लॉर्ड कॉर्नवालिस के सुधार (Reforms of Lord Cornwallis, 1786–1793)

गवर्नर जनरल लॉर्ड कॉर्नवालिस (1786-1805)

फरवरी 1785 में हेस्टिंस इंग्लैंड वापस चला गया और 1786 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने लॉर्ड कॉर्नवालिस को ब्रिटिश भारत का कमांडर-इन-चीफ और फोर्ट विलियम के प्रेसीडेंसी (बंगाल प्रेसीडेंसी) का गवर्नर जनरल नियुक्त किया। इस बीच वारेन हेस्टिंग्स के जाने के बाद परिषद् के वरिष्ठ सदस्य जान मेकफर्सन ने गवर्नर जनरल का कार्यभार सँभाल लिया था।

मेकफर्सन ने कंपनी के व्यय में मितव्ययिता लाने का प्रयास किया। उसके समय में 1785 में टीपू ने नरगुंडा पर आक्रमण करके उसे जीत लिया। इसी समय मराठा सरदार नाना फड़नबीस ने सालबाई की संधि के आधार पर मैसूर के विरूद्ध मेकफर्सन से सहायता माँगी, किंतु उसने अहस्तक्षेप नीति का पालन करते हुए मराठों की सहायता करने से इनकार कर दिया, किंतु अवध के मामले में उसने हस्तक्षेप करने की नीति अपनाई। हेस्टिंग्स के जाने के एक सप्ताह बाद मेकफर्सन को संचालकों का वह आदेश मिला था, जिसमें राजस्व-सुधार की रूपरेखा दी गई थी। इस प्रकार राजस्व सुधार के कार्य मेकफर्सन के काल में ही आरंभ हो गये थे, जो कॉर्नवालिस के समय में पूरे किये गये।

लॉर्ड कॉर्नवालिस के राजनीतिक जीवन का आरंभ

लॉर्ड कॉर्नवालिस के सुधार (Reforms of Lord Cornwallis, 1786–1793)
लॉर्ड कॉर्नवालिस

कॉर्नवालिस को गवर्नर जनरल पद पर नियुक्त करने का सुझाव सबसे पहले 1781 में डुंडास ने कॉमन सभा में प्रस्तुत किया था। किंतु गर्वनर जनरल का पद स्वीकार करने के लिए कॉर्नवालिस ने दो शर्तें रखी कि गवर्नर जनरल को कौंसिल के निर्णय पर वीटो लगाने और विशेष परिस्थितियों में आवश्यकतानुसार अपनी इच्छापूर्वक काम करने का अधिकार दिया जाए। जब फरवरी 1786 में कॉर्नवालिस ने गवर्नर जनरल के पद के लिए अपनी स्वीकृति दी तो 1784 के ऐक्ट में संशोधन किया गया और उसे निषेधाधिकार के साथ-साथ कौंसिल की इच्छा के विरुद्ध निर्णय लेने का अधिकार भी दे दिया गया। आवश्यकता पड़ने पर वह सेनापति का कार्यभार भी ले सकता था।

लॉर्ड कॉर्नवालिस इंग्लैंड के संपन्न परिवार से संबंधित था और अमेरिका के स्वतंत्रता युद्ध दौरान इंग्लैंड की सेनाओं का मुख्य सेनापति रह चुका था। उसे दो बार भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया। पहली बार वह 1786 में, जब वह 1793 तक गवर्नर जनरल रहा और दूसरी बार 1805 में, किंतु अपने दूसरे कार्यकाल में कॉर्नवालिस की कुछ समय बाद ही गाजीपुर (उ.प्र.) में मृत्यु हो गई। कॉर्नवालिस ने अपने भारत में अपने कार्यों से सुधारों की एक कड़ी स्थापित कर दी।

कंपनी की समस्याएँ

कंपनी के संचालक मंडल की प्रमुख समस्या राजस्व-संग्रह और उसके निर्धारण की थी। यद्यपि बंगाल में द्वैध शासन प्रणाली समाप्त कर दी गई थी, लेकिन अपने तमाम प्रयोगों के बावजूद वारेन हेस्टिंग्स इस समस्या का समुचित हल नहीं निकाल सका था। कंपनी के संचालक चाहते थे कि राजस्व निर्धारण स्थायी रूप से किया जाये और इसके लिए एक निश्चित संग्रह व्यवस्था स्थापित की जाये।

वास्तव में 1767 के पश्चात् कंपनी को व्यापार के साथ-साथ प्रशासन का उत्तरदायित्व भी सँभालना पड़ रहा था। कंपनी का व्यापार उसके कर्मचारियों के द्वारा होता था, लेकिन उसके कर्मचारी अपने व्यक्तिगत व्यापार में संलिप्त रहते थे जिससे कंपनी के व्यापार को हानि होती थी। कर्मचारी दिन-प्रतिदिन अमीर होते जा रहे थे और कंपनी की आय घटती जा रही थी। इसलिए कंपनी चाहती थी कि कर्मचारियों के भ्रष्टाचार को किसी तरह समाप्त किया जाये। इसके अलावा, ब्रिटिश संसद की राय थी कि इतने विशाल प्रदेश का प्रशासन एक व्यापारिक कंपनी के हाथों में नहीं छोड़ा जा सकता। बर्क ने तो कंपनी प्रशासन को ‘घोर अमानवीय’ घोषित कर दिया था। इसलिए ब्रिटिश सरकार चाहती थी कि प्रशासन में ऐसे सुधार किये जायें जिससे भारत के प्रशासन को ‘विधिसंगत’ बनाया जा सके।

कॉर्नवालिस के सुधार

भारत में कॉर्नवालिस को एक संतोषजनक भूमिकर-व्यवस्था को स्थापित करना, ईमानदार तथा कार्यक्षम न्याय-व्यवस्था के साथ कंपनी के व्यापार विभाग का पुनर्गठन करना था। उसने वारेन हेस्टिंग्स द्वारा स्थापित किये गये ढ़ाँचे पर ही अतिरिक्त शासन व्यवस्था का गठन किया, जो 1858 ई. तक चलता रहा। कॉर्नवालिस स्वयं न्याय और नैतिकता में विश्वास रखता था और शासित के प्रति न्याय करना, उसकी न रक्षा करना, उसे उचित प्रशासन देना, वह अपना कर्तव्य समझता था। उसने भारतीय जनता को न्याय देने तथा कंपनी के कर्मचारियों के अत्याचार को कम करने का प्रयास किया। लॉर्ड कॉर्नवालिस द्वारा किये गये कुछ प्रमुख सुधार इस प्रकार हैं-

कॉर्नवालिस के व्यापारिक सुधार

1786 में जब कॉर्नवालिस कलकत्ता पहुँचा, उस समय बंगाल में कंपनी का प्रशासन दो भागों में विभाजित था। पहला विभाग कॉर्मिशियल या व्यापारिक था और दूसरा विभाग जनरल या सामान्य था। पहले पर विभाग में कंपनी के कर्मचारी सूती कपड़ा, नील, रुई, ऊन, रेशम, रेशमी कपड़े आदि को खरीद (निवेश) कर निर्यात के लिए गोदामों में एकत्रित करते थे। संचालक मंडल कॉर्मिशियल विभाग में तुरंत सुधार चाहता था। इस विभाग की देखभाल बोर्ड ऑफ ट्रेड करता था, जिसकी स्थापना 1774 में की गई थी। संचालकों को संदेह था कि बोर्ड ऑफ ट्रेड की मिलीभगत से ही कर्मचारियों का भ्रष्टाचार फल-फूल रहा था।

कॉर्नवालिस ने सीक्रेट कमेटी (गुप्त कमेटी) के आदेश पर कॉर्मिशियल रेजीडेंटों के पिछले साल के हिसाब की जाँच-पड़ताल की। इसके बाद उसने व्यापार विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए व्यापार बोर्ड के सदस्यों की संख्या 11 से घटाकर 5 कर दिया और ठेकेदारों से सामान खरीदने की प्रथा को बंद कर दिया। यही नहीं, कॉर्नवालिस ने भ्रष्ट ठेकेदारों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करते हुए उनके खिलाफ मुकदमे दायर किये और उन्हें निलंबित भी किया।

अब कॉर्नवालिस ने गुमाश्तों तथा व्यापारिक प्रतिनिधियों द्वारा माल-उत्पादकों से सीधे माल खरीदने की पुरानी नीति पुनः आरंभ की। इन प्रतिनिधियों या गुमाश्तों को सीधे निवेश के अंतर्गत रखा गया, जो उत्पादकों को पेशगी धन देकर भाव निश्चित कर लेते थे और समय पर तैयार माल खरीद लेते थे। इससे कंपनी को सस्ता माल मिलना आरंभ हो गया और कंपनी की वित्तीय स्थिति में सुधार हुआ। इसके लिए कॉर्नवालिस ने गुमाश्तों को पर्याप्त कमीशन देने की व्यवस्था की। हालांकि कॉर्नवालिस ने प्रयास किया कि उत्पादकों का उत्पीड़न न हो, लेकिन कर्मचारी उनका उत्पीड़न करते रहे। फिर भी, कॉर्नवालिस का यह सुधार स्थायी साबित हुआ।

कॉर्नवालिस के प्रशासनिक सुधार

कॉर्नवालिस जानता था कि उसके समस्त सुधारों की सफलता कंपनी के कर्मचारियों पर निर्भर करती थी। उसने भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए कंपनी के अधिकारियों एवं कर्मचारियों के वेतन में भारी वृद्धि की और उनके व्यक्तिगत व्यापार पर पाबंदी लगा दी। कलेक्टरों का वेतन 1,200 रुपये प्रति माह से बढ़ाकर 1,500 रुपये प्रति माह कर दिया गया और 150 रुपये मासिक और राजस्व-संग्रह पर 1 प्रतिशत का कमीशन देना भी निश्चित किया गया। कर्मचारियों के वेतन भी बढ़ाकर 500, 300 और 200 रुपये कर दिये गये। इसके साथ ही, उसने अधिकारियों और कर्मचारियों के घूस और उपहार लेने पर भी पूर्णतया प्रतिबंध लगा दिया। उसने कर्तव्य का पालन न करने वाले अनुशासनहीन कर्मचारियों को दंडित किया और यह सुनिश्चित किया कि भविष्य में कर्मचारियों की भर्ती केवल योग्यता के आधार पर ही की जाए।

कॉर्नवालिस भी अपने अन्य देशवासियों की भाँति प्रजातीय अहंकार ग्रसित था और भारतीयों को उच्च पदों के लिए अयोग्य समझता। उसने प्रशासनिक व्यवस्था का यूरोपीयकरण करने के लिए नियम बनाया कि 500 पौंड या इससे अधिक वार्षिक वेतन के पदों पर भारतीयों की नियुक्ति न किया जाये और उन्हें केवल वही पद दिये जायें जिसके लिए अंग्रेज उपलब्ध न हों। इस प्रकार अनुबद्ध सेवाओं के द्वार भारतीयों के लिए बंद कर दिये गये। अब भारतीयों को सेना में सूबेदार या जमादार, प्रशासनिक सेवा में मुंसिफ या डिप्टी कलेक्टर से ऊँचे पद नहीं दिये जा सकते थे। इस प्रकार कॉर्नवालिस स्वभाव से ही भारतीयों का विरोधी था।

कॉर्नवालिस के राजस्व-संबंधी सुधार

बंगाल आने के बाद कॉर्नवालिस ने राजस्व-व्यवस्था सुधार के लिए जाँच-पड़ताल का कार्य आरंभ किया। मेकफर्सन ने राजस्व सुधारों को आरंभ करके 35 राजस्व जिलों का निर्माण किया था, जिसका मुख्य अधिकारी कलेक्टर था। जब कॉर्नवालिस ने देखा कि कलेक्टर भी व्यक्तिगत व्यापार में संलग्न हैं, तो उसने 1787 में राजस्व जिलों की संख्या 35 से घटाकर 23 का दी। उसने राजस्व समिति का नाम बदल कर ‘बोर्ड ऑफ रेवेन्यू’ कर दिया और उसे राजस्व के मुकदमों की सुनवाई का अधिकार दे दिया। कलेक्टरों को न्यायिक अधिकार देकर दीवानी और फौजदारी न्यायालय का जज बना दिया गया। कॉर्नवालिस ने कलेक्टरों के व्यक्तिगत व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया और उनको न्यायिक अधिकार देकर दीवानी व फौजदारी न्यायालय का जज बना दिया। उसने कलेक्टरों का वेतन 1,200 रुपये प्रतिमाह से बढ़ाकर 1,500 रुपये प्रतिमाह कर दिया और 150 रु. मासिक और राजस्व-संग्रह पर 1 प्रतिशत का कमीशन देना भी निश्चित किया। कलेक्टर की सहायता के लिए जिलों में उनके सहायक नियुक्त किये गये।

1790 में कॉर्नवालिस ने माल के मुकदमे की सुनवाई भी कलेक्टर को सौंप दी। लेकिन अंत में उसे लगा कि उसने कलेक्टरों को बहुत शक्तिशाली बना दिया है तो 1793 में उसने कलेक्टरों के अधिकारों में कमी करके उनसे न्यायिक अधिकार वापस ले लिया।

स्थायी बंदोबस्त

कॉर्नवालिस को भारत में भूमिकर व्यवस्था का स्थायी बंदोबस्त करना था क्योंकि पिट के भारत अधिनियम में संचालकों को आदेश दिया गया था कि भूमि तथा लगान की जाँच-पड़ताल कराकर वह जमींदारों के साथ स्थायी बंदोबस्त करे। भारत पहुँचकर कॉर्नवालिस ने भूराजस्व के स्थायी बंदोबस्त के लिए बंगाल में प्रचलित भूमिकर, किराया तथा पट्टों का अध्ययन किया। इसके बाद उसने भूमिकर व्यवस्था के संबंध में राजस्व बोर्ड के प्रधान सर जॉन शोर तथा अभिलेख पाल जेम्स ग्रांट से व्यापक विचार-विमर्श किया। कॉर्नवालिस के सामने तीन मुख्य प्रश्न थे-एक तो यह कि बंदोबस्त किससे किया जाये, दूसरा यह कि बंदोबस्त का आधार क्या हो और तीसरा यह कि बंदोबस्त कितनी अवधितक के लिए किया जाए। बंदोबस्त किससे किया जाए के संबंध में जान शोर और जेम्स ग्रांट के मत परस्पर-विरोधी थे। शोर का मानना था कि बंदोबस्त जमींदार के साथ किया जाए क्योंकि जमींदार ही भूमि का स्वामी है। जेम्स ग्रांट ने शोर के विचारों का विरोध किया और कहा कि समस्त भूमि सरकार की है और जमींदार केवल भूमिकर का संग्रहकर्ता है। सरकार जब चाहे उसे हटा सकती है। कॉर्नवालिस स्वयं इंग्लैंड का एक जमींदार था और कंपनी के अधिकारी भी इतने प्रशिक्षित और अनुभवी नहीं थे कि वे कृषकों के साथ सीधे भूमि व्यवस्था स्थापित कर पाते। इसलिए कॉर्नवालिस ने जमींदारों को भूमि का स्वामी मानकर उनके साथ व्यवस्था करने की सोची।

बंदोबस्त के आधार के बारे में शोर का का मानना था कि निर्धारित कर से संग्रह किया हुआ वास्तविक कर प्रायः बहुत कम होता था। इसलिए पिछले दस वर्षों की वसूली मालगुजारी के औसत को आधार बनाया जाना चाहिए। दूसरी ओर ग्रांट का विचार था कि 1765 में जितना राजस्व लिया जाता था, वह ही निश्चित किया जाए। अंततः विचार-विमर्श के बाद 1790-91 ई. में जो कर-संग्रह किया गया था अर्थात् 2,68,00,000 रुपये को ही आधार माना गया।

बंदोबस्त की अवधि के संबंध में कॉर्नवालिस तथा शोर के विचार भिन्न थे। कॉर्नवालिस का विचार था कि यह व्यवस्था स्थायी और शाश्वत होनी चाहिए जबकि शोर का मानना था कि भू-संपत्तियों का सर्वेक्षण और सीमाओं का निर्धारण नहीं हुआ है, इसलिए यह व्यवस्था 10 वर्ष के लिए की जाए। कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स की अनुमति से शोर के मतानुसार जमींदारों को भूमि का स्वामी मानकर और तीन वर्षों के कर-संग्रह के आधार पर 1790 में यह व्यवस्था दस वर्ष के लिए लागू की गई, जिसे ‘जॉन शोर की व्यवस्था’ के नाम से भी जाना जाता था। किंतु कॉर्नवालिस ने पिट तथा डुंडास की स्वीकृति मिलते ही 1793 में इस बंदोबस्त को स्थायी घोषित कर दिया। इस स्थायी व्यवस्था के अनुसार जमींदारों तथा उसके उत्तराधिकारियों को शाश्वत रूप से भू-राजस्व का 8/9 भाग ईस्ट इंडिया कंपनी को देना था और 1/9 भाग अपनी सेवाओं के लिए अपने पास रखना था। इस स्थयी बंदोबस्त के पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ कहा गया है, लेकिन इस व्यवस्था को बंगाल के अलावा किसी अन्य क्षेत्र में लागू नहीं किया।

कॉर्नवालिस के न्यायिक सुधार )
कलेक्टर को न्यायिक अधिकार

कॉर्नवालिस भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का औचित्य सिद्ध करने के लिए एक कुशल एवं निष्पक्ष न्याय प्रणाली स्थापित करना चाहता था। इसलिए उसने अपने ‘न्यायिक सुधारों’ के अंतर्गत जिले की समस्त शक्ति कलेक्टर के हाथों में केंद्रित कर दी और 1787 में कलेक्टरों को ‘दीवानी अदालत’ का न्यायाधीश नियुक्त कर दिया। इसके अतिरिक्त उन्हें कुछ फौजदारी शक्तियाँ और सीमित मामलों में फौजदारी न्याय करने का भी अधिकार दे दिया गया।

सर्किट अदालतें

अभी तक फौजदारी न्याय व्यवस्था पूर्ण रूप से भारतीय जजों के हाथों में थी। कॉर्नवालिस ने भारतीयों के प्रति अविश्वास के कारण 1790-1792 के बीच भारतीय न्यायाधीशों वाली जिला फौजदारी अदालतों को समाप्त कर दिया और उनके स्थान पर चार भ्रमण करने वाली ( सर्किट कोर्ट) अदालतें स्थापित की- तीन बंगाल में और एक बिहार में। प्रत्येक कोर्ट में दो यूरोपीय जजों की नियुक्ति की गई जो भारतीय विशेषज्ञों-काजी और मुफ्ती की सहायता से सुनवाई करते थे। ये अदालतें जिलों का दौरा करतीं तथा नगर दंडनायकों द्वारा निर्देशित फौजदारी मामलों के निर्णय करती थीं।

सदर निजामत अदालत

मुर्शिदाबाद में स्थित सदर निजामत अदालत के स्थान पर एक ऐसा ही न्यायालय कलकत्ता में स्थापित किया गया। इस सदर दीवानी अदालत में गवर्नर-जनरल तथा उसकी परिषद् के सदस् भारतीय विशेषज्ञों-मुख्य काजी तथा मुख्य मुफ्ती की सहायता से न्याय करते थे।

कॉर्नवालिस कोड

कॉर्नवालिस ने 1793 ई. में प्रसिद्ध ‘कॉर्नवालिस कोड’ का निर्माण करवाया, जो ‘शक्तियों के पृथक्कीकरण’ के सिद्धांत पर आधारित था। कॉर्नवालिस संहिता में कर तथा न्याय प्रशासन को पृथक् कर दिया गया। इसका कारण था कि अभी तक जिले में कलेक्टरों के पास भूमिकर विभाग के साथ-साथ विस्तृत न्यायिक और दंडनायक शक्तियाँ होती थी। कॉर्नवालिस ने अनुभव किया कलेक्टर के रूप में किये गये अन्याय का निर्णय कोई स्वयं न्यरायाधीश के रूप में कैसे कर सकता है। इसलिए उसने कलेक्टरों की न्यायिक एवं फौजदारी शक्तियों को समाप्त कर दिया और अब उनके पास केवल कर-संबंधी शक्तियाँ ही रह गईं।

जिला दीवानी न्यायालयों में न्याय करने के लिए ‘जिला न्यायाधीश’ नामक नये अधिकारी नियुक्त किये गये, जिन्हें अपराधियों अथवा व्यवस्था भंग करनेवालों को बंदी बनाने की आज्ञा देने का अधिकार दिया गया। उनकी सहायता के लिए भारतीय सहायक होते थे। छोटे मामलों का फैसला वह स्वयं करता था, किंतु गंभीर मामले वह भ्रमण करने वाली अदालतों के समक्ष प्रस्तुत करता था। भ्रमण करने वाली प्रांतीय अदालतें, जो दीवानी अपीलें सुनती थीं, वही भ्रमण करने वाली फौजदारी अदालतों का भी काम करती थीं।

दीवानी अदालतें

दीवानी अदालतों की एक क्रमिक कड़ी स्थापित की गई। कर तथा दीवानी मामलों का भेद समाप्त कर इन अदालतों को समस्त दीवानी मामलों को सुनने का अधिकार दिया गया। इस कड़ी में मुंसिफ की अदालत को 50 रुपये तक के मामले सुनने का अधिकार था, जिसका अध्यक्ष एक भारतीय होता था। उसके ऊपर रजिस्ट्रार की अदालत थी, जहाँ 200 रुपये तक के मामले सुने जाते थे, किंतु यह न्यायाधीश यूरोपीय होता था। इन दोनों न्यायालयों के विरुद्ध अपील नगर अथवा जिला अदालतों में की जा सकती थी। जिला न्यायाधीश सभी प्रकार के दीवानी मामले सुन सकते थे।

जिला न्यायालयों के ऊपर चार प्रांतीय अदालतें कलकत्ता, मुर्शिदाबाद, ढाका और पटना में थीं, जहाँ जिला अदालतों के विरुद्ध अपीलें हो सकती थीं। ये अदालतें जिला अदालतों के कार्यों का निरीक्षण भी करती थीं और उनके अनुरोध पर सदर दीवानी अदालत किसी जिला न्यायाधीश को निलंबित भी कर सकती थी। इन प्रांतीय अदालतों की अध्यक्षता भी यूरोपीय करते थे और 1,000 रुपये तक के मामले सुन सकते थे। इनके ऊपर कलकत्ता में सदर दीवानी अदालत थी जहाँ गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् भारतीय विशेषज्ञों की सहायता से न्याय करते थे। सदर दीवानी अदालत 1,000 रुपये से ऊपर के मामलों की सुनवाई करता था। 5,000 रुपये मूल्य से अधिक के मुकदमे की अपील सपरिषद् सम्राट के पास की जा सकती थी। इन अदालतों में कार्यविधि के नियम बनाये गये और इन न्यायालयों से संबंधित भारतीय अधिकारियों की योग्यताएँ निर्धारित की गईं। हिंदुओं पर हिंदू तथा मुस्लिमों पर मुस्लिम विधि लागू होती थी।

फौजदारी न्याय प्रणाली में कॉर्नवालिस को अधिक सावधानी से कार्य करना पड़ा। अभी तक जिला फौजदारी न्यायालय में भारतीय जज ही निर्णय करते थे। लेकिन भारतीयों के प्रति दुराग्रह के कारण कॉर्नवालिस ने जिला फौजदारी अदालतों को समाप्त कर दिया। अब जिला न्यायाधीश को अपराधियों अथवा व्यवस्था भंग करनेवालों को बंदी बनाने की आज्ञा देने का अधिकर दिया गया। फौजदारी मामलों में सदर निजामत अदालत उच्चतम न्यायालय का कार्य करती थीं। क्षमादान या लघुकरण का अधिकार गवर्नर-जनरल को था।

फौजदारी कानून में सुधार

 कॉर्नवालिस ने फौजदारी न्यायालयों का संगठन तो कर दिया था, लेकिन फौजदारी कानूनों में सुधार करना एक कठिन कार्य था। फौजदारी न्यायालयों में काजी न्यायाधीश होता था और मुफ्ती कानून की व्याख्या करता था। फौजदारी न्यायालय की प्रक्रिया और निर्णय दोनों मुस्लिम कानून के अनुसार होता था। लेकिन इस कानून में कई दोष थे, जैसे हत्या के मामले में मृत्युदंड तभी दिया जा सकता था जब हत्या किसी नुकीले हथियार से की गई हो और मृतक का खून निकला हो। अगर मृतक की हत्या पानी में डुबोकर या गला घोंटकर की गई हो तो मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता था। मुस्लिम कानून में प्रावधान था कि मृतक का निकट-संबंधी हत्यारे से धन लेकर उसे क्षमा कर सकता था। गवाही कानून में भी कई दोष थे, जैसे-डाकू को सजा देने के लिए दो गवाहों की जरूरत होती थी, लेकिन गवाह नहीं मिलते थे क्योंकि डाकू प्रत्यक्षदर्शियों को मार देते थे। दो गैर-मुसलमानों की गवाही एक मुसलमान गवाह के बराबर मानी जाती थी, एक पुरुष की गवाही दो स्त्रियों के बराबर मानी जाती थी। किसी मुसलमान को हिंदुओं की गवाही पर मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता था। इसके अलावा, मुस्लिम कानून में अंग-भंग करने जैसी बर्बर सजाएँ भी थीं।

कॉर्नवालिस ने 1790-93 के बीच फौजदारी कानून में कुछ सुधार करने का प्रयास किया। उसने दिसंबर 1790 में एक नियम बनाया जिसके अनुसार हत्या के मामले में हत्यारे की भावना पर अधिक बल दिया गया, न कि हत्या के अस्त्र अथवा ढंग पर। उसने प्रत्येक अवस्था में डाकुओं के लिए मृत्युदंड निर्धारित किया और धन लेकर हत्यारे को क्षमा करने अथवा ‘रक्त का मूल्य’ निर्धारित करना बंद कर दिया। अंग-भंग की सजा बंद कर दी गई और उसके स्थान पर कठोर कैद की व्यवस्था की गई। इसी प्रकार 1793 ई. में गवाही के मामलों में हिंदू, मुसलमान, स्त्री, पुरुष सभी बराबर कर दिये गये। कॉर्नवालिस ने गवाहों को न्यायालय तक आने के लिए मार्ग व्यय देने की भी व्यवस्था की जिससे कोई अभियुक्त गवाही के अभाव में छूट न जाये। ब्रिटिश संसद ने 1797 में कॉर्नवालिस के इन सुधारों को प्रमाणित कर दिया।

कॉर्नवालिस की पुलिस व्यवस्था

कॉर्नवालिस ने पुलिस प्रशासन में भी महत्वपूर्ण सुधार किया क्योंकि बंगाल में घोर अराजकता और अव्यवस्था फैल चुकी थी। कलकत्ता के बाजारों में सूर्यास्त के बाद जाना खतरे से खाली नहीं था। कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए कॉर्नवालिस ने 1788 में एक कमेटी नियुक्त की और उसकी रिपोर्ट के आधार पर 1791 में पुलिस प्रशासन के नियम बनाये। प्रारंभ में यह व्यवस्था केवल कलकत्ता नगर के लिए थी, लेकिन 1792 में यह पुलिस व्यवस्था सारे बंगाल में लागू की गई।

नये नियमों के अंतर्गत जिलों की पुलिस का भार अंग्रेज दंडनायकों (मजिस्ट्रेट) को दिया गया। प्रत्येक जिले को 400 वर्गमील के क्षेत्रों में विभाजित किया गया और प्रत्येक क्षेत्र में पुलिस थाने तथा चौकियाँ स्थापित की गईं। प्रत्येक थाने में एक दरोगा (थानेदार) और उसकी सहायता के लिए कुछ पुलिस कर्मचारी नियुक्त किये गये। ग्रामीण क्षेत्रों में जमींदारों को पुलिस व्यवस्था से मुक्त कर दिया गया। पुलिस कर्मचारियों में तत्परता और ईमानदारी लाने के लिए कॉर्नवॉलिस ने पुलिस कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि की तथा चोरों और हत्यारों को पकड़ने पर पुरस्कार देने की व्यवस्था की। यही कारण है कि कॉर्नवालिस को ‘पुलिस व्यवस्था का जनक’ कहा जाता है।

रॉबर्ट क्लाइव और बंगाल में द्वैध शासन 

कॉर्नवालिस की भारतीय राज्यों के प्रति नीति

कॉर्नवालिस ने भारतीय राज्यों के मामलों में अहस्तक्षेप की नीति का पालन करने का प्रयास किया। वह पिट के अधिनियम में की गई घोषणा के अनुसार किसी भारतीय राज्य के विरुद्ध किसी प्रकार के युद्ध की घोषणा करने के पक्ष में नहीं था। फिर भी उसे मैसूर से युद्ध करना पड़ा।

अवध से संबंध

कंपनी की नीति थी कि अवध के नवाब से अधिक से अधिक धन की वसूली की जाए। इसी क्रम में 1775 में वारेन हेस्टिंग्स की परिषद् ने नवाब पर दूसरी संधि थोपी। इसके अनुसार अवध की अंग्रेजी सेना के व्यय के लिए धनराशि 30,000 रुपये मासिक से बढ़ाकर 2,10,000 रुपये मासिक कर दिया गया था। नवाब इतना धन देने की स्थिति में नहीं था जिससे उस पर बकाया राशि बढ़ती जा रही थी। नवाब ने गवर्नर जनरल कॉर्नवालिस से प्रार्थना की कि उसे अंग्रेजी सेना के व्यय से मुक्त किया जाये। कॉर्नवालिस ने नवाब की प्रार्थना पूर्ण रूप से तो नहीं स्वीकार की लेकिन उसका कुल व्यय घटाकर 50 लाख रुपये वार्षिक कर दिया और नवाब को यह आश्वासन भी दिया कि अंग्रेज रेजीडेंट नवाब के प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं करेगा। इसके बदले में नवाब ने वादा किया कि वह अवध में किसी यूरोपीय को कंपनी की सहमति के बिना बसने की अनुमति नहीं देगा।

मराठों से संबंध

मेकफर्सन के काल में महादजी सिंधिया ने मुगल सम्राट शाहआलम के वकील-ए-मुतलक के रूप में बंगाल की चौथ माँगी थी। मेकफर्सन ने इस पर ध्यान नहीं दिया था, लेकिन उसने मराठों को आश्वासन जरूर दिया था कि अगर टीपू सुल्तान उनके क्षेत्रों पर आक्रमण करेगा तो वह मराठों की सहायता करेगा। कॉर्नवालिस ने इस संधि की पुष्टि करने से इनकार कर दिया क्योंकि यह टीपू और अंग्रेजों के बीच की गई मंगलौर संधि के विरुद्ध थी।

निजाम से संबंध

कॉर्नवालिस मैसूर के टीपू सुल्तान को अंग्रेजों के लिए खतरनाक मानता था। इसलिए उसने हैदराबाद के निजाम से घनिष्ठ संबंध रखे। यद्यपि 1785 में टीपू और अंग्रेजों के बीच मंगलौर की संधि हो चुकी थी लेकिन दोनों पक्षों को एक-दूसरे पर भरोसा नहीं था। अंग्रेजों और निजाम के बीच पहले समझौता हुआ था कि निजाम बसालतजंग की मृत्यु के बाद उत्तरी सरकार का गंटूर जिला अंग्रेजों को दे दिया जायेगा। चूंकि 1782 में बसालतजंग की मृत्यु हो चुकी थी, इसलिए कॉर्नवालिस ने गुंटूर की माँग की। निजाम गुंटूर नहीं देना चाहता था, इसलिए उसने 1765 की संधि के अनुसार अग्रेजों से टीपू के अधिकार वाले क्षेत्रों की माँग की। कॉर्नवालिस ने 1788 में निजाम पर दबाव डालकर गुंटुर ले लिया और उसको आश्वासन दिया कि जब कभी टीपू के अधिकारवाले क्षेत्र अंग्रेजों के अधिकार में आ जायेंगे, तो उन्हें निजाम को दे दिया जायेगा। कॉर्नवालिस ने इस संधि के बाबत बोर्ड ऑफ कंट्रोल के अध्यक्ष डुंडास से स्वीकृति भी ले ली थी।

मैसूर से युद्ध

कॉर्नवालिस जानता था कि मैसूर का टीपू कभी भी अंग्रेजों के लिए संकट पैदा कर सकता है। टीपू भी अंग्रेजों को दक्षिणी भारत से निकालने के लिए दृढ़-प्रतिज्ञ था। कॉर्नवालिस ने टीपू से निपटने के लिए निजाम एवं मराठों से मित्रतापूर्ण संबंध बनाये रखा। उसने निजाम को उन क्षेत्रों को वापस दिलाने का आश्वासन भी दिया था जो हैदरअली ने छीन लिये थे।

मामला उस समय बिगड़ गया जब टीपू ने ट्रावनकोर के राजा पर आक्रमण कर दिया जो अंग्रेजों का मित्र था। कॉर्नवालिस ने मित्र की सहायता के बहाने 1790 में मैसूर पर हमला बोल दिया। टीपू दो वर्ष तक अंग्रेजों के छक्के छुड़ाता रहा। अंततः कॉर्नवालिस कोे स्वयं मोर्चा सँभालना पड़ा। संसाधनों के अभाव में टीपू अधिक समय तक संघर्ष नहीं कर सका। कॉर्नवालिस ने बंगलौर और कोयम्बटूर जैसे मैसूर के कई दुर्गों पर अधिकार कर लिया तथा फरवरी, 1792 में श्रीरंगपट्टम की बाहरी रक्षा-दीवार को ध्वस्त कर दिया। विवश होकर टीपू को मार्च, 1792 ई. में श्रीरंगापट्टम की संधि करनी पड़ी। टीपू को 3.30 लाख रुपये युद्ध की क्षतिपूर्ति देने के साथ ही अपने राज्य का आधा भाग भी देना पड़ा, जिसे अंग्रेजों, मराठों तथा निजाम ने आपस में बाँट लिया। इस प्रकार 1765 के बाद अंग्रेजी राज्य का विस्तार करने का श्रेय कॉर्नवालिस को था।

नेपाल तथा असम

1784 में हेस्टिंग्स ने नेपाल से व्यापारिक संधि करने के लिए एक दूत काठमांडू भेजा था, लेकिन उसे निराश लौटना पड़ा था। इसके बाद तिब्बत और नेपाल के बीच युद्ध आरंभ हो गया। तिब्बत को चीन से सहायता मिली तो नेपाल ने अंग्रेजों से सहायता माँगी। नेपाल ने 1792 में अग्रेजों से एक व्यापारिक संधि की, जिससे आयात कर में कमी के साथ-साथ नेपाल में अंग्रेज व्यापारियों को आने की अनुमति मिल गई। कॉर्नवालिस ने किर्कपेट्रिक को नेपाल तथा चीन में समझौता कराने के लिए काठमांडू भेजा। किंतु नेपाल का राजा सैनिक सहायता चाहता था, चीन से समझौता नहीं। इसलिए उसने चीन से समझौता होते ही व्यापारिक संधि को भंग कर दिया।

आसाम के राजा ने, जिसे गद्दी से हटा दिया गया था, कॉर्नवालिस की सहायता मॉँगी। कॉर्नवालिस ने कैप्टन वाल्स को आसाम भेजा, जिसने राजा को गद्दी पर बिठाने में सफलता प्राप्त की। लेकिन उसके वापस आते ही स्थानीय नागरिकों ने राजा को फिर गद्दी से हटा दिया।

इस प्रकार अंग्रेजी राज्य की सुरक्षा तथा विस्तार के लिए कॉर्नवालिस ने साम्राज्यवादी नीति अपनाई। यह अंग्रेजों की धूर्तता थी कि वे नैतिकता का प्रदर्शन करते थे और बार-बार भारत में अपने राज्य का विस्तार न करने का दंभ भरते थे। लेकिन अवसर मिलते ही उनकी साम्राज्यवादी लिप्सा जाग उठती थी और वे भारतीय राज्यों को हड़प लेते थे। इसी साम्राज्यवादी नीति के अंतर्गत ही अंग्रेजों ने निजाम से गुंटर और टीपू से आधा राज्य हड़प लिया था।

कॉर्नवालिस का मूल्यांकन

लॉर्ड कॉर्नवालिस मूलतः एक सैनिक था, लेकिन भारत में उसने प्रशासनिक सुधार का महत्वपूर्ण कार्य किया और एक व्यापारिक कंपनी के कर्मचारियों को प्रशासकों में परिवर्तित कर दिया। उसने अपने कॉर्नवालिस कोड के द्वारा प्रशासन के विस्तृत नियमों तथा सिद्धांतों का निर्माण किया और उसे स्थायित्व प्रदान किया। उसने सार्वजनिक सेवाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म किया और कंपनी के शासन को न्यायिक व प्रशासनिक दो भागों में बाँट दिया। कॉर्नवालिस ने कंपनी की सेवा का जो रुप तय किया, वही आगे चलकर इंपीरियल सिविल सर्विस के रूप में विकसित हुआ। इसलिए उसे भारत में ‘नागरिक सेवा का जनक’ भी माना जाता है। भूराजस्व, कॉर्नवालिस प्रणाली तथा न्यायिक सेवा के क्षेत्र में अपने महत्त्वपूर्ण सुधारों के कारण वह आज भी अमर है।

यह सही है कि कॉर्नवालिस वारेन हेस्टिंग्स या वेलेजली जैसा प्रतिभाशाली नहीं था। उसमें मौलिक प्रतिभा भी नहीं थी और न ही वह सर जान शोर या चार्ल्स ग्रांट के समान विशेषज्ञ ही था। फिर भी, उसने अपने अनुशासन, नैतिकता तथा ईमानदारी से संचालकों तथा ब्रिटिश मंत्रिमंडल के आदेशों का पूरी निष्ठा के साथ पालन किया और एक प्रशासनिक अधिकारी के रूप में अंग्रेजी सरकार के प्रति लोगों में पनपी घृणा की भावना को काफी हद तक कम करने में सफल रहा।

प्रायः यह माना जाता है कि कॉर्नवालिस ने हेस्टिंग्स के कार्य को पूरा किया। यह सही है कि हेस्टिंग्स की नीव पर ही कॉर्नवालिस ने प्रशासन का निर्माण किया। किंतु यदि हेस्टिंग्स कुछ समय और मिलता तो शायद वह प्रशासन का निर्माण करने में भी सफल हो जाता। हेस्टिंग्स को पता था कि कंपनी के कर्मचारी तब तक ईमानदार नहीं हो सकते, जब तक उन्हें अच्छा वेतन नहीं दिया जायेगा। उसने राजस्व कर्मचारियों को 19 प्रतिशत कमीशन देना आरंभ भी कर दिया था, लेकिन वह कर्मचारियों का वेतन बढ़ाने में असफल रहा। कॉर्नवालिस को पिट और डुंडास का समर्थन प्राप्त था, अतः वह वेतन बढ़ाने तथा भ्रष्टाचार को रोकने में सफल रहा।

न्याय के क्षेत्र में हेस्टिंग्स ने सुधार किये थे। वह भी मुस्लिम फौजदारी कानून के स्थान पर ब्रिटिश कानून लाने का पक्षधर था। कॉर्नवालिस का सबसे महत्वपूर्ण कार्य राजस्व तथा दीवानी का पृथक्करण था। किंतु राजस्व विभाग को दीवानी अधिकारों से पृथक् करने का कार्य हेस्टिंग्स ने ही आरंभ किया था, जिसे कॉर्नवालिस ने पूरा किया। हेस्टिंग्स राजस्व-निर्धारण और संग्रह की समस्या के लिए भी व्यवस्था कर रहा था। कॉर्नवालिस का स्थायी बन्दोबस्त का प्रमुख कारण संचालकों का आदेश था। इस प्रकार आदेश मिलने पर हेस्टिंग्स भी स्थायी बंदोबस्त कर सकता था।

कॉर्नवालिस के शासनकाल की संचालकों तथा ब्रिटिश मंत्रिमंडल ने प्रशसा की। कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने उसका आभार प्रकट करते हुए उसे 20 वर्ष के लिए 25.000 पौंड की वार्षिक पेंशन प्रदान की थी। पश्चिमोत्तर भारत यात्रा के दौरान 5 अक्टूबर, 1805 को गाजीपुर में उसकी मृत्यु हो गई।

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