कुषाण राजवंश का इतिहास और कनिष्क प्रथम (The History of Kushan Dynasty and Kanishka I)

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कुषाण राजवंश का इतिहास

भारत के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास में कुषाण राजवंश एक सीमाचिन्ह है। शकों की तरह कुषाण भी मध्य एशिया से भागकर भारत आये थे। माना जाता है कि यू-ची एक हिंद-यूरोपीय जाति के लोग थे जो तुषारी लोगों से संबंधित थे। समय के साथ यू-ची मध्य एशिया के अन्य इलाकों- बैक्ट्रिया और भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी क्षेत्रों में फैल गये। इसी यू-ची कबीले के लोगों ने भारतीय प्रायद्वीप में कुषाण राजवंश की स्थापना की। कुषाण नामकरण का आधार किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं था, वरन् यह यू-ची नामक जाति की सबसे शक्तिशाली शाखा (कुई-शुआंग) का नाम था जिसने विविध राज्यों को जीतकर एक सूत्र में संगठित किया था।

कुषाण शासकों ने एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की जिसमें मध्य एशिया और अफगानिस्तान के साथ मध्य और पूर्वी भारत का विस्तृत भूभाग सम्मिलित था। यूनानियों, रोमनों और चीनियों से संपर्क के कारण कुषाणों ने भारतीय प्रायद्वीप में एक समन्वित संस्कृति के विकास को प्रोत्साहन दिया जिससे भारतीय संस्कृति को एक नवीन आयाम मिला। राजनीतिक शांति, आर्थिक समृद्धि और सांस्कृतिक समन्वय की दृष्टि से कुषाणकाल को ही भारतीय इतिहास का ‘स्वर्णयुग’ माना जाना चाहिए।

ऐतिहासिक स्रोत

कुषाण राजवंश के प्रारंभिक इतिहास की जानकारी चीनी ग्रंथों- पान-कू के सि-एन-हान-शू (प्रथम हान वंश का इतिहास) और फान-ए के हाऊ-हान-शू (परवर्ती हान वंश का इतिहास) से होती है। इन ग्रंथों से यू-ची जाति का हूण, शक और पार्थियनों से संघर्ष का ज्ञान होता है। हाऊ-हान-शू से पता चलता है कि यू-ची कबीला कुई-शुआंग सबसे शक्तिशाली था और कुजुल कैडफिसेस ने अन्य यू-ची कबीलों को विजित कर शक्तिशाली कुषाण राज्य का निर्माण किया था।

चीनी ग्रंथों के अलावा गोंडोफर्नीज के तख्त-ए-बाही लेख तथा कुषाण शासकों द्वारा चलवाये गये सोने, चाँदी और ताँबे के सिक्कों से भी कुषाणों के बारे में जानकारी मिलती है। विम कैडफिसस पहला कुषाण शासक था जिसने सोने के सिक्के प्रचलित करवाये। कनिष्क और उसके उत्तराधिकारियों के संबंध में तिब्बती बौद्ध ग्रंथों, संस्कृत बौद्ध ग्रंथों के चीनी अनुवाद एवं चीनी यात्रियों- ह्वेनसांग और फाह्यान के विवरण उपयोगी हैं। तिब्बती स्रोतों से पता चलता है कि कनिष्क खोतान नरेश विजयकीर्ति का समकालीन था। संस्कृत बौद्ध ग्रंथों- श्रीधर्मपिटकनिदानसूत्र, संयुक्तरत्न पिटक तथा कल्पनामंडिटीका के चीनी अनुवाद से कनिष्क की पूर्वी तथा उत्तरी भारत की विजयों की सूचना मिलती है।

कनिष्क और उसके वंशजों के अनेक लेख कोशांबी, सारनाथ, मथुरा, सुई-बिहार, जेदा मनिक्याल, आरा (पेशावर) आदि स्थानों से पाये गये हैं। अफगानिस्तान के बगलान से 1993 ई. में प्राप्त राबाटक शिलालेख से कनिष्क के पूर्वजों के बारे में महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी मिलती है। इस लेख में कनिष्क ने अपने परदादा कोजोला कादफीस, दादा सद्दाशकन, पिता विम कादफीस और स्वयं अपना उल्लेख किया है। उत्तर प्रदेश, बंगाल तथा बिहार के विभिन्न भागों से कुषाण शासकों के सिक्के भी पाये गये हैं जिससे न केवल कुषाण-साम्राज्य के विस्तार की जानकारी मिलती है, वरन् तत्कालीन भारत की आर्थिक समृद्धि और धार्मिक अवस्था का भी ज्ञान होता है।

इसके अलावा, जॉन मार्शल द्वारा 1915 ई. में तक्षशिला (पाकिस्तान) और हॉकिन तथा घिर्शमान द्वारा बेग्राम (अफगानिस्तान) में कराई गई खुदाइयों से कुषाणकालीन सिक्के और अवशेष प्राप्त हुए हैं जो कुषाणों के इतिहास-निर्माण में सहायक हैं।

कुषाणों का मूल-अभिजन और विस्थापन

कुषाण यू-ची जाति की एक शाखा थे जो आरंभ में तिब्बत के उत्तर-पश्चिम में तकला मकान की मरुभूमि के सीमांत क्षेत्र-कानसू तथा निंग-सिया में निवास करते थे। उस समय हूण नामक बर्बर जाति उत्तरी चीन में निवास करती थी जो प्रायः चीन के सभ्य प्रदेशों में घुसकर लूटमार करती-रहती थी।

जब चीन के सम्राट शी-हुआंग-टी (246-210 ई.पू.) ने उत्तरी चीन में विशाल दीवार बनवा दिया तो हूण पश्चिम की ओर बढ़ने पर विवश हुए। हूणों ने यू-ची जाति को पराजित कर अपना निवास स्थान को छोड़ने पर बाध्य कर दिया। यू-ची जाति ने पश्चिम व दक्षिण की ओर बढ़कर इली नदी घाटी में निवास करनेवाली ‘वु-सुन’ जाति को पराजित किया और उनके राजा की हत्या कर दी।

पराजित वु-सुन उत्तर की ओर जाकर हुंग-नु (हूण) राज्य में शरण लिये। यहाँ से यू-ची पश्चिम की ओर बढ़े और दो शाखाओं में बँट गये- एक छोटी शाखा, जो दक्षिण की ओर जाकर तिब्बत की सीमा में बस गई, और दूसरी मुख्य शाखा, जो दक्षिण-पश्चिम में बढ़ते हुए सीर नदी की घाटी में पहुँची और शक जाति को पराजित कर सीर नदी की घाटी पर अधिकार कर लिया। यूचियों द्वारा भगाये जाने पर शकों ने बैक्ट्रिया और पार्थिया पर आक्रमण किये और उनकी एक शाखा भारत में भी प्रविष्ट हुई।

यू-ची लोग शकों को भगाकर सीर नदी की घाटी से बस तो गये, किंतु वे वहाँ अधिक समय तक शांति से नहीं रह सके। वु-सुन जाति ने अपने राजा की हत्या का बदला लेने के लिए हूणों की सहायता से यू-ची लोगों पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में यू-ची बुरी तरह पराजित हुए और उन्हें विवश होकर सीर नदी की घाटी को छोड़ना पड़ा।

यूचियों ने सुदूर पश्चिम की ओर बढ़ते हुए बैक्ट्रिया और उसके समीपवर्ती प्रदेशों पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। चीनी इतिहासकार पान-कू के विवरण से पता चलता है कि अब यू-ची लोग खानाबदोश जीवन छोड़कर अपना साम्राज्य स्थापित किये, जो पाँच प्रदेशों में विभाजित थे-

  1. हिऊ-मी: यह संभवतः पामीर के पठार तथा हिंदुकुश के बीच स्थित वाकहान प्रदेश था।
  2. शु-आँग-मी: वाकहान तथा हिंदुकुश के दक्षिण में स्थित चितराल प्रदेश था।
  3. कुई-शुआंग: यह चितराल तथा पंजशिर के बीच बसा हुआ था।
  4. ही-तुन (हित-हुन): यह पंचशिर में स्थित परवान था।
  5. काओ-फू: इसका आशय काबुल प्रदेश से है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि पहली सदी ई.पू. से ही हिंदुकुश से लेकर काबुल तक के प्रदेशों में यू-ची अपने पाँच राज्य स्थापित कर चुके थे, किंतु इन राज्यों में परस्पर संघर्ष चलता रहता था। बैक्ट्रिया में यवनों के संपर्क से यू-ची लोग सभ्य होने लगे थे।

कुई-शुआंग शाखा

फान-ए द्वारा लिखे गये परवर्ती हानवंश के इतिहास से पता चलता है कि यू-ची लोगों के पाँच राज्यों में कुई-शुआंग (Cui-Shuang) राज्य में 25 ई.पू. के लगभग क्यू-त्सियु-क्यो नामक वीर सरदार (याबगू) हुआ, जिसने धीरे-धीरे अन्य यू-ची राज्यों को जीतकर उन्हें एक शक्तिशाली राजतंत्र के रूप में संगठित कर लिया और स्वयं राजा (बांग) बन बैठा। क्यू-त्सियु-क्यो की पहचान इतिहासकार कुजुल (कुसलक) से करते हैं जो कैडफिसस प्रथम की उपाधि थी। कुछ इतिहासकार यूचियों के इस शक्तिशाली नरेश का नाम कुषाण बताते हैं जिसके कारण इस वंश के शासक कुषाण कहे गये।

वस्तुतः कुषाण किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं था। यह यू-ची जाति की उस शाखा का नाम था, जिसने अन्य चारों यू-ची राज्यों को जीतकर अपने अधीन कर लिया था और उस कुषाण शाखा का उन्नायक कुजुल कैडफिसेस था। बाद के यू-ची शासक इस कुषाण शाखा में उत्पन्न होने के कारण ही कुषाण कहलाये। इस प्रकार कुजुल कैडफिसस ने पाँच विभिन्न कबायली समुदायों को अपने कुई-शुआंग अथवा कुषाण समुदाय की अध्यक्षता में संगठित किया और वह भारत की ओर बढ़ा जहाँ उसने काबुल और कश्मीर में अपनी सत्ता स्थापित कर दी।

कुजुल कैडफिसस

कुजुल कैडफिसस कुषाण वंश का पहला शासक था जिसने प्रथम शताब्दी ई. में यू-ची जाति को एकीकृत किया और कुषाण साम्राज्य को बढ़ाया। स्रोतों से पता चलता है कि उसने काबुल-कंधार के यवनों (हिंद-यवनों) पर आक्रमण कर काबुल तथा किपिन पर अधिकार कर लिया। उसने भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर बसे हुए पह्लवों को भी पराजित किया जिससे कुषाणों का शासन पश्चिमी पंजाब तक विस्तृत हो गया था।

राजा कुजुल कुषाण के बहुत से सिक्के काबुल व भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग से प्राप्त हुए हैं। उसके प्रारंभिक सिक्कों के मुख भाग पर अंतिम यूनानी राजा हर्मियस की आकृति है और पृष्ठ भाग पर उसकी अपनी आकृति प्राप्त होती है। एक ही सिक्के पर यवन राजा हेरमय और कुजुल कुषाण दोनों का नाम होने से इतिहासकारों ने यह अनुमान लगाया है कि प्रारंभ में वह यूनानी राजा हर्मियस के अधीन था और कालांतर में स्वतंत्र हो गया था। ऐसा लगता है कि हेरमय या हरमाओस यवन राजा था, जो काबुल के प्रदेश पर शासन करता था और यू-ची आक्रांता काबुल के प्रदेश से यवन सत्ता का अंत न करके केवल उनसे अपनी अधीनता स्वीकृत कराकर ही संतुष्ट हो गये थे। काबुल क्षेत्र से ऐसे भी सिक्के मिले हैं, जिन पर केवल कुजुल का नाम है, यवनराज हेरमय का नहीं। बाद के इन सिक्कों में उसकी उपाधि ‘महाराजस महतस् कुषण-कुयुल कफस’ उत्कीर्ण है। इससे सूचित होता है कि बाद में इस प्रदेश से यवन शासन का अंत हो गया था।

इसी समय पार्थियन शासक गुडफर (गोंडोफर्नीज) ने उत्तर-पश्चिमी भारत में अपनी शक्ति का विस्तार करते हुए पूर्वी तथा पश्चिमी गांधार में अपना शासन स्थापित कर लिया था। किंतु गुडफर के उत्तराधिकारी पार्थियन राजा अधिक शक्तिशाली नहीं थे। उनकी दुर्बलता से लाभ उठाकर राजा कुषाण ने पार्थियन लोगों के भारतीय राज्य पर आक्रमण कर उनके अनेक प्रदेशों को जीतकर अपने अधीन कर लिया। यद्यपि कुछ निर्बल पार्थियन राजा गुडफर के बाद भी पश्चिमी पंजाब के कतिपय प्रदेशों पर शासन करते रहे, किंतु इस समय उत्तर-पश्चिमी भारत की राजशक्ति कुषाणों के हाथ में चली गई थी।

राजा कुजुल कुषाण के शुरू के सिक्के जो काबुल के प्रदेश में मिले हैं, उनमें उसके नाम के साथ कोई ऐसा विशेषण नहीं मिलता, जो उसकी प्रबल शक्ति का सूचक हो। किंतु बाद के जो सिक्के मिले हैं, उनमें उसका नाम ‘महरजस रजतिरजस खुषणस यवुगस’ और ‘महरयस रयरयस देवपुत्रस कयुल कर कफस’ आदि मिलता है। इन सिक्कों से पता चलता है कि काबुल, कंधार, उत्तर-पश्चिमी पंजाब आदि क्षेत्रों को पार्थियन राजाओं से जीत लेने पर कुषाण राजा की स्थिति बहुत ऊँची हो गई थी और वह महाराज, राजाधिराज आदि उपाधियों से विभूषित हो गया था। उसके नाम के साथ ‘देवपुत्र’ विशेषण से स्पष्ट है कि भारत में आकर उसने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया था। उसके कुछ सिक्कों पर उसके नाम के साथ ‘ध्रमथिद’ विशेषण भी प्रयुक्त किया गया है। कुजुल कुषाण ने केवल ताँबे के सिक्के चलवाये।

कुजुल कुषाण ने सुदीर्घ समय तक राज्य किया। उसकी मृत्यु अस्सी साल की आयु में हुई थी, इसलिए वह अपने शासनकाल में एक छोटे से राजा से उन्नति करता हुआ एक विशाल साम्राज्य का स्वामी बन सका था।

विम कैडफिसस

चीनी स्रोतों से ज्ञात होता है कि कुजुल कैडफिसस के बाद उसका पुत्र विम कैडफिसस (Vima Cadfices) उसका उत्तराधिकारी हुआ। भारत विजय का श्रेय इसी कुषाण शासक को प्राप्त है। चीन की ऐतिहासिक अनुश्रुति के अनुसार इसके समय में यूचियों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी और इसने भारत की विजय किया था। विम ने सिंधु नदी पार करके तक्षशिला और पंजाब पर अधिकार कर लिया और मथुरा की दिशा में और आगे की ओर बढ़ा। लगता है कि अपने पिता कुजुल के द्वारा विजित राज्य के अतिरिक्त विम ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में बनारस तक अपने राज्य की सीमा स्थापित कर ली थी। इस विस्तृत राज्य का प्रमुख केंद्र मथुरा को बनाया गया था। वस्तुतः गांधार से आगे बढ़कर पंजाब और भारत के अन्य पश्चिमी प्रदेशों की विजय राजा विम द्वारा ही की गई थी और उसकी विजयों से यू-ची लोगों का शासन भारत में भली-भाँति स्थापित हो गया था।

विम तक्षम द्वारा जारी सिक्कों के विस्तृत प्रचलन एवं महाराज राजाधिराज जनाधिप जैसी उपाधियों से प्रमाणित होता है कि उसका अधिकार सिंधु नदी के पूर्व पंजाब एवं संयुक्त प्रांत तक था। लद्दाख में खलत्से नामक स्थान पर 187 तिथि (32 ई.) के लेख में उविम कवथिस नामक राजा का विवरण आया है। मांट (मथुरा) नामक स्थान के इटोकरी टीले से एक सिंहासनासीन विशाल मूर्ति मिली है, जिसके नीचे ‘महाराज राजाधिराज देवपुत्र कुषाणपुत्र षाहि वेम तक्षम’ लेख मिला है। ‘महाराज राजाधिराज देवपुत्र कुषाणपुत्र षाहि विम तक्षम’ में प्रथम तीनों शब्द भारतीय उपाधियों के सूचक हैं। कुषाणपुत्र वंश का परिचायक है, षाहि और तक्षम शब्द ईरानी हैं, प्रथम का अर्थ शासक तथा दूसरे का बलवान् है। मथुरा में राजा विम की मूर्ति प्राप्त होने से स्पष्ट है कि यह प्रदेश भी उसके राज्य में सम्मिलित था।

रोमन शासकों का अनुकरण करते हुए कुषाण राजाओं ने मृत शासकों की स्मृति में मंदिर तथा मूर्तियाँ (देवकुल) बनवाने की प्रथा का आरंभ किया था। मांट (मथुरा) शिलालेख से पता चलता है कि विम तक्षम ने अपने शासन के समय में एक मंदिर (देवकुल अर्थात् राजाओं का प्रतिमा कक्ष), उद्यान, पुष्करिणी तथा कूप का भी निर्माण किया गया था। कुषाणों में मृत राजा की मूर्ति बनवाकर देवकुल में रखने की प्रथा थी। इस प्रकार का एक देवकुल मांट के टीले में तथा दूसरा मथुरा नगर के उत्तर में गोकर्णेश्वर मंदिर के पास विद्यमान था।

बक्सर (बिहार) से विम (Vima Cadfices) की कुछ मुद्राओं की प्राप्ति के आधार पर कहा गया है कि विम कैडफिसस ने बिहार तक संपूर्ण उत्तरी भारत को हस्तगत कर लिया था, किंतु प्रमाणिक साक्ष्यों के अभाव में इस मत का समर्थन नहीं किया जा सकता। दक्षिण में उसका राज्य नर्मदा तक फैला हुआ था। ऐसी मान्यता है कि शक क्षत्रप उसके अधीनस्थ शासक थे। अधिकांश विद्वान् उसका साम्राज्य-विस्तार मालवा, मथुरा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं उत्तर-पश्चिम में लद्दाख और गंधार तक ही स्वीकार करते हैं।

कैडफिसस के काल में भारतवर्ष, चीन एवं रोम साम्राज्य के बीच व्यापार आदि में पर्याप्त उन्नति तथा वृद्धि हुई। सिल्क, मसाले तथा हीरे-जवाहरात के मूल्य के रूप में रोमन साम्राज्य का स्वर्ण भारत वर्ष में प्रचुर मात्रा में निरंतर आने लगा। स्वर्ण की अधिकता से प्रभावित होकर विम कैडफिसस ने सोने के सिक्के प्रचलित करवाये। उसके द्वारा जारी सोने के सिक्कों पर भारतीय प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, जबकि उसके पिता द्वारा जारी किये गये सिक्कों पर रोमन दीनार की छाप थी, जो रोमन व्यापार की शुरूआत के साथ मध्य एशिया में प्रचलित हो रही थी।

विम ने सोने के अलावा ताँबे के सिक्कों का भी प्रचलन करवाया। इसके बहुत से सिक्के अफगानिस्तान, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत और पंजाब से उपलब्ध हुए हैं। कुछ सिक्के भीटा, कोशांबी, बक्सर तथा बसाढ़ से भी मिले हैं। इसके सिक्कों पर यूनानी और खरोष्ठी लिपियों में लेख मिलते हैं। विम के कुछ सिक्कों पर शिव, नंदी और त्रिशूल की आकृतियाँ मिलती हैं और खरोष्ठी लिपि में ‘महराजस राजधिराजस सर्वलोगइश्वरस महिश्वरस विम कडफिसेस त्रतरस’ उत्कीर्ण मिलता हैं। इससे लगता है कि उसने भारत के संपर्क में आकर शैव धर्म को स्वीकार कर लिया था। उसकी ‘महिश्वरस’ उपाधि भी उसके शैव धर्मानुयायी होने का प्रमाण है। इसके कुछ सिक्के ऐसे भी हैं जिन पर उसका नाम ‘महराजस राजाधिराज’ जैसे विशेषणों के साथ केवल ‘वि’ अंकित है। यह ‘वि’ स्पष्टतः विम का ही सूचक है।

पंजाब और उत्तरप्रदेश के जिन प्रदेशों को जीतकर विम ने अपने अधीन किया था, उन पर उसका शासन अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सका। इस समय भारत की प्रधान राजशक्ति सातवाहन कुंतल सातकर्णि के नेतृत्व में मगध पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर चुके थे। विक्रमादित्य द्वितीय के नाम से प्रसिद्ध कुंतल सातकर्णि ने यू-ची आक्रांताओं को पराजित कर ‘शकारि’ की उपाधि धारण की। प्राचीन भारतीय साहित्य की दंतकथाओं के अनुसार राजा सातवाहन ने सिरकप नाम के प्रजापीड़क राजा पर आक्रमण करके पंजाब में उसे पराजित किया था। सिरकप संभवतः श्रीकपस या श्रीकथफिश का ही अपभ्रंश है। इस अनुश्रुति की पुष्टि पंजाब में प्रचलित दंतकथाओं से भी होती है जिनका संग्रह कैप्टन आर.सी. टैम्पल ने ‘द लीजेंड्स ऑफ पंजाब’ नामक पुस्तक में किया है।

सोटर मेगास

कुछ सिक्कों पर किसी ‘सोटर मेगास’ (Soter Megas) का नाम मिलता है। वेकोफर का मत है कि विम कैडफिसस एवं सोटर मेगास की मुद्राएँ काबुल घाटी से उत्तर प्रदेश तक पाई जाती हैं और दोनों की मुद्राएँ एक-सी प्रतीत होती हैं। यही नहीं, उन पर अंकित दोनों की उपाधियाँ भी एक जैसी हैं अर्थात् विम कैडफिसस एवं सोटर मेगास एक ही कुषाण नरेश का नाम है। सोटर मेगास विम की उपाधि बताई गई है, किंतु विम की मुद्राओं पर सोटर मेगास की उपाधि नहीं मिलती है।

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि सोटर मेगास (Soter Megas), विम कैडफिसस का गवर्नर था, क्योंकि हाउ-हान-शू नामक चीनी ग्रंथ में पता चलता है कि विम ने अपने भारतीय प्रदेशों के शासन-संचालन के लिए गवर्नर नियुक्त किया था। संभवतः उसी गवर्नर का नाम ही सोटर मेगास रहा होगा। किंतु किसी भी राजा द्वारा अपने अधीनस्थ गवर्नर को स्वतंत्र रूप से मुद्राएँ जारी करने का अधिकार दिये जाने की जानकारी नहीं है। यदि गवर्नर की हैसियत से मुद्राएँ जारी की जातीं, तो उसके स्वामी का उल्लेख अवश्य मिलता। एक मत यह भी है कि वह भारतीय प्रदेशों में विम का अर्ध-स्वतंत्र गवर्नर था, जिसका उल्लेख 65 ई. के पतंजर अभिलेख एवं 79 ई. (136 तिथि) तक्षशिला अभिलेख में आया है।

कनिष्क प्रथम

विम कैडफिसस के बाद कुषाण साम्राज्य का अधिपति कौन बना, पहले इस संबंध में इतिहासकारों में बड़ा मतभेद था। अनेक इतिहासकार राजा कुजुल और विम को कनिष्क का पूर्ववर्ती न मानकर परवर्ती मानते थे, किंतु अफगानिस्तान से राबाटक शिलालेख मिलने के बाद प्रायः सभी इतिहासकार मानने लगे हैं कि कनिष्क ने कुजुल और विम के बाद ही शासन किया था, पहले नहीं। कुछ इतिहासकारों के अनुसार कनिष्क ने सीधे कैडफिसस द्वितीय से उत्तराधिकार प्राप्त नहीं किया था और सोटर मेगास नामक कोई अज्ञात शासक कैडफिसस द्वितीय का उत्तराधिकारी हुआ था, किंतु राबाटक लेख में कनिष्क की वंशावली दी गई है। लेख में कनिष्क की उपाधि ‘देवपुत्र’ मिलती है तथा उसे विम कैडफिसस का पुत्र बताया गया है।

कनिष्क प्रथम के राज्यारोहण की तिथि

भारत के कुषाण राजाओं में कनिष्क सबसे शक्तिशाली और प्रतापी सम्राट था। उसकी उपलब्धियों के कारण ही कुषाण वंश का भारत के सांस्कृतिक एवं राजनीतिक इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। किंतु कुषाण युग का तिथिक्रम समग्र भारतीय इतिहास की जटिलतम् समस्याओं में से एक है और तमाम राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों के बावजूद आज तक इस समस्या का समाधान नहीं हो सका है। कनिष्क प्राचीन भारत का पहला और अंतिम शासक है जिसके शासनकाल के निर्धारण में दस-बीस या पचास वर्षों का अंतर नहीं, अपितु तीन सौ वर्षों का अंतर है। उसकी तिथि निर्धारित करने का प्रयास अभी भी किया जा रहा है।

कनिष्क प्रथम के राज्यारोहण के संबंध में मुख्यतः चार धारणाएँ प्रचलित हैं। पहली मान्यता के अनुसार कनिष्क ने प्रथम शताब्दी ई.पू. के मध्य में राज्य ग्रहण किया था। दूसरे मत के अनुसार कनिष्क का आर्विभाव द्वितीय शताब्दी ई.पू. में हुआ था। तीसरी मान्यता कनिष्क को तृतीय शताब्दी ई. में रखती है। चौथे मत के अनुसार कनिष्क का राज्यारोहण प्रथम शताब्दी ई. में हुआ था।

प्रथम शताब्दी ई.पू. का मत

फ्लीट, कनिंघम, डाउसन, फ्रैंके, केनेडी, लूडर्स, सिलवांलेवी जैसे इतिहासकार कनिष्क को प्रथम शताब्दी ई.पू. में रखते हैं और उसका राज्यारोहण 58 ई.पू. में स्वीकार करते हैं। इन विद्वानों के अनुसार कनिष्क ने कैडफिसस वर्ग के पूर्व शासन किया था और 58 ई.पू. में उसने जिस संवत् की स्थापना की, वह कालांतर में विक्रम संवत् के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

कहा गया है कि प्रथम शताब्दी ई.पू. में चीन तथा भारत के बीच स्थलीय मार्गों से धनिष्ठ व्यापारिक संबंध स्थापित हुए थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने विवरण में लिखा है कि बुद्ध ने अपनी मृत्यु के चार सौ वर्ष बाद एक कनिष्क नामक राजा के आर्विभाव की भविष्यवाणी की थी। चूंकि बुद्ध का महापरिनिर्वाण 483 ई.पू. में हुआ था, इसलिए कनिष्क का राज्यारोहण 83 ई.पू. माना जा सकता है। फ्रैंके के अनुसार दूसरी शताब्दी ई.पू. में किसी यू-ची शासक द्वारा एक चीनी अधिकारी से कतिपय बौद्ध ग्रंथों के संबंध में किये गये पत्र-व्यवहार में कनिष्क का संकेत मिलता है।

प्रथम शताब्दी ई.पू. के मत का खंडन

किंतु इस मत को स्वीकार करना कठिन है। मार्शल, थामस, स्टेनकेनो, रैप्सन, रायचौधरी, सुधाकर चट्टोपाध्याय, जे.एस. नेगी, दिनेशचंद्र सरकार जैसे इतिहासकार इस मत से सहमत नहीं हैं। मार्शल को तक्षशिला उत्खनन के दौरान कैडफिसेस वर्ग की मुद्राएँ कनिष्क परिवार की मुद्राओं से नीचे के स्तर से मिली हैं जिनसे सिद्ध हो जाता है कि कनिष्क ने कैडफिसस राजाओं के बाद शासन किया था। रैप्सन भी मानते हैं कि कनिष्क की मुद्राएँ विम कैडफिसस की मुद्राओं के साथ तो मिलती हैं, किंतु कैडफिसस प्रथम के साथ नहीं मिलती हैं। इसलिए कनिष्क को कैडफिसस के पूर्व नहीं रखा जा सकता है।

रायचौधरी के अनुसार मुद्राओं, अभिलेखों तथा ह्वेनसांग के यात्रा-विवरण से पता चलता है कि गांधार कनिष्क के अधिकार-क्षेत्र में था। चीनी स्रोतों में प्रथम शताब्दी ई.पू. के मध्य में गांधार पर यिन-मोफू का अधिकार था। एलन के अनुसार कनिष्क की स्वर्ण मुद्राओं पर रोमन सम्राट टाइटस (79-81 ई.) तथा ट्रोजन (98-117 ई.) की मुद्राओं का प्रभाव परिलक्षित होता है। इस प्रकार कनिष्क को कैडफिसस वर्ग के पूर्व रखना संभव नहीं है। परवर्ती कुषाण मुद्राओं पर विद्यमान ससैनियन मुद्रा-प्रभाव भी कनिष्क को ई.पू. प्रथम शताब्दी में रखने में बाधक है। फ्रैंके का यह मत सही है कि दूसरी शताब्दी ई.पू. में यू-ची शासक बौद्ध धर्म से परिचित था, किंतु यह यू-ची शासक कनिष्क ही था, यह निश्चित नहीं है। इस प्रकार कनिष्क को प्रथम शताब्दी ई.पू. में नहीं रखा जा सकता है।

द्वितीय शताब्दी ई. का मत

स्मिथ, मार्शल, थामस, स्टेनकेनो आदि विद्वानों के अनुसार कनिष्क का आर्विभाव द्वितीय शताब्दी ई. में 120-125 ई. में हुआ था। घिर्शमान, बी.एन. पुरी, के.सी ओझा जैसे पुराविद् कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि 144 ई. मानते हैं। स्मिथ के अनुसार मौद्रिक साक्ष्यों से पता चलता है कि कनिष्क ने कैडफिसस प्रथम तथा द्वितीय के बाद शासन किया था और कनिष्क का कैडफिसस वर्ग के शासकों के साथ निकट का संबंध था। मार्शल का अनुमान है कि विम कैडफिसस ने 78 ई. में कुजुल कैडफिसस के बाद शासन किया। इसका शासनांत द्वितीय शताब्दी ई. के प्रारंभ में हुआ। संभवतः कनिष्क ने कैडफिसेस के बाद 120 ई. के आसपास शासन ग्रहण किया था।

अफगानिस्तान के बेग्राम उत्खनन के आधार पर घिर्शमान का मानना है कि कनिष्क ने 144 ई. में राज्य ग्रहण किया तथा 172 ई. तक शासन किया। घिर्शमान का अनुमान है कि बेग्राम नगर ईरान के ससैनियन सम्राट शापुर प्रथम के द्वारा 241 से 250 ई. के बीच नष्ट किया गया। उस समय वासुदेव का शासन था। कनिष्क संवत् के अनुसार वासुदेव ने 74 से 98 वर्ष में शासन किया। इसलिए कनिष्क संवत् का आरंभ 144 ई. में किया गया और यही कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि थी। बैजनाथ पुरी भी कनिष्क का राज्यारोहण 144 ई. प्रस्तावित करते हैं। ऐसा मानने से कनिष्क और रुद्रदामन के बीच संघर्ष की संभावना नहीं होगी। कनिष्क ने शक शासक की मृत्यु के बाद उत्तरी सिंधु को विजित किया था।

इसी प्रकार के.सी. ओझा का अनुमान है कि कनिष्क ने 140 ई. में शासन ग्रहण किया। अय, खलात्से अभिलेख तथा जिहोणिक की वर्ष 136, 187, तथा 191 की तिथि विक्रम संवत् की हैं क्योंकि इस काल के अन्य लेखों में यही तिथि मिलती है। इस आधार पर ओझा अय को 79 ई. में मानते हुए कनिष्क को 78 ई. में रखने की संभावना को अस्वीकार करते हैं। अय लेख में उल्लिखित कुषाण शासक कनिष्क नहीं है। खलात्से लेख तथा जिहोणिक की क्रमशः 130 तथा 134 तिथियों से पता चलता है कि कनिष्क इसके बाद ही हुआ होगा। प्रयाग-प्रशस्ति के ‘दैवपुत्रषाहि षाहानुषाहि’ के आधार पर ओझा का विचार है कि यह साम्राज्यिक उपाधि थी और समुद्रगुप्त के काल तक कनिष्क की प्रतिष्ठा जीवित थी।

यदि कनिष्क को 78 ई. में मानें तो कुषाण वंश का अंत 250 ई. में मानना होगा जो समुद्रगुप्त के सौ साल पूर्व की घटना होगी। यदि कुषाणों का अंत 300 ई. में माना जाये, तो कनिष्क का राज्यारोहण 150 ई. में रखा जा सकता है।

चीनी स्रातों से पता चलता है कि तृतीय शताब्दी ई. के मध्य में आक्सस से भारत तक कुषाणों का साम्राज्य था। वासुदेव इस वंश का अंतिम शासक था। यदि वासुदेव ने 250 ई. में शासन किया, तो कनिष्क को द्वितीय शताब्दी ई. के पहले नहीं रखा जा सकता है। एच. हमबैक ने भी दुशाम्बे सम्मेलन में 132 ई. की तिथि स्वीकार की है।

द्वितीय शताब्दी . का मत के मत का खंडन

किंतु कनिष्क को द्वितीय शताब्दी ई. के मध्य रखना संभव नहीं लगता। सुई बिहार लेख से पता चलता है कि निचली सिंधुघाटी पर कनिष्क का अधिकार था, जबकि जूनागढ़ लेख से सिंधु-सौवीर पर शक शासक रुद्रदामन् का आधिपत्य प्रमाणित होता है जिसका शासनकाल 130-150 ई. माना जाता है। वह किसी का अधीनस्थ शासक नहीं था। यदि कनिष्क को द्वितीय शताब्दी ई. में रखा जाये तो रुद्रदामन और कनिष्क समकालीन होंगे और सुई बिहार पर कनिष्क का अधिकार स्वीकार करना संभव नहीं होगा।

कनिष्क, वासिष्क, हुविष्क तथा वासुदेव की तिथियाँ क्रमशः 24, 28, 60, तथा 67, 98 एक ही संवत् की हैं और इस संवत् का संस्थापक कनिष्क था, किंतु दूसरी शताब्दी ई. में प्रवर्तित किसी भी संवत् के संबंध में जानकारी नहीं है।

बेग्राम के उत्खनन में प्राप्त साक्ष्यों के संबंध में सुधाकर चट्टोपाध्याय का कहना है कि बेग्राम के उत्खनन से प्राप्त वासुदेव नामधारी सिक्के वासुदेव प्रथम के नहीं माने जा सकते हैं क्योंकि अभिलेखों से पता चलता है कि वासुदेव का साम्राज्य उत्तर प्रदेश तक ही सीमित था और उसकी राजधानी मथुरा थी। बेग्राम से प्राप्त सिक्कों के वासुदेव की पहचान चीनी स्रोतों में उल्लिखित ता-यू-ची शासक पुर-ड्यू से की जा सकती है जिसने 230 ई. में एक दूतमंडल चीन भेजा था। इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि शापुर प्रथम ने ही बेग्राम को नष्ट किया था। चट्टोपाध्याय के अनुसार रुद्रदामन ने जिस समय उत्तरी भारत की विजय की, वह कुषाणों के अपकर्ष का काल था, इसलिए कनिष्क का राज्यारोहण 120-30 ई. में नहीं माना जा सकता है।

इसी प्रकार अय, खलात्से लेख एवं जिहोणिक तिथियों के आधार भी कनिष्क को द्वितीय शताब्दी ई. में नहीं रखा जा सकता है। ‘अय’ निश्चित रूप से कनिष्क के पूर्व आर्विभूत हुआ था और खलात्से लेख में उल्लिखित ‘महाराज उविमिकस्तु’ का स्टेनकेनो ने जो समीकरण विम कैडफिसेस से किया है, वह भी संदिग्ध है। प्रयाग-प्रशस्ति में उल्लिखित ‘दैवपुत्रषाहि षाहानुषाहि’ के संबंध में यह कहना कठिन है कि इसमें साम्राज्यवादी कुषाणों का उल्लेख है। श्रीराम गोयल के अनुसार ‘दैवपुत्रषाहि’ तथा’ षाहानुषाहि’ अलग-अलग पद हैं जिसमें क्रमशः किदार कुषाणों और ससैनियनों का उल्लेख है। संभव है कि समुद्रगुप्त ने ससैनियनों के विरुद्ध किदार कुषाणों की सहायता की हो। इसका समर्थन आत्म-निवेदन, कन्योपायनदान आदि पदों में अंतर्निहित अर्थ से भी होता है। हमबैक का मत मूलतः वासुदेव के समीकरण पर आधारित है। यदि इसे वासुदेव द्वितीय या तृतीय मान लिया जाए तो कनिष्क को प्रथम शताब्दी ई. में ही मानना पड़ेगा।

तृतीय शताब्दी ई. का मत

रमेशचंद्र मजूमदार एवं राधागोविंद भंडारकर जैसे इतिहासकार कनिष्क को तृतीय शताब्दी ई. में रखते हुए उसका राज्यारोहण क्रमशः 248 तथा 278 ई. स्वीकार करते हैं। मजूमदार के अनुसार कनिष्क ने जिस संवत् स्थापना की थी, वह त्रैकूटक कलचुरि चेदि संवत् था और इसकी स्थापना 248 ई. में की गई थी।

तृतीय शताब्दी ई. का मत के मत का खंडन

किंतु कुषाण लेखों से पता चलता है कि कुषाण वंश का अंतिम शासक वासुदेव कनिष्क काल के 98वें वर्ष में मथुरा पर शासन कर रहा था। यदि इसे ‘त्रैकूटक कलचुरि चेदि संवत्’ माना जाये तो पता चलता है कि वासुदेव 346 ई. में मथुरा का शासक था। किंतु चौथी शताब्दी के मध्य इस क्षेत्र पर यौधेयों एवं नागों का अधिकार था। नागों की राजधानी मथुरा, कांतिपुर तथा पद्मावती थी। इसके अलावा, कनिष्क खोतान के शासक विजयकीर्ति का समकालीन था जो द्वितीय शताब्दी ई. के पहले हुआ था। चीनी त्रिपिटक के सूची-पत्र से पता चलता है कि अनशिह काव (148-170 ई.) ने कनिष्क के पुरोहित संघरक्षक के मार्गभूमि का अनुवाद किया था। इससे स्पष्ट है कि कनिष्क को तीसरी शताब्दी में नहीं रखा जा सकता है।

प्रथम शताब्दी ई. का मत

अधिकांश विद्वान् फर्ग्यूसन, ओल्डेनबर्ग, थामस, रैप्सन, एन.एन. घोष, हेमचंद्र रायचौधरी, सुधाकर चट्टोपाध्याय, दिनेशचंद्र सरकार, राधाकुमुद मुकर्जी, जे.एस. नेगी आदि कनिष्क को प्रथम शताब्दी ई. में मानते हुए उसका राज्यारोहण 78 ई. में मानते है। इन विद्वानों के अनुसार कनिष्क ने 78 ई. में जिस संवत् की स्थापना की थी, उसका प्रयोग चौथी शताब्दी ई. तक के मध्य तक पश्चिमी भारत के शक क्षत्रप करते रहे, इसलिए इस संवत् को शक संवत् कहा जाने लगा। रैप्सन के अनुसार मार्शल द्वारा तक्षशिला उत्खनन के आधार पर भी कनिष्क को प्रथम शताब्दी ई. में माना जा सकता है।

प्रथम शताब्दी ई. का मत का खंडन

इस मत के विरुद्ध जे. डुब्रील को आपत्ति है कि यदि यदि कुजुल और हर्मियस का शासनकाल 50 ई. माना जाए और यह स्वीकार किया जाए कि कनिष्क ने ही 78 ई. में शक संवत् की स्थापना की थी, तो कैडफिसेस प्रथम और द्वितीय के लिए मात्र 28 वर्ष बचता है। डुब्रील के अनुसार तक्षशिला के चिरस्तूप से एक ऐसा दस्तावेज मिला था जिस पर विक्रम संवत् में 136 वर्ष अर्थात् 78 ई. की तिथि अंकित है। इसमें जिस शासक का उल्लेख है वह कैडफिसेस द्वितीय तो हो सकता है, किंतु उसे कनिष्क नहीं माना जा सकता है। स्टेनकेनो चीनी एवं तिब्बती स्रोतों के आधार पर कनिष्क को द्वितीय शताब्दी ई. में रखते हैं। इस प्रकार कनिष्क का राज्यारोहण 78 ई. में नहीं माना जा सकता है। महाराज कनिष्क द्वितीय शताब्दी ई. में शासन कर रहा था।

किंतु प्रथम शताब्दी ई. के समर्थक इतिहासकारों का मानना है कि कैडफिसेस ने 50 ई. तक शासन किया, यह अनिश्चित है। यदि इसे सत्य भी मान लिया जाए तो कैडफिसेस द्वितीय के लिए 28 वर्ष का समय कम नहीं है क्योंकि कैडफिसेस प्रथम की मृत्यु अस्सी वर्ष की आयु में हुई थी। निश्चित रूप से कैडफिसेस द्वितीय की उम्र उस समय अधिक रही होगी। तक्षशिला चिरस्तूप के दस्तावेज में उल्लिखित तिथि के संबंध में माना जाता है कि इसमें उल्लिखित ‘देवपुत्र’ उपाधि कैडफिसेस वर्ग के राजाओं के लिए नहीं, कनिष्क वर्ग के राजाओं के लिए प्रयुक्त है। स्टेनकेनो चीनी एवं तिब्बती स्रोतों के आधार पर जिस कनिष्क को द्वितीय शताब्दी ई. में रखते हैं, वह कनिष्क प्रथम न होकर आरा लेख का कनिष्क है।

इस प्रकार कनिष्क को 78 ई. से 127 ई. तक कहीं पर भी रखा जा सकता है, किंतु अधिक संभावना यही है कि तथाकथित शक संवत्, जो 78 ई. में आरंभ हुआ माना जाता है, कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि हो सकती है। यदि शक संवत् का प्रवर्तक कनिष्क प्रथम है, तो निःसंदेह उसे एक ऐसे संवत् को प्रचलित करने का श्रेय प्राप्त है जो लगभग दो हजार वर्षों से भारत में राष्ट्रीय संवत् के रूप में कुंडली आदि में प्रयुक्त होता रहा है और जिसे प्रायः इसी रूप में स्वतंत्र भारत की सरकार ने भी स्वीकार कर लिया है। अहमदहसन दानी द्वारा पेशावर के शैखान ढ़ेरी की खुदाई में प्राप्त कुषाणकालीन अवशेषों की रेडियो कार्बन तिथियों से भी कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि द्वितीय शताब्दी ई. की अपेक्षा प्रथम शताब्दी ई. में ही निर्धारित होती है।

कनिष्क प्रथम की विजयें

कनिष्क प्रथम के नेतृत्व में कुषाण राज्य का पुनः उत्कर्ष हुआ। उसके राज्यारोहण के समय कुषाण साम्राज्य में अफगानिस्तान, सिंधु का भाग, बैक्ट्रिया एवं पार्थिया के कुछ प्रदेश सम्मिलित थे। तिब्बत और चीन के कुछ लेखकों के अनुसार कनिष्क का साकेत और पाटलिपुत्र के राजाओं से युद्ध हुआ था। कश्मीर को अपने राज्य में मिलाकर उसने वहाँ ‘कनिष्कपुर’ नामक एक नगर बसाया। शायद कनिष्क ने उज्जैन के क्षत्रप को भी हराया था और मालवा का प्रांत प्राप्त किया था। कनिष्क का सबसे प्रसिद्ध युद्ध चीन के शासक के साथ हुआ था, जहाँ पहली बार पराजित होकर वह दूसरी बार विजयी हुआ और मध्य एशिया में काशगर, यारकंद, खोतान आदि प्रदेशों पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।

पार्थिया से युद्ध

प्राचीन भारत के सभी साम्राज्यों में कुषाण साम्राज्य की बड़ी महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय स्थिति थी। इसके पश्चिम में पार्थियन साम्राज्य था एवं रोमन साम्राज्य का उदय हो रहा था। रोमन तथा पार्थियन साम्राज्यों में परस्पर शत्रुता थी और रोमन चीन से व्यापार हेतु एक ऐसा मार्ग चाहते थे जिसे पार्थिया से होकर न गुजरना पड़े। अतः वे कुषाण साम्राज्य से मैत्रीपूर्ण संबंध रखने के इच्छुक थे। पार्थिया का एरियाना प्रदेश कुषाणों के अधिकार में था जिसे वे संभवतः पुनः हस्तगत करना चाहते थे। इस तरह कुषाण एवं पार्थिया साम्राज्य की सीमाएँ मिली हुई थीं। दूसरी ओर बैक्ट्रिया पर भी कुषाणों का अधिकार था। व्यापारिक दृष्टि से बैक्ट्रिया की स्थिति बड़ी महत्त्वपूर्ण थी। यहीं से भारत, मध्य एशिया एवं चीन को व्यापारिक मार्ग जाते थे अर्थात् प्रथम सिल्क मार्ग की तीनों मुख्य शाखाओं पर कुषाणों का अधिकार था। यह पार्थिया को सह्य नहीं था। व्यापारिक विकास के लिए वह मध्य एशिया के व्यापारिक मार्गों पर नियंत्रण करना चाहता था। इन दोनों कारणों से पार्थिया एवं कनिष्क का युद्ध हुआ।

चीनी साहित्य से पता चलता है कि नान-सी के राजा ने देवपुत्र कनिष्क पर आक्रमण कर दिया, किंतु उसे इस युद्ध में सफलता नहीं मिली। कनिष्क ने उसे पराजित कर दिया। नान-सी का समीकरण पार्थिया से किया जाता है। इस तरह कुषाणों के समय उत्तर-पश्चिम भारत उस समय का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बन गया।

पंजाब और मगध की विजय

कनिष्क एक प्रथम विजेता था और उसने उत्तरी भारत के बड़े भाग को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। कुमारलात की कल्पनामंडिटीका में कनिष्क द्वारा की गई पूर्वी भारत की विजय का उल्लेख मिलता है। बौद्ध ग्रंथ श्रीधर्मपिटकनिदान सूत्र के चीनी अनुवाद से पता चलता है कि कनिष्क ने पाटलिपुत्र को जीतकर उसे अपने अधीन किया और वहाँ से प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् अश्वघोष और भगवान् बुद्ध के कमंडल को प्राप्त किया था। तिब्बत की बौद्ध अनुश्रुति में भी कनिष्क को साकेत (अयोध्या) विजय का श्रेय दिया गया है।

कनिष्क की इस विजय का समर्थन उसके सिक्कों और उत्कीर्ण लेखों से भी होती है। कनिष्क के सिक्के उत्तरी भारत में दूर-दूर तक उपलब्ध हुए हैं। पूर्व में उसके सिक्के बंगाल के तामलुक, ताम्रलिप्ति तथा महास्थान तक से मिले हैं। दक्षिण-पूर्व में उड़ीसा के मयूरभंज, शिशुपालगढ़, पुरी, गंजाम आदि स्थानों से कनिष्क के सिक्के पाये गये हैं। कोशांबी से भी कनिष्क की एक मुहर मिली है। उसके लेख पश्चिम में पेशावर से लेकर पूर्व में मथुरा और सारनाथ तक प्राप्त हुए हैं। कोशांबी तथा श्रावस्ती से प्राप्त बुद्ध प्रतिमाओं की चरण-चोटियों पर उत्कीर्ण लेखों में कनिष्क के शासनकाल का उल्लेख है।

उत्तरी भारत की यह विजय कनिष्क केवल अपनी शक्ति द्वारा नहीं कर सका था। तिब्बती अनुश्रुति के अनुसार खोतन के राजा विजयसिंह के पुत्र विजयकीर्ति ने कुषाण राजा कनिष्क के साथ मिलकर भारत पर आक्रमण किया था और सोकेत (साकेत) नगर जीत लिया था। लगता है कि सातवाहन वंश की शक्ति को नष्ट करने के लिए कनिष्क को सुदूरवर्ती खोतन राज्य के राजा से भी सहायता लेनी पड़ी थी।

चीन से संघर्ष

कनिष्क केवल उत्तरी भारत की विजय से ही संतुष्ट नहीं हुआ, उसने मध्य एशिया के क्षेत्र में भी अपनी शक्ति के विस्तार का प्रयास किया। मध्य एशिया के खोतन राज्य की सहायता से कनिष्क उत्तरी भारत की विजय कर सका था। साम्राज्यवादी चीनी सम्राट के प्रसिद्ध सेनापति पान-चाऊ द्वारा 73-78 ई. के आसपास मध्य एशिया पर अधिकार कर लेने के कारण चीनी साम्राज्य की पश्चिमी सीमा कैस्पियन सागर तक पहुँच गई और कुषाण राज्य की सीमा भी चीन के स्वर्गिक साम्राज्य को स्पर्श करने लगी।

चीनी इतिहासकारों के अनुसार कनिष्क ने सेनापति पान-चाऊ के पास मैत्री-संबंध स्थापित करने के लिए अपना राजदूत भेजा और चीनी सम्राट की कन्या से विवाह करने की इच्छा प्रकट की। कुषाण राजा की इस माँग को सेनापति पान-चाऊ ने अपमानजनक माना, जिसके परिणामस्वरूप दोनों पक्षों में युद्ध प्रारंभ हो गया। कनिष्क ने एक बड़ी सेना पान-चाऊ के विरुद्ध भेजी, किंतु इस युद्ध में यू-ची (कुषाण) सेना की पराजय हुई। कनिष्क की इस असफलता का उल्लेख एक भारतीय अनुश्रुति में भी मिलता है, जिसके अनुसार उसने यह घोषित किया था कि ‘मैंने उत्तर को छोड़कर अन्य तीन क्षेत्रों को जीत लिया है।’

किंतु कनिष्क ने सेनापति पान-चाऊ की मृत्यु के बाद अपनी पराजय का प्रतिशोध लेने के लिए चीन पर दूसरी बार आक्रमण किया और चीनी सेना को पराजित कर मध्य एशिया के प्रदेशों (यारकंद, खोतान और काशगर) पर अधिकार कर कुषाण-साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि कनिष्क का साम्राज्य सुंग-लिंग पर्वत के पूर्व में भी विस्तृत था और पीली नदी के पश्चिम में रहने वाली जातियाँ उससे भयभीत हो गई थीं और उन्होंने अपने राजकुमारों को कनिष्क के दरबार में बंधक के रूप में भेज दिया था। सुंग-लिंग प्रदेश का अभिप्राय चीनी तुर्किस्तान से ही है जिसमें यारकंद, खोतान और काशगर हैं। एक खोतानी पांडुलिपि में भी बहलक (बैक्टिया) के शासक ‘चंद्र कनिष्क’ का उल्लेख मिलता है। इससे भी खोतान पर कनिष्क का अधिकार प्रमाणित होता है।

कनिष्क प्रथम का साम्राज्य-विस्तार

कनिष्क ने अपनी विजयों के द्वारा एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की जिसमें अफगानिस्तान, सिंधु का भाग, बैक्ट्रिया एवं पार्थिया के प्रदेशों के साथ-साथ मध्य एशिया (चीनी तुर्किस्तान) तथा बंगाल तक के क्षेत्र सम्मिलित थे। उसके लेख पेशावर, माणिक्याल (रावलपिंडी), सुईविहार (बहावलपुर), जेदा (रावलपिंडी), मथुरा, कोशांबी, सारनाथ तथा सांँची में मिले हैं, जो उसके आधिपत्य के सूचक हैं। कनिष्क के सिक्के सिंधु से लेकर बंगाल तक से पाये गये हैं। कुजुल कैडफिसस के समय से ही बैक्ट्रिया कुषाण साम्राज्य के अंतर्गत था। इसका कोई प्रमाण नहीं हैं कि बैक्ट्रिया कनिष्क के हाथ से निकल गया था। दूसरी ओर बैक्ट्रिया पर कनिष्क के आधिपत्य के कुछ प्रमाण भी मिले हैं। खोतान में एक पांडुलिपि उपलब्ध हुई है जिसमें चंद्र कनिष्क को बहुलक का राजा कहा है। ‘चंद्र कनिष्क’ का समीकरण कनिष्क एवं बहुलक का तादात्म्य बैक्ट्रिया से किया जाता है। काबुल अभिलेख से ज्ञात होता है कि अफगानिस्तान के कुछ भाग पर हुविष्क का अधिकार था। संभवतः अफगानिस्तान की विजय स्वयं हुविष्क ने नहीं की होगी। यह प्रदेश कनिष्क के समय से ही कुषाण साम्राज्य में सम्मिलित था।

ह्वेनसांग के विवरण और अन्य चीनी ग्रंथों से पता चलता है कि गंधार कनिष्क के अधिकार में था जो तत्कालीन कला का प्रख्यात केंद्र था। इस काल में एक विशिष्ट कला शैली का विकास हुआ जिसे गांधार कला के नाम से अभिहित किया जाता है। रावलपिंडी के पास स्थित माणिक्याल से कनिष्क के 18वें वर्ष का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है। सुई विहार (बहावलपुर) अभिलेख से स्पष्ट है कि सिंधु क्षेत्र कनिष्क के अधीन था, जेदा अभिलेख पंजाब पर उसके अधिकार का सूचक है। टॉल्मी का कहना है कि पूर्वी पंजाब पर कुषाणों का शासन था, उसने पंजाब पर कनिष्क के अधिकार का भी उल्लेख किया है। कश्मीर कनिष्क के साम्राज्य का एक अंग था। कल्हण ने राजतरंगिणी में कनिष्क, झुष्क और हुष्क द्वारा कश्मीर पर राज्य करने तथा वहाँ अपने नाम पर एक नगर (कनिष्कपुर) बसाने का उल्लेख किया है।

उत्तरी भारत में मथुरा, श्रावस्ती, कोशांबी एवं सारनाथ से कनिष्क के अभिलेख प्राप्त हुए हैं। कनिष्क कालीन मूर्तियाँ भी मथुरा, कोशांबी, सारनाथ, श्रावस्ती आदि स्थानों से पाई गई हैं। उसकी मुद्राएँ आजमगढ़, गोरखपुर से भी मिली हैं। सारनाथ लेख में उसके शासनकाल के तीसरे वर्ष का उल्लेख हुआ है जिसमें महाक्षत्रप खरपल्लान और क्षत्रप वनस्पर के नाम अंकित हैं। पुराणों में सातवाहन या आंध्र वंश के बाद मगध का शासक वनस्पर को ही बताया गया है। यह वनस्पर कनिष्क द्वारा नियुक्त मगध का क्षत्रप था। महाक्षत्रप खरपल्लान की नियुक्ति मथुरा के प्रदेश पर शासन करने के लिए की गई थी। हाल ही में मुंगरा बादशाहपुर (जौनपुर, उ.प्र.) और खैराडीह (बलिया) से भी कुषाणकालीन बस्तियों के अवशेष प्रकाश में आये हैं।

मध्य भारत में विलासपुर तथा अन्य स्थानों से कनिष्क और उसके उत्तराधिकारियों की मुद्राएँ मिली हैं। साँची से ऐसी मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जो मथुरा शैली की हैं तथा उन पर कुषाण राजाओं के नाम उत्कीर्ण हैं। संभवतः दक्षिण में विंध्य क्षेत्र तक कुषाण साम्राज्य विस्तृत था। कनिष्क के साम्राज्य में अफगानिस्तान, बैक्ट्रिया, काशगर, खोतान (खुतन) एवं यारकंद सम्मिलित थे। भारतीय प्रदेशों में पंजाब, कश्मीर, सिंधु, आधुनिक उत्तर प्रदेश उसके साम्राज्य के अंग थे। इस प्रकार कनिष्क ने उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम चारों दिशाओं में अपने साम्राज्य का विस्तार किया और मौर्य साम्राज्य के बाद पहली बार भारत में ऐसे विशाल साम्राज्य की स्थापना की, जिसमें गंगा, सिंधु और आक्सस की घाटियाँ सम्मिलित थीं।

कनिष्क ने अपने साम्राज्य की विशालता, व्यापारिक मार्गों की सुरक्षा और उत्तरी सीमा पर चीन के स्वर्गिक साम्राज्य से समीपता होने के कारण अफगानिस्तान से सिंधु घाटी की जाने वाले प्रमुख राजपथ पर नई राजधानी के रूप में एक नये नगर कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) की स्थापना की और उसे पुष्पपुर (पेशावर) नाम दिया। पुष्पपुर में कनिष्क ने अनेक भव्य भवनों, सार्वजनिक शालाओं, बौद्ध विहारों और स्तूपों का निर्माण करवाया जिनमें सबसे प्रमुख तेरह मंजिलों वाला चार सौ फीट ऊँचा एक स्तूप था। कनिष्क द्वारा निर्मित इस विशाल स्तूप को देखकर चीनी यात्री ह्वेनसांग (सातवीं सदी) आश्चर्यचकित रह गया था। वस्तुतः कनिष्क ने पुष्पपुर को विद्या, धर्म और संस्कृति का केंद्र बना दिया और कुछ समय के लिए पुष्पपुर के सम्मुख प्राचीन कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) का वैभव मद्धिम पड़ गया था।

कुषाण राजवंश का इतिहास और कनिष्क महान् (The History of Kushan Dynasty and Kanishka the Great)
कुषाण साम्राज्य का विस्तार
कनिष्क प्रथम का शासन-प्रबंध

कनिष्क एक सफल विजेता, बौद्ध धर्म का उत्साही प्रचारक और योग्य प्रशासक था। यद्यपि कनिष्क के प्रशासनिक व्यवस्था के संबंध में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध नहीं है, किंतु उसके लेखों से जो कुछ सूचना मिलती है उससे स्पष्ट है कि उसकी शासन-व्यवस्था सुव्यवस्थित थी। लेखों में उसे ‘महाराजराजाधिराज देवपुत्र’ कहा गया है। ‘देवपुत्र’ उपाधि से लगता है कि वह चीनी सम्राटों के ‘स्वर्गपुत्र’ उपाधि का अनुकरण करते हुए राजा की दैवी उत्पत्ति में विश्वास करता था। संभवतः कनिष्क ने ‘देवपुत्र’ उपाधि के माध्यम से अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने का प्रयास किया था।

शकों की भाँति कनिष्क ने कुशल प्रशासन के लिए अपने विस्तृत साम्राज्य को प्रांतों में विभाजित कर क्षत्रपों तथा महाक्षत्रपों की नियुक्ति की थी। लेखों में क्षत्रपों के नामोल्लेख से स्पष्ट है कि वह क्षत्रपों की सहायता से शासन का कार्य संचालित करता था। बड़ी क्षत्रपी के शासक को महाक्षत्रप और छोटी क्षत्रपी के शासक को क्षत्रप कहा जाता था। साम्राज्य के अन्य दूरवर्ती प्रांत भी क्षत्रप प्रणाली द्वारा शासित थे।

सारनाथ लेख में महाक्षत्रप खरपल्लान तथा क्षत्रप वनस्पर का उल्लेख मिलता है। खरपल्लान मथुरा में महाक्षत्रप था, जबकि वनस्पर मगध का क्षत्रप था। उत्तर-पश्चिम में लल्ल तथा लाइक (लिआक) उसके राज्यपाल थे। कुछ इतिहासकार ‘राजाधिराज’ की उपाधि के आधार पर मानते हैं कि कुषाण सम्राट के अधीन कई छोटे-छोटे राजा भी शासन करते थे और इस प्रकार कुषाण काल में सामंतीकरण की प्रक्रिया का आरंभ हुआ। स्मिथ का अनुमान है कि महाराष्ट्र क्षहरातवंशी नहपान और उज्जैन का क्षत्रप चष्टन कदाचित् कनिष्क के सामंत थे।

कनिष्क के लेखों में मंत्रिपरिषद् जैसी किसी संस्था का उल्लेख नहीं मिलता। कुषाण लेखों में पहली बार ‘दंडनायक’ तथा ‘महादंडनायक’ जैसे सैनिक अधिकारियों का नाम मिलता है। ग्रामों का स्थानीय शासन ‘ग्रामिक’ तथा ‘ग्राम कूट्टक’ द्वारा चलाया जाता था जिनका उल्लेख मथुरा लेख में मिलता है।

कनिष्क प्रथम की धर्म और धार्मिक नीति

निःसंदेह कनिष्क एक प्रथम योद्धा था जिसने पार्थिया से मगध तक अपना राज्य विस्तारित किया, किंतु उसका यश उसके बौद्ध धर्म के संरक्षक होने के कारण कहीं अधिक है। वह व्यक्तिगत रूप से बौद्ध धर्मानुयायी था। उसने बौद्ध धर्म के संगठन और प्रचार-प्रसार के लिए बहुत प्रशंसनीय कार्य किया। कहा जाता है कि कनिष्क पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर अश्वघोष नामक कवि तथा बौद्ध दार्शनिक को अपने साथ ले गया था और उन्हीं के प्रभाव में आकर वह बौद्ध धर्म की ओर प्रवृत्त हुआ था।

कनिष्क प्रथम के संरक्षण में उसके आदेशानुसार काश्मीर के कुंडलवन विहार में बौद्ध धर्म की चौथी संगीति (महासभा) का आयोजन किया गया जो बौद्ध धर्म के इतिहास में एक नये युग का प्रवर्तन करती है। अश्वघोष के गुरु आचार्य वसुमित्र और पार्श्व इनके प्रधान थे। वसुमित्र को महासभा का अध्यक्ष नियत किया गया था। ह्वेनसांग के अनुसार महासभा में एकत्र 500 प्रसिद्ध बौद्ध विद्वानों द्वारा बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को स्पष्ट करने और विविध संप्रदायों के विरोध को दूर करने के लिए संस्कृत भाषा में ‘महाविभाषा’ नामक एक विशाल ग्रंथ तैयार किया गया। इस ग्रंथ को ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण करवाकर एक विशाल स्तूप में सुरक्षित रख दिया गया था। किंतु यह स्तूप अभी तक प्राप्त नहीं हो सका है। ‘महाविभाषा’ ग्रंथ बौद्ध त्रिपिटक के भाष्य के रूप में था, किंतु संप्रति इसका चीनी संस्करण ही उपलब्ध है। बौद्ध धर्म के विकास के लिए कनिष्क ने चैत्यों एवं विहारों का निर्माण करवाया तथा उसके प्रचार-प्रसार का हरसंभव प्रयास किया।

कनिष्क के सिक्के
कनिष्क के सिक्के

अपनी धार्मिक सहिष्णुता और बौद्ध धर्म में आस्था के कारण कनिष्क ने असोक की भाँति एक धर्म प्रचारक की ख्याति अर्जित की। बौद्ध होते हुए भी उसके सिक्कों पर यवन (ग्रीक), जरथुस्त्री (ईरानी) और भारतीय सभी प्रकार के देवी-देवताओं के चित्र अंकित हैं जो उसके धार्मिक दृष्टिकोण की उदारता एवं सहिष्णुता के परिचायक हैं। ईरान के अग्नि (आतश), चंद्र (माह) और सूर्य (मिहिर), ग्रीक देवता हेलिय, प्राचीन एलम की देवी नाना, भारत के शिव, स्कंद, वायु और बुद्ध आदि देवी-देवता नाम या चित्र के रूप में उसके सिक्कों पर अंकित हैं। उसके ताँबे के सिक्कों में उसे एक वेदी पर बलिदान करते प्रदर्शित किया गया है। इससे स्पष्ट है कि कनिष्क सभी धर्मों का आदर करता था और सभी देवी-देवताओं को सम्मान की दृष्टि से देखता था। चूंकि कनिष्क के विशाल साम्राज्य में विविध धर्मों और क्षेत्रों के लोग निवास करते थे, इसलिए संभव है कि राजनीतिक कारणों से उसने जनसाधारण की भावनाओं को संतुष्ट करने के लिए सभी धर्मों के देवी-देवताओं को अपने सिक्कों पर अंकित करवाया हो। इस प्रकार कनिष्क ने ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदंति’ की भावना को क्रियात्मक स्वरूप प्रदान दिया।

कनिष्क प्रथम की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

कनिष्क प्रथम कला और विद्या का आश्रयदाता था। उसकी राजसभा में बड़े बड़े विद्वान् शोभा पाते थे जिनमें बौद्ध दार्शनिक पार्श्व, वसुमित्र और अश्वघोष विशेष महत्त्वपूर्ण थे। वसुमित्र ने चौथी बौद्ध संगीति में ‘महाविभाषा सूत्र’ की रचना की, जिसे ‘बौद्ध धर्म का विश्वकोष’ कहा जाता है। अश्वघोष ने ‘बुद्धचरित’, ‘सौंदरनंद’, ‘शारिपुत्र प्रकरण’ एवं ‘सूत्रालंकार’ जैसे ग्रंथों की रचना की। इसमें बुद्धचरित तथा सौंदरनंद को महाकाव्य की संज्ञा प्राप्त है और शारिपुत्र प्रकरण एक नाटक ग्रंथ है। कवि व नाटककार होने के साथ-साथ अश्वघोष प्रथम संगीतज्ञ, कथाकार, नीतिज्ञ तथा दार्शनिक भी था, इसीलिए अश्वघोष की तुलना मिल्टन, गेटे तथा वाल्तेयर से की जाती है। नागार्जुन जैसे प्रकांड पंडित और चरक जैसे चिकित्सक कनिष्क के दरबार के रत्न थे। नागार्जुन दार्शनिक ही नहीं, प्रथम वैज्ञानिक भी था। उसने अपनी पुस्तक ‘माध्यमिक सूत्र’ (प्रज्ञापारमिता सूत्र) में सापेक्षता के सिद्धांत को प्रस्तुत किया। इसकी तुलना ‘मार्टिन लूथर से की जाती है और इसे ‘भारत का आइंसटाइन कहा जाता है। ‘माध्यमिका कारिका’, ‘विग्रहविवर्तनी’, ‘युक्तिषष्टिका’, ‘शून्यतासप्तति’, ‘रत्नावली’ और ‘वैदल्यसूत्र’ उसकी अन्य प्रसिद्ध रचनाएँ बताई जाती हैं।

कनिष्क के राजवैद्य चरक ने औषधि पर ‘चरकसंहिता’ की रचना की, जो औषधिशास्त्र की प्राचीनतम् रचना है। अन्य विद्धानों में मातृचेट, संघरक्षक आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। कनिष्क के समय में ही वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’, भारवि के ‘स्वप्नवासवदत्ता’ जैसे ग्रंथों की भी रचना हुई। ‘स्वप्नवासवदत्ता’ को भारत का पहला संपूर्ण नाटक माना जा सकता है।

कनिष्क प्रथम निर्माता और कला का उन्नायक था। उसके संरक्षण में स्थापत्य और मूर्ति-कला को प्रोत्साहन मिला। उसने पेशावर के निकट एक बड़ा स्तूप बनवाया, जिसमें बुद्ध के अस्थि-अवशेष रखे गये थे। एक अभिलेख से पता चलता है कि इस स्तूप का निर्माण एक यूनानी इंजीनियर की देखरेख में हुआ था। यह इंजीनियर संभवतः यवन अधिकारी अगेसिलोस था जो कनिष्क के निर्माण-कार्यों का निरीक्षक अभियंता था। कश्मीर में उसने कनिष्कपुर नामक एक नगर बसाया। कल्हण की राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि कनिष्क ने कश्मीर में बौद्ध धर्म का प्रचार किया और वहाँ बौद्ध मठ, विहार तथा स्तूप स्थापित किये। उसने रोम के सम्राटों के सिक्कों का अनुकरण कर सोने के सिक्के चलवाये।

कनिष्क का नाम महायान बौद्ध धर्म के प्रश्रय एवं प्रचार-प्रसार के साथ-साथ गांधार कला शैली के विकास से भी संबद्ध है। कनिष्क के संरक्षण में गांधार कला शैली का विकास हुआ, जिसे ‘यूनानी-बौद्ध कला’ कहा जाता है। महायान धर्म का प्रचार होने से कनिष्क के काल में बुद्ध और बोधिसत्त्वों की मूर्तियाँ बनने लगीं। उसके कुछ सिक्कों पर यूनानी ढंग से खड़े और कुछ पर भारतीय ढंग से बैठे बुद्ध की आकृतियाँ प्राप्त होती हैं। पेशावर गांधार शैली की कला का मुख्य केंद्र था। देश के कुछ संग्रहालयों में सुरक्षित गांधार कला की अनेक कलाकृतियाँ कुषाण शासकों की कलाप्रियता की मूक साक्षी हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि कनिष्क का काल गंधार कला के विकास का स्वर्णयुग था।

गांधार कला शैली के अतिरिक्त मथुरा कला शैली का भी विकास हुआ। मथुरा कला शैली में लाल पत्थरों का प्रयेाग हुआ। मथुरा में एक मूर्ति मिली है जिसमें कनिष्क को सैनिक पोशाक पहने खड़ा दिखाया गया है।

परवर्ती कुषाण शासक

वासिष्क

कनिष्क के बाद विशाल कुषाण साम्राज्य का स्वामी वासिष्क बना, जिसने 24 से 28 तिथि तक शासन किया। इसके राजकाल के दो अभिलेख मिलते हैं- एक 24 तिथि का मथुरा से और दूसरा 28 तिथि का सांँची से। वासिष्क के शासनकाल में कनिष्क द्वारा स्थापित कुषाण साम्राज्य बना रहा और उसमें कोई क्षीणता नहीं आई। संभवतः वासिष्क ने कुषाण साम्राज्य को और भी अधिक विस्तृत किया, क्योंकि साँची में प्राप्त एक लेख से सूचित होता है कि विदिशा भी राजाधिराज देवपुत्रषाहि वासिष्क की अधीनता में था। पहले विदिशा सातवाहनों के अधीन थी, पर वासिष्क के समय में उस पर भी कुषाण वंश का आधिपत्य स्थापित हो गया। कुछ इतिहासकार इसका समीकरण 41 तिथि के आरा-पेशावर लेख के वाझेष्क से करते हैं। इससे लगता है कि उसका साम्राज्य पेशावर से पूर्वी मालवा तक विस्तृत था। उसका शासनकाल लगभग 144 ई. से 160 ई. तक माना जा सकता है।

पेशावर जिले में सिंधु के तट पर आरा नामक स्थान से प्राप्त एक लेख में महाराज राजाधिराज देवपुत्र कइसर वाझेष्कपुत्र के शासनकाल में दशव्हर नामक व्यक्ति द्वारा एक कुआं खुदवाने का उल्लेख है। इस लेख में कनिष्क को वाझेष्कपुत्र लिखा गया है। यह वाझेष्कपुत्र कनिष्क प्रथम से भिन्न कनिष्क द्वितीय था, जो कुषाण साम्राज्य का अधिपति बना। इसने संभवतः कुछ समय तक हुविष्क के साथ मिलकर शासन किया था। अधिकांश इतिहासकार दो कनिष्कों की सत्ता को स्वीकृत करते हैं और यह मानते हैं कि कनिष्क द्वितीय ने वासिष्क के बाद शासन किया था।

आरा लेख में कनिष्क द्वितीय के नाम के साथ महाराज, राजाधिराज, देवपुत्र आदि विशेषणों के अतिरिक्त कइसर (कैसर या सीजर) का भी प्रयोग किया गया है जो प्राचीन रोमन सम्राटों की उपाधि थी। इससे लगता है कि भारत का रोमन साम्राज्य के साथ घनिष्ठ संबंध होने के कारण ही भारत के उत्तरापथपति ने अन्य उपाधियों के साथ रोमन उपाधि को भी धारण किया था। इस समय भारत और रोम में व्यापार संबंध विद्यमान था और पहली सदी ई. के बहुत से रोमन सिक्के दक्षिणी भारत के विभिन्न स्थानों से मिले हैं। कुषाण सिक्कों की बनावट और तौल रोमन सिक्कों से बहुत मिलती-जुलती है।

हुविष्क

हुविष्क कुषाण राजा कनिष्क द्वितीय का पुत्र और उत्तराधिकारी था जिसने लगभग 162 ई. से 180 ई. तक राज्य किया। इसका साम्राज्य कनिष्क के साम्राज्य के समान विस्तृत था। इसके सोने व चाँदी के सिक्के उत्तर में कपिशा से पूरब में बिहार तक से मिले हैं। इससे ज्ञात होता है कि कनिष्क का जीता हुआ संपूर्ण राज्य इसके अधिकार में था और उसका विस्तार पूरब में पाटलिपुत्र तक था। हुविष्क के सिक्कों पर उसकी अपनी सुंदर प्रतिमा के साथ-साथ भारतीय (स्कंद, विशाख), ईरानी और यूनानी देवी-देवताओं के चित्र अंकित हैं।

हुविष्क के समय का एक लेख काबुल के ‘खवत’ नामक स्थान पर एक स्तूप की खुदाई में मिला है, जिसे कमगुल्मपुत्र वमग्ररेग नामक व्यक्ति ने भगवान् शाक्य मुनि के शरीर की प्रतिष्ठा के उपलक्ष्य में लिखवाया था। यह काबुल के पश्चिम में बौद्ध धर्म की सत्ता और प्राकृत भाषा के प्रचलन का ज्वलंत प्रमाण है। इसी युग के बहुत से लेख प्राकृत भाषा में और खरोष्ठी लिपि में खोतन से प्राप्त हुए हैं, जो कीलमुद्राओं (विशेष प्रकार की लकड़ियों की तख्तियों) पर लिखे गये हैं।

कल्हण की राजतरंगिणी से पता चलता है कि कश्मीर में अपने नाम से एक नगर सम्राट कनिष्क के उत्तराधिकारी जुष्क या हुविष्क ने बसाया था जिसकी पहचान श्रीनगर (कश्मीर) के उत्तर जुकुर (हुविष्कपुर?) नामक ग्राम से की जा सकती है। हुविष्क ने मथुरा में भी एक सुंदर विहार बनवाया था। इसका झुकाव संभवतः ब्राह्मण धर्म की ओर था। इस समय मथुरा में ‘गोकर्णेश्वर’ के नाम से पूजी जानेवाली मूर्ति संभवतः कुषाण सम्राट हुविष्क की ही मूर्ति है।

कुषाणों का पतन

वासुदेव

हुविष्क के बाद वासुदेव कुषाण साम्राज्य का स्वामी हुआ। यह शैव धर्मानुयायी था क्योंकि इसके सिक्कों पर शिव तथा नंदी की आकृतियाँ अंकित हैं। यवनों आदि के विदेशी देवताओं से अंकित उसके कोई सिक्के उपलब्ध नहीं हैं। इससे लगता है कि उसने प्राचीन हिंदू धर्म को पूर्ण रूप से अपना लिया था। उसका वासुदेव नाम भी इसी ओर निर्देश करता है।

ऐसा लगता है कि राजा वासुदेव के शासनकाल में कुषाण साम्राज्य की शक्ति क्षीण होनी शुरू हो गई थी। इस समय उत्तरापथ में अनेक ऐसी राजशक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ, जिन्होंने कुषाणों के गौरव का अंतकर अपनी शक्ति का विकास किया था। ईरान में ससैनियन वंश के तथा पूर्व में भारशिव नागवंश के उदय ने कुषाणों के पतन में बहुत योग दिया। संभवतः पश्चिमोत्तर भारत में कुषाणों का प्रभाव कम होने लगा था और कुषाण सत्ता मथुरा के आसपास ही आकर सिमट गई थी। इसके लेख मथुरा और आसपास के क्षेत्रों से मिले हैं। हुविष्क के शासनकाल में ही दक्षिणापथ में शकों ने एक बार पुनः अपना उत्कर्ष किया था। रुद्रदामन के नेतृत्व में शक लोग एक बार फिर दक्षिणापथ की प्रधान राजशक्ति बन गये।

कुषाणों की प्रशासनिक व्यवस्था

सत्ता का विकेंद्रीकरण

कुषाणों की प्रशासनिक व्यवस्था मौर्य प्रशासनिक व्यवस्था से पूर्णतया भिन्न थी। इसमें मौर्ययुगीन केंद्रीयकरण की प्रवृत्ति के स्थान पर सत्ता का विकेंद्रीकरण स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। कुषाण राजतंत्रीय प्रशासन में सत्ता का प्रधान राजा होता था। कुषाण शासकों ने महाराज, राजाधिराज, शाओनानोशाओ (षाहानुषाहि), महीश्वर, सर्वलोकेश्वर आदि अनेक गौरवपूर्ण उपाधियाँ धारण की और राजत्व के दैवी गुणों पर विशेष बल दिया। इसके अलावा कुषाण शासकों ने अपने-आपको ‘देवपुत्र’ के रूप में प्रतिष्ठित कर मृत राजाओं के लिए ‘देवकुल’ स्थापना की प्रथा चलवाई। इससे लगता है कि कुषाणों के अधीन छोटे-छोटे सामंत जैसे शासक थे, जो उनकी अधीनता स्वीकार करते थे।

प्रांतीय शासन

कुषाणों के प्रांतीय शासन के संबंध में अधिक ज्ञान नहीं है। संभवतः कुषाण साम्राज्य पाँच या सात प्रांतों में विभक्त था। प्रांतों के प्रशासन के लिए महाक्षत्रपों या क्षत्रपों की नियुक्ति की जाती थी। कुषाणों ने एक ही क्षेत्र में दो शासक नियुक्त करने की विचित्र प्रथा भी चलाई। सारनाथ अभिलेख से ज्ञात होता है कि वहाँ वनस्पर और खरपल्लन दो क्षत्रप एक ही साथ शासन करते थे। क्षत्रप, महाक्षत्रप के अलावा दंडनायक और महादंडनायक नामक अधिकारियों का भी उल्लेख अभिलेखों में मिलता है जो प्रशासन के साथ-साथ सैनिक व्यवस्था से भी संबद्ध रहे होंगे।

नगर प्रशासन

नगर प्रशासन में संभवतः श्रेणी और निगम महत्त्वपूर्ण थे। ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी जिसका प्रधान ‘ग्रामिक’ होता था, इसका उल्लेख वासुदेव के मथुरा लेख में मिलता है। इसका मुख्य कार्य राजस्व की वसूली करना था। ‘पद्रपाल’ नामक कर्मचारी गाँव की सामूहिक परती (ऊसर) भूमि की देखभाल करता था।

इस प्रकार कुषाणों ने भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में कुछ नये तत्त्वों का समावेश किया। इसी समय द्वैध शासन प्रणाली विकसित हुई और राजा के दैवी गुणों पर विशेष बल दिया गया। सबसे महत्त्व की बात यह है कि कुषाण राजनीतिक ढ़ाँचे की मुख्य विशेषता, अर्थात् श्रेणीबद्ध सामंती व्यवस्था को समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य-संगठन के एक स्तंभ के रूप में अपना लिया।

कुषाण शासन का महत्त्व

कुषाण राज्य की स्थापना भारतीय इतिहास एवं संस्कृति में एक मील का पत्थर है। मौर्यों के पतन के बाद पहली बार कुषाणों ने ही समस्त उत्तरी भारत को एक राजनीतिक एकता के सूत्र में बाँधा। कुषाणों की अपनी कोई विकसित संस्कृति नहीं थी, इसलिए भारत में बसने पर उन्होंने यूनानी संस्कृति के साथ-साथ भारतीय संस्कृति को भी आत्मसात् कर लिया, जिससे एक समन्वित संस्कृति के विकास को प्रोत्साहन मिला। भारतीयों ने भी कुषाणों से घुड़सवारी, लगाम, जीन, पगड़ी, कुरती, पतलून, लंबे कोट, शिरस्त्राण, बूट आदि का प्रयोग करना सीखा।

शक्तिशाली कुषाण शासकों ने अपनी दूरदर्शिता और विकासोन्मुखी क्रियाकलापों से उत्तर भारत की साधारण जनता को न केवल विदेशी आक्रमणों से मुक्ति प्रदान की, अपितु शांति, सुव्यवस्था और सामंजस्य का वातावरण स्थापित कर व्यापार-वाणिज्य को बढ़ावा दिया जिसके कारण अनेक शिल्पों एवं उद्योग-धंधों का विकास हुआ। राजनीतिक शांति और आर्थिक समृद्धि के इस युग में धर्म, साहित्य, कला, विज्ञान, व्यापार-वाणिज्य आदि सभी क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति हुई। व्यापारिक एवं औद्योगिक विकास के परिणामस्वरूप पुराने नगरों में अधिक समृद्धि आई तथा तक्षशिला, पुरुषपुर, मथुरा, श्रावस्ती, कोशांबी, वाराणसी, पाटलिपुत्र, वैशाली जैसे नगरों का अभ्युदय हुआ। सही अर्थों में कुषाणकाल को ही ‘भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग’ माना जाना चाहिए।

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