राजतंत्र की पुनर्स्थापना और चार्ल्स द्वितीय (Restoration and Charles II, 1660-1685)

राजतंत्र की पुनर्स्थापना

1642 में राजा चार्ल्स प्रथम के अत्याचारों से परेशान होकर एवं अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए इंग्लैंड की जनता ने राजा के विरुद्ध गृहयुद्ध (Civil War) की घोषणा की थी। इस गृहयुद्ध में जनता को सफलता मिली और चार्ल्स प्रथम को मृत्युदंड दिया गया। किंतु जनता और संसद अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफल रही, क्योंकि चार्ल्स प्रथम के स्थान पर अब उन्हें क्रामवेल की निरंकुशता का सामना करना पड़ा। क्रामवेल के समय में किसी में आवाज उठाने का साहस नहीं था। इंग्लैंड में शांति व्याप्त थी, किंतु यह शांति वास्तविक नहीं थी क्योंकि यद्यपि क्रामवेल ने इंग्लैंड को एक निश्चित संविधान प्रदान किया था, फिर भी उसका शासन निरंकुशता एवं शक्ति पर आधारित था। उसके शासन में स्थायित्व का अभाव था। यही कारण था कि आलिवर क्रामवेल की मृत्यु होते ही शांति भंग हो गई और अराजकता के लक्षण परिलक्षित होने लगे।

आलिवर क्रामवेल ने अपने पुत्र रिचर्ड (Richard) को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था, किंतु जनता उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं थी। क्रामवेल को जनता इंग्लैंड का वास्तविक शासक नहीं मानती थी, क्योंकि आलिवर क्रामवेल ने सेना की शक्ति के बल पर इंग्लैंड की सत्ता पर अधिकार किया था। जनता एक अधिकारी को अपना उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार देने की विरोधी थी। रिचर्ड को जनता द्वारा पसंद न किये जाने का एक दूसरा कारण यह था कि जनता को चार्ल्स द्वितीय से सहानुभूति थी। जनता का विचार था कि अपराध चार्ल्स प्रथम ने किया था और उसे दंड मिल चुका था। चार्ल्स प्रथम के अपराध का दंड उसके पुत्र चार्ल्स द्वितीय को देना उचित नहीं समझती थी।

यद्यपि रिचर्ड को इंग्लैंड का प्रोटेक्टर (Protector) नियुक्त कर दिया गया, किंतु उसके समक्ष अनेक समस्याएँ थी। एक तो, उसे जनता की सहानुभूति प्राप्त नहीं थी। इसके अतिरिक्त, रिचर्ड को राजतंत्र के समर्थकों, प्यूरिटनों, गणतंत्रवादियों का ही सामना नहीं करना था, बल्कि उसकी सेना में भी स्वामिभक्ति का अभाव था। युद्धकाल में सेना के जो अधिकारी तत्कालीन संकट का सामना करने के लिए एक हो गये थे, अब वे राजनीति में सम्मिलित होकर परस्पर झगड़ने लगे थे। जब तक क्रामवेल सत्ता में रहा, उसने अपने प्रभाव और व्यक्तित्व के बल पर इन झगड़ों को उभरने का अवसर नहीं दिया, किंतु उसकी मृत्यु होते ही विरोध प्रारंभ हो गये। सेना रिचर्ड को सेनापति स्वीकार करने को तैयार नहीं थी, क्योंकि वह सदैव युद्धों से दूर रहा था और उसे युद्ध अथवा सैनिक नेतृत्व का कोई ज्ञान नहीं था। क्रामवेल तो सेनापति था, इसलिए संरक्षक बनने के योग्य था, किंतु रिचर्ड केवल क्रामवेल का ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण सेना का संरक्षक बने, यह सेना को स्वीकार नहीं था। यदि आलिवर क्रामवेल ने थोड़ी सूझ-बूझ से काम लिया होता और अपने छोटे पुत्र हेनरी को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया होता, तो संभवतः इंग्लैंड में इतनी जल्दी प्रोटेक्टोरेट का पतन नहीं होता, क्योंकि हेनरी एक योग्य सेनापति एवं कुशल राजनीतिज्ञ था।

रिचर्ड ने संरक्षक बनते ही असंतुष्ट सैनिकों की सेवाएँ समाप्त कर सेना को कम करने का प्रयत्न किया। सेना ने माँग की कि सेनापति और संरक्षक के पद अलग-अलग कर दिये जायें और एक योग्य सेनाधिकारी फ्लीटवुड को सेनापति बनाया जाये। सेना की माँग थी कि सेना-संबंधी समस्त अधिकार सेनापति को ही दिये जायें, इसमें उसे सैनिकों की नियुक्ति और उन्हें पदच्युत् करने का अधिकार भी दिया जाए। यदि रिचर्ड इन सभी माँगों को स्वीकार कर लेता, तो सेना पूर्णरूप से स्वतंत्र हो जाती और सेनापति उसके समान अथवा संभवतः उससे भी शक्तिशाली हो जाता। इसलिए रिचर्ड ने सेना की माँगों को मानने से इनकार कर दिया।

रिचर्ड ने शीघ्र ही संसद के चुनाव कराने का निर्णय लिया और 1659 के प्रारंभ में संसद का प्रथम अधिवेशन हुआ। इस संसद में मुख्यतया गणतंत्र के विरोधी सदस्य थे। प्रथम अधिवेशन में ही संसद एवं सेना में मतभेद उत्पन्न हो गये। सेना के वेतन का भुगतान करने के लिए इस संसद ने धन स्वीकृत नहीं किया और कुछ सैनिक अधिकारियों पर अत्याचार करने का आरोप लगाकर जाँच शुरू कर दी। संसद ने यह भी प्रतिबंध लगाने का प्रयत्न किया कि सैनिक परिषद की बैठक संरक्षक तथा संसद के दोनों सदनों की अनुमति अभाव में न हो सके और सेना संसद की स्वतंत्रता के लिए शपथ ले, किंतु सेना इसको स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। सेना ने लंदन में एकत्रित होना प्रारंभ कर दिया। रिचर्ड ने सेना को लंदन में एकत्र न होने का आदेश दिया, जिसके विरोध में फ्लीटवुड ने संसद को भंग होने का आदेश दे दिया। संसद भंग हो गई जिससे रिचर्ड की स्थिति शोचनीय हो गई। रिचर्ड अपनी सहायता के लिए आयरलैंड से अपने भाई को अथवा स्कॉटलैंड से सेनापति मौंक को बुला सकता था, किंतु ऐसा करने से पुनः गृहयुद्ध प्रारंभ हो जाता। रिचर्ड इंग्लैंड में पुनः गृहयुद्ध नहीं प्रारंभ कराना चाहता था। उसका कहना था: ‘मैं अपनी महानता की सुरक्षा के लिए, जो मेरे ऊपर एक बोझ है, रक्त की एक बूँद भी नहीं गिरने दूँगा।’ फलतः उसने मई 1659 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया ताकि शांति से अपना जीवन व्यतीत कर सके।

रिचर्ड के संरक्षक पद से त्यागपत्र देते ही इंग्लैंड में पुनः सैनिक शासन प्रारंभ हो गया। अपने शासन को सांविधानिक रूप प्रदान करने के उद्देश्य से रम्प संसद को आमंत्रित किया गया। रम्प एवं सैनिकों में समझौता नहीं हो सका, इसलिए सेनापति लैम्बर्ट ने रम्प को भंग कर दिया और नवीन संविधान के निर्माण के लिए एक सुरक्षा समिति का गठन किया गया। इंग्लैंड में सर्वत्र अराजकता व्याप्त हो गई।

इंग्लैंड को अराजकता से बचाने के लिए 1660 में स्कॉटलैंड के सेनापति मौंक (General Monck) ने इंग्लैंड के मामले में हस्तक्षेप किया। सेनापति मौंक इसके पहले भी कई अवसरों पर इंग्लैंड की सेवा कर चुका था। 1651 में स्कॉटलैंड भेजी गई इंग्लैंड की सेना का नेतृत्व मौंक ने ही किया था। मौंक की सेना अत्यंत शक्तिशाली एवं स्वामिभक्त थी। मौंक का विचार था कि गृहयुद्ध प्रोटेस्टेंट धर्म की रक्षा, जनता की स्वतंत्रता और संसद के अधिकारों के लिए लड़ा गया था, यदि अब सेना स्वेच्छा से संसद को आमंत्रित अथवा भंग करती है तो यह जनता के हित में नहीं है, बल्कि कुछ व्यक्तिगत स्वार्थों का परिणाम है।

सेनापति मौंक ने घोषणा की कि जब लैम्बर्ट एवं उसकी सेना हथियार डाल देंगे तो वह संसद को आमंत्रित करेगा और जनता के निर्णय की प्रतीक्षा करेगा। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए मौंक ने अपनी सेना के साथ इंग्लैंड की ओर प्रस्थान किया। इस समय इंग्लैंड की सेना मौंक से युद्ध करने के पक्ष में नहीं थी, जिससे मौंक के लंदन पहुँचने पर लैम्बर्ट ने स्वयं को उसके अधिकार में दिया।

सेनापति मौंक ने रम्प संसद को पुनः आमंत्रित किया। रम्प के सदस्य सेना से प्रतिशोध लेना चाहते थे, किंतु मौंक ने ऐसा नहीं होने दिया और सेना को वेतन देने के लिए विवश किया। इसके बाद दीर्घ संसद के अंतिम अवशेष रम्प को भंग कर दिया गया। सेनापति मौंक ने एक नवीन तथा स्वतंत्र संसद के चुनाव के लिए आदेश दिये।

नवीन एवं स्वतंत्र संसद का प्रथम अधिवेशन अप्रैल, 1660 में हुआ। इस संसद को राजा ने आमंत्रित नहीं किया था, इसलिए इसको ‘कन्वेन्शन’ (Convention) कहा गया। इस कन्वेन्शन को इंग्लैंड के शासन के विषय में निर्णय करना था। इस कन्वेन्शन में मुख्यतया राजतंत्र समर्थक एवं प्रेस्बीटेरियन सदस्य थे, इसलिए उन्होंने चार्ल्स प्रथम के पुत्र चार्ल्स द्वितीय को आमंत्रित करने का निर्णय किया।

मौंक ने कन्वेन्शन के प्रस्ताव को कुछ शर्तों के साथ चार्ल्स द्वितीय तक पहुँचाया, जो उस समय हॉलैंड के ब्रेडा (Breda) नामक स्थान पर रुका हुआ था। चार्ल्स ने कन्वेन्शन के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और घोषणा की कि उसमें प्रतिशोध की भावना नहीं है, वह अपने पिता के शत्रुओं को क्षमा कर देगा और संसद की अनुमति के बिना किसी को दंड नहीं देगा। उसने सेना को उसका वेतन देने का वचन दिया। वह सब कुछ संसद की इच्छानुसार करेगा। चूंकि चार्ल्स ने यह घोषणा ब्रेडा नामक स्थान पर की थी, अतः इसे ‘ब्रेडा की घोषणा’ (डिक्लेरेशन ऑफ ब्रेडा) कहा जाता है।

चार्ल्स द्वितीय ब्रेडा से इंग्लैंड के डॉवर बंदरगाह पहुँचा और उसने लंदन की ओर प्रस्थान किया। ब्लेकहीथ में सेना ने चार्ल्स द्वितीय का स्वागत किया। चार्ल्स ने 29 मई, 1660 को अपने जन्म-दिवस के अवसर पर लंदन में प्रवेश किया और जनता ने उसका सहर्ष स्वागत किया। वार्नर मार्टिन म्योर ने लिखा है: ‘लंदन के रास्तों में पुष्प बिछे थे, घंटियाँ बज रही थीं, सड़कों के दोनों ओर की दीवारों पर झालरें पड़ी थी और फब्वारों से मदिरा की वर्षा हो रही थी।’

राजतंत्र की पुनर्स्थापना के प्रभाव

चार्ल्स द्वितीय ने इंग्लैंड में ग्यारह वर्षों के बाद राजतंत्र की पुनः स्थापना की। इंग्लैंड में राजतंत्र की स्थापना के साथ ही क्रामवेल द्वारा प्रारंभ किये गये सैनिक शासन का अंत हो गया। सैनिक शासन की कठोरता से इंग्लैंड की जनता तंग आ चुकी थी। उसकी समाप्ति से जनता ने राहत की साँस ली। जनता को पुनः स्वतंत्रता मिल गई और आतंक तथा भय का राज्य समाप्त हो गया।

राजतंत्र की पुनर्स्थापना ने जनता के सामाजिक जीवन को भी प्रभावित किया। क्रामवेल के शासनकाल में मनोरंजन के सभी साधनों पर लगाये गये प्रतिबंध भी समाप्त हो गये। जनता में पुनः उत्साह, आनंद और खेल-कूद की भावनाएँ जागृत हुई, किंतु राजतंत्र के आगमन से जनता के नैतिक स्तर में गिरावट आई, क्योंकि वहाँ मदिरापान, जुआ आदि पुनः प्रारंभ हो गया, जिस पर क्रामवेल के शासनकाल में प्रतिबंध लगा दिया गया था।

राजतंत्र की पुनः स्थापना के साथ ही इंग्लैंड में पुनः स्टुअर्ट वंश का शासन प्रारंभ हुआ। चार्ल्स प्रथम का अंत देखकर चार्ल्स द्वितीय को यह सोचने पर विवश होना पड़ा कि यदि उसे शासन करना है, तो संसद से मधुर संबंध बनाये रखने होंगे। अतः स्वतः ही राजा के अधिकारों में कमी और संसद के अधिकारों में वृद्धि हो गई। इस प्रकार राजाओं के स्वेच्छाचारी शासन पर प्रतिबंध लग गया और राजा ने वैधानिक ढंग से शासन करना प्रारंभ किया, जिससे इंग्लैंड में वैधानिक राजतंत्र का विकास हुआ। इसके साथ ही, राजा एवं संसद द्वारा परस्पर सहयोग से शासन करने के कारण लोकप्रिय शासन की स्थापना हुई। रैम्जे म्योर ने लिखा है कि राजतंत्र की पुनर्स्थापना ने इंग्लैंड के भावी लोकप्रिय शासन के विकास का बीज बो दिया।

राजतंत्र की स्थापना का एक दुष्परिणाम संसद सदस्यों में भ्रष्टाचार एवं रिश्वत लेने की प्रथा का जन्म होना था। चार्ल्स द्वितीय जानता था कि शासन करने के लिए संसद से मधुर संबंध बनाये रखना आवश्यक है, अतः उसने संसद सदस्यों को उपहार, पदवियाँ आदि प्रदान की और विभिन्न प्रकार से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से उन्हें प्रभावित कर समर्थन प्राप्त करना चाहा, परिणामस्वरूप संसद सदस्यों को रिश्वत देने की प्रथा प्रारंभ हुई, जो उन्नीसवीं शताब्दी तक चलती रही।

राजतंत्र की स्थापना का प्रभाव धार्मिक क्षेत्र पर भी पड़ा। क्रामवेल प्यूरिटन था, जिसके कारण उसके शासनकाल में धर्म पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध थे। राजतंत्र की स्थापना होने के बाद संसद ने चर्च को अपने अधिकार में ले लिया और अनेक सुधार किये। एंग्लिकन धर्म इंग्लैंड का प्रमुख धर्म बन गया।

क्रामवेल ने आयरलैंड, स्कॉटलैंड और इंग्लैंड को एक ही संसद के अधीन रखा था। राजतंत्र की स्थापना होने के बाद तीनों देशों के लिए अलग-अलग संसद चुनी गई। इस प्रकार इंग्लैंड में राजतंत्र की पुनर्स्थापना ने इंग्लैंड की राजनीति, शासन एवं समाज को स्पष्टतः प्रभावित किया।

चार्ल्स द्वितीय

चार्ल्स द्वितीय का प्रारंभिक जीवन: चार्ल्स द्वितीय, चार्ल्स प्रथम का पुत्र था। उसकी माँ फ्रांस की राजकुमारी हेनरीटा मारिया थी। इसका जन्म 1630 में हुआ था। अपने बाल्यकाल में उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। अंग्रेजी गृहयुद्ध के दौरान जब वह उन्नीस वर्ष का था, इसके पिता चार्ल्स प्रथम को 30 जनवरी 1649 को व्हाइटहॉल में मृत्युदंड दिया गया और उसे विवश होकर इंग्लैंड से भागकर फ्रांस एवं हॉलैंड में निर्वासित जीवन व्यतीत करना पड़ा था। इसके बाद स्कॉटलैंड की संसद ने 5 फरवरी 1649 को चार्ल्स द्वितीय को राजा बनाने की घोषणा की और वह 1651 तक स्कॉटलैंड का राजा रहा। क्रॉमवेल ने 3 सितंबर 1651 को वॉर्सेस्टर की लड़ाई में चार्ल्स द्वितीय को पराजित कर दिया। इसके बाद कुछ वर्ष तक राजतंत्र को समाप्त करके इंग्लैंड, स्कॉटलैंड और आयरलैंड में आलिवर क्रामवेल के नेतृत्व में गणतंत्र की स्थापना हुई। चार्ल्स ने अगले नौ वर्ष फ्रांस, डच गणराज्य और स्पेनिश नीदरलैंड में निर्वासन में व्यतीत किये।

राजतंत्र की पुनर्स्थापना और चार्ल्स द्वितीय (Restoration and Charles II, 1660-1685)
राजतंत्र की पुनर्स्थापना और चार्ल्स द्वितीय

1658 में क्रॉमवेल की मृत्यु के बाद उत्पन्न राजनीतिक संकट के परिणामस्वरूप इंग्लैंड में राजतंत्र की पुनर्स्थापना हुई और चार्ल्स को स्वदेश लौटने के लिए आमंत्रित किया गया। वह तीस वर्ष की आयु में 1660 में इंग्लैंड का राजा बना और 1685 में अपनी मृत्यु तक स्कॉटलैंड, इंग्लैंड और आयरलैंड के राजा के रूप में शासन किया। इसका विवाह पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन से 1661 में हुआ था, जिसके फलस्वरूप उसे मुंबई का द्वीप दहेज में मिला था।

चार्ल्स द्वितीय निरंकुश शासक बनना चाहता था, किंतु अपने निर्वासन काल की कठिनाइयों के अनुभव के बाद वह सुख का जीवन व्यतीत जीना चाहता था। अतः वह संसद से झगड़ना नहीं चाहता था। परिस्थितियों को विरुद्ध होने पर वह संसद के समक्ष झुकने में अपना अपमान नही समझता था। इसलिए कहा जाता है कि उसका न तो कोई सिद्धांत था, न विश्वास और न ही सम्मान। चार्ल्स में अपने भावों को छिपाने की अद्भुत क्षमता थी। वह कैथोलिक धर्म का समर्थक था, किंतु उसकी मृत्यु के समय से पहले इस राज को कोई नहीं जान सका। जनता उसे जीवनपर्यंत एंग्लिकन धर्म का अनुयायी समझती रही। संभवतः चार्ल्स को किसी प्रकार के धर्म पर विश्वास नहीं था। यह सही है कि राजा के लिए वह रोमन चर्च को सर्वाधिक सुविधाजनक समझता था और अपनी मृत्युशय्या पर उसने स्वयं को कैथोलिक घोषित कर दिया था। किंतु वास्तव में वह अधार्मिक था। उसे किसी धर्म की इतनी चिंता नहीं थी कि उसके लिए वह जनता पर अत्याचार करता। वह क्रोध में कभी बेकाबू नही हुआ, वह लोगों की ओछी प्रवृत्तियों को भी समझता था। वह सहज चतुर और चालाक था, राजनीति की कपट-क्रीड़ाओं में उतरने के बाद उसके इन गुणों ने उसे पिता एवं भाई से कहीं अधिक खतरनाक खिलाड़ी बना दिया।

यूरोप में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट संप्रदायों के बीच हो रहे संघर्ष की वजह से चार्ल्स द्वितीय को आंतरिक और विदेश नीति में अधिक समय देना पड़ा। उसके प्रारंभिक शासनकाल में दूसरा एंग्लो-डच युद्ध हुआ। 1670 में, उसने फ्रांस के राजा एवं फुफेरे भाई लुई चौदहवें के साथ एक गठबंधन किया। लुई ने उसे तीसरे एंग्लो-डच युद्ध में सहायता करने और पेंशन देने की सहमति दी और चार्ल्स ने गुप्त रूप से कैथोलिक धर्म में धर्म परिवर्तन करने का वादा किया था।

चार्ल्स द्वितीय अपने पितामह, पिता एवं भाई की तरह अंध-दुराग्रही नहीं था। उसको ‘मेरी मोनार्क’ (खुशदिल राजा) कहा जाता है, क्योंकि वह एक हँसमुख, चिंतारहित युवक था और उसके दरबार पर पोर्टमाउथ की डचेज एवं लेडी कैसलमैन का प्रभाव छाया हुआ था। । इन अवगुणों के बावजूद उसमें अनेक गुण भी थे। वह व्यायाम, खेल एवं शिकार में रुचि रखता था और राज-काज में प्रवीण था। उसमें व्यक्ति को परखने की अद्भुत क्षमता और राजनीतिक कुशलता थी। चार्ल्स द्वितीय की बहुत सी अवैध संताने थीं, किंतु कोई वैध संतान नहीं थी। इसलिए उसकी राजगद्दी का उत्तराधिकार उसके भाई जेम्स को मिला। इसने ललित कलाओं को भी संरक्षण दिया। चार्ल्स द्वितीय ने अपनी मृत्यु से पहले रोमन कैथोलिक संप्रदाय को अपना लिया था।

चार्ल्स द्वितीय की गृहनीति

चार्ल्स द्वितीय 1660 में इंग्लैंड की गद्दी पर आसीन हुआ। उसने ब्रेडा की घोषणा की थी, जिसमें उसने इंग्लैंड की जनता को भरोसा दिलाया था कि वह सेना के वेतन का भुगतान करेगा; अपने पिता चार्ल्स प्रथम की मृत्यु के लिए उत्तरदायी व्यक्तियों को क्षमा करेगा; धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करेगा और कामनवेल्थ के समय में जिन व्यक्तियों ने भूमि प्राप्त की थी, उसे वापस नहीं लेगा। चार्ल्स द्वितीय के राजा बनने से पूर्व ही मौंक ने कन्वेन्शन आमंत्रित किया था। अतः पुनर्स्थापना के प्रारंभ में महत्वपूर्ण विषयों पर निर्णय लेने का उत्तरदायित्व कन्वेन्शन का था जिसके द्वारा चार्ल्स द्वितीय को इंग्लैंड के राजा के रूप में आमंत्रित किया गया था।

चार्ल्स द्वितीय ने यद्यपि ब्रेडा की घोषणा की थी, किंतु उसमें किये गये वायदों को पूर्ण करना अब कन्वेन्शन की स्वीकृति पर निर्भर था। कन्वेन्शन ने सर्वप्रथम चार्ल्स द्वितीय की ब्रेडा की घोषणा में दिये गये वचनों को पूर्ण करना चाहा। अतः सैनिकों को बकाया वेतन दिया गया और न्यू मॉडल सेना को समाप्त कर दिया गया, किंतु केवल पाँच हजार सैनिकों की सेवाएँ समाप्त नहीं की गई। इसके बाद, एक अधिनियम पारित किया गया, जिसे क्षतिपूर्ति तथा विस्मरण अधिनियम (इंडेम्निटी एंड ऑब्लीवेशन ऐक्ट) कहते हैं। इस अधिनियम के द्वारा समस्त अपराधियों तथा राजतंत्र विरोधियों को क्षमा किया गया, किंतु तेरह न्यायाधीशों को, जिन्होंने चार्ल्स प्रथम की मृत्युदंड की आज्ञा पर हस्ताक्षर किये थे, मृत्युदंड दिया गया और पच्चीस लोगों को आजीवन कारावास दिया गया। क्रामवेल के शव को कब्र से निकाल कर फाँसी दी गई।

धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान किये जाने की समस्या अत्यंत गंभीर थी। इस समस्या का समाधान कन्वेन्शन नहीं कर सका, अतः इसे आगामी संसद के लिए स्थगित कर दिया गया।

कॉमनवेल्थ के समय में प्राप्त भूमि की समस्या का निराकरण करना भी अत्यंत कठिन था। अंत में, इस संबंध में यह निर्णय लिया गया कि राजा की अथवा अन्य व्यक्तियों की वह भूमि जिस पर गणतंत्र शासन ने अधिकार कर लिया था, उन्हें लौटा दी जायेगी, परंतु जिन व्यक्तियों ने अपनी भूमि को स्वयं बेचा था, चाहे उसका कुछ भी कारण रहा हो, उनको भूमि वापस नहीं दिलाई जायेगी, किंतु इस प्रकार की व्यवस्था से जनता संतुष्ट न हो सकी।

कन्वेंन्शन ने ब्रेडा की घोषणा से संबंधित कार्यों के अतिरिक्त राजा की आय को निश्चित करने का कार्य भी किया। चार्ल्स द्वितीय को बारह लाख पौंड वार्षिक आय स्वीकृत की गई और उसके सामंतशाही लगान पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके बाद संसद भंग हो गई और उसके स्थान पर एक नई संसद बनी।

कैवेलियर संसदरू इस नवीन कैवेलियर संसद ने 1609 तक कार्य किया। लगभग अठारह वर्षों तक कार्य करने के कारण इसे पुनर्स्थापन की दीर्घ संसद (लांग पार्लियामेंट ऑफ रिस्टोरेशसन) कहा जाता है। इस संसद को कैवेलियर संसद इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इसके अधिकांश सदस्य रॉयलिस्ट थे, जो घुड़सवारी की भावना से प्रेरित थे। इस संसद के शासनकाल में मंत्रियों ने कार्य किया। यह संसद राजा से भी अधिक राजतंत्र की समर्थक थी।

क्लेरैंडन कोड

चार्ल्स द्वितीय का प्रथम मंत्री एडवर्ड हाइड था, जिसे ‘अर्ल ऑफ क्लेरैंडन’ की उपाधि मिली थी। इसलिए वह क्लेरैंडन के नाम से ही अधिक जाना जाता था। उसने लगभग सात वर्षों तक कार्य किया। चार्ल्स द्वितीय क्लेरैंडन पर अत्यधिक विश्वास करता था और लगभग समस्त कार्यों को उसे ही सौंप दिया था। यही कारण है कि क्लेरैंडन को आधा राजा (हॉफ किंग) भी कहा जाता था। क्लेरैंडन एक योग्य एवं परिश्रमी व्यक्ति था। उसके कार्यकाल में सर्वप्रमुख समस्या धर्म की थी क्योंकि इस विषय को कन्वेन्शन में आगामी संसद के लिए स्थगित कर दिया था। क्लेरैंडन के कार्यकाल में धर्म-संबंधी चार अधिनियम पारित किये गये, जिन्हें ‘क्लेरैंडन कोड’ कहा गया है और जो प्यूरिटन संप्रदाय के विरुद्ध थे-

निगम नियम (कॉरपोरेशन ऐक्ट)

संसद ने सर्वप्रथम 1661 में निगम नियम पारित किया। नगर सभाओं (कॉरपोरेशन) में प्यूरिटनों की संख्या अधिक थी। यही सभा नगर का प्रशासन चलाती थी और इसे संसद सदस्य चुनने का भी अधिकार था। इस नियम के द्वारा कोई भी व्यक्ति बिना प्रतिज्ञा किये कि वह राजा के विरुद्ध हथियार उठाने को गैर-कानूनी मानेगा तथा इंग्लैंड के पर्व का अनुयायी होगा, नगर सभाओं का सदस्य नहीं हो सकता। इस प्रकार प्यूरिटनों को नगर सभाओं तथा लोकसभा पर प्रभुत्व स्थापित करने से रोका गया।

एकरूपता का नियम (ऐक्ट ऑफ अनइनफॉरमिटी)

1662 में एकरूपता का अधिनियम पारित किया गया। इस नियम के अनुसार प्रत्येक अध्यापक एवं पादरी को राजा के प्रति हथियार न उठाने तथा इंग्लैंड के चर्च की प्रार्थना-पुस्तक के अनुरूप चलना था। यद्यपि प्रार्थना-पुस्तक में अनेक सुधार किये गये थे, किंतु फिर भी वह मूलतः प्यूरिटन विरोधी थे। इस अधिनियम का उद्देश्य गिरजाघरों से प्यूरिटनों को निष्कासित करना था। इस अधिनियम के परिणामस्वरूप लगभग दो हजार पादरियों, जिन्होंने इस अधिनियम का पालन करने से इनकार कर दिया था, को पदच्युत् कर दिया गया।

सभा-नियम (कन्वेंटिकल ऐक्ट)

1664 में संसद ने सभा-नियम पारित किया। इस नियम के द्वारा कोई भी व्यक्ति जो इंग्लैंड चर्च को नहीं मानता था, पाँच व्यक्तियों से अधिक की सभा नहीं कर सकता था। इस नियम का उल्लंघन करने वाले को बंदी बनाया जाता था। यदि कोई व्यक्ति तीन बार इस अधिनियम का उल्लंघन करता, तो उसे काला पानी की सजा दी जाती थी।

पाँच मील का नियम (द फाइव माइल्स ऐक्ट)

यह अधिनियम 1665 में पारित किया गया। इस नियम के द्वारा दो हजार पदच्युत् पादरियों को अपने पुराने शहर अथवा किसी भी नगर निगम की पाँच मील की परिधि के अंदर जाने पर प्रतिबंध लगाया गया, जब तक कि निगम नियम को स्वीकार न करे और सरकार व चर्च के प्रचलित कानूनों में हस्तक्षेप न करने की शपथ न ले लें।

‘क्लेरैंडन कोड’ के इन नियमों का अत्यंत कठोरतापूर्वक पालन किया गया, जिसके परिणामस्वरूप हजारों प्यूरिटन बंदी बनाये गये और देश से निकाल दिये गये, यहाँ तक कि ‘पिलग्रिम्स प्रोग्रेस’ के लेखक जॉन बनयान को भी बारह साल तक जेल में रहना पड़ा। इस प्रकार ब्रेडा की घोषणा को, जिसमें धार्मिक स्वतंत्रता का आश्वासन दिया गया था, को पूरी तरह भुला दिया गया और लौड तथा चार्ल्स प्रथम के धार्मिक प्रबंध को पुनः प्रचलित किया गया। प्यूरिटनों के विरुद्ध होने वाली प्रतिक्रिया का सबसे अच्छा परिणाम यह हुआ कि पुनर्स्थापना-कार्य स्वयं संसद का था। लौड ने संसद की अवहेलना करते हुए अपने विरोधियों को दंडित किया था, परंतु पुनर्स्थापना काल में विरोधियों को लोकसभा द्वारा बनाये गये नियमों द्वारा ही सजा दी गई। प्यूरिटनों के विरुद्ध इसी प्रतिक्रिया ने राजतंत्र को सम्मानित किया और राजभक्ति को ही धर्म का रूप प्रदान किया।

इन नियमों (क्लेरैंडन कोड) को इंग्लैंड की जनता ने पसंद न किया। इसी समय इंग्लैंड में एक और घटना हुई। 1665 में इंग्लैंड में अचानक प्लेग फैल गया जिसमें एक लाख से अधिक व्यक्ति मारे गये, जिससे जनता में भय व्याप्त हो गया। जनता अभी प्लेग को भूल भी न सकी थी कि 1666 में लंदन में भयंकर अग्निकांड हो गया जिसमें लंदन पाँच दिन व पाँच रात तक जलता रहा। इस अग्निकांड में आधे से अधिक लंदन अग्नि की भेंट चढ़ गया, किंतु इस अग्निकांड के बाद लंदन में पुराने एवं गंदे मकानों के स्थान पर नये साफ-सुथरे एवं हवादार मकान निर्मित किये गये, जिसके कारण लंदन में फिर कभी प्लेग का प्रकोप नहीं हुआ।

क्लेरैंडन ने मंत्री के रूप में सात वर्ष तक कार्य किया। वह एक उदार व्यक्ति था, किंतु अपनी उदारता के कारण ही वह असफल हुआ। चार्ल्स द्वितीय उसके आदर्शवाद और उपदेश से तंग आ चुका था। संसद सदस्य भी उसका उपहास उड़ाते थे। राजतंत्र समर्थक उसकी उदारता के कारण उससे नाराज थे, जबकि प्यूरिटन क्लेरैंडन कोड के कारण उसे नापसंद करते थे। जनता भी उसकी विरोधी हो गई और उसे स्वार्थी मानने लगी क्योंकि उसने अपनी पुत्री का विवाह चार्ल्स द्वितीय के छोटे भाई जेम्स से कर दिया था। प्लेग एवं अग्निकांड के कारण भी उसकी बहुत बदनामी हुई, यद्यपि इसमें उसका कोई दोष नहीं था। 1667 में हॉलैंड के विरुद्ध युद्ध प्रारंभ हुआ तो हॉलैंड की सेना टेम्स नदी के मुहाने तक आ पहुँची। इसके लिए भी क्लेरैंडन को ही दोषी बताया गया। इसके अतिरिक्त, क्लेरैंडन ने डन्कर्क के दुर्ग को फ्रांस के राजा लुई चौदहवें को बेंच दिया था। क्लेरैंडन पर आरोप लगाया गया है कि उसने इसमें रिश्वत ली है, अतः उसने पिकैडली में जब अपना मकान बनवाया तो जनता ने उसका नाम ‘डन्कर्क हाउस’ रख दिया।

अंततः चार्ल्स द्वितीय ने क्लेरैंडन को पदच्युत कर दिया और संसद ने उस पर महाभियोग चलाया। क्लेरैंडन इंग्लैंड छोड़कर भाग गया। क्लेरैंडन की संपत्ति जब्त कर ली गई और उसके मकान के कुछ भाग में से हाइड पार्क बनाया गया।

केबाल मंत्रिमंडल

क्लेरैंडन के बाद चार्ल्स द्वितीय ने पाँच मंत्रियों को नियुक्त किया, जिन्होंने 1667 से 1673 तक कार्य किया। इन पाँच मंत्रियों में क्लिफर्ड, आर्लिंगटन, बकिंघम, ऐशले कूपर एवं लॉडरडेल थे। इन पाँच मंत्रियों के नाम के प्रथम अक्षरों को मिलाने से केबाल (CABAL) शब्द बनता था, इसीलिए इस मंत्रिमंडल को ‘केबाल मंत्रिमंडल’ कहा गया है। यह मंत्रिमंडल सामूहिक रूप से कार्य नहीं करता था क्योंकि इससे प्रथम दो कैथोलिक थे, बकिंघम राजा का मित्र था। ऐशले एक ऐसा राजनीतिज्ञ था जो ठीक समय पर पक्ष-परिवर्तन कर लेता था। वह धार्मिक सहिष्णुता का पक्षधर था और व्यापार तथा औपनिवेशिक विस्तार में रुचि रखता था। लॉडरडेल स्कॉटलैंड का प्रशासक था और कठोर नीति का समर्थक था। इस प्रकार केबाल मंत्रिमंडल आधुनिक मंत्रिमंडल के समान नहीं था। केबाल मंत्रिमंडल के समय की प्रमुख घटनाएँ इस प्रकार हैं-

डॉवर की गुप्त संधि

चार्ल्स द्वितीय यद्यपि स्वयं को इंग्लैंड के चर्च का अनुयायी बताता था, किंतु वास्तव में वह कैथोलिक धर्म का अनुयायी था। 1670 में चार्ल्स द्वितीय ने फ्रांस के राजा एवं फुफेरे भाई लुई चौदहवें के साथ एक गुप्त संधि की, जिसमें उसने फ्रांस को वचन दिया कि इंग्लैंड हॉलैंड से युद्ध करेगा और फ्रांस उसे आर्थिक सहायता देगा। फ्रांस, इंग्लैंड में कैथोलिकों को अधिक सुविधाएँ दिये जाने के लिए भी चार्ल्स द्वितीय पर दबाव बना रहा था।

धार्मिक अनुग्रह की घोषणा एवं टेस्ट अधिनियम

 डॉवर की गुप्त संधि के परिणामस्वरूप चार्ल्स द्वितीय ने 1672 में धार्मिक अनुग्रह की घोषणा की। इसके अनुसार कैथोलिकों तथा एंग्लिकन चर्च में विश्वास न रखने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध प्रचलित समस्त कठोर नियमों को समाप्त कर दिया गया। यह घोषणा संसद की अनुपस्थिति में की गई थी, किंतु जब संसद का अधिवेशन हुआ तो संसद ने इसका विरोध किया। संसद का मानना था कि राजा संसद की स्वीकृति के बिना इस प्रकार की घोषणा नहीं कर सकता है। संसद को संदेह था कि चार्ल्स द्वितीय कैथोलिकों के साथ मिलकर षड्यंत्र कर रहा है, यहाँ तक कि कुछ ऐसे व्यक्ति, जो एंग्लिकन चर्च के अनुयायी नहीं थे और जिन्हें इस घोषणा से लाभ ही था, ने इस घोषणा का विरोध किया, क्योंकि उन्हें लगा कि यह इंग्लैंड में रोम का प्रभुत्व पुनः स्थापित करने के लिए किया गया है। अंततः विरोध के बाद चार्ल्स ने इस घोषणा को वापस ले लिया।

इसके अतिरिक्त, चार्ल्स ने 1673 में संसद द्वारा पारित टेस्ट अधिनियम पर भी हस्ताक्षर कर दिया। इस अधिनियम के द्वारा प्रत्येक राज्य कर्मचारी को एंग्लिकन प्रार्थना-विधि को स्वीकार करना था और कैथोलिक संप्रदाय के सिद्धांतों का विरोधी होना आवश्यक था। इस प्रकार इस अधिनियम का उद्देश्य कैथोलिकों को राजकीय पदों से हटाना था। फलतः क्लिफर्ड तथा आर्लिंगटन को त्यागपत्र देना पड़ा।

इसी समय चार्ल्स द्वितीय के भाई जेम्स ने एक कैथोलिक राजकुमारी से विवाह कर लिया। जनता और संसद ने जेम्स के इस कार्य को पसंद नहीं किया। जेम्स की प्रथम पत्नी से दो पुत्रियाँ थीं। यदि इस दूसरी पत्नी से उसे पुत्र प्राप्त हो जाता तो इंग्लैंड पर कैथोलिक शासन बना रहता, इसलिए जनता में आक्रोश उत्पन्न हो गया। चार्ल्स ने बड़ी कुशलता से जनता को प्रसन्न करने के लिए केबाल मंत्रिमंडल को भंग कर दिया और डान्बी नामक व्यक्ति को मंत्रिमंडल बनाने को कहा, जो एंग्लिकन चर्च का कट्टर अनुयायी था।

डान्बी का मंत्रिमंडल

डान्वी ने 1673 से 1678 तक मंत्री के रूप में कार्य किया। डान्बी धार्मिक सहिष्णुता की नीति का विरोधी था। उसकी वैदेशिक नीति भी चार्ल्स के विपरीत थी। वह फ्रांस के स्थान पर हॉलैंड से मित्रता करना चाहता था। अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए डान्बी ने हॉलैंड के राजा से 1674 में एक संधि कर ली और जेम्स की पुत्री मेरी का विवाह हॉलैंड के राजा विलियम ऑफ ऑरेंज से करवा दिया।

पोप का षड्यंत्र

1678 में इंग्लैंड में टाइटस ओट्स (Titus Oates) नामक एक व्यक्ति ने लंदन के एक मजिस्ट्रेट को पोप के षड्यंत्र की सूचना दी, जिसके द्वारा चार्ल्स द्वितीय की हत्या करके फ्रांस की सेना की सहायता से जेम्स को राजा बनाया जाना था। इस मजिस्ट्रेट की कुछ समय बाद ही हत्या हो गई। इस सूचना और मजिस्ट्रेट की हत्या से इंग्लैंड में उत्तेजना फैल गई और संपूर्ण इंग्लैंड को विश्वास हो गया कि निश्चित रूप से षड्यंत्र हो रहा है। संसद ने भी इसे स्वीकार कर लिया, यद्यपि यह पूर्णतया निराधार एवं काल्पनिक धारणा थी। संसद के विरोधी सदस्यों, विशेष रूप से ऐशले कूपर (अर्ल ऑफ शेफ्ट्सबरी) ने इस षड्यंत्र की अफवाह से लाभ उठाने का प्रयत्न किया। उसका उद्देश्य चार्ल्स के पश्चात् जेम्स को राजा बनने से रोकना और चार्ल्स के अवैध पुत्र ड्यूक ऑफ मन्मथ को राजगद्दी पर बैठाना था जो प्रोटेस्टेंट था। इस षड्यंत्र के परिणामस्वरूप प्रोटेस्टेंट सतर्क हो गये। चार्ल्स द्वितीय को इस षड्यंत्र पर विश्वास नहीं था, किंतु वह इंग्लैंड की जनता को यह समझाने में असफल रहा क्योंकि इंग्लैंड की जनता का विचार था कि रोमन कैथोलिक कोई भी कुकृत्य कर सकते हैं।

तीन लघु संसद

जिस समय पोप के षड्यंत्र की अफवाह के कारण वातावरण में उत्तेजना व्याप्त थी, उसी समय यह पता चला कि चार्ल्स ने डान्बी से कुछ पत्र लिखवाकर फ्रांस के राजा लुई को भेजे थे, जिनमें धन की माँग की गई थी। डान्बी पर महाभियोग चलाया गया क्योंकि संसद का मानना था कि डान्बी के यह कहने से कि उसने यह पत्र राजा की आज्ञा से लिखे थे, वह अपराध से मुक्त नहीं हो सकता, क्योंकि यह कार्य कानून के विपरीत था। राजा चार्ल्स ने डान्बी को बचाने के लिए 1679 में केवैलियर संसद को भंग कर दिया।

प्रथम लघु संसद

1679 से 1681 के मध्य चार्ल्स द्वितीय ने तीन संसद आमंत्रित की। प्रथम संसद ने भी डान्बी पर महाभियोग चलाया और उसे कैद कर लिया, यद्यपि चार्ल्स द्वितीय ने उसे क्षमा कर दिया था। इसके अतिरिक्त, अर्ल ऑफ शेफ्ट्सबरी के प्रयत्नों से बंदी बनाये गये व्यक्ति को शीघ्र ही न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना आवश्यक था।

इसके पश्चात् इस प्रथम लघु संसद ने बहिष्कार बिल (इक्सक्लुजन बिल) को चार्ल्स के समक्ष प्रस्तुत किया, जिसका उद्देश्य जेम्स के अधिकार को इंग्लैंड से समाप्त करना था क्योंकि यह कैथोलिक विचारधारा का था और चार्ल्स के अवैध पुत्र मन्मथ को चार्ल्स का उत्तराधिकारी बनाना था। चार्ल्स ने इस प्रस्ताव को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। चार्ल्स ने कहा कि, ‘मैं कभी नहीं झुकूंगा, मैं धमकियों से नहीं डरूँगा… कानून और तर्क मेरे साथ हैं तथा बुद्धिमान व्यक्ति भी मेरे साथ है।’ फलतः चार्ल्स ने इस संसद को भंग कर दिया।

शीघ्र ही राजा के पास अनेक प्रार्थना-पत्र आये, जिसमें उससे शीघ्र ही संसद आमंत्रित करने का अनुरोध किया गया था, किंतु राजपक्ष के समर्थकों का मानना था कि यह राजा के विशेषाधिकार में हस्तक्षेप करना था। जो पक्ष संसद आमंत्रित करने के पक्ष में था, उसे पेटीशनर्स कहा गया और राजपक्ष समर्थकों को अबोरर्स। शीघ्र ही पेटीशनर्स (प्रार्थना करने वाले) अपने विरोधियों को आयरलैंड के विद्रोहियों के नाम पर ‘टोरी’ कहने लगे और अबोरर्स, पेटीशनर्स को स्कॉटलैंड के विद्रोहियों के नाम पर ‘ह्विग’ कहने लगे। इस प्रकार इंग्लैंड में दो राजनीतिक दलों का जन्म हुआ। बाद में ये ह्विग तथा टोरी क्रमशः लिबरल तथा कन्जरवेटिव कहलाये।

द्वितीय लघु संसद

अक्टूबर 1680 में चार्ल्स ने द्वितीय लघु संसद आमंत्रित की। लोकसभा में बहिष्कार बिल पारित हो गया, किंतु लॉर्ड सभा ने अस्वीकृत कर दिया क्योंकि यदि इंग्लैंड में इसी प्रकार की उत्तेजना रहती तो इंग्लैंड में पुनः गृहयुद्ध प्रारंभ हो जाता। इसी समय एक वृद्ध कैथोलिक लॉर्ड स्टेफोर्ड को मृत्युदंड दिये जाने से जनता में कैथोलिकों से घृणा के स्थान पर सहानुभूति पैदा हो गई। चार्ल्स ने अवसर देखकर इस संसद को भी भंग कर दिया।

तृतीय लघु संसद

चार्ल्स द्वितीय ने 1681 में ऑक्सफोर्ड में तृतीय लघु संसद आमंत्रित की। इस संसद को भी बहिष्कार बिल के कारण चार्ल्स ने शीघ्र ही भंग कर दिया और त्रिवसीय नियम (ट्रेनियल ऐक्ट) की अवहेलना करते हुए उसने अपने शासनकाल में फिर संसद आमंत्रित नहीं की। ह्विग दल के नेता शेफ्ट्सबरी और मन्मथ हॉलैंड भाग गये।

राई हाउस षड्यंत्र

चार्ल्स द्वितीय की हत्या करने के उद्देश्य से 1683 में एक षड्यंत्र किया गया जिसके द्वारा घुड़दौड़ से लौटते समय राई हाउस के निकट चार्ल्स तथा उसके भाई जेम्स की हत्या की जानी थी, किंतु चार्ल्स को इसकी सूचना मिल गई तथा षड्यंत्रकारी बंदी बना लिये गये। दो ह्विग नेताओं रसल तथा सिडनी को मृत्युदंड दिया गया। इस षड्यंत्र के कारण ह्विग दल की बहुत बदनामी हुई।

चार्ल्स द्वितीय ने ह्विग दल की बदनामी से लाभ उठाकर अपनी शक्ति में वृद्धि की। उसने नगर सभाओं को भंगकर दिया और उसके स्थान पर अपने कर्मचारी नियुक्त कर दिये। चार्ल्स ने टेस्ट अधिनियम को भी समाप्त कर दिया और जेम्स को पुनः उसके पुराने पद पर बहाल कर दिया। इस प्रकार चार्ल्स ने 1681 से 1685 तक स्वेच्छाचारिता से शासन किया।

चार्ल्स द्वितीय निश्चित रूप से स्टुअर्ट शासकों में सर्वाधिक योग्य था। यद्यपि वह कैथोलिक था, किंतु उसने इस तथ्य को अपनी मृत्यु-शय्या पर ही बताया। वह निरंकुशतापूर्वक शासन करना चाहता था, किंतु उसने समय की गति को पहचानकर प्रारंभ में संसद की सहायता से ही शासन किया और धीरे-धीरे अपने शासन के अंतिम समय में पूर्णरूप से अधिकार प्राप्त करने में सफल हुआ और निरंकुशतापूर्वक शासन किया।

इन्हें भी पढ़ सकते हैं-

सिंधुघाटी सभ्यता में कला एवं धार्मिक जीवन 

अठारहवीं शताब्दी में भारत

बाबर के आक्रमण के समय भारत की राजनैतिक दशा 

विजयनगर साम्राज्य का उत्थान और पतन 

वियेना कांग्रेस

प्रथम विश्वयुद्ध, 1914-1918 ई. 

पेरिस शांति-सम्मेलन और वर्साय की संधि 

द्वितीय विश्वयुद्ध : कारण, प्रारंभ, विस्तार और परिणाम 

भारत में राष्ट्रवाद का उदय

यूरोप में पुनर्जागरण पर बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

प्राचीन भारतीय इतिहास पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

जैन धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

बौद्ध धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1

आधुनिक भारत और राष्ट्रीय आंदोलन पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1

भारत के प्राचीन इतिहास पर आधारित क्विज-1 

भारत के मध्यकालीन इतिहास पर आधारित क्विज-1

भारत के मध्यकालीन इतिहास पर आधारित क्विज-1 

सिंधुघाटी की सभ्यता पर आधारित क्विज 

राष्ट्र गौरव पर आधारित क्विज