध धर्म को अपनाया और उसे संरक्षण प्रदान किया। मिनेंडर का समीकरण मिलिंद से किया जाता है, जिसका उल्लेख नागसेन ने मिलिंदपन्हो में किया है। मिलिंदपन्हो के अनुसार मिनेंडर का जन्म अलसंद (काबुल के समीप सिकंदरिया) के कलसी ग्राम में हुआ था। बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार भारत में राज्य करते हुए वह बौद्ध श्रमणों के संपर्क में आया और आचार्य नागसेन से उसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। मिलिंदपन्हो में उसके बौद्ध धर्म को स्वीकृत करने और बौद्ध भिक्षु नागसेन के साथ संवादात्मक प्रश्नोत्तर का विवरण है। कहा गया है कि मिनेंडर अपने पुत्र के पक्ष में सिंहासन त्यागकर अर्हत् हो गया था।

क्षेमेंद्रकृत अवदानकल्पलता से पता चलता है कि मिनेंडर ने अनेक स्तूपों का निर्माण करवाया था। प्लूटार्क के अनुसार उसकी मृत्यु के बाद उसके अस्थि-अवशेषों पर बड़े-बड़े स्तूप बनवाए गए। उसके अनेक सिक्कों पर बौद्ध धर्म के धर्मचक्रप्रवर्तन का चिन्ह ‘धर्मचक्र’ और ‘महरजत ध्रामिकस’ अंकित हैं, जो उसके धर्मनिष्ठ बौद्ध होने के सबल प्रमाण हैं। टार्न के अनुसार मिनेंडर का बौद्ध धर्म की ओर झुकाव राजनीतिक कारणों से था। गोवर्धन राय शर्मा के अनुसार मिनेंडर के नाम का उल्लेख रामायण में ‘कर्दम’, भागवत पुराण में ‘पुष्पनिंद्र’, विष्णु पुराण में ‘अलिंदिभ’, दिव्यावदान में ‘यक्षकृमिश’, आर्यमंजुश्रीमूलकल्प में ‘महायक्ष’ और तारानाथ के विवरण में ‘मिनार’ के रूप में हुआ है।

प्लूटार्क लिखता है कि मिलिंद बड़ा न्यायप्रिय, विद्वान और जनप्रिय शासक था। वह विद्वानों का संरक्षक और विद्या तथा कला का प्रेमी था। मिलिंदपन्हो के अनुसार उसे इतिहास, पुराण, ज्योतिष, न्याय-वैशेषिक, दर्शन, तर्कशास्त्र, सांख्य, योग, संगीत, गणित, काव्य आदि विभिन्न विद्याओं का ज्ञान था। उसकी राजधानी ‘साकल’ सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ-साथ व्यापार-वाणिज्य का भी प्रमुख केंद्र थी। इस प्रकार मिनेंडर ने विदेशी होकर भी भारतीय धर्म को स्वीकार किया जो उसकी सहिष्णुता का परिचायक है।

मिनेंडर की मृत्यु के समय उसका पुत्र स्ट्रैटो प्रथम अवयस्क था, इसलिए उसकी पत्नी एगथोल्किया ने शासन संभाला और पुत्र के साथ मिलकर सिक्के प्रचलित करवाए। स्ट्रैटो प्रथम का उत्तराधिकारी स्ट्रैटो द्वितीय हुआ। इन दोनों के काल में यूथीडेमस साम्राज्य का पतन हुआ।

भारत में यवन राज्य का पतन

भारत में यवन राज्य दीर्घकाल तक नहीं रह सका, क्योंकि राजनीतिक और भौगोलिक कारणों से मध्य एशिया के खानाबदोश कबीलों ने, जिनमें सीथियन लोग (शक) भी थे, बैक्ट्रिया पर धावा बोल दिया। आगे बढ़ते हुए सीथियनों ने पहले पार्थिया और फिर प्रथम शती ई.पू. के मध्य तक भारत के हिंद-यवन राज्यों पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार भारत के हिंद-यवन क्षेत्रों पर सीथियनों का अधिकार हो गया। इन्हीं सीथियनों को भारतीय साहित्य में ‘शक’ कहा गया।

हिंद-यवन आक्रमण का प्रभाव

प्रायः कहा जाता है कि भारत पर यूनानी सभ्यता का प्रभाव जमाने का जो कार्य सिकंदर नहीं कर सका, वह भारत में हिंद-यवन साम्राज्य स्थापित होने से पूर्ण हो गया। स्मिथ और टार्न जैसे इतिहासकारों ने भारत पर यूनानी प्रभाव को नगण्य माना है। उनके अनुसार देश के अंदरूनी भागों पर डेमेट्रियस, युक्रेटाइडीज, मिनेंडर आदि के आक्रमण अल्पकालिक थे और उससे भारत की मूल संस्कृति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उनके अनुसार भारतीय विजेताओं के रूप में सिकंदर, मिनेंडर आदि से प्रभावित अवश्य थे, किंतु उनके लिए वे अनुकरणीय कदापि नहीं थे।

फिर भी यवन विजेताओं ने कई क्षेत्रों में भारत पर अपनी छाप छोड़ी थी। मुस्लिम आक्रमणों से पूर्व के अन्य सभी आक्रांताओं की भाँति यवन भी भारतीय समाज में समाविष्ट हो गए, किंतु ईसवी सन् के प्रारंभिक काल में भारत पर उनका पर्याप्त प्रभाव था। उन्हें ‘सर्वज्ञ यवन’ (महाभारत) कहकर सम्मानित किया जाता था। यूनानी चिकित्सकों को अत्यंत ज्ञानी कहकर उनका आदर किया जाता था। व्यूह-रचना के विशेषज्ञ और युद्ध-मशीनों के डिजाइन बनाने वालों के रूप में यवन इंजीनियरों का पूरे भारत में सम्मान था। एक तरफ जहाँ यूनानी लोगों ने भारतीय धर्म और दर्शन से बहुत कुछ सीखा, वहीं दूसरी ओर भारतीयों ने कला, विज्ञान, मुद्रा, ज्योतिष आदि क्षेत्रों में यूनानियों से प्रेरणा ग्रहण की।

धर्म और दर्शन पर प्रभाव

धर्म और दर्शन के क्षेत्र में यूनान भारत का ऋणी हुआ। कई यूनानी राजाओं ने भारतीय धर्म और दर्शन को अपनाया। तक्षशिला के एक यवन राजा एंटियालकिड्स ने हेलियोडोरस नामक अपने राजदूत को काशीपुत्र भागभद्र के पास भेजा था। हेलियोडोरस अपने को ‘भागवत’ कहता था और उसने देवों के देव वसुदेव के सम्मान में बेसनगर में गरुड़ध्वज की स्थापना की। मिनेंडर स्वयं बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया। संभवतः तपस्या और योग की क्रियाएँ यूनानियों ने भारतीयों से ही सीखीं।

विज्ञान और ज्योतिष पर प्रभाव

भारत भी यवन प्रभाव से मुक्त नहीं रह सका। विज्ञान के क्षेत्र में भारत स्पष्टतः यूनानियों से प्रभावित है। विज्ञान के क्षेत्र में भारतीयों ने मुक्त रूप से यवनों से शिक्षा ग्रहण की थी। भारतीयों का ध्यान ज्योतिष शास्त्र ने विशेष रूप से आकर्षित किया था। गार्गी संहिता में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है कि ज्योतिष के क्षेत्र में भारत यूनान का ऋणी है। उसमें लिखा है कि यद्यपि यवन बर्बर हैं, किंतु ज्योतिष के मूल निर्माता होने के कारण वे वंदनीय हैं। वराहमिहिर ने भी लिखा है कि यद्यपि यूनानी म्लेच्छ हैं, किंतु वे ज्योतिष के विद्वान हैं और इसलिए प्राचीन ऋषियों की भाँति पूज्य हैं।

फलित ज्योतिष का कुछ ज्ञान भारतीयों को पहले से ही था, किंतु नक्षत्रों को देखकर भविष्य बताने की कला भारतीयों ने यूनानियों से ही सीखी। टार्न के अनुसार भारतीयों ने यूनानियों से ही कैलेंडर प्राप्त किया और निश्चित तिथि से काल गणना की प्रथा, संवतों का प्रयोग, सप्ताह के सात दिनों का विभाजन, विभिन्न ग्रहों के नाम आदि का ज्ञान प्राप्त किया। भारतीय ग्रंथों में ज्योतिष के पाँच सिद्धांतों का वर्णन मिलता है- 1. पितामह, 2. वशिष्ठ, 3. सूर्य, 4. पौलिश, 5. रोमक। इनमें अंतिम दो का जन्म यूनानी संपर्क से हुआ।

पौलिश सिद्धांत सिकंदरिया के पॉल की खोजों पर आधारित है। रोमक के संबंध में वराहमिहिर ने जिन नक्षत्रों का नाम गिनाया है, वे यूनान से लिए गए प्रतीत होते हैं।

वराहमिहिर के होरा विषयक ज्ञान पर, जो कुंडलियों से संबंधित है, यूनानी खगोलशास्त्र का प्रभाव है। भारतीय ज्योतिष में प्रचलित अनेक शब्द, जैसेकृकेंद्र, हारिज, लिप्त, द्रकन आदि यूनानी भाषा से लिए गए प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार यूनानी चिकित्साशास्त्री हिप्पोक्रेट्स और भारतीय चिकित्साशास्त्री चरक के सिद्धांतों में अनेक समानताएँ परिलक्षित होती हैं।

मुद्रा-निर्माण पर प्रभाव

मुद्रा-निर्माण की कला में भारतीयों ने यूनानियों से बहुत कुछ सीखा। यूनानियों के संपर्क से पूर्व भारत में पंचमार्क और आहत मुद्राएँ प्रयोग में लाई जाती थीं। उन पर कोई मुद्रा-लेख नहीं होता था। यवनों ने भारत में ऐसी मुद्राओं का प्रचलन किया, जिन पर एक ओर राजा की आकृति और दूसरी ओर किसी देवता की मूर्ति या कुछ अन्य चिन्ह बनाए जाते थे। भारतीय शासकों ने मुद्रा-निर्माण की इस प्रणाली को अपनाया। अब यूनानियों के प्रभाव के कारण भारतीय मुद्राएँ सुडौल, लेखयुक्त और कलात्मक बनाई जाने लगीं। कनिष्क ने भी बैक्ट्रिया के यूनानी राजाओं और रोम के सिक्कों के अनुरूप अपने सिक्के बनवाए।

कला के क्षेत्र में यूनानी प्रभाव

कला के क्षेत्र में यूनानी प्रभाव सर्वथा दृष्टिगोचर होता है। कला की गांधार शैली की नींव इसी समय पड़ी। गांधार और मथुरा की बुद्ध और बोधिसत्वों की मूर्तियों पर यूनानी और रोमन कला का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है।

कुछ विद्वानों के अनुसार भारत के पारंपरिक संस्कृत सुखांत नाटकों पर एथेंस के नाटकों का प्रभाव है। संस्कृत नाटकों में पटाक्षेप के लिए ‘यवनिका’ शब्द का प्रयोग होता है जो यूनानी भाषा से लिया गया प्रतीत होता है। किंतु मात्र ‘यवनिका’ शब्द के आधार पर संस्कृत नाटकों पर यूनानी प्रभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता। कुछ विद्वान ‘मृच्छकटिक’ की तुलना ‘न्यू एटिक कॉमेडी’ से करते हैं। संस्कृत शब्दकोश में स्याही, कलम, फलक आदि के लिए जो शब्द मिलते हैं, वे यूनानी भाषा से लिए गए लगते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि यद्यपि भारतीय संस्कृति के मूलतत्त्व सर्वथा अप्रभावित और अपरिवर्तित रहे, किंतु इस पारस्परिक संपर्क से भारतीयों और यवनों ने परस्पर बहुत कुछ लिया-दिया।

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