सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) Subhash Chandra Bose and Azad Hind Fauj (INA)

सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) Subhash Chandra Bose and Azad Hind Fauj (INA)

सुभाषचंद्र बोस

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के प्रतिबद्ध क्रांतिकारी नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को देश के बाहर एक नई अभिव्यक्ति प्रदान की। उन्होंने भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्ति दिलाने के लिए जापान के सहयोग से सिंगापुर में आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) का नेतृत्व सँभाला और 21 अक्टूबर, 1943 को आज़ाद हिंद सरकार के नाम से भारत की पहली स्वतंत्र अस्थायी सरकार की स्थापना की। यही कारण है कि भारत में प्रतिवर्ष 21 अक्टूबर को आज़ाद हिंद सरकार के गठन की वर्षगाँठ मनाई जाती है।

सुभाषचंद्र बोस को भारतवासी ‘नेताजी’ के नाम से संबोधित करते हैं। नेताजी ने भारत की स्वतंत्रता के लिए दक्षिण पूर्व एशिया में रह रहे सभी धर्मों और क्षेत्रों के भारतीयों को एक एकजुट किया और उनका सहयोग तथा समर्थन प्राप्त किया। उन्होंने ‘जयहिंद’ तथा ‘दिल्ली चलो’ का क्रांतिकारी नारा दिया और भारतीयों से अपील की कि ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’ भारत सरकार ने नेताजी के अदम्य साहस और प्रतिबद्धता के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उनकी 125वीं जयंती (23 जनवरी, 2021) को ‘पराक्रम दिवस’ के रूप में मनाया था।

सुभाषचंद्र बोस का आरंभिक जीवन

भारत के महानतम् स्वतंत्रता सेनानी सुभाषचंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में एक बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम प्रभावतीदत्त बोस और पिता का नाम जानकीनाथ बोस था। जानकीनाथ कटक शहर के एक प्रसिद्ध वकील थे और बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे। अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें ‘रायबहादुर’ का खिताब दिया था। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 संतानें थीं, जिसमें 6 पुत्रियाँ और 8 पुत्र थे। सुभाष अपने माता-पिता की नौवीं संतान और पाँचवें पुत्र थे। उनका अपने भाइयों में सबसे अधिक लगाव प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे शरतचंद्र बोस (1889-1950) से था, जिन्हें वे ‘मेजदा’ कहते थे।

कटक के प्रोटेस्टेंट स्कूल से प्राइमरी शिक्षा ग्रहण के बाद सुभाष ने 1909 में रेवेनशा कॉलेजियेट स्कूल में प्रवेश लिया। 1915 में उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की और 1916 प्रेसीडेंसी कॉलेज कोलकाता (कलकत्ता) में प्रवेश लिया। किंतु प्रेसीडेंसी कॉलेज में छात्रों का नेतृत्व करने के कारण सुभाष को वहाँ से निष्कासित कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने 49वीं बंगाल रेजीमेंट में भर्ती होने का प्रयास किया, किंतु दृष्टिदोष के कारण उन्हें अस्वीकृत कर दिया गया। 1919 में सुभाष ने बी.ए. (ऑनर्स) की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर कलकत्ता विश्वविद्यालय में दूसरा स्थान प्राप्त किया।

पिता की इच्छा के अनुसार सुभाष भारतीय सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी के लिए 15 सितंबर, 1919 को लंदन चले गये और 1920 में आई.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण कर अपनी योग्यता का परिचय दिया। किंतु भारत में राष्ट्रवादी उथल-पुथल के कारण उन्होंने अप्रैल, 1921 में सिविल सेवा से त्यागपत्र दे दिया और जून, 1921 में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान में ट्राइपास (ऑनर्स) की डिग्री के साथ स्वदेश लौट आये।

राष्ट्रीय आंदोलन में प्रवेश

इंग्लैंड से भारत वापस आने पर सुभाष ने मुंबई के मणिभवन में 20 जुलाई, 1921 को पहली बार गांधीजी से भेंट की। गांधी की सलाह पर बोस बंगाल के चित्तरंजनदास के सहयोगी बन गये, जो उस समय बंगाल में असहयोग आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। यद्यपि सुभाषचंद्र बोस विवेकानंद की शिक्षाओं से प्रभावित थे और उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरु मानते थे, किंतु उनके राजनीतिक गुरु देशबंधु चितरंजनदास ही थे। गांधीजी के साथ असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण सुभाष को पहली बार 16 जुलाई, 1921 को छः महीने का कारावास हुआ। इसके बाद सुभाष को कुल 11 बार जेल जाना पड़ा था।

गांधीजी ने 4 फरवरी, 1922 को चौरीचौरा की घटना के बाद असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया, जिसके कारण चितरंजनदास ने मोतीलाल नेहरू के साथ मिलकर 1 जनवरी, 1923 में कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। बोस ने स्वराज पार्टी द्वारा प्रकाशित समाचारपत्र ‘फॉरवर्ड’ के संपादन का कार्यभार सँभाला। 1923 में सुभाषचंद्र बोस अखिल भारतीय युवा कांग्रेस के अध्यक्ष और साथ ही बंगाल प्रदेश कांग्रेस के सचिव चुने गये। स्वराज पार्टी की विजय के बाद जब 1924 में चित्तरंजनदास कलकत्ता को-ऑपरेशन के महापौर चुने गये, तो उन्होंने सुभाष को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया।

12 जनवरी, 1924 को क्रांतिकारी गोपीनाथ साहा ने कोलकाता के पुलिस अधीक्षक चार्ल्स टेगार्ट को मारने का प्रयास किया, किंतु गलती से अर्नेस्ट डे की हत्या हो गई। साहा को 1 मार्च, 1924 को अलीपुर सेंट्रल जेल में फाँसी दे दी गई। सुभाष ने गोपीनाथ के शव को माँगकर उसका अंतिम संस्कार किया, जिससे चिढ़कर अंग्रेज सरकार ने सुभाष को 1924 में पुनः गिरफ्तार कर लिया और बिना कोई मुकदमा चलाये उन्हें 1925 में मांडले जेल में भेज दिया। मांडले जेल में ही 5 नवंबर, 1925 को सुभाष को रेडियो से चित्तरंजनदास की कोलकाता में मृत्यु की सूचना मिली। मांडले में सुभाष को तपेदिक हो गया, जिसके कारण सरकार ने उन्हें 1927 में रिहा कर दिया। रिहा होने के बाद बोस बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये और इसके बाद उन्होंने जवाहरलाल नेहरू के साथ कांग्रेस के अधीन युवकों की ‘इंडिपेंडेंस लीग’ शुरू की। सुभाष ने कोलकाता में साइमन कमीशन-विरोधी आंदोलन का नेतृत्व किया। जब कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने लिए मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में आठ सदस्यीय आयोग का गठन किया, तो सुभाष भी उसके एक सदस्य थे।

सुभाषचंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू दोनों कांग्रेस में वामपंथी समूह का प्रतिनिधित्व करते थे। 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाष ने खाकी गणवेश धारण कर मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी। कोलकाता अधिवेशन में कांग्रेस ने डोमिनियन स्टेट्स माँग की, किंतु सुभाष और जवाहरलाल नेहरू को ‘पूर्ण स्वराज’ की माँग से पीछे हटना स्वीकार नहीं था। फलतः तय किया गया कि अंग्रेज़ सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिए एक साल का समय दिया जाये। यदि एक वर्ष में ब्रिटिश सरकार कांग्रेस की यह माँग पूरी नहीं करती है, तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की माँग करेगी। फलतः जब सरकार ने कांग्रेस की माँग पूरी नहीं की, तो 1929 में लाहौर के वार्षिक अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज की माँग के साथ-साथ 26 जनवरी के दिन को ‘स्वतंत्रता दिवस’ के रूप में मनाये जाने की घोषणा की।

1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान बोस पहले से ही क्रांतिकारी समूह बंगाल वालंटियर्स के साथ अपने संबंधों के कारण जेल में थे। जेल में रहते हुए बोस 1930 में कलकत्ता के महापौर (मेयर) और अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एआईटीयूसी) के अध्यक्ष चुने गये, जिसके कारण ब्रितानी सरकार को उन्हें रिहा करना पड़ा। 26 जनवरी, 1931 को जब सुभाष कोलकाता में तिरंगा फहराकर एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे, तभी पुलिस ने उनको गिरफ्तार कर लिया। उन्होंने 1931 में सविनय अवज्ञा आंदोलन के निलंबन और गांधी-इरविन समझौते (5 मार्च, 1931) का विरोध किया। 1932 में सुभाष को पुनः जेल में डाल दिया गया और इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया, जहाँ उनकी तबियत पुनः बिगड़ गई। चिकित्सकों की सलाह पर सुभाष इस बार इलाज के लिए यूरोप जाने पर राजी हो गये।

सुभाष का यूरोप प्रवास

सुभाषबाबू 1933 से लेकर 1936 तक यूरोप में प्रवास किये। इस दौरान उन्होंने भारतीय छात्रों को आज़ादी की लड़ाई के लिए एकजुट करने का प्रयास किया। उन्होंने इटली के फासीवादी नेता मुसोलिनी से भेंट की और आयरलैंड के नेता डी वलेरा से दोस्ती की। सुभाष के यूरोप प्रवास के दौरान ही जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का आस्ट्रिया में निधन हुआ और सुभाष ने वहाँ जाकर जवाहरलाल नेहरू को सांत्वना दी। बाद में, सुभाष ने यूरोप में विठ्ठलभाई पटेल से मंत्रणा की, जिसे ‘पटेल-बोस विश्लेषण’ के नाम से जाना जाता है। ज़ेनेवा से जारी पटेल-बोस के संयुक्त बयान में गांधी के नेतृत्व की आलोचना करते हुए कहा गया था कि ‘हमारे देश ने अहिंसा का अनुसरण करके बहुत प्रगति की है, परंतु अब यह कारगर नहीं है, अतः नेतृत्व में बदलाव की आवश्यकता है।’ 1934 में सुभाष अपने पिता की बीमारी की सूचना पाकर कोलकाता आये। किंतु कोलकाता पहुँचते ही ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और कुछ दिन बाद यूरोप वापस भेज दिया।

1930 के दशक में ऑस्ट्रिया में अपने इलाज के दौरान बोस ने एक यूरोपीय प्रकाशक के आग्रह पर ‘द इंडियन स्ट्रगल’ पुस्तक का पहला भाग लिखा, जिसमें उन्होंने 1920-1934 के दौरान भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का विवरण दिया है। इस पुस्तक को लिखने के लिए सुभाषबाबू को एक अंग्रेजी टाइपिस्ट की आवश्यकता थी। अपने एक मित्र के सहयोग से सुभाष एक 23 वर्षीय ऑस्ट्रियन महिला एमिली शेंकल के संपर्क में आये। कहा जाता है कि बाद में, उन्होंने एमिली शेंकल से बाड गास्टिन नामक स्थान पर हिंदू पद्धति से विवाह कर लिया। एमिली ने 1942 में वियेना में एक पुत्री को जन्म दिया, जिसका नाम सुभाषबाबू ने अनिता बोस रखा था। जब अगस्त, 1945 में ताइवान में तथाकथित विमान दुर्घटना में सुभाष की मौत हुई, उस समय उनकी पुत्री अनिता बोस (फाफ) तीन वर्ष की भी नहीं थी।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षता

1938 में हरिपुरा (विट्ठलनगर) में अखिल भारतीय कांग्रेस के 51वें वार्षिक अधिवेशन में सुभाषचंद्र बोस को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया और उनका स्वागत 51 बैलों द्वारा खींचे जाने वाले रथ में किया गया। उन्होंने अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में राष्ट्रीय योजना आयोग का गठन कर औद्योगीकरण की नीति तैयार की, जिसके पहले अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू थे। सुभाष ने बंगलौर में प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर विश्वेश्वरैया की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद की भी स्थापना की।

कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में सुभाष स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए कांग्रेस द्वारा अपनाये जाने वाले तरीकों को बदलना चाहते थे, किंतु उनका वामपंथी दृष्टिकोण और कार्य-पद्धति गांधीजी तथा कांग्रेस के अधिकांश नेताओं को पसंद नहीं थी। सुभाषचंद्र बोस चाहते थे कि भारत में राष्ट्रवादी आंदोलन को और तेज किया जाए, जबकि गांधीजी सुभाष के इस विचार से सहमत नहीं थे।

अगले वर्ष, 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाषचंद्र बोस गांधीजी के पसंदीदा उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैय्या को 1377 मत के मुकाबले 1580 मतों (203 मतों) से हराकर दुबारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिये गये। पट्टाभि की हार को गांधीजी ने अपनी हार बताया। अंततः गांधीजी के साथ अपने वैचारिक मतभेद और उनके असहयोग के कारण इस ‘विद्रोही अध्यक्ष’ को 29 अप्रैल, 1939 को कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा।

अपने अनेक वैचारिक मतभेदों के बावजूद बोस और गांधी कभी एक दूसरे के विरुद्ध नहीं गये। जहाँ बोस ने गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ कहकर संबोधित किया, वहीं गांधी ने सुभाषबाबू को ‘देशभक्त राजकुमार’ (प्रिंस ऑफ पैट्रियाट) कहा था। वस्तुतः देशहित में दोनों के लक्ष्य एकसमान थे और दोनों एक दूसरे के विचारों का सम्मान करते थे, जिसके कारण दोनों के बीच कभी कटुता नहीं पनपी।

आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना

कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के कुछ ही दिन बाद सुभाषचंद्र बोस ने 3 मई, 1939 को कांग्रेस के भीतर ही एक नये दल ‘आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लाक’ का गठन किया, ताकि सभी वामपंथी शक्तियों को एक छत के नीचे लाया जा सके और समानता तथा सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करते हुए भारत को पूर्णरूप से स्वतंत्र कराया जा सके। सुभाष ने फॉरवर्ड ब्लॉक के मंच से एक देशव्यापी आंदोलन खड़ा करने के लिए अकेले पूरे भारत का दौरा किया, किंतु उन्हें बहुत उत्साहजनक प्रतिक्रिया नहीं मिली।

सुभाषबाबू ने प्रांतीय कांग्रेस समितियों की अग्रिम अनुमति के बिना अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के एक प्रस्ताव के विरुद्ध 9 जुलाई को ‘देशव्यापी प्रतिवाद दिवस’ मनाने का आह्वान किया। फलतः गांधी के इशारे पर कांग्रेस कार्यसमिति ने उनको अनुशासनहीनता का दंड दिया और अगस्त, 1939 में सुभाष को कांग्रेस के सभी पदों से, खासकर बंगाल प्रांतीय कांग्रेस समिति के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया और आदेश दिया गया कि वे अगले तीन साल तक पार्टी के किसी भी पद पर नहीं रह सकते।

सुभाषबाबू को 3 सितंबर, 1939 को मद्रास में ब्रिटेन और जर्मनी के बीच युद्ध छिड़ने की सूचना मिली। उन्होंने घोषणा की कि अब भारत के पास सुनहरा मौका है और उसे अपनी मुक्ति के लिए अभियान तेज कर देना चाहिए। भारत के वायसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने भारतीयों से बिना विचार-विमर्श किये भारत को भी विश्वयुद्ध में शामिल कर लिया जबकि उस समय 11 में से आठ प्रांतों में कांग्रेस की सरकारें थीं।

ब्रिटेन को युद्ध में समर्थन देने के मुद्दे पर विचार करने के लिए वर्धा में 10-14 सितंबर, 1939 को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में आचार्य नरेंद्रदेव और जयप्रकाश नारायण के साथ सुभाषचंद्र बोस भी आमंत्रित किये गये। किंतु बैठक में गहरे मतभेद उत्पन्न हो गये क्योंकि सुभाष और उनके समर्थक युद्ध-प्रयासों के विरुद्ध कार्रवाई के लिए बेचैन हो रहे थे। बोस का तर्क था कि चूंकि यह साम्राज्यवादी युद्ध है और दोनों ही पक्ष अपने-अपने औपनिवेशिक स्वार्थों की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं, अतः किसी भी एक पक्ष का समर्थन नहीं किया जा सकता। कांग्रेस को चाहिए कि स्थिति का लाभ उठाकर वह भारत की स्वतंत्रता के लिए तुरंत सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कऱ दे। इसके बाद, सुभाषचंद्र बोस ने अक्टूबर, 1939 में नागपुर में फारवर्ड ब्लॉक का एक साम्राज्यवाद-विरोधी सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें उन्होंने कांग्रेस और संपूर्ण देश की साम्राज्य-विरोधी शक्तियों को संगठित करने तथा साम्राज्यवादियों के अस्तित्व के उन्मूलन के संकल्प को दोहराया।

सुभाष ने कांग्रेस की समझौतावादी नीतियों के विरोध में मार्च, 1940 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 53वें अधिवेशन के समानांतर रामगढ़ (झारखंड) में समझौता विरोधी अधिवेशन किया और पूरे नगर में एक विशाल शोभायात्रा निकाली, जिसमें महंत धनराजपुरी, शाहनवाज हुसैन, लक्ष्मीबाई सहगल और शीलभद्र जैसे लोग शामिल हुए थे।

अप्रैल, 1940 में बंगाल वापस आने के बाद सुभाष ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर जुलाई, 1940 में एक सविनय अवज्ञा आंदोलन (सत्याग्रह) शुरू करने का निर्णय किया। इस आंदोलन का उद्देश्य कलकत्ता के हॉलवेल स्मारक को नष्ट करना था, जो ब्लैकहोल त्रासदी (कालकोठरी दुर्घटना) की याद दिलाता था। अधिकांश लोग यह मानते थे कि यह त्रासदी कभी घटित ही नहीं हुई और यह कहानी बंगाल के अंतिम स्वतंत्र शासक सिराजुद्दौला के नाम को कलंकित करने के लिए रची गई थी। इस आंदोलन में मुसलमानों के लिए स्पष्ट आकर्षण था और इससे बंगाल में हिंदू-मुस्लिम एकता और मजबूत हो सकती थी।

किंतु आंदोलन आरंभ होने से पहले ही ब्रिटिश सरकार ने सुभाषबाबू को 2 जुलाई, 1940 को भारतीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत विद्रोह भड़काने के आरोप में 11वीं बार गिरफ्तार कर कलकत्ता की जेल में डाल दिया। बाद में हॉलवेल स्मारक को हटा दिया गया, किंतु बोस दिसंबर में तब तक कैद रहे जब तक उन्होंने भूख हड़ताल (आमरण अनशन) शुरू करने की धमकी नहीं दी। बोस ने सरकार को लिखा कि ‘‘मुझे स्वतंत्र कर दो, अन्यथा मैं जीवित रहने से इनकार कर दूँगा। इस बात का निश्चय करना मेरे हाथ में है कि मैं जीवित रहूँ या मर जाऊँ।’’ जब उन्होंने 29 नवंबर को अनशन करना आरंभ किया, तो 5 दिसंबर, 1940 को उन्हें रिहा कर दिया गया और कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) स्थित उनके घर में पुलिस के कड़े पहरे में नजरबंद (हाउस अरेस्ट) कर दिया गया।

इस बीच यूरोप में युद्ध जारी था और बोस का विश्वास था कि जीत जर्मनी की होगी। यद्यपि उनको जर्मनों का सर्वाधिकारवाद या नस्लवाद पसंद नहीं था, फिर भी, उनका मानना था कि धुरी शक्तियों की सहायता से भारतीय स्वाधीनता के लक्ष्य को आगे बढ़ाया जा सकता है और वे इसकी विभिन्न संभावनाओं को टटोलने लगे। अंततः उन्होंने देश के बाहर जाकर अन्य देशों की सहायता से भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयास का निर्णय किया।

कलकत्ता से बर्लिन तक की यात्रा

सुभाषचंद्र बोस की कलकत्ता से बर्लिन तक की यात्रा एक रोमांचक कहानी है, जो भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय 16-17 जनवरी, 1941 की आधी रात को सुभाषबाबू मौका पाकर जियाउद्दीन के छद्मनाम से सरहदी पठान के वेश में अपने एलिग्न रोड, कलकत्ता के घर से चुपके से फरार हो गये। शरदबाबू के बड़े बेटे शिशिर ने उन्हें अपनी कार संख्या बीएलए 7169 से झारखंड के धनबाद जिले के गोमो (नेताजी सुभाषचंद्र बोस जंक्शन) रेलवे स्टेशन तक पहुँचाया, जहाँ से सुभाषबाबू पेशावर जाने वाले एक बीमा एजेंट के रूप में कालका मेल से दिल्ली, फिर दिल्ली से फ्रंटियर मेल पकड़कर 18 जनवरी की शाम पेशावर पहुँचे। पेशावर में मियाँ अकबरशाह ने उनकी भेंट किर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से कराई। भगतराम तलवार के साथ सुभाष 26 जनवरी, 1941 को पेशावर से चले और 29 जनवरी को अड्डा शरीफ होते हुए काबुल पहुँच गये। इस यात्रा में भगतराम तलवार रहमतखान नाम के पठान और सुभाष उनके गूँगे-बहरे चाचा बने थे क्योंकि सुभाष पश्तो नहीं बोल सकते थे।

नेताजी को कलकत्ता से काबुल पहुँचने में 15 दिन लगे, लेकिन भारत में अंग्रेजों को सुभाष के फरार होने की खबर 12 दिन बाद मिली थी। 27 जनवरी को सुभाषबाबू के गायब होने की खबर आनंद बाजार पत्रिका और हिंदुस्तान हेराल्ड ने प्रकाशित की थी।

काबुल पहुँचकर नेताजी ने सोवियत दूतावास से सहायता माँगने की कोशिश की, लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली क्योंकि सोवियत सरकार उन्हें ब्रिटिश गुप्तचर समझती थी। इसके बाद बोस ने मास्को जाने के लिए जर्मन दूतावास से संपर्क स्थापित किया। 5 फरवरी को जर्मन दूतावास में मौजूद मंत्री हैंस पिल्गर ने जर्मन विदेशमंत्री को सुभाष से मिलने की सूचना दी। काबुल में सुभाष दो महीने तक एक भारतीय व्यापारी उत्तमचंद मल्होत्रा के घर में रूके, जहाँ दो बार पुलिस ने छापा मारा और बोस को रिश्वत में पैसे और अपने पिता से उपहार में मिली घड़ी देकर अपनी जान बचानी पड़ी।

अंततः इटली के राजदूत पाइत्रो क्वारोनी की मदद से सुभाषचंद्र बोस ऑरलैंडो मैज़ोटा के नाम से इतालवी पासपोर्ट लेकर 18 मार्च को सोवियत रूस रवाना हुए और 31 मार्च, 1941 को ट्रेन द्वारा मास्को पहुँच गये। कहा जाता है कि उन्होंने रूसी नेता स्टालिन से भी भेंट की थी, लेकिन उन्हें मास्को से उनकी योजनाओं के अनुसार अपेक्षित समर्थन नहीं मिला। इसके बाद सुभाषचंद्र बोस मास्को में जर्मनी के राजदूत काउंट शुलेनबर्ग की सहायता से भारत की स्वतंत्रता की संभावनाओं को टटोलने के लिए 2 अप्रैल, 1941 को जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँच गये।

जर्मनी में सुभाषचंद्र बोस

सुभाषबाबू 2 अप्रैल, 1941 में तीसरी बार जर्मनी पहुँचे। इसके पहले वे जुलाई, 1933 और जनवरी, 1938 में जर्मनी की यात्रा कर चुके थे। जर्मनी पहुँचने पर उन्होंने जर्मन नेताओं और अधिकारियों से संपर्क स्थापित किया और भारत की स्वतंत्रता के लिए जर्मनी के नाजी नेतृत्व के साथ-साथ इटली के फासीवादी नेता मुसोलिनी की सहानुभूति प्राप्त की। सुभाष ने प्रारंभ में ही जर्मन मंत्रालय के विदेशी विभाग को यह स्पष्ट बता दिया कि जर्मनी के साथ भारत का सहयोग जर्मनी एवं अंग्रेजों के बीच युद्ध तक ही सीमित है। नेताजी की योजना थी कि धुरी-शक्तियाँ- जर्मनी, जापान और इटली उनकी प्रस्तावित आजाद हिंद सरकार को मान्यता देंगी और विजय के बाद भारत की स्वतंत्रता बनाये रखने की गारंटी देंगी। भारतीय सेना और जनता संबोधित करने के लिए रोडियो प्रसारण की सुविधा प्रदान की जायेगी।

जर्मनी के वित्तीय सहयोग से सुभाषचंद्र बोस ने आज़ाद हिंद केंद्र (फ्री इंडिया सेंटर) की स्थापना का निर्णय लिया, ताकि यूरोप में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरूद्ध भारत की स्वतंत्रता के लिए समर्थन जुटाया जा सके। इस संस्था की पहली बैठक में छः निर्णय लिये गये- एक, संघर्ष का नाम आजाद हिंद या फ्री इंडिया रखा गया। दूसरा, यूरोप में इस संगठन का नाम आजाद हिंद केंद्र होगा। तीसरा, रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा रचित ‘जन गण मन’ राष्ट्रीय गान होगा। चौथा, आंदोलन का प्रतीक चिन्ह तिरंगा झंडा होगा, जिसके बीच में एक दहाड़ता हुआ बाघ होगा। पाँचवाँ, भारतीय एक दूसरे का अभिवादन ‘जयहिंद’ के नारे से करेंगे और छठवाँ, सुभाषचंद्र बोस को ‘नेताजी’ के नाम से संबोधित किया जायेगा। एक जर्मन एडम वॉन ट्रॉट के सहयोग से 2 नवंबर, 1941 को ‘आजाद हिंद केंद्र’ (फ्री इंडिया सेंटर) की स्थापना की गई। इस प्रकार आजाद हिंद केंद्र स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार का अग्रगामी रूप था, जिसकी घोषणा सुभाष ने दो वर्ष बाद सिंगापुर में की थी।

नेताजी ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरूद्ध संघर्ष करने के लिए प्रचार-प्रसार करने के लिए 20 मई, 1941 को आजाद हिंद रेडियो की स्थापना की। जनवरी, 1942 से इस रेडियो का नियमित प्रसारण शुरू किया गया। 19 फरवरी, 1942 को नेताजी ने ऑरलैंडो मजोटा की इटालियन पहचान छोड़कर आजाद हिंद रेडियो से दुनिया को अपना पहला संदेश दिया। 20 फरवरी, 1942 को सुभाषचंद्र बोस ने अपने देशवासियों को पहला संदेश दिया : ‘‘सभी लोग संघर्ष जारी रखेंगे। धुरीराष्ट्र जल्द ही उनके मिशन में उनकी मदद करेंगे और साथ मिलकर वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ेंगे। भाइयों और बहनों! हमने आजादी के लिए जो संघर्ष शुरू किया है, उसे हमें तब तक जारी रखना होगा जब तक हमें पूरी आजादी नहीं मिल जाती।’’ रेडियो के अलावा, मार्च, 1942 मे ‘आजाद हिंद’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी शुरू किया गया। जर्मनी प्रवास के दौरान ही बोस की पत्नी एमिली शेंकल ने नवंबर, 1942 में एक बच्ची (अनीता बोस) को जन्म दिया।

नेताजी ने सितंबर, 1941 में फील्ड मार्शल इरविन रोमेल द्वारा उत्तरी अफ्रीका में पकड़े गये भारतीय युद्धबंदियों को लेकर एक सैन्य दल ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ का गठन किया, किंतु हिटलर की नाजी सरकार ने इस नई स्वतंत्र सेना को मान्यता देने से इनकार कर दिया। इसलिए इस सैन्य इकाई का नाम ‘इंडियन लीजियन’ रखा गया। नेताजी ने 10,000 से ज्यादा युद्धबंदियों से भेंट की, जिनमें से लगभग 5,000 युद्धबंदी उनकी फ्री इंडियन लीजियन में शामिल होने के लिए राज़ी हो गये। यद्यपि यह सेना बहुत छोटी थी, लेकिन ऐतिहासिक थी क्योंकि नेताजी ने लोगों को उनकी जातियों और धार्मिक मान्यताओं के बावजूद सफलतापूर्वक एकजुट किया था। दरअसल, स्वतंत्र भारत केंद्र का यह लड़ाकू विभाग पूर्वी एशिया में आजाद हिंद फौज के विस्तार की दिशा में अग्रगामी कदम था। इस प्रकार नेताजी ने भावी आजाद हिंद फौज के निर्माण की नींव जर्मनी में लगभग उसी समय डाली थी, जिस समय जनरल मोहनसिंह ने पूर्वी एशिया में यह कार्य आरंभ किया था।

29 मई, 1942 को सुभाषचंद्र बोस की भेंट जर्मनी के नाजी नेता हिटलर और गोयबेल्स से हुई। उसी दिन जर्मन सरकार के विदेश विभाग ने सुभाषबाबू को ‘फ्यूहरर ऑफ इंडिया’ (भारत का नेता) की पदवी प्रदान की। इस समय तक पूर्वी एशिया में यह खबर पहुँच चुकी थी कि भारत से अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए जर्मनी में भारतीयों की एक सेना बनाई जा रही है। रासबिहारी बोस ने इसी समय नेताजी को जापान आने का निमंत्रण दिया था।

सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) Subhash Chandra Bose and Azad Hind Fauj (INA)
सुभाषचंद्र बोस और नाजी नेता हिटलर

नेताजी ने जर्मनी में स्वतंत्र भारत केंद्र और भारतीय सैन्य दल का निर्माण करके अपना प्राथमिक लक्ष्य प्राप्त कर लिया था। सुभाष चाहते थे कि जर्मनी और अन्य धुरी राष्ट्र आधिकारिक तौर पर भारत को एक स्वतंत्र देश घोषित करें। किंतु जर्मनी ने कभी ऐसी कोई घोषणा नहीं की क्योंकि भारत के बारे में हिटलर की राय अच्छी नहीं थी। उसने अपनी पुस्तक ‘मीन कैम्फ़’ (मेरा संघर्ष) में यहाँ तक लिखा था कि ब्रिटिश साम्राज्य के हाथ से यदि भारत निकल जाता है, तो पूरी दुनिया के लिए बहुत दुर्भाग्य की बात होगी, जिसमें मैं भी शामिल हूँ।’ हिटलर का मानना था कि भारतीय आंदोलनकारी उपमहाद्वीप से अंग्रेज़ों को हटा पाने में कभी भी सफल नहीं होंगे। यही नहीं, वह भारत के स्वतंत्रता सेनानियों को ‘एशियाई बाजीगर’ (एसियाटिक जगलर) कहता था। दरअसल, हिटलर को भारत की स्वतंत्रता में कोई रुचि नही थी। वह सुभाषबाबू और उनकी इंडियन लीजियन को केवल अंग्रेजों के विरूद्ध प्रयोग करना चाहता था। फलतः सुभाष भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में धुरी शक्तियों से कोई घोषणा नहीं करा सके।

अब सुभाषचंद्र बोस ने दक्षिण-पूर्व एशिया जाने का निश्चय किया, क्योंकि जापानी सेना भारत की पूर्वी सीमाओं तक पहुँच गई थी और जापानी सरकार फरवरी, 1942 में स्वतंत्र भारत की सरकार को मान्यता देने के लिए राज़ी हो गई थी। अंततः हिटलर के विदेशमंत्री रिबेनट्रोप ने सुभाष को जापान पहुँचाने के लिए एक जर्मन पनडुब्बी यू-180 की व्यवस्था की।

जर्मनी से जापान और सिंगापुर तक की यात्रा

जर्मनी और जापान की सरकारों से बीच अनिवार्य बातचीत के बाद नेताजी मिस्टर मस्तुदा के नाम से अपने साथी आबिद हसन सफरानी के साथ 9 फरवरी, 1943 को जर्मनी के कील बंदरगाह से जर्मन पनडुब्बी में सवार हुए और आशा अंतरीप (केप ऑफ़ गुड होप) का चक्कर लगाते हुए करीब ढाई महीने की कठिन यात्रा के बाद  26 अप्रैल, 1943 को हिंद महासागर में मैडागास्कर के किनारे पहुँचे। समुद्री तूफान के कारण दो दिन बाद अर्थात् 28 अप्रैल को मि. मत्सुदा और आबिद हसन जापानी पनडुब्बी आई-29 पर सवार हुए और  8 मई, 1943 को इंडोनेशिया के सबांग बंदरगाह पर उतरे, जहाँ नेताजी के पुराने दोस्त कर्नल यामामोटो ने उनकी आगवानी की। दो दिन बाद नेताजी एक जापानी युद्धक विमान में बैठकर  16 मई, 1943 में टोक्यो (जापान) पहुँचे, जहाँ उनका जोरदार स्वागत हुआ।

टोक्यो में नेताजी जापान के प्रधानमंत्री हिदेकी तोजो से 10 जून और 14 जून को दो बार मिले। दो दिन बाद, 16 जून को नेताजी ने जापानी डायट के 82वें असाधारण सत्र में भाग लिया और जापानी प्रधानमंत्री तोजो ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हरसंभव जापानी सहायता का आश्वासन दिया। सुभाषबाबू ने प्रेस को दिये गये एक वत्तव्य में कहा : पिछले महायुद्ध मे अंग्रेजों ने भारतीयों को धोखा दिया था। उसी समय देशवासियों ने निश्चय कर लिया था कि फिर कभी इस प्रकार के धोखे में नहीं पड़ेंगे। विगत 20 वर्षों से हम लोग जिस अवसर की प्रतीक्षा मे थे, वह आ गया है। यह समय भारतीय स्वतंत्रता का समय है। …… हम लोगों को अपनी संपूर्ण शक्ति और उत्साह से भारत के भीतर और बाहर भी भारतीय स्वाधीनता का युद्ध जारी रखना चाहिए। हमें ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ध्वंस होने तक यह संग्राम चलाना है और इस साम्राज्यवाद के विध्वंस के बाद ही भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में प्रकट होगा।’’ जून, 1943 में टोक्यो रेडियो से पूर्वी एशिया के भारतीयों को संबोधित करते हुए नेताजी ने कहा कि ‘अंग्रेजों से यह आशा करना बिल्कुल व्यर्थ है कि वे स्वयं अपना साम्राज्य छोड़ देंगे। हमें भारत के भीतर व बाहर से स्वतंत्रता के लिए स्वयं संघर्ष करना होगा। भारत के अंदर आधुनिक शस्त्रों से सुसज्जित अंग्रेजी सेना से निबटने हेतु देशवासियों लिए सशस्त्र क्रांति संगठित करना संभव नहीं है। अतः इस कार्य का भार देश के बाहर रहने वाले भारतीयों के कंधों पर है- विशेषकर उन भारतीयों के कंधों पर जो पूर्व एशिया में निवास करते हैं। जापान सरकार से सभी प्रकार की सहायता का आश्वासन मिलने के बाद नेताजी 2 जुलाई, 1943 को सिंगापुर पहुँच गये।

प्रथम आजाद हिंद फौज की स्थापना

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 8 दिसंबर, 1941 को जापान ने ब्रिटेन और अमेरिका के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया और ब्रिटिश सेना की 41वीं पंजाब रेजिमेंट की प्रथम बटालियन को मलाया के जगंलों में आगे बढ़ती हुई जापानी फौज के सामने समर्पण करना पड़ा। इस ब्रिटिश भारतीय सेना के एक युवा अधिकारी थे- कैप्टन मोहनसिंह, उनके मन में युद्धबंदियों की एक भारतीय सेना तैयार करने का विचार आया जो जापानी सेना के साथ भारत की मुक्ति के लिए प्रयास करती।

जापानी सरकार की नई भारत नीति के तहत जापानी मेजर इविची फुजीवारा ने 10 दिसंबर को दक्षिण-पूर्व एशिया में स्वतंत्रता के उत्सुक प्रवासी भारतीयों से संपर्क किया, जहाँ बाबा अमरसिंह, ज्ञानी प्रीतमसिंह, बाबा उसमान खाँ और स्वामी सत्यानंदपुरी जैसे क्रांतिकारियों के नेतृत्व में भारतीय अपने-आपको भारतीय स्वतंत्रता संघों (आई.आई.एल.) में संगठित कर रहे थे। फुजीवारा ने मलाया में जित्रा के समीप जंगल में ज्ञानी प्रीतमसिंह से कैप्टन मोहनसिंह की ऐतिहासिक भेंट करवाई और इसी दिन प्रथम आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) के विचार का जन्म हुआ। प्रीतमसिंह ने मोहनसिंह को भारतीय स्वतंत्रता संघ के उद्देश्यों को समझाया और उनसे संघ में सम्मिलित होकर आजाद हिंद फौज बनाने का आग्रह किया। कैप्टन मोहनसिंह पहले से ही भारत से विदेशी शासकों को निकालने के लिए आजाद हिंद फौज बनाने के बारे में सोच रहे थे। जापानी सरकार के हरसंभव सहयोग के आश्वासन के बाद 15 दिसंबर, 1941 को मोहनसिंह युद्धबंदी भारतीयों को लेकर एक भारतीय राष्ट्रीय सेना (इंडियन नॅशनल आर्मी) गठित करने को तैयार हो गये। इस प्रकार आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) सांकेतिक रूप से मलाया में बनी और कैप्टन मोहनसिंह इस मुक्ति सेना के जनरल आफिसर कमांडिग (जी.ओ.सी.) नियुक्त किये गये। फरवरी, 1942 में फासीवादी इटली ने भी भारतीय युद्धबंदियों और भारत तथा फारस में पहले से रह रहे इटालियनों को लेकर आजाद हिंदुस्तान बटालियन का गठन किया था।

सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) Subhash Chandra Bose and Azad Hind Fauj (INA)
कैप्टन मोहनसिंह और मेजर फूजीवारा

15 फरवरी, 1942 को जापानियों ने अमरीका, ब्रिटेन, चीन और डच सरकारों के ए.बी.सी.डी. मोर्चे को पराजित कर सिंगापुर पर अधिकार कर लिया और अंग्रेज भारतीय सैनिकों को वहीं उनके भाग्य पर छोड़कर भाग आये, तो जापानियों ने उन्हें युद्धबंदी बना लिया। 17 फरवरी को सिंगापुर के कैरर पार्क में फुजीवारा और कैप्टन मोहनसिंह की अपील पर लगभग 45,000 भारतीय युद्धबंदियों में से आधे से अधिक भारत की मुक्ति के लिए आजाद हिंद फौज (इंडियन नॅशनल आर्मी) में शामिल होने के लिए राजी हो गये। इस प्रकार प्रथम भारतीय राष्ट्रीय सेना (आई.एन.ए.) की औपचारिक स्थापना अप्रैल, 1942 में की गई। इसी बीच सिंगापुर के भारतीयों को टोक्यो से एक पुराने बंगाली क्रांतिकारी रासबिहारी बोस का निमंत्रण मिला, जो कई सालों से जापान में रह रहे थे।

रासबिहारी बोस ने 28-30 मार्च, 1942 को टोक्यो में सुदूरपूर्व के भारतीय नागरिकों का एक सम्मेलन आयोजित किया। सिंगापुर से भारतीयों के प्रतिनिधि के रूप में जनरल मोहनसिंह और कर्नल निरंजनसिंह गिल भी टोक्यो सम्मेलन में सम्मिलित हुए। इसी समय एक वायुयान दुर्घटना में ज्ञानी प्रीतमसिंह, स्वामी सत्यानंदपुरी, कैप्टन मुहम्मद अकरम तथा के.ए. अय्यर की मृत्यु हो गई, जो टोक्यो सम्मेलन में भाग लेने जा रहे थे। रायटर ने इस विमान दुर्घटना में सुभाषचंद्र बोस के भी मारे जाने की बात कही थी, जबकि उस समय सुभाषबाबू जापान से बहुत दूर बर्लिन में थे। बाद में, रायटर ने इस समाचार का खंडन किया था।

टोक्यो सम्मेलन में एक असैनिक राजनीतिक संगठन के रूप में भारतीय स्वतंत्रता संघ (इंडियन इंडिपेंडेंस लीग) का गठन किया गया, जो दक्षिण-पूर्व एशिया के सभी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती थी। इस सम्मेलन के लिए जापान के प्रधानमंत्री जनरल तोजो ने संदेश भेजा कि जापानी सरकार भारत को स्वतंत्र कराने के लिए हरसंभव सहायता देगी।

टोक्यो सम्मेलन के बाद बैंकाक में 14 से 23 जून 1942 ई. तक भारतीय स्वतंत्रता संघ (आई.आई.एल.) का सम्मेलन रासबिहारी बोस की अध्यक्षता में हुआ। इस सम्मेलन में स्याम, मलय, ब्रह्मदेश, हिंद-चीन, मंचूरिया, जापान, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, फिलिपींस, चीन आदि देशों के कुल मिलाकर सवा सौ प्रतिनिधि उपस्थित थे, जिनमें कुछ महिलाएँ भी थीं। इस सम्मेलन में इंडियन नेशनल आर्मी को भारतीय स्वतंत्रता संघ की अधीनस्थ सैन्य शाखा घोषित किया गया। सम्मेलन में स्पष्ट रूप से कहा गया कि इंडियन नेशनल आर्मी का उपयोग केवल भारत मे रहने वाले विदेशियों के विरुद्ध और भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता की प्राप्ति और रक्षा के लिए ही होगा। रासबिहारी बोस को भारतीय स्वतंत्रता संघ के कार्यकारी मंडल का अध्यक्ष और मोहनसिंह को भारतीय स्वतंत्रता सेना (इंडियन नेशनल आर्मी) का जनरल ऑफिसर कमांडिग चुना गया। इसी सम्मेलन में सुभाषचंद्र बोस को आजाद हिंद फौज की कमान सँभालने के लिए आमंत्रित किया गया और जापान सरकार से अपील की गई कि वह नेताजी को पूर्वी एशिया में लाने की व्यवस्था करे।

जब जापानी सेना ने दक्षिण पूर्व एशिया के लगभग सभी देशों पर अधिकार कर भारतीय युद्धबंदियों को मोहनसिंह को सौंपना प्रारंभ किया, तो वे निरंजनसिंह गिल के सहयोग से उन्हें भारतीय राष्ट्रीय सेना (आई.एन.ए.) में भर्ती करने लगे। मोहनसिंह ने 1 सितंबर, 1942 को आजाद हिंद फौज या भारतीय राष्ट्रीय सेना (आई.एन.ए.) की पहली डिवीजन का गठन किया, जिसमें जापान द्वारा युद्धबंदी बनाये गये लगभग 16,300 भारतीय सैनिक थे। बाद में जापान ने 64,000 युद्धबंदियों को भी भारतीय राष्ट्रीय सेना (आई.एन.ए.) में शामिल होने के लिए छोड़ दिया। 1942 के अंत तक लगभग 40 हजार भारतीय युद्धबंदी इंडियन नेशनल आर्मी में शामिल होने के लिए राजी हो गये।

यद्यपि जापानी प्रधानमंत्री जनरल तोजो ने डायट (जापानी संसद) में भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में घोषणा की थी, किंतु बैंकाक सम्मेलन के छह माह बाद ही धीरे-धीरे स्थिति बिगड़ने लगी क्योंकि भारतीयों के प्रति जापानियों का व्यवहार बहुत संतोषजनक नहीं था। वस्तुतः जापानी अधिकारी आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) को एक सहयोगी सेना मानने की बजाय एक अनुचर शक्ति ही मान रहे थे, जबकि मोहनसिंह भारतीय राष्ट्रीय सेना को एक स्वतंत्र इकाई रखना चाहते थे। परिषद् की सहमति प्राप्त किये बिना ही जनरल मोहनसिंह की इच्छा के विरुद्ध जापानी भारतीय राष्ट्रीय सेना को मनमानी आज्ञा देने लगे और उसके कार्यों में हस्तक्षेप करने लगे। फलतः दिसंबर, 1942 तक आते-आते आजाद हिंद फौज की भूमिका के प्रश्न पर मोहनसिंह और जापानी अधिकारियों के बीच तीव्र मतभेद पैदा हो गये। जब मोहनसिंह ने भारतीय राष्ट्रीय सेना की स्वतंत्र और सहयोगी की स्थिति पर जोर दिया, तो 29 दिसंबर, 1942 को मोहनसिंह तथा कर्नल निरंजनसिंह गिल गिरफ्तार कर लिये गये। जापान द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद दिसंबर, 1942 में पहली आजाद हिंद फौज एक प्रकार से विघटित हो गई और भारतीय राष्ट्रीय सेना (आई.एन.ए.) का पहला प्रयोग लगभग पूरी तरह असफल हो गया।

कैप्टन मोहनसिंह की गिरफ्तारी के बाद भारतीय स्वतंत्रता संघ के प्रमुख रासबिहारी बोस जापान से वायुयान द्वारा सिंगापुर आये। उन्होंने जापानियों से वार्तालाप कर लेफ्टिनेंट कर्नल जगन्नाथ भोंसले और एम.जेड. कियानी के साथ मिलकर जनवरी, 1943 में पुनः भारतीय स्वतंत्रता संघ और आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) की पुनर्रचना का कार्य आरंभ किया। उन्होंने मार्च, 1943 में संघ का मुख्यालय बैंकाक से सिंगापुर स्थानांतरित किया और अपनी वृद्धावस्था के बावजूद बड़े धैर्य तथा साहस के साथ सुभाषचंद्र बोस के सिंगापुर पहुँचने तक भारतीय स्वतत्रंता संघ और आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) का भार उठाये रखा।

सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फौज

आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) का दूसरा चरण तब प्रारंभ हुआ, जब सुभाषचंद्र बोस 2 जुलाई, 1943 को रासबिहारी बोस के साथ टोकियो से सिंगापुर पहुँचे, जहाँ भारतीय स्वतंत्रता संघ, आई.एन.ए. के अधिकारियों और उत्साही समर्थकों ने उनका जबर्दस्त स्वागत किया। 3 जुलाई को सुभाष ने आजाद हिंद फौज के नेताओं और स्वाधीन भारत संघ के प्रतिनिधियों के साथ विचार-विमर्श किया। रासबिहारी बोस ने 4 जुलाई, 1943 को सिंगापुर के कैथे हॉल में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व सुभाषचंद्र बोस को सौंप दिया। सहायता और बराबरी के व्यवहार के जापानी आश्वासन के बाद सुभाषचंद्र बोस ने तुरंत आजाद हिंद फौज का नेतृत्व सँभाल लिया। उन्होंने 5 जुलाई, 1943 को सिंगापुर के टाउनहाल के सामने एक बड़े मैदान में सर्वोच्च सेनापति के रूप में आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) के अधिकारियों एवं सैनिकों से भव्य परेड में सलामी ली और सैनिकों को संबोधित करते हुए  ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया। दूसरे दिन 6 जुलाई को जापान के प्रधानमंत्री जनरल तोजो ने सिंगापुर आकर आई.एन.ए. की परेड का निरीक्षण किया और मुक्ति सेना को बधाई दी। तीन दिन बाद 9 जुलाई को सिंगापुर में एक उत्साहवर्धक सामूहिक रैली में भाषण देते हुए नेताजी ने संपूर्ण सेना से अंतिम युद्ध के लिए तैयार होने के लिए भावुक अपील की: ‘‘मुझे तीन लाख सैनिक और तीन करोड़ डालर चाहिए। मुझे मृत्यु से न डरने वाली भारतीय महिलाओं का एक दल भी चाहिए जो 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना झांसी की रानी की तरह युद्ध में तलवार चला सके।’’ उन्होंने डा. लक्ष्मी सहगल (स्वामीनाथन) को महिला विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया।

सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) Subhash Chandra Bose and Azad Hind Fauj (INA)
आजाद हिंद फौज का निरीक्षण करते नेताजी

बोस ने सिंगापुर में आजाद हिंद फौज का मुख्यालय बनाया और भारतीय राष्ट्रीय सेना को अधिक अनुशासित तथा प्रभावी बल बनाने के लिए उसका पुनर्गठन किया। नेताजी ने जन, धन तथा हथियार की व्यवस्था करने के लिए मलाया का एक तूफानी दौरा किया और दक्षिण पूर्व एशिया में रहने वाले भारतीयों से संपर्क कर भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए उनका समर्थन तथा सहयोग माँगा। पूर्वी एशिया में आजाद हिंद फौज में सम्मिलित होने के इच्छुक स्वयंसेवकों की भर्ती तथा प्रशिक्षण के लिए शिविर खोले गये और हजारों की संख्या में युवा भारतीय भारत की स्वतंत्रता की सशस्त्र लड़ाई में अपने जीवन की आहुति देने के लिए प्रस्तुत हुए। मलाया में ही सुभाषबाबू ने ‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’’ का प्रसिद्ध नारा दिया था।

नेताजी के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप तीन माह में ही आजाद हिंद फौज का पुनर्गठन हो गया जिसके उसके सैनिकों की संख्या 13,000 से बढ़कर लगभग 60,000 हो गई, जिनमें मलाया, सिंगापुर और बर्मा में जापानी सेनाओं द्वारा बंदी बनाये गये भारतीय युद्धबंदियों के अलावा दक्षिण पूर्व एशिया के अनेक देशों में रहनेवाले भारतीय भी थे। इस पुनर्गठित आजाद हिंद फौज की एक प्रमुख विशेषता थी कि अलग-अलग धार्मिक पृष्ठभूमि के बावजूद सैनिकों के दैनिक कार्य एकता, निष्ठा और त्याग के उच्चतम आदर्श की भावना से प्रेरित थे और उनके बीच कोई भेदभाव नहीं था।

आजाद हिंद फौज को पाँच ब्रिगेडों विभाजित किया गया तथा इन पाँच ब्रिगेडों के नाम पाँच स्वतंत्रता सेनानियों- गांधी, नेहरू, मौलाना आज़ाद, सुभाष और झाँसी की रानी के नाम पर रखे गये। गांधी ब्रिगेड के सेनापति कर्नल इनायत कयानी, नेहरू बिगेड के कर्नल गुरुबख्शसिंह ढिल्लन, आजाद ब्रिगेड के कर्नल गुलमारासिंह, सुभाष ब्रिगेड के सेनापति कर्नल शाहनवाज खाँ थे। महिला ब्रिगेड रानी झाँसी की कमान कैप्टन लक्ष्मी सहगल (स्वामीनाथन) के हाथ में थी। यही नहीं, आजाद हिंद फौज के अभियान पोस्टर पर भी, जिसमें ‘चलो दिल्ली’ का नारा था, गांधीजी और जवाहरलाल नेहरू का चित्र छपा था। एक अन्य पोस्टर पर सुभाषचंद्र बोस और गांधीजी दोनों के उद्धरण अंकित थे। अब आजाद हिंद फौज पूर्वी एशिया के भारतीयों के बीच एकता और बहादुरी का प्रतीक बन चुकी थी और युद्धस्थल की ओर प्रयाण के लिए तैयार थी। इस प्रकार नेताजी ने सीमित संसाधनों के बावजूद भारतीयों को एक ऐसे साम्राज्य के विरुद्ध एकजुट किया, जिसमें ’सूरज नहीं डूबता था।’

आजाद हिंद सरकार का गठन

21 अक्टूबर, 1943 भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास का स्वर्णिम दिन है, क्योंकि इसी दिन नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आज़ाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सिंगापुर के कैथे सिनेमा हॉल में ‘अर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिंद’ (स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार) की घोषणा की थी और भारतवासियों से देश की स्वतंत्रता के लिए युद्ध करने तथा भारतीय झंडे के नीचे आने का आह्वान किया था। आज़ाद हिंद सरकार की घोषणा के बाद नेताजी ने शपथ ली कि ‘‘मैं सुभाषचंद्र बोस ईश्वर को साक्षी मानकर पवित्र शपथ लेता हूँ कि अपने भारत और उसके 38 करोड़ देशवासियों की स्वाधीनता के लिए अपनी अंतिम साँस तक स्वतंत्रता का पावन युद्ध लड़ता रहूँगा।’’ नेताजी के बाद अन्य सदस्यों ने भी अपने जीवन की अंतिम साँस तक भारत की स्वतंत्रता की पवित्र लड़ाई जारी रखने की शपथ ली। इस शपथ-ग्रहण के बाद ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘आजाद हिंद जिंदाबाद’ के गगनभेदी नारों से पूरा वातावरण गूँज उठा।

सुभाषबाबू आजाद हिंद सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष नियुक्त किये गये। लै. कर्नल एस.सी. चटर्जी को वित्त विभाग, एस.ए. अय्यर को प्रचार प्रचार एवं प्रसारण विभाग और लक्ष्मी स्वामीनाथन को महिला संगठन की जिम्मेदारी सौंपी गई। अब दक्षिण पूर्व एशिया में रहने वाले भारतीय प्रवासी आधिकारिक तौर पर सिंगापुर की आजाद हिंद सरकार के अधिकार क्षेत्र में थे। आजाद हिंद सरकार के पास अपनी सेना, अपना ध्वज, अपना बैंक, अपनी मुद्रा, अपना डाकटिकट और अपनी गुप्तचर सेवा थी। यही नहीं, इस अस्थायी सरकार को कर एकत्र करने, कानून लागू करने और अपनी सेना के लिए सैनिकों की भर्ती करने का भी अधिकार था। आजाद हिंद सरकार ‘पूर्ण स्वराज्य’ नामक दैनिक और ‘जयहिंद’ नामक पत्र भी प्रकाशित करती थी।

आजाद हिंद सरकार को जापान ने तुरंत तथा बाद में धुरी शक्तियों और उनके सहयोगी जर्मनी, फासीवादी इटली समेत बर्मा, फिलीपींस, थाईलैंड, राष्ट्रवादी चीन, कोरिया, मांचुको, आयरलैंड जैसी ग्यारह अन्य सरकारों ने मान्यता दे दी। यद्यपि आजाद हिंद सरकार को जापान और अन्य धुरी शक्तियों से प्राप्त मान्यता महत्त्वपूर्ण थी, किंतु यह सरकार जापानी सहायता पर निर्भर थी। बाद में, जापान की पराजय के बाद 18 अगस्त, 1945 को यह सरकार समाप्त हो गई।

सिंगापुर में अस्थायी सरकार की स्थापना के दो महीने बाद, दिसंबर, 1943 में जापानी प्रधानमंत्री जनरल तोजो ने अंडमान और निकोबार द्वीपों को, जिन्हें जापान ने पूर्वी एशिया युद्ध में बहुत पहले जीता था, आजाद हिंद की अस्थायी सरकार को सौंप दिया। यह ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त होने वाला पहला भारतीय क्षेत्र बन गया। नेताजी भारत के पहले स्वतंत्र प्रदेश अंडमान गये और 30 दिसंबर, 1943 को पोर्ट ब्लेयर में भारत का राष्ट्रीय तिरंगा झंडा फहराये। उन्होंने अंडमान द्वीप का नया नाम ‘शहीद’ तथा निकोबार द्वीप का नाम ‘स्वराज्य’ रखा और ले. कर्नल ए.डी. लोगनादान को अस्थायी सरकार की ओर से इन द्वीपों का प्रथम भारतीय प्रशासक नियुक्त किया गया।

ब्रिटेन और अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा

सुभाषबाबू की अस्थायी आजाद हिंद सरकार ने मंत्रिमंडल की सर्वसम्मति से अक्टूबर, 1943 के अंतिम सप्ताह में पादंग में आई.एन.ए. तथा भारतीयों की एक सार्वजनिक रैली में ब्रिटेन और मित्रराष्ट्र अमेरिका के विरुद्ध युद्ध घोषित करने का निर्णय लिया। अब आजाद हिंद की अस्थायी सरकार, आई.एन.ए. और स्वतंत्रता लीग पूर्णरूप से तैयार थी। आई.एन.ए. की विभिन्न ब्रिगेडों और झाँसी की रानी रेजीमेंट में भर्ती तथा प्रशिक्षण का कार्य तेजी से चल रहा था। पूर्व एशिया में धन और अन्य आवश्यक सामग्रियों के संग्रह के साथ-साथ सिंगापुर, बैंकाक, रंगून, सैगोन एवं टोकियो से आजाद हिंद रेडियो स्टेशन से कार्यक्रम भी प्रसारित किये जा रहे थे।

नेताजी ने जनवरी, 1944 के पहले सप्ताह में आजाद हिंद सरकार, भारतीय स्वतंत्रता लीग तथा आई.एन.ए. का मुख्यालय सिंगापुर से रंगून (बर्मा) स्थानांतरित कर दिया, जिससे नेताजी एवं मुक्ति सेना के लिए भारत के पूर्वी द्वार तक पहुँचना और अंग्रेजों को अपनी मातृभूमि से बाहर निकालने के लिए भारत के अंदर प्रवेश करना आसान हो गया। वास्तव में, आजाद हिंद फौज की मुख्य इच्छा जापानियों की एक सहयोगी सेना के रूप में बर्मा से गुजरते हुए इम्फाल (मणिपुर) और फिर असम में प्रवेश करने की थी, जहाँ आशा थी कि भारतीय जनता अपनी मातृभूमि की मुक्ति के लिए खुला विद्रोह करके इस सेना से आ मिलेगी। अपनी मातृभूमि को स्वाधीन कराने के विचार से प्रेरित आजाद हिंद फौज के सैनिक अधिकारी यह उम्मीद करने लगे कि वे स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार के प्रमुख सुभाषचंद्र बोस के साथ भारत में उसके मुक्तिदाताओं के रूप में प्रवेश करेंगे।

इंफाल और कोहिमा का युद्ध

इंफाल और कोहिमा के युद्ध में आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) के सैनिकों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो भारत के स्वतंत्रता संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। रंगून (बर्मा) में मुख्यालय स्थापित होने के बाद आजाद हिंद फौज मलाया से थाईलैंड एवं बर्मा होती हुई भारत की सीमा तक पहुँच गई और 4 फरवरी, 1944 को अराकान युद्ध से भारतीय स्वतंत्रता का युद्ध छेड़ दिया। फरवरी से जून, 1944 के मध्य आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) की तीन ब्रिगेडों के लगभग 20 हजार सैनिकों ने जापानियों के ‘ऑपरेशन यू-गो’ में भारत की उत्तर पूर्वी सीमा पर युद्ध किया और वह रंगून (यांगून) से होती हुई थलमार्ग से भारत की ओर बढ़ती गई। 18 मार्च, 1944 को आजाद हिंद फौज कोहिमा तथा इंफाल के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई। 21 मार्च, 1944 को ‘दिल्ली चलो’ के नारे के साथ आजाद हिंद फौज का हिंदुस्तान की धरती पर आगमन हुआ। कहा जाता है कि कर्नल एस.ए. मलिक के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज की एक टुकड़ी ने मणिपुर के मोइरांग में 14 अप्रैल, 1944 को भारतीय ध्वज फहराया, जो भारतीय मुख्यभूमि पर फहराया गया पहला तिरंगा था। इस प्रकार आजाद हिंद फौज ने सांकेतिक रूप से भारतभूमि के एक भाग को अंग्रेजी शासन से मुक्त करा दिया और मोइरांग भारत की भावी पीढ़ियों के लिए एक तीर्थस्थल बन गया। नेताजी ने सीमा पर खड़े होकर अपनी मातृभूमि की ओर संकेत करके कहा था: ‘‘उस नदी के पार, उस जंगल के पार, उन पहाड़ियों के पार हमारी मातृभूमि स्थित है- वह भमि जिसकी मिट्टी से हमने जन्म लिया है- वह भूमि जहाँ अब हम वापस जायेंगे। दिल्ली की सड़क स्वतंत्रता की सड़क है, चलो दिल्ली।’’

8 अप्रैल, 1944 को आजाद हिंद फौज के सैनिकों ने आगे बढ़कर इंफाल को घेर लिया और 18 अप्रैल, 1944 को उस पर चारों ओर से आक्रमण किया। 22 अप्रैल, 1944 से मई, 1944 तक घमासान युद्ध हुआ क्योंकि ब्रिटिश सेना इंफाल को बचाने के लिए कठिन युद्ध कर रही थी। किंतु बर्मा में मई के अंत में मूसलाधार बारिश आरंभ हो गई, जिससे भारतीय सेना की सफलता विफलता में बदल गई। अंततः वायुसेना के अभाव, कमान की शृंखला के भंग होने, खाद्य वस्तुओं तथा औषधियों की कमी और मित्रराष्ट्रों के हमले के जोर से 27 जून को इंफाल अभियान विफल हो गया और आजाद हिंद सेना युद्धभूमि से पीछे हटने लगी। इस अभियान में आजाद हिंद फौज और जापानी सैनिकों को जीवित रहने के लिए घास तथा जंगली फूल तक खाने पड़े।

रंगून रेडियो से संबोधन

नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने 6 जुलाई, 1944 को रंगून रेडियो पर बोलते हुए गांधीजी से भारत की स्वाधीनता के लिए आशीर्वाद माँगा: ‘‘भारत की स्वतंत्रता का अंतिम युद्ध आरंभ हो चुका है। आजाद हिंद फौज भारतभूमि पर वीरतापूर्वक लड़ रही है और अनेक कठिनाइयों के होते हुए भी धीरे-धीरे दृढ़ता से आगे बढ़ रही है। यह सशस्त्र युद्ध उस समय तक चलता रहेगा जब तक हम अंतिम अंग्रेज को भारत से बाहर नहीं निकाल देंगे और हमारा तिरंगा नई दिल्ली में वायसराय भवन पर न फहराने लगेगा।’’

‘‘राष्ट्रपिता! भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभकामना चाहते हैं।’’ इस प्रकार सुभाषचंद्र बोस ने पहली बार महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ के रूप में संबोधित किया था।

आजाद हिंद फौज की कोहिमा और इंफाल में पराजय एक दुखद घटना थी। 10 जुलाई, 1944 को जापानियों ने नेताजी को सूचित किया कि उनकी सैन्य स्थिति की रक्षा नहीं की जा सकती और पीछे हटने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। अगस्त, 1944 में नेताजी ने सार्वजनिक रूप से इंफाल अभियान की विफलता को स्वीकार कर लिया और आजाद हिंद फौज ने आक्रामक युद्ध बंद कर दिया। आजाद हिंद फौज का ब्रिटिश सेना से आखिरी टकराव बर्मा की पोपा पहाड़ियों में हुआ, जहाँ अंग्रेजी सेना का भारी पड़ा। इसके बाद यह उम्मीद टूट गई कि आजाद हिंद फौज अपनी सैन्य-मुहिम के द्वारा भारत को स्वाधीनता दिला सकती है।

फिर भी, नेताजी ने हिम्मत नहीं हारी और उसी समय घोषित किया कि बर्षा के बाद पुनः आक्रमण की तैयारी की जायेगी। सितंबर, 1944 के प्रथम सप्ताह मे रंगून में स्वाधीनता संघ का सम्मेलन प्रारंभ हुआ और इसके बाद 22 सितंबर, 1944 को ‘शहीद दिवस’ मनाया गया। शहीद दिवस के अवसर पर नेताजी ने आह्वान किया कि ‘‘हमारी मातृभूमि स्वतंत्रता की खोज में है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा। यह स्वतंत्रता की देवी की माँग है।’’

इस समय विश्वयुद्ध की परिस्थितियाँ भी तेजी से प्रतिकूल होती जा रही थीं। 23 अप्रैल, 1945 को ब्रिटिश सेना के रंगून पहुँचने की सूचना पर नेताजी बड़ी अनिच्छा से रंगून छोड़कर सिंगापुर लौट गये। ब्रिटिश सेना के रंगून पर अधिकार करने के बाद जापानी सेना के साथ आजाद हिंद फौज को भी आत्मसमर्पण करना पड़ा। 7 मई, 1945 को जर्मनी ने अपनी पराजय स्वीकार कर ली। जब अमेरिका ने पहले 6 अगस्त, फिर 9 अगस्त, 1945 को जब जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर ‘लिटिल ब्वाय’ और ‘फैटमैन’ नामक परमाणु बम गिरा दिया, तो जापान को भी आत्मसमर्पण करना पड़ा।

जापानियों के समर्पण के बाद नेताजी ने रूस अधिकृत मंचूरिया जाकर सोवियत संघ (रुस) से मदद लेने की योजना बनाई। उन्होंने सिंगापुर छोड़ने से पूर्व 15 अगस्त, 1945 को अपने अंतिम दैनिक आदेश में आजाद हिंद फौज के सैनिकों से कहा: ‘‘दिल्ली पहुँचने के अनेक रास्ते हैं और दिल्ली अभी भी हमारा अंतिम लक्ष्य है।’’ नेतीजी ने आशा व्यक्त कि ‘भारत आजाद होगा और जल्दी ही आज़ाद होगा।’ नेताजी 18 अगस्त, 1945 को टोक्यो जाने के लिए सैंगोन (सिंगापुर) से मित्शुबिसी के-21 बमबर्षक विमान में सवार हुए, किंतु कहा जाता है कि ताइवान (अब ताइपेई) के ताइहोकू हवाई अड्डे के निकट वायुयान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। वैसे आज भी अनेक भारतीय मानते हैं कि कथित वायुयान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु नहीं हुई थी।

आजाद हिंद फौज का महत्त्व

यद्यपि तत्कालीन भारत के अधिकांश राष्ट्रवादी नेताओं ने सुभाषचंद्र बोस की इस रणनीति की आलोचना की थी कि फासीवादी ताकतों के साथ सहयोग करके स्वाधीनता प्राप्त की जाए। फिर भी, आजाद हिंद फौज की स्थापना और उसके लड़ाकूपन ने भारतीय जनता और भारतीय सेना के समक्ष देशभक्ति का एक प्रेरणाप्रद उदाहरण प्रस्तुत किया।

यद्यपि आजाद हिंद फौज के माध्यम से भारत को ब्रितानी हुकूमत के चंगुल से आजाद करने का नेताजी का प्रयास प्रत्यक्ष रूप में सफल नहीं हो सका, किंतु उसके दूरगामी परिणाम हुए। जब आजाद हिंद फौज के बंदी सिपाहियों को वापस भारत लाकर नवंबर, 1945 में दिल्ली के ऐतिहासिक लालकिले में प्रसिद्ध मुकदमा चलाया गया, तो उनके बचाव में देश में एक और सशक्त जन-आंदोलन छिड़ गया, जिससे ब्रिटिश हुकूमत भयभीत हो गई और अंततः भारत छोड़ने का निश्चय किया।

इन्हें भी पढ़ सकते हैं-

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख तत्त्व 

मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य

अठारहवीं शताब्दी में भारत

बाबर के आक्रमण के समय भारत की राजनैतिक दशा 

विजयनगर साम्राज्य का उत्थान और पतन

भारत में सांप्रदायिकता के उदय के कारण 

भारत पर ईरानी और यूनानी आक्रमण 

आंग्ल-सिख युद्ध और पंजाब की विजय 

नेपोलियन बोनापार्ट 

प्रथम विश्वयुद्ध, 1914-1918 ई. 

पेरिस शांति-सम्मेलन और वर्साय की संधि 

द्वितीय विश्वयुद्ध : कारण, प्रारंभ, विस्तार और परिणाम 

भारत में राष्ट्रवाद का उदय

यूरोप में पुनर्जागरण पर बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

प्राचीन भारतीय इतिहास पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

जैन धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

बौद्ध धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1

आधुनिक भारत और राष्ट्रीय आंदोलन पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1

भारत के प्राचीन इतिहास पर आधारित क्विज-1 

भारत के मध्यकालीन इतिहास पर आधारित क्विज-1

भारत के मध्यकालीन इतिहास पर आधारित क्विज-1 

सिंधुघाटी की सभ्यता पर आधारित क्विज 

राष्ट्र गौरव पर आधारित क्विज 

शाकम्भरी का चाहमान (चौहान) राजवंश 

error: Content is protected !!
Scroll to Top