बुद्ध ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा और न अपने शिष्यों को अपना उपदेश किसी विशिष्ट, प्रमाणभूत भाषा में स्मरण रखने के लिए कहा। उन्होंने प्रचलित ‘मागधी भाषा’ में उपदेश दिया और भिक्षुओं को अनुमति दी कि वे अपनी-अपनी बोलियों में उनके उपदेशों का स्मरण करें। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तुरंत बाद ही बौद्ध धर्म की पहली संगीति हुई थी, जिसका उद्देश्य बुद्ध-वचनों को सुरक्षित करना था। बुद्ध की शिक्षाओं का ज्ञान ‘पालि त्रिपिटक’ से ही प्राप्त होता है।

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Toggleचार आर्य सत्य
ऋषिपत्तन (सारनाथ) में बुद्ध ने दुःख, दुःख-समुदय, दुःख-निरोध और दुःख-निरोधगामिनी प्रतिपदा, इन्हीं चार आर्य सत्यों का ‘धर्मचक्र’ प्रवर्तित किया था और यही आर्य सत्य इस धर्म के समस्त सिद्धांतों के आधार हैं।
दुःख सत्य
बुद्ध के अनुसार जीवन दुःखों से परिपूर्ण है। सभी वस्तुएँ जो उत्पन्न हुई हैं, दुःख, अनित्य तथा अनात्म रूप हैं। जन्म भी दुःख है, जरा भी दुःख है, व्याधि भी दुःख है, मरण भी दुःख है, अप्रिय मिलन भी दुःख है, प्रिय वियोग भी दुःख है। संसार की सभी वस्तुएँ दुःखमय हैं: ‘सब्बं दुखं’।
दुःख-समुदय
बुद्ध के अनुसार प्रत्येक वस्तु का कोई न कोई कारण अवश्य होता है, इसलिए दुःखों का भी कारण है। प्रतीत्यसमुत्पाद के अनुसार दुःख की उत्पत्ति का एक कारण नहीं है, इसके ‘कारणों की एक लंबी शृंखला’ है, जिसमें जरा-मरण से लेकर अविद्या तक बारह कड़ियाँ हैं और इन कारणों का मूल कारण अविद्या है।
दुःख-निरोध
तृतीय आर्य सत्य है कि दुःखों का निरोध संभव है। कारण की सत्ता पर ही कार्य की सत्ता अवलंबित रहती है, इसलिए यदि कारण-परंपरा का निरोध कर दिया जाए, तो कार्य का निरोध स्वतः हो जाएगा। दुःखों का मूल कारण ‘अविद्या’ है, इसलिए विद्या द्वारा अविद्या का निरोध करने पर दुःख-निरोध हो जाता है। साधारणतः इसे ही ‘निर्वाण’ कहा गया है। यही जीवन का चरम लक्ष्य है। निर्वाण का अर्थ जीवन का विनाश नहीं, बल्कि दुःखों का विनाश है और इसकी प्राप्ति जीवनकाल में भी संभव है। बुद्ध के अनुसार यह वर्णनातीत अवस्था है।
दुःख-निरोध का मार्ग
चतुर्थ आर्य सत्य है- दुःख-निरोधगामिनी प्रतिपदा अर्थात् जिन कारणों से दुःख की उत्पत्ति होती है, उनके नष्ट करने का उपाय ही निर्वाण का मार्ग है। दुःख-निरोध के आठ साधन बताए गए हैं, जिन्हें ‘अष्टांगिक मार्ग’ कहा गया है। जिस प्रकार गंगा, यमुना, अचिरवती, सरमू (सरयू) तथा मही नदियाँ पूर्व की ओर बहने वाली, समुद्र की ओर अभिगमनी होती हैं, उसी प्रकार अभ्यास करने पर आर्य अष्टांगिक मार्ग निर्वाण की ओर ले जाने वाला होता है। अष्टांगिक मार्ग निम्नलिखित हैं-
- सम्यक् दृष्टि: वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को जानना ही सम्यक् दृष्टि है।
- सम्यक् संकल्प: आसक्ति, द्वेष तथा हिंसा से मुक्त विचार रखना ही सम्यक् संकल्प है।
- सम्यक् वाक्क्: सदा सत्य तथा मृदु वाणी का प्रयोग करना ही सम्यक् वाक् है।
- सम्यक् कर्मांत: इसका आशय अच्छे कर्मों में संलग्न होने तथा बुरे कर्मों के परित्याग से है।
- सम्यक् आजीव: विशुद्ध रूप से सदाचार से जीवन-यापन करना ही सम्यक् आजीव है।
- सम्यक् व्यायाम: अकुशल धर्मों का त्याग तथा कुशल धर्मों का अनुसरण ही सम्यक् व्यायाम है।
- सम्यक् स्मृति: इसका आशय वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप के संबंध में सदैव जागरूक रहना है।
- सम्यक् समाधि: चित्त की समुचित एकाग्रता ही सम्यक् समाधि है।
शील, समाधि और प्रज्ञा
प्राचीन बौद्ध साहित्य में ‘शील’, ‘समाधि’ और ‘प्रज्ञा’ को दुःख-निरोध का साधन बताया गया है। शील का अर्थ है ‘सम्यक् आचरण’, समाधि का अर्थ है ‘सम्यक् ध्यान’ और प्रज्ञा का अर्थ ‘सम्यक् ज्ञान’ से है। अष्टांगिक मार्ग को इन्हीं के अंतर्गत रखा गया है। शील के अंतर्गत सम्यक् कर्मांत तथा आजीव को, समाधि के अंतर्गत सम्यक् व्यायाम, स्मृति तथा समाधि को और प्रज्ञा के अंतर्गत सम्यक् दृष्टि, संकल्प तथा वाक् को रखा जा सकता है।
आर्य सत्यों के ज्ञान तथा अनुशीलन से निर्वाण की प्राप्ति मानव को जरा-मरण के चक्र से छुटकारा दे सकती है। बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग के अंतर्गत अधिक सुखपूर्ण जीवन व्यतीत करना या अधिक काया-क्लेश में संलग्न होना दोनों को वर्जित किया है। इस संबंध में उन्होंने ‘मध्यम मार्ग’ का उपदेश दिया है।
निरीश्वरवाद
बौद्ध धर्म मूलतः निरीश्वरवादी है। बुद्ध के अनुसार विश्व ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ के नियमों से संचालित होता है और इसके संचालन के लिए ईश्वर नामक किसी तत्त्व की आवश्यकता नहीं है। जगत् उत्पत्ति तथा विनाश के नियमों में आबद्ध है, इसलिए उन्होंने भिक्षुओं को ‘अप्पदीपो भव’ (अपना प्रकाश स्वयं बनो) का उपदेश देकर स्वयं प्रकाश खोजने का उपदेश दिया। उनका कहना है कि निर्वाण प्राप्त करना व्यक्ति का स्वयं अपना उत्तरदायित्व है। उन्होंने सदाचार और नैतिक जीवन पर अत्यधिक बल दिया है।
दशशीलों का अनुशीलन नैतिक जीवन का आधार है। ये दशशील हैं – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, व्यभिचार न करना, मद्य का सेवन न करना, असमय भोजन न करना, सुखप्रद बिस्तर पर न सोना, धन संचय न करना और स्त्रियों से संसर्ग न करना।
प्रतीत्यसमुत्पाद
प्रतीत्यसमुत्पाद बुद्ध के उपदेशों का सार है और बौद्ध धर्म की समस्त शिक्षाओं का आधार-स्तंभ है। प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ है- किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर अन्य वस्तु की उत्पत्ति अर्थात् सापेक्ष कारणवाद। इसमें कारण की सत्ता और कार्य की सत्ता में सापेक्षता है। यह इस नियम का निरूपण करता है कि ‘इसके होने पर यह होता है, इसके उत्पाद से यह उत्पन्न होता है, इसके न होने पर यह नहीं होता, इसके विरोध से यह निरुद्ध है।’
प्रतीत्यसमुत्पाद का एक पारमार्थिक पक्ष है, जो परमार्थ को सत् और असत् से परे बताता है और एक व्यावहारिक पक्ष है, जो संसार में कार्य-कारण-नियम का विशिष्ट प्रतिपादन करता है। सापेक्षवादी दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत्यसमुत्पाद संसार (दुःख) है तथा वास्तविकता की दृष्टि से यही निर्वाण (दुःख-निरोध) है।
बुद्ध का यह कहना नहीं है कि संसार के प्रवाह में पदार्थ हैं भी और नहीं भी हैं। संसार की प्रत्येक वस्तु सापेक्ष्य होने के कारण न तो पूर्ण सत्य है और न ही पूर्ण असत्य है। पूर्ण सत्य इसलिए नहीं है कि यह जरा-मरण के अधीन है और पूर्ण असत्य इसलिए नहीं है कि इसका अस्तित्व दिखाई देता है। यही बुद्ध का ‘मध्यम मार्ग’ है, जो दोनों अतिवादी विचारधाराओं- शाश्वतवाद और उच्छेदवादकृका निषेध करता है। बुद्ध ने स्वयं प्रतीत्यसमुत्पाद को अत्यधिक महत्त्व दिया है और कहा है कि “जो प्रतीत्यसमुत्पाद को देखता है, वह धर्म को देखता है।”
द्वादश निदान
प्रतीत्यसमुत्पाद के अनुसार जैसे दुःख (जरा-मरण) का कारण जन्म है, उसी प्रकार जन्म का कारण भी कर्मफल को उत्पन्न करने वाला अज्ञानरूपी चक्र है। इस कार्य-कारण श्रृंखला में बारह प्रधान कड़ियाँ हैं, जो एक-दूसरे को उत्पन्न करने के कारण हैं। इसे ‘द्वादश निदान’, ‘भवचक्र’, ‘जीवन चक्र’ आदि कहा गया है। इस जीवन-चक्र की बारह कड़ियाँ हैं- अविद्या, संस्कार, विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जाति और जरा-मरण।
जीवन-चक्र के इन बारह कारणों में से प्रथम दो पूर्व जन्म से संबंधित हैं तथा अंतिम दो भावी जीवन से और शेष वर्तमान जीवन से संबंध रखते हैं। यह जीवन-मरण का चक्र मृत्यु के साथ समाप्त नहीं होता। मृत्यु तो जीवन के प्रारंभ होने का कारण मात्र है। इस हेतु-चक्र का अंत करने के लिए ‘अविद्या’ का अंत आवश्यक है और ज्ञान ही ‘अविद्या’ का उच्छेद करके व्यक्ति को निर्वाण की ओर ले जाने में समर्थ है।
कर्म और कर्मफल की परंपरा
बुद्ध के अनुसार कर्म और कर्मफल की एक अनादि और अविच्छिन्न परंपरा है। बुद्ध ने कर्म को श्चेतनाश् कहा है। कर्म क्योंकि चेतना है, इसलिए वह अपने फल को स्वयं अंगीकार या आकर्षित कर लेता है। फल देने के लिए किसी चेतन या ईश्वर को मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। अपने सुख-दुःख के लिए प्राणी स्वयं ही उत्तरदायी है। अपने अज्ञान और मिथ्यादृष्टियों से मानव ने स्वयं ही अपने लिए दुःखों का उत्पाद किया है, अतः कोई दूसरी शक्ति उसे मुक्त नहीं कर सकती। इसके लिए उसे स्वयं प्रयास करना होगा।
अनित्यवाद (क्षणिकवाद)
बौद्ध धर्म के अनुसार संसार की समस्त वस्तुएँ अनित्य हैं, चाहे वह जड़ हों अथवा चेतन। प्रत्येक पदार्थ में लगातार परिवर्तन की एक प्रक्रिया चल रही है, जिसमें एक स्थिति प्रतिक्षण नष्ट होती है और दूसरी प्रतिक्षण निर्मित होती है। यही बुद्ध का अनित्यवाद (क्षणिकवाद) है। वस्तुएँ सिर्फ अनित्य ही नहीं हैं, बल्कि क्षण भर के लिए सामने आती हैं, किंतु दूसरे ही क्षण वे विलीन हो जाती हैं। इसकी सुंदर व्याख्या दीपशिखा के माध्यम से की गई है। दीपक की बाती के माध्यम से तेल की एक-एक बूँद उर्ध्वगामी होती है; प्रत्येक बूँद का प्रज्वलन पृथक्-पृथक् लौ उत्पन्न करता है और इस प्रकार अनेक अनवरत लौ ही एक लौ के रूप में दिखाई देती है। इस प्रक्रिया में एक लौ लगातार नष्ट होती है और दूसरी लगातार बनती रहती है। अनुभव की प्रत्येक अवस्था आविर्भूत होने के बाद तुरंत तिरोहित होकर अगली अवस्था में लीन हो जाती है और इस प्रकार प्रत्येक अगली अवस्था में सभी पूर्वगामी अवस्थाएँ अव्यक्त रूप में विद्यमान रहती हैं, जो अनुकूल परिस्थितियों में अभिव्यक्त हो जाती हैं। यद्यपि मानव किन्हीं दो क्षणों में वही नहीं बना रहता, तथापि वह पूर्णतः भिन्न भी नहीं हो जाता है। यह शाश्वतवाद तथा उच्छेदवाद का मध्यम मार्ग है, जो सृष्टि की प्रवाहमय स्थिरता की ओर इंगित करता है और सृष्टि के प्रति निर्लिप्त रहने का संदेश देता है।
अनात्मवाद
बुद्ध अनात्मवादी हैं। वह आत्मा नामक किसी स्थायी तत्त्व में विश्वास नहीं करते हैं। वह केवल क्षणिक संवेदनाओं और विचारों की सत्ता को स्वीकार करते हैं और अपरिवर्तनशील तत्त्व के रूप में आत्मा को एक अनावश्यक कल्पना मानते हैं। उनके अनुसार आत्मा पाँच स्कंधों- रूप, विज्ञान, वेदना, संज्ञा और संस्कार से निर्मित एक संघात मात्र है। जिस प्रकार धुरी, पहिए, रस्सियों आदि के संघात-विशेष का नाम रथ है, उसी प्रकार पाँच स्कंधों के संघात के अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है, अर्थात् आत्मा इन्हीं पाँच स्कंधों की समष्टि का नाम है। पाँचों स्कंध सदैव बदलने वाले अर्थात् अनित्य हैं, इसलिए उनसे निर्मित आत्मा भी अनित्य है। यही बुद्ध का अनात्मवाद है।
इस प्रकार भगवान बुद्ध शाश्वत आत्मा का निषेध करते हैं और कहते हैं कि “विश्व में न कोई आत्मा है और न आत्मा जैसी कोई अन्य वस्तु। शाश्वत आत्मा में विश्वास उसी प्रकार हास्यास्पद है, जिस प्रकार काल्पनिक सुंदरी के प्रति अनुराग रखना।”
आत्मा की तरह भौतिक वस्तुएँ भी संघात ही हैं और उनके मूल में भी कोई एकता नहीं है। आत्मा और भूतद्रव्य दोनों का केवल संघात रूप में अस्तित्व है। यह संघात दो क्षणों तक भी वही का वही नहीं बना रहता, बल्कि निरंतर परिवर्तित होता रहता है। इसलिए आत्मा और भौतिक जगत् दोनों जल की धारा या अग्नि की ज्वाला के समान संतान (परिवर्तनशील) हैं।
पुनर्जन्म की व्याख्या
बुद्ध की यह विशेषता है कि उन्होंने नित्य-आत्मा का निषेध करके भी पुनर्जन्म की व्याख्या की है। यदि कर्ता के बिना कर्म हो सकता है, तो आत्मा के बिना पुनर्जन्म भी हो सकता है। बुद्ध के मतानुसार श्पुनर्जन्मश् का अर्थ ‘विज्ञान प्रवाह की अविच्छिन्नता’ है। जब एक विज्ञान प्रवाह का अंतिम विज्ञान समाप्त हो जाता है, तब अंतिम विज्ञान की मृत्यु हो जाती है और एक नए शरीर में एक नया विज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। इसी अविरल प्रवाह को बुद्ध ने पुनर्जन्म कहा है। केवल इस जीवन के समाप्त होने पर ही पुनर्जन्म नहीं होता है, बल्कि प्रतिक्षण पुनर्जन्म होता है।
बुद्ध ने पुनर्जन्म की व्याख्या दीपक की लौ से की है। एक व्यक्ति से संबंध रखने वाला कर्म जैसे जीवन-काल में, वैसे ही मृत्यु-काल में भी अपने को संचारित कर सकता है; और यद्यपि मृत व्यक्ति पुनर्जीवित नहीं होता, तथापि उसके स्थान पर उसी के संस्कार वाला दूसरा व्यक्ति जन्म ले सकता है। इस प्रकार ‘पुनर्जन्म किसी आत्मा का नहीं, चरित्र का होता है।’
निर्वाण
मानव के जीवन का चरम लक्ष्य है- जरा-मरण (दुःख) के बंधन से मुक्ति, अर्थात् ‘निर्वाण’। सामान्यतः जन्म-मरण की परंपरा अविद्या, क्लेश और कर्म पर आश्रित है। विद्या से क्लेश क्षीण हो जाता है और संसार-चक्र का निरोध हो जाता है। साधारणतः इसे ही ‘निर्वाण’ कहा गया है।
‘निर्वाण’ का शाब्दिक अर्थ है ‘बुझ जाना’, अर्थात् जीवन-मरण के चक्र से छुटकारा। निर्वाण का सिद्धांत वैदिक धर्म के मोक्ष के सिद्धांत से भिन्न है। वैदिक धर्म के अनुसार सत्कर्मों से व्यक्ति में निहित आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है और व्यक्ति पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाता है। बौद्ध धर्म में निरोध अथवा निर्वाण विनाश का सूचक नहीं है। आग का बुझना आग का नाश नहीं, बल्कि उसका अपने मूल-प्रभाव में फिर से लय होना है। बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण इसी जन्म में प्राप्त हो सकता है, किंतु महापरिनिर्वाण मृत्यु के बाद ही संभव है।
मानव जाति की समानता
बुद्ध मानव जाति की समानता के अनन्य पोषक थे। उनका कहना था कि जन्म से कोई ब्राह्मण या अब्राह्मण नहीं होता, बल्कि कर्म से ही जाति का निर्धारण होता है। जिस प्रकार अग्नि सभी प्रकार की लकड़ियों से प्रज्वलित हो सकती है, उसी प्रकार सभी जाति के लोग संन्यासी होकर जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। उन्होंने सभी जाति और वर्ण के लोगों को अपने धर्म और संघ का द्वार खोल दिया।
प्रत्यक्षवाद
बुद्ध का धर्म एक आविष्कार है, एक खोज है, क्योंकि यह मनुष्य-जीवन और उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के गहन अध्ययन का परिणाम है। ‘आओ और देखो’ (एहि पास्सिको) इसका प्रत्यक्षवाद है। बुद्ध ने कहा कि मेरी बात को भी इसलिए न मानो कि इसे बुद्ध ने कहा है। उन पर भी संदेह करो और विविध परीक्षाओं द्वारा उनकी परीक्षा करो। जीवन की कसौटी पर उन्हें परखो, अपने अनुभवों से मिलान करो; यदि तुम्हें सही जान पड़े, तो स्वीकार करो, अन्यथा छोड़ दो। यही कारण है कि बौद्ध धर्म रहस्य-आडंबरों से मुक्त, नितांत बौद्धिवादी, मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत है और हृदय का सीधे स्पर्श करता है।
बौद्ध धर्म की सामाजिक परिकल्पना वर्णव्यवस्था से मुक्त नहीं थी, क्योंकि बौद्ध ग्रंथों में ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रियों की सामाजिक प्रतिष्ठा पर अधिक बल दिया गया है। क्षत्रियों को अपनी रक्त-शुद्धता पर अभिमान भी था। संयुक्त निकाय में क्षत्रियों को मानवमात्र में श्रेष्ठ बताया गया है। वास्तव में, नवीन परिवर्तनों के कारण जब ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा खो रही थी, तो अपनी विशिष्ट भूमिका के कारण नए शक्तिशाली क्षत्रिय वर्ग को अधिक प्रतिष्ठा मिलना स्वाभाविक था।
बौद्ध धर्म के प्रमुख संप्रदाय
थेरवाद (स्थविरवाद)
बौद्ध धर्म का प्रमुख स्वरूप थेरवाद (स्थविरवाद) है। थेरवादी प्राचीन बौद्ध धर्म के पालि धर्म-ग्रंथों को प्रामाणिक मानते हैं तथा अपनी वंशावली को ‘अग्रजों’ (संस्कृत में ‘स्थविर’ और पालि में ‘थेर’) से जोड़ते हैं। इस मत को ‘अग्रजों का मार्ग’ या ‘प्रधानवाद’ भी कहते हैं।
थेरवादी (स्थविरवादी) लोकपरंपराओं का निर्वाह तथा अनुगमन करते थे और समयानुसार परंपरा में परिवर्तन तथा परिवर्धन स्वीकार नहीं करते थे। इसलिए वे रूढ़िवादी कहे गए। थेरवाद में सामान्य मानव एवं भिक्षु की भूमिका में स्पष्ट भेद किया गया है। इनके अनुसार बुद्धत्व की प्राप्ति सबके लिए संभव नहीं है। इनका प्रमुख केंद्र कश्मीर था। थेरवाद मत श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड, कंबोडिया एवं लाओस में प्रचलित है। इसलिए यह ‘दक्षिणी शाखा’ के नाम से भी प्रसिद्ध है।
महासांघिक
बौद्ध संघ में पहला विभाजन चौथी शताब्दी ई.पू. में वैशाली की दूसरी परिषद में हुआ, जब एक समूह स्थविरवादियों (थेरवादियों) से अलग हुआ और महासांघिक के रूप में जाना जाने लगा। महासांघिकों ने तर्क के आधार पर यह स्वीकार किया कि प्रत्येक व्यक्ति में बुद्धत्व प्राप्त करने की स्वाभाविक शक्ति होती है तथा समय और संयोग से सभी को बुद्धत्व की प्राप्ति हो सकती है। इनका प्रमुख केंद्र मगध था। प्रायः स्वीकार किया जाता है कि महासांघिक धारा ने महायान के आविर्भाव में विशेष योगदान दिया।
हीनयान
हीनयान शाखा के अनुयायी बुद्धवचन को ही प्रमाण मानते थे। इस संप्रदाय के सिद्धांत सीधे-सादे उसी रूप में हैं, जिस रूप में गौतम बुद्ध ने उनका उपदेश किया था। बुद्ध को एक महापुरुष माना गया, न कि कोई अलौकिक या अवतारी सत्ता। हीनयान अनीश्वरवादी और कर्मप्रधान दर्शन है। भाग्यवाद को जीवन का शत्रु मानते हुए, हीनयानियों ने स्वावलंबन पर विशेष बल दिया है। इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत प्रयासों से ही निर्वाण प्राप्त करना चाहिए।
बुद्ध ने स्वयं कहा था कि सभी पदार्थ नाशवान हैं। जीवन दुःखमय और क्षणभंगुर है। इन दुःखों से छुटकारा पाने और शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए स्वयं को ही प्रयास करना होगा। हीनयान का लक्ष्य केवल अपने लिए अर्हत्व की प्राप्ति है और इसका आधार अष्टांगिक मार्ग है। हीनयान शाखा के अनुयायियों ने बुद्ध की प्रतिमा बनाने के बजाय रिक्त स्थान अथवा पद-चिह्न को ही बुद्ध का प्रतीक माना।
हीनयान को ‘श्रावकयान’ भी कहा जाता है। श्रावक का अर्थ है ऐसा व्यक्ति, जो जीवन के दुःखों से त्रस्त होकर निर्वाण के पथ पर अग्रसर होता है। श्रावक की चार अवस्थाएँ हैं- स्रोतापन्न श्रावक वह है, जो व्यक्तित्व के विकास-क्रम के स्रोत में प्रवाहमान होता है। ऐसे श्रावक को चार प्रकार की संबोधि प्राप्त हो सकती है- बुद्धानुस्मृति, धर्मानुस्मृति, संघानुस्मृति तथा शीलानुस्मृति। इनके माध्यम से उसे बुद्ध, धर्म, संघ और शील की अनुभूति होती है। ऐसे व्यक्ति को सात जन्मों के बाद अवश्य निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है। स्रोतापन्न श्रावक जब अपने क्लेशों के विनाश के लिए जिस अवस्था को प्राप्त करता है, उसे ‘सकृदागामी’ कहते हैं। ऐसे व्यक्ति को एक ही जन्म में निर्वाण की प्राप्ति होती है।
वर्तमान जीवन में ही निर्वाण प्राप्त करने वाले श्रावक को ‘अनागामी’ कहा जाता है। जब श्रावक को निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है, उस अवस्था को अर्हत् की संज्ञा दी गई है। इस प्रकार हीनयान में बौद्ध धर्म का प्राचीन रूप दिखाई देता है। इनकी मुख्य आस्था कर्म और धर्म में थी।
हीनयान में बुद्ध, धम्म तथा संघ को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। इस शाखा के धार्मिक ग्रंथ ‘पालि भाषा’ में हैं, जिसे बुद्ध के समय लोकभाषा का स्थान प्राप्त था। हीनयान में आराधना और उपासना का तत्व न होने के कारण यह जनसाधारण में लोकप्रिय नहीं हो सका। हीनयान मत बर्मा, श्रीलंका, कंबोडिया आदि देशों में अधिक प्रचलित है।
महायान
महायान का अर्थ है ‘वृहद् यान’ अथवा ऐसा प्रशस्त मार्ग, जिसके माध्यम से अधिकाधिक प्राणियों को निर्वाण का सुख प्राप्त हो सके। बौद्ध धर्म की इस शाखा को एकयान, अग्रयान, बोधिसत्त्वयान एवं बुद्धयान के साथ-साथ ‘उत्तरी बौद्ध धर्म’ भी कहते हैं। आज विश्व के अधिकांश भागों में महायान मत के मानने वाले बौद्धों की संख्या अधिक है। चीन, तिब्बत, कोरिया व मंगोलिया आदि देशों में महायान अधिक प्रचलित है।
महासांघिकों से ही अवांतर परिवर्तनों के बाद महायान का उदय हुआ था। ई.पू. पहली शताब्दी में वैशाली में दूसरी बौद्ध संगीति में थेर भिक्षुओं ने मतभेद रखने वाले भिक्षुओं को संघ से बाहर निकाल दिया था। उसी समय अलग हुए पूर्वी शाखा के भिक्षुओं ने अपना संघ बनाकर स्वयं को महासांघिक और थेरवादियों को हीनसांघिक नाम दिया, जिसने बाद में क्रमशः महायान और हीनयान का रूप धारण कर लिया। महायानियों का कहना है कि वास्तविक बुद्धदेशना का लक्षण, जो विनय और सूत्र में उपलब्ध है तथा धर्मता के अनुकूल है, महायान में ही है।
महायान का द्वार सभी प्राणियों के लिए खुला था, यहाँ तक कि गृहस्थ भी इसके अनुयायी हो सकते थे। प्रत्येक मानव बोधिचर्या से अर्थात् करुणा, मुदिता, मैत्री और उपेक्षा के आचरण द्वारा अथवा दान, शील, क्षांति, वीर्य, ध्यान और प्रज्ञा नामक छह पारमिताओं की साधना द्वारा बुद्धत्व के पथ पर अग्रसर हो सकता है। किंतु वह स्वयं बुद्ध नहीं बनना चाहता, क्योंकि उसके अकेले बुद्धत्व-प्राप्ति से कुछ नहीं होगा, जब तक कि उसके अन्य साथी सांसारिक दुःखों से मुक्त होकर निर्वाण की ओर अग्रसर नहीं होते। वह चिंतन करता है कि उसने जो भी पुण्य अर्जित किया है, वह सब सत्त्वों की अर्थ-सिद्धि के लिए प्रयुक्त हो।
महायान ने बुद्ध को ईश्वरतुल्य स्वीकार किया और बौद्ध धर्म में बोधिसत्त्व की भावना का समावेश किया, जिसके परिणामस्वरूप बुद्ध तथा बोधिसत्त्वों की उपासना होने लगी। इस प्रकार की पूजा में वंदना, अर्चना, पापदेशना (अपने पापों को व्यक्त करना), पुण्यानुमोदन (सभी प्राणियों के प्रति पुण्य करने की भावना), बुद्धाध्येषणा (सर्वदा बोधि की खोज में रहने की इच्छा), बुद्धयाचना (अपने पुण्यों के कारण सभी प्राणियों के कल्याण की भावना) तथा बोधि-परिणामना (पूजा की सर्वश्रेष्ठ स्थिति) सम्मिलित है। कालांतर में यही मूर्ति-पूजा का आधार बना।
इस संसार के असंख्य लोकों के लिए अनगिनत बुद्धों की परिकल्पना की गई। आरंभ में बुद्धों की संख्या छह थी, जो बाद में चौबीस हुई और कालांतर में असंख्य हो गई। प्रत्येक बुद्ध के दो सहायक बोधिसत्त्व माने गए, जो संपूर्ण मानवता को सद्धर्म की ओर प्रेरित करते हैं। बोधिसत्त्वों में अवलोकितेश्वर सर्वाधिक महिमामंडित हैं। महायानियों के अनुसार, जब तक सभी मनुष्यों को निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक वे बुद्धत्व प्राप्त नहीं करेंगे। अन्य बोधिसत्त्वों में मैत्रेय तथा मंजुश्री आदि हैं।
महायान संप्रदाय में भिक्षुओं के अतिरिक्त गृहस्थों के लिए भी सामाजिक उन्नति का मार्ग निर्दिष्ट किया गया। इस संप्रदाय के अंतर्गत गृहस्थ जीवन को अपनाकर कोई भी व्यक्ति निर्वाण की प्राप्ति कर सकता है। गृहस्थ उपासकों के लिए निर्वाण प्राप्ति की ऐसी व्यवस्था हीनयान संप्रदाय में नहीं थी। यही कारण था कि महायान संप्रदाय का अपेक्षाकृत अधिक प्रसार हुआ।
महायान मतावलंबियों का कहना था कि गृहस्थों में दान की भावना तृष्णा, भय व चिंता को दूर करती है। अतः गृहस्थ को अत्यधिक दान देना चाहिए। गृहस्थ को पुत्र को शत्रु मानना चाहिए, क्योंकि वह अत्यधिक प्रेम तथा आकर्षण का पात्र है। इसी के कारण पिता बुद्धवचन से विमुख हो जाता है। प्रेम उचित मार्ग से पृथक् कर देता है। गृहस्थ को सांसारिक वस्तुओं को त्यागना चाहिए, ताकि मृत्यु के समय वह तृष्णारहित सुख का अनुभव करे।
महायान भक्तिप्रधान मत है और इसी के प्रभाव से बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण शुरू हुआ। भरहुत, बोधगया तथा साँची की कला लाक्षणिक थी। मूर्तिपूजा के प्रचलन के कारण अब लक्षणों के स्थान पर बुद्ध तथा बोधिसत्त्वों की प्रतिमाएँ तैयार होने लगीं। कनिष्क के समय में सर्वप्रथम गांधार कला शैली में बुद्धमूर्तियाँ निर्मित हुईं। बुद्ध को योगी और भिक्षु के रूप में तथा बोधिसत्त्वों को राजकुमार के वेश में (वस्त्रालंकार युक्त) दिखलाया गया।
बुद्ध की प्रतिमाएँ ध्यान तथा बुद्धत्व प्राप्ति की अवस्था में दिखाई गई हैं। महायानियों ने ही विश्व भर में बुद्ध की मूर्तियों और प्रार्थना के लिए स्तूपों का निर्माण किया। यूनानी, ईसाई, पारसी और अन्य धर्मावलंबी महायानियों की पूजा-पद्धति, स्तूप-रचना, संघ-व्यवस्था, रहन-सहन और पहनावे से प्रभावित थे। महायान मत के प्रमुख विचारकों में अश्वघोष, नागार्जुन और असंग आदि थे।
बौद्ध-संघ की स्थापना
बौद्ध धर्म में संघ ‘त्रिरत्न’ (बुद्ध, धम्म, संघ) का एक अनिवार्य अंग है। बुद्ध ने सारनाथ में अपने धर्मोपदेश के बाद पंचवर्गीय ब्राह्मण भिक्षुओं के साथ भिक्षु-संघ की स्थापना की। इसके बाद वाराणसी में ही यश नामक श्रेष्ठिपुत्र, यश के पाँच तरुण मित्रों-विमल, सुबाहु, पुण्णजि (पूर्णजित्) तथा गवांपति और उनके पचास अन्य सगे-संबंधियों को बौद्ध-संघ का सदस्य बनाया गया। इन साठ भिक्षुओं से ही बुद्ध-संघ का आरंभ हुआ। इसके पूर्व आजीवकों एवं जैनियों के संघ विद्यमान थे।
संघ में शामिल होने वाले को भिक्षु कहा जाता था, जो घर-परिवार से संबंध-विच्छेद कर संन्यासी के रूप में रहते थे, भिक्षाटन से भोजन करते थे और घूम-घूम कर बुद्ध के उपदेशों का प्रचार करते थे। भिक्षुओं को संघ के निश्चित नियमों का पालन करना पड़ता था और उसका उल्लंघन करने पर दंड का भागी होना पड़ता था। संघ का द्वार सभी के लिए खुला था, जिसमें सभी वर्ग और जाति के लोग बिना किसी भेदभाव के शामिल हो सकते थे; किंतु शीघ्र ही बुद्ध ने नवीन सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों के कारण अल्पवयस्कों (15 वर्ष से कम आयु), चोरों, हत्यारों, ऋणी व्यक्तियों, राजा के सेवकों, दासों तथा रोगियों का संघ में प्रवेश वर्जित कर दिया।
आरंभ में स्त्रियों को भी संघ में प्रवेश की अनुमति नहीं थी, किंतु बाद में स्त्रियों (भिक्षुणियों) को भी संघ का सदस्य बनाया गया।
बुद्ध गणतांत्रिक प्रणाली में विश्वास करते थे और उनका जन्म भी गणराज्य में हुआ था। उन्होंने गणतांत्रिक पद्धति के आधार पर संघ का संगठन किया। वे प्राचीन जनजातीय जीवन के सिद्धांत को संघ के लिए उपयोगी मानते थे। वर्गविहीन जनजातीय जीवन में सामाजिक एकता, आपसी भाईचारा तथा संपत्ति-संग्रह के प्रति उदासीनता संघ के नियम (विनय) में स्पष्ट परिलक्षित होते हैं। संघ में न तो कोई बड़ा था और न ही कोई छोटा। बुद्ध ने अपना कोई उत्तराधिकारी भी नियुक्त नहीं किया, बल्कि धर्म तथा विनय को ही शास्ता बताया था।
बौद्ध संगीतियाँ
संगीति का अर्थ है ‘परिषद् या सभा’ अथवा संगायन। बौद्ध संगीति से तात्पर्य उस संगोष्ठी, परिषद् या सम्मेलन अथवा महासभा से है, जो बुद्ध के परिनिर्वाण के अल्प समय के पश्चात् से ही उनके उपदेशों को संग्रहीत करने, उनका पाठ (वाचन) या संगायन करने आदि के उद्देश्य से संबंधित थीं। इन संगीतियों को प्रायः ‘धम्मसंगीति’ कहा जाता है।
प्रथम धम्म संगीति
बुद्ध के परिनिर्वाण के तीन माह बाद ई.पू. 483 में मगध नरेश अजातशत्रु के संरक्षकत्व में प्रथम धम्म संगीति का आयोजन राजगृह (आधुनिक बिहार का राजगीर) की सप्तपर्णि गुफा के द्वार पर हुआ। इस संगीति की अध्यक्षता स्थविर महाकस्सप (महाकश्यप) ने की।
इस धम्म संगीति के अवसर पर बुद्ध की शिक्षाओं का संकलन कर उन्हें सुत्त और विनय नामक दो पिटकों में विभाजित किया गया। चूंकि इस धम्म संगीति में पाँच सौ अर्हत् पद प्राप्त भिक्षु शामिल थे, इसलिए इसे ‘पंचशतिका’ कहा गया है। इस प्रकार पाँच सौ क्षीणास्रव भिक्षुओं को साथ लेकर सात मास तक किए गए महाकस्सप के प्रयास ने बौद्ध धर्म को आगामी पाँच हजार वर्षों तक बने रहने के योग्य बना दिया।
दूसरी धम्म संगीति
दूसरी धम्म संगीति महापरिनिर्वाण के एक शताब्दी बाद अर्थात् चौथी शताब्दी ई.पू. में, मगध राजा कालाशोक के संरक्षण में वैशाली के वालुकाराम (कूटागारशाला) में हुई।
यह संगीति विनय-नियमों के संबंध में उत्पन्न मतभेद को समाप्त करने के लिए महास्थविर रेवत की मध्यस्थता में हुई, जिसमें 700 पूर्वी और पश्चिमी अर्हत् भिक्षुओं ने भाग लिया। स्थविरों ने विनय-विरुद्ध दस वस्तुओं को मानने वाले वज्जिपुत्तकों को संघ से निष्कासित कर दिया।
निष्कासित वज्जिपुत्तकों ने स्थविर अर्हतों के बिना पाटलिपुत्र (कोशांबी?) में एक अन्य महासंगीति (महासंघ) की और महासांघिक नाम से अपना पृथक् मतवाद चलाया।
इस प्रकार बौद्ध-संघ स्पष्टतः दो निकायों में विभक्त हो गया- स्थविरवादी और महासांघिक। कालांतर में स्थविरवाद से ही सत्रह अन्य वाद निकले, जिससे बौद्ध-संघ अठारह निकायों में विभक्त हो गया।
तीसरी बौद्ध संगीति
बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के 236 वर्ष बाद 249 ई.पू. में मौर्य सम्राट अशोक के संरक्षण में पाटलिपुत्र में तीसरी बौद्ध संगीति का संगायन संपन्न हुआ। यह संगीति स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्स की अध्यक्षता में अशोकाराम विहार में हुई। इस संगीति में अभिधम्म (श्रेष्ठधर्म) के एक भाग के रूप में ‘कथावत्थु’ का संकलन किया गया।
इस संगीति में बुद्ध की शिक्षाओं का नए सिरे से विभाजन कर उसमें एक नया पिटक ‘अभिधम्म’ जोड़ा गया। इस प्रकार इसी संगीति में त्रिपिटक (सुत्त, विनय एवं अभिधम्म) को अंतिम रूप प्रदान किया गया।
इस सभा का सबसे महत्त्वपूर्ण निर्णय विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ भिक्षुओं को भेजना था, जिसके परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म श्रीलंका, सुवर्णभूमि, म्यांमार, थाईलैंड, लाओस, कंबोडिया आदि में फैल गया।
चतुर्थ बौद्ध संगीति
चतुर्थ बौद्ध संगीति प्रथम शताब्दी ई. में कनिष्क के शासनकाल (लगभग 78 ई.) में कश्मीर के कुंडलवन अथवा तारानाथ के अनुसार जालंधर के ‘कुवन’ में आयोजित की गई। इस संगीति की अध्यक्षता आचार्य वसुमित्र और उपाध्यक्षता अश्वघोष ने की। इस संगीति में त्रिपिटक के प्रामाणिक पाठ और उसके भाष्यों पर संस्कृत भाषा में ‘महाविभाषा’ नामक एक विशाल ग्रंथ की रचना की गई और उसे ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण कराकर एक स्वर्ण-पिटारी में बंद कर उस पर विशाल स्तूप का निर्माण करवाया गया था। इस स्तूप के स्थान की पहचान अभी तक नहीं हो सकी है। इसी संगीति में बौद्ध धर्म स्पष्टतः दो शाखाओं- हीनयान एवं महायान में विभाजित हो गया। इस संगीति के बाद अनेक धर्म-प्रचारक बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने मध्य एशिया, तिब्बत, चीन आदि देशों में गए।
लंका द्वीप की पुस्तकारोपण संगीति
एक अन्य चतुर्थ संगीति बुद्ध के परिनिर्वाण के 450 वर्ष बाद ताम्रपर्णि (लंका द्वीप) में वट्टगामणि अभय (ई.पू. 103-77) के शासनकाल में महास्थविर धर्मरक्षित् की अध्यक्षता में मातुल जनपद की आलोक लेन नामक गुफा में आयोजित की गई थी। इस संगीति में समस्त बुद्धवचनों को पहली बार ताड़पत्र पर लिपिबद्ध किया गया, इसलिए इस संगीति को ‘पुस्तकारोपण संगीति’ के नाम से भी जाना जाता है।
पाँचवीं शिलाक्षरारोपण संगीति
इसके बाद 1871 ई. में ब्रह्मदेश (बर्मा) के राजा मिनदोन मिन के शासनकाल में मांडले के प्रसिद्ध रज्जपुंज नामक नगर में भदंत जागर स्थविर की अध्यक्षता में पाँचवीं बौद्ध धम्म-संगीति (थेरवादी) आयोजित की गई। मांडले संगीति में बुद्धवचन (त्रिपिटक) को संगमरमर की साढ़े पाँच फीट ऊँची, साढ़े तीन फीट चौड़ी एवं पाँच इंच पतली, 729 शिलाओं पर उत्कीर्ण किया गया, इसलिए यह संगीति ‘शिलाक्षरारोपण संगीति’ के नाम से प्रसिद्ध है।
महापाषाण शैल गुहा संगीति
एक बौद्ध संगीति बुद्ध के महापरिनिर्वाण के 2500वें वर्षगांठ के अवसर पर 17 मई 1954 से 24 मई 1956 तक ब्रह्मदेश (म्यांमार) की राजधानी यांगून (रंगून) में श्रीमंगल नामक स्थान पर लोकराम चैत्य के समीप राजगृह के सप्तपर्णि गुफा की तरह विशेष रूप से निर्मित ‘महापाषाण शैल गुहा’ में आयोजित की गई, जिसमें आठ विभिन्न देशों- म्यांमार, कंबोडिया, लाओस, नेपाल, श्रीलंका, भारत, जर्मनी और थाईलैंड के भिक्षुओं ने भदंत रेवत स्थविर की अध्यक्षता में भाग लिया। इस संगीति में सभी प्रतिभागी देशों को अपनी-अपनी मातृभाषा में त्रिपिटक को लिपिबद्ध करने की अनुमति दे दी गई।
बौद्ध धर्म की लोकप्रियता के कारण
बौद्ध धर्म के विकास की प्रक्रिया इसके उद्भव काल से ही प्रारंभ हो गई थी। बुद्ध के जीवनकाल में ही इस धर्म के अनुयायियों की संख्या बहुत बढ़ गई थी। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् भी इस धर्म का तीव्रता से विकास होता रहा। अशोक और कनिष्क जैसे शासकों के संरक्षण में यह धर्म भारत-भूमि के बाहर सुदूर विदेशों में भी फैल गया। बारहवीं शताब्दी ई. तक यह धर्म चीन, मध्य एशिया, सुदूर-दक्षिण-पूर्व तक पहुँच गया। बौद्ध धर्म की इस व्यापक लोकप्रियता के अनेक कारण थे-
नवीन अर्थव्यवस्था को समर्थन
बौद्ध धर्म की व्यापक लोकप्रियता का एक महत्त्वपूर्ण कारण था कि इसने नई विकासशील अर्थव्यवस्था को अपना समर्थन दिया। छठी शताब्दी ई.पू. लौह-तकनीक पर आधारित आर्थिक विकास की शताब्दी थी। आर्थिक प्रगति के इस काल में प्राचीन वैदिक धर्म की अनेक मान्यताएँकृसमुद्री व्यापार, सूद और कर्ज की व्यवस्था आदिकृनगरीय जीवन के विकास के प्रतिकूल थीं। इस काल में ब्राह्मण विधि-निर्माताओं ने ऋण तथा ब्याज प्रथा की निंदा की थी, किंतु ऋण लेने की प्रथा व्यापार के लिए आवश्यक थी। व्यापारियों एवं धनिकों को ऐसे नियमों और सिद्धांतों की आवश्यकता थी, जो व्यक्तिगत संपत्ति की सुरक्षा तथा संपत्ति के अधिकार को किसी न किसी रूप में मान्यता प्रदान करें। बौद्ध साहित्य में व्यक्तिगत संपत्ति की सुरक्षा, ऋण एवं ब्याज (सूद) की व्यवस्था पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया है।
बौद्ध ग्रंथों में व्यापार के लिए ऋण लेने की प्रथा का उल्लेख मिलता है और इसकी निंदा नहीं की गई है। समुद्री व्यापार को वैदिक परंपरा के ग्रंथों में निंदित माना गया है, जबकि बौद्ध साहित्य में समुद्री व्यापार के लिए अनुकूल दृष्टिकोण अपनाया गया है। जैन तथा बौद्ध धर्म की अपरिग्रह की शिक्षा केवल भिक्षुओं के लिए ही सार्थक हो सकती थी, जबकि अस्तेय संपत्ति के अधिकार को अप्रत्यक्ष समर्थन देता है। बौद्ध संघ में ऋणी व्यक्ति को प्रवेश से वंचित करना भी इसमें सहायक सिद्ध हुआ। ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग के व्यापार करने पर प्रतिबंध था और वैश्य वर्ग को समाज में सम्मान की दृष्टि से तीसरे स्थान पर रखा गया था। यही कारण है कि वैश्य वर्ग ने बौद्ध धर्म को विशेष रूप से समर्थन दिया। गया एवं साँची के स्तूपों में वर्णित दृश्यों से स्पष्ट है कि वैश्य वर्ग ने बौद्ध धर्म को अपनाकर तथा दानादि देकर विशेष प्रोत्साहन दिया।
नई कृषि-व्यवस्था के लिए पशुओं का संरक्षण आवश्यक था, जबकि वैदिक यज्ञों में पशुबलि जारी थी। बौद्ध ग्रंथों में स्पष्ट कहा गया है कि लोग पशुबलि के कारण पुरोहितों की निंदा करते हैं और शूद्र, वैश्य तथा क्षत्रिय उनके मत को अस्वीकार कर रहे हैं। यही नहीं, सुत्तनिपात में कहा गया है कि इसी कारण धनी ब्राह्मण भी बुद्ध, धम्म और संघ की शरण में आ रहे हैं।
साम्राज्यवादी युद्धों से व्यापारियों और कृषकों को बहुत हानि होती थी। अहिंसामूलक बौद्ध धर्म की शिक्षाएँ साम्राज्यवादी युद्धों और पशुबलि के विपरीत थीं। इससे कृषक और व्यापारी दोनों वर्गों को लाभ हुआ। वैदिक धर्म के आचार-विचार तथा गणिकाओं के प्रति दृष्टिकोण भी नागरिक जीवन के अनुकूल नहीं थे, किंतु बौद्ध धर्म की शिक्षाएँ नागरिक जीवन की मान्यताओं के अनुकूल थीं। इस प्रकार बौद्ध धर्म के सिद्धांत नई आर्थिक व्यवस्था तथा उपज के अधिशेष पर विकसित हो रहे नगरीय जीवन के अनुकूल थे।
बौद्ध धर्म के सरल सिद्धांत
बौद्ध धर्म का उद्भव उस समय हुआ था, जब एक ओर वैदिक कर्मकांडों एवं यज्ञीय विधि-विधानों के कारण ब्राह्मण पुरोहितों का धर्म और समाज पर एकाधिकार हो गया था और दूसरी ओर अनेक परिव्राजक संप्रदाय नैतिकताविहीन मतों का प्रचार कर रहे थे, जिससे संपूर्ण जनमानस में संशय, अराजकता और व्याकुलता व्याप्त थी। संपूर्ण धार्मिक एवं सामाजिक जीवन वर्णभेद, ऊँच-नीच, छुआछूत की विषमताओं से भरा हुआ था। इस अराजकता और विषमता के वातावरण में बुद्ध ने न केवल पुरातन वैदिक कर्मकांडों एवं परंपराओं का विरोध किया और अतिवादी संप्रदायों के अव्यवस्थाजनक मतों का खंडन किया, बल्कि समाज को एक ऐसा सरल और सुगम धर्म प्रदान किया, जिसमें कोई भी व्यक्ति बिना किसी जातिभेद के निर्वाण प्राप्त कर सकता था। गौतम बुद्ध के इस नवीन धर्म ने आम जनमानस में नई आशा और उत्साह का संचार किया और समाज के प्रायः सभी वर्गों ने इस धर्म को अपना सहयोग और समर्थन दिया।
बौद्ध धर्म की सरलता भी इसके विकास में सहायक हुई। बौद्ध धर्म ब्राह्मण धर्म और जैन धर्म की अपेक्षा अधिक सरल और सुविधाजनक था। इसमें खर्चीले यज्ञों, लालची पुरोहितों तथा पशुबलि की आवश्यकता नहीं थी। कोई भी व्यक्ति अपने सदाचार के द्वारा जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता था। बुद्ध का ‘मध्यम मार्ग’ आम जनमानस के लिए अधिक व्यवहारिक था।
बुद्ध का प्रभावशाली व्यक्तित्व
बौद्ध धर्म के विकास में बुद्ध के प्रभावशाली व्यक्तित्व का भी योगदान था। राजपरिवार से संबद्ध होने के बावजूद उन्होंने संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए सांसारिक सुखों का परित्याग कर संन्यासी जीवन को अपनाया। जनता उनके इस त्याग से अत्यधिक प्रभावित हुई और आम जनमानस ने अनुभव किया कि बुद्ध निःस्वार्थ जनकल्याण में लगे हैं। बुद्ध के धर्म-प्रचार का ढंग भी प्रभावशाली था। उन्होंने तत्कालीन प्रचलित लोकभाषा पालि को अपने उपदेशों का आधार बनाया। वह स्वयं लोगों से मिलकर उन्हीं की भाषा में संसार की निःसारता का उपदेश करते थे। वे अपने विचारों को तर्कपूर्ण ढंग से कहानियों, लोकोक्तियों और मुहावरों के माध्यम से जनसामान्य के समक्ष रखते थे। वह अपने विरोधियों पर तर्क और प्रेम द्वारा विजय प्राप्त करते थे। अज्ञानियों को समझाने के लिए वे हास्य और व्यंग्य का भी सहारा लेते थे। यह उनके प्रेम और करुणा का प्रभाव था कि अंगुलिमाल जैसे डाकू और आम्रपाली जैसी गणिकाएँ सद्धर्म की अनुयायी बनीं।
बौद्ध धर्म का समानता का सिद्धांत
नए धर्म को लोकप्रिय बनाने में बौद्ध धर्म के समानता के सिद्धांत ने भी पर्याप्त सहायता पहुँचाई। इस धर्म में किसी प्रकार का भेदभाव और ऊँच-नीच की भावना नहीं थी। इस धर्म का द्वार ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों, स्त्रियों और चाण्डालों सभी के लिए खुला हुआ था। इस धर्म को सभी जाति, वर्ण के लोग अपना सकते थे।
राजकीय संरक्षण
बौद्ध धर्म के व्यापक प्रचार-प्रसार में राजकीय संरक्षण से भी पर्याप्त सहायता मिली। राजकुल में उत्पन्न होने के कारण बुद्ध को अनेक क्षत्रिय राजाओं का संरक्षण प्राप्त हुआ। बुद्ध के जीवनकाल में ही बिंबिसार, अजातशत्रु, प्रसेनजित और गणराज्यों के अनेक शासकों ने बुद्ध के सिद्धांतों को स्वीकार कर लिया था। कालांतर में अशोक, कनिष्क, हर्षवर्धन एवं पाल शासकों ने इस धर्म को संरक्षण दिया, जिससे बौद्ध धर्म की प्रगति हुई।
संघ और संगीतियों की भूमिका
बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने में संघ का भी योगदान रहा है। बुद्ध ने अपने जीवनकाल में ही गणतांत्रिक आधार पर बौद्ध संघ का संगठन किया था। संघ में भिक्षु नियंत्रित और सदाचारी जीवन बिताते थे। संघ के इस आदर्शमय जीवन का प्रभाव सामान्य जनता पर भी पड़ा। संघ के सदस्य उत्साहपूर्वक घूम-घूम कर बुद्ध के संदेशों का प्रचार-प्रसार करते थे। संघ को अनेक विद्वानों और व्यापारियों का भी सहयोग मिला, जिनके प्रयास से बौद्ध धर्म विदेशों में भी फैल गया। नागार्जुन, वसुमित्र, धर्मकीर्ति जैसे विद्वानों के माध्यम से बौद्ध धर्म के प्रचार में सहायता मिली। बौद्ध संगीतियाँ भी इस धर्म के प्रचार-प्रसार में सहायक हुईं।
बौद्ध धर्म का योगदान
बौद्ध धर्म ने भारतीय समाज, साहित्य, कला, धर्म और दर्शन के विकास में अपना अमिट योगदान दिया है। धार्मिक क्षेत्र में इसने वेदों, पुरोहितों और यज्ञीय कर्मकांडों की सर्वोच्चता को चुनौती दी। अब कोई भी व्यक्ति बुद्ध के बताए मध्यम मार्ग पर चलकर बुद्धत्व की प्राप्ति कर सकता था। इसकी अहिंसा की नीति से पशुओं के संरक्षण को प्रोत्साहन मिला, जिससे नवीन कृषि प्रणाली और व्यापार के विकास में सहायता मिली।
सामाजिक क्षेत्र में बौद्ध धर्म ने वर्ण-व्यवस्था, ऊँच-नीच और भेदभाव को अस्वीकार कर दिया और समाज के सभी वर्गों को समानता का अधिकार दिया। इस धर्म ने स्त्रियों को भी पुरुषों के समान निर्वाण का भागी माना और संघ का द्वार उनके लिए भी खोल दिया। यही नहीं, बौद्ध-भिक्षुओं के लिए भोजन, वस्त्र और सदाचार का नियम बनाकर बौद्ध धर्म ने समाजवाद की कल्पना की।
बौद्ध धर्म ने भारतीय राजनीति को भी प्रभावित किया। अशोक जैसे सम्राट ने युद्ध और विजय की नीति का त्याग कर दिया। भारतीय दर्शन को बौद्ध धर्म ने अनात्मवाद, अनीश्वरवाद, कर्मवाद और पुनर्जन्म का मौलिक दर्शन प्रदान किया।
शिक्षा और साहित्य के विकास में बौद्ध धर्म की उपलब्धियाँ और भी महत्त्वपूर्ण हैं। बौद्ध विहार धार्मिक और दार्शनिक शिक्षा के केंद्र बन गए। नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों की ख्याति दूर-विदेशों तक थी, जहाँ विदेशों के विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे।
पालि और संस्कृत भाषा में धर्म के सिद्धांतों, संघ के नियमों आदि का संकलन हुआ। बुद्ध के जन्म और उनके जीवन से संबद्ध घटनाओं को कलात्मक ढंग से लिखा गया। पालि साहित्य में तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक अवस्था को चित्रित किया गया। इनमें नगर जीवन का अच्छा परिचय मिलता है। गणतंत्रात्मक प्रशासनिक व्यवस्था की जानकारी के ये अच्छे स्रोत हैं।
बौद्ध धर्म के उद्भव और विकास ने भारतीय कला को गंभीरता से प्रभावित किया। स्थापत्य, मूर्तिकला एवं चित्रकला पर इस धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा। बिहार की बराबर पहाड़ियों में, नासिक, अजंता, एलोरा आदि की गुफाओं में गुहा-मंदिरों का निर्माण इसी धर्म के कारण हुआ। इसके साथ स्तूपों, विहारों एवं चैत्यों का भी निर्माण हुआ। इसकी निर्माण की एक विशिष्ट शैली थी, जिसे ‘बौद्ध स्थापत्य’ कहा गया है। इस कला ने मध्य एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया की कला को भी प्रभावित किया।
बौद्ध धर्म के प्रभाव से मूर्तिकला का विकास हुआ। बुद्ध की विशाल और सुंदर मूर्तियाँ बनाई गईं, जो धातु और पत्थर की थीं। गांधार और मथुरा की विशिष्ट शैलियों में भी बुद्ध की प्रतिमाएँ बनीं। बौद्ध मूर्तिकला का प्रसार मध्य एशिया में भी हुआ। अफगानिस्तान के बामियान में बुद्ध की सबसे ऊँची प्रतिमा थी।
चित्रकला की भी पर्याप्त प्रगति हुई और बुद्ध के जीवन से संबद्ध दृश्यों को कलात्मक ढंग से उकेरने का प्रयास किया गया। बाघ, अजंता और एलोरा की गुफाओं की चित्रकारी इसका सबसे उत्तम उदाहरण हैं।
बौद्ध धर्म का विदेशों में प्रसार
कालांतर में यह धर्म चीन, जापान, दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों, तिब्बत और नेपाल में भी फैल गया। धर्म के विकास के साथ इन देशों से व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध भी स्थापित हुए। अनेक बौद्ध व्यापारी और धर्म-प्रचारक विदेशों में गए, जिसके फलस्वरूप सांस्कृतिक तत्वों का आदान-प्रदान हुआ।
इसी प्रकार विदेशों से भी अनेक विद्वान् जिज्ञासु ज्ञान की खोज में भारत आए, जिनमें फाहियान, ह्वेनसांग, धर्मस्वामी, लामा तारानाथ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। बौद्ध धर्म से प्रभावित विदेशी शासकों ने भारत में बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए दान भी दिया।










