8 नवंबर 1927 को लंदन की टोरी सरकार ने भारत में संवैधानिक व्यवस्था के कामकाज की समीक्षा के लिए एक सात सदस्यीय संविधान आयोग साइमन कमीशन के गठन की घोषणा की।
1919 के भारत सरकार अधिनियम में यह व्यवस्था की गई थी कि 10 वर्ष के उपरांत एक ऐसा आयोग नियुक्त किया जायेगा, जो इस अधिनियम से हुई संवैधानिक प्रगति की समीक्षा करेगा।
समय से पूर्व साइमन कमीशन के गठन का कारण यह था कि निकट भविष्य में इंग्लैंड में आम चुनाव होनेवाले थे और टोरी सरकार नहीं चाहती थी कि आयोग का गठन आनेवाली सरकार करे। अप्रैल 1926 में भारतमंत्री ने वायसराय इरविन को लिखा था: ‘‘हम यह खतरा नहीं मोल ले सकते कि 1927 के कमीशन का मनोनयन हमारे उत्तराधिकारियों के हाथ में चला जाये।”
साइमन कमीशन का कार्य 1919 के अधिनियम के प्रगति की समीक्षा कर इस बात की सिफारिश करना था कि क्या भारत इस योग्य हो गया है कि यहाँ के लोगों को और संवैधानिक अधिकार दिये जायें? और यदि दिये जायें, तो उसका स्वरूप क्या हो?
साइमन कमीशन आयोग सर जान साइमन की अध्यक्षता में गठित हुआ, जिसके सभी सदस्य ब्रिटिश संसद से लिये गये थे। आयोग के सदस्यों के नाम थे- सर जॉन साइमन, क्लीमेंट एटली, हैरी लेवी-लॉसन, एडवर्ड कैडोगन, वरनोन हारटशोर्न, जॉर्ज लेन-फॉक्स, डोनाल्ड हॉवर्ड।
1919 के रौलट ऐक्ट की तरह साइमन कमीशन के गठन की घोषणा ने लोगों को उत्तेजित करने के लिए आग में घी डालने का काम किया। फलतः चौरी चौरा की घटना के बाद रुका हुआ राष्ट्रीय आंदोलन साइमन आयोग के गठन की घोषणा से पुनः गतिमान हो गया। सभी वर्गों के भारतीयों ने साइमन कमीशन के गठन का तीव्र विरोध किया क्योंकि साइमन कमीशन में एक भी भारतीय को नहीं रखा गया।
1927 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का मद्रास अधिवेशन एम.एन. अंसारी की अध्यक्षता में हुआ। मद्रास अधिवेशन में कांग्रेस ने ‘हर कदम पर, हर रूप में साइमन कमीशन के बहिष्कार’ का निर्णय किया। मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा ने भी कांग्रेस के साथ साइमन कमीशन के बहिष्कार का निर्णय लिया।
3 फरवरी 1928 को साइमन कमीशन बंबई पहुँचा। साइमन कमीशन के विरोध में अखिल भारतीय हड़ताल हुई और काले झंडे दिखाये। पूरे देश में साइमन गो बैक (साइमन वापस जाओ) के नारे गूँजने लगे। साइमन कमीशन जहाँ-कहीं भी गया- कलकत्ता (कोलकाता), लाहौर, लखनऊ, विजयवाड़ा और पूना- सभी स्थानों पर विशाल जनसमूह ने काले झंडे दिखाकर उसका स्वागत किया।
मद्रास में प्रदर्शनकारियों का पुलिस के साथ टकराव हुआ, गोली चली और एक व्यक्ति मारा गया। लखनऊ में खलीकुज्जमां ने पतंगों और गुब्बारों को साइमन कमीशन के सदस्यों के ऊपर ‘साइमन वापस जाओ’ लिखकर आकाश उड़ाया। साइमन कमीशन का विरोध करते हुए पुलिस की लाठियों से पंडित जवाहर लाल नेहरू घायल हो गए और गोविंद वल्लभ पंत अपंग।
लाहौर में 30 अक्टूबर 1928 को लाला लाजपत राय के नेतृत्व में साइमन का विरोध कर रहे युवाओं को बेरहमी से पीटा गया। इसी विरोध के दौरान स्कॉट ने शेर-ए-पंजाब लाला लाजपत राय की निर्ममता से पिटाई की। अंत में बुरी तरह घायल लाला लाजपत राय ने जनसभा में सिंह गर्जना की कि, ‘आज मेरे ऊपर बरसी हर एक लाठी की चोट अंग्रेजों की ताबूत की कील बनेगी।’ अंततः इसी चोट के कारण 18 दिन बाद 17 नवंबर 1928 को लाला लाजपत राय शहीद हो गये।

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साइमन आयोग की रिपोर्ट (Simon Commission Report)
साइमन आयोग ने 27 मई 1930 को अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की। आयोग की सिफारिशें इस प्रकार थीं-
- 1919 के भारत सरकार अधिनियम के तहत लागू की गई द्वैध शासन-व्यवस्था को समाप्त कर उत्तरदायी शासन की स्थापना की जाये।
- प्रांतीय क्षेत्र में विधि तथा व्यवस्था सहित सभी क्षेत्रों में उत्तरदायी सरकार गठित की जाए, किंतु केंद्र में उत्तरदायी सरकार के गठन का अभी समय नहीं आया है।
- केंद्रीय विधान मंडल को पुनर्गठित किया जाए जिसमें एक इकाई की भावना को छोड़कर संघीय भावना का पालन किया जायें साथ ही इसके सदस्य परोक्ष पद्धति से प्रांतीय विधान मंडलों द्वारा चुने जाएं।
- उच्च न्यायालय को भारत सरकार के नियंत्रण में कर दिया जाये।
- बर्मा (वर्तमान म्यांमार) को भारत से विलग कर दिया जाए तथा उड़ीसा एवं सिंध को अलग प्रदेश का दर्जा दिया जाये।
- प्रांतीय विधान मंडलों में सदस्यों की संख्या बढ़ाई जाये।
- गवर्नर व गवर्नर जनरल अल्पसंख्यक जातियों के हितों के प्रति विशेष ध्यान रखें।
- प्रत्येक दस वर्ष बाद पुनरीक्षण के लिए एक संविधान आयोग की नियुक्ति की व्यवस्था को समाप्त किया जाए और भारत के लिए एक ऐसा लचीला संविधान बनाया जाए, जो स्वयं से विकसित हो।
साइमन आयोग की रिपोर्ट ‘रद्दी की टोकरी में फेंकने के लायक’ थी। किंतु इस आयोग की रिपोर्ट सबसे बड़ा गुण यह था कि यह भारत की समस्याओं का एक बुद्धिमत्तापूर्ण अध्ययन था और इसने राजनैतिक पुस्तकालय को एक उच्चकोटि की रचना प्रदान की। साइमन आयोग की रिपोर्ट की कई सिफारिशें 1935 के भारत सरकार अधिनियम में लागू की गईं।
साइमन के बहिष्कार के कारण एकाएक नौजवानों के संघ और संगठन बनने लगे। इसके बहिष्कार के लिए देश के अनेक भागों में मजदूर-किसान पार्टियाँ बनीं, जो किसानों और मजदूरों में संगठित कर आंदोलित कर रही थीं। साइमन विरोधी आंदोलन की लहर में जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस नेता के रूप में उभरे। जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस ने पूरे देश का दौरा कर हजारों नौजवान सभाओं को संबोधित किया और असंख्य बैठकों की अध्यक्षता की। साइमन विरोधी आंदोलन के कारण रुका हुआ क्रांतिकारी आंदोलन भी उत्तर भारत और बंगाल में फिर से उठ खड़ा होने लगा था।
सर्वदलीय सम्मेलन और नेहरू रिपोर्ट, 1928 (All Party Conference and Nehru Report, 1928)
साइमन आयोग को नियुक्त करने वाले अनुदारपंथी राज्य सचिव लॉर्ड बिरकनहेड लगातार यह राग अलाप रहे थे कि भारतीय लोग संवैधानिक सुधार के लिए ऐसा ठोस प्रस्ताव बनाने में असमर्थ हैं, जिसको सभी भारतीयों का व्यापक राजनीतिक समर्थन प्राप्त हो।
भारतीय नेताओं ने बिरकनहेड की एक ‘सर्वसम्मत संविधान’ बनाने की चुनौती को स्वीकार किया और 28 फरवरी 1928 को दिल्ली में देश के विभिन्न विचारधाराओं वाले नेताओं का एक सर्वदलीय सम्मेलन आयोजित किया, जिसकी अध्यक्षता डॉ. अंसारी ने की। इस सम्मेलन में 29 संस्थाओं ने हिस्सा लिया, किंतु आपसी मतभेद के कारण कोई निर्णय नहीं लिया जा सका।
अगला सर्वदलीय सम्मेलन 19 मई 1928 को पुणे (बंबई) में हुआ। इस सम्मेलन में भारतीय संविधान के मसौदे को तैयार करने के लिए पं. मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में आठ सदस्यों की एक उप-समिति गठित की गई, जिसमें सर अली इमाम, एम.एस. अणे, तेजबहादुर सप्रू, मंगलसिंह, शोएब कुरैशी, सुभाषचंद्र बोस, एन.एम. जोशी और जी.पी. प्रधान शामिल थे। मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में गठित उप-समिति ने दर्जनों सम्मेलनों और साँझी बैठकों के बाद अगस्त 1928 में प्रसिद्ध ‘नेहरू रिपोर्ट’ को अंतिम रूप दिया।
नेहरू रिपोर्ट, 1928 (Nehru Report, 1928)

अगस्त 1928 को जारी की गई ‘नेहरू रिपोर्ट’ ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों को संविधान बनाने के अयोग्य बताने की चुनौती का कांग्रेस के नेतृत्व में दिया गया सशक्त प्रत्युत्तर था। इसने समस्त भारत के लिए एक इकाई वाला संविधान प्रस्तुत किया, जिसके द्वारा भारत को केंद्र तथा प्रांतों में पूर्ण प्रादेशिक स्वायत्तता मिले। नेहरू रिपोर्ट की प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार थीं-
- रिपोर्ट ने सुझाव दिया कि भारत को अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों की भांति स्वाधीन किया जाए और उसे पूर्ण उत्तरदायी शासन की स्थापना का अधिकार दिया जाए।
- शरारतभरी सांप्रदायिक चुनाव-पद्धति त्याग कर उसके स्थान पर संयुक्त निर्वाचन पद्धति की व्यवस्था की जाए। केंद्र एवं उन राज्यों में, जहाँ मुसलमान अल्पसंख्यक हों, उनके हितों की रक्षा के लिए कुछ स्थानों को आरक्षित कर दिया जाए (लेकिन यह व्यवस्था उन प्रांतों में न लागू की जाए, जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हों, जैसे पंजाब और बंगाल)।
- प्रांतों में द्वैध शासन समाप्त करके प्रांतीय स्वायत्तता प्रदान की जाए।
- केंद्र और प्रांतों में संघीय आधार पर शक्तियों का विभाजन किया जाए, किंतु अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र को दी जाएं।
- भाषाई आधार पर प्रांतों का गठन किया जाए और सिंध प्रांत को बंबई से अलग किया जाए।
- भारत में एक प्रतिरक्षा समिति, उच्चतम न्यायालय तथा लोक सेवा आयोग की स्थापना की जाए।
- केंद्र में भारतीय संसद या व्यवस्थापिका के दो सदन हों- निम्न सदन और उच्च सदन। निम्न सदन (हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव) के सदस्यों की संख्या 500 हो और इनका निर्वाचन वयस्क मताधिकार द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव-पद्धति से हो। उच्च सदन (सीनेट) के सदस्यों की संख्या 200 हो और इसके सदस्यों का निर्वाचन परोक्ष पद्धति से प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं द्वारा किया जाए।
केंद्र सरकार का प्रमुख गवर्नर जनरल हो और उसकी नियुक्ति ब्रिटिश सरकार द्वारा की जाए। गवर्नर जनरल केंद्रीय कार्यकारिणी परिषद् की सलाह पर कार्य करेगा, जो केंद्रीय व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होगी। प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं का कार्यकाल पाँच वर्ष होगा और इनका प्रमुख गवर्नर होगा, जो प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद् की सलाह पर कार्य करेगा।
- देसी राज्यों के अधिकारों एवं विशेषाधिकारों को सुनिश्चित किया जाए और उत्तरदायी शासन की स्थापना के पश्चात् ही किसी राज्य को संघ में सम्मिलित किया जाए।
इस रिपोर्ट में कुछ अन्य सिफारिशें भी की गई थीं, जैसे- वयस्कों के लिए मताधिकार, महिलाओं के लिए समान अधिकार, यूनियन (संगठन) बनाने की स्वतंत्रता और धर्म का हर प्रकार से राज्य से पृथक्करण।
वास्तव में नेहरू रिपोर्ट विवशता के समझौतों का एक संकलन थी और इसलिए कमजोर नींव पर खड़ी थी। दिसंबर 1928 में कलकत्ता में आयोजित सर्वदलीय सम्मेलन ने इस रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया क्योंकि इसमें ‘डोमिनियन स्टेट्स’ को पहला लक्ष्य और ‘पूर्ण स्वराज्य’ को दूसरा लक्ष्य घोषित किया गया था। जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में एक उग्र युवा दल इसका विरोधी था। नागरिकों के मूल अधिकारों में राजा और जमींदारों के भूमि-अधिकारों को सुरक्षित रखा गया था, जिसके कारण देश के तमाम नेताओं और आम जनता ने इसे स्वीकार नहीं किया।
मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा और सिख लीग के कुछ सांप्रदायिक रूझान वाले नेताओं को भी रिपोर्ट को लेकर अनेक आपत्तियाँ थीं। मुसलमानों का एक तबका तो हर तरह इस प्रस्ताव से अपने को अलग रखे हुए था और साल के अंतिम दिनों में यह बात एकदम साफ हो गई थी कि मुहम्मद अली जिन्ना जिस तबके का नेतृत्व कर रहे थे, वह मुस्लिम बहुल प्रांतों में मुसलमानों के लिए आरक्षित स्थानों की माँग को छोड़ने वाला नहीं था।
चौदह सूत्री माँग-पत्र, मार्च 1929 (Fourteen Demand Charter, March 1929)

‘ऑल पार्टीज मुस्लिम’ ने 1 जनवरी 1929 को नेहरू रिपोर्ट के प्रायः सभी प्रतिवेदनों को खारिज कर दिया। यद्यपि जिन्ना इस कांफ्रेंस में शामिल नहीं हुए, लेकिन उन्होंने मुस्लिम लीग के माध्यम से मार्च 1929 में नेहरू रिपोर्ट के विकल्प के रूप में एक चौदह सूत्री माँग-पत्र प्रस्तुत किया। इसमें संघीय संविधान, प्रांतीय स्वायत्तता, पंजाब और बंगाल में मुस्लिम बहुमत की स्थापना, केंद्रीय विधानसभा और प्रांतीय मंत्रिमंडलों तथा नौकरियों में मुसलमानों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व, अल्पसंख्यकों की शिक्षा, संस्कृति व भाषा की रक्षा, सभी संप्रदायों को धार्मिक स्वतंत्रता, सिंध प्रदेश को बंबई से अलग किये जाने जैसी माँगें शामिल थीं।
चूंकि मुसलमानों ने अपनी माँगों के द्वारा नेहरू समिति की रिपोर्ट के आधारभूत सिद्धांतों को रद्द कर दिया था, इसलिए कांग्रेस तथा लीग के बीच एकता स्थापित होना असंभव था। इस प्रकार सांप्रदायिक दलों ने राष्ट्रीय एकता का दरवाजा बंद कर दिया और इसके बाद सांप्रदायिकता का निरंतर विकास हुआ।
भारत में सांप्रदायिकता के उदय के कारण (Causes of Rise of Communalism in India)
सविनय अवज्ञा आंदोलन और गांधीजी (Civil Disobedience Movement and Gandhiji)