सविनय अवज्ञा आंदोलन (Civil Disobedience Movement)

सविनय अवज्ञा आंदोलन

गांधीजी के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्तर चलाया गया दूसरा महत्त्वपूर्ण आंदोलन नागरिक (सविनय) अवज्ञा आंदोलन था, जिसे ‘नमक सत्याग्रह’ के नाम से भी जाना जाता है। सविनय अवज्ञा आंदोलन ऐसे समय में चलाया गया, जब एक ओर विश्व में आर्थिक मंदी छाई हुई थी और दूसरी ओर पूर्व सोवियत संघ की समाजवादी सफलताओं तथा चीन में चल रहे क्रांति के प्रभाव से विश्व के विभिन्न पूँजीवादी देशों में श्रमजीवी जनता समाजवादी क्रांति की ओर और पराधीन देशों में आम जनता राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की ओर बढ़ रही थी।

आंदोलन की पृष्ठभूमि

1928 में गांधीजी सक्रिय राजनीति में वापस लौट आये और दिसंबर 1928 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में सम्मिलित हुए। इस समय कांग्रेस का पहला काम जुझारू वामपंथ से तालमेल स्थापित करना था। गांधीजी ने एक समझौता-प्रस्ताव सामने रखा, जिसमें नेहरू रिपोर्ट को स्वीकार किया गया था, और यह कहा गया था कि यदि सरकार 31 दिसंबर 1930 तक उसे स्वीकार नहीं करती, तो कांग्रेस पूर्ण स्वाधीनता पाने के लिए एक असहयोग आंदोलन चलायेगी। किंतु जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस के दबाव में इस समय-सीमा को घटाकर 1929 तक कर दिया गया। इसमें महत्त्वपूर्ण बात यह हुई कि कांग्रेस ने प्रतिबद्धता जाहिर की कि डोमिनियन स्टेट्स पर आधारित संविधान को यदि सरकार ने एक साल के अंत तक स्वीकार नहीं किया तो कांग्रेस न सिर्फ ‘पूर्ण स्वराज्य’ को अपना लक्ष्य घोषित करेगी, बल्कि इस लक्ष्य के लिए वह सविनय अवज्ञा आंदोलन भी चलायेगी। इस आशय का एक प्रस्ताव रखा गया, जिसका सदस्यों के बहुमत ने समर्थन किया और पूर्ण स्वराज्य के पक्ष में पेश किये गये संशोधन के प्रस्ताव स्वीकार नहीं किये गये। इसके साथ ही गांधीजी ने एक विस्तृत रचनात्मक कार्यक्रम का प्रस्ताव भी पारित कराया, जिसमें संगठन-कार्य का दोबारा आरंभ, छुआछूत का अंत, विदेशी कपड़ों का बहिष्कार, खादी का प्रचार-प्रसार, निग्रह, ग्राम-पुनर्निर्माण और स्त्रियों की निर्योग्यताओं की समाप्ति शामिल थे, किंतु इसमें हिंदू-मुस्लिम एकता जैसे अहम मुद्दे का कोई उल्लेख नहीं था।

गांधीजी जानते थे कि एक साल बाद सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया जाना है, इसलिए 1924 में जेल के छूटने के बाद से ही वे देश में यात्राएँ कर जनता को संघर्ष के लिए तैयार करते आ रहे थे। 1929 के शुरू तक वे काठियावाड़ मध्यभारत, बंगाल, मलाबार, त्रावनकोर, बिहार, संयुक्त प्रांत, कच्छ, असम, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और उड़ीसा आदि की यात्राएँ कर चुके थे। 1929 में वे सिंध, दिल्ली, कलकत्ता, बर्मा, संयुक्त प्रांत के पहाड़ी और मैदानी इलाकों का दौरा किये और साल के अंत में उन्होंने लाहौर के ऐतिहासिक कांग्रेस सम्मेलन में हिस्सा लिया।

1929 के पूर्व की यात्राओं में गांधीजी रचनात्मक कार्यों पर जोर देते आ रहे थे, किंतु अब वे जनता को सीधी कार्रवाई के लिए तैयार करने लगे थे। उन्होंने सिंध में नौजवानों को ‘अग्नि परीक्षा’ के लिए तैयार रहने को कहा। गांधीजी के कहने पर ही कांग्रेस कार्यसमिति ने एक ‘विदेशी कपड़ा बहिष्कार समिति’ का गठन किया। कलकत्ता में 4 मार्च 1929 को हजारों की भीड़ के सामने विदेशी कपडों में आग लगाकर विदेशी कपड़ों के बहिष्कार का श्रीगणेश किया गया।

कांग्रेस की इन तैयारियों के अतिरिक्त कुछ दूसरी घटनाओं ने भी 1929 में राजनीतिक सरगर्मी को बनाये रखा। 20 मार्च 1929 को एक ही झटके में सरकार ने 31 मजदूर नेताओं को गिरफ्तार कर लिया, जिसमें अधिकतर कम्युनिस्ट थे। इस गिरफ्तारी की सभी ने निंदा की जिसमें  कांग्रेस के अनेक नेता और गांधीजी स्वयं उनमें शामिल थे। हिसप्रस के भगतसिंह और बकटेुश्वरदत्त 8 अप्रैल 1929 को केंद्रीय विधानसभा में बम फेंकने के बाद गिरफ्तार कर लिये गये थे। जेल में हिसप्रस के सदस्यों ने बेहतर सलूक किये जाने को लेकर भूख हड़ताल की। इस भूख हड़ताल के 64वें दिन कैदी जतीनदास की जेल में मौत हो गई, जिसके कारण पूरे देश में अभूतपूर्व प्रदर्शन हुए।

इस दौरान मई 1929 में इंग्लैंड में रैम्जे मैक्डोनॉल्ड के नेतृत्व मजदूर दल की सरकार सत्ता में आई। सरकार से विचार-विमर्श के बाद वायसरॉय लॉर्ड इरविन ने वादा किया कि जैसे ही साइमन आयोग की रिपोर्ट आयेगी, डोमिनियन स्टेट्स जैसे मुद्दों पर विचार के लिए एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया जायेगा। भारत के राष्ट्रीय नेताओं ने एक घोषणा-पत्र (दिल्ली घोषणा-पत्र) जारी किया जिसमें माँग की गई कि यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि गोलमेज सम्मेलन में इस बात पर विचार-विमर्श नहीं होगा कि किस समय डोमिनियन स्टेट्स दिया जाए, बल्कि इस बैठक में इसको लागू करने की योजना बनाई जानी चाहिए। 5 नवंबर 1929 को हाउस ऑफ लॉर्ड्स में इस पर बहस हो चुकी थी, जिसके कारण अंग्रेजों की नीयत पर पहले से ही गंभीर शंकाएँ थीं। अंततः 23 दिसंबर को इरविन ने स्वयं गांधीजी और उनके सहयोगियों को बता दिया कि वह उनकी माँगों के संबंध में कोई आश्वासन देने की सिथति में नहीं हैं। इससे बातचीत का दौर समाप्त हो गया और संघर्ष का दौर आरंभ होने वाला था।

1920 के दशक के अंत में निर्यातमुखी उपनिवेशी अर्थव्यवस्था का एक बड़ा संकट आर्थिक मंदी के रूप में सामने आया। इस विश्वव्यापी आर्थिक संकट का मुख्य कारण अमेरिका के शेयर बाजार में 23 अक्टूबर 1929 से आनेवाली मंदी थी। इस मंदी ने उद्योगों के साथ-साथ कृषि को भी अपनी चपेट में ले लिया। अमरीकी पूँजीपतियों ने अनाज तथा तैयार मालों को नष्ट कर मूल्यों को स्थिर रखने का प्रयास किया, जबकि अमेरिका के नागरिक भूख की यातनाएँ झेल रहे थे। ब्रिटेन, फ्रांस डेनमार्क, नीदरलैंड तथा जापान की सरकारों ने भी यही नीति अपनाई; साथ ही साथ उन्होंने अपने आर्थिक संकट के बोझ को अपने-अपने उपनिवेशों पर भी लाद दिये।

इस विश्व आर्थिक संकट का प्रभाव भारत पर भी पड़ा, जिससे बहुत से पूँजीपति बर्बाद हो गये और किसानों का दिवाला निकल गया। कृषि-उत्पादन, अनाजों, पटसन, कपास, चाय तथा कॉफी के दामों में तेजी से गिरावट आई, लेकिन ब्रिटिश पूँजीपतियों ने अपने तैयार मालों के दामों में कमी नहीं आने दी। भारतीय उद्योगों के अनेक मालिक पश्चिमी भारत के सूती कपड़ा मिल-मालिक थे, जिनकी सहनशक्ति मंदी और सस्ते जापानी कपड़ों की प्रतियोगिता के कारण जवाब देने लगी थी। 1930 की गर्मियों तक बंबई के मिल-मालिकों के पास अनबिका माल रिकॉर्ड मात्र में मौजूद था- 1,20,000 गट्ठर कपड़े और 19,000 गट्ठर धागे। अब अनेक पूँजीपति चाहते थे कि वे अपनी लड़ाई लड़ने के लिए कांग्रेस के साथ खड़े हों। पूँजीपति वर्ग को अपनी ओर खींचने के लिए कांग्रेस भी उनकी अनेक माँगों का समर्थन करने लगी थी। यद्यपि साम्यवादियों के प्रभाव से औद्योगिक मजदूर वर्ग का भी प्रसार हो रहा था और 1928-29 भारत में श्रमिक असंतोष का चरमकाल था, किंतु सरकार के दमनात्मक हमलों के कारण 1930 तक कम्युनिस्टों का प्रभाव घटने लगा था।

भारतीय किसानों की दशा भी बहुत दयनीय हो गई थी, लेकिन उनके लगान-करों और टैक्सों में कोई कमी नहीं की गई। ऐसी विवशता में कर्जों की अदायगी एक समस्या बन गई, क्योंकि सूदखोर अपनी पूँजी वापस पाने के लिए अधिक उत्सुक थे। अनेक क्षेत्रों में ग्रामीण ऋणों का प्रवाह बंद हो गया और खेती जारी रखने के लिए किसानों को विवश होकर अपनी जमीनों के कुछ टुकड़े बेचने पड़े। इसलिए कांग्रेस के अंदर और कांग्रेस के बाहर भी बार-बार की तबाही और खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट के कारण लगान में कमी, बेदखली से सुरक्षा तथा कर्ज में राहत के लिए किसान आंदोलन उठ खड़े हो गये थे।

इसी वैश्विक मंदी के कारण ही जर्मनी में नाजीवादी तानाशाह हिटलर और इटली में फासीवादी तानाशाह मुसोलिनी का उदय हुआ। इसी दौर में जापान ने चेकोस्लोवाकिया पर, इटली ने अबीसीनिया पर तथा जापान ने चीन पर आक्रमण कर अपने-अपने साम्राज्यवाद का विस्तार करना प्रारंभ कर दिया। इसी के साथ-साथ यूरोप के उपनिवेशों में अथवा पराधीन देशों- चीन, हिंदेशिया, हिंद-चीन, बर्मा तथा फिलीपीन के साथ-साथ भारत में भी साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष तेज हो गया। भारत में इस साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष की अभिव्यक्ति कांग्रेस द्वारा महात्मा गांधीजी के नेतृत्व में चलाये गये नागरिक अवज्ञा आंदोलन के रूप में हुई।

कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन

1929 में दिसंबर के अंत में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में हुआ और वामपंथी रुझान वाले जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। जवाहरलाल नेहरू ने 1912 में पहली बार कांग्रेस के बांकीपुर अधिवेशन में भाग लिया था। वे पहली बार 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान जेल गये थे। ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू ने घोषणा की कि ‘‘हम भारत की पूर्ण स्वाधीनता के पक्ष में हैं, आज हमारा सिर्फ एक लक्ष्य है- ‘पूर्ण स्वाधीनता’। 31 दिसंबर 1929 को रात के बारह बजे पंडाल से बाहर निकलकर पूर्ण स्वाधीनता का नया-नया स्वीकृत तिरंगा झंडा लहराया गया और 26 जनवरी 1930 को ‘प्रथम स्वतंत्रता दिवस’ घोषित किया गया। उसके बाद हर साल 26 जनवरी को ‘स्वाधीनता दिवस’ के रूप में मनाया जाने लगा, जब लोग यह शपथ लेते थे कि, ‘‘ब्रिटिश शासन की अधीनता अब और आगे स्वीकार करना मानवता और ईश्वर के प्रति अपराध’’ होगा। इस अधिवेशन में  एक नागरिक अवज्ञा आंदोलन छेड़ने की घोषणा भी की गई, लेकिन संघर्ष का कोई कार्यक्रम नहीं तैयार किया गया। यह काम गांधीजी पर छोड़ दिया गया और पूरे कांग्रेस संगठन को गांधी के अधीन कर दिया गया। गांधीजी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन एक बार फिर सरकार के मुकाबले खड़ा हुआ। देश अब एक बार फिर आशा, उल्लास और मुक्त होने की दृढ़ भावना से भर उठा।

इस प्रकार साइमन आयोग की नियुक्ति, नेहरू रिपोर्ट की असफलता, वैश्विक मंदी और लाहौर कांग्रेस में स्वाधीनता के प्रस्ताव जैसे अनेक कारणों से नागरिक अवज्ञा आंदोलन-संबंधी घटनाएँ तेज हो गई थीं। कांग्रेस की कार्यकारिणी ने 1929 के लाहौर कांग्रेस में गांधीजी को यह अधिकार दिया था कि वह देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करेंगे। आंदोलन शुरू करने से पहले गांधीजी ने वायसरॉय लॉर्ड इरविन से बात की, किंतु उसने उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। इसके बाद गांधीजी ने ‘यंग इंडिया’ में एक लेख प्रकाशित कर इरविन एवं रैम्जे मैक्डोनॉल्ड के समक्ष एक चेतावनी भरा ग्यारह सूत्री माँग-पत्र प्रस्तुत किया। यह एक समझौता सूत्र था जिसमें वर्गीकरण के अनुसार छः आम हित के मुद्दे शामिल थे, जैसे- सैन्य-खर्च और सिविल सेवाओं के वेतनमानों में कमी, पूर्ण नशाबंदी, उन राजनीतिक कैदियों की रिहाई, जिनको हत्या का दंड नहीं मिला है, सी.आई.डी. में सुधार और उस पर जन-नियंत्रण तथा हथियार कानून में परिवर्तन; तीन विशिष्ट पूँजीवादी माँगे, जैसे- रुपया और स्टर्लिंग की विनिमय दर को घटाकर 1 शिलिंग 4 पेस तक लाना, विदेशी कपड़ों पर संरक्षणमूलक शुल्क और तटीय जहाजरानी का भारतीय जहाजरानी कंपनियों के लिए आरक्षण; और दो बुनियादी तौर पर किसानों के विषय, जैसे- मालगुजारी में 50 प्रतिशत की कमी और उस पर विधायिका का नियंत्रण तथा नमक कर का और नमक पर सरकार के एकाधिकार का उन्मूलन। यह राजनीतिक जनमत की एक व्यापक श्रेणी को आकर्षित करने और भारतवासियों को फिर से एक राजनीतिक नेतृत्व की छत्रछाया में एकजुट करने के लिए एक मिला-जुला पैकेज था जिसे गांधी ने स्वतंत्रता की अमूर्त धारणा को कुछ विशेष शिकायतों से जोड़ दिया था। इन माँगों को स्वीकार या अस्वीकार करने के लिए 31 जनवरी 1930 तक का समय दिया गया था।

ब्रिटिश सरकार ने गांधीजी के इस माँग-पत्र पर कोई विचार नहीं किया, इसलिए 14 फरवरी 1930 को साबरमती में कांग्रेस कार्यसमिति की एक बैठक में गांधीजी के नेतृत्व में नागरिक अवज्ञा आंदोलन को चलाने का फैसला किया गया। इस आंदोलन का उद्देश्य कुछ विशिष्ट प्रकार के सामूहिक रूप से गैर-कानूनी कार्य करके ब्रिटिश सरकार को झुकाना था। यह निर्णय गांधी पर छोड़ दिया गया कि नागरिक अवज्ञा आंदोलन किस मुद्दे को लेकर, कब और कहाँ से शुरू किया जायें

नमक सत्याग्रह

फरवरी 1930 के अंत में गांधीजी ने नमक पर एकाधिकार के मुद्दे को नागरिक अवज्ञा आंदोलन का केंद्रीय मुद्दा बनाने का फैसला किया, जो उनकी कुशल समझदारी और दूरदर्शिता का एक उत्कृष्ट उदाहरण था। नमक पर राज्य का एकाधिपत्य बहुत अलोकप्रिय था। प्रत्येक भारतीय के घर में नमक का प्रयोग अपरिहार्य रूप से होता था, किंतु उन्हें घरेलू प्रयोग के लिए भी नमक बनाने से रोक दिया गया था और इस तरह उन्हें दुकानों से ऊँचे दाम पर नमक खरीदने के लिए बाध्य होना पड़ रहा था। गांधीजी ने कहा, ‘‘पानी से पृथक् नमक नाम की कोई चीज नहीं है, जिस पर ‘कर’ लगाकर सरकार करोड़ों लोगों को भूखा मार सकती है तथा असहाय, बीमार और विकलांगों को पीड़ित कर सकती है। इसलिए यह कर अत्यंत अविवेकपूर्ण एवं अमानवीय है।’’ वस्तुतः नमककर वाली शिकायत अनेक कारणों से बहुत महत्त्वपूर्ण थी। वह जनता के सभी वर्गों को प्रभावित करती थी और इसका कोई विभाजक निहितार्थ नहीं था। वह सरकार के खजाने या किसी निहित स्वार्थ के लिए कोई खतरा नहीं थी, इसलिए यह न ही गैर-कांग्रेसी राजनीतिक तत्त्वों को नाराज करती और न ही सरकारी दमन को न्यौता देती। आखिरी बात यह कि उसे बेहद भावनात्मक बनाया जा सकता था और उसका भारी प्रचार मूल्य था। इस प्रकार नमक को मुद्दा बनाते हुए गाँधीजी ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ व्यापक असंतोष को संघटित करने की योजना बनाई। अधिकांश भारतीयों को गांधीजी की इस चुनौती का महत्त्व समझ में आ गया था, किंतु ब्रिटिश सरकार इसके महत्त्व को समझने में चूक गई।

दांडी मार्च: नागरिक अवज्ञा आंदोलन का आरंभ

नागरिक अवज्ञा आंदोलन शुरू करने के पूर्व 2 मार्च 1930 को गांधीजी ने वायसरॉय को एक पत्र लिखा कि यदि सरकार उनकी माँगों को पूरा करने का कोई प्रयत्न नहीं करेगी, तो 12 मार्च को वे नमक-कानून का उल्लंघन करेंगे। इरविन कोई समझौता करने के पक्ष में नहीं थे, इसलिए गांधीजी ने नागरिक (सविनय) अवज्ञा आंदोलन आरंभ करने के लिए 12 मार्च 1930 को ऐतिहासिक दांडी मार्च की शुरूआत की। उस दिन गांधीजी चुने हुए अपने 78 समर्थकों को साथ लेकर साबरमती आश्रम से चले और लगभग 375 कि.मी. दूर गुजरात के समुद्रतट पर स्थित दांडी गाँव पहुँचे। उनकी यात्रा, उनके भाषणों तथा जनता पर उनके प्रभाव की खबरें प्रतिदिन समाचार-पत्रों में छपती रहीं। पुलिस अधिकारियों द्वारा भेजी गई गोपनीय रिपोर्टों से पता चलता है कि रास्ते में पड़ने वाले गाँवों के सैकड़ों अधिकारियों ने गांधीजी के आह्वान पर अपने पदों से त्यागपत्र दे दिया था। रास्ते में ‘वसना’ गाँव में गांधीजी ने ऊँची जाति वालों को संबोधित करते हुए कहा था: ‘‘यदि आप स्वराज्य के हक में आवाज उठाते हैं, तो आपको अछूतों की सेवा करनी पड़ेगी। सिर्फ नमक-कर या अन्य करों के खत्म हो जाने से आपको स्वराज्य नहीं मिल जायेगा। स्वराज्य के लिए आपको अपनी उन गल्तियों का प्रायश्चित करना होगा, जो आपने अछूतों के साथ की है। स्वराज्य के लिए हिंदू, मुसलमान, पारसी और सिख, सबको एकजुट होना पडे़गा। यही स्वराज्य की सीढ़ियां हैं।’’ पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि गांधी की सभाओं में तमाम जातियों के औरत-मर्द शामिल हो रहे हैं। हजारों वॉलंटियर राष्ट्रवादी उद्देश्य के लिए सामने आ रहे हैं। उनमें से बहुत सारे ऐसे सरकारी अधिकारी थे जो औपनिवेशिक शासन में अपने पदों से इस्तीफा दे दिये थे। जिला पुलिस सुपरिटेंडेंट ने भी लिखा था कि श्री गांधी शांत और निश्चिंत दिखाई दिये। वे जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे हैं, उनकी ताकत बढ़ती जा रही है।

नमक-यात्रा की प्रगति को एक और तरीके से भी समझा जा सकता है। अमेरिकी समाचार पत्रिका ‘टाइम’ को गांधी की कद-काठी पर हंसी आती थी। पत्रिका ने उनके तकुए जैसे शरीर और मकड़ी जैसे पैरों का खूब मजाक उड़ाया था। अपनी पहली रिपोर्ट में ही ‘टाइम’ ने नमक यात्रा के मंजिल तक पहुँचने पर अपनी गहरी शंका व्यक्त कर दी थी। उसने दावा किया कि दूसरे दिन पैदल चलने के बाद गांधी जमीन पर पसर गये थे। पत्रिका को इस बात पर विश्वास नहीं था कि इस मरियल साधु के शरीर में और आगे जाने की ताकत बची है, किंतु एक रात में ही पत्रिका की सोच बदल गई। ‘टाइम’ ने लिखा कि इस यात्रा को जो भारी जन-समर्थन मिल रहा है, उसने अंग्रेज शासकों को बेचैन कर दिया है। अब वे भी गांधी को ऐसा साधु और जननेता कहकर सलामी देने लगे हैं जो ईसाई धर्मावलंबियों के खिलाफ ईसाई तरीकों का ही हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं।

गांधीजी 6 अप्रैल को दांडी पहुँचे, वहाँ उन्होने समुद्रतट से मुट्ठीभर नमक उठाया और नमक-कानून को तोड़कर नागरिक अवज्ञा आंदोलन का शुभारंभ किया। यह इस बात का प्रतीक था कि भारतीय जनता अब ब्रिटिश कानूनों और ब्रिटिश शासन के अंतर्गत जीने के लिए तैयार नहीं है। सुभाषचंद्र बोस ने गांधी के दांडी मार्च की तुलना इल्बा से लौटने पर नेपालियन के पेरिस मार्च और राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए मुसोलिनी के रोम मार्च से की है। नमक-कानून को तोड़ने के अवसर पर गांधीजी ने घोषणा की: ‘‘ब्रिटिश शासन ने इस देश को नैतिक, भौतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विनाश के कगार पर पहुँचा दिया है। मैं इस शासन को एक अभिशाप मानता हूँ। मैं इस शासन प्रणाली को नष्ट करने पर आमादा हूँ।……अब राजद्रोह मेरा धर्म बन चुका है। हमारा संघर्ष एक अहिंसक युद्ध है। हम किसी की हत्या नहीं करेंगे, मगर इस शासनरूपी अभिशाप को नष्ट होते देखना हमारा धर्म है।’’

9 अप्रैल को गांधीजी ने एक निर्देश जारी किया और जनता से अपील की कि जहाँ कहीं भी संभव हो, नमक-कानून तोड़कर नमक तैयार किया जाए और शराब, विदेशी कपड़े की दुकानों तथा अफीम के ठेकों के समक्ष धरने दिये जाएं। यदि संभव हो तो, करों की अदायगी भी रोक दी जाए, न्यायालयों का बहिष्कार किया जाए, सरकारी पदों से इस्तीफा दे दिया जाए और चरखा चलाकर सूत बनाया जायें छात्र सरकारी स्कूलों एवं कॉलेजों का बहिष्कार करें, स्थानीय नेता अहिंसा बनाये रखने में सहयोग करें। इन सभी कार्यक्रमों में सत्य एवं अहिंसा को सर्वोपरि रखा जाए, तभी हमें पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति हो सकती है।

नमक सत्याग्रह का प्रसार

एक बार जब गांधीजी ने दांडी में नमक-कानून तोड़कर इसकी शुरूआत कर दी, तो पूरे देश में नमक-कानून तोड़ने का सत्याग्रह प्रारंभ हो गया। भारतीय जनता ने नमक-कानून के उल्लंघन को ब्रिटिश कानूनों के विरोध एवं साम्राज्यवाद की समाप्ति के प्रयासों के प्रतीक के रूप में देखा। देश के अनेक भागों में समानांतर नमक-यात्राएँ आयोजित की गईं और नमक-कानून तोड़े गये। सी. राजगोपालाचारी ने त्रिचनापल्ली से वेदारण्यम तक की यात्रा की। मलाबार में वायकोम सत्याग्रह के नायकों के. केलप्पन एवं टी.के. माधवन ने नमक कानून तोड़ने के लिए कालीकट से पयान्नूर तक की यात्रा की। असम में लोगों ने नमक बनाने के लिए सिलहट से बंगाल के नोआखली समुद्रतट तक की यात्रा की। आंध्र्र प्रदेश के विभिन्न जिलों में नमक सत्याग्रह के मुख्यालय के रूप में ‘शिविरम्’ स्थापित किये गये। नमक कानून भंग करने पर सरकार गांधीजी को गिरफ्तार करने में असफल रही। स्थानीय नेताओं ने इसे अपने पक्ष में इस्तेमाल किया और लोगों को समझाया कि ‘‘हम लोगों से सरकार भयभीत हो गई है।’’ 14 अप्रैल को जवाहरलाल नेहरू गिरफ्तार कर लिये गये। इसके प्रतिरोध में कलकत्ता, मद्रास तथा कराची जैसे नगरों में उग्र प्रदर्शन हुए और प्रदर्शनकारियों की विशाल भीड़ और पुलिस के बीच टकराव हुए।

वायसरॉय के आदेश पर 4 मई 1930 को गांधीजी भी गिरफ्तार कर लिये गये, क्योंकि उन्होंने ऐलान किया था कि वे धरासना नमक कारखाने पर अभियान जारी रखेंगे। किंतु इसका परिणाम उल्टा हुआ और आंदोलन ने भयंकर विद्रोह का रूप धारण कर लिया। गांधीजी की गिरफ्तारी के विरोध में बंबई में लाखों की भीड़ सड़कों और गलियों में निकल आई। इसमें रेलवे और सूती मिलों में काम करने वाले मजदूर हजारों की संख्या में थे। कपड़ा व्यापारियों ने छः दिन की हड़ताल रखी। दिल्ली और कलकत्ता में पुलिस के साथ टकराव हुए और गोली भी चली। किंतु महाराष्ट्र के शोलापुर में इसकी प्रतिक्रिया सबसे उग्र थी। 7 मई को हजारों मिल-मजदूर काम छोड़कर प्रदर्शनकारियों से मिल गये और घूम-घूमकर शहर की सरकारी इमारतों और दूसरे सरकारी ठिकानों में तोड़फोड़ की। 8 मई को पुलिस और प्रदर्शनकारियों के मध्य भीषण संघर्ष हुआ, जिसमें अनेक लोग मारे गये तथा सैकड़ों घायल हो गये। मजदूरों ने शहर पर कब्जा कर लिया और लगभग एक समानांतर सरकार कायम कर ली जो 16 मई को मॉर्शल लॉ लागू होने तक बनी रही।

धरासना सत्याग्रह

नमक सत्याग्रह की सबसे तीव्र प्रतिक्रिया धरासना नमक सत्याग्रह के दौरान हुई। 21 मई 1930 को सरोजनी नायडू, इमाम साहब एवं गाँधीजी के पुत्र मणिलाल ने दो हजार आंदोलनकारियों के साथ धरासना नमक कारखाने पर धावा बोला। यद्यपि आंदोलनकारियों ने पूर्ण शांति के साथ विरोध-प्रदर्शन किया, किंतु पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर बर्बरतापूर्वक लाठीचार्ज किया, जिसमें दो लोग मारे गये और 320 लोग गंभीर रूप से घायल हो गये। धरासना के दमन का उल्लेख करते हुए पत्रकार मिलर ने लिखा है: ‘‘संवाददाता के रूप में पिछले 18 वर्ष में असंख्य नागरिक विद्रोह देखे हैं, दंगे, गली-कूचों में मारकाट एवं विद्रोह देखे हैं, लेकिन धरासना जैसा भयानक दृश्य मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखा।’’

नमक सत्याग्रह बड़ी तेजी से जनांदोलन में परिवर्तित हो गया। जून 1930 को 15,000 लोगों की एक भीड़ पुलिस का घेरा तोड़कर बंबई के वडाला नमक के कारखाने से नमक ले जाने में सफल रही। कर्नाटक में 10,000 लोगों ने सैनीकट्टा नमक कारखाने पर धावा बोला और लाठियाँ तथा गोलियाँ खाईं। मद्रास में नमक-कानून तोड़ने के कारण जनता और पुलिस में टकराव हुए। आंध्र्र प्रदेश में महिलाओं ने मीलों चलकर नमक-कानून को चुनौती दिया। बंगाल, विशेषकर मिदनापुर में नमक सत्यागह काफी समय तक चलता रहा। उड़ीसा में बालासोर, पुरी और कटक गैर-कानूनी तौर पर नमक-निर्माण के प्रमुख केंद्र बन गये।

गिरफ्तारी से पूर्व गांधीजी ने जोरदार तरीके से विदेशी वस्त्रों तथा शराब के बहिष्कार का आह्वान किया था। उन्होंने महिलाओं से विशेष रूप से इसमें अग्रणी भूमिका निभाने की अपील की थी। 1930 में भारत की महिलाओं ने यह दिखा दिया कि वे शक्ति और सामर्थ्य में किसी से कम नहीं हैं। जो महिलाएं कभी घर की चहारदीचारी से बाहर नहीं निकलती थीं, वे सबेरे से लेकर शाम तक शराब की दुकानों और विदेशी कपड़ों की दुकानों में धरना दिये नजर आती थीं। विदेशी कपड़ों और शराब के बहिष्कार में छात्रों और नौजवानों की भूमिका भी बहुत महत्त्वपूर्ण थी। बहिष्कार को क्रियान्वित करने में व्यापारी स्वयं काफी सक्रिय थे। कई मिल मालिकों ने विदेशी घागे का इस्तेमाल बंद कर दिया और शपथ ली कि वे ऐसा कोई मोटा कपड़ा नहीं बनायेंगे, जिसकी स्पर्धा खादी से हो। इसका उल्लंघन करने वालों पर संघ या संगठन की ओर से दंड लगाये गये और उनका सामाजिक बहिष्कार किया गया। कांग्रेस ने उनको काली सूची में रखा तथा उनकी दुकानों के सामने धरने दिया। शराब के बहिष्कार के कारण आबकारी शुल्क कम हो गया, जिससे सरकारी राजस्व का भारी नुकसान हुआ।

पूर्वी भारत

गांधीजी के आह्वान पर पूर्वी भारत में ग्रामीण जनता ने ‘चौकीदारी कर न देने’ का आंदोलन चलाया। चौकीदार गाँव के रक्षक होते थे और पुलिस बल की एक इकाई के रूप में काम करते थे। इन चौकीदारों से लोग बड़ी घृणा करते थे क्योंकि वे खुफियागिरी भी करते थे और जमींदारों के पालतू होते थे। बिहार के सारन, मुंगेर तथा भागलपुर के जिलों में जनता ने ‘चौकीदारी कर’ देने से इनकार कर दिया और चौकीदारों को त्यागपत्र देने के लिए प्रेरित किया। जहाँ आम जनता अपनी इच्छा से इन कार्रवाइयों में शामिल नहीं हुई, वहाँ गाँव के स्तर पर जोशीले कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने अपने बहिष्कार कार्यक्रम को मनवाने के लिए सीमित हिंसा का और सामाजिक बलप्रयोग के दूसरे सूक्ष्म रूपों का सहारा लिया। भागलपुर जिले के ‘बिहपुर’ गाँव का कांग्रेसी आश्रम राष्ट्रवादी गतिविधियों का केंद्र था। 31 मई को पुलिस ने इस आश्रम पर कब्जा कर लिया। आंदोलनकारियों के उत्साहवर्धन के लिए पटना से राजेंद्र प्रसाद एवं अब्दुलबारी ने वहाँ जाकर एक विशाल रैली को संबोधित किया। रैली को तोड़ने के लिए पुलिस ने लाठियों का प्रयोग किया, जिसमें राजेंद्र प्रसाद को भी चोटें आईं। अन्य जगहों की तरह यहाँ भी दमन के कारण राष्ट्रवादी गतिविधियों की शक्ति और बढ़ गई और स्थिति ऐसी हो गई कि देहाती इलाकों में पुलिस का घुसना असंभव हो गया। मुंगेर के ‘बहरी’ नामक स्थान पर भी सरकार का राज समाप्त-सा हो गया।

बंगाल

बंगाल में मानसून चालू होने से नमक बनाने में दिक्कत आई, इसलिए आंदोलन नमक से हटकर चौकीदारी एवं यूनियन बोर्ड-विरोधी आंदोलन में बदल गया। यहाँ भी लोगों को भयंकर दमन का सामना करना पड़ा। हजारों की संपत्ति जब्त की गई या नष्ट की गई। पुलिस से बचने के लिए लोगों को भागकर जंगलों में भी छिपना पड़ा।

गुजरात

गुजरात में खेड़ा, बारदोली और भड़ौच जिले के जंबूसर में ‘कर न अदा करने’ का एक सशक्त आंदोलन तेजी से चलाया जा रहा था। हजारों की संख्या में लोग अपने परिवार और मवेशियों के साथ ब्रिटिश नियंत्रणवाले भारत से निकल कर बड़ौदा जैसे रजवाड़ेवाले क्षेत्रों में चले गये। सरकार ने आंदोलनकारियों को बुरी तरह प्रताड़ित किया। उनके घरों को तोड़कर और उनमें घुसकर घर की चीजें नष्ट कर दी गईं। पुलिस ने सरदार वल्लभभाई पटेल की 80 वर्ष की माँ को भी नहीं छोड़ा, जो करमसाड़ के अपने घर में बैठी खाना पका रही थीं।

मध्य प्रांत, महाराष्ट्र और कर्नाटक

मध्य प्रांत, महाराष्ट्र और कर्नाटक में कड़े वन-नियमों के विरुद्ध वन-सत्याग्रह चलाये गये और दमनकारी औपनिवेशिक जंगल-कानून तोड़े गये। छोटानागपुर के आदिवासी क्षेत्रों में यह आंदोलन बहुत सक्रिय था। यहाँ सरकार ने वनों को प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित कर वहाँ पशुओं को चराने, लकड़ी काटने एवं वनोत्पादों को एकत्रित करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। कुछ जगहों पर वन-नियमों को तोड़नेवाली भीड़ की संख्या 70,000 से अधिक हो जाती थी। इसी आंदोलन के दौरान बैतूल में गोंड जनजाति के गंजनकोर्कू जैसे नेताओं का उदय हुआ।

असम

असम में कुख्यात ‘कनिंघम सरकुलर’ के विरोध में छात्रों ने एक शक्तिशाली आंदोलन चलाये। कनिंघम सरकुलर में छात्रों और अभिभावकों से सद्व्यवहार का प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करने के लिए कहा गया था। आंदोलन के दौरान इस सरकुलर का उल्लंघन किया गया और इसके विरुद्ध प्रदर्शन किये गये।

संयुक्त प्रांत

संयुक्त प्रांत में आंदोलन कुछ भिन्न किस्म का था। यहाँ पर ‘कर न दो, लगान न दो’ का आंदोलन चलाया गया। ‘कर न देने’ का आह्वान जमींदारों के लिए था और उनसे निवेदन किया गया था कि वे सरकार को राजस्व न दें। ‘लगान न देने’ की अपील किसानों से की गई थी, ताकि वे जमींदारों को लगान न दें। चूंकि अधिकांश जमींदार ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार थे, इसलिए किसानों का लगान-विरोधी आंदोलन ही विरोध-प्रदर्शन का प्रमुख मुद्दा रहा। यद्यपि प्रारंभिक महीनों में आंदोलन काफी शक्तिशाली था, किंतु सरकारी दमन के कारण यह धीरे-धीरे कमजोर पडता़ गया। अक्टूबर 1930 से इसमें पुनः तेजी गई और आगरा एवं रायबरेली में इसने सफलता हासिल की।

मणिपुर

नागरिक अवज्ञा आंदोलन की गूँज देश के पूर्वी कोनों में भी सुनाई पड़ी। इस आंदोलन में मणिपुरी जनता ने बहादुरी के साथ भागीदारी की। नागालैंड की एक तेरह वर्षीय वीरबाला गिडालू ने कांग्रेस और गांधीजी के आह्वान पर विदेशी शासन के विरुद्ध विद्रोह का झंडा बुलंद किया। 1932 में यह युवा रानी पकड़ ली गई और उसे आजीवन कारावास की सजा मिली। रानी के बारे में 1937 में जवाहरलाल नेहरू ने लिखा: ‘‘एक दिन वह आयेगा, जब भारत स्नेहपूर्वक उसका स्मरण और उसका सम्मान करेगा।’’ रानी के जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा असम के विभिन्न जेलों की काल-कोठरियों में बीत गया और वह 1947 में स्वतंत्र भारत की सरकार द्वारा ही मुक्त हो सकी।

उत्तर- पश्चिमी सीमा प्रांत

उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत में जनाक्रोश की अभिव्यक्ति कई रूपों में देखने को मिली जहाँ कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारी को लेकर जनता ने अभूतपूर्व प्रदर्शन किया। पेशावर में शेरदिल पठानों ने अपने करिश्माई नेता ‘सीमांत गांधी’ बादशाह खान के नेतृत्व में ‘खुदाई खिदमतगार’ (ईश्वर के सेवक) नामक संगठन बनाया, जो जनता के बीच ‘लाल कुर्ती वाले’ कहलाते थे। इन्होंने पश्तो भाषा में ‘पख्तून’ नामक एक पत्रिका निकाली, जो बाद में ‘देशरोजा’ नाम से प्रकाशित हुई। ये लोग अहिंसा और स्वाधीनता संघर्ष को समर्पित थे। यहाँ आंदोलन की शुरुआत तब हुई, जब 23 अप्रैल 1930 को पुलिस ने स्थानीय कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी के विरोध में जनता ने हिंसक प्रदर्शन किया। इसी समय पेशावर में गढ़वाली सिपाहियों की दो प्लाटूनों ने चंद्रसिंह गढ़वाली के नेतृत्व में अहिंसक प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। इस घटना से स्पष्ट हो गया कि राष्ट्रवाद की भावना भारतीय सेना तक में फैलने लगी थी जो ब्रिटिश शासन का प्रमुख आधार थी।

जनता ने संभवतः नेहरू के संदेश को दिल में धारण कर लिया था। दिसंबर 1929 में लाहौर में जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय झंडे को कभी न झुकने देने का संदेश दिया था: ‘‘एक बार फिर आपको याद रखना है कि अब यह झंडा फहरा दिया गया है, जब तक एक भी हिंदुस्तानी मर्द, औरत या बच्चा जिंदा है, इसे झुकना नहीं चाहिए।’’ आंदोलन के दौरान भयंकर और निर्मम दमन के सामने राष्ट्रीय झंडे के सम्मान की रक्षा का प्रयास विचित्र प्रकार की बहादुरी का रूप धारण कर लेता था। आंध्र प्रदेश के तटीय इलाके गुंटूर में टोटा नरसैया नायडू पुलिस की मार खाते-खाते बेहोश हो गये, किंतु राष्ट्रीय झंडा नहीं छोड़ा। सूरत में छोटे-छोटे बच्चों ने पुलिस द्वारा बार-बार झंडा छीन लिये जाने से तंग आकर तिरंगे की ही ड्रेस सिलवा लिया। उस ड्रेस को पहनकर जीवित झंडे शान से गलियों और सड़कों पर घूमते रहे और पुलिस को चुनौती देते रहे।

इस सत्याग्रह को जन-आंदोलन के रूप में लोकप्रिय बनाने के लिए आंदोलनकारियों ने विभिन्न माध्यमों का सहारा लिया। गाँवों और कस्बों में प्रभातफेरियां निकाली जाती थीं। गाँवों तक राष्ट्रीय संदेश पहुँचाने के लिए जादुई लालटेनें काम में लाई जाती थीं। गैर-कानूनी पत्र-पत्रिकाओं ने भी आंदोलन को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके साथ ही साथ नेताओं के लगातार दौरे, बैठकें और छोटी-बड़ी जनसभाएँ इस आंदोलन का केंद्रीय आधार थीं। बच्चों की वानर सेना संगठित की गई और लड़कियों ने माजेरी सेना बनाने की भी माँग की।

नमक सत्याग्रह की विशेषताएँ

नमक सत्याग्रह की कुछ उल्लेखनीय विशेषताएँ थीं। एक, दांडी मार्च को यूरोप और अमेरिकी प्रेस ने व्यापक महत्त्व दिया और इस घटना के कारण गांधीजी दुनिया की नजर में आ गये। दूसरे, बड़ी संख्या में महिलाओं ने सविनय (नागरिक) अवज्ञा आंदोलन में भागीदारी की। सामाजिक कार्यकर्त्ता कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने गांधीजी को सलाह दी थी कि वे अपने आंदोलनों को पुरुषों तक ही सीमित न रखें। हजारों महिलाओं ने घरों से बाहर निकलकर विदेशी कपड़ों और शराब की दुकानों पर भी धरने दिये और अनेक स्थानों पर एक-दो हजार महिलाओं की भागीदारीवाले जुलूसों ने पूरे देश को आश्चर्य में डाल दिया और अधिकारियों को भौंचक्का कर दिया। कमलादेवी खुद उन असंख्य महिलाओं में से एक थीं, जिन्होंने नमक या शराब-कानूनों का उल्लंघन करते हुए सामूहिक गिरफ्तारी दी थी। तीसरे, शहरी क्षेत्रों की तरह ग्रामीण क्षेत्रों में भी, जैसे बंगाल में गांधीवादी आंदोलन में भागीदारी को किसान महिलाएंँ एक धार्मिक कृत्य समझती थीं, और वे अधिकतर ऊपर की ओर गतिशील किसान जातियों की महिलाएँ थीं। चाौथे, औद्योगिक घरानों का विशाल समर्थन सविनय अवज्ञा आंदोलन की एक नई विशेषता थी। कम से कम आरंभिक काल में उन्होंने आंदोलन के लिए धन दिया और बहिष्कार आंदोलन का समर्थन किया, खासकर विदेशी कपड़ों के बहिष्कार का। परिणामतः आयातित कपड़ों का दाम 1929 के 2.6 करोड़ पौंड से घटकर 1930 में 1.37 करोड़ पौंड रह गया। पाँचवाँ और संभवतः सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि नमक सत्यागह के कारण अंग्रेजों को यह लगने लगा कि अब उनका निरंकुश शासन बहुत दिन तक नहीं चल सकेगा और उन्हें भारतीयों को सत्ता में भागीदारी देनी ही पड़ेगी।

सरकार की प्रतिक्रिया

नागरिक अवज्ञा आंदोलन की अप्रत्याशित सफलता से ब्रिटिश सरकार ‘दिग्भ्रमित और भौचक्की’ रह गई। पहले उसने सोचा था कि यदि आंदोलन में हस्तक्षेप न किया जाए, तो आंदोलन अपने आप असफल हो जायेगा। किंतु आंदोलन की तीव्रता और व्यापकता से झल्लाई सरकार ने बाद में नागरिक अवज्ञा आंदोलन के साथ भी पहले जैसा ही व्यवहार किया। निर्मम दमन, निहत्थे स्त्री-पुरुषों पर लाठी और गोली की बौछार आदि के द्वारा इसे कुचलने के प्रयास किये गये। गांधीजी तथा दूसरे कांग्रेसी नेताओं समेत लगभग 90,000 से अधिक सत्याग्रही गिरफ्तार किये गये। कांग्रेस को गैर-कानूनी संगठन घोषित कर दिया गया। समाचार-पत्रों पर कड़ा सेंसर लगाकर प्रेस का मुँह बंद कर दिया गया। सरकारी आँकड़ों के अनुसार पुलिस की गोलीबारी में 110 से अधिक लोग मारे गये और 300 से अधिक घायल हुए। गैर-सरकारी आँकड़ों के अनुसार मृतकों की संख्या इससे बहुत अधिक थी। दक्षिण भारत में दमन का भयानक रूप देखने को मिला। पुलिस प्रायः लोगों को खादी या गांधी टोपी पहने देखकर ही पीट देती थी। आंध्र प्रदेश के एलौरा नामक स्थान पर भी पुलिस की गोलियों से अनेकों लोग मारे गये। सरकारी दमन-चक्र का सबसे भयानक रूप बंबई में देखने को मिला।

इस बीच 27 मई 1930 को साइमन कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। इसमें भारत को डोमिनियन स्टेट्स के अधिकार दिये जाने की चर्चा तक नहीं की गई थी। इससे सरकार अलग-थलग पड़ गई, यहाँ तक कि गरमदलीय विचार के राजनेता भी नाराज हो गये। सरकार को लगा कि भारतीयों की संवैधानिक माँगों की अब अधिक समय तक उपेक्षा करना ठीक नहीं है। वायसरॉय इरविन ने 9 जुलाई 1930 को एक समझौतावादी घोषणा की कि डोमिनियन स्टेट्स की माँग पर विचार करने के लिए ब्रिटिश भारत तथा देसी रियासतों के प्रतिनिधियों का लंदन में एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया जायेगा। इस घोषणा का महत्त्व इस बात में है कि ब्रिटिश सरकार ने पहली बार एक सम्मेलन द्वारा भारत के संवैधानिक विकास के बारे में सोचने एवं निर्णय करने का कार्यक्रम बनाया। वायसरॉय के कहने पर तेजबहादुर सप्रू और एम.आर. जयकर ने कांग्रेस और सरकार के बीच शांति-स्थापना की संभावनाएँ तलाश की, किंतु बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला।

पहला गोलमेज सम्मेलन

लंदन (सेंट जेम्स पैलेस) में आयोजित पहले गोलमेज सम्मेलन में मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा, उदारपंथियों, दलित वर्ग तथा भारतीय राजे-रजवाड़ों ने भाग लिया। ब्रिटिश शासकों तथा भारतीयों को बराबर की हैसियत देकर की जानेवाली यह पहली बैठक थी, लेकिन ‘कांग्रेस’ के बिना सम्मेलन ‘बिन दूल्हे की बारात’ हो गया। सम्मेलन के लगभग हर प्रतिनिधि ने इस बात को रेखांकित किया कि संवैधानिक विचार-विमर्श की कोई भी कार्यवाही बिना कांग्रेस को शामिल किये कोई महत्त्व नहीं रखती। फलतः 19 जनवरी 1931 को यह सम्मेलन बिना किसी वास्तविक उपलब्धि के समाप्त हो गया। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने उम्मीद जताई कि अगले विचार-विमर्श में कांग्रेस अवश्य भाग लेगी।

गांधी-इरविन समझौता, 1931

25 जनवरी को गांधीजी के साथ-साथ कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्यों को बिना शर्त रिहा कर दिया गया, ताकि किसी सहमति पर पहुँचने के लिए कांग्रेस को राजी किया जा सके। भारतीय नेताओं और समाज के सभी वर्गों के नुमाइंदों से बातचीत करके कांग्रेस कार्यकारिणी ने गांधीजी को वायसरॉय से बातचीत करने के लिए अधिकृत किया। 15 दिन के लंबे विचार-विमर्श के बाद 5 मार्च 1931 को गांधी-इरविन समझौते के रूप में एक दस्तावेज सामने आया, जिसे कुछ लोगों ने ‘शांति-समझौता’ और कुछ ने ‘अस्थाई करार’ नाम दिया। लेकिन इस समझौते से कांग्रेस की स्थिति सरकार के बराबर हो गई।

गांधी-इरविन समझौते पर कांग्रेस की ओर से गांधी ने और सरकार की ओर से लॉर्ड इरविन ने हस्ताक्षर किये। समझौते की शर्तों के मुताबिक ब्रिटिश सरकार हिंसा के दोषी लोगों को छोड़कर, आंदोलन में भाग लेनेवाले सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करने पर तैयार हो गई। इस समय जो दंड (जुर्माने) लगाये गये थे और जिनको वसूल नहीं किया गया था, उनको माफ करने और जब्त की गई उन जमीनों को, जो तीसरे पक्ष को बेंची नहीं गई थीं, वापस किया जाना तय हुआ। जिन सरकारी कर्मचारियों ने त्यागपत्र दे दिया था, उनके साथ नरमी का बर्ताव किया जाना था। सरकार ने तटीय इलाकों में घरेलू उपयोग के लिए नमक-उत्पादन की अनुमति दे दी और अफीम, शराब तथा विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर शांतिपूर्ण तरीके से धरना देने के अधिकार को भी मान लिया। वायसरॉय ने गांधी की दो माँगों- एक तो पुलिस ज्यादतियों की जाँंच कराने और दूसरे, भगतसिह तथा उनके साथियों की फाँसी की सजा कम करने को स्वीकार नहीं किया। कांग्रेस की ओर से गांधी ने नागरिक (सविनय) अवज्ञा आंदोलन समाप्त करने की शर्त मान ली। समझौते में यह भी निहित था कि कांग्रेस दूसरे गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा लेगी।

गांधी-इरविन समझौते को लेकर काफी मतभेद और विवाद रहा है। अनेक तत्कालीन कांग्रेसी नेता, विशेषकर वामपंथी युवा गांधी-इरविन शांति समझौते से असंतुष्ट थे, क्योंकि सरकार ने एक भी प्रमुख राष्ट्रवादी माँग को स्वीकार नहीं किया था। जवाहरलाल नेहरू एवं सुभाषचंद्र बोस का आरोप था कि गांधीजी ने पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता के लक्ष्य को बिना ध्यान में रखे ही समझौता कर लिया। युवा कांग्रेसी इस समझौते से इसलिए अधिक असंतुष्ट थे, क्योंकि गांधीजी तीनों क्रांतिकारियों- भगतसिंह, राजगुरु एवं सुखदेव की फाँसी की सजा को आजीवन कारावास में नहीं बदलवा सके और 23 मार्च 1931 को उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया। कुछ लोगों के अनुसार यह समझौता किसानों के साथ धोखा था, क्योंकि किसानों की जब्त हुई जो जमीन तीसरे पक्ष का बेंच दी गई थीं, उसे वापस दिलाने की शर्त समझौते में नहीं थी। इससे गुजरात के पाटीदार किसान विशेष रूप से प्रभावित थे। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि गांधी-इरविन समझौता भारतीय पूँजीपतियों के ढुलमुल स्वभाव का और गांधी का उनके दबाव में आकर काम करने का प्रमाण था। तर्क दिया गया कि मंदी, बहिष्कार, हड़तालों और सामाजिक अस्त-व्यस्तताओं के कारण उद्योगपतियों का उत्साह ठंडा पड़ गया था और पूँजीपति चाहते थे कि या तो सविनय अवज्ञा समाप्त कर दिया जाए या कांग्रेस और सरकार के बीच एक शांति-समझौता हो जायें गांधी और पूँजीपति, दोनों ही अनियंत्रित जन-आंदोलनों से भयभीत थे, इसीलिए गांधी पर संवैधानिक राजनीति की ओर वापस आने का दबाव पड़ा था।

यह सही है कि इस समझौते से नौजवान काफी निराश हुए थे क्योंकि वे रोने-बिलखने की तुलना में मर-मिटने को वरीयता देते थे। यह भी सही है कि गुजरात के किसान खुश नहीं थे क्योंकि उनकी कुछ जमीनें उनको तत्काल वापस नहीं मिल सकी थीं, किंतु विशाल जन-समुदाय का अधिकांश हिस्सा इस बात से प्रभावित था कि शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य और उसकी सरकार को उनके आंदोलन को महत्त्व देना पड़ा, उनके नेताओं के साथ बराबरी का सलूक करना पड़ा और उनके साथ समझौता भी करना पड़ा। इस समझौते के कारण जो हजारों लोग जेल से निकलकर बाहर आये, उनको विजयी सिपाहियों जैसा सम्मान दिया गया। यही नहीं, उड़ीसा के किसानों ने इस समझौते को गांधीजी की विजय मानकर जश्न मनाया और उनमें करों की अदायगी रोकने तथा नमक बनाने का उत्साह और बढ़ा।

जहाँ तक औद्योगिक वर्ग का गांधी पर आंदोलन वापस लेने के लिए दबाव डालने का सवाल है, तो यह सही है कि औद्योगिक समुदायों ने आंदोलन का समर्थन किया और उसकी आरंभिक सफलता के लिए वे श्रेय के एक अंश का दावा भी कर सकते थे, फिर भी, वे कभी इस स्थिति में नहीं रहे कि गांधीजी पर आंदोलन वापस लेने का दबाव डाल सकें। वैसे भी, गांधी की कांग्रेस अपने-आपको एक सगंठन के रूप में पेश करती आ रही थी, जिसमें सभी वर्ग और समुदाय के लोग शामिल थे। इसलिए इसकी संभावना बहुत कम है कि एक विशेष वर्ग के हितों को पूरा करने के लिए गांधीजी ने इतना महत्वपूर्ण  निर्णय लिया होगा।

गांधीजी ने इस समझौते को बहुत महत्त्व दिया था क्योंकि उनका विश्वास था कि लॉर्ड इरविन और ब्रिटिश सरकार भारतीय माँगों पर बातचीत के बारे में गंभीर थे। सत्याग्रह के संबंध में गांधीजी की धारणा थी कि प्रतिपक्षी को हृदय-परिवर्तन के प्रदर्शन करने का अवसर दिया जाना चाहिए। उनका यह भी मानना था कि किसी भी जनांदोलन की आयु बहुत लंबी नहीं होती, उसको बहुत दिनों तक जारी नहीं रखा जा सकता है। सक्रिय राजनीतिज्ञों की तरह आम जनता की बलिदान की क्षमता अनंत नहीं होती। इसके अलावा, गांधीजी ने बराबरी के आधार पर बातचीत की थी जिसने कांग्रेस की प्रतिष्ठा को सरकार की प्रतिष्ठा के बराबर ला दिया था। शायद यही कारण है कि वे कांग्रेस के कराची अधिवेशन में इस समझौते का अनुमोदन कराने में सफल रहे।

वास्तव में स्वयंसेवकों की गिरफ्तारी से सितंबर 1930 के बाद ही आंदोलन में थकान के लक्षण आने लगे थे। कस्बों में नौजवानों और छात्रों में तो ऊर्जा अभी बनी हुई थी, किंतु सौदागरों और दुकानदारों के लिए लंबे समय तक नुकसान उठाना मुश्किल हो रहा था और बहिष्कार की सफलता के लिए इस वर्ग का सहयोग आवश्यक था। मध्यम वर्ग तो आरंभ से ही उत्साह से रहित था और अब शिक्षित युवा भी क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की ओर अधिक खिंचने लगे थे। दूसरी ओर मजदूर वर्ग का समर्थन गायब रहा और उसके हाल के उग्र झुकाव को देखते हुए गांधीजी उनको आंदोलन में खींचने के विषय में शंकित थे। एक अपवाद था नागपुर, जहाँ मजदूर वर्ग की अच्छी भागीदारी रही। गाँवों में गुजरात के पाटीदारों या संयुक्त प्रांत के जाटों जैसे अधिक धनी किसानों का उत्साह संपत्ति की जब्ती और बिक्री के कारण ठंडा पड़ गया था। दूसरी ओर खेतिहर पैदावारों के दामों में भारी गिरावट के कारण किसानों के आंदोलनों में उग्र प्रवृत्तियाँ पैदा हुईं। इन विकासक्रमों के कारण समाज पर निश्चित ही वैसा गंभीर विभाजक प्रभाव पड़ सकता था, जिससे गांधी निश्चित ही बचना चाहते थे।

कराची अधिवेशन, 1931

गांधी-इरविन समझौते के बाद नागरिक अवज्ञा आंदोलन के निष्क्रिय चरण का आरंभ हुआ। समझौते को मंजूरी देने के लिए 29 मार्च 1931 को कराची में बैठक हुई। इसके छः दिन पहले ही भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी दी गई थी। यद्यपि गांधीजी ने इन्हें बचाने की कोशिश की थी, फिर भी युवा वर्ग नाराज था और उन्हें कराची-यात्रा के दौरान रास्ते में कड़े विरोध का सामना करना पड़ा; उनके खिलाफ प्रदर्शन किये गये और काले झंडे तक दिखाये गये। कराची अधिवेशन में कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित कर इन क्रांतिकारियों की वीरता और बलिदान की प्रशंसा तो की, किंतु किसी भी तरह की राजनीतिक हिंसा का समर्थन न करने की बात भी दोहराई। कांग्रेस ने ‘दिल्ली समझौते’ को मंजूरी दी और ‘पूर्ण स्वराज्य’ के अपने लक्ष्य को दोहराया। यद्यपि कांग्रेस अपने जन्म से ही जनता के आर्थिक हितों, नागरिक स्वतंत्रता और राजनीतिक अधिकारों के लिए लड़ती आ रही थी, किंतु यह पहला अवसर था जब कांग्रेस ने मौलिक अधिकारों और राष्ट्रीय आर्थिक कार्यक्रमों से संबद्ध प्रस्ताव भी पास किया, ‘पूर्ण स्वराज्य’ को परिभाषित किया और जनता को स्वराज्य का अर्थ बताया। कांग्रेस ने यह घोषणा की कि जनता के शोषण को सामाप्त करने के लिए राजनीतिक आजादी के साथ-साथ आर्थिक आजादी भी जरूरी है। प्रस्ताव में अभिव्यक्ति की आजादी, प्रेस की आजादी, संगठन बनाने की आजादी, जाति, लिंग धर्म इत्यादि से परे कानून के समक्ष समानता का अधिकार, सभी धर्मों के प्रति राज्य का तटस्थ भाव, सार्वभौम वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव और स्वतंत्रता एवं अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा की गारंटी दी गई थी। प्रस्ताव में लगान और मालगुजारी में उचित कटौती, अलाभकर जोतों में लगान से मुक्ति, किसानों को कर्ज से राहत देने और सूदखोरी पर नियंत्रण, मजदूरों के लिए बेहतर सेवा शर्तें, काम के नियमित घंटे और महिला मजदूरों की सुरक्षा, मजदूरों, किसानों को अपनी यूनियन बनाने की आजादी और प्रमुख उद्योगों, खदान और परिवहन को सरकारी स्वामित्व में रखने का वादा किया गया था। इसमें अल्पसंख्यकों व विभिन्न भाषाई क्षेत्रों की संस्कृति, भाषा, और लिपि की सुरक्षा का भी आश्वासन दिया गया था। इस प्रकार कराची प्रस्ताव वास्तव में कांग्रेस की मूलभूत राजनीतिक व आर्थिक नीतियों का दस्तावेज था, जो बाद के वर्षों में भी बना रहा।

दिल्ली समझौते के प्रावधान के अंतर्गत कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में गांधीजी द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए 29 अगस्त 1931 को एस.एस. राजपूताना नामक जलपोत से लंदन रवाना हो गये। नये वायसरॉय विलिंगडन ने रैम्जे मैक्डोनॉल्ड को सूचित किया कि ‘‘यह नाटा शैतान बहुत तेज है, जो सदैव फायदे का सौदा करता है, मैंने इसकी प्रत्येक गतिविधि में ‘महात्मा’ पर ‘बनिया’ को भारी पड़ते देखा है।’’ ब्रिटिश सरकार ने चुन-चुनकर राजाओं, नवाबों, तथा मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा तथा अन्य अल्पसंख्यकों जैसे- ईसाइयों, अछूतों, और सिखों के प्रतिनिधियों को बुलाया था, जो भारत का प्रतिनिधित्व तो नहीं करते थे, लेकिन अंग्रेजों के प्रबल समर्थक अवश्य थे।

गांधीजी को द्वितीय गोलमेज सम्मेलन से कुछ विशेष मिलनेे की उम्मीद नहीं थी। अल्पसंख्यकों के मुद्दे पर शीघ्र ही सम्मेलन में गतिरोध पैदा हो गया। मुसलमानों, ईसाइयों, आंग्ल-भारतीयों और अछूतों ने संगठित होकर अलग निर्वाचकमंडलों की माँग कर दी, जिन्हें गांधीजी न मानने की कसम खा चुके थे। अंततः ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों की स्वतंत्रता की मूल माँग पर विचार करने से ही इनकार कर दिया और गांधीजी असंतुष्ट होकर भारत लौट आये।

गांधीजी के इंग्लैंड-प्रवास के दौरान विभिन्न राष्ट्रवादी गतिविधियों ने भारतीयों में साम्राज्यवादी शासन के विरुद्ध संघर्ष की भावना को जीवित रखा था। संयुक्त प्रांत में कांग्रेस लगान में कमी, बकाया लगान को माफ करने और बँटाईदारों की बेदखली रोकने की माँग को लेकर आंदोलन का नेतृत्व कर रही थी। दिसंबर के प्रथम सप्ताह के शुरू होते-होते कांग्रेस ने पांँच जिलों में ‘लगान नहीं तो राजस्व भी नहीं’ सिद्धांत पर आंदोलन छेड़ दिया। उधर 26 दिसंबर को सरकार ने जवाहरलाल नेहरू को गिरफ्तार कर लिया। वह गांधीजी से मिलने बंबई जा रहे थे। पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में सरकार की मालगुजारी-संबंधी नीति के खिलाफ खुदाई-खिदमतगार किसान आंदोलन चला रहे थे। 24 दिसंबर को उनके नेता खान अब्दुल गफ्फार भी पकड़ लिये गये। भारत वापस आने पर गांधी के सामने नागरिक अवज्ञा आंदोलन को दोबारा आरंभ करने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा।

सरकार के प्रमुख नये वायसरॉय लॉर्ड वेलिंगडन का मत था कि कांग्रेस के साथ समझौता करना बहुत बड़ी गलती थी। उसकी सरकार कांग्रेस को कुचलने के लिए पूरी तरह तैयार थी। सच तो यह है कि नौकरशाही तो कभी नरम पड़ी ही नहीं थी। गांधी-इरविन समझौते पर हस्ताक्षर के तुरंत बाद आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले में पुलिस की गोली से चार लोग मारे गये थे, वह भी मात्र इसलिए कि उन्होंने गांधीजी का चित्र लगाया था। राष्ट्रीय झंडे को जलाने, महिला कांग्रेस कार्यकर्त्ताओं के अपमान तथा सार्वजनिक सभाओं को भंग करने जैसी अनेक घटनाएँ हुई थी। बंगाल में सरकार भेदभावपूर्ण अध्यादेशों के बल पर शासन चला रही थी और आतंकवाद से निबटने के नाम पर हजारों लोग जेल में डाल दिये गये थे। सितंबर 1931 में हिजली जेल में भी राजनीतिक बंदियों पर गोली चलाई गई, जिसमें दो लोग मारे गये थे।

सविनय आंदोलन की पुनरावृत्ति

28 दिसंबर को गांधीजी बंबई आये। उन्होंने स्वागत के लिए आई हुई भीड़ को संबोधित करते हुए कहा ‘‘मैं खाली हाथ लौटा हूँ, किंतु देश की इज्जत को मैंने बट्टा नहीं लगने दिया।’’ दूसरे दिन कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक हुई और नागरिक (सविनय) अवज्ञा आंदोलन को पुनः शुरू करने का निर्णय लिया गया। 31 दिसंबर को गांधीजी ने वायसरॉय से बातचीत के लिए समय माँगा, किंतु वायसरॉय ने मिलने से इनकार कर दिया। परिणामतः गांधीजी ने 3 जनवरी 1932 को नागरिक अवज्ञा आंदोलन पुनः शुरू कर दिया।

जनता में आक्रोश की लहर फैल गई। कांग्रेस को जबरदस्त और अप्रत्याशित समर्थन मिला। हजारों सत्याग्रही जेल जाने लगे। पहले चार महीनों के दौरान लगभग 80,000 सत्याग्रही, जिनमें जिनमें ज्यादातर गाँवों और शहरों के गरीब थे, जेल गये। लाखों लोगों ने शराब और विदेशी कपड़ों की दुकानों पर धरना दिये। अवैध सभाओं, राष्ट्रीय दिवसों के आयोजन, राष्ट्रीय झंडे के प्रतीकात्मक रोहण, चौकीदारी कर की गैर-अदायगी, और वन-कानूनों के उल्लंघन जैसे माध्यमों से अध्यादेशों की अवहेलना की जाने लगी।

पूरी तरह दमन पर उतारू सरकार ने 4 जनवरी 1932 को राष्ट्रीय आंदोलन पर हमला बोल दिया। गांधीजी गिरफ्तार कर लिये गये, सामान्य कानून निलंबित कर दिये गये और प्रशासन विशेष अध्यादेशों के सहारे चलने लगा। सभी स्तरों पर कांग्रेस के संगठनों को प्रतिबंधित कर दिया गया और उसके कार्यालयों और कोषों पर सरकार ने कब्जा कर लिया। पुलिस केे आतंक का नंगा नाच शुरू हो गया और शांतिपूर्ण धरना देनेवालों, सत्याग्रहियों और प्रदर्शनकारियों पर लाठियाँ बरसाई गईं। एक हफ्ते के भीतर ही देश के प्रायः सभी वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं को जेल में डाल दिया गया। ग्रामीण क्षेत्रों में कर-अदायगी न करनेवालों पर बेइंतहा जुल्म ढाये गये, उनकी जमीनों, पशुओं, मकानों और दूसरी संपत्तियों को कुर्क कर लिया गया। गुजरात के एक गाँव ‘रास’ में कर न देनेवाले किसानों को सबके सामने नंगा करके कोड़े लगाये गये और बिजली के झटके दिये गये। जेल में पुरुषों के साथ महिला कैदियों पर भी तरह-तरह के कठोर जुल्म किये गये। प्रेस पर भी पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया। अब वे आंदोलन की खबर या किसी सत्याग्रही की फोटो नहीं छाप सकते थे। 1932 की पहली छमाही के दौरान ही 198 पत्रकारों और 98 प्रिटिंग प्रेसों के खिलाफ कार्रवाई की गई। राष्ट्रवादी साहित्य पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया।

यद्यपि आंदोलन जोरदार ढंग से शुरू हुआ था, लेकिन गांधीजी व अन्य नेताओं को इस आंदोलन को गति प्रदान करने का समय नहीं मिला। विभिन्न सामाजिक समूहों की भागीदारी भी बहुत उत्साहजनक नहीं रही। अनेक स्थानों, जैसे- तटीय आंध्र, गुजरात या उत्तर प्रदेश में धनी किसान समूह शांत रहे, क्योंकि गांधीवादी सामाजिक कार्यक्रम के कुछ पहलू, जैसे छुआछुत के विरुद्ध उनका जेहाद उनको पसंद नहीं थे। दूसरी ओर गांधीजी की हरिजनोद्धार मुहिम स्वयं हरिजनों को प्रभावित करने में असफल रही। मराठी-भाषी नागपुर और बरार में, जो आंबेडकर की दलित राजनीति के गढ़ थे, अछूतों ने अपनी वफादारी कांग्रेस की ओर मोड़ने से इनकार कर दिया। इस उदासीनता और विरोध के साथ-साथ किसानों के कुछ दूसरे हिस्सों और कुछ निचले वर्गो में उग्रवाद और हिंसा का उदय हुआ और इन्होंने स्थानीय कांग्रेसी नेताओं के नियंत्रण में रहने से मना कर दिया। शहरी क्षेत्रों में औद्योगिक समुदाय दुविधा में पड़े रहे। मजदूर उदासीन ही रहे और मुस्लिम अकसर शत्रुता के भाव से ग्रस्त रहे। शिक्षित नगरवासी भी गांधीजी के रास्ते पर चलने के प्रति कम उत्सुक थे। दुकानों पर दिये जाने वाले धरने अकसर बमों के उपयोग से त्रस्त होते रहे, और गांधीजी ने इसकी निंदा की, पर इसे रोक न सके। इसी बीच नवंबर 1932 में, जब कांग्रेस संघर्ष के मजझार में थी, लंदन में एक बार फिर कांग्रेस के बिना तीसरे गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया।

अंत में, सरकार ने हजारों कांग्रेसी स्वयंसेवकों को सलाखों के पीछे धकेलकर इस नेतृत्वहीन और थके हुए जनांदोलन को कुछ ही महीनों के भीतर कुचल दिया। 1933 तक कमजोर हो रही अर्थव्यवस्था और बढ़ती हिंसा ने गांधीजी के सबसे कट्टर समर्थकों, गुजराती और मारवाड़ी व्यापारियों तक के उत्साह को ठंडा कर दिया।

सांप्रदायिकता और दूसरे प्रश्नों पर भारतीय नेताओं में मतभेद के कारण नागरिक अवज्ञा आंदोलन धीरे-धीरे बिखर गया। कांग्रेस ने आधिकारिक रूप में मई 1933 में इसे निलंबित कर दिया और 7 अप्रैल 1934 में वापस ले लिया। गांधीजी एक बार फिर सक्रिय राजनीति से अलग हो गये। राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं के बीच एक बार फिर निराशा छा गई। सुभाषचंद्र बोस जैसे नेताओं ने गांधी के इस कृत्य की आलोचना की: ‘‘गाँधीजी ने पिछले तेरह वर्ष की मेहनत तथा कुर्बानियों पर पानी फेर दिया।’’ सुभाषचंद्र बोस और विट्ठलभाई पटेल ने बहुत पहले 1933 में ही घोषणा कर दी थी कि ‘‘एक राजनीतिक नेता के रूप में महात्मा जी असफल रहे हैं।’’ वायसरॉय विलिंगडन ने भी कहा कि ‘‘कांग्रेस 1930 की तुलना में निश्चित ही कम अच्छी स्थिति में है और जनता पर उसका प्रभाव घटा है।’’ लेकिन विलिंगडन और उसके सहयोगी भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के चरित्र और उसकी रणनीति को समझ नहीं सके। सरकारी दमन के कारण कांग्रेस और गांधीजी में भारतवासियों की आस्था और मजबूत हो गई।

नागरिक अवज्ञा आंदोलन का मूल्यांकन

नागरिक (सविनय) अवज्ञा आंदोलन भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण अध्याय है। यद्यपि यह आंदोलन स्वाधीनता लाने में असफल रहा था, लेकिन जनता का राजनीतिकरण करने तथा स्वाधीनता संघर्ष के सामाजिक आधारों को और मजबूत बनाने में सफल रहा। एक तरफ यदि तमिलनाडु के शहरी व्यवसायी वर्ग और छात्रों को अधिक सक्रिय बना दिया गया, तो गुजरात, संयुक्त प्रांत, बंगाल, बिहार और आंध्र प्रदेश के किसान अगली पंक्तियों में आकर खड़े हो गये थे और मध्य भारत, महाराष्ट्र, कर्नाटक और बंगाल की जनजातियाँ भी किसी से पीछे नहीं थीं। मजदूरों ने भी कलकत्ता, बंबई और मद्रास के कई सामूहिक प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था, जिसमें शोलापुर के मजदूर सबसे आगे थे। मध्यभारत, महाराष्ट्र, कर्नाटक और बंगाल की जनजातियाँ भी इसमें शामिल हुईं। इस आंदोलन में जेल जानेवालों की अनुमानित संख्या 90,000 के आसपास थी, जो 1920-21 के असहयोग आंदोलन में भाग लेने वालों से तीन गुनी से भी अधिक थी। महिलाओं के लिए यह आंदोलन अब तक के आंदोलनों में सबसे अधिक मुक्तिदायक सिद्ध हुआ। इस आंदोलन के कारण ब्रिटेन से आयातित कपड़े की मात्र गिरकर एक तिहाई रह गई। अन्य आयातित वस्तुओं, जैसे सिगरेट के साथ भी वही हश्र हुआ। शराब तथा भू-राजस्व से होनेवाली सरकारी आमदनी बुरी तरह प्रभावित हुई थी। विधानसभाओं का बहिष्कार अत्यंत प्रभावी तरीके से किया गया था।

नागरिक अवज्ञा आंदोलन में मुसलमानों की भागीदारी निश्चित रूप से 1920-22 के असहयोग आंदोलन की अपेक्षा नगण्य थी, किंतु ऐसा सरकार की सांप्रदायिक नीतियों और सांप्रदायिक नेताओं की सांप्रदायिक अपीलों के कारण हुआ था, ताकि राष्ट्रवादी आंदोलन को कमजोर किया जा सके। इसके बावजूद पश्चिमोत्तर प्रांतों में मुसलमानों ने जबरदस्त भागीदारी की। बंगाल में सेनहट्टा, त्रिपुरा, गैबंधा, बांगुरा और नोआखली में मध्यमवर्गीय मुसलमानों की भागीदारी महत्त्वपूर्ण थी। ढाका में मुसलमान, विद्यार्थी, दुकानदार और यहाँ तक कि निम्न वर्ग की साधारण जनता ने भी आंदोलन को अपना समर्थन दिया था। उच्च वर्गीय और मध्यम वर्गीय मुस्लिम महिलाएँ भी सक्रिय थीं।

इस आंदोलन को जो समर्थन शहरों और गाँवों की गरीब और निरक्षर जनता से मिला, वह अभूतपूर्व था। बंगाल के पुलिस इंस्पेक्टर जनरल ने कहा था: ‘‘मुझे इस बात का कतई अनुमान नहीं था कि कांग्रेस को इस प्रकार के अज्ञानी और गंवार लोगों का भी सहयोग प्राप्त होगा।’’ ब्रिटिश पत्रकार एच.एन. ब्रेल्सफोर्ड ने संघर्ष का विश्लेषण करते हुए लिखा है: ‘‘भारतीय मानस अब मुक्त हो गया है। अपने दिलों में उन्होंने आजादी हासिल कर ली है।’’ नागरिक अवज्ञा आंदोलन के वास्तविक परिणाम और वास्तविक प्रभाव का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि राजनीतिक बंदी जब 1934 में रिहा हुए तो जनता ने उनका वीरों के रूप में स्वागत किया। इस तरह कांग्रेस के लिए सविनय (नागरिक) अवज्ञा आंदोलन किसी भी तरह असफल नहीं था। अब तक वह भारी राजनीतिक समर्थन जुटा चुकी थी और एक नैतिक सत्ता प्राप्त कर चुकी थी, जो 1937 के प्रांतीय चुनावों में भारी विजय के रूप में व्यक्त हुए।

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