1857 के बाद आदिवासी विद्रोह (Tribal Rebellion After 1857)

1857 के बाद आदिवासी विद्रोह

आदिवासी विद्रोह का आरंभ अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना के साथ शुरू हो गया था। ‘आदिवासी’ शब्द को जनजातीय, मूलनिवासी, अनुसूचित जनजाति इत्यादि कई अन्य नामों से भी संबोधित किया जाता है।

1857 के बाद आदिवासी विद्रोह (Tribal Rebellion After 1857)
1857 के बाद आदिवासी विद्रोह

आदिवासियों का उनके स्वयं का एक सामुदायिक खेतिहर ढाँचा होता था जो गैर-आदिवासी किसानों से भिन्न था। किसान केवल (कृषि) भूमि से गुजारा करते थे, जबकि आदिवासी कृषि और जंगल दोनों पर ही निर्भर होते हैं। आदिवासियों के विद्रोह अधिक हिंसक होते थे।

औपनिवेशिक हमले ने जंगलों से आदिवासियों के गहरे रिश्ते को तोड़ दिया। आदिवासी ‘झूम’ और ‘पंडु’ विधि से स्थान और जमीन बदलकर खेती करते थे। औपनिवेशिक सरकार ने वन-अधिनियमों के माध्यम से आरक्षित वनों में झूम खेती को प्रतिबंधित या सीमाबद्ध कर दिया था। सरकार ने आदिवासियों द्वारा उत्पादित वस्तुओं पर नये तरह के कर लगाया।

औपनिवेशिक घुसपैठ, महाजनों तथा लगान वसूलनेवालों के तिहरे शासन ने आदिवासी समाज की लय और ताल तोड़ दी। आदिवासी अपनी ही जमीन पर कृषि मजदूर बन गये और खानों, बागानों और फैक्टरियों में काम करने तथा कुलीगीरी करने के लिए विवश हो गये।

आदिवासियों के पास ब्रिटिश राज के विरुद्ध हथियारबंद विद्रोह करने अलावा कोई विकल्प नहीं था।

औपनिवेशिक घुसपैठ के कारण आदिवासियों में कुछ धार्मिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार आंदोलन आरंभ हुए। 1870 के दशक के खेरवाड़ या सफाहार के आंदोलन आरंभ में एकेश्वरवाद और सामाजिक सुधारों की शिक्षा देता था।

आदिवासियों के बीच धर्म ने एकता के सूत्र का काम किया। आदिवासियों के नेता ऐसे धर्मगुरु थे, जो उनको पराप्राकृतिक साधनों से एक नये युग में ले जाने का वादा करते थे।

1868 में गुजरात की नायकड़ा वन्य जाति ने धर्मराज्य स्थापित करने के प्रयास में पुलिस थाने पर आक्रमण किया था। 1882 के सांबुदान नामक एक जादूगर के नेतृत्व में कुछ नागाओं ने अंग्रेजों पर आक्रमण किया था। सांबुदान का दावा था कि उसने जादू के बल पर अपने अनुयायियों को ऐसा बना दिया था कि गोलियाँ उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकती थीं।

आरंभ के आदिवासी आंदोलनों का स्वरूप प्रायः पहले की व्यवस्था को पुनर्स्थापित करना था। आदिवासी विद्रोह का द्वितीय चरण 1860 से 1920 तक चला। दूसरे चरण के दौरान आदिवासियों ने राष्ट्रवादी तथा किसान आंदोलनों में भी हिस्सा लिया।

आदिवासी आंदोलन का तृतीय चरण 1920 के बाद शुरु हुआ। तीसरे चरण के आदिवासी आंदोलन के नेताओं में अल्लूरी सीताराम राजू जैसे गैर-आदिवासी थे।

मुंडा (उलगुलान) विद्रोह

मुंडा आदिवासी छोटानागपुर में सामूहिक खेती (खूँटकट्टी) करके जीवन-यापन करते थे। ईसाई मिशनरियों के आने से पारंपरिक मुंडा समुदाय में बिखराव आने लगा। बाहरी जमींदारों, सूदखोरों, बनियों और ठेकेदारों ने मुंडा समुदाय की सामूहिक खेती की परंपरा को नष्ट कर दिया। मुंडा सरदारों ने अपनी जमीन बचाने के लिए 1880 के दशक में सरदारी लड़ाई (कानूनी लड़ाई) लड़ी।

1857 के बाद आदिवासी विद्रोह (Tribal Rebellion After 1857)
मुंडा (उलगुलान) विद्रोह

सरदारी लड़ाई में मुंडा समुदाय को न्याय नहीं मिला। 1880 के दशक में मुंडाओं के एक मसीहा के रूप में बिरसा (1875-1900) का उदय हुआ। ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बिरसा ने मुंडा विद्रोह का नेतृत्व किया। आदिवासियों की कल्पना में बिरसा एक ‘धरती-आब’ (जगत्-पिता) था। बिरसा के सशस्त्र विद्रोह का मुख्य केंद्र खूँटी था।

बिरसा का जन्म 15 नवंबर 1875 को रांची जिले के उलिहतु गाँव में एक बंटाईदार परिवार में हुआ था। बिरसा को मिशनरियों से थोड़ी शिक्षा मिली थी। बाद में बिरसा वैष्णवों के प्रभाव में आया। बिरसा एक अच्छा बांसुरीवादक था। उसने कद्दू से एक तारवाला वादक यंत्र ‘तुइला’ बनाया था।

बिरसा ने 1993-94 में गाँव की ऊसर जमीन को वन विभाग द्वारा अधिगृहीत किये जाने से रोकने के लिए चलाये जा रहे आंदोलन में भाग लिया। 1 अक्टूबर 1994 को उसने सभी मुंडाओं को एकत्रकर अंग्रेजों से लगानमाफी के लिए आंदोलन आरंभ किया।

1895 में युवा बिरसा को परमेश्वर के दर्शन हुए और वह पैगंबर होने का दावा करने लगा। बिरसा ने भविष्यवाणी की कि निकट भविष्य में प्रलय होनेवाला है; डिकुओं (गैर-आदिवासी) से हमारी लड़ाई होगी और उनके खून से जमीन इस तरह लाल होगी जैसे लाल झंडा।

ब्रिटिश सरकार ने षड्यंत्र रचे जाने के भय से 24 अगस्त 1895 में बिरसा को दो साल के लिए जेल भेजा। दो साल बाद जेल से आने के बाद बिरसा ने धार्मिक उपदेशों के बहाने आदिवासियों में राजनीतिक चेतना का प्रसार करना शुरू किया।

बिरसा ने आदिवासी किसानों को धार्मिक और राजनीतिक आधार पर संगठित किया। 1898-99 में अनेक रात्रि-सभाएँ आयोजित की गईं। रात्रि-सभाओं में बिरसा बीते हुए एक स्वर्णकाल या सतजुग की और उन पर टूटे कलजुग की बातें करता था।

बिरसा आदिवासियों की कल्पना में एक ऐसा मसीहा था, जो अंग्रेजों की गोलियों को पिघलाकर पानी की तरह बहा सकता था। 1898 में डोमबारी पहाड़ी पर उपनिवेशवाद-विरोधी विद्रोह की पृष्ठभूमि तैयार हुई। 1899 में क्रिसमस की पूर्व संध्या पर बिरसा ने विद्रोह का ऐलान किया।

बिरसा मुंडा को उल्गुलान (महान हलचल) और इनके विद्रोह को उल्गुलन (महा विद्रोह) के नाम से जाना जाता है। उसने ‘ठेकेदारों, जागीरदारों, हाकिमों और ईसाइयों का कत्ल करने’ का आह्वान किया। बिरसा ने घोषणा की: ‘‘कलजुग को खत्म कर सतजुग को लायेंगे…., ‘डिकुओं’ (गैर-आदिवासियों) से अब हमारी लड़ाई होगी और उनके खून से जमीन इस तरह लाल होगी जैसे लाल झंडा।’’ बिरसा ने यह हिदायत भी दी कि गरीब गैर-आदिवासियों पर हाथ न उठाया जाये।

बिरसा आंदोलन का उद्देश्य केवल डिकुओं को भगाना नहीं, बल्कि अपने शत्रुओं को नष्ट करना तथा अंग्रेजी राज को समाप्तकर उसकी जगह एक बिरसा राज और बिरसाई धर्म की स्थापना करना था। 5 जनवरी 1900 तक पूरे मुंडा क्षेत्र में विद्रोह की आग फैल गई।

9 जनवरी 1900 को डोमबारी पहाड़ी पर ब्रिटिश फौज से लड़ते हुए हजारों मुंडाओं ने अपनी शहादत दी। बिरसा स्थानीय विश्वासघातियों के कारण 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में पकड़ा गया। 9 जून को रांची जेल में बिरसा की मृत्यु हो गई।

350 मुंडों पर मुकदमा चला जिनमें तीन को फाँसी हुई और 44 को आजीवन कारावास मिला। सरकार ने 1908 के नागपुर टेनेंसी ऐक्ट के द्वारा ‘खूँटकट्टी’ के अधिकारों को मान्यता दी और जबरी बेगार पर प्रतिबंध लगा दिया।

बिरसा एक छोटे से धार्मिक पंथ के पैगंबर के रूप में और उससे भी अधिक एक लोकनायक के रूप में आज भी अपनी जनता की यादों में जिंदा है।

रंपा विद्रोह

आंध्र प्रदेश के गोदावरी नदी का पहाड़ी क्षेत्र ‘चोडवरम्’ का रंपा प्रदेश अनेक विद्रोहों का साक्षी रहा है। स्थानीय आदिवासी पुलिस-उत्पीड़न, लकड़ी तथा चराईकर में वृद्धि, घरों में ताड़ी बनाने पर रोक, झूम (पोडू) खेती पर प्रतिबंध, मैदानी क्षेत्रों के महाजनों, साहूकारों की घुसपैठ और आर्थिक शोषण से त्रस्त थे। 1839 और 1862 के बीच रंपा प्रदेश में स्थानीय मुट्ठेदारों ने पहले कुछ विद्रोह (फितूरियां) किये थे।

उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों पहाड़ों में व्यवसायिक घुसपैठ के कारण मैदानों के व्यापारी और साहूकार पहाड़ी क्षेत्रों में पहुँचे। मैदानों के व्यापारी और साहूकार धीरे-धीरे कर्जदार किसानों और मुट्ठादारों की संपत्तियों को जब्त कराकर आदिवासियों की जमीनों पर कब्जा कर लिये।

कोया आदिवासी तथा कोंडा सोरा नामक पहाड़ी सरदारों ने 1879-80 में टोम्पा सोरा के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध ‘फितूरी’ का आरंभ किया। टोम्पा सोरा के विद्रोह के हमले के खास निशाने मनसबदार, अंग्रेज, उनके पुलिस थाने और मैदानों के व्यापारी ठेकेदार थे। 1879-80 की फितूरी का उद्देश्य केवल पहाड़ों को बाहरी तत्त्वों से मुक्त करना था। मद्रास इनफैंटरी की छः रेजीमेंटों की सहायता से सरकार हजारों आदिवासियों का कत्ल किया। पुलिस ने टोम्पा सोरा को मार दिया, तो कोया विद्रोह भी समाप्त हो गया।

1886 में गुडेम में कोया विद्रोहियों ने राजन अनंतय्या के नेतृत्व में पुनः विद्रोह किया। राजन के अनुयायी अपने को रामसंडु (राम की सेना) मानते थे। राजन स्वयं कहता था कि यदि उसे अवसर मिले तो वह अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए राम की भूमिका निभाने को तैयार है। उसने जयपुर के तत्कालीन शासक से भी अंग्रेजी राज्य को पलटने के लिए सहायता मांगी थी।

1900 के आसपास कोरा मल्लया ने दावा किया कि वह पांडवों में से किसी एक का अवतार है और उसका अबोध बेटा कृष्ण का अवतार है। उसने घोषणा की कि वह अंग्रेजों को देश के बाहर करेगा और स्वयं राज करेगा। कोरा मल्लया ने अपने अनुयायियों से कहा कि युद्ध के समय वह अपने जादू से उनके बांस के डंडों को बंदूकों में और अधिकारियों शस्त्रों को पानी में बदल देगा।

1922 का रंपा विद्रोह, ‘मान्यम विद्रोह’ के नाम से भी जाना जाता है। रंपा क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण जनजातीय संघर्ष अल्लूरी सीताराम राजू की अगुवाई में लड़ा गया। यह अगस्त, 1922 में शुरू हुआ और मई, 1924 में राजू की गिरफ्तारी और हत्या तक चला। अल्लूरी सीताराम राजू गांधी के अहिंसक असहयोग आंदोलन से प्रेरित था।

1857 के बाद आदिवासी विद्रोह (Tribal Rebellion After 1857)
रंपा विद्रोह औरअल्लूरी सीताराम राजू

गुडेम के तहसीलदार बस्टियन ने जंगल में आदिवासियों से बिना मजदूरी दिये जंगल में सड़क-निर्माण का कार्य करवाने का प्रयास किया। इसके साथ ही, मुत्तदारों में असंतोष था, जो अंग्रेजों के आने से पहले वंशानुगत कर संग्रहकर्ता और पहाड़ियों में वास्तविक शासक थे।

अल्लूरी सीताराम 1915 में कहीं से आकर यहां आदिवासियों के बीच बस गया था। राजू एक करिश्माई संन्यासी था। वह एक ज्योतिषी और चिकित्सक होने के साथ-साथ कुशल सेनापति भी था।

अल्लूरी राजू ने  असहयोग आंदोलन से प्रेरित होकर ग्राम पंचायतों की स्थापना की और शराब के विरूद्ध आंदोलन चलाया। राजू का दावा था कि गोलियों का उन पर कोई प्रभाव नहीं होता।

24 सितंबर 1922 को डमरापल्ली पर मारे गये छापे के दौरान विद्रोहियों ने दो अंग्रेज अधिकारियों को गोली मार दी। राजू ने 1922 में लगभग 100 लड़ाकों का एक गोरिल्ला दस्ता बनाकर अंग्रेजों और उनके पिट्ठुओं को ठिकाने लगाना शूरू कर दिया।

अल्लूरी सीताराम राजू के विद्रोही दल को लगभग 2500 वर्गमील के क्षेत्र में स्थानी पहाड़ी लोगों की सहानुभूति प्राप्त थी। 6 मई, 1924 को सीताराम राजू की हत्या कर दी गई और सितंबर, 1924 में विद्रोह खत्म हो गया।

युआन-जुआंग विद्रोह

युआन-जुआंग आदिवासी क्योझर (झारखंड) के आसपास निवास करते थे। क्योझर राज्य के प्रशासन में युआन आदिवासियों की भागीदारी थी और राज्याभिषेक जैसे राजकीय अवसरों पर युआन सरदार आमंत्रित किये जाते थे।

अंग्रेजों ने युआनों के विशेषाधिकार को समाप्त कर दिया, तो युआन सरदारों के सम्मान को ठेस पहुँची। 1867 में क्योझर के राजा की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने एक से अधिक व्यक्तियों को सिंहासन पर बैठा दिया। राजा के सामंतों की मनमानी और उत्पीड़न के विरुद्ध रन्न नायक के नेतृत्व में युआन आदिवासियों ने विद्रोह किया जिसे 1868 में दबा दिया गया।

क्योझर में दूसरा विद्रोह 1891 में धारणी नायक के नेतृत्व में हुआ। धारणी नायक ने स्थानीय जनता के सहयोग से राज्य की शासन-व्यवस्था को पूरी तरह से अस्त-व्यस्त कर दिया। क्योझर के राजा को भागकर कटक में शरण लेनी पड़ी। अंग्रेजों ने 1893 में इस विद्रोह का दमन कर दिया। पश्चिमी सीमांत पर 1917 में मयूरभंज में संथालों ने एवं मणिपुर में थेडोई कुकियों ने विद्रोह किया।

ताना भगत आंदोलन

ताना भगत आंदोलन का आरंभ गुमला अनुमंडल में चपरी नवाटोली के जतरा उरांव (जतरा भगत) ने की थी। ताना भगत आंदोलन एक प्रकार से संस्कृतिकरण आंदोलन था। जतरा ने ओझागिरी और जादू-मंत्र का विरोध किया तथा भीख, पशु-बलिदान, माँस-मदिरा और आदिवासी नृत्यों से दूर रहने की अपील की। ताना भगत ने झूम खेती की ओर लौट जाने, जमींदारों को चौकीदारी कर न देने और खेत जोतना बंद करने का आह्वान किया।

ताना भगत आंदोलन ने सहस्त्राब्दवादी रूप धारण कर लिया क्योंकि अफवाह फैल गई कि शीघ्र ही मसीहा आनेवाला है। इस मसीहा को कहीं बिरसा, कहीं ‘जर्मन’ तो कहीं ‘कैसर बाबा’ कहा गया। 1920 के दशक में उरांव आंदोलनकारियों ने कांग्रेस के नेतृत्व में सत्याग्रह और प्रदर्शनों में हिस्सा लिया।

देसी रियासतों में आदिवासी विद्रोह

उ.प्र. के टिहरी गढ़वाल के हिमालयी वन क्षेत्रों में, जो रियासत का हिस्सा था, और कुमायूँ में, जो ब्रिटिश प्रशासनवाला क्षेत्र था, वन-कानूनों के विरुद्ध विद्रोह हुए।

टेहरी गढ़वाल में पहले ‘ठंढ़क’ की पुरानी परंपरा का पालन करते हुए राजा से न्याय की गुहार की गई। स्थानीय राजा ने कठोर वन-संरक्षण कानूनों को लागू करने का प्रयास किया, तो 1886 और 1904 में विद्रोह हुए। दिसंबर 1906 में विद्रोह के हिसंक हो जाने पर राजा को सहायता के लिए अंग्रेजों से गुहार लगानी पड़ी।

कुमायूँ में किसानों ने ‘उतार’ (बेगार) की व्यवस्था तथा निरंकुश वन-प्रबंधन के विरोध में कानूनों का उल्लंघन कर, इमारती लकड़ी की चोरी कर और आरक्षित वनों में जानबूझकर आगजनी कर सीधे अंग्रेजों का प्रतिरोध किया।

बस्तर के मुडि़यों ने 1910 में जगदलपुर में राजा के विरुद्ध विद्रोह किया। बस्तर के मुडि़यों का विद्रोेह का आरंभ उत्तराधिकार के विवाद को लेकर हुआ था। किंतु बस्तर के मुडि़यों के विद्रोेह का मुख्य कारण वन विभाग द्वारा हाल ही में लगाये गये कानून थे जो ‘झूम’ खेती करने पर एवं वनों की उपज के स्वतंत्र उपयोग पर प्रतिबंध लगाते थे।

विद्रोही मुडि़यों ने संचार-व्यवस्था भंग कर दी, पुलिस थानों और वन विभाग की चौकियों पर आक्रमण किया, स्कूलों में आग लगा दी और जगदलपुर शहर का घेरने का प्रयास किया।

उड़ीसा दसपल्ला रियासत में अक्टूबर 1914 में खोंड विद्रोह भी उत्तराधिकार के विवाद से ही आरंभ हुआ था। खोंड विद्रोह के दौरान यह अफवाह फैल गई कि युद्ध आरंभ हो गया है और शीघ्र ही ‘देश में कोई भी साहब नहीं बचेगा’ और खोंडों का ‘अपना राज’ होगा।

बंगाल के मेदिनीपुर जिले के जंगल महाल में संथाल किसानों ने गाँवों के हाटों को और तालाबों में पाली गई मछलियों को लूटा। पश्चिमी भारत के डांग जिले के आदिवासी खानदेश के मैदानों में बसे गाँवों से पारंपरिक ‘गीरास’ (खिराज) वसूल करते थे।

राजस्थान के बांसवाड़ा, सूंठ और डूंगरपुर क्षेत्रों के भीलों ने गोविंद गुरु के सुधारों (बँधुआ मजदूरी से संबंधित) से प्रेरित होकर विद्रोह किये। बंजारा जाति के गोविंद गुरु, जिन्हें ‘आदिवासियों का दयानंद सरस्वती’ भी कहा जाता है, ने 1883 में ‘सम्प सभा’ और 1910 में ‘लसाडि़या पंथ’ की स्थापना की थी।

ब्रिटिश सेना ने 17 नवंबर 1913 को मानगढ़ (बांसवाड़ा) में 1500 आदिवासियों की हत्याकर इस विद्रोह को दबा दिया। ‘आदिवासियों के मसीहा’ मोतीलाल तेजावत (1896-1963) ने ‘वनवासी संघ’ की स्थापना कर 1921-22 में चित्तौड़गढ़ के मातृकुंडिया में ‘एकी आंदोलन’ प्रारंभ किया। मोतीलील ने गांधीजी की सलाह पर 1929 में आत्मसमर्पण किया था।

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