1905 ई. की रूसी क्रांति (Russian Revolution of 1905 AD)

Table of Contents

1905 ई. की रूसी क्रांति

1871 ई. के पेरिस कम्यून के पश्चात् से पश्चिमी यूरोप में कोई शक्तिशाली जनव्यापी क्रांतिकारी विस्फोट नहीं हुए थे, किंतु रूस में इसके विपरीत मजदूरों और कृषकों का जनव्यापी आंदोलन प्रत्येक दशक के साथ निरंतर और अधिक तीव्रता के साथ बढ़ता जा रहा था। वस्तुतः इसका मूल कारण यह था कि बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भी रूस की राजनीतिक स्थिति प्राचीन सिद्धांतों एवं रूढ़िवादिता से ग्रस्त थी। यूरोप में 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में होने वाले परिवर्तनों से रूस पूरी तरह अछूता था। इसके बावजूद अलेक्जेंडर प्रथम के शासनकाल में जो सुधार-कार्यक्रम रूस में प्रारंभ किये गये, उसे उसके उत्तराधिकारियों ने अपनी निरंकुशतावादी नीतियों के माध्यम से लगभग खत्म ही कर दिया था। अतः रूस में एक लंबे समय से सुसुप्त ज्वालामुखी का एकाएक विस्फोट 1905 ई. की रूसी क्रांति के रूप में हुआ।

1905 ई. की रूसी क्रांति के कारण

रूस की सामाजिक स्थिति

1905 ई. की रूसी क्रांति के लिए रूस की सामाजिक स्थिति उत्तरदायी थी। यूरोप के विशाल देशों में एक रूस विभिन्न जातियों का आश्रय-स्थल था। रूस के विशाल साम्राज्य में रूसी पोल, फिन, आर्मीनियन आदि विभिन्न जातियाँ निवास करती थीं। इन विभिन्न जातियों में कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट और यहूदी धर्म के अनुयायी भी थे, जबकि इसके विपरीत रूस की अधिकांश जनता ग्रीक आर्थोडक्स चर्च की अनुयायी थी। रूस का राजधर्म ग्रीक आर्थोडक्स धर्म था। अतः रूसी राजधर्म के अनुयायियों को जो सुविधाएँ मिली थीं, उससे अन्य धर्मों के अनुयायी वंचित थे। यही नहीं, उन पर राज्य की ओर से अनेक प्रतिबंध भी लगे हुए थे। किंतु अन्य सभी जाति व धर्म के अनुयायियों की तुलना में यहूदी सबसे अधिक कष्ट में थे। यहूदियों पर लगभग 600 प्रतिबंध लगे हुए थे। इससे रूसी साम्राज्य में निवास करने वाली विभिन्न जातियों में भयंकर असंतोष व्याप्त था।

रूसी साम्राज्य में जहाँ एक ओर विभिन्न जातियों के बीच असंतोष व्याप्त था, वहीं दूसरी ओर रूसी समाज भी मुख्यतः दो वर्गों में विभक्त था, जिनमें पर्याप्त विषमता थी। यह विषमता लगभग उसी प्रकार की थी जैसे 1789 ई. में फ्रांस की राज्य-क्रांति से पूर्व थी। रूस का प्रथम वर्ग जिसे अधिकार-युक्त वर्ग के रूप में जाना जा सकता है, विशेष अधिकारों से संपन्न था। इस वर्ग में राजपरिवार, सामंत एवं उच्च पदाधिकारी थे, जो करों से मुक्त थे और राज्य के उच्च पदों पर आसीन थे। इनके पास अपार धन-संपदा थी और ये विलासिता का जीवन व्यतीत करते थे। दूसरा वर्ग अधिकारहीनों का था, जिसमें रूस के निर्धन मजदूर, अर्द्धदास एवं कृषक सम्मिलित थे। इस वर्ग को दिन भर कठिन परिश्रम करने के पश्चात् भी भरपेट भोजन नहीं मिल पाता था। किसानों का जीवन भुखमरी, अकाल एवं दरिद्रता का पर्याय बन चुका था। यद्यपि जार सिकंदर द्वितीय ने देश में दास प्रथा का अंत कर दिया था, किंतु इससे कृषकों के कष्ट कम होने के स्थान पर और अधिक बढ़ गये थे। दोनों वर्गों की इस विषमता से समाज में पारस्परिक शत्रुता पैदा हो चुकी थी।

जार की निरंकुशतावादी नीतियाँ

रूस में दीर्घकाल से निरंकुश जारशाही का शासन था। रूस के जार स्वेच्छाचारी शासन और दैवी अधिकार के सिद्धांत में विश्वास करते थे। जार अलेक्जेंडर प्रथम ने यद्यपि प्रारंभ में उदार नीति का पालन किया था, किंतु बाद में वह पुनः प्रतिक्रियावादी बन गया। अलेक्जेंडर द्वितीय (1855-81 ई.) यद्यपि ‘मुक्तिदाता’ के नाम से प्रसिद्ध था, किंतु जब सुधारों के विरोध में सामंतों और जमींदारों की तीव्र प्रतिक्रिया हुई तथा संवैधानिक शासन की माँग जोर पकड़ने लगी, तो उसने भी कठोर और निरंकुश शासन कायम किया। उसका पुत्र अलेक्जेंडर तृतीय (1881-94 ई.) अत्यधिक जिद्दी और संकुचित विचारधारा का था। उसने सिंहासन पर बैठते ही ‘एक जार, एक चर्च और एक रूस’ का नारा दिया और स्पष्ट घोषित किया कि ‘ईश्वर की वाणी हमें प्रेरणा देती है कि हम निरंकुश सत्ता की शक्ति एवं सत्यता में विश्वास रखें और उसे जनता के कल्याण के लिए शक्तिशाली बनायें।’ अलेक्जेंडर तृतीय ने अपने पिता के हत्यारों का पता लगाकर उन्हें साइबेरिया निर्वासित किया और प्रेस तथा विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण स्थापित किया। निर्वासित न्यायाधीशों का स्थान सरकारी कर्मचारियों ने ले लिया। स्वशासन संस्थाओं के अधिकारों को सीमित कर दिया गया और संपूर्ण रूस सैनिक कानून के अंतर्गत आ गया। उसने रूसीकरण की नीति का अवलंबन लेते हुए संपूर्ण देश में धर्म, भाषा एवं संस्कृति की दृष्टि से एकता का प्रयत्न आरंभ कर दिया। संपूर्ण रूसी जनता को यूनानी चर्च स्वीकार करने की आज्ञा देकर यहूदियों पर अत्याचार किये गये। जर्मन भाषा में शिक्षा बंद कर दी गई और 1885 ई. से सरकारी कार्यों में रूसी भाषा का प्रयोग होने लगा। 1880 ई. से 1900 ई. के मध्य लगभग 15 लाख यहूदी अमरीका जाकर बस गये। दक्षिणी रूस के लगभग सभी प्रोटेस्टेंटों को निकाल बाहर किया गया। उसकी रूसीकरण की इस नीति ने रूसीकरण के द्वारा सताये गये लोगों को उसका घोर विरोधी बना दिया। इसका परिणाम हुआ कि जार अलेक्जेंडर तृतीय की मृत्यु का शोक किसी भी वर्ग ने नहीं मनाया सिवाय किसानों व नशाविरोधियों के।

1905 ई. की रूसी क्रांति (Russian Revolution of 1905 AD)
जार निकोलस द्वितीय

अलेक्जेंडर तृतीय का उत्तराधिकारी निकोलस द्वितीय का शासनकाल (1894-1917 ई.) तो प्रतिक्रियावाद का गढ़ था। निकोलस द्वितीय अपनी जर्मन रानी अलेक्सांद्रा के प्रभाव में था जो स्वयं रासपुतिन नामक एक भ्रष्ट पादरी के प्रभाव में थी। जार के परामर्शदाता पोब्ये दोनोस्तेफ का कहना था कि, ‘प्रजातंत्र मानव सभ्यता की सर्वाधिक बोझिल और जटिल प्रणाली है तथा प्रेस हमारे काल की सबसे झूठी संस्था है।’ जार निकोलस द्वितीय की निरंकुशता की पराकाष्ठा फिनलैंड का रूसीकरण था, किंतु जब 1904 में रूस-जापान युद्ध में रूस की पराजय से प्रशासन की भ्रष्टता एवं अयोग्यता स्पष्ट हो गई तो जुलाई, 1904 ई. में निकोलस द्वितीय के मंत्री की हत्या कर दी गई और 1905 ई. में क्रांति हो गई।

भ्रष्ट नौकरशाही

1905 ई. की रूसी क्रांति के लिए रूस की भ्रष्ट, निकम्मी और पतित नौकरशाही भी कम उत्तरदायी नहीं थी। फिशर ने लिखा है कि, ‘सैनिकों एवं राजनयिकों का घेरा जो कि रूसी साम्राज्य के चतुर्दिक था, शांतिवादी नहीं था।’ सरकारी अधिकारी अयोग्य, रिश्वतखोर और विलासी थे। उनका एक मात्र लक्ष्य जार को प्रसन्न करके उच्च पदों को पाना था। इस प्रकार भ्रष्ट नौकरशाही से रूस की जनता त्रस्त हो चुकी थी।

ग्रीक कैथोलिक चर्च का प्रभाव

ग्रीक कैथोलिक चर्च रूस का राजधर्म घोषित किया जा चुका था। इसलिए वह चर्च जार की निरंकुशता का पक्षघर था। राज्याश्रय पाकर ग्रीक कैथोलिक चर्च के पादरी निरंकुश हो गये थे। चर्च का बढ़ता प्रभाव जनता के कष्टों का महान कारण बन चुका था।

औद्योगिक क्रांति का प्रभाव

रूस पर इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति का व्यापक प्रभाव पड़ा था और वहाँ पर बड़े-बड़े कल-कारखानों एवं परिवहन साधनों का विकास हुआ। कल-कारखानों में कार्य करने वाले मजदूरों ने समाजवादी विचारधारा से प्रभावित होकर अपनी सुविधाओं की प्राप्ति हेतु आवाज उठानी शुरू कर दी थी, जिसके फलसवरूप मजदूर संगठनों और पूँजीपतियों के पारस्परिक संघर्ष से तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई थी।

राजनीतिक चेतना का प्रसार

रूस में जारशाही की निरंकुशता और रूसीकरण की प्रक्रिया के कारण उत्पन्न असंतोष से अनेक गैर-रूसियों को रूस छोड़कर अन्य देशों में शरण लेना पड़ा था, जिसके कारण रूस में जारशाही के विरोध में असंतोष था। दूसरी ओर पाश्चात्य विचारों के प्रसार के कारण रूसियों में चेतना प्रबल होने लगी थी। सुधारवादियों, आतंकवादियों और देशभक्त रूसियों ने अपने-अपने राजनीतिक संगठन बनाने प्रारंभ कर दिये थे। मुक्ति संघ (1892 ई.), संवैधानिक लोकतंत्र (1892 ई.), समाजवादी लोकतंत्र दल (1894 ई.) और समाजवादी क्रांतिकारी दल (1901 ई.) जैसे संगठन जारशाही की निरंकुशता के विरूद्ध जनमानस में चेतना भरने का कार्य कर रहे थे।

1904 ई. में रूस की पराजय

जारशाही की निरंकुशता के खिलाफ व्यापक असंतोष को 1904 ई. के रूस-जापान युद्ध में रूस की पराजय ने और भड़का दिया। इस पराजय से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रूस की बड़ी किरकिरी हुई और रूसी जनता के सामने जारशाही की भ्रष्ट शासन-प्रणाली की पोल खुल गई। इसलिए जारशाही की निरंकुशता का अंत करने के लिए रूस की जनता सन्नद्ध हो गई।

क्रांति की घटनाएँ

1904 ई. में रूस-जापान युद्ध में रूस की पराजय की सूचना से रूसी जनता के लिए वज्रपात से कम नहीं था, जिससे जार की निरंकुशता के प्रति असंतोष का लावा फट गया। संपूर्ण रूस में युद्ध का अंत, जारशाही का अंत और क्रांति का जयघोष गूँजने लगा। हड़तालों, आंदोलनों और सभाओं की बाढ़ आ गई।

जार निकोलस द्वितीय ने दूफोफस नामक सैनिक अधिकारी को कठोरतापूर्वक आंदोलन का दमन करने का आदेश दिया। इस बीच 22 जनवरी, 1905 ई. को सेंट पीटर्सबर्ग में एक दुर्घटना हो गई, जिसे ‘खूनी रविवार’ (ब्लाडी संडे) के नाम से जाना जाता है। उग्रवादी दल के नेता पादरी गपोन सेंट पीटर्सबर्ग की सड़कों पर मजदूरों के जुलूस का नेतृत्व करते हुए शांतिपूर्वक अपनी माँगें जार के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए राजमहल की ओर बढ़ा। सैनिक अधिकारियों ने जुलूस को रोकने के लिए निहत्थे मजदूरों पर गोलियाँ चला दी, जिसमें हजारों मजदूर मारे गये और कई घायल हो गये। ‘खूनी रविवार’ की दुर्घटना का समाचार मिलते ही रूस में विद्रोह की ज्वाला भड़क गई। अब जनसाधारण को स्पष्ट हो गया कि जार उनका ‘पिता’ नहीं, बल्कि ‘घोर-शत्रु’ है। मई महीने में इवानोवो-वोज्नेसेंस्क के हड़ताली कपड़ा मजदूरों ने अपनी हड़ताल के नेतृत्व हेतु एक विशेष परिषद् का गठन किया। मजदूर प्रतिनिधियों की यही वह पहली सोवियतें थीं, जो बाद में रूस में क्रांतिकारी सत्ता के लिए निकाय बनीं। जून महीने में युद्धपोत पोत्योम्किन के जहाजियों ने विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह से स्पष्ट हो गया कि अब जारशाही समर्थन हेतु स्वयं अपनी सेना पर भी निर्भर नहीं रह सकती थी। मास्को के प्रेस-मजदूरों की हड़ताल ने तो क्रांति को एक नया मोड़ ही दे दिया। अक्टूबर 1905 ई. में देशव्यापी हड़ताल हो गई। इसमें बीस लाख औद्योगिक और रेल मजदूरों ने हिस्सा लिया। रूस के भीतरी एवं जातीय प्रदेशों में भी काम-काज ठप्प पड़ गया। निम्न श्रेणी, नौकरी पेशा, अध्यापक और छात्रों का पूर्ण सहयोग विद्रोहियों को मिलता देख जारशाही संकट में आ गई। जार ने 17 अक्टूबर, 1905 ई. को एक घोषणा-पत्र प्रकाशित किया, जिसमें कहा गया था कि जारशाही जनता को प्रजातंत्रात्मक स्वतंत्रता प्रदान करने और विधायी संस्था ‘ड्यूमा’ के गठन का वचन देती है।

लेनिन और बोल्शेविकों ने जार की चालाकी का पर्दाफाश करते हुए सशस्त्र विद्रोह का आह्वान किया। फलतः दिसंबर, 1905 ई. में मास्को के मजदूरों ने संगठित सशस्त्र विद्रोह कर दिया। जार ने विद्रोह को कुचल दिया और मार्च-अप्रैल, 1906 ई. में ड्यूमा के गठन हेतु निर्वाचन करवाया।

प्रथम ड्यूमा दो माह से अधिक कार्य नहीं कर सकी। 15 मार्च, 1907 ई. को दूसरी ड्यूमा के गठन हेतु निर्वाचन हुए, किंतु जार निकोलस द्वितीय ने, जो जनता के प्रतिनिधियों को ड्यूमा में नहीं रखना चाहता था, ड्यूमा के अधिकांश सदस्यों को जेल में डाल दिया। फलतः 16 जून, 1907 ई. को दूसरी ड्यूमा भी भंग हो गई। 14 नवंबर, 1907 ई. को तीसरी ड्यूमा का गठन हुआ, जिस पर जारशाही का पूर्ण नियंत्रण था। धीरे-धीरे ड्यूमा के निर्वाचन द्वारा गठन की प्रक्रिया समाप्त हो गई और जार का निरंकुश शासन पुनः स्थापित हो गया। इस प्रकार 1905 ई. में जार की निरंकुशता के विरोध में आरंभ हुई रूसी क्रांति असफल हो गई।

1905 ई. की रूसी क्रांति की असफलता के कारण

क्रांति का नेतृत्व संगठित न होना

1905 ई. की रूसी क्रांति की विफलता का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण क्रांति के नेतृत्व का संगठित न होना था। रूस के राजनीतिक दल समुदायों के रूप में थे और वे राजनीतिक विचारों के आधार पर संगठित नहीं थे। एक दल मध्यमार्गी उदारवादियों का था जो जार की अक्टूबर के घोषणा-पत्र का समर्थन कर रहा था। दूसरी ओर सोशल डेमोक्रेटिक दल ड्यूमा का अधिवेशन बुलाने का पक्षपाती था। मेंशेविकों की समझौतावादी नीति ने मजदूरों के मनोबल पर बुरा असर डाला। इसके अतिरिक्त, विद्रोह एक साथ न होकर अलग-अलग समय पर अलग-अलग स्थानों पर हुए और एक केंद्रीय नेतृत्व के अभाव में देशव्यापी क्रांति का रूप धारण नहीं कर सके। फलतः जारशाही क्रांति के विभिन्न केंद्रों में फूट डालने और उसे कुचलने में सफलता मिल गई।

सर्वहारा एवं कृषक वर्ग में दृढ़-सहबंध का अभाव

सर्वहारा वर्ग एवं कृषक वर्ग में दृढ सहबंध का अभाव क्रांति की असफलता का एक महत्त्वपूर्ण कारण सिद्ध हुआ, जो 1906-1907 ई. में स्पष्ट रूप से सामने आया। कृषक वर्ग अब भी यह आशा रखता था कि जार की कृपा और ड्यूमा के निर्णय से उनकी स्थिति बदल सकती है और उन्हें अधिक जमीन मिल सकती है। अतः कृषकों ने ढुलमुल नीति का पालन किया।

सैनिकों की दुविधा

जिस प्रकार कृषक वर्ग दुविधा में था, उसी प्रकार सैनिक भी दुविधा में थे। यद्यपि कुछ रेजीमेंटों ने विद्रोहियों का साथ दिया, किंतु सेना और नौसेना पूर्णतः क्रांति के पक्ष में नहीं थी। इसलिए जार क्रांति के दमन के लिए सैनिकों का भरपूर प्रयोग कर सका था।

पश्चिमी पूँजीवादी देशों द्वारा जार की सहायता

1905 ई. की रूसी क्रांति के देखकर लगभग सभी पूँजीवादी देशों के कान खड़े हो गये थे। रूसी क्रांति जिस प्रकार समाजवादी क्रांति के स्वरूप में चिन्हित हो रही थी, उससे पश्चिम के पूँजीवादी देश अपने हितों के लिए खतरनाक समझते थे। जर्मन सम्राट कैंसर विलियम द्वितीय ने क्रांति के दमन के लिए जार की पूरी सहायता की। आस्ट्रिया और गणतंत्रवादी फ्रांस भी पीछे नहीं रहे। पश्चिमी पूँजीवादी देशों से सहायता से जार के लिए क्रांति को कुचलना आसान हो गया।

जार को नौकरशाही का समर्थन

जारशाही को बुर्जुआ वर्ग का भरपूर समर्थन प्राप्त था। नौकरशाही भी इस जनक्रांति की भीषणता से घबरा गई और उसने जार की हर संभव सहायता की।

इस प्रकार स्पष्ट है कि क्रांतिकारियों में केंद्रीकृत नेतृत्व, पारस्परिक एकता का अभाव जहाँ क्रांति की असफलता का मूल कारण थी, वहीं सैनिकों की दुविधा, पश्चिमी पूँजीवादी देशों द्वारा जार की सहायता और जार को नौकरशाही का समर्थन भी क्रांति की विफलता के लिए कम उत्तरदायी नहीं था।

1905 ई. की रूसी क्रांति का महत्त्व और परिणाम

यद्यपि 1905 ई. की रूसी क्रांति असफल हो गई, किंतु इसने रूस को ही नहीं संपूर्ण विश्व को प्रभावित किया।

मजदूर वर्ग के राजनीतिक शिक्षण में वृद्धि

1905 ई. की रूसी क्रांति ने मजदूर वर्ग के राजनीतिक शिक्षा प्रदान की। उनका जार की श्रेष्ठता और पूजनीयता संबंधी भ्रम टूट गया और अब यह स्पष्ट हो गया कि सफलता प्राप्त करने के लिए किसी भी क्रांतिकारी आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका सर्वहारावर्ग को ही निभानी है।

सेना और कृषक वर्ग का महत्त्व

सेना एवं कृषक वर्ग की अस्पष्ट मानसिक स्थिति के कारण ही 1905 ई. की रूसी क्रांति असफल हुई थी। अब यह स्पष्ट हो गया कि सफलता के लिए सर्वहारा और कृषक वर्ग में दृढ-सहबंध और सेना को क्रांति के पक्ष में लाने की नितांत आवश्यकता है।

सोवियत निकायों का महत्व

1905 ई. की क्रांति के दौरान सोवियत निकायों ने जिस प्रकार लड़ाई लड़ी थी, उससे उसका महत्त्व स्पष्ट हो गया। अब यह स्पष्ट हो गया कि मार्क्स और लेनिन के अनुगामियों की बोल्शेविकों पार्टी ही अविचल है और इसी पार्टी को केंद्र मानकर अन्य निकायों को इसके झंडे के नीचे सफलता के लिए लाया जाना चाहिए।

अंतर्राष्ट्रीय मजदूर आंदोलन पर प्रभाव

1905 ई. की रूसी क्रांति  ने अंतर्राष्ट्रीय मजदूर आंदोलन को गहराई से प्रभावित किया। यह क्रांति पश्चिमी यूरोप के विभिन्न देशों में श्रमिक आंदोलन के लिए उद्दीपक बन गई। ‘खूनी रविवार’ की घटना ने संपूर्ण यूरोप के मजदूरों को चौकन्ना कर दिया। फ्रांसीसी ट्रेड यूनियन के नेताओं ने रूसी मजदूरों के नाम एक संदेश में लिखा, ‘हम पर भरोसा कीजिए। आप हमारी सहायता के विषय में निश्चित हो सकते हैं। जार मुर्दाबाद! सामाजिक क्रांति जिंदाबाद!’ सितंबर में बुडापेस्ट में, अक्टूबर-नवंबर में वियेना, प्राग एवं क्रकाउ में मजदूरों ने हड़ताल की। आस्ट्रियाई एवं चेक मजदूरों की पुलिस और सेना से भिड़ंत हुई। ‘जो रूस में हुआ है, वह हमारे यहाँ भी होगा’ का नारा विदेशी मजदूर संगठनों का प्रमुख नारा बन गया। रूस की क्रांति के अनुभव ने सारी क्रांतिकारी शक्तियों की एकता की आवश्यकता को स्पष्ट कर दिया, जिसके फलस्वरूप फ्रांसीसी समाजवादियों ने ‘एकीकृत पार्टी’ का गठन किया। फ्रांसीसी लेखक अनातेल ने क्रांति के समय ठीक ही लिखा था कि, ‘रूसी क्रांति एक विश्वव्यापी क्रांति है। उसने विश्व के सर्वहारावर्ग के समक्ष अपने संघर्ष के तरीकों और अपने लक्ष्यों का, अपनी शक्ति और अपनी नियति का प्रदर्शन कर दिया है… नये यूरोप के भाग्य और मानव जाति के भविष्य का इस समय नेवा, विश्चुला और वोल्गा के तटों पर निर्धारण किया जा रहा है।’ निःसंदेह 1905 ई. की रूसी क्रांति ने स्पष्ट कर दिया था कि रूस विश्व क्रांतिकारी आंदोलन के केंद्र के रूप में परिणत हो गया था।

1917 ई. की रूसी क्रांति का मार्ग प्रशस्त

लेनिन ने कहा था कि, 1905 ई. की क्रांति के पूर्वाभ्यास के बिना 1917 ई. में अक्टूबर क्रांति की विजय संभव नहीं होती। वास्तव में, 1905 ई. की क्रांति की असफलता के कारणों ने क्रांतिकारियों को उनकी कमजोरियों से अवगत करा दिया था। यदि 1905 ई. की क्रांति सफल हो जाती, तो 1917 ई. की क्रांति न होती और जार की तानाशाही आगे न बढ़ती, किंतु जार की अंधी सरकार ने समय को नहीं पहचाना और उसने अवसर को हाथ से जाने दिया। बाद में, 1917 ई. में इसने जार के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया और रूसी सामाजिक व्यवस्था कोएक नई दिशा में परिवर्तित कर दिया। इस प्रकार 1905 ई. की रूसी क्रांति ने असफल होकर भी रूस ही नहीं, विश्व को भी प्रभावित किया।

इन्हें भी पढ़ सकते हैं-

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख तत्त्व 

मौर्य सम्राट असोक महान्

अठारहवीं शताब्दी में भारत

बाबर के आक्रमण के समय भारत की राजनैतिक दशा 

विजयनगर साम्राज्य का उत्थान और पतन

भारत में सांप्रदायिकता के उदय के कारण 

भारत पर ईरानी और यूनानी आक्रमण 

आंग्ल-सिख युद्ध और पंजाब की विजय 

नेपोलियन बोनापार्ट 

प्रथम विश्वयुद्ध, 1914-1918 ई. 

पेरिस शांति-सम्मेलन और वर्साय की संधि 

द्वितीय विश्वयुद्ध : कारण, प्रारंभ, विस्तार और परिणाम 

यूरोप में पुनर्जागरण पर बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

प्राचीन भारतीय इतिहास पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

जैन धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

बौद्ध धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1

आधुनिक भारत और राष्ट्रीय आंदोलन पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1

भारत के प्राचीन इतिहास पर आधारित क्विज-1 

भारत के मध्यकालीन इतिहास पर आधारित क्विज-1

भारत के मध्यकालीन इतिहास पर आधारित क्विज-1 

सिंधुघाटी की सभ्यता पर आधारित क्विज 

Print Friendly, PDF & Email