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परांतक चोल द्वितीय या सुंदरचोल (957-973 ई.)
अरिंजय की मृत्यु (957 ई.) के बाद अन्विल ताम्रपत्र में उल्लिखित उसकी रानी वैदुम्ब राजकुमारी कल्याणी से उत्पन्न पुत्र परांतक द्वितीय चोल सिंहासन पर बैठा, जिसे मदुरैकोंडराजकेशरि की उपाधि दी गई थी। परांतक चोल द्वितीय को सुंदरचोल के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि उसे पुरुष-सौंदर्य का प्रतीक माना जाता था। परांतक द्वितीय इस तथ्य के बावजूद चोल सिंहासन पर आरूढ़ हुआ कि उसका चचेरा भाई मदुरांतक उत्तमचोल (अरिंजय के बड़े भाई गंडारादित्य का पुत्र) जीवित था और चोल सिंहासन पर अधिक नहीं तो उसके बराबर का दावेदार था।
परांतक द्वितीय के राज्यारोहण के समय चोल साम्राज्य एक छोटे राज्य के रूप में सिकुड़ चुका था। दक्षिण में पांड्यों ने चोलों की पैतृक भूमि पर अधिकार कर लिया था। परांतक द्वितीय ने एक प्रकार से चोल साम्राज्य के भावी विस्तार का मार्ग प्रशस्त किया। उसने पांड्य शासक वीरपांड्य को पराजित कर मदुरै पर अधिकार कर लिया। किंतु सिंहल (श्रीलंका) पर अधिकार करने में वह सफल नहीं हो सका। परांतक द्वितीय ने उत्तर के राष्ट्रकूटों के विरूद्ध भी सैन्याभियान किया और सफलतापूर्वक तोंडैमंडलम् पर अधिकार कर लिया।
परांतक द्वितीय की उपलब्धियाँ
पांड्यों से युद्ध
सिंहासनारोहण के बाद परांतक द्वितीय (सुंदरचोल) ने सबसे पहले दक्षिण में पांड्यों के विरूद्ध अभियान किया। पांड्य शासक वीरपांड्य गंडरादित्य चोल के प्रयास को विफल कर स्वतंत्र शासक के रूप में शासन कर रहा था। लीडेन तथा करंदै दानपत्रों से ज्ञात होता है कि परांतक द्वितीय की चोल सेना ने 959 ई. के लगभग पांड्यदेश पर आक्रमण कर पांड्य शासक को पराजित किया। लीडेन ताम्रपत्र शिलालेख के अनुसार चेवूर के युद्ध में सुंदरचोल (परांतक द्वितीय) ने शत्रु के हाथियों के शरीरों में किये गये गहरे घावों से खून की नदियाँ बहा दी-
चेवूर नाम निपुरे निजचारुचाप मुक्ता तिशात शर राशि निरन्तराशः।
शातासि भिन्न रिपु दन्ति गिरिन्द्र निर्य्य द्रक्तापगा बहुविधा निरवर्त्तयत् सः।।
करकंदै ताम्रलेखों से पता चलता है कि सुंदरचोल (परांतक) के पुत्र आदित्य करिकालन (आदित्य द्वितीय) ने बारह वर्ष की आयु में ही इस युद्ध में वीरपांड्य के साथ उसी प्रकार क्रीड़ा किया, जिस प्रकार शेर का बच्चा हाथी के साथ खेलता है। इस युद्ध में पराजित होकर वीरपांड्य को भागकर सह्य पर्वत की चोटियों में शरण लेनी पड़ी। चूंकि आदित्य के शिलालेखों में ‘वीर पांड्यन थलाई कोंडा आदिथा करिकलन’ (वीर पांड्य का सिर ले लिया) उपनाम का प्रयोग किया गया है। इससे लगता है कि आदित्य करिकाल ने इस युद्ध में वीरपांड्य को मार डाला था। किंतु परांतक द्वितीय पांड्य क्षेत्र पर चोल शक्ति को फिर से स्थापित करने में सफल नहीं हुआ क्योंकि कुछ समय बाद पांड्यों ने पुनः अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। पांड्यों के वास्तविक उन्मूलन का श्रेय राजराज प्रथम को प्राप्त है।
श्रीलंका अभियान
श्रीलंका के शासक महिंद चतुर्थ ने 959 ई. के चोल-पांड्य युद्ध में वीरपांड्य का सहयोग किया था। वीरपांड्य को पराजित करने के बाद परांतक चोल द्वितीय ने पांड्य-सिंहल गठबंधन को शक्तिहीन करने के लिए शिरिय वेलार के नेतृत्व एक सेना श्रीलंका के विरुद्ध भेजी। किंतु यह अभियान चोलों के लिए नुकसानदायक सिद्ध हुआ क्योंकि इस युद्ध में चोल न केवल पराजित हुए, बल्कि शिरिय वेलार जैसे कई लोग मारे गये। महावंश से भी पता चलता है कि युद्ध में सुंदरचोल (परांतक द्वितीय) को पराजित होकर श्रीलंका के शासक महेंद्र चतुर्थ से मित्रता करके वापस लौटना पड़ा था। पांड्य और श्रीलंका के विरुद्ध सैनिक अभियान में परांतक द्वितीय को अपने पुत्र आदित्य द्वितीय के साथ-साथ पार्थिवेंद्रवर्मा तथा कोदुम्बालूर के भूतिविक्रमकेशरि से भी सहायता मिली थी।
उत्तर के राष्ट्रकूटों से प्रतिशोध
परांतक द्वितीय के दादा परांतक प्रथम को राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय ने पराजित किया था। परांतक द्वितीय ने राष्ट्रकूटों से युद्ध छेड़ दिया और उनको पराजित कर अधिकांश राष्ट्रकूट क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। कुछ शिलालेखों से पता चलता है कि एक चोल सेनापति ने अकेले ही राष्ट्रकूटों की सेना को पराजित किया था। दक्षिणी अर्काट, उत्तरी अर्काट तथा चिंग्लेपुत्त क्षेत्र से राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय के अभिलेख या तो अनुपलब्ध हैं या बहुत कम मिलते हैं, जबकि चोलों के अभिलेख अधिक मिले हैं। इससे लगता है कि परांतक द्वितीय ने राष्ट्रकूटों से तोंडैमंडलम् प्रदेश को पुनः छीन लिया था। राष्ट्रकूट प्रदेशों पर परांतक द्वितीय के पुनः अधिकार की पुष्टि इससे भी होती है कि उसकी मृत्यु काँची के स्वर्णमहल में हुई थी।
आदित्य द्वितीय (करिकाल) की हत्या
परांतक द्वितीय को अपने अंतिम दिनों में पारिवारिक संकटों का सामना करना पड़ा और उसके उत्तराधिकारी आदित्य द्वितीय की हत्या कर दी गई। कहा गया है कि आदित्य द्वितीय की मौत में पांडय गुप्तचरों का हाथ था और चेवूर की लड़ाई में वीरपांड्य की मौत का बदला लेने के लिए उसकी हत्या की गई थी। यद्यपि इसका समर्थन किसी प्रत्यक्ष प्रमाण से नहीं होता है, किंतु राजराज राजकेशरि के दूसरे वर्ष के उडैयारगुडि मंदिर लेख में आदित्य करिकाल की हत्या के लिए दोषी पाये गये कुछ लोगों की संपत्ति जब्त करने और उसकी नीलामी के विषय में राजाज्ञा का पालन करते हुए वीरनारायण चतुर्वेदिमंगलम् की सभा द्वारा उठाये गये उपायों का उल्लेख मिलता है। इससे स्पष्ट है कि आदित्य करिकाल की हत्या किसी षडयंत्र के फलस्वरूप की गई थी।
कुछ विद्वानों का अनुमान है कि आदित्य करिकाल की हत्या में संभवतः उत्तमचोल की भूमिका थी। उत्तमचोल परांतक द्वितीय के बाद चोल राजगद्दी पाना चाहता था, किंतु आदित्य द्वितीय उसके मार्ग में बाधक था। आदित्य द्वितीय की हत्या के बाद परांतक द्वितीय ने उत्तमचोल को अपना उत्तराधिकारी बनाया। परांतक द्वितीय के दूसरे पुत्र अरुलमोझिवर्मन (राजराज प्रथम) ने संभवतः गृहयुद्ध से बचने के लिए इसका विरोध नहीं किया। लगता है कि अरुलमोझिवर्मन ने उत्तमचोल से समझौता कर लिया कि उत्तमचोल के बाद सिंहासन उसके पुत्रों को नहीं, बल्कि अरुलमोझिवर्मन को ही मिलेगा। थिरुवलंगडु ताम्रपत्र शिलालेख में भी कहा गया है कि मधुरांतक उत्तमचोल ने अरुलमोझिवर्मन को अपना उत्तराधिकारी बनाया था।
परांतक द्वितीय का मूल्यांकन
परांतक द्वितीय अपने वंश का एक योग्य शासक था। आदित्य द्वितीय के कई शिलालेखों के अनुसार उसने अनेक शैक्षिक और सैनिक सुधारों को क्रियान्वित किया था। तिरुवलंगाडु लेख में उसके प्रशासन की प्रशंसा की गई है और कहा गया है कि संसार से बुराई हटाने के लिए वह मनु के रूप में पैदा हुआ था-
कलेर्बलात् प्रस्खलितं स्वशास्त्रं, पुनर्व्यवस्थापयितुम् पृथिव्याम्।
प्राप्तम्मनुं यम्मनुते जनौधः, प्रवृर्त्तचारित्ररतिनृपेन्द्रम्।।
परांतक द्वितीय को संस्कृत और तमिल साहित्य से बड़ा प्रेम था और उसने दोनों भाषाओं के विकास को प्रोत्साहन दिया। प्राचीनतम् चोल ताम्रानुशासन उसी के काल के हैं। सामवेद के जैमिनीय सूत्र का अनुयायी अनिरुद्ध ब्रह्मरायण शाही परिषद से संबद्ध था। तमिल व्याकरण वीरशोलियम की प्रसिद्ध टीका में उसे ‘साहित्य का आश्रयदाता’ बताया गया है।
परांतक द्वितीय एक धर्म-संहिष्णु शासक था और परमशैव होते हुए भी बौद्धधर्म के प्रति उदार भाव रखता था। भगवान बुद्ध से परांतक द्वितीय के बलवान और समृद्ध होने की प्रार्थना की गई है। उसने नेगपत्तिनम् में एक विदेशी बौद्ध मठ के लिए एक गाँव भी दान दिया था। वीरशोलियम में उसे ‘बौद्धधर्म का संरक्षक’ बताया गया है।
परांतक द्वितीय को ‘मदुरैकोंड राजकेशरि’ की उपाधि दी गई है। उसकी मृत्यु काँचीपुरम् में अपने स्वर्णमहल (980 ई) में हुई थी, इसलिए उसे ‘पोनमलिगैतुंजिनतेवर’ (स्वर्णमहल में मरनेवाला राजा) के रूप में जाना जाता है। उसकी एक रानी वनवान महादेवी, जो मलैयामन वंश की एक राजकुमारी थी, जो उसकी मृत्यु के समय सती हुई थी। संभवतः वनवान महादेवी की एक प्रतिमा उसकी पुत्री कुंदवै ने तंजावुर मंदिर में स्थापित की थी। परांतक द्वितीय की एक अन्य रानी एक चेर राजकुमारी थी, जो 1001 ई. तक जीवित थी।
परांतक चोल द्वितीय की मृत्यु के बाद 973 ई. के लगभग चोल शासन की बागडोर उत्तमचोल के हाथों में आई, जिसने संभवतः परांतक द्वितीय के शासनकाल के अंतिम दिनों में (969 ई.) उसके बड़े पुत्र आदित्य द्वितीय करिकाल की हत्या करवा दी थी। आदित्य करिकाल की मृत्यु के बाद परांतक द्वितीय ने विवश होकर उत्तमचोल को ही युवराज घोषित किया और अंत में परांतक द्वितीय की मृत्यु के बाद उत्तमचोल ने चोल राजगद्दी पर अधिकार कर लिया।
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