विक्रम चोल (Vikram Chola, 1118-1135 AD)

विक्रम चोल (Vikram Chola, 1122-1135 AD)

कुलोत्तुंग प्रथम की मृत्यु के बाद 1122 ई. में विक्रम चोल राजसिंहासन पर बैठा, जिसे पुलिवेंदन कोलियार कुलपति उर्फ राजय्यार विक्रम चोलदेव के नाम से भी जाना जाता है। विक्रम चोल को 1089 ई. में उसके भाई राजराज चोडगंग के स्थान पर वेंगी का उपराजा बनाया गया था। अपने कार्यकाल के दौरान उसने पश्चिमी चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ की महत्त्वाकांक्षाओं पर नियंत्रण रखा। वेंगी के उपशासक के रूप में उसको कोलनु के शासक तेलंग भीम पर विजय प्राप्त करने और कलिंग को जलाने का श्रेय दिया गया है। शिलालेखों से ज्ञात होता है कि विक्रम ने 1110 ई. में अपने पिता की ओर से कलिंग देश में एक अभियान का नेतृत्व किया था।

तमिल लेखों के अनुसार कुलोत्तुंग ने 1118 ई में विक्रम चोल को वेंगी से बुलाकर युवराज और अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। विक्रम चोल ने 1122 ई. तक अपने पिता के सह-शासक के रूप में संयुक्त रूप से शासन किया और राजकेशरि सहित कई उपाधियाँ धारण की थी। बाद में, 1122 ई. में सिंहासनारूढ़ होने के बाद उसने परकेशरि की उपाधि ग्रहण की।

विक्रमचोल (Vikram Chola, 1118-1135 AD)
1126 ई. में चोल साम्राज्य

विक्रम चोल की उपलब्धियाँ

वेंगी में विक्रम चोल की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ ने वेंगी पर अधिकार कर उसे अपने अधीन कर लिया। 1126 ई. में विक्रमादित्य पष्ठ की मृत्यु हो गई और वेंगी में अराजकता फैल गई। विक्रम चोल ने इस स्थिति का पूरा लाभ उठाया और यदि पूरे वेंगी पर नहीं, तो कम से कम उसके आधे भाग पर अधिकार कर लिया, क्योंकि 1127 ई. में कोल्लीपाक नगर और षट्सहस्त्र देश का स्वामी महामंडलेश्वर नंबय विक्रम चोल के अधीन शासन कर रहा था। शक संवत् 1057 के एक अन्य लेख में वेलनाडु सरदार को चोलों के अधीन बताया गया है।

विक्रम चोल ने संभवतः वेंगी के साथ-साथ कोलार तथा गंगावाडि के कुछ प्रदेशों पर भी पुनः अधिकार कर लिया। उसके शासनकाल के दूसरे वर्ष के सुगदूर लेख और दसवें वर्ष के एक लेख से ज्ञात होता है कि उसके अधिकारियों ने गंगावाडि क्षेत्र में एक मंदिर तथा विमान का निर्माण करवाया था। उसके शासन के पंद्रहवें वर्ष के एक लेख में कहा गया है कि विक्रम चोल के पहुँचते ही शेलियों ने जंगलों में शरण ली, शेरल (चेर) समुद्र में घुस गये, शिंगल (सिंहल) भयभीत हो गये, कर्नाट, कोंगु, कोकण के लोग भाग गये, गंगों ने कर एवं उपहार दिये तथा अन्य राज्यों के शासक इसकी वंदना किये। यद्यपि यह विवरण अतिशयोक्तिपूर्ण है, किंतु ऐसा लगता है कि अंत में, विक्रम चोल अपने पिता द्वारा खोये हुए प्रदेशों को पुनः अधिकृत करने में सफल हो गया था।

विक्रम चोल एक लोकोपकारी एवं धार्मिक शासक था। उसके शासनकाल के छठवें वर्ष में अर्काट के क्षेत्र में भयानक बाढ़ आई। उत्तरी अर्काट से प्राप्त 1125 ई. के तिरुवत्तूर लेख से उस बाढ़ की भयावहता और उससे होनेवाली क्षति का पता चलता है। उस प्राकृतिक विपदा के समय चोल शासक ने अपनी प्रजा को राहत पहुँचाने का हरसंभव प्रयत्न किया था। वास्तव में, विक्रम चोल जनता की सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखता था और प्रजा की भलाई के लिए राज्य का भ्रमण करता रहता था। उसने 1122 ई. में कुंभकोनम् के समीप मुडिकोंडचोलपुरम् से एक शासकीय आदेश जारी किया था। 1123 ई. में वह चिंगलेपुट के एक मंडप में ठहरा हुआ था। इसी प्रकार 1124 ई. में वह वीरनारायण चतुर्वेदिमंगलम् (दक्षिण अर्काट) के राजमहल में और 1130 ई. में चिदंबरम् के राजमहल में रुका हुआ था। इस प्रकार विक्रम चोल अपने राज्य का बराबर दौरा करता था, जो प्रशासनिक दृष्टि से आवश्यक था।

विक्रम चोल की सबसे विशिष्ट उपाधि त्यागसमुद्र थी, जो उसके शिलालेखों और विक्रम चोलन उला में मिलता है। इसके अलावा, उसने त्यागावतार तथा अकलंक जैसी उपाधियाँ भी धारण की थी।

अभिलेखों में विक्रम चोल के कई अधिकारियों और सामंतों के नाम मिलते हैं। सेनापति नरलोकवीर और करुणाकर तोंडैमान अभी भी चोलों की सेवा कर रहे थे। आंध्र देश के सामंतों में एक सिद्धरस का पुत्र मधुरांतक पोट्टापी चोल था, जो पौराणिक करिकाल चोल के वंश का होने का दावा करता था। इसके अलावा, मुनैयर सरदार शोलकोन, ब्राह्मण कण्णन, वाणन (वाणकोवरैयर), अनंतपाल आदि महत्त्वपूर्ण थे।

विक्रम चोल महान शिवभक्त था। उसके ग्यारहवें वर्ष के लेखों से पता चलता है कि उसने 1128 ई. में चिदंबरम के नटराज मंदिर के विस्तार और संवर्धन के लिए प्रचुर धन दान दिया था। कहा जाता है कि उसने इस मंदिर के प्रदक्षिणापथ, गोपुरम्, मंडप तथा अन्य बाह्य भागों को स्वर्णमंडित करवाया था। उसने मंदिर के पास ही एक भी महल बनवाया था और अपना अधिकांश समय वहीं व्यतीत करता था।

विक्रम चोल अन्य धर्मों के प्रति भी उदार था और श्रीरंगम् में विष्णु (रंगनाथस्वामिन) मंदिर को भी संरक्षण दिया था। एस.के. आयंगर का मानना है कि वैष्णव संत रामानुज इसी के शासनकाल में दीर्घप्रवास से वापस आये थे।

विक्रम चोल विद्वानों का आश्रयदाता भी था। कलिंगत्तुप्परणि के लेखक जयंगोंडार ने अपना ग्रंथ विक्रम चोल को ही समर्पित किया है। कहा जाता है कि ओट्टकूतन भी विक्रम चोल का दरबारी कवि था, जिसने विक्रम चोल, कुलोत्तुंग द्वितीय और राजराज द्वितीय पर उला की रचना की थी। उसने तंजोर में एक अस्पताल की स्थापना की थी, जहाँ चरकसंहिता, रूपावतार तथा अष्टांगहृदय जैसे प्रसिद्ध आयुर्वेद ग्रंथों के पठन-पाठन की व्यवस्था थी।

विक्रम चोल की तीन रानियों के बारे में जानकारी मिलती है- त्यागपताका, मुक्कोकिलानाडिगल और नेरियन मादेवियार। इनमें त्यागपताका और मुक्कोक्किलान पटरानियाँ थीं। कुलोत्तुंग प्रथम की 1135 ई. में मृत्यु के बाद उसका पुत्र कुलोत्तुंग चोल द्वितीय उसका उत्तराधिकारी हुआ।

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