1945 के आते-आते ब्रिटिश शासकों को आभास हो गया था कि अब साम्राज्यवादी खेल खत्म हो गया है और उन्हें जल्द ही भारत छोड़कर जाना होगा। इसी पृष्ठभूमि में मार्च 1945 में वेवल लंदन गये और ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल तथा भारतमंत्री एमरी से भारत के संबंध में व्यापक सलाह-मशविरा किया। इस समय विंस्टन चर्चिल की रूढ़िवादी सरकार कई कारणों से भारत की संवैधानिक समस्या का त्वरित समाधान चाहती थी। एक तो, मई 1945 में यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्ति की अवस्था में पहुँच चुका था, किंतु भारत पर जापान के आक्रमण का भय अभी भी बना हुआ था। विश्वयुद्ध में मित्रराष्ट्रों की स्थिति लगातार कमजोर होती जा रही थी और अमेरिका, चीन आदि देश ब्रिटेन पर लगातार यह दबाव डाल रहे थे कि वह जल्दी से जल्दी भारत का समर्थन प्राप्त करें, किंतु भारतीय नेता संवैधानिक समस्या के ठोस समाधान के अभाव में ब्रिटिश सरकार का सहयोग करने के लिए तैयार नहीं थे। ऐसे में, ब्रिटिश सरकार चाहती थी कि भारत की संवैधानिक समस्या का जल्दी से जल्दी समाधान किया जाए। दूसरे, 1945 के मध्य में इंग्लैंड में चुनाव होने वाले थे और विंस्टन चर्चिल के नेतृत्व वाली कंजरवेटिव पार्टी यह दिखाना चाहती थी कि वह भारत की समस्या के समाधान के लिए गंभीर है। इसी क्रम में मई 1944 में महात्मा गांधी को रिहा किये जाने के आदेश दिये गये।
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वेवेल योजना (1945)
भारत वापस लौटकर वायसरॉय वेवेल ने 14 जून 1945 को दिल्ली से एक रेडियो प्रसारण के माध्यम से भारत के संवैधानिक संकट के समाधान के लिए एक नई योजना का प्रस्ताव रखा, जिसे प्रायः ‘वेवेल योजना’ के नाम से जाना जाता है। इस योजना के अनुसार जब तक नया संविधान न बने, वायसरॉय की कार्यकारिणी परिषद् को पुनर्गठित किया जाए और उसमें सभी दलों को प्रतिनिधित्व दिया जाए। वायसरॉय की कार्यकारिणी परिषद् 1935 के भारत शासन अधिनियम के अंतर्गत एक अंतरिम सरकार के समान कार्य करेगी, जिसमें मुस्लिम और सवर्ण हिंदू सदस्यों की संख्या बराबर-बराबर होगी। गवर्नर जनरल (वायसरॉय) और मुख्य सेनापति के अतिरिक्त शेष सभी सदस्य भारतीय होंगे और प्रतिरक्षा विभाग वायसरॉय के अधीन रहेगा। यद्यपि गवर्नर-जनरल का निषेधाधिकार समाप्त नहीं किया जायेगा, किंतु उसका अनावश्यक रूप से प्रयोग नहीं होगा। विदेशी मामले (जिसमें जनजातीय तथा सीमाई मामले सम्मिलित नहीं होंगे क्योंकि वे रक्षा विभाग के अधीन माने जायेंगे) भारतीयों को सौंप दिये जायेंगे। कांग्रेस कार्यकारिणी के सभी सदस्य जेलों से छोड़ दिये जायेंगे। राजनीतिक दलों की एक संयुक्त सभा बुलाई जायेगी ताकि कार्यकारिणी की नियुक्ति के लिए एक सर्वसम्मत सूची प्रस्तुत की जा सके। यदि इस मसले पर आम सहमति नहीं बन सकी, तो इस कार्य के लिए पृथक्-पृथक् सूचियाँ प्रस्तुत की जायेंगी। इसी प्रकार उन प्रांतों में जहाँ मंत्रिपरिषदें भंग हो गई थीं और गवर्नर अपने पार्षदों की सहायता से कार्य कर रहे थे, वहाँ भी मिली-जुली सरकारें स्थापित हो जायेंगी। आशा व्यक्त की गई कि विश्व युद्ध में ब्रिटेन की निर्णायक विजय के बाद भारत के नये संविधान के निर्माण की आवश्यक प्रक्रिया प्रारंभ हो जायेगी। इसी क्रम में जून 1945 में कांग्रेसी नेता जेलों से रिहा कर दिये गये।
शिमला सम्मेलन
वेवेल योजना पर विचार-विमर्श करने के लिए 25 जून से 14 जुलाई 1945 तक ब्रिटिश भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला में एक सर्वदलीय सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसमें कांग्रेस, मुस्लिम लीग, परिगणित जातियों और सिखों के कुल 22 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसके साथ ही वेवेल ने सभी कांग्रेसी नेतओं को रिहा करने के भी आदेश दिये। वायसरॉय ने 14 कार्यकारी परिषद् की नियुक्ति का प्रस्ताव रखा, जिसमें 5 कांग्रेस, 5 मुस्लिम लीग और 4 वायसरॉय द्वारा मनानीत किये जाने थे। किंतु कार्यकारिणी परिषद् के गठन के सवाल पर कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों के बीच मतभेद पैदा हो गया। अतः तीन दिन की बातचीत के बाद सम्मेलन स्थगित कर दिया गया।
11 जुलाई 1945 को जिन्ना ने वायसरॉय वेवेल से भेंटकर यह माँग की कि वायसरॉय की कार्यकारिणी में मुस्लिम लीग से बाहर का कोई मुसलमान नहीं होना चाहिए। मंत्रिमंडल के सभी मुसलमान सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार एकमात्र मुस्लिम लीग को ही दिया जाय क्योंकि मुस्लिम लीग ही मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था है। वेवेल ने जिन्ना की माँग को अस्वीकार कर दिया क्योंकि कांग्रेस में न केवल बहुत से मुसलमान थे, बल्कि मुसलमानों की बहुसंख्या वाले उत्तर-पश्चिमी सीमा-प्रांत में एक कांग्रेस मंत्रिमंडल और पंजाब में यूनियनिस्ट (संघवादी दल) कार्य कर रहे थे। कांग्रेस ने मुस्लिम लीग की इस माँग को मानने से इनकार कर दिया क्योंकि इसका अर्थ यह स्वीकार करना होता कि कांग्रेस केवल सवर्ण हिंदुओं की पार्टी है और इस आधार पर कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना अबुलकलाम आजाद भी परिषद् के सदस्य नहीं हो सकते थे। इसके अतिरिक्त, कांग्रेस ने यह माँग की कि उसे अपने सदस्यों के मनोनयन में सभी संप्रदाय के सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार दिया जाय। अंततः वेवेल ने तीन दिन 14 जुलाई 1945 को शिमला सम्मेलन के विफलता की घोषणा कर दी।
शिमला सम्मेलन की विफलता के लिए जिन्ना और वेवेल आंशिक रूप से उत्तरदायी थे। एक समाचारपत्र वार्ता में जिन्ना ने कहा: ‘‘वेवेल योजना हमारे लिए एक फंदा था…इससे हम लोग मारे जाते…प्रस्तावित कार्यकारिणी में हमारी संख्या 1/3 रह जाती क्योंकि अन्य अल्पसंख्यक वर्ग, अनुसूचित जातियाँ, सिख और ईसाइयों के प्रतिनिधि होने थे और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि पंजाब से मलिक खिज्र हयात खाँ, जो लीगी नहीं थे, वेवेल उन्हें रखने पर हठ करते थे।’’ मौलाना अबुलकलाम आजाद ने भी इस गतिरोध के लिए जिन्ना को उत्तरदायी ठहराया है। यह सही है कि जिन्ना की समानता की माँग के कारण शिमला सम्मेलन विफल हो गया, लेकिन वेवेल भी बहुत हद तक सम्मेलन की असफलता के लिए उत्तरदायी थे। उन्हें भारतीय नेताओं से सलाह-मशविरा करके ही अपनी कार्यकारिणी की रचना करनी चाहिए थी। संभव है कि कुछ परिवर्तनों के साथ कांग्रेसी नेता उस सूची को स्वीकार कर लेते। गांधीजी क्रिप्स योजना को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे, किंतु वे वेवेल योजना को सही मानते थे जिसमें स्वतंत्रता निहित थी। आरंभ में वेवेल ने कांग्रेस को यह विश्वास दिलाया था कि किसी भी दल को इस योजना को लागू करने में जानबूझकर रूकावट डालने की अनुमति नहीं दी जायेगी। उन्हें लीग को इस योजना को अस्वीकार करने और उसकी प्रगति के मार्ग में बाधा डालने की अनुमति नहीं देनी चाहिए थी। किंतु ऐसा लगता है कि अंतिम समय में वेवेल को कुछ और आदेश मिले थे। वास्तव में, वेवेल द्वारा शिमला सम्मेलन को असफल कहकर समाप्त कर दिये जाने से मुस्लिम लीग व जिन्ना की स्थिति और भी मजबूत हो गई, जिसका प्रमाण 1945-1946 के चुनाव में मिला।
कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि शिमला सम्मेलन का स्थगन चर्चिल की सरकार पर लेबर पार्टी की संभावित विजय अथवा रूस के दबाव के कारण हुआ था। जो भी हो, मुस्लिम लीग और कांग्रेस के नेताओं के बीच विवाद के कारण भारत के संवैधानिक संकट को हल करने का एक और ब्रिटिश प्रयास असफल हो गया।
1940 से लेकर 1946 में कैबिनेट मिशन के आगमन तक जिन्ना या मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की माँग को कभी स्पष्ट नहीं किया। फिर भी, इस माँग की अस्पष्टता ने 1940 के दशक में लीग को मुस्लिम जनता की लामबंदी के लिए एक उत्तम साधन बना दिया। इस काल में मुस्लिम राजनीति अपने परंपरागत आधार अर्थात भूस्वामी कुलीनों के अलावा मुस्लिम जनता के एक भाग का समर्थन भी पाने लगी थी, खासकर पेशेवर लोगों और व्यापारी समूहों का, जिनके लिए एक अलग पाकिस्तान का अर्थ हिंदुओं से प्रतियोगिता की समाप्ति थी। इसके अलावा उसे अग्रणी उलेमा, पीरों और मौलवियों का भी राजनीतिक समर्थन मिला, जिन्होंने इस अभियान को एक धार्मिक वैधता प्रदान की।
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