आजाद हिंद फौज और सुभाषचंद्र बोस (Indian National Army and Subhash Chandra Bose)

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को देश के बाहर एक नई अभिव्यक्ति मिली। ब्रिटिश भारतीय सेना की पंजाब रेजीमेंट के एक युवा अधिकारी थे कैप्टन मोहनसिंह, जिन्होंने दिसबंर 1941 में मलाया के जगंलों में जापानियों के समक्ष समर्पण कर दिया था। मलाया में उनके मन में युद्धबंदियों की एक भारतीय सेना तैयार करने का विचार आया जो जापानी सेना के साथ भारत की मुक्ति के लिए प्रयास करती। जापान सरकार ने अपनी नई भारत नीति के तहत मेजर फूजीवारा को प्रवासी भारतीयों से संपर्क करने के लिए दक्षिण-पूर्व एशिया में भेजा था, जहाँ प्रीतमसिंह जैसे व्यक्तियों के नेतृत्व में भारतीय अपने-आपको भारतीय स्वतंत्रता समितियों (इंडियन इंडिपेंडेंस लीग) में संगठित कर रहे थे।

आजाद हिंद फौज और सुभाषचंद्र बोस (Indian National Army and Subhash Chandra Bose)
कैप्टन मोहनसिंह और मेजर फूजीवारा

जून 1942 में एक असैनिक राजनीतिक संगठन के रूप में ‘इंडिया इंडिपेंडेंस लीग’ (आई.आई.एल.) का गठन किया गया, जो दक्षिण-पूर्व एशिया के सभी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती थी। इस सगंठन की अध्यक्षता के लिए टोक्यो (जापान) में रह रहे पुराने बंगाली क्रांतिकारी रासबिहारी बोस को हवाई जहाज से लाया गया। इसी समय कैप्टन मोहनसिंह ने निरंजनसिंह गिल के सहयोग से ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ के गठन का निर्णय लिया। जापानी सेना ने जब भारतीय युद्धबंदियों को मोहनसिंह को सौंपना प्रारंभ कर दिया, तो वे उन्हें इंडियन नेशनल आर्मी में भर्ती करने लगे। 1 सितंबर 1942 को मोहनसिंह के अधीन इंडियन नेशनल आर्मी की पहली डिवीजन का गठन हो गया, जिसमें 16,300 सैनिक थे। सिंगापुर के जापानियों के हाथ में आने के पश्चात् मोहनसिंह को 45 हजार युद्धबंदी प्राप्त हुए, इनमें से 40 हजार युद्धबंदी इंडियन नेशनल आर्मी में शामिल होने के लिए राजी हो गये।

किंतु जापानियों का व्यवहार संतोषजनक नहीं था। जापानी प्रधानमंत्री जनरल तोजो ने भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में डायट (जापानी संसद) में घोषणा की। लेकिन दिसंबर 1942 तक आते-आते आजाद हिंद फौज की भूमिका के प्रश्न पर मोहनसिंह व अन्य भारतीय अधिकारियों और जापानी अधिकारियों के बीच तीव्र मतभेद पैदा हो गये। जापानी अधिकारी आजाद हिंद फौज को एक सहयोगी सेना मानने की बजाय एक अनुचर शक्ति ही मान रहे थे। मोहनसिंह ने जब स्वतंत्र और सहयोगी की स्थिति पर बल दिया, तो मोहनसिंह एवं निरंजनसिंह गिल गिरफ्तार कर लिये गये। रासबिहारी बोस ने कुछ समय तक आजाद हिंद फौज का झंडा उठाये रखा, लेकिन वे अपनी वृद्धावस्था के कारण अब इस काम के लिए उपयुक्त नहीं रह गये थे। फलतः 1943 के आरंभ तक आजाद हिंद फौज का पहला प्रयोग लगभग पूरी तरह असफल हो चुका था।

सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फौज (Subhash Chandra Bose and INA)

इंडियन नेशनल आर्मी (आजाद हिंद फौज) का दूसरा चरण तब प्रारंभ हुआ, जब 2 जुलाई 1943 को सुभाषचंद्र बोस सिंगापुर पहँचे। इसके पहले यूरोप में जब द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ था और कांग्रेस ने ढुलमुल नीति अपनाई थी, तो सुभाषचंद्र बोस का तर्क था कि भारतवासी एक दुर्लभ अवसर गँवा रहे हैं और उन्हें चाहिए कि वे साम्राज्य की कमजोरी का लाभ उठायें। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1939 के त्रिपुरा अधिवेशन में सुभाषचंद्र बोस दुबारा कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये थे, किंतु गांधीजी के विरोध के चलते उन्होंने अप्रैल 1939 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देकर 1940 में ‘फारवर्ड ब्लॉक’ नाम से एक नई पार्टी का गठन कर लिया था।

सुभाषचंद्र बोस ने फारवर्ड ब्लाक के मंच से एक देशव्यापी आंदोलन खड़ा करने के लिए अकेले पूरे भारत का दौरा किया, किंतु उन्हें बहुत उत्साहजनक प्रतिक्रिया नहीं मिली। बंगाल वापस आने के बाद उन्होंने मुस्लिम लीग से संपर्क स्थापित किया और एक सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का निर्णय किया। इस आंदोलन का उद्देश्य कलकत्ता के हॉलवेल स्मारक को नष्ट करना था, जो ब्लैकहोल त्रासदी (कालकोठरी दुर्घटना) की याद दिलाता था। अधिकांश लोग यह मानते थे कि यह त्रासदी कभी घटित ही नहीं हुई और यह कहानी बंगाल के अंतिम स्वतंत्र शासक सिराजुद्दौला के नाम को कलंकित करने के लिए रची गई थी। इस आंदोलन में मुसलमानों के लिए स्पष्ट आकर्षण था और इससे बंगाल में हिंदू-मुस्लिम एकता और मजबूत हो सकती थी।

किंतु आंदोलन आरंभ होने से पहले ही ब्रिटिश सरकार ने सुभाषबाबू को 2 जुलाई 1940 को भारतीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत विद्रोह भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर कलकत्ता की जेल में डाल दिया। बाद में हॉलवेल स्मारक को हटा दिया गया, किंतु बोस दिसंबर में तब तक कैद रहे जब तक उन्होंने भूख हड़ताल शुरू करने की धमकी नहीं दी। बोस ने सरकार को लिखा कि ‘‘मुझे स्वतंत्र कर दो, अन्यथा मैं जीवित रहने से इनकार कर दूँगा। इस बात का निश्चय करना मेरे हाथ में है कि मैं जीवित रहूँ या मर जाऊँ।’’ जब उन्होंने 29 नवंबर को अनशन करना आरंभ किया, तो 5 दिसंबर 1940 को उन्हें बिना शर्त रिहा कर दिया गया।

जन-आंदोलन में भाग लेने के कारण बोस को पुनः कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) स्थित उनके घर में पुलिस के कड़े पहरे में नजरबंद कर दिया गया। इस बीच यूरोप में युद्ध जारी था और बोस का विश्वास था कि जर्मनी की जीत होगी। यद्यपि उनको जर्मनों का सर्वाधिकारवाद या नस्लवाद पसंद नहीं था, फिर भी, उनका मानना था कि धुरी शक्तियों की सहायता से भारतीय स्वाधीनता के लक्ष्य को आगे बढ़ाया जा सकता है और वे इसकी विभिन्न संभावनाओं को टटोलने लगे। अंततः उन्होंने देश के बाहर जाकर अन्य देशों की सहायता से भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयास का निर्णय किया।

कलकत्ता से टोकियो की यात्रा (Journey from Calcutta to Tokyo)

सुभाषचंद्र बोस के कलकत्ता से टोकियो तक की यात्रा एक रोमांचक कहानी है। 16-17 जनवरी 1941 की आधी रात को सुभाष बाबू मौका पाकर जियाउद्दीन के छद्मनाम से सरहदी पठान के वेश में अपने एलिग्न रोड, कलकत्ता के घर से चुपके-से फरार हो गये। वे 18 जनवरी की शाम पेशावर पहुँचे और 25 जनवरी को काबुल। भारत में अंग्रेजों को सुभाष के फरार होने की खबर उस दिन मिली, जिस दिन वे काबुल पहुँचे थे। वे काबुल से इतालवी पासपोर्ट लेकर रूस गये, जहाँ उन्होंने रूसी नेताओं से मुलाकात कर ब्रिटेन के विरुद्ध मदद माँगी, किंतु जब जून 1941 में सोवियत संघ भी मित्रदेशों की ओर से युद्ध में शामिल हो गया, तो वे इटली होते हुए मार्च 1942 के अंत तक बर्लिन (जर्मनी) पहुँच गये।

बर्लिन में बोस ने जर्मनी के नाजी नेता हिटलर और गोयबेल्स से भेंट की। हिटलर की सरकार से उन्हें कुछ खास मदद तो नहीं मिली, लेकिन उन्हें अपना आजाद हिंद रेडियो शुरू करने की अनुमति के साथ-साथ एक भारतीय दस्ता गठित करने के लिए उत्तरी अफ्रीका में गिरफ्तार भारतीय युद्धबंदी मिल गये। किंतु वे (सुभाष) भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में धुरी शक्तियों से कोई घोषणा नहीं करा सके, और स्तालिनग्राद में जर्मनों की पराजय के बाद यह काम और भी कठिन नजर आने लगा।

बर्लिन में सुभाषबाबू ने ‘इंडियन लीग’ की स्थापना की थी, किंतु जब जर्मनी ने उन्हें रूस के विरुद्ध प्रयुक्त करने का प्रयास किया, तब कठिनाई पैदा हो गई। अब सुभाषचंद्र बोस ने दक्षिण-पूर्व एशिया जाने का निश्चय किया, ताकि जापान की सहायता से ब्रिटिश शासन के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष चलाया जा सके क्योंकि जापानी भारतीय स्वतंत्रता के ध्येय में वास्तविक रुचि ले रहे थे।

सुभाषचंद्र बोस जर्मनी से पनडुब्बी द्वारा एक लंबी और कठिन यात्रा के बाद जुलाई 1943 में जापानी नियंत्रण वाले सिंगापुर पहुँचे, जहाँ उनकी भेंट पुराने क्रांतिकारी रासबिहारी बोस व अन्य लोगों से हुई। रासबिहारी बोस ने सिंगापुर के सम्मेलन में भारतीय सैनिकों का नेतृत्व सुभाषचंद्र बोस को सौंप दिया। सहायता और बराबरी के व्यवहार के जापानी आश्वासन के बाद सुभाषचंद्र बोस ने तुरंत आजाद हिंद फौज का नेतृत्व सँभाल लिया। वहीं उन्होंने भारत की स्वाधीनता के लिए सैनिक अभियान चलाने के उद्देश्य से 4 जुलाई 1943 को स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार गठित करने की घोषणा की।

आजाद हिंद सरकार (Independent India Government)

सुभाषचंद्र बोस ने 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में ‘आजाद हिंद सरकार’ (स्वाधीन भारत सरकार) का गठन किया, जिसे जापान ने तुरंत तथा बाद में जर्मनी और फासीवादी इटली समेत आठ अन्य सरकारों ने मान्यता दे दी। सुभाषबाबू इस अस्थायी सरकार के सर्वेसर्वा नियुक्त किये गये। एस.सी. चटर्जी को वित्त विभाग, एस.ए. अय्यर को प्रचार विभाग तथा लक्ष्मी स्वामीनाथन को महिला संगठन की जिम्मेदारी सौंपी गई। दिसंबर 1943 में जापान ने अंडमान द्वीप आजाद हिंद फौज की अस्थायी सरकार को सौंप दिया। अंडमान पहुँचकर सुभाष ने द्वीपों का नाम ‘शहीद’ और ‘स्वराज्य’ द्वीप रखा।

इसके बाद आजाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति सुभाष ने सिंगापुर और रंगून में आजाद हिंद फौज का मुख्यालय बनाया और फौज को संगठित करना शुरू कर दिया। जापान ने 60,000 युद्धबंदियों को आजाद हिंद फौज में शामिल होने के लिए छोड़ दिया। दक्षिण-पूर्व एशिया में रहनेवाले भारतीय तथा मलाया, सिंगापुर और बर्मा में जापानी सेनाओं द्वारा बंदी बनाये गये भारतीय सैनिक और अधिकारी बड़ी संख्या में आजाद हिंद फौज में शामिल हो गये। नागरिकों को भी फौज में भरती किया गया और धन एकत्रित किया गया। इस प्रकार 1945 तक कोई 40,000 सैनिक भरती कर लिये गये।

आजाद हिंद फौज सैनिकों को गहन प्रशिक्षण दिया गया और फौज की बिग्रेडों को महात्मा गांधी, अबुलकलाम आजाद, जवाहरलाल नेहरू तथा सुभाषचंद्र बोस ब्रिगेड जैसे नाम दिये गये। 1857 की मशहूर वीरांगना लक्ष्मीबाई के नाम पर स्त्री-सैनिकों का भी एक दस्ता बनाया गया। सुभाषचंद्र बोस ब्रिगेड के सेनापति शाहनवाज खाँ थे। ‘नेताजी’ ने आजाद हिंद फौज और अपने अनुयायियों को ‘जयहिंद’ का मूलमंत्र और ‘दिल्ली चलो’ का प्रसिद्ध नारा दिया।

ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा (Declaration of War Against Britain)

आजाद हिंद फौज और सुभाषचंद्र बोस (Indian National Army and Subhash Chandra Bose)
आजाद हिंद फौज का निरीक्षण करते ‘नेताजी’

सुभाषबाबू की अस्थायी सरकार ने ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। अस्थायी सरकार और आजाद हिंद फौज की मुख्य इच्छा जापानियों की एक सहयोगी सेना के रूप में बर्मा से गुजरते हुए इंफाल (मणिपुर) और फिर असम में प्रवेश करने की थी, जहाँ आशा थी कि भारतीय जनता अपनी मातृभूमि की मुक्ति के लिए खुला विद्रोह करके इस सेना से आ मिलेगी। अपनी मातृभूमि को स्वाधीन कराने के विचार से प्रेरित आजाद हिंद फौज के सैनिक अधिकारी यह उम्मीद करने लगे कि वे स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार के प्रमुख सुभाषचंद्र बोस के साथ भारत में उसके मुक्तिदाताओं के रूप में प्रवेश करेंगे।

आजाद हिंद रेडियो पर संबोधन (Address on Azad Hind Radio)

जुलाई 1944 में सुभाषबाबू ने आजाद हिंद रेडियो पर पर बोलते हुए गांधीजी को संबोधित किया: ‘‘भारत की स्वतंत्रता का युद्ध आरंभ हो चुका है। राष्ट्रपिता! भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ चाहते हैं।’’ 22 सितंबर 1944 को बोस ने ‘शहीद दिवस’ मनाया और घोषणा की कि, ‘‘हमारी मातृभूमि स्वतंत्रता की खोज में है, तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’’

फरवरी से जून 1944 के मध्य आजाद हिंद फौज की तीन ब्रिगेडों ने जापानियों के साथ मिलकर भारत की पूर्वी सीमा पर बर्मा से युद्ध लड़ा। शाहनवाज के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज की एक बटालियन के साथ जापान की सेना 8 मार्च 1944 को इंफाल अभियान पर भेजी गई। जापानी सैनिकों के साथ आजाद हिंद फौज रंगून (यांगून) से होती हुई थलमार्ग से भारत की ओर बढ़ती गई तथा 18 मार्च 1944 को कोहिमा और इंफाल के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई। किंतु वहाँ भारतीय सैनिकों के साथ जो दुर्व्यवहार हुआ, उससे उनका मनोबल टूट गया। वे न केवल रसद और हथियार से वंचित रखे गये, बल्कि जापानी सैनिकों के लिए निम्न श्रेणी के काम करने के लिए भी बाध्य किये गये।

अंततः वायुसेना के अभाव, कमान की श्रृंखला के भंग होने और मित्रराष्ट्रों के हमले के जोर से इंफाल अभियान विफल हो गया और जापनी सेना पीछे हटने लगी। इसके बाद यह उम्मीद टूट गई कि आजाद हिंद फौज अपनी सैन्य-मुहिम के द्वारा भारत को स्वाधीनता दिला सकती है। विश्वयुद्ध की परिस्थितियां भी तेजी से प्रतिकूल होती जा रही थीं। 7 मई 1945 को जर्मनी ने अपनी पराजय स्वीकार कर ली और 6 व 9 अगस्त 1945 को जब अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर परमाणु बम गिरा दिया, तो जापान की पराजय के साथ आजाद हिंद फौज को भी पीछे हटना पड़ा।

जापानियों के समर्पण के बाद बोस ने सोवियत संघ से मदद लेने की योजना बनाई। किंतु सैंगोन (सिंगापुर) से टोकियो जाते समय 18 अगस्त 1945 को ताइवान के ताइहोकू हवाई अड्डे के निकट एक हवाई दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। वैसे आज भी अनेक भारतीय नहीं मानते हैं कि उनकी मृत्यु हुई।

आजाद हिंद फौज का महत्व (Importance of INA)

यद्यपि तत्कालीन भारत के अधिकांश राष्ट्रवादी नेताओं ने सुभाषचंद्र बोस की इस रणनीति की आलोचना की थी कि फासीवादी ताकतों के साथ सहयोग करके स्वाधीनता प्राप्त की जाए। फिर भी, आजाद हिंद फौज की स्थापना ने भारतीय जनता और भारतीय सेना के समक्ष देशभक्ति का एक प्रेरणाप्रद उदाहरण प्रस्तुत किया।

यद्यपि बर्मा की पोपा पहाड़ी में आखिरी साहसिक टकराव के बाद आजाद हिंद फौज का सैन्य अभियान समाप्त हो गया, लेकिन भारत में उसका राजनीतिक प्रभाव अभी सामने आनेवाला था। समर्पण के बाद आजाद हिंद फौज के सिपाहियों को वापस भारत लाया गया और उनको कठोर दंड देने के लिए जब नवंबर 1945 में ऐतिहासिक लालकिले में सबसे पहला और सबसे प्रसिद्ध मुकदमा चलाया गया, तो उनके बचाव में एक और सशक्त जन-आंदोलन छिड़ गया।

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