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1892 का अधिनियम
1861 ई. के बाद भारतीयों में राजनीतिक चेतना तथा राष्ट्रीयता का तेजी से विकास हुआ, जिसके फलस्वरूप 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उदारवादी नेताओं ने संवैधानिक सुधारों की माँग की, जिसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश संसद ने 1892 ई. का भारतीय परिषद् अधिनियम पारित किया। किंतु यह अधिनियम केवल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा किये गये आंदोलन का ही प्रथम परिणाम नहीं था। कांग्रेस के अतिरिक्त कई अन्य कारणों ने भी इस अधिनियम के पारित होने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार, भारतीयों का आर्थिक शोषण और ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति से भारतीयों में राजनीतिक जागृति आ रही थी और भारतीय जनता शासन-सत्ता का विकेंद्रीकरण चाहती थी। 1861 ई. का भारतीय परिषद् अधिनियम जहाँ एक ओर उत्तरदायी सरकार स्थापित करने में असमर्थ रहा, वहीं दूसरी ओर लिटन की बर्बर नीतियों के कारण विद्रोह की संभावनाएँ बढ़ गई थीं। संभवतः ह्यूम द्वारा 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का एक कारण यह भी था।
कांग्रेस शुरू से ही 1861 ई. के सुधारों को ‘अपर्याप्त और निराशाजनक’ कहकर विधान परिषदों के विस्तार की माँग करती आ रही थी। चूंकि विधान परिषदों के अधिकांश सदस्य सरकारी होते थे, इसलिए कांग्रेस ने माँग की कि अधिकांश सदस्य जनता द्वारा निर्वाचित होने चाहिए। कांग्रेस की एक माँग यह भी थी कि विधान परिषद् के सदस्यों को समस्त विभागों के विषय में प्रश्न पूछने तथा बजट पर बहस करने का अधिकार दिये जायें। इसके अतिरिक्त, कांग्रेस आगरा, अवध और पंजाब में विधान परिषदों की स्थापना के लिए भी माँग कर रही थी।
प्रारंभ में सरकार का रूख कांग्रेस प्रति सहानुभूतिपूर्ण था, किंतु 1888 के बाद यह बदल गया। लॉर्ड डफरिन को कांग्रेस की माँगों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं थी। उसने (डफरिन) कांग्रेस को एक सूक्ष्म तथा अल्पसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाला संगठन बताया और कहा कि उसकी (कांग्रेस) की माँग ‘अज्ञात में एक बड़ी छलांग’ के समान है। यद्यपि डफरिन कांग्रेस का कटु आलोचक था, किंतु वह देश के प्रशासन में भारतीयों का सहयोग लेना आवश्यक समझता था, ताकि सरकारी कानून जनता में लोकप्रिय हो सकें।
डफरिन ने भारत में प्रशासनिक सुधार के संबंध में सुझाव देने के लिए 1888 में एक समिति नियुक्त की। इस समिति ने विधान परिषद् को एक छोटी संसद के रूप में विकसित करने का सुझाव दिया। डफरिन ने समिति की रिपोर्ट के आधार पर गृह-सरकार को सुझाव भेजा कि ऐसे भारतीय भद्र पुरुषों को, जो अपने प्रभाव तथा अपनी अपेक्षाओं से अपने देशवासियों में विश्वास उत्पन्न कर सकते हैं तथा जिनमें इतनी बुद्धि तथा क्षमता है कि वे देश के प्रशासकों की अपने सुझावों द्वारा सहायता कर सकें, सार्वजनिक कार्यों के प्रशासन में अधिक भाग लेने के अवसर दिये जायें। उन्हें वायसरॉय की विधान परिषद् से प्रश्न पूछने का अधिकार दिये जाएं, लेकिन इसके लिए वायसरॉय को आवश्यकता के अनुसार कुछ रुकावटें लगाने का अधिकार भी मिले। प्रांतों की विधान सभाओं का विस्तार कर उनमें कुछ चुने हुए सदस्य शामिल किये जायें और संसदीय सरकार शुरू की जाए, क्योंकि भारत ब्रिटिश साम्राज्य का अभिन्न अंग है और सरकार की जिम्मेदारी है कि वह भारत की विरोधी जातियों में न्याय स्थापित करे।’
लॉर्ड डफरिन के सुझावों के आधार पर गवर्नर जनरल ने एक योजना तैयार की, जिसका उद्देश्य ‘प्रांतीय कौंसिलों की सदस्य संख्या तथा उनकी प्रतिष्ठा को बढ़ाना, उनके कार्यक्षेत्र को विस्तृत करना, उनमें कुछ निर्वाचित सदस्यों के लिये जाने की व्यवस्था करना और राजनीतिक संस्थाओं के रूप में उनके स्वरूप को व्यापक बनाना था।’ किंतु गवर्नर जनरल ने स्पष्ट कर दिया था कि उसके मन में भारत में संसदीय शासन की स्थापना का कोई इरादा नहीं है।
जिस समय भारत सरकार तथा ब्रिटिश सरकार के मध्य सुधारों के संबंध में पत्राचार हो रहा था, उस समय ब्रिटिश संसद सदस्य चार्ल्स ब्रेडला ने 1861 ई. के अधिनियम में संशोधन करने के लिए संसद में एक विधेयक प्रस्तुत किया। ब्रेडला 1889 ई. में बंबई में हुए कांग्रेस के 5वें अधिवेशन में सम्मिलित होकर लौटा था। उसने अपने विधेयक में कांग्रेस की माँगों को स्थान दिया था, किंतु यह विधेयक विचार के लिए संसद में नहीं आ सका।
ब्रिटिश सरकार ने डफरिन की सिफारिशों के आधार पर 1890 ई. में एक विधेयक पेश किया, जिसे हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने तो पारित कर दिये, किंतु आयरलैंड की समस्या में उलझे होने के कारण हाउस ऑफ कॉमंस में पास नहीं हो सका। फलतः फरवरी, 1892 ई. में एक नया बिल हाउस ऑफ लॉर्ड्स में पेश किया गया, जिसे दोनों सदनों ने विचार-विमर्श के बाद 26 मई, 1892 ई. में पारित कर दिया जो इंडियन कौंसिल्स अधिनियम, 1892 ई. के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
1892 के अधिनियम के प्रमुख प्रावधान
इस अधिनियम द्वारा तीन दिशाओं में परिवर्तन किये गये- परिषदों की सदस्य संख्या में वृद्धि, परिषदों के अधिकार में वृद्धि तथा पार्षदों के संसदीय अधिकार में वृद्धि। इस अधिनियम की प्रमुख धाराएँ निम्नलिखित थीं-
परिषदों की सदस्य-संख्या में वृद्धि
इस अधिनियम द्वारा केंद्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषदों में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गई और उनके निर्वाचन का भी विशेष उल्लेख किया गया। यद्यपि इसके द्वारा सीमित चुनाव की ही व्यवस्था हुई, किंतु भारत के मुख्य सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया। बंबई तथा मद्रास की प्रांतीय कौंसिलों में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या कम से कम आठ और अधिक से अधिक बीस तथा उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत तथा अवध में अधिकतम् पंद्रह अतिरिक्त सदस्य नियुक्त करने की व्यवस्था की गई। अतिरिक्त सदस्यों का कार्यकाल दो वर्ष रखा गया और इसमें आधे सदस्य गैर-सरकारी होने आवश्यक थे। इस अधिनियम ने गवर्नर जनरल को यह अधिकार दिया कि वह अपनी परिषद् की सहायता से अतिरिक्त सदस्यों को मनोनीत करने के संबंध में उचित नियम बना सके, किंतु इस विषय में भारत सचिव की स्वीकृति आवश्यक थी।
विधान परिषदों के सदस्यों के अधिकारों में वृद्धि
इस अधिनियम द्वारा विधान परिषद् के सदस्यों के अधिकारों में वृद्धि की गई। इसके अंतर्गत सदस्यों को वार्षिक वित्त-विवरण पर कार्यपालिका से प्रश्न पूछने और प्रस्ताव पेश करने का अधिकार दिया गया। इस प्रकार ‘बजट की एक-एक मद पर वोट देकर उसे पास करने या न करने का नहीं, अपितु सरकार की आर्थिक नीति के पूर्ण, स्वतंत्र और निष्पक्ष आलोचना करने का अधिकार दिया गया था।
सपरिषद् गवर्नर जनरल तथा सपरिषद् गवर्नरों को वार्षिक वित्त-विवरण पर वाद-विवाद और प्रश्न पूछने के संबंध में नियम बनाने का अधिकार दिया गया।
परिषद् के सदस्यों को सार्वजनिक हित के विषयों पर प्रश्न पूछने का अधिकार मिला। ये प्रश्न गवर्नर जनरल या प्रांतीय गवर्नरों द्वारा बनाये गये नियमों में तय की गई शर्तों और प्रतिबंधों के अधीन रहकर ही पूछे जा सकते थे। किसी प्रश्न को पूछने के लिए छः दिन पूर्व विधान परिषद् के अध्यक्ष को सूचना देना आवश्यक था। विधान परिषद् के अध्यक्ष को यह अधिकार था कि वह बिना कारण बताये किसी भी प्रश्न को पूछने से मना कर सकता था।
प्रांतीय विधान परिषदों को गवर्नर जनरल की स्वीकृति से नये और पुराने कानूनों में आवश्यकतानुसार रद्द करने की शक्ति दी गई। इस प्रकार गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद् के अधिकारों में कोई कमी नहीं हुई।
विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की व्यवस्था
इस अधिनियम के अनुसार गवर्नर जनरल और गवर्नर प्रतिनिधि संस्थाओं की सिफारिश पर कुछ गैर-सरकारी सदस्यों को मनोनीत कर सकते थे। इस प्रकार अप्रत्यक्ष निर्वाचन की प्रथा शुरू हुई। केंद्रीय विधान परिषद् के 16 अतिरिक्त सदस्यों में से छः सरकारी अधिकारी, पाँच नामांकित गैर-सरकारी सदस्य तथा पाँच निर्वाचित सदस्य थे। इन निर्वाचित सदस्यों में से चार को गवर्नर जनरल प्रांतीय कौंसिलों के गैर-सरकारी सदस्यों की सिफारिश पर नियुक्त करता था और एक को वह कलकत्ता चैंबर ऑफ कॉमर्स की सिफारिश पर लेता था। इस प्रकार केंद्रीय विधान परिषद् में गैर-सरकारी सदस्यों की कुल संख्या दस थी, जबकि सरकारी सदस्य बारह या इससे अधिक होते थे। गवर्नर जनरल की विधान परिषद् में सरकारी अधिकारियों का बहुमत इसलिए रखा गया, ताकि सरकार को किसी प्रकार की कठिनाई न हो।
प्रांतीय कौंसिलों में गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या अधिक से अधिक आठ थी। इन सदस्यों को बडे़-बड़े नगरों, नगरपालिकाओं, जिला बोर्डों, बडे़-बडे़ जमींदारों तथा विश्वविद्यालयों की सिफारिशों पर नियुक्त किया जाता था। सही तो यह है कि ‘निर्वाचन’ शब्द का सावधानीपूर्वक व्यवहार नहीं किया गया, किंतु धीरे-धीरे जिन सुझावों की स्वीकृति दी गई, उससे वह व्यवस्था निर्वाचन से किसी अर्थ में भिन्न नहीं थी।
1858 का भारतीय प्रशासन-सुधार अधिनियम
अधिनियम के दोष
यद्यपि 1892 ई. का अधिनियम लंबी प्रतीक्षा तथा बड़े आंदोलन का परिणाम था, फिर भी इसने भारतीयों को कुछ भी सारवान वस्तु नहीं दी। इस अधिनियम से जहाँ एक ओर संसदीय प्रणाली का रास्ता खुला और भारतीयों को कौंसिलों में अधिक स्थान मिला, वहीं दूसरी ओर चुनाव-पद्धति एवं गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या में वृद्धि ने असंतोष उत्पन्न किया। निर्वाचन पद्धति अस्पष्ट तथा अनुचित थी। विधान परिषदों के कार्य सीमित थे। सदस्यों को पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं था और गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या बहुत थोड़ी थी। इस अधिनियम के प्रमुख दोष इस प्रकार थे-
यद्यपि सरकार ने निर्वाचन के सिद्धांत को मान्यता दी थी, किंतु इस अधिनियम के नियमों में ‘निर्वाचन’ शब्द तक नहीं था। इससे बढ़कर खेद की बात यह थी कि परिषद् के सदस्यों का चुनाव भारतीय जनता द्वारा नहीं किया जाना था। 1892 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने जो पहला प्रस्ताव पास किया गया, उसमें कहा गया, ‘यह कांग्रेस भक्तिपूर्ण भावना से भारतीय परिषद् अधिनियम को स्वीकार करते हुए, जो अभी बनाया गया है, इस बात पर शोक प्रकट करती है कि लोगों को परिषदों के लिए अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार नहीं दिया गया है औैर आशा करती है कि इस अधिनियम के अधीन जो नियम बनाये जा रहे हैं, वे लोगों के प्रति काफी न्याय करेंगे।’
इस अधिनियम द्वारा अपनाई गई निर्वाचन पद्धति नितांत अस्पष्ट तथा अपूर्ण थी। व्यवस्थापिका सभाओं में केवल कुछ ही सदस्य चुने जाने थे और वे भी अप्रत्यक्ष चुनाव द्वारा। इसलिए वे जनता के वास्तविक प्रतिनिधि न होकर कुछ विशिष्ट वर्गों का ही प्रतिनिधित्व करते थे। निर्वाचन प्रणाली ने परिषदों में कानूनी पेशा को प्रमुखता प्रदान की, जिसका कोई औचित्य नहीं था। यह समाज के अन्य वर्गों का प्रतिनिधित्व करने में एकदम विफल रही।
विधान मंडल में सरकार के विरुद्ध केवल चुने हुए गैर-सरकारी सदस्य आवाज उठा सकते थे और वे केवल पाँच थे। परिषद् में सरकारी अधिकारियों का बहुमत होने के कारण सरकार उन निर्वाचित सदस्यों की कोई विशेष परवाह नहीं करती थी। इस प्रकार 1892 ई. का भारतीय परिषद् अधिनियम ऐसा पहला प्रयास था, जिसमें न केवल चुनाव सिद्धांत को स्वीकृति मिली, बल्कि जिसमें भारतीय गैर-सरकारी मत का प्रतिनिधित्व भी होता था, किंतु इसका पैमाना अतिसूक्ष्म और अप्रत्यक्ष था।
परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या नाममात्र की थी। जो गैर-सरकारी सदस्य थे, वे भी सरकार के राजभक्त थे। गवर्नर जनरल और गवर्नर अपने समर्थकों को ही परिषद् में नियुक्त करते थे। इसके अतिरिक्त सदस्यों की संख्या इतनी कम थी कि वे करोड़ों भारतीयों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते थे।
विधान परिषदों का विस्तार और इनके अधिकार अत्यंत सीमित थे। विधान परिषद् के सदस्यों को पूरक प्रश्न पूछने या सरकारी उत्तर पर बहस करने का अधिकार नहीं था। उन्हें बजट के प्रस्तावों पर वोट देने का भी अधिकार नहीं था। वे कार्यपालिका से कोई प्रश्न तभी पूछ सकते थे, जबकि उन्होंने छः दिन पूर्व उसकी सूचना कौंसिल के अध्यक्ष को दे दी हो। विधान परिषद् के अध्यक्ष को अधिकार था कि वह बिना कारण बताये किसी भी प्रश्न को पूछने से मना कर सकता था। इस प्रकार विधायिका का कार्यपालिका पर ‘नहीं के बराबर’ नियंत्रण था।
पूरक प्रश्नों के संबंध में लॉर्ड लैंसडाउन ने 1892 ई. में अपने विचार प्रकट किये थे कि प्रश्न इस प्रकार के होने चाहिए, जिनमें केवल सम्मति प्रकट करने की प्रार्थना हो। उनमें किसी प्रकार की तर्क-भावना, कल्पना तथा मानहानिपूर्ण भाषा का प्रयोग नहीं होना चाहिए। एक प्रश्न के दिये गये उत्तर में किसी प्रकार की चर्चा की अनुमति नहीं थी। इन बंधनों के कारण एक उपयोगी व्यवस्था का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जाता था।
विधान परिषद् का बजट पर कोई नियंत्रण प्राप्त नहीं था। इसके सदस्य बजट में कोई कटौती नहीं कर सकते थे, मात्र सुझाव दे सकते थे। इस अधिनियम द्वारा भारतीयों को राजनीतिक शिक्षा देने की कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। कौंसिलों का अधिकार-क्षेत्र इतना सीमित था और अतिरिक्त सदस्यों की संख्या इतनी कम थी कि राजनीतिक शिक्षा के लिए उनका उपयोगी होना कठिन था।
1892 के अधिनियम का मूल्यांकन
यद्यपि 1892 ई. का अधिनियम भारतीयों की माँगों की अपेक्षा बहुत कम था, तथापि वह उस समय की स्थिति के अनुसार पर्याप्त प्रगतिपूर्ण था। इस अधिनियम द्वारा भारतीय सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गई, भारतीयों को उच्च राजनीतिक पदों का उत्तरदायित्व सौंपा गया और उनसे नीति-संबंधी परामर्श लिया जाने लगा, जो संसदीय पद्धति में एक बड़ा कदम था। इस अधिनियम से गोपालकृष्ण गोखले, रासबिहारी घोष और सुरेंद्र्रनाथ बनर्जी जैसे योग्य तथा प्रभावशाली भारतीयों को गवर्नर जनरल और उसकी परिषदों के सदस्यों के साथ बैठने का अवसर मिला। यद्यपि वे परिषदों में सरकारी सदस्यों के बहुमत के कारण अपनी बात नहीं मनवा सके, तथापि उन्होंने देश के लिए बनाये जाने वाले कानूनों पर अपनी प्रतिभा, विद्वता, राजनीतिक बुद्धिमत्ता तथा संसदीय योग्यता की गहरी छाप पड़ी। वस्तुतः यह अधिनियम भारतीय स्वशासन की दिशा में न सही, परंतु उच्चतम् प्रशासनिक कार्य में भारतीयों के सहयोग की दिशा में एक बड़ा कदम था।
1892 ई. के अधिनियम में ‘निर्वाचन’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया था, किंतु चुनाव के सिद्धांत को स्वीकार करने तथा शासन-प्रबंध पर व्यवस्थापिका सभाओं के कुछ नियंत्रण प्रदान किये जाने के कारण इससे भावी प्रगति का मार्ग खुल गया। इस प्रकार उत्तरदायी शासन की स्थापना 1861 ई. से नहीं, बल्कि 1892 ई. से आरंभ हुई।
विधान परिषदों के वित्तीय अधिकारों में वृद्धि इस अधिनियम की बहुत बड़ी देन थी। पहली बार इस अधिनियम ने शासन में कुछ प्रतिनिधिक अंश का समावेश किया तथा भारतीय सदस्यों को भी सरकारी विधेयकों पर तथा बजट जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार प्रकट करने तथा सरकार के कृत्यों के बारे में प्रश्न पूछने के कुछ न कुछ अधिकार प्रदान किये। इससे पूर्व परिषद् के सदस्यों को सरकार की आर्थिक नीति की आलोचना करने या उस पर वाद-विवाद करने का अधिकार नहीं था।
ब्रिटिश सरकार कानून बनानेवाली परिषदों को अपनी कठपुतली बनाना चाहती थी, जबकि भारतीय उनको प्रारंभिक संसद (पार्लियामेंट) का रूप देना चाहते थे। 1892 ई. का अधिनियम दोनों के बीच का मार्ग था। इस अधिनियम के द्वारा केंद्रीय तथा प्रांतीय धारा सभाओं में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गई। यद्यपि इसमें ‘निर्वाचन’ शब्द का प्रयोग नहीं हुआ था, किंतु इसने सिफारिशों के आधार पर मनोनीत करने के रूप में निर्वाचन सिद्धांत को प्रविष्ट किया। कुल मिलाकर, इस अधिनियम द्वारा भारत में अप्रत्यक्ष रूप से संसदीय सरकार की नींव रखी गई।