लॉर्ड लिटन (Lord Lytton, 1876-1880 AD)

लॉर्ड लिटन (1876-1880 ई.)

लॉर्ड नार्थब्रुक के त्यागपत्र देने के बाद ब्रिटिश प्रधानमंत्री बेंजामिन डिजरायली ने मध्य एशिया की घटनाओं को विशेष ध्यान में रखते हुए नवंबर, 1875 ई. में लॉर्ड लिटन (रॉबर्ट बुलवर लिटन एडवर्ड) को भारत का वायसराय नियुक्त किया। डिजरायली का लिटन को लिखा गया वह पहला पत्र ही इस बात का संकेत है कि उसको क्या करना था। पत्र में कहा गया था: ‘मध्य एशिया की शोचनीय अवस्था को एक राजनीतिज्ञ की आवश्यकता है और मैं विश्वास करता हूँ कि यदि आप इस उच्च पद को ग्रहण कर लें तो आपको एक ऐसा अवसर मिलेगा कि आप न केवल देश की सेवा कर सकेंगे, बल्कि चिरस्थायी कीर्ति के भागी भी बन सकेंगे।’

लॉर्ड लिटन (Lord Lytton, 1876-1880)
लॉर्ड लिटन

लॉर्ड लिटन ने एक बार पहले मद्रास की गवर्नरी अपने स्वास्थ्य के कारण ठुकरा दिया था, किंतु उसने वायसराय का पद स्वीकार कर लिया क्योंकि ‘यह एक बहुत ऊँचा और महान् आदेश था जिसको अस्वीकार करना कर्तव्य से विमुख होना होता।’ अप्रैल, 1876 ई. में लॉर्ड लिटन ने लॉर्ड नार्थब्रुक से वायसराय पद का कार्य भार ग्रहण कर लिया।

यद्यपि लिटन एक प्रतिभावान व्यक्ति, श्रेष्ठ साहित्यकार और उत्तम वक्ता था। वह वृत्ति से एक कूटनीतिज्ञ था और और यूरोप के कई देशों में इंग्लैंड का प्रतिनिधित्व कर चुका था। वह मृदुभाषी तथा सुसंस्कृत होने के साथ-साथ विख्यात कवि, उपन्यासकार और निबंधकार था और साहित्य जगत में ‘ओवन मैरिडिथ’ के नाम से प्रसिद्ध था।

किंतु लिटन का वायसरॉय नियुक्त होना बड़ा आश्चर्यजनक था क्योंकि उसे प्रशासन का कोई विशेष अनुभव नहीं था और वह भारत की परिस्थितियों की भी परिचित नहीं था। वह कल्पनाशील, अव्यावहारिक और सिद्धांतप्रिय था। चूंकि लिटन के विचारों पर तत्कालीन ब्रिटिश साम्राज्यवाद का गहरा प्रभाव था और डिजरायली के नवीन टोरीवाद में भी उसकी अटूट आस्था थी। यही कारण है कि डिजरायली ने उसे भारत का वायसराय का नियुक्त किया था।

आंतरिक प्रशासन और नीतियाँ

लिटन एक प्रतिक्रियावादी प्रशासक था। उसने भारत के आंतरिक प्रशासन में घोर साम्राज्यवादी और प्रतिक्रियावादी नीति को अपनाया, जिससे भारतीयों में असंतोष फैला और उनमें राष्ट्रीय चेतना जाग्रत हुई।

वास्तव में लिटन की आंतरिक नीति की असफलता का मुख्य कारण उसका साम्राज्यवादी दृष्टिकोण था। उसने इंग्लैंड के हितों की रक्षा के लिए भारतीय हितों की उपेक्षा की, भारतीयों की भावनाओं का तिरस्कार किया और औपनिवेशिक नीतियों का निंदनीय स्वरूप भारतीय जनता के समक्ष रखा। इस प्रकार उसका चार वर्षों का शासन (1876-1880 ई.) भारत में उपेक्षा एवं अत्याचार का काल था।

स्वतंत्र व्यापार की नीति

भारत का आर्थिक शोषण ब्रिटिश साम्राज्यवाद का एक अंग था। यह आर्थिक शोषण कई प्रकार से किया जाता था। इनमें एक ‘स्वतंत्र व्यापार’ की अवधारणा भी थी। स्वतंत्र व्यापार का अर्थ था कि ब्रिटिश उद्योगपतियों को भारत में शोषण की खुली छूट। स्वतंत्र व्यापार के नाम पर भारत सरकार लंकाशायर और मेनचेस्टर के सूती मिलों के हितों की रक्षा करती थी। इसी स्वतंत्र व्यापार के नाम पर भारतीय उद्योग-धंधों को नष्ट किया गया।

1870 ई. के बाद से भारतीय कपड़ा मिलों की संख्या में वृद्धि होने लगी थी। भारतीय मिलें प्रायः मोटा कपड़ा तैयार करती थीं और सस्ती मजदूरी के कारण भारतीय कपड़ा सस्ता होता था। यद्यपि लंकाशायर की मिलों का कपड़ा उत्तम क्वालिटी का होता था, फिर भी लंकाशायर के उद्योगपतियों को लगता था कि भारतीय वस्त्र उद्योग के विकास से भारत में उनका बाजार कम हो जायेगा। इसलिए उनकी माँग थी कि कपास मिल के माल पर लगे आयात शुल्कों को समाप्त कर दिया जाये। डिजरायली की रूढ़िवादी सरकार भी इसका समर्थन करती थी क्योंकि सत्ता में बने रहने के लिए उद्योगपतियों का समर्थन आवश्यक था ।

लिटन की कार्यकारी परिषद् आयात शुल्कों को समाप्त करने के पक्ष में नहीं थी। इस समय अफगान युद्ध तथा अकाल के कारण आर्थिक संकट भी था। फिर भी, सारी आपत्तियों की उपेक्षा करते हुए लिटन ने अपने विशेष अधिकार का प्रयोग करते हुए 29 वस्तुओं, जिनमें चीनी, लड्डा (मोटा कपड़ा), ड्रिल (जीन) आदि कपड़े सम्मिलित थे, आयात शुल्क हटा दिया। किंतु मानचेस्टर वाणिज्य मंडल इससे संतुष्ट नहीं हुआ, क्योंकि वह चाहता था कि मूल्य के अनुसार लगा 5 प्रतिशत शुल्क भी हटा दिया जाए। फलतः वायसराय ने अपनी संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग कर 1879 में मोटे विदेशी कपड़े से शुल्क समाप्त कर दिया। भारतमंत्री सैलिसबरी ने भी अपने विशेष अधिकार से वायसराय के कार्य का अनुमोदन कर दिया, यद्यपि भारत परिषद् में मत बराबर अर्थात् 7 पक्ष और 7 विपक्ष में, थे।

लंकाशायर के सूती मिल-मालिकों को लाभ पहुँचाने के लिए लिटन ने नील और लाख पर से भी निर्यात कर हटा दिया। कहा गया कि 1880 ई. में चुनाव होने वाले थे और उसमें रूढ़िवादी दल के हित-संवर्द्धन के लिए वायसराय ने यह कदम उठाया था। इस प्रकार भारतीय प्रशासन की आवश्यकताओं को ब्रिटिश राजनीति पर बलिदान कर दिया गया।

वित्तीय सुधार

लिटन के काल में वित्तीय सुधारों का कार्य वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् के वित्तीय सदस्य सर जान स्ट्रेची ने किया। वित्त सदस्य बनने से पहले स्ट्रेची उत्तरी-पश्चिमी प्रांत का गवर्नर रह चुका था। उसने शक्कर से ड्यूटी को समाप्त कर दिया और नमक कर व्यवस्था में भी सुधार किया। अभी तक विभिन्न प्रांतों में नमक तस्करी रोकने के लिए सरकार को जगह-जगह चुंगी की रुकावटें बनानी पड़ी थीं। स्ट्रेची ने सभी प्रांतों में नमक की दर को बराबर करने का प्रयत्न किया और चुंगी हटाकर नमक का आना-जाना आसान कर दिया। उसने भारतीय राजाओं को वित्तीय क्षतिपूर्ति के बदले नमक बनाने के अधिकार को छोड़ने के लिए प्रेरित किया और संपूर्ण भारत के नमक-उत्पादन पर अपना नियंत्रण स्थापित किया। इस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय तस्करी समाप्त हो गई और सरकार को नमक से अधिक कर मिलने लगा।

वित्तीय सुधारों के अंतर्गत दूसरा महत्वपूर्ण कार्य वित्त का विकेंद्रीकरण था। लॉर्ड मेयो ने 1870 ई. में प्रांतीय सरकारों में उत्तरदायित्व की भावना पैदा करना करने के लिए वित्तीय विकेंद्रीकरण की नीति को आरंभ किया था और जेल, रजिस्ट्रेशन, पुलिस, शिक्षा, डाक्टरी सेवाएँ, छपाई, सड़कें जैसे कुछ मदों से होने वाली आय प्रांतीय सरकारों को दे दिया गया था। इसके अतिरिक्त, प्रांतों को प्रतिवर्ष एक निश्चित अनुदान भी दिया जाता था। किंतु इन सुधारों से प्रांतीय वित्त की समस्या नहीं सुलझी, क्योंकि प्रांतीय सरकारों का व्यय आय से अधिक था।

लिटन ने वित्तीय विकेंद्रीकरण की दिशा में एक कदम और बढ़ाया। उसने प्रांतीय सरकारों को विभिन्न कर, जैसे- भूमिकर, उत्पादन कर, आबकारी कर, स्टाम्प कर भी हस्तांतरित कर दिये गये और प्रांतों को सामान्य प्रशासन तथा कानून और व्यवस्था का उत्तरदायित्व भी सौंप दिया गया। अब प्रांतीय सरकारों का वार्षिक अनुदान समाप्त कर दिया गया और प्रांतों को संबंधित सेवाओं पर व्यय के लिए संबंधित विभाग की आय दे दी गई। लिटन की व्यवस्था में यह प्रावधान था कि यदि व्यय के बाद कोई धन बच जाए तो उसे केंद्रीय सरकार के साथ आधा-आधा बाँट लिया जाए और यदि कम पड़ जाए तो भी केंद्रीय सरकार आधा भार वहन करेगी। ऐसा करने से आशा की गई कि प्रांतीय सरकारें अपने साधनों का विकास करेंगी और सरकार की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी। यह प्रणाली 1877 ई. से 1882 ई. तक चलती रही। इस प्रणाली में केवल एक दोष था कि प्रांतीय सरकारें केंद्रीय करों के संग्रह में उत्साह नहीं दिखाती थीं। वास्तव में यह वित्तीय विकेंद्रीकरण था, संघीय व्यवस्था नहीं थी।

लिटन के काल में अकाल, अफगान युद्ध एवं आयात करों की समाप्ति से आर्थिक संकट बढ़ गया था, किंतु स्ट्रेची के सुधारों से आर्थिक स्थिति में अधिक गिरावट नहीं आई। 1880 ई. में सैनिक विभाग में लेखा-संबंधी गलतियों के कारण वित्त विभाग की बहुत बदनामी हुई। फिर भी, स्ट्रेची के सुधारों के कारण वित्तीय स्थिति संतोषजनक बनी रहीं।

1876-1878 ई. का अकाल

लिटन के काल में एक विनाशकारी अकाल पड़ा, जो दो वर्षों (1876-1878 ई.) तक बना रहा। इस अकाल से सबसे अधिक प्रभावित प्रदेश मद्रास, बंबई मैसूर, हैदराबाद, मध्य भारत और पंजाब थे। अकाल का प्रभाव लगभग 2,57000 वर्ग मील और 5 करोड़ 80 लाख लोगों पर पड़ा। बहुत से गाँव उजड़ गये और भूमि के बहुत बड़े भाग पर खेती नहीं हुई। आर.सी. दत्त का अनुमान है कि एक वर्ष में लगभग 50 लाख लोग भूख से मर गये। सरकार ने अनमने ढंग से अकाल-पीड़ितों की सहायता की, जिससे जनता के कष्टों में वृद्धि हुई और जान-माल का भारी नुकसान हुआ। इसके अलावा, संचार साधनों में कमी से भी अकाल-पीड़ितों को समय से सहायता नहीं पहुँच सकी।

अकाल आयोग

यद्यपि 1861, 1866 1868, 1873 ई. में भारत के विभिन्न भागों में अकाल पड़ चुके थे। किंतु 1876-78 ई. का अकाल सबसे भयंकर और कष्टकारी था। बार-बार पड़ने वाले अकालों से निपटने के लिए लॉर्ड लिटन ने सर रिचर्ड स्ट्रेची की अध्यक्षता में एक अकाल आयोग नियुक्त किया। आयोग ने 1880 ई. में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, किंतु तब तक लिटन जा चुका था और रिपन भारत में आ गया था। रिपन ने अकाल आयोग को सिफारिशों को स्वीकार कर लिया और ‘फेमीन इंश्योरेंस फंड’ की व्यवस्था की। धन प्राप्त करने के लिए व्यापार तथा व्यवसाय पर एक लाइसेंस कर लगाया गया और भूमि पर भी उपकर (सेसेज) लगाये गये।

दिल्ली दरबार का आयोजन, 1 जनवरी, 1877 ई.

ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 1876 में राज-उपाधि अधिनियम पारित किया, जिसके द्वारा महारानी विक्टोरिया को ‘कैसर-ए-हिंद’ की उपाधि से विभूषित किया गया। इस उपाधि की औपचारिक घोषणा के लिए लिटन ने 1 जनवरी, 1877 ई. को दिल्ली में एक वैभवशाली दरबार का आयोजन किया। इस दरबार में राजाओं, नवाबों और जनता के समक्ष उपाधि की घोषणा की गई। दुर्भाग्यवश इस समय देश के अधिकांश हिस्सों में भीषण अकाल पड़ा हुआ था। सरकार ने मिथ्या-प्रदर्शन तथा आडंबर पर लाखों रुपया पानी की तरह बहा दिया, विशेषकर उस समय जब लोग भूखों मर रहे थे। आर.जी. प्रधान के अनुसार इस ‘राज-उपाधि अधिनियम और दिल्ली दरबार से जनता में एक राष्ट्रीय अपमान की गुप्त भावना-सी फैल गई।’ भारतीयों ने इस दिल्ली दरबार की कड़ी आलोचना की। एक कलकत्ता पत्रिका ने इसकी तुलना उस घटना से की, ‘नीरो वंशी बजा रहा था और रोम जल रहा था।’

किंतु यह घटना परोक्ष रूप से भारत के लिए लाभदायक सिद्ध हुई। दिल्ली दरबार के आयोजन से भारतीयों के मन में एक नये आंदोलन का प्रादुर्भाव हुआ, जिससे उनके मन में साम्राज्य में अपना अधिकृत स्थान प्राप्त करने की इच्छा जाग उठी। उसने मुखरित होकर अपने को प्रकट करना आरंभ कर दिया और ‘भारत भारतीयों का है’ का नारा लगाया।

लिटन भारतीय राजाओं तथा नवाबों को ब्रिटिश साम्राज्य से घनिष्ट रूप से जोड़ना चाहता था। उसने भारतमंत्री सैलिसबरी से आग्रह किया कि एक ‘भारतीय प्रिवी काउंसिल’ का गठन किया जाये और दरबार में उसकी घोषणा की जाये। किंतु इस समय ब्रिटिश नीति राजाओं को पृथक्-पृथक् रखने की थी। सैलिसबरी ने लिटन के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। फिर भी, कुछ राजाओं को ‘काउंसिलर्स ऑफ दि इम्प्रेस’ की उपाधि प्रदान की गई।

वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, 1878 ई.

लिटन का एक अन्य कार्य, जिससे भारतीयों की भावनाओं को गहरा आघात पहुँचा, वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट था। उसने उस समय दिल्ली दरबार किया जब हजारों भारतीय अकाल के कारण मौत के मुँह में जा रहे थे। उसने 1878 ई. में अफगानिस्तान से युद्ध छेड़कर देश का करोड़ों रुपया बहा दिया। भारत तथा इंग्लैंड के समाचार-पत्रों में लिटन की नीतियों की खुलकर निंदा की जा रही थी। लिटन भारतीय निंदा को राजद्रोह मानता था, इसलिए उसने आयरिश समाचार-पत्रों की तरह भारतीय समाचार-पत्रों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने का निश्चय किया। भारतमंत्री से तार द्वारा स्वीकृति लेकर लिटन ने अपनी परिषद् के सदस्यों के विरोध के बावजूद 14 मार्च, 1878 ई. को वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट (भारतीय भाषा समाचार-पत्र अधिनियम) परिषद् में प्रस्तुत किया और उसी दिन उसे पारित कर दिया।

इस अधिनियम के द्वारा मजिस्ट्रेट को यह अधिकार दिया गया कि वह सरकार की स्वीकृति से किसी मुद्रक या प्रकाशक को जमानत जमा करने की आज्ञा दे और उनसे इस प्रकार का प्रतिज्ञा-पत्र भरवा ले कि वह सरकार के विरुद्ध या भिन्न जातियों में वैमनस्य उत्पन्न करने वाली सामग्री का प्रकाशन नहीं करेगा। सरकार को यह अधिकार था कि अवांछित विषयों को प्रकाशित करने के अपराध में वह संबंधित पत्र को चेतावनी दे सकती थी अथवा उससे जमानत ले सकती थी, जमानत को जब्त कर सकती थी और यदि वह अपराध पुनः किया जाता तो सरकार छापाखाने को भी जब्त कर सकती थी। इस अधिनियम में दंड देने का अधिकार मजिस्ट्रेटों (देडनायकों) को दिया गया था और मजिस्ट्रेट के निर्णय के विरुद्ध न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती थी। मुद्रक को यह विकल्प अवश्य दिया गया था कि वह सरकारी सेंसर को प्रूफ भेजे और ऐसी सामग्री को हटा दे, जिसे अस्वीकृत किया गया हो।

इस एक्ट का भारत और इंग्लैंड में व्यापक रूप से विरोध हुआ और इसे ‘गलाघोंटू कानून’ (रैगिंग ऐक्ट) घोषित किया गया। सर अर्सकिन पेरी, जो इंडिया काउंसिल का सदस्य था, ने इस अधिनियम को ‘प्रतिगामी और असंगत’ बताया। उसका कहना था कि समाचार-पत्रों के दमन के लिए कोई साम्राज्यवादी कानून इससे कठोर नहीं हो सकता था। सुरेंद्रनाथ बनर्जी के अनुसार यह ‘वज्रपात’ था। वास्तव में भारतीयों के असंतोष का कारण यह था कि यह अधिनियम केवल भारतीय भाषाओं के समाचार-पत्रों पर लागू किया गया था। अंग्रेजी समाचार-पत्रों तथा सिविल सर्विस के लोगों ने लिटन का समर्थन किया। इस विभेदकारी अधिनियम से स्पष्ट हो गया था कि लिटन कितना बड़ा प्रतिक्रियावादी राजनीतिज्ञ था। बाद में 1882 ई. में लॉर्ड रिपन ने इस अधिनियम को निरस्त कर दिया।

भारतीय शस्त्र अधिनियम, 1878 ई.

लिटन की दमनकारी नीति का एक और कार्य भारतीय शस्त्र अधिनियम बनाना था। 1878 के ग्यारहवें अधिनियम के अनुसार किसी भारतीय के लिए बिना लाइसेंस शस्त्र रखना अथवा उसका व्यापार करना एक दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया। इस अधिनियम को तोड़ने पर तीन वर्ष तक की जेल, अथवा जुर्माना अथवा दोनों और इसको छुपाने का प्रयत्न करने पर सात वर्ष तक की जेल, अथवा जुर्माना अथवा दोनों दंड दिये जा सकते थे। किंतु इस अधिनियम में भी भेदभाव किया गया था क्योंकि यूरोपियनों, ऐंग्लो-इंडियनों अथवा सरकार के कुछ विशेष अधिकारियों पर यह अधिनियम लागू नहीं था। इस अधिनियम से यह स्पष्ट हो गया कि भारतीयों को अविश्वासनीय माना जाता था। भारतीयों के बढ़ते हुए असंतोष को देखकर लॉर्ड लिटन ने इस अधिनियम को रद्द कर दिया। भारतीयों की इस विजय ने राष्ट्रीय आंदोलन में उन्हें सक्रिय सहयोग के लिए प्रोत्साहित किया।

वैधानिक नागरिक सेवा

1833 ई. के चार्टर ऐक्ट की ग्यारहवीं धारा के अनुसार भारत में सभी पद देश, जाति और रंग भेद से मुक्त, सभी लोगों को यदि वे इसके योग्य हों तो मिल सकते थे। 1853 ई. में लंदन में कंपनी में उच्च पदों पर नियुक्ति के लिए एक प्रतियोगी परीक्षा की शुरूआत की गई। किंतु भारतीय जानपद सेवा की इस परीक्षा में भारतीयों का बैठना और उसमें सफल होना अत्यंत कठिन था। 1862 से 1875 ई. तक 50 भारतीय इस परीक्षा में सम्मिलित हुए और उनमें से केवल 10 ही सफल हो सके थे। प्रथम भारतीय सत्येंद्रनाथ टैगोर थे, जिन्हें 1864 में इस परीक्षा में सफलता प्राप्त हुई थी।

लिटन ने 1878-79 में वैधानिक जानपद सेवा (स्टेटुटरी सिविल सर्विस) की योजना प्रस्तुत की। इस योजना के अंतर्गत प्रांतीय सरकारों की सिफारिश और भारत-सचिव की स्वीकृति के पश्चात कुछ उच्च कुल के भारतीयों को इस सेवा में लिया जा सकता था। किंतु वैधानिक सिविल सेवा में पद और वेतन वैसा नहीं था, जैसा कि सिविल सेवा में था। फलतः वैधानिक जानपद सेवा भारतीयों में बहुत लोकप्रिय नहीं हो सकी और आठ वर्ष बाद ही बंद कर दी गई।

यद्यपि इसके पूर्व भी लॉर्ड लिटन ने भारतीयों को इंडियन सिविल सर्विस में जाने से रोकने के लिए एक पृथक् संवृत स्थानीय सेवा (क्लोज नेटिव सर्विस) की योजना प्रस्तुत की थी। किंतु गृह अधिकारी लिटन के विचार से सहमत नहीं हुए थे, क्योंकि उनके अनुसार एक काली और एक गोरी सेवा संभव नहीं थी और इससे भेदभाव की गंध आती।

भारत सचिव, लिटन के इस प्रस्ताव से सहमत नहीं थे कि भारतीयों के लिए भारतीय जानपद सेवा पूर्णतया बंद कर दी जाए। फिर भी, भारतीयों को इस सेवा में जाने से रोकने के लिए परीक्षा की आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष कर दी गई। चूंकि परीक्षा केवल लंदन में होती थी, इसलिए इस आयु के भारतीयों के लिए वहाँ जाकर परीक्षा देना बहुत कठिन था। वास्तव में यह भारतीय जानपद सेवा में भारतीयों के अवसरों को समाप्त करने का एक प्रयत्न था।

द्वितीय अफ़गान युद्ध (1878-1880 ई.)

लिटन को प्रधानमंत्री डिजरायली ने विशेष रूप से रूसी प्रभाव को रोकने और अफगानिस्तान के प्रति अग्रगामी नीति के क्रियान्वयन के लिए भारत भेजा था। इस नीति का उद्देश्य अफगानिस्तान को ब्रिटिश नियंत्रण में लाकर भारतीय साम्राज्य के लिए ‘वैज्ञानिक सीमा’ प्राप्त करना था। इस साम्राज्यवादी नीति के कारण लिटन ने अफगानों से एक मूर्खतापूर्ण युद्ध छेड़ दिया, जो अपने आरंभ तथा परिणामों में प्रथम अफगान युद्ध (1839-1842 ई.) के समान ही विनाशकारी सिद्ध हुआ। सब कुछ करने के बाद अंततः लिटन की अफ़गान नीति पूर्णतया असफल हो गई और इसके परिणाम न केवल लिटन की प्रतिष्ठा के लिए घातक साबित हुए, बल्कि ब्रिटिश रूढ़िवादी सरकार के पतन का कारण बने।

1880 ई. में इंग्लैंड में चुनाव हुए जिसमें उदारवादी दल सत्ता में आया और उसके नेता ग्लैडस्टोन इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बन गये। फलतः वायसराय लॉर्ड लिटन को 1880 ई. में अपने पद इस्तीफा देना पड़ा।

लिटन के कार्यकाल में मुस्लिम समाज में शिक्षा को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से अलीगढ़ में मुस्लिम कालेज की स्थापना की गई। इसकी स्थापना में सर सैयद अहमद खाँ का विशेष योगदान था। लिटन ने एक पृथक् उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत बनाने की योजना प्रस्तुत की। किंतु यह योजना लॉर्ड कर्जन के काल में ही क्रियान्वित हो सकी। उसने भारतीय नरेशों की एक अंतःपरिषद् बनाने का भी विचार किया, किंतु यह योजना भी 1921 में चैंबर ऑफ प्रिंसेज के रूप में मांटफोर्ड योजना के अंतर्गत ही अस्तित्व में आ सकी।

लिटन का मूल्यांकन

लिटन एक कल्पनाशील व्यक्ति था, जो एक प्रशासक के रूप में असफल रहा। भारत में किसी वायसराय के कार्यों की इतनी कटु आलोचना नहीं हुई, जितनी लिटन की गई। इसका मुख्य कारण यह था कि वह घोर साम्राज्यवादी था और भारत को एक उपनिवेश मात्र समझता था। उसने भारतीयों के साथ अत्यंत अपमानजनक दुर्व्यवहार किया। वह प्रजातीय भावना से पीड़ित था और भारतीयों को निम्न, अयोग्य और अविश्वासी समझता था। उसने आई.सी.एस. में भारतीयों के प्रवेश को रोकने का हरसंभव प्रयास किया। उसके काल में लाखों लोग अकाल में काल के ग्रास बन गये और हजारों गाँव उजड़ गये। ऐसे समय में उसने भारतीयों का उपहास उड़ाने और ब्रिटिश शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए शानदार दिल्ली दरबार का आयोजन किया। वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट के द्वारा उसने भारतीयों के अभिव्यक्ति के अधिकार को समाप्त कर दिया। उसके सभी कार्य भारतीय विरोधी थे और सभी में प्रजातीयता की गंध थी। उसकी अप्रिय और दमनकारी नीति से भारत की जनता में असंतोष फैलना स्वाभाविक था।

इस प्रकार लिटन का कार्यकाल निंदनीय कार्यों से भरा पड़ा है, लेकिन उसने कुछ रचनात्मक सुझाव भी दिये थे, जैसे- उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत का निर्माण, इंडियन प्रिवी काउंसिल का गठन, स्वर्ण स्टैंडर्ड की स्थापना आदि। किंतु अफगान युद्ध और अकाल के कारण उसका कार्यकाल भारतीयों के लिए दुखदायी रहा।

वस्तुतः लिटन साम्राज्यवादी और सामंतवादी विचारधारा का व्यक्ति था। उसका प्रशासन मानवीय भावनाओं से शून्य था। जो भी हो, लिटन की दमनकारी नीतियों से भारतीय समाज में नई जागृति आई और इस प्रकार न चाहते हुए भी उसने भारत पर उपकार कर दिया।

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