गौतम बुद्ध की शिक्षाएँ (Teachings of Gautam Buddha)

गौतम बुद्ध की शिक्षाएँ

बुद्ध ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा और न अपने शिष्यों को अपना उपदेश किसी विशिष्ट, प्रमाणभूत भाषा में स्मरण रखने के लिए कहा। उन्होंने प्रचलित ‘मागधी भाषा’ में उपदेश किया और भिक्षुओं को अनुमति दी कि वे अपनी-अपनी बोलियों में उनके उपदेशों का स्मरण करें। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तुरंत बाद ही बौद्ध धर्म की पहली संगीति हुई थी जिसका उद्देश्य बुद्ध-वचनों को सुरक्षित करना था। बुद्ध की शिक्षाओं का ज्ञान ‘पालि त्रिपिटक’ से ही प्राप्त होता है।

गौतम बुद्ध की शिक्षाएँ (Teachings of Gautam Buddha)
गौतम बुद्ध

चार आर्यसत्य

ऋषिपत्तन (सारनाथ) में बुद्ध ने दुःख, दुःख-समुदय, दुःख-निरोध और दुःख-निरोध-गामिनी प्रतिपद, इन्हीं चार आर्यसत्यों का ‘धर्मचक्र’ प्रवर्तित किया था और यही आर्य सत्य इस धर्म के समस्त सिद्धांतों के आधार हैं।

दुःख सत्य

बुद्ध के अनुसार जीवन दुःखों से परिपूर्ण है, सभी वस्तुएँ जो उत्पन्न हुई हैं, दुःख, अनित्य तथा अनात्म रूप हैं। जन्म भी दुःख है, जरा भी सम्यक् दृष्टि : दुःख है, व्याधि भी दुःख है, मरण भी दुःख है, अप्रिय मिलन भी दुःख है, प्रिय वियोग भी दुःख है। संसार की सभी वस्तुएँ दुःखमय हैं– ‘सब्बं दुखं’।

दुःख-समुदय

बुद्ध के अनुसार प्रत्येक वस्तु का कोई न कोई कारण अवश्य होता है, इसलिए दुःखों का भी कारण है। प्रतीत्यसमुत्पाद के अनुसार दुःख की उत्पत्ति कोएक कारण नहीं है, इसके ‘कारणों की एक लंबी श्रृंखला है जिसमें जरा-मरण से लेकर अविद्या तक बारह कड़ियाँ हैं और इन कारणों का मूल कारण अविद्या है।

दुःख-निरोध

तृतीय आर्यसत्य है कि दुःखों का निरोध संभव है। कारण की सत्ता पर ही कार्य की सत्ता अवलंबित रहती है, इसलिए यदि कारण-परंपरा का निरोध कर दिया जाये, तो कार्य का निरोध स्वतः हो जायेगा। दुःखों का मूल कारण ‘अविद्या’ है, इसलिए विद्या द्वारा अविद्या का निरोध कर देने पर दुःख-निरोध हो जाता है। साधारणतः इसे ही ‘निर्वाण’ कहा गया है। यही जीवन का चरम लक्ष्य है। निर्वाण का अर्थ जीवन का विनाश न होकर दुःखों का विनाश है और इसकी प्राप्ति जीवनकाल में भी संभव है। बुद्ध के अनुसार यह वर्णनातीत अवस्था है।

दुःख-निरोध का मार्ग

चतुर्थ आर्यसत्य है- दुःख-निरोधगामिनी प्रतिपद् अर्थात् जिन कारणों से दुःख की उत्पत्ति होती है, उनके नष्ट करने का उपाय ही निर्वाण का मार्ग है। दुःख-निरोध के आठ साधन बताये गये हैं जिन्हें ‘अष्टांगिक मार्ग’ कहा गया है। जिस प्रकार गंगा, यमुना, अचिरवती, सरमू (सरयू) तथा मही नदियाँ पूर्व की ओर बहने वाली, समुद्र की ओर अभिगामिनी होती हैं, उसी प्रकार अभ्यास करने पर आर्य अष्टांगिक मार्ग निर्वाण की ओर ले जानेवाला होता है। अष्टांगिक मार्ग निम्नलिखित हैं-

  1. सम्यक् दृष्टि : वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को जानना ही सम्यक् दृष्टि है।
  2. सम्यक् संकल्प : आसक्ति, द्वेष तथा हिंसा से मुक्त विचार रखना ही सम्यक् संकल्प है।
  3. सम्यक् वाक : सदा सत्य तथा मृदु वाणी का प्रयोग करना ही सम्यक् वाक् है।
  4. सम्यक् कर्मांत : इसका आशय अच्छे कर्मों में संलग्न होने तथा बुरे कर्मों के परित्याग से है।
  5. सम्यक् आजीव : विशुद्ध रूप से सदाचरण से जीवन-यापन करना ही सम्यक् आजीव है।
  6. सम्यक् व्यायाम : अकुशल धर्मों का त्याग तथा कुशल धर्मों का अनुसरण ही सम्यक् व्यायाम है।
  7. सम्यक् स्मृति : इसका आशय वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप के संबंध में सदैव जागरूक रहना है।
  8. सम्यक् समाधि : चित्त की समुचित एकाग्रता ही सम्यक् समाधि है।

शील, समाधि और प्रज्ञा

प्राचीन बौद्ध साहित्य में ‘शील’, ‘समाधि’ और ‘प्रज्ञा’ को दुःख-निरोध का साधन बताया गया है। शील का अर्थ है ‘सम्यक् आचरण’, समाधि का अर्थ है ‘सम्यक् ध्यान’ और प्रज्ञा का अर्थ ‘सम्यक् ज्ञान’ से है। अष्टांगिक मार्ग को इन्हीं के अंतर्गत रखा गया है। शील के अंतर्गत सम्यक् कर्मांत तथा आजीव को, समाधि के अंतर्गत सम्यक् व्यायाम, समृति तथा समाधि को और प्रज्ञा के अंतर्गत सम्यक् दृष्टि, संकल्प तथा वाक् को रखा जा सकता है।

आर्य सत्यों के ज्ञान तथा अनुशीलन से निर्वाण की प्राप्ति मानव को जरा-मरण के चक्र से छुटकारा दे सकती है। बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग के अंतर्गत अधिक सुखपूर्ण जीवन व्यतीत करना या अधिक काया-क्लेश में संलग्न होना- दोनों को वर्जित किया है। इस संबंध में उन्होंने ‘मध्यम मार्ग’ का उपदेश दिया है।

निरीश्वरवाद

बौद्ध धर्म मूलतः निरीश्वरवादी है। बुद्ध के अनुसार विश्व ‘प्रतीत्यसमुत्त्पाद’ के नियमों से संचालित होता है और इसके संचालन के लिए ईश्वर नामक किसी सत्ता की आवश्यकता नहीं है। जगत् उत्पत्ति तथा विनाश के नियमों में आबद्ध है, इसलिए उन्होंने भिक्षुओं को ‘अप्पदीपो भव’ (अपना प्रकाश स्वयं बनो) का उपदेश देकर स्वयं प्रकाश खोजने का उपदेश दिया। उनका कहना है कि निर्वाण प्राप्त करना व्यक्ति का स्वयं अपना उत्तरदायित्व है। उन्होंने सदाचार और नैतिक जीवन पर अत्यधिक बल दिया है।

दसशीलों का अनुशीलन नैतिक जीवन का आधार है। ये दसशील हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, व्यभिचार न करना, मद्य का सेवन न करना, असमय भोजन न करना, सुखप्रद बिस्तर पर न सोना, धन संचय न करना और स्त्रियों से संसर्ग न करना।

प्रतीत्यसमुत्त्पाद

प्रतीत्यसमुत्त्पाद बुद्ध के उपदेशों का का सार है और बौद्ध धर्म की समस्त शिक्षाओं का आधार-स्तंभ है। प्रतीत्यसमुत्त्पाद का अर्थ है- किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर अन्य वस्तु की उत्पत्ति, अर्थात् सापेक्ष कारणवाद। इसमें कारण की सत्ता और कार्य की सत्ता में सापेक्षता है। यह इस नियम का निरूपण करता है कि ‘इसके होने पर यह होता है, इसके उत्पाद से यह उत्पन्न होता है, इसके न होने पर यह नहीं होता, इसके विरोध से यह निरुद्ध है।’

प्रतीत्यसमुत्त्पाद का एक पारमार्थिक पक्ष है जो परमार्थ को सत् और असत् से परे बताता है और एक व्यावहारिक पक्ष है जो संसार में कार्य-कारण-नियम का विशिष्ट प्रतिपादन करता है। सापेक्षवादी दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत्यसमुत्त्पाद संसार (दुःख) है तथा वास्तविकता की दृष्टि से यही निर्वाण (दुःख-निरोध) है।

बुद्ध का यह कहना नहीं है कि संसार के प्रवाह में पदार्थ हैं भी और नहीं भी हैं। संसार की प्रत्येक वस्तु सापेक्ष्य होने के कारण न तो पूर्ण सत्य है और न ही पूर्ण असत्य है। पूर्ण सत्य इसलिए नहीं है कि यह जरा-मरण के अधीन है और पूर्ण असत्य इसलिए नहीं है कि इसका अस्तित्व दिखाई देता है। यही बुद्ध को‘मध्यम मार्ग’ है जो दोनों अतिवादी विचारधाराओं- शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दोनों का निषेध करता है। बुद्ध ने स्वयं प्रतीत्यसमुत्त्पाद को अत्यधिक महत्त्व दिया है और कहा है कि ‘जो प्रतीत्यसमुत्त्पाद को देखता है, वह धर्म को देखता है।’

द्वादश निदान

प्रतीत्यसमुत्त्पाद के अनुसार जैसे दुःख (जरा-मरण) का कारण जन्म है, उसी प्रकार जन्म का कारण भी कर्मफल को उत्पन्न करनेवाला अज्ञानरूपी चक्र है। इस कार्य-कारण श्रृंखला में बारह प्रधान कड़ियाँं हैं जो एक-दूसरे को उत्पन्न करने के कारण हैं। इसे ‘द्वादश निदान’, ‘भवचक्र’, ‘जीवन चक्र’ आदि कहा गया है। इस जीवन-चक्र के बारह क्रम हैं- अविद्या, संस्कार, विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जाति और जरा-मरण।

जीवन-चक्र के इन बारह कारणों में से प्रथम दो पूर्व जन्म से संबंधित हैं तथा अंतिम दो भावी जीवन से और शेष वर्तमान जीवन से संबंध रखते हैं। यह जीवन-मरण का चक्र मृत्यु के साथ समाप्त नहीं होता। मृत्यु तो जीवन के प्रारंभ होने का कारण मात्र है। इस हेतु-चक्र का अंत करने के लिए ‘अविद्या’ का अंत आवश्यक है और ज्ञान ही ‘अविद्या’ का उच्छेद करके व्यक्ति को निर्वाण की ओर ले जाने में समर्थ है।

कर्म और कर्मफल की परंपरा

बुद्ध के अनुसार कर्म और कर्मफल की एक अनादि और अविच्छिन्न परंपरा है। बुद्ध ने कर्म को ‘चेतना’ कहा है। कर्म क्योंकि चेतना है, इसलिए वह अपने फल को स्वयं अंगीकार या आकृष्ट कर लेती है। फल देने के लिए किसी चेतन या ईश्वर को मानने की कोई आवश्यकता नहीं हैं। अपने सुख-दुःख के लिए प्राणी स्वयं ही उत्तरदायी है। अपने अज्ञान और मिथ्यादृष्टियों से मानव ने स्वयं ही अपने लिए दुःखों का उत्पाद किया है, अतः कोई दूसरी शक्ति उसे मुक्त नहीं कर सकती। इसके लिए उसे स्वयं प्रयास करना होगा।

अनित्यवाद (क्षणिकवाद)

बौद्ध धर्म के अनुसार संसार की समस्त वस्तुएँ अनित्य हैं चाहे वह जड़ हों अथवा चेतन। प्रत्येक पदार्थ में लगातार परिवर्तन की एक प्रक्रिया चल रही है, जिसमें एक स्थिति प्रतिक्षण नष्ट व दूसरी प्रतिक्षण निर्मित हो रही है। यही बुद्ध का अनित्यवाद (क्षणिकवाद) है। वस्तुएँ सिर्फ अनित्य ही नहीं हैं, बल्कि क्षण भर के लिए सामने आती हैं, किंतु दूसरे ही क्षण वह विलीन हो जाती हैं। इसकी सुंदर व्याख्या दीपशिखा के माध्यम से की गई है। दीपक की बाती के माध्यम से तेल की एक-एक बूँद उर्ध्वगामी होती है; प्रत्येक बूँद का प्रज्ज्वलन पृथक्-पृथक् लौ उत्पन्न करता है और इस प्रकार अनेक अनवरत लौ ही एक लौ के रूप में दिखाई देती है। इस प्रक्रिया में एक लौ लगातार नष्ट होती है और दूसरी लगातार बनती रहती है। अनुभव की प्रत्येक अवस्था आविर्भूत होने के बाद तुरन्त तिरोहित होते ही अगली अवस्था में लीन हो जाती है और इस प्रकार प्रत्येक अगली अवस्था में सभी पूर्वगामी अवस्थाएं अव्यक्त रूप में विद्यमान रहती हैं जो अनुकूल परिस्थितियों में अभिव्यक्त कर देती हैं। यद्यपि मानव किन्हीं दो क्षणों में वही नहीं बना रहता, तथापि वह पूर्णतया भिन्न भी नहीं हो जाता है। यह शाश्वतवाद तथा उच्छेदवाद का मध्यमार्ग है जो सृष्टि की प्रवाहमय स्थिरता की ओर इंगित करता है और सृष्टि के प्रति निर्लिप्त रहने का संदेश देता है।

अनात्मवाद

बुद्ध अनात्मवादी हैं, वे आत्मा नामक किसी स्थायी तत्त्व में विश्वास नहीं करते। वे केवल क्षणिक संवेदनों औेर विचारों की सत्ता को स्वीकार करते हैं और अपरिवर्तनशील सत्ता के रूप में आत्मा को एक अनावश्यक कल्पना मानते हैं। उनके अनुसार आत्मा पाँच स्कंधों- रूप, विज्ञान, वेदना, संज्ञा और संस्कार-से निर्मित एक संघात मात्र है। जिस प्रकार धुरी, पहिये, रस्सियों आदि के संघात-विशेष का नाम रथ है, उसी प्रकार पंच-स्कंधों के संघात के अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है, अर्थात् आत्मा इन्हीं पंच-स्कंधों की समष्टि का नाम है। पांँचों स्कंध सदैव बदलनेवाले अर्थात् अनित्य हैं, इसलिए उनसे निर्मित आत्मा भी अनित्य है। यही बुद्ध का अनात्मवाद है।

इस प्रकार भगवान् बुद्ध शाश्वत आत्मा का निषेध करते हैं और कहते हैं कि ‘‘विश्व में न कोई आत्मा है और न आत्मा की तरह कोई अन्य वस्तु। शाश्वत आत्मा में विश्वास उसी प्रकार हास्यास्पद है, जिस प्रकार काल्पनिक सुंदरी के प्रति अनुराग रखना।’’

आत्मा की तरह भौतिक वस्तुएँ भी संघात ही हैं और उनके मूल में भी कोई एकता नहीं है। आत्मा और भूतद्रव्य दोनों का केवल संघात रूप में अस्तित्व है। यह संघात दो क्षणों तक भी वही का वही नहीं बना रहता, बल्कि निरंतर परिवर्तित होता रहता है। इसलिए आत्मा और भौतिक जगत् दोनों जल की धारा या अग्नि की ज्वाला के समान संतान (परिवर्तनशील) हैं।

पुनर्जन्म की व्याख्या

बुद्ध की यह विशेषता है कि उन्होंने नित्य-आत्मा का निषेध करके भी पुनर्जन्म की व्याख्या की है। यदि कर्त्ता के बिना कर्म हो सकता है तो आत्मा के बिना पुनर्जन्म भी हो सकता है। बुद्ध के मतानुसार ‘पुनर्जन्म’ का अर्थ ‘विज्ञान प्रवाह की अविच्छिन्नता है।’ जब एक विज्ञान प्रवाह का अंतिम विज्ञान समाप्त हो जाता है, तब अंतिम विज्ञान की मृत्यु हो जाती है और एक नये शरीर में एक नये विज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। इसी अविरल प्रवाह को बुद्ध ने पुनर्जन्म कहा है। केवल इस जीवन के समाप्त होने पर ही पुनर्जन्म नहीं होता है, बल्कि प्रतिक्षण पुनर्जन्म होता है।

बुद्ध ने पुनर्जन्म की व्याख्या दीपक की लौ से की है। एक व्यक्ति से संबंध रखने वाला कर्म जैसे जीवन-काल में वैसे ही मृत्यु-काल में भी अपने को संचारित कर सकता है; और यद्यपि मृत व्यक्ति पुनर्जीवित नहीं होता, तथापि उसके स्थान पर उसी के संस्कार वाला दूसरा व्यक्ति जन्म ले सकता है। इस प्रकार ‘पुनर्जन्म किसी आत्मा का नहीं, चरित्र का होता है।’

निर्वाण

मानव के जीवन का चरम लक्ष्य है- जरा-मरण (दुःख) के बंधन से मुक्ति अर्थात् ‘निर्वाण’। सामान्यतः जन्म-मरण की परंपरा अविद्या, क्लेश और कर्म पर आश्रित है। विद्या से क्लेश क्षीण हो जाता है और संसार-चक्र का निरोध हो जाता है। साधारणतः इसे ही ‘निर्वाण’ कहा गया है।

‘निर्वाण’ का शाब्दिक अर्थ है ‘बुझ जाना’ अर्थात् जीवन-मरण के चक्र से छुटकारा। निर्वाण का सिद्धांत वैदिक धर्म के मोक्ष के सिद्धांत से भिन्न है। वैदिक धर्म के अनुसार सत्कर्मों से व्यक्ति में निहित आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है और व्यक्ति पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाता है। बौद्ध धर्म में निरोध अथवा निर्वाण विनाश का सूचक नहीं है। आग का बुझना आग का नाश नहीं, किंतु उसका अपने मूल-प्रभाव में फिर से लय हो जाना है। बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण इसी जन्म में प्राप्त हो सकता है, किंतु महापरिनिर्वाण मृत्यु के बाद ही संभव है।

मानव जाति की समानता

बुद्ध मानव जाति की समानता के अनन्य पोषक थे। उनका कहना था कि जन्म से कोई ब्राह्मण या अब्राह्मण नहीं होता, वरन् कर्म से ही जाति का निर्धारण होता है। जिस प्रकार अग्नि सभी प्रकार की लकड़ियों से प्रज्ज्वलित हो सकती है, उसी प्रकार सभी जाति के लोग संन्यासी होकर जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। उन्होंने सभी जाति और वर्ण के लोगों को अपने धर्म और संघ का द्वार खोल दिया।

प्रत्यक्षवाद

बुद्ध का धर्म एक आविष्कार है, एक खोज है क्योंकि यह मनुष्य-जीवन और उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के गम्भीर अध्ययन का परिणाम है। ‘आओ और देखो’ (एहिपस्सिको) इस धर्म का प्रत्यक्षवाद है। बुद्ध ने कहा कि मेरी बात को भी इसलिए न मानो कि उसे बुद्ध ने कही है। उन पर भी संदेह करो और विविध परीक्षाओं द्वारा उनकी परीक्षा करो। जीवन की कसौटी पर उन्हें परखो, अपने अनुभवों से मिलान करो, यदि तुम्हें सही जान पड़े तो स्वीकार करो, अन्यथा छोड़ दो। यही कारण है कि बौद्ध धर्म रहस्याडंबरों से मुक्त, नितांत बुद्धिवादी, मानवीय सम्वेदनाओं से ओतप्रोत है और हृदय का सीधे स्पर्श करता है।

बौद्ध धर्म की सामाजिक परिकल्पना वर्णव्यवस्था से मुक्त नही थी क्योंकि बौद्ध ग्रंथों में ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रियों की सामाजिक प्रतिष्ठा पर अधिक बल दिया गया है। क्षत्रियों को अपनी रक्त-शुद्धता पर अभिमान भी था। संयुक्त निकाय में क्षत्रियों को मानवमात्र में श्रेष्ठ बताया गया है। वस्तुतः नवीन परिवर्तनों के कारण जब ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा खो रही थी तो अपनी विशिष्ट भूमिका के कारण नये शक्तिशाली क्षत्रिय वर्ग को अधिक प्रतिष्ठा मिलना स्वाभाविक था।

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