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जर्मनी में नाजीवाद
बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में जर्मनी एक ताकतवर साम्राज्य था। उसने आस्ट्रियाई साम्राज्य के साथ मिलकर मित्रराष्ट्रों (इंग्लैंड, फ्रांस और रूस) के विरूद्ध पहला विश्वयुद्ध (1914-1918) लड़ा। जब तक महायुद्ध में जर्मनी का पलड़ा भारी रहा, जर्मन जनता भूलावे में रही, लेकिन 1918 में ज्यों-ज्यों जर्मनी हारता गया, असंतोष बढ़ता गया। नवंबर में जर्मनी की पराजय के बाद हीहेनजॉलर्न वंश का सम्राट कैसर विलियम द्वितीय हालैंड भाग गया और समाजवादियों के प्रभाव में शासकों के प्रति विरोध इतना बढ़ा कि सत्ता उन्हीं के नेता एवर्ट के हाथों में आ गई। 11 नवंबर को इस नई सरकार ने युद्ध-विराम पर हस्ताक्षर कर दिये।
वाइमार गणतंत्र
इस समय जर्मनी का राजनीतिक जीवन असाधारण रूप से उद्वेलित हो चुका था। साम्यवादियों और राजतंत्रवादियों के विरोध के बावजूद जर्मनी में गणतंत्र की स्थापना हुई और 19 जनवरी, 1919 में पहली बार संसद का चुनाव हुआ। किसी दल के बहुमत के अभाव में 6 फरवरी 1919 को वाइमार नगर में इसका प्रथम अधिवेशन हुआ, हर एवर्ट को प्रथम राष्ट्रपति चुना गया और शीडमैन को चांसलर नियुक्त किया गया, जिसे ‘वाइमार गणतंत्र’ की सरकार कहा जाता है।
वाइमार गणतंत्र की सरकार जर्मनी में पूर्ण शांति एवं समृद्धि लाने में असफल रही। लगभग बारह वर्ष तक वाइमार गणराज्य की समाजवादी लोकतंत्रात्मक सरकार प्रयत्नपूर्वक देश की नैतिक, राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं से लड़ती रही। एक ओर जर्मनी के लोग असंगठित थे, निराश थे, कष्टकारी व्यवस्था में थे और खिन्न थे। दूसरी ओर जर्मनी में न तो प्रजातंत्र की परंपरा थी न गणतंत्र की। दलीय व्यवहार की कठिनाइयों से भी जनता सर्वथा अपरिचित थी। अपमान और कुंठा देश की बढ़ती विपन्नता के हल की मानसिकता के मार्ग में अवरोध थे। जीवन के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में नये और हिंसक प्रयोग किये जा रहे थे और ऐतिहासिक भौतिकवादी, असंगत एवं न्याय-विरुद्ध तथा संवेदनात्मक, सभी प्रकार के वादों की मानो जर्मनी में बाढ़ आ गई थी, जिससे सभी क्षेत्रों में नैतिक पतन दृष्टिगोचर होने लगा था। देश में विभिन्न दल, विशेषकर राजतंत्र समर्थक, निरंतर सरकार का तख्ता पलटने का षड्यंत्र करते रहते थे।
लेकिन जर्मन गणतंत्र के सामने सबसे बड़ी समस्या आर्थिक संकट की थी। युद्धकाल में जर्मनी की काफी क्षति हुई थी। युद्ध के बाद उसके बहुत से कल-कारखानें बंद हो गये थे और बेकारी की समस्या बहुत बढ़ गई थी। भयंकर मुद्रा-स्फीति के साथ-साथ उद्योगों में भी व्यापक अराजकता छाई हुई थी। आर्थिक दृष्टि से पंगु जर्मनी पर वर्साय संधि के द्वारा क्षतिपूर्ति की एक बड़ी धनराशि लाद दी गई थी। उसके औद्योगिक नगर छीन लिये गये थे और समस्त जर्मनी का व्यापार चौपट हो गया था। ऐसी स्थिति में सरकार के लिए आवश्यक था कि वह विदेशी कर्ज ले, जनता पर अधिक कर लगाये और अधिक-से-अधिक कागजी नोट छापे। कागजी मुद्रा के अत्यधिक प्रचलन के कारण जर्मनी के सिक्के ‘मार्क’ का अवमूल्यन होता गया और इस सिक्के की बड़ी दुर्दशा हुई। जर्मनी के कागजी नोटों का कोई मूल्य नहीं रह गया था।
इस विकट आर्थिक स्थिति में भी जर्मनी क्षतिपूर्ति की अदायगी करता रहा, लेकिन जब स्थिति एकदम दयनीय हो गई तो उसने मित्रराष्ट्रों से समय की माँग की, किंतु फ्रांस ने समय देने से इनकार कर दिया और जब जर्मनी भुगतान नहीं कर सका तो फ्रांसीसी सेना ने रूर क्षेत्र पर अधिकार कर लिया और वहाँ के जर्मनों पर घोर अत्याचार किया।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में भी जर्मनी के साथ अछूत जैसा व्यवहार हो रहा था। वर्साय संधि के द्वारा उसे घोर अपमान सहने पडे़ थे और उस पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाये गये थे। अंत में, 1925 में लोकार्नो संधि के द्वारा जर्मनी की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति में कुछ सुधार हुआ और उसे राष्ट्रसंघ का सदस्य बना लिया गया। डावोस योजना और यंग योजना से उसकी हालत कुछ संभली, लेकिन जर्मनी की कठिनाइयों का अंत नहीं हुआ।
1929 में पूरे यूरोप में आर्थिक संकट पैदा हो गया। जर्मनी पर इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। लाखों श्रमिक बेकार हो गये और उनकी स्थिति दयनीय हो गई। ऐसी परिस्थिति में जर्मनी क्षतिपूर्ति की वार्षिक किस्त किसी प्रकार भी अदा नहीं कर सकता था। आर्थिक संकट के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका ने भी ऋण देना स्थगित कर दिया। इससे जर्मनी की स्थिति और अधिक बिगड़ गई। इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर एडोल्फ हिटलर का अभ्युदय हुआ और जर्मनी में नाजी क्रांति हो गई।
हिटलर के अभ्युदय और नाजी क्रांति के कारण
वर्साय संधि
हिटलर के उदय का सबसे महत्वपूर्ण कारण वर्साय की संधि थी। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी की स्थिति इतनी दयनीय हो गई कि सारा देश निराश हो गया था। युद्ध में वे पूर्ण उत्साह के साथ शामिल हुए थे और उन्होंने जमकर शत्रु का सामना भी किया था, किंतु अंत में उनकी हार हो गई और उन पर एक कठोर संधि आरोपित कर दी गई। वर्साय की संधि के कारण जर्मनी को तरह-तरह की यातनाएँ भोगनी पड़ी और राष्ट्रीय अपमान सहना पड़ा। जर्मनी की इस निराशापूर्ण स्थिति की झलक इतिहासकार स्पेंग्लर की प्रसिद्ध पुस्तक ‘पश्चिम का पतन’ (डेक्लाइन ऑफ वेस्ट) में मिलती है।
यद्यपि जर्मनी को 1927 में राष्ट्रसंघ की सदस्यता दे दी गई थी और डावेस यंग प्लान के अंतर्गत जर्मनी की क्षतिपूर्ति की राशि भी कम कर दी गई थी। फिर भी, जर्मन युवक अपने राष्ट्रीय संकट से छुटकारा पाने के लिए व्याकुल थे। उन्हें लगता था कि जर्मनी के दुःखों का एकमात्र कारण वर्साय संधि है, जिसके कारण जर्मन राष्ट्र के साथ महान अन्याय किया गया था। जिस प्रकार फ्रांस 1871 की फ्रैंकफर्ट की संधि को लंबे समय तक भूल नहीं सका था, उसी प्रकार जर्मन भी वर्साय संधि की अपमानजनक शर्तों को कभी भूल नहीं पा रहे थे। रूर प्रदेश पर फ्रांस और बेल्जियम का अधिकार उन्हें सदैव अखरता था। केवल जर्मनी के निःशस्त्रीकरण से उनमें क्षोभ था और जर्मनी के युवा अपने पुराने गौरव के लिए बिस्मार्क जैसे वीरों के लिए आहें भर रहे थे। ऐसे समय में जब हिटलर ने ‘वर्साय की संधि का अंत हो’ का नारा दिया और वर्साय की संधि की व्यवस्था को भंग करने की बात की, तो जर्मनी की निराश जनता की सुप्त भावनाएँ प्रज्वलित हो उठीं और जर्मन जनता ने हिटलर के इस नारे को कि, ‘हम पुनः हथियार रखेंगे’ सहर्ष स्वीकार कर लिया। कैटेल्बी के अनुसार ‘नाजियों की योजना मोहक और आकर्षक अवश्य थी, लेकिन यदि उनको ऐसा उन्माद प्रेरित नेता न मिलता जो वर्साय संधि की श्रृंखलाओं को चूर-चूर करके छुटकारा दिलाने का और सभी के लिए काम और भोजन का वचन देकर अपने श्रोतावृंद को मंत्रमुग्ध न कर सकता, तो उन्हें इतनी सफलता न मिली होती।’
जातीय परंपरा
हिटलर के उत्थान का एक दूसरा कारण स्वयं जर्मन जाति की परंपरा थी। जर्मन जनता सदैव अनुशासन और एक वीर नायक का अनुकरण करने के लिए तत्पर रहती थी। जनता ने हिटलर को एक राष्ट्रीय नायक के रूप में देखा और उसे स्वीकार कर लिया। दूसरे, जर्मन जनता में प्रजातांत्रिक भावनाओं का पूर्ण विकास नहीं हुआ था। प्रथम महायुद्ध के बाद जर्मनी में जो वाइमार गणतंत्र स्थापित हुआ, वह इसलिए नहीं कि जर्मन जनता को गणतंत्र में विश्वास था। दरअसल जर्मनी के सभी लोग उस समय सोचते थे कि यदि जर्मनी ने गणतंत्र के सिद्धांत को अपना लिया तो उसे राष्ट्रपति विल्सन की सहानुभूति मिल जायेगी। अतः हिटलर के अधिनायकत्व को स्वीकार करना उसके लिए अस्वाभाविक नहीं था। हिटलर ने जर्मन जनता के सामने कोई नया कार्यक्रम या राजनीतिक दर्शन नही रखा। उसने वही कहा जो हेगल, कांट, फिक्टे, नोवेलिस, फ्रेडरिक, मनवित्स, बिस्मार्क, कैंसर आदि कह चुके थे। सच तो यह कि नाजी विचारधारा संपूर्ण जर्मन विचारधारा की निचोड़ है और इसलिए जर्मन जनता इसको स्वीकार करने के लिए तैयार थी।
आर्थिक संकट
नाजियों के उत्कर्ष का एक महत्वपूर्ण कारण था- जर्मनी का आर्थिक संकट, जो वर्साय संधि के कारण उत्पन्न हुआ था। जर्मनी में आर्थिक सकट सभी स्थानों से अधिक तीव्र था और जर्मन जनता जितनी तबाह थी, उतना शायद किसी अन्य देश की जनता नहीं। इस अस्त-व्यस्त आर्थिक स्थिति में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और गणतंत्र दोनों कमजोर पड़ चुके थे। जनता नई व्यवस्था और नये नेता को आजमाना चाहती थी। जून, 1931 तक जर्मनी के किसान लगभग तीन अरब डालर के ऋण के भार से दब चुके थे। हिटलर जर्मन जनता को बताया कि उनकी इस दुर्दशा का कारण वह सरकार है, जो साम्राज्यवादी देशों के सामने घुटने टेक चुकी है। हिटलर ने जर्मनी के पूँजीपतियों और यहूदियों को भी इसके लिए दोषी ठहराया। मध्यवर्ग में विद्यमान पूँजीपति-विरोधी भावना को हिटलर ने बड़ी चालाकी के साथ उभारा और उनका सहयोग हासिल किया। बड़े पूँजीपति तो समाजवाद से घबड़ाकर उसका समर्थन कर ही रहे थे। इसके अतिरिक्त, 1930 में जर्मनी में लगभग पचास लाख व्यक्ति बेकार हो गये थे, जो सीधे हिटलर का अनुयायी होना पसंद करते थे। उसी वर्ष नाजी पार्टी की सदस्य संख्या में असाधारण वृद्धि हुई। इस प्रकार यदि आर्थिक संकट नहीं आया होता, तो शायद नाजियों को इतनी बड़ी सफलता नहीं मिलती।
यहूदी-विरोधी भावना
जर्मनी के मध्यमवर्ग और बेरोजगार लोग यहूदी-विरोधी थे क्योंकि उन्हें लगता था कि जर्मनी की पराजय यहूदियों के कारण ही हुई है। महायुद्ध के समय जर्मनी के बड़े-बड़े कल-कारखाने यहूदियों के हाथ में थे। बड़े-बड़े पूँजीपति भी यहूदी ही थे। राज्य पर भी उनका प्रभाव कम नहीं था। साधारण जर्मन जनता उन्हें शोषक मानकर उनसे घृणा करती थी। हिटलर ने जनता की इस यहूदी-विरोधी भावना का लाभ उठाया। उसने कहा कि जर्मनी के आर्थिक सकट का मूल कारण यहूदी ही हैं, इन यहूदियों को देश से निकाल देना चाहिए ताकि जर्मन लोग अपने देश में समुचित आर्थिक स्थान प्राप्त कर सकें।
साम्यवाद का विरोध
हिटलर ने पूँजीपतियों के विरूद्ध साधारण जनता की भावनाओं को उभारा। उनका वोट उसके लिए सुरक्षित था, किंतु चुनाव में विजय के लिए पूँजीपतियों के समर्थन की भी आवश्यकता थी। साम्यवाद के विरूद्ध उनकी भावना को उभार कर वह आसानी से उनका समर्थन प्राप्त कर सकता था। इसीलिए नाजियों की सफलता का एक कारण जर्मनी में साम्यवाद का बढ़ता हुआ खतरा बताया जाता है। रूस में साम्यवाद की जो लहर उठी थी, उसका प्रभाव जर्मनी पर भी पड़ रहा था और जर्मन साम्यवादी पार्टी दिन-प्रतिदिन विकास कर रही थी। 1930 के चुनाव में 89 साम्यवादी जर्मन संसद में निर्वाचित हुए थे। अगले चुनाव में उनकी संख्या और भी बढ़ गई। हिटलर जानता था कि साम्यवादी पार्टी उसके रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा है, किंतु यह रोडा केवल पूँजीवादियों के समर्थन से भी नहीं हटाया जा सकता था, इसके लिए जनसाधारण का समर्थन भी आवश्यक था।
हिटलर साम्यवाद के संबंध में अनेक प्रकार की बातें करके जर्मन जनता के दिल में डर बैठाये रहता था। वह उनसे कहा करता था कि साम्यवाद का अंतर्राष्ट्रीयता का सिद्धांत जर्मन राष्ट्रीयता के लिए सबसे अधिक खतरनाक है। यदि नाजी पार्टी का अभ्युदय नहीं हुआ, तो साम्यवादियों की शक्ति बढ़ जायेगी, वे राज्य पर कब्जा कर लेंगे और जर्मनी के सारे राष्ट्रीय मनसूबे धूल में मिल जायेंगे। इन बातों का प्रभाव जर्मनी की जनता पर पडा और झूठी राष्ट्रीयता के नाम पर वह नाजी पार्टी का समर्थन करने को तैयार हो गई।
संसदीय परंपरा का अभाव
जर्मन जनता में संसदीय शासन-पद्धति के प्रति घोर असंतोष था। रीहस्टाग में पार्टियों की भरमार हो जाने से संसदीय मामलों में गतिरोध उत्पन्न होने लगा था। रीहस्टाग व्यर्थ बकवास, विलंब, राजनीतिक झगड़ों और षडयंत्रों का अखाड़ा बन गया था। जनतांत्रिक व्यवस्था में जब लोगों का विश्वास घट जाता है तो तानाशाही के लिए रास्ता साफ हो जाता है। जर्मनी के साथ भी यही हुआ। उस समय तक इटली में फासिज्म का पूर्ण विकास हो चुका था और फासिस्ट नेता मुसोलिनी के नेतृत्व में इटली तेजी के साथ प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहा था। कहा गया था कि जैसे इटली में फासिज्म की विजय हुई है, वैसे ही जर्मनी में नाजीवाद की विजय होगी और वही जनता को तरक्की के रास्ते पर ले जायेगी। जर्मनी की जनता भी चाहती थी कि उनके सामने कोई एक कर्मठ व्यक्ति आये जो संसदीय गतिरोधों का अंत कर सुव्यवस्था कायम करे और जर्मनी की खोई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करे। नाजी पार्टी इस तरह की व्यवस्था कायम करने का कार्यक्रम रखती थी और हिटलर के व्यक्तित्व में मुसोलिनी की तरह वह एक नेता देने के लिए भी तैयार थी।
जर्मन प्रवृत्ति
नाजी लोग जर्मन जाति की मानसिक प्रवृत्ति से सुपरिचित थे। वे जानते थे कि जर्मन लोग स्वभाव से वीर होते हैं और सैनिक जीवन में उनकी अत्यधिक रूचि होती है। किंतु वर्साय संधि के द्वारा उनकी इस रूचि पर नियंत्रण लगा दिया गया था। इस संधि के द्वारा जर्मनी की सैन्य-संख्या बहुत कम कर दी गई थी, जिससे जर्मनी के असंख्य युवक बेकार हो गये थे। आर्थिक संकट के कारण किसी अन्य पेशे से भी गुजर-बसर करने की उम्मीद नहीं थी। वे अपने स्वभाव और परिस्थिति से विवश होकर सैनिक बनने के लिए उत्सुक थे। नाजी पार्टी ने जर्मन युवकों की इस इच्छा की पूर्ति के लिए एक स्वयंसेवक सेना का संगठन किया। इस सेना में दो तरह के सैनिक थे। एक आतंककारी दल के सैनिक भूरे रंग की कमीज पहनते थे और उनकी बाँह पर लाल पट्टी रहता था, जिस पर स्वस्तिक का चिन्ह रहता था। इसको एम. ए. यानी ‘तूफानी दस्ता’ कहा जाता था। इसका काम प्रचार के लिए प्रदर्शन करना, नाजी पार्टी की सभाओं की रक्षा करना और विरोधी पार्टी भी सभाओं को बलपूर्वक भंग करना था।
इसी प्रकार नाजी दल का दूसरा सैनिक दस्ता भी था जिसे रक्षक दल (एस.एस.) कहा जाता था। इसके सदस्य ‘खोपड़ी’ के चिह्न वाली काले रंग की कमीज पहनते थे। इनका काम पार्टी के नेताओं की रक्षा करना और दलीय नेताओं द्वारा सौंपे गये विशिष्ट कार्यों को पूरा करना था। जर्मन लोग बड़े उत्साह के साथ इस सेना में भरती हुए। उन्हें यह अनुभव हुआ कि नाजी पार्टी के उत्कर्ष से उन्हें फिर से सैनिक जीवन प्राप्त करने का अवसर मिलेगा। इस सेना से नाजियों को सत्ता प्राप्त करने और अपने शत्रुओं का दमन करने में बड़ी सहायता मिली।
हिटलर का व्यक्तित्व
हिटलर की सफलता का प्रमुख कारण स्वयं हिटलर का प्रभावशाली व्यक्तित्व था। हिटलर निःसंदेह एक अच्छा वक्ता था और अपने भाषणों में जर्मन जनता की भावनाओं को भाँपकर अपने उद्देश्यों और विचारों को प्रस्तुत करता था। वह बड़ी-बड़ी भीड़ को अपने भाषण के जादू से मुग्ध करने में माहिर था। उसमें एक मनोवैज्ञानिक, कुशल नेता, उत्तम अभिनेता एवं प्रवीण संगठनकर्ता के गुण विद्यमान थे। दूसरे शब्दों में, फ्यूरर (नेता) बनने के सभी गुण उसमें मौजूद थे। वह अपने कार्यों को बड़े संगठित तरीके से करता था।
आधुनिक युग की राजनीति में प्रचार का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रचार वह शक्ति है, जो सभी चीजों को, यहाँ तक कि आत्महत्या को भी लोकप्रिय बना सकती है और हिटलर का प्रचार-कार्य अपने-आप में आकर्षक एवं अद्भुत था। सौभाग्य से उसको डॉ. गोयबल्स जैसा एक ऐसा प्रचारमंत्री मिल गया था, जो प्रचार-कार्यों में निपुण था। उसका विचार था, ‘झूठी बात को इतना दोहराओ कि वह सत्य का रूप धारण कर ले।’ हिटलर ने चिल्ला-चिल्लाकर लोकतंत्र का जनाजा निकाल दिया। उसने कहा, ‘प्रजातंत्र पागलों, डरपोकों और भूखे लोगों की व्यवस्था है।’ इस प्रकार कैटलबी के शब्दों में ‘जर्मनी के वृद्ध वर्ग ने बड़ी असमंजस में, युवा वर्ग ने उत्साह से उसे अपना नेता इस प्रकार स्वीकार किया कि वे उसकी अनर्गल बातों का शिकार हो गये।’ इस प्रकार भाषण, विज्ञापन, गीत, वर्दियाँ, आयोजन, अनुशासन, ऐतिहासिक परंपराएँ, जातीय अभिमान के सिद्धांत, उत्साह और हिटलर का व्यक्तित्व आदि ने लाखों जर्मनवासियों को नाजियों का अंधभक्त बना दिया।
एडोल्फ हिटलर
एडोल्फ हिटलर का जन्म 20 अप्रैल, 1889 ई. को आस्ट्रिया और बवेरिया की सीमा पर स्थित ब्रूनो नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था। उसका पिता एलोइस हिटलर आस्ट्रियन साम्राज्य की सेवा में सीमा-शुल्क निरीक्षक था। एलोइस अपने पुत्र को उच्च शिक्षा दिलाकर आस्ट्रियन साम्राज्य की सरकारी सेवा में अधिकारी बनाना चाहता था, किंतु एडोल्फ हिटलर की इच्छा चित्रकार बनने की थी। 1903 में हिटलर के पिता की मृत्यु हो गई, लेकिन अत्यंत निर्धनता के बावजूद उसने दो वर्ष तक अध्ययन कर उच्च माध्यमिक शिक्षा हासिल की।
हिटलर 1907 में ललितकला अकादमी में प्रवेश लेने वियेना गया, किंतु विश्वविद्यालय की प्रवेश-परीक्षा में असफलता के कारण उसका प्रवेश नहीं हो सका। उसके मित्र और सहयोगी मंत्री अल्बर्ट स्पीअर ने लिखा है कि प्रवेश न पाने का उसके जीवन पर बहुत गहरा असर पड़ा। उसे न परिवार से कुछ मिला, न समाज से। उसने अपना पारिवारिक नाम बदलकर हिटलर रख लिया। 1908 से 1912 की अवधि में हिटलर ने मजदूरी करके और लोगों के घरों में चित्रकारी करके जीवन-यापन किया। इस काल में उसने आस्ट्रिया तथा जर्मनी से संबंधित राजनीतिक एवं सामाजिक समस्याओं का अध्ययन और मनन किया। इसी समय से वह जर्मन राष्ट्रीयता का कट्टर समर्थक बन गया और यहूदियों एवं साम्यवादियों से घृणा करने लगा।
हिटलर 1912 के अंत में वियेना से म्यूनिख आ गया। जब 1914 में विश्वयुद्ध शुरू हुआ, तो वह बवेरिया की सेना में भरती हो गया। भरती के बाद उसने अग्रिम मोर्चे पर संदेशवाहक का काम किया, कॉर्पोरल बना और बहादुरी के लिए 1918 में ‘आयरन क्रॉस’ की पदवी भी हासिल की। युद्ध के मैदान में घायल होने के कारण वह पामरेनिया के पसवॉक सैनिक अस्पताल में भर्ती हो गया। हिटलर का विश्वास था कि युद्ध में जीत जर्मनी की ही होगी क्योंकि जर्मन सेना पराजित नहीं की जा सकती है, किंतु उसकी यह आशा निराशा में बदल गई और जर्मनी को पराजित होना पड़ा। उसने जर्मनी की पराजय के लिए समाजवादियों, साम्यवादियों और यहूदियों को दोषी ठहराया। वर्साय की संधि ने आग में घी का काम किया। उसने वर्साय की संधि को जर्मनी के लिए कलंक बताया और वर्साय संधि पर हस्ताक्षर करनेवाली गणतंत्रीय सरकार का अंत करने का बीड़ा उठाया।
नाजीदल की स्थापना
सैनिक अस्पताल से मुक्ति मिलते ही हिटलर म्यूनिख आ गया और गुप्तचर विभाग में भरती हो गया। उसका मुख्य कार्य विभिन्न राजनीतिक दलों की गतिविधियों की सूचना अपने उच्चाधिकारियों तक पहुँचाना एवं समाजवादी विचारों के प्रचार को रोकना था। 1919 में हिटलर ‘जर्मन श्रमिक दल’ नामक एक एक छोटे-से दल का सदस्य बन गया, जो गणतंत्रीय सरकार की नीतियों का विरोध करता था। इसकी बैठकें म्यूनिख के एक शराबखाने के कमरे में हुआ करती थीं। इस दल की स्थापना 1918 में एंटन ड्रेक्सलर ने की थी।
हिटलर ने अप्रैल, 1920 में म्यूनिख में फेडेर जैसे साथियों के साथ मिलकर जर्मन वर्कर्स पार्टी का नाम बदलकर ‘राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन श्रमिक संघ’ या नाजी दल कर दिया। राष्ट्रीय समाजवादल का आदर्श देश में मौलिक सुधार करना और उत्कृष्ट राष्ट्रवाद था। हिटलर ने श्रमिक दल के संस्थापक ड्रेकसटर को पार्टी से अलग कर दिया और नाजी दल की शक्ति बढ़ाने के लिए एक 25 सूत्रीय कार्यक्रम की घोषणा की, जिसमें मुख्यतया निम्न माँगें सम्मिलित थीं- 1. वर्साय और सेंट जर्मेन की संधियों की निंदा करके उसको रद्द करना, 2. समस्त जर्मन भाषा-भाषियों को एक सूत्र में बाँधकर एक विशाल जर्मन राज्य की स्थापना, 3. जो प्रांत जर्मनी से छीन लिए गये हैं, उसे पुनः प्राप्त करना, 4. जर्मनी की सैन्य-शक्ति का विस्तार करना, 5. विदेशी हस्तक्षेप से जर्मनी की सुरक्षा करना, 6. यहूदियों, कम्युनिस्टों तथा समाजवादियों का सर्वनाश करना, 7. जर्मन लोगों की बढ़ती हुई आबादी के लिए नये उपनिवेश प्रापत करना, 8. पेशेवर सेना के स्थान पर राष्ट्रीय सेना का गठन करना, 9. शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता की स्थापना करना, किंतु हिटलर के कार्यक्रमों का सबसे अधिक महत्व यहूदियों का विरोध और उन्हें नष्ट करना था। यहूदी लोग विदेशी हैं और उनके कारण जर्मनी को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। इसलिए उन्हें न केवल जर्मनी की नागरिकता से ही वंचित किया जाए, बल्कि उन्हें देश से बाहर निकाल दिया जाए।
वाइमार सरकार के विरूद्ध विद्रोह
1923 में जैसे ही हिटलर की राष्ट्रीय समाजवादी दल की संख्या बढ़ी, वैसे ही 8 नवंबर, 1923 ई. को लूडेनडार्फ के साथ दूस्साहसपूर्ण ढंग से तत्कालीन गणतंत्रीय सरकार को उखाड़ फेंकने और जर्मनी की सत्ता पर अधिकार करने का प्रयत्न किया, किंतु उसका प्रयत्न असफल हो गया और उसे 11 नवंबर, 1923 को बंदी बना लिया गया। हिटलर के ऊपर मुकदमा चलाया गया और उसे 5 वर्ष के कारावास की सजा मिली। इस मुकदमे की कार्यवाही को जर्मनी के सभी प्रमुख समाचार-पत्रों ने प्रकाशित किया, जिससे जर्मनी की जनता हिटलर के नाम से परिचित हो गई। हिटलर के इस प्रयास को ‘मदिरालय का विप्लव’ कहा जाता है।
‘मीन कॉम्फ’ की रचना
यद्यपि हिटलर को पाँच वर्ष की जेल हुई थी, किंतु अपने अच्छे चाल-चलन के कारण उसे 1924 के अंत में ही जेल से छोड़ दिया गया। अपनी जेल-यात्रा के दौरान उसने अपनी विश्व-प्रसिद्ध आत्मकथा ‘मीन कॉम्फ’ (मेरा संघर्ष) लिखी, जो बाद में नाजी पार्टी की बाईबिल बन गई। इस पुस्तक में संपूर्ण जर्मन जाति को एक सूत्र में बाँधकर एक विशाल जर्मन साम्राज्य की स्थापना करने का विचार प्रकट किया गया था, किंतु यह पुस्तक घृणा की भावना से ओतप्रोत थी और बड़े कठोर शब्दों में जर्मनी के दुश्मनों-फ्रांस, सोवियत संघ, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया आदि को रेखांकित करती थी। इस पुस्तक का पहला भाग 1925 ई. में और दूसरा भाग 1927 ई. में प्रकाशित हुआ।
मीन कॉम्फ के प्रकाशन के बाद यह स्पष्ट हो गया था कि यदि हिटलर जर्मनी में सत्तारूढ़ हुआ तो युद्धोत्तर काल की सारी व्यवस्थाएँ चौपट हो जायेंगी और जर्मनी पुनः विश्व-शांति के लिए खतरा बन जायेगा। लेकिन उस समय किसी को यह विश्वास ही नहीं होता था कि हिटलर कभी जर्मनी में सत्तारूढ़ हो सकेगा।
नाजीदल की प्रगति
जेल से रिहा होने के बाद हिटलर ने अपने दल को नये सिरे से संगठित किया। उसने ऐसे सभी लोगों को, जो उसके नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे, पार्टी से निष्कासित कर दिया। फरवरी, 1925 में आर्यों की पवित्रता के सूचक ‘स्वास्तिक’ को प्रतीक रूप में ग्रहण कर सैनिक ढंग से पार्टी संगठित की गई और पूरे देश में इसकी शाखाएँ स्थापित की गईं। नाजी पार्टी के कार्यों की सुगमता के लिए 1925 में स्वयंसेवक सेना स्थापित की गई, जिससे पार्टी के सदस्यों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी। 1925 में इसके 2700 सदस्य थे, 1929 में यह सदस्य संख्या बढ़कर 1,78,000 हो गई। समाज के विभिन्न वर्गों तक अपने संदेशों को पहुँचाने के लिए ‘हिटलर यूथ सोसायटी’ जैसी संस्थाएँ स्थापित की गईं।
हिटलर ने नाजीदल को प्रभावशाली बनाने के लिए जगह-जगह जनसभाओं का आयोजन किया और अपने जादुई भाषणों से जनता को प्रभावित करने का प्रयास किया। हिटलर की अद्भुत वाक्शक्ति का ऐसा असर हुआ कि असंतुष्ट वर्ग को हिटलर के राष्ट्रवादी समाजवाद में आशा की किरण दिखाई देने लगी। उसके विरोधी पार्टी से बाहर कर दिये गये और वह पार्टी में अपनी सत्ता और जर्मनी में पार्टी की सत्ता के लिए व्ययस्त हो गया। पवित्र रोमन साम्राज्य और बिस्मार्क द्वारा स्थापित सम्राज्य के गौरवशाली उत्तराधिकांरी साम्राज्य की स्थापना ही उसका लक्ष्य हो गया। यद्यपि हिटलर मजदूरों को बहकाने में सफल नहीं हुआ, लेकिन युवा वर्ग, जिसका भविष्य अनिश्चित था, उसके पीछे पागल था। उसके यहूदी-विरांधी रूख ने शिक्षा, व्यवसाय और अन्य पेशों में नई संभावना जगा दी। मध्यमवर्ग, साम्यवाद के व्यक्तिगत संपत्ति विरोधी सिद्धांत से घबड़ाकर उसके पीछे चला गया। जर्मन पार्लियामेंट में भी उसके दल का महत्व बढ़ने लगा था। जहाँ 1926 में नाजीदल के सदस्यों की संख्या मात्र 17 हजार थी, वहीं 1928 में यह संख्या बढ़कर 60 हजार तक पहुँच गई।
नाजीदल के प्रभाव में वृद्धि
अक्टूबर, 1929 में प्रगति और शांति के प्रतीक स्ट्रेसमान की मृत्यु हो गई और जब ‘यंग योजना’ लागू करने की बात चली तो नात्सी पार्टी कों अपना प्रभाव बढ़ाने का अवसर मिल गया। अगस्त, 1928 में वाइमार सरकार ने ‘यंग योजना’ को स्वीकार कर लिया। जर्मनी के दक्षिणपंथी तथा कट्टर राष्ट्रवादी दलों ने यंग योजना का घोर विरोध किया। जर्मन नेशनल पार्टी के नेता एवं कट्टर राष्ट्रवादी एल्फ्रेड ह्यगेनबर्ग ने यंग-योजना विरोधी आंदोलन चलाया और अपने इस आंदोलन के लिए अधिक से अधिक जन-समर्थन जुटाने के लिए हिटलर का भी सहयोग लिया। इससे हिटलर का बड़ा लाभ हुआ। हिटलर और अन्य नाज़ी नेताओं के भाषणों को ह्यगेनबर्ग द्वारा संचालित समाचार-पत्रों में मुख-पृष्ठ पर छापा जाने लगा, जिससे हिटलर पूरे जर्मनी में एक राष्ट्रीय नेता के रूप में प्रसिद्ध हो गया। इसके अतिरिक्त, ह्यगेनबर्ग के आंदोलन में सम्मिलित होने से हिटलर जर्मनी के कुछ प्रमुख उद्योगपतियों के संपर्क में आया और उन्हें अपने कार्यक्रम की ओर आकर्षित करने में सफल हुआ। यंग योजना पर जनमत लिया गया और अंततः रीहस्टाग ने 224 के विरूद्ध 226 वोट से यग-योजना का समर्थन किया। योजना के पक्ष में मात्र दो ही वोट अधिक मिले थे जो नाजियों के बढ़ते हुए प्रभाव का सूचक था।
हिटलर का उत्थान और सत्ता-प्राप्ति
हिटलर ने विपत्ति और असंतोष के प्रत्येक कारण से भरपूर लाभ उठाया। 1929-30 की आर्थिक मंदी हिटलर और नाजी दल के लिए वरदान बनकर आई। इस आर्थिक मंदी के कारण लगभग पचास लाख मजदूर बेरोजगार हो गये और मध्यम वर्ग तथा निम्न वर्ग की स्थिति दयनीय हो गई। इस स्थिति में हिटलर ने जर्मन लोगों को यह समझाने का प्रयास किया कि उनकी सारी कठिनाइयों का कारण गणतंत्रीय सरकार है। उसने जर्मन-जनता से पुरजोर अपील की कि इस आर्थिक संकट से मुक्ति पाने और राष्ट्रीय गौरव में वृद्धि के लिए वह नाजी दल का समर्थन करे। हिटलर के भाषणों का जर्मन जनता पर गहरा प्रभाव पड़ा, जिसके कारण 1930 के संसद (रीहस्टाग) के चुनाव में नाजी दल को 64 लाख 1 हजार मत और 197 स्थान मिले। एक नई पार्टी के लिए यह बहुत बड़ी बात थी।
राजनीतिक अस्थिरता के कारण 1932 के राष्ट्रपति चुनाव को टालने की कोशिश की गई, लेकिन हिटलर ने इसका विरोध किया। अंततः मार्च, 1932 में जर्मनी में राष्ट्रपति के लिए चुनाव हुए। राष्ट्रपति पद के लिए हिटलर भी उम्मीदवार था और उसे हिंडेनबर्ग के 1,86,50,730 मत के मुकाबले 1,13,39,285 मत मिले। न मिलने के कारण 10 अप्रैल, 1932 को फिर मतदान कराया गया। इस चुनाव में हिंडेनबर्ग को 1,93,59,635 मत (53.5 प्रतिशत) और हिटलर को 1,34,18,051 मत (36.8 प्रतिशत) प्राप्त हुए। यद्यपि हिटलर चुनाव हार गया, लेकिन हिंडेनबर्ग जैसे प्रतिष्ठित और बुजुर्ग मार्शल के मुकाबले 36.8 प्रतिशत मत प्राप्त करना निःसंदेह हिटलर और नाजी पार्टी की एक आशातीत उपलब्धि थी।
राष्ट्रपति के चुनाव के बाद प्रधानमंत्री ब्रूनिंग ने मई, 1932 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया। पापेन ने दक्षिणपंथी सरकार बनाई और जुलाई, 1932 में संसद (रीहस्टाग) के लिए चुनाव करवाया, जिसमें नाजीदल को सर्वाधिक 230 सीटें मिलीं। इतनी सीटें किसी दल को नहीं मिली थीं, इसलिए सबसे बड़े दल के नेता के रूप में हिटलर ने मंत्रिमंडल बनाने की माँग की, किंतु राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग ने उसकी माँग को अस्वीकार कर दिया। फलतः पापेन ने पुनः अल्पमत सरकार का गठन किया। उसने हिटलर को मंत्रिमंडल में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया, जिसे हिटलर ने ठुकरा दिया। पापेन अध्यादेशों के सहारे कब तक शासन करता? कुछ समय बाद उसने राष्ट्रपति की अनुमति से संसद को भंग कर दिया।
वास्तव में इस समय हिटलर का सितारा बुलंद था। नवंबर, 1932 में संसद का पुनः चुनाव हुआ, जिसमें नाजी दल को सर्वाधिक 196 सीटें मिलीं। चुनाव के तत्काल बाद पापेन ने त्यागपत्र दे दिया। राजनीति का घ्रुवीकरण प्रारंभ हो गया था क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी को भी सौ सीटें मिली थीं। कोई दूसरा रास्ता न देखकर हिंडेनबर्ग ने हिटलर के समक्ष मिलीजुली सरकार बनाने का प्रस्ताव रखा, लेकिन हिटलर ने इस प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया क्योंकि वह सहयोग के विषय में आश्वस्त नहीं था। 2 दिसंबर, 1932 को हिंडेनबर्ग ने श्लीचर को प्रधानमंत्री नियुक्त किया, परंतु श्लीचर ने 8 सप्ताह बाद ही त्याग-पत्र दे दिया। इस बीच 4 जनवरी, 1933 को हिटलर ने जर्मनी के पूर्व प्रधानमंत्री पापेन के साथ प्रधानमंत्री श्लीचर को अपदस्थ करके सत्ता अपने हाथ में लेने के लिए एक समझौता कर लिया। पापेन ने राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग को समझाया कि जर्मनी को समाजवाद से खतरा है और इस बोल्शेविक खतरे से जर्मनी को केवल हिटलर ही बचा सकता है। बूढ़े राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग ने भयभीत होकर 30 जनवरी, 1933 को हिटलर को जर्मनी का चांसलर (प्रधानमंत्री) बना दिया। हिटलर ने रेडियो से जर्मन जनता को सूचित किया कि राष्ट्रीय अपमान के दिन अब समाप्त हो चुके हैं। उसके लाखों समर्थकों ने अभूतपूर्व प्रदर्शन किया, जिसके अनुशासन और साज-सज्जा से बर्लिनवासी स्तब्ध रह गये। अब ‘अस्वीकार, वसूली, और पुनरूद्धार’ के नारों के साथ नाजियों का फ्यूरर हिटलर जर्मनी का सर्वेसर्वा था।
हिटलर द्वारा सत्ता का सुदृढ़ीकरण
जर्मन गणतंत्र का विनाश
हिटलर जर्मनी का चांसलर (प्रधानमंत्री) तो बन गया, लेकिन वह चांसलर पद से ही संतुष्ट होने वाला नहीं था। लोकसभा (रीहस्टाग) में उसके दल का बहुमत नहीं था। अतः चांसलर बनते ही हिटलर ने लोकसभा को भंग कर दिया और 5 मार्च, 1933 को नये चुनाव कराने की घोषणा कर दी। लेकिन यह निश्चित नहीं था कि चुनाव में हिटलर को पूर्ण बहुमत मिल ही जायेगा। इसलिए चुनाव में बहुमत पाने के लिए हिटलर ने अनैतिक साधनों का सहारा लिया और एक षड्यंत्र के तहत 27 फरवरी, 1933 को लोकसभा के एक भवन में आग लगवा दिया। हिटलर ने इस घटना के लिए साम्यवादियों को दोषी ठहराया। 28 फरवरी, 1933 को एक आदेश जारी कर वाइमार संविधान द्वारा प्रदत्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकारों को स्थगित कर दिया गया अर्थात् भाषण, लेखन, मुद्रण एवं सभा आयोजित करने की स्वतंत्रता समाप्त कर दी गई। अग्निकांड की आड़ में कम्युनिस्टों और उनसे सहानुभूति रखनेवालों की बड़े पैमाने पर धर-पकड़ की गई और उनके साथ-साथ यहूदियों तथा सोशल डेमोक्रेटों को भी बहिष्कृत करके कम्युनिस्टों के साथ नजरबंद कर दिया गया। कम्युनिस्ट पार्टी को गैर-कानूनी घोषित करके उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी को अपने समाचार-पत्रों के प्रकाशन और चुनाव-प्रचार को बंद करने का आदेश दिया गया।
इसी पृष्ठभूमि में 5 मार्च, 1933 को आम चुनाव हुए, जिसमें नाजीदल और उसके सहयोगियों को लोकसभा में बहुमत तो मिल गया, लेकिन दो-तिहाई बहुमत नहीं मिल सका। हिटलर लोकसभा में नाजीदल का निरंकुश शासन स्थापित करना चाहता था, जिसका अर्थ था संविधान में संशोधन, और इसके लिए दो-तिहाई बहुमत का होना आवश्यक था। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हिटलर ने लोकसभा के 81 निर्वाचित कम्युनिस्ट सदस्यों को अयोग्य घोषित कर दिया।
23 मार्च, 1933 को लोकसभा का अधिवेशन शुरू हुआ, जिसमें हिटलर ने स्वयं उपस्थित होकर चार वर्ष के लिए लोकसभा की समस्त शक्तियाँ अपने लिए माँगीं। अप्रैल, 1933 में संसद ने ‘एनेबलिंग एक्ट’ पारित करके लोकसभा की समस्त शक्तियाँ चार वर्ष के लिए हिटलर को सौंप दिया। इस प्रकार हिटलर को लोकसभा की स्वीकृति के बिना चार वर्ष तक सभी प्रकार के कानून बनाने का अधिकार मिल गया। जर्मनी का नया नाम ‘तृतीय साम्राज्य’ रखा गया और गणतंत्र के राष्ट्रीय झंडे को हटाकर उसकी जगह पुराने जर्मन साम्राज्य के झंडे और नाजीदल के स्वास्तिक चिन्ह को उस पर प्रतिष्ठित किया गया। इस प्रकार जर्मनी में गणतंत्र का एक और प्रयोग असफल हो गया।
हिटलर अभी भी संतुष्ट नहीं था। 14 जुलाई, 1933 को नाजी दल के अतिरिक्त अन्य सभी दल अवैध घोषित कर दिये गये और पुलिस के स्थान पर नाजी सुरक्षा दल के सैनिक तैनात किये गये। 30 जून, 1934 को हिटलर ने अपने विरोधियों की हत्या करवाई, पूर्व प्रधानमंत्री श्लीचर जैसे लोग गोली से उड़ा दिये गये और पापेन देश छोड़कर भाग गया। 2 अगस्त, 1934 को राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग की मृत्यु हो गई और 14 अगस्त को एक जनमत-संग्रह द्वारा राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पद एक कर दिये गये। अब नाजी हिटलर जर्मनी का चांसलर और राष्ट्रपति दोनों था। इस प्रकार हिटलर जर्मनी का भाग्य-विधाता, सर्वेसर्वा और कानूनों का निर्माता बन गया। दूसरे शब्दों में, नाजीदल राष्ट्र का और हिटलर नाजीदल का प्रतीक बन गया।
हिटलर की गृह-नीति
हिटलर ने 1933 ई. से लेकर अपने शासन के अंतिम समय तक आतंक और हिंसा का सहारा लिया। उसने अधिनायकवादी भ्रांत अपीलों, सैन्य-प्रदर्शनों, झूठे वादों और छलपूर्ण उपायों से उसने अपने-आपको बनाये रखा। हिटलर ने अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए गृह-नीति के अंतर्गत निम्नलिखित कार्य किया-
अधिनायकतंत्र की स्थापना
सत्तारूढ़ होते ही हिटलर ने जर्मनी की व्यवस्था को बदलना शुरू कर दिया। वह ‘फ्यूरर’ कहलाना पसंद करता था। उसने शासन की समस्त शक्तियों को अपने हाथों में केंद्रित कर लिया और सभी विरोधियों का दमन कर जर्मनी का नाजीकरण करना आरंभ किया। सभी राजनीतिक दल समाप्त कर दिये गये, नाजीदल को जर्मनी का एकमात्र राजनीतिक दल घोषित किया गया और नौकरी करने के लिए नाजी पार्टी की सदस्यता अनिवार्य कर दी गई। हिटलर कह़ा करता था कि, ‘राष्ट्रीय समाजवादी पार्टी ही राज्य है।’
हरमन गोयरिंग को गृहमंत्री बनाया गया और पुलिस विभाग में बड़े पैमाने पर नाजियों की भरती की गई। जोसेफ गोयबल्स को प्रचारमंत्री बनाकर नाजीदल के सिद्धांतों का व्यापक प्रचार किया गया और कस्बों तथा गाँवों के निकायों की अध्यक्षता हिटलर में केंद्रित कर दी गई। अब जर्मनी में एक पार्टी और उसके एक नेता का एकतंत्र स्वेच्छाचारी शासन स्थापित हो गया था। कहने को तो केंद्रीय लोकसभा अब भी थी, लेकिन उसके सभी सदस्य नाजीदल के सदस्य थे। लोकसभा के अधिवंशन अब भी नियमपूर्वक होते रहते थे, लेकिन सदस्यों का कार्य केवल अपने नेता का भाषण सुनना और सरकार की ओर से प्रस्तुत प्रस्तावों को पास करके उन्हें कानून का रूप देना था।
प्रत्येक प्रकार की नागरिक स्वतंत्रता का हरण कर लिया गया, प्रेस, रेडियो, सिनेमा, स्कूलों, विश्वविद्यालयों आदि की स्वतंत्रता नष्ट कर दी गई और विचारों की अभिव्यक्ति तथा सभी सामाजिक, आर्थिक कार्यों पर सरकारी नियंत्रण लगा दिया गया। मजदूरों की यूनियनें समाप्त कर दी गईं, उनकी संपत्तियाँ जब्त कर ली गईं और सभी मजदूरों के लिए एक यूनियन बनाया गया, जिसका अध्यक्ष एक कठोर नाजी नेता था।
हिटलर ने गुप्तचर पुलिस, जिसे ‘गेस्टापो’ कहते थे, का संगठन किया और उसकी शाखाएँ सारे देश में स्थापित की गईं। इस गुप्तचर पुलिस का अध्यक्ष हेनरिश हिमलर था, जो नृशंस नाजी और पत्थरदिल इंसान था। जर्मनी के प्रत्येक नगर, कस्बे, और गाँवों में गेस्टापो का जाल बिछा दिया गया। इस गुप्तचर पुलिस का संगठन इतना सशक्त और सक्रिय रहता था कि हिटलर को छोटी से छोटी घटना की भी सूचना समय से पहले मिल जाती थी। गेस्टापो का जर्मनी में इतना आतंक था कि लोग इसके नाम से ही काँप उठते थे।
विरोधियों का दमन
हिटलर में अपने विरोध को सहन करने की शक्ति नहीं थी। नागरिकों की स्वतंत्रता का अंत करके और सभी विरोधी राजनीतिक दलों को अवैध घोषित करने के बाद उसने जर्मनी से सभी प्रकार के विरोधी तत्वों का सफाया करने का निश्चय किया ताकि नाजीदल का कहीं से कोई विरोध न हो। उसने अपने विरोधियों को समाप्त करने के लिए एक विशेष प्रकार के कारागार नजरबंद-शिविर (कंसन्ट्रेशन कैम्प) की व्यवस्था की, जहाँ उन्हें कैदकर कठोर यातनाएँ देकर मौत के घाट उतार दिया जाता था। हिटलर की नीतियों का विरोध करने वाले खुलेआम गोलियों से उड़ा दिये जाते थे। हिटलर के एक घनिष्ठतम सहयोगी एवं भूरी कमीज वाले सैन्य-दल के अध्यक्ष अर्न्स्ट रोहम और पूर्व चांसलर जनरल श्लेचर जैसे सैकड़ों लोग हिटलर का विरोध करने के आरोप में गोली से उड़ा दिये गये थे। कहा जाता है कि हिटलर ने अपने विरोधियों का दमन इस तरह किया, जैसे कोई कसाई, कसाईखाने में पशु का वध कर रहा हो।
यहूदियों और रोमन कैथोलिकों का दमन
हिटलर आरंभ से ही यहूदियों से बड़ी घृणा करता था और उनको ‘देशद्रोही’ तथा ‘अनार्य’ मानता था। यही हाल अधिकांश मध्यवर्गीय यूरोपियन लोगों का भी था, जो यहूदियों की सफलता के कारण उनसे द्वेष करते थे। वास्तव में उस समय जर्मनी के लोग यहूदियों को विश्व का दुश्मन मानते थे। हिटलर जर्मन जनता की इस मनोवृत्ति को समझता था। जर्मन जनता के ध्रुवीकरण के लिए यहूदियों की नागरिकता छीन ली गई और उन्हें विश्वविद्यालयों तथा अन्य संस्थाओं से निकाल दिया गया। यहूदियों के व्यवसाय के बहिष्कार को प्रोत्साहित किया गया और उनके विरूद्ध दंगे करवा कर उन्हें आतंकित किया गया। इसका परिणाम हुआ कि बड़ी संख्या में यहूदी जर्मनी छोड़कर भागने लगे, उन्हीं में विश्वविख्यात वैज्ञानिक आइंसटीन भी था। यातना के इस दौर में 70 लाख से अधिक यहूदी गैस की भटिठयों में झोंक दिये गये।
यहूदियों की तरह रोमन कैथोलिकों को भी हिटलर की क्रूरता तथा नृशंसता का शिकार होना पड़ा। इन लोगों ने नाजीवाद और हिटलर की नीतियों के विरूद्ध आंदोलन किया। हिटलर अपने विरोध को सहन नहीं कर सकता था। रोमन कैथोलिक लोग रोम के प्रति श्रद्धा रखते थे, जबकि हिटलर का मानना था कि जर्मनी के निवासी जर्मनी के बाहर की किसी सता के आदेश का पालन न करें। फलतः हिटलर ने बहुत से रोमन कैथोलिकों को बंदी बना लिया और उन्हें जेल बंदकर कठोर यातनाएँ दी गईं।
बेकारी की समस्या
हिटलर ने जर्मनी को एकता के साथ-साथ समृद्धि प्रदान करने का भी वचन किया था। साधारण जनता के लिए समृद्धि का अर्थ मात्र इतना है कि उसे काम मिले और उसकी राजी-रोटी चलती रहे। उस समय जर्मनी में लगभग 60 लाख लोग बेकार थे। बेकारी की समस्या से निपटने के लिए हिटलर ने मई, 1934 ई. में एक नियम बनाकर हड़ताल एवं सामूहिक सौदेबाजी पर प्रतिबंध लगा दिया और अनेक प्रभावशाली मजदूर नेताओं को यातना-शिविरों में भेज दिया। श्रमिकों की समस्याओं के निराकरण के लिए ‘लेबर ट्रस्टी’ नामक संस्था की स्थापना की गई। अब मजदूरों के काम के घंटे, पारिश्रमिक, छुट्टियों की अवधि और सुविधाओं का निर्णय स्वयं नाजी सरकार को करना था। यही नहीं, मजदूरों और मिल-मालिकों के झगड़े का निपटारा भी सरकार द्वारा किये जाने की व्यवस्था की गई।
बेकार मजदूरों की एक मजदूर स्वयंसेवक सेना बनाई गई और उसे ऊसर जमीन को खेती-योग्य बनाने तथा सड़कें आदि बनाने में लगाया गया। इन मजदूर सैनिकों को राज्य की ओर से भोजन-वस्त्र के साथ-साथ कुछ वेतन देने की भी व्यवस्था की गई। मजदूरों के कारखानों में काम करने की अवधि चालीस घंटे प्रति सप्ताह निश्चित कर दी गई, इससे मजदूरों की माँग बढ़ गई और देश में बेकारी की समस्या दूर होने लगी। विवाहित महिलाओं को घर के बाहर काम करने से रोक दिया गया ताकि पुरुषों की बेकारी की समस्या का अंत किया जा सके। युद्ध-संबंधी उद्योग जैसे सेना की वृद्धि, लेबर कैम्प की स्थापना आदि उपायों से तत्काल लगभग 20 लाख बेकारों को रोजगार मिल गया।
आर्थिक नीतियाँ
देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए हिटलर ने मुसोलिनी का अनुकरण किया। नाजी सरकार यह निर्णय स्वयं करती थी कि किस कारखाने में कौन-सी वस्तु तैयार की जाए, उस वस्तु पर उद्योगपति को कितना प्रतिशत मुनाफा लेना है और उस वस्तु का मूल्य कितना रखा जाए।
हिटलर के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप जर्मनी में नये-नये निर्माण-कार्य होने लगे, अस्त्र-शस्त्र, समुदी जहाज और वायुयान तक बनने लगे। गोयरिंग के नेतृत्व में एक चारवर्षीय योजना बनाई गई और जर्मनी को पूरी तरह आत्मनिर्भर बनाने बनाने का संकल्प लिया गया। कच्चे माल की कमी को पूरा करने के लिए कृत्रिम माल तैयार किया जाने लगा। खेती को राज्य के नियंत्रण में ले लिया गया और जो चीजें जर्मनी में उत्पादित नहीं की जा सकती थीं, उन्हें विदेशों को कच्चा माल देकर आयात किया गया। इस प्रकार जर्मनी ने अपने व्यापारिक क्षेत्र का विस्तार किया, लेकिन नियंत्रित अर्थव्यवस्था में आयात-निर्यात इस तरह नियोजित किया गया था कि कुछ दिनों के लिए आर्थिक संकट दूर होता प्रतीत हुआ। यहूदियों से स्पर्धा समाप्त जाने पर क्रुप्स और थाइसन जैसे उद्योगपति परिवारों ने नाजियों का साथ देकर खूब लाभ कमाया।
हिटलर के शासनकाल के पाँचवें वर्ष के सरकारी आंकड़े में बताया गया कि 1933 की अपेक्षा उद्योग द्वारा उत्पादन दुगना हो गया था और जर्मनी यूरोप की सबसे बड़ी औद्योगिक शक्ति बन गया था। किंतु यह सब उथले स्तर पर हुआ था, क्योंकि उसकी नींव कृषि, उद्योग और व्यवसाय की व्यापक और नैसर्गिक प्रगति पर नहीं, बल्कि एक आक्रमक और उग्र नस्लवादी अधिनायक की आवश्यकताओं पर स्थापित थी।
सांस्कृतिक प्रगति
शिक्षा की व्यवस्था पर सरकारी नियंत्रण कायम किया गया और शिक्षण-संस्थाओं का उपयोग समाज को नाजी साँचे में ढ़लने के लिए किया जाने लगा। सभी सरकारी पदों, विद्यालयों, विश्वविद्यालयों आदि से गैर-आर्यन जाति के लोगों को पदच्युत् कर दिया गया। अब इतिहास, दर्शन और कला सबको उग्र राष्ट्रवादी रंग में रंग दिया गया। पाठ्य-विषयों के पाठ्यक्रम नाजी सिद्धांतों के आधार पर बनाये गये और शिक्षा के नाजीकरण द्वारा बच्चों के मस्तिष्क में जर्मन जाति की उत्कृष्टता और अन्य जातियों, विशेषकर यहूदियों की निकृष्टता के भाव भरे जाने लगे। पाठ्य-पुस्तकें नाजी दल के सिद्धांतों और उसकी गाथा से भर दी गईं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर कड़ी नजर रखी गई। नाजी मानते थे कि सच्चा एवं सही इतिहास उसे कहा जायेगा जो कि रक्त एवं भूमि से संबंधित हो। पत्रकारिता, रेडियो, संगीत, फिल्मों, साहित्य एवं कला पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए ‘राइच कल्चर चौंबर’ की स्थापना की गई।
हिटलर की विदेश नीति
हिटलर की विदेश नीति का विस्तृत विवेचन उसकी पुस्तक मीन कॉम्फ (मेरा संघर्ष) में मिलता है। हिटलर की विदेश नीति के मूलतः तीन उद्देश्य थे- वर्साय संधि का अंत, तृतीय जर्मन साम्राज्य के अंतर्गत जर्मन जाति को एक सूत्र में संगठित करना और जर्मन साम्राज्य का विस्तार कर विश्व की महान् शक्ति बनाना। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए यह किसी भी तरीके को अपना सकता था। हिटलर का मानना था कि जर्मनी को धुरी शक्ति बनाने के कार्य के पीछे ईश्वरीय प्रेरणा है और इस कार्य को वही कर सकता है। आरंभ में हिटलर ने बड़ी सावधानी से शांति-समझौतों का नारा देकर यूरोपीय राष्ट्रों को भुलावे में रखा और जब जर्मनी का सैन्यीकरण हो गया तो बल का पूर्ण प्रयोग कर संधि-समझौतों को ताक पर रख दिया।
निःशस्त्रीकरण सम्मेलन तथा राष्ट्रसंघ से अलग
हिटलर का प्रमुख लक्ष्य वर्याय संधि का अंत करना था। सत्तारुढ़ होने के पहले उसने वर्साय संधि की निंदा करके लोकप्रियता हासिल की थी और जर्मन जनता को इस अपमानजनक संधि से छुटकारा दिलाने का वादा किया था।
हिटलर का पहला हमला वर्साय संधि की प्रथम 26 धाराओं पर हुआ। राष्ट्रसंघ ने 1932 में जेनेवा में निःशस्त्रीकरण सम्मेलन किया, जिसमें दस राष्ट्रों के दो सौ से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सम्मेलन में हिटलर ने प्रस्ताव रखा कि अन्य देशों की तरह उसे भी शस्त्रीकरण का समान अधिकार दिया जाये अथवा सभी राष्ट्र जर्मनी की तरह समान रूप से निःशस्त्रीकरण का पालन करें। स्वाभावतः फ्रांस ने जर्मनी के इस प्रस्ताव का विरोध किया। फलतः हिटलर ने 14 अक्टूबर, 1933 को जर्मन प्रतिनिधियों को जेनेवा से वापस बुला लिया, जो उसके सत्तारूढ़ होने के पहले निरस्त्रीकरण सम्मेलन में भाग लेने गये थे। हिटलर ने उसी समय राष्ट्रसंघ की सदस्यता त्यागने की भी सूचना दे दी क्योंकि हिटलर के अनुसार राष्ट्रसंघ की सदस्यता जर्मनी के माथे पर एक कलंक का टीका था। नवंबर, 1933 में हुए जनमत-संग्रह में जर्मन जनता ने भी अपने फ्यूरर के निर्णय का स्वागत किया।
सार क्षेत्र की प्राप्ति
वर्साय संधि के अंतर्गत की गई व्यवस्था के अनुसार 15 वर्ष बाद सार क्षेत्र में जनमत-संग्रह किया गया। मतदान में कुल पाँच लाख मत पड़े, जिसमें से 90 प्रतिशत मत जर्मनी के पक्ष में थे। 01 मार्च, 1935 को यह क्षेत्र जर्मनी को लौटा दिया गया। इस घटना के बाद हिटलर ने घोषित किया कि जर्मनी को अब पश्चिम की ओर अधिक क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा नहीं है। किंतु, पूर्व में तो अभी डांजिग, मेमेल जैसे प्रदेश थे जहाँ जर्मन लोग रहते थे और जर्मनी में सम्मिलित होना चाहते थे। सार की सफलता से उत्साहित होकर हिटलर अन्य राज्यों में बसे जर्मनों के बीच अपना प्रचार करने लगा।
क्षतिपूर्ति और निरस्त्रीकरण
हिटलर वर्साय संधि के सभी कलंकों को मिटाने के लिए कृत-संकल्प था। इस संधि द्वारा जर्मनी को महायुद्ध के लिए दोषी ठहराया गया था और एक बहुत बड़ी रकम क्षतिपूर्ति के नाम पर उस पर लाद दी गई थी। हिटलर इस अन्याय को कैसे स्वीकार करता? उसने क्षतिपूर्ति और युद्ध-अपराध के दोष को मानने से स्पष्ट इनकार कर दिया और मित्रराष्ट्र देखते ही रह गये। इस प्रकार हिटलर ने बड़ी आसानी से क्षतिपूर्ति की जटिल समस्या का समाधान कर दिया।
इसके अलावा, वर्साय संधि के द्वारा जर्मनी की सैन्य-शक्ति को सीमित कर दिया गया था, जो तृतीय साम्राज्य के लिए अपमान की बात थी। हिटलर ने 16 मार्च, 1935 में घोषणा की कि चूंकि निरस्त्रीकरण की दशा में मित्रराष्ट्रों ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया है, इसलिए वर्साय संधि की निरस्त्रीकरण-संबंधी धाराएँ जर्मनी के लिए किसी भी दृष्टि से बंधनकारी नहीं हैं। इस घोषणा के बाद उसने जर्मनी में अनिवार्य सैनिक सेवा लागू की और जर्मनी की सैन्य-शक्ति बढ़ने लगी। कुछ दिनों के बाद उसने स्पष्ट रूप से घोषित कर दिया कि अब जर्मनी वर्साय संधि की किसी भी शर्त को मानने के लिए तैयार नहीं है। इस तरह हिटलर की विदेश नीति का एक उद्देश्य पूरा हो गया।
पोलैंड के साथ समझौता
यद्यपि पोलैंड और जर्मनी के आपसी संबंध बहुत अच्छे नहीं थे, लेकिन कई कारणों से 23 जनवरी, 1934 ई. को दोनों के बीच एक अनाक्रमण समझौता हो गया और परस्पर निर्णय किया कि वे दस वर्ष तक एक-दूसरे की वर्तमान सीमाओं का किसी भी प्रकार से अतिक्रमण नहीं करेंगे। दरअसल, रूस और जर्मनी के बीच स्थित पोलैंड की स्थिति बड़ी नाजुक थी। उसका मित्र फ्रांस उससे काफी दूर था, इसलिए उसे अपनी सुरक्षा के लिए एक नजदीकी मित्र की आवश्यकता थी। दूसरी ओर, हिटलर पोलैंड से समझौता करके यूरोपीय राष्ट्रों को दिखाना चाहता था कि वह शांति का समर्थक है, जबकि हिटलर की नजर पोलैंड के उन प्रदेशों पर थी, जो पेरिस की शांति-परिषद् द्वारा पोलैंड को दिये गये थे। वास्तव में, वह पोलैंड से समझौता कर आस्ट्रिया और जर्मनी को मिलाकर एक विशाल राज्य की स्थापना करना चाहता था। इस प्रकार पोलैंड और जर्मनी का यह समझौता राष्ट्रीय दृष्टि से एक महत्वपूर्ण समझौता था।
आस्ट्रिया को मिलाने का प्रयत्न
पोलैंड के साथ समझौता करने के बाद हिटलर ने आस्ट्रिया को अपने साथ मिलाने का प्रयत्न किया। उसने आस्ट्रिया में नाजी दल का संगठन तैयार करवाया और एक षडयंत्र द्वारा आस्ट्रिया को हड़पने का प्रयास किया, किंतु मुसोलिनी के विरोध और नाजी प्रभाव की कमी से फिलहाल यह योजना पूरी नहीं हो सकी।
चार शक्तियों का समझौता
अपने को शांति का दूत दर्शाने वाले हिटलर ने मुसोलिनी के प्रस्ताव पर 1933 में इंग्लैंड, फ्रांस व इटली के साथ शांति समझौता किया।
स्ट्रेसा सम्मेलन
जर्मनी के द्वारा अनिवार्य सैनिक सेवा लागू कर दिये जाने पर यूरोपीय देशों में बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। उसकी इस घोषणा से यूरोपीय राष्ट्रों, खासकर फ्रांस का चिंतित होना स्वाभाविक था। अतः फ्रांस, इंग्लैंड एवं इटली ने अप्रैल, 1935 को स्ट्रेसा में एक सम्मेलन किया, जिसमें हिटलर के कार्यों की निंदा की गई। किंतु स्ट्रेसा सम्मेलन का जर्मनी पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि जर्मनी इंग्लैंड के साथ नौ-सैनिक वार्ता में संलग्न था।
इंग्लैंड-जर्मन समझौता
हिटलर ने 16 मार्च, 1935 को पुनःशस्त्रीकरण की अपनी योजना घोषित की, इससे फ्रांस बौखला गया। हिटलर जानता था कि जर्मन पुनःशस्त्रीकरण की खबर से मित्रराष्ट्रों में खलबली मच जायेगी। इस समय फ्रांस और सोवियत रूस के बीच एक संधि हो चुकी थी, जिससे ब्रिटेन खुश नहीं था क्योंकि वह नही चाहता था कि यूरोप में फ्रांस की शक्ति बढ़े। हिटलर ब्रिटेन की इस मनोवृत्ति से परिचित था। उसने बड़ी चालाकी से जून, 1935 में इंग्लैंड से एक सेना-संबंधी समझौता कर लिया, जिसके अनुसार जर्मनी को इंग्लैंड की अपेक्षा 35 प्रतिशत नौसेना रखने का अधिकार मिल गया। यही नहीं, ब्रिटेन ने फ्रांस से छिपाकर यह भी मान लिया कि जर्मनी अपने पड़ोसियों के बराबर वायुसेना भी रख सकता है। हिटलर की यह एक बड़ी कूटनीतिक विजय थी क्योंकि इंग्लैंड ने इस समझौते से जर्मनी के वर्साय संधि के तोड़े जाने का एक प्रकार से अनुमोदन कर दिया और स्ट्रेसा सम्मेलन व्यर्थ हो गया। इस प्रकार स्ट्रेसा सम्मेलन का जो कुछ भी मूल्य रहा हो, लेकिन जून, 1935 ई. की ब्रिटेन और जर्मनी की नाविक संधि ने उसमें एक घातक दरार डाल दी।
राइन क्षेत्र का पुनः सैन्यीकरण
वर्साय की संधि के अनुसार जर्मनी राइन क्षेत्र में न तो सशस्त्र सेना भेज सकता था और न ही किलेबंदी कर सकता था। लोकार्नो संधि में भी इस बात की गारंटी दी गई थी। किंतु हिटलर राइन क्षेत्र में अपनी सेनाएँ भेजकर उसका पुनः सैन्यीकरण करना चाहता था। इसके लिए वह लोकार्नो संधि का उल्लंघन करने के लिए भी तैयार था। अंततः 7 मार्च, 1936 को हिटलर ने लगभग पैंतीस हजार जर्मन सैनिकों को राइन क्षेत्र में भेजकर राइनलैंड पर अधिकार कर लिया। यदि इंग्लैंड और फ्रांस उसके इस कार्य का विरोध करते, तो संभव है कि हिटलर पीछे हट जाता। लेकिन लोकार्नो के करार को घृणा के साथ फाड़ दिया गया और फ्रांस ने सोवियत रूस के साथ मई, 1935 ई. में जो संधि की थी, उसका डंक खींच लिया गया।
हिटलर के इस कार्य के कई दूरगामी परिणाम निकले। एक तो इससे फ्रांस की कमजोरी प्रकट हो गई, उसके मित्रों ने उसका साथ छोड़ दिया और बेल्जियम जैसे राज्य तटस्थ हो गये। दूसरे, राष्ट्रसंघ और वर्साय तथा लोकार्नो संधियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया।
रोम-बर्लिन घुरी
हिटलर की सैनिक कार्यवाहियों से यूरोप के कई देश जर्मनी के दुश्मन हो गये थे। अब अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में हिटलर को मित्र की आवश्यकता थी। इटली और जर्मनी आसानी से एक दूसरे के मित्र हो सकते थे। आखिर दोनों एक ही सिद्धांत में विश्वास करते थे और राज्य-व्यवस्था की दृष्टि से भी दोनों राज्य एक जैसे थे। मुसोलिनी ने शुरू में हिटलर का विरोध किया था, लेकिन यह उसकी गलती थी। इटली भूमध्यसागर पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता था और फ्रांस इसका विरोध करता था। इटली चाहता था कि उसे कोई ऐसा मित्र मिले, जो फ्रांस पर दबाव डाले।
जर्मन-इटालियन गठबंधन के लिए अबीसीनिया का संकट वरदान सिद्ध हुआ। जब 1935 में इटली ने अबीसीनिया पर आक्रमण किया तो ब्रिटेन, फ्रांस आदि राज्यों ने इटली के विरूद्ध आर्थिक प्रतिबंध लगा दिये, लेकिन हिटलर ने अबीसीनिया पर मुसोलिनी के आक्रमण की न केवल प्रशंशा की, बल्कि उसको आर्थिक सहयोग भी दिया। इस तरह चोर-चोर मौसेरे भाई की तरह निकट आ गये और 21 अक्टूबर, 1936 को जर्मनी और इटली के बीच एक समझौता हो गया, जिसके अनुसार जर्मनी ने अबीसीनिया पर इटली के अधिकार को मान्यता दे दी। इटली ने स्वीकार कर लिया कि जर्मनी आस्ट्रिया पर अधिकार कर सकता है। यह भी निश्चय हुआ कि डेन्यूब-घाटी में यथास्थिति कायम रखने, स्पेन में जनरल फ्रांको के आंदोलन का समर्थन करने और सोवियत रूस का विरोध करने में वे परस्पर सहयोग करते रहेंगे। नवंबर में फ्रांको स्पेन का शासक मान लिया गया और धुरी राष्ट्रों से उसको सैनिक सहायता मिलने लगी। इस प्रकार दोनों तानाशाहों ने एक तीसरे तानाशाह को भी मान्यता दे दी।
एंटी कॉमिन्टर्न पैक्ट
हिटलर ने इटली को तो अपनी ओर मिला लिया, लेकिन उसे एक ऐसे मित्र की भी आवश्यकता थी जो रूस के विरोध में उसका साथ दे। हिटलर ने देखा कि जापान से उसकी मित्रता हो सकती है, क्योंकि वह भी जर्मनी की तरह साम्यवाद और रूस का विरोधी है। अंततः 25 नवंबर, 1936 को साम्यवाद के विरूद्ध जर्मनी और जापान के बीच एक समझौता हो गया, जिसे इतिहास में ‘एंटी कॉमिन्टर्न पैक्ट’ के नाम से जाना जाता है।
एंटी कॉमिन्टर्न पैक्ट उस समय ‘रोम-बर्लिन-टोक्यो धुरी’ में परिवर्तित हो गया जब 1937 में इटली ने भी एंटी कॉमिन्टर्न पैक्ट को स्वीकार कर लिया। दूसरे शब्दों में, रोम-बर्लिन धुरी अब ‘रोम-बर्लिन टोकियो धुरी’ में परिणत हो गई। कैटलबी ने सही लिखा है कि, ‘यहीं से नाजियों की प्रगति बढ़ती गई। उनकी, भूख, क्षमता और दृढ़ता की कोई सीमा नहीं रही। यूरोप के राष्ट्र दो धुरी में बँट गये। एक ओर इंग्लैंड, फ्रांस एवं रूस हो गये, तो दूसरी ओर जर्मनी, इटली और जापान।’
आस्ट्रिया पर अधिकार
वर्साय संधि की धज्जी उड़ाकर संपूर्ण जर्मन जाति को एक सूत्र में बाँधना हिटलर का लक्ष्य था। आस्ट्रिया को हड़पकर उसे जर्मन साम्राज्य में सम्मिलित करना हिटलर का प्रमुख कार्यक्रम था। ‘पूर्व की ओर धक्का दो’ हिटलर की निश्चित नीति थी। हिटलर ने 1934 में ही डॉ. डाल्फस की हत्या के बाद आस्ट्रिया पर अधिकार करने का प्रयास किया था, किंतु इंटली के द्वारा ब्रेनर दर्रे पर सेना भेज दिये जाने के कारण हिटलर का अभियान असफल हो गया था। मुसोलिनी के इस तरह आड़े आ जाने से हिटलर समझ गया था कि आस्ट्रिया को हड़पने के लिए इटली से मित्रता करना आवश्यक है। यही कारण है कि उसने इटली द्वारा अबीसीनिया को हड़पने का स्वागत किया था। अब ‘रोम-बलिन-टोक्यो घुरी’ से दोनों की मित्रता और गाढ़ी हो गई थी।
ऑस्ट्रिया का चांसलर शुशलिंग डाल्फस की तरह कट्टर नाजी-विरोधी था। हिटलर ने प्रधानमंत्री शुशनिग को पद-त्याग करने पर मजबूर कर दिया और नाजीदल आस्ट्रिया में सत्तारूढ़ किया। अंत में, शांति और व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर 13 मार्च, 1938 को हिटलर की सेना ने आस्ट्रिया में घुसकर राजधानी वियेना पर कब्जा कर लिया और आस्ट्रिया को जर्मन साम्राज्य का एक प्रांत घोषित कर दिया गया। सारे वियेना में नाजियों का स्वास्तिक झंडा फहराया गया।
आस्ट्रिया को जर्मनी में मिलाने के बाद हिटलर ब्रेनर दर्रे से इटली, युगोस्लाविया और हंगरी के साथ बेरोकटोक संबंध स्थापित कर सकता था। अब जर्मनी विजय की घड़ी से गुजर रहा था।
चेकोस्लोवाकिया का अंत
एक ओर हिटलर ने जर्मनी के संतुष्ट हो जाने की बात की और दूसरी ओर चेकोस्लोवाकिया के जर्मन बहुत सुडेटेनलैंड में अपनी गतिविधियाँ बढ़ा दी। चेकोस्लोवाकिया का निर्माण आस्ट्रो-हंगरी साम्राज्य के खंडहरों पर शांति-संधियों के द्वारा किया गया था। चेकोस्लोवाकिया का नया राज्य बहुत प्रगतिशील था, लेकिन इसकी सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि उसके सुडेटेनलैंड में पैंतीस लाख के लगभग जर्मन निवास करते थे। अन्य देशों की अल्पसंख्यक जातियों के मुकाबले में उनकी स्थिति बहुत अच्छी थी। उनके अपने स्कूल और विश्वविद्यालय थे और उन्हें मंत्रिमंडल में भी स्थान प्राप्त था। फिर भी, वे चाहते थे कि सुडेटेनलैंड को जर्मनी में मिला दिया जाए।
हिटलर का उद्देश्य यूरोप भर में फैली जर्मन जाति को एक साम्राज्य में संगठित करना था। वह आस्ट्रिया की भाँति सुडेटेनलैंड को भी जर्मन साम्राज्य में मिलाना चाहता था। हिटलर के इशारे पर हैनलीन के नेतृत्व में ‘सुडेटेन-जर्मन संघ’ ने पूर्ण स्वायत्तता की माँग की। हिटलर ने हैनलीन की माँगों का पुरजोर समर्थन किया और सुडेटेनलैंड को हड़पने की तैयारी पूरी कर ली। स्थिति गंभीर होते देखकर ब्रिटेन और फ्रांस ने जर्मनी को चेतावनी दी कि यदि हिटलर ने किसी तरह का अक्रामक कदम उठाया, तो इसका नतीजा बहुत बुरा होगा। इस धमकी के कारण हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया पर आक्रमण करने का अपना मनसूबा कुछ समय के लिए छोड़ दिया।
अब हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया के भीतर उपद्रव कराकर अपना उद्देश्य पूरा करने का निश्चय किया। जर्मनी में नाजी अखबार चेकोस्लोवाकिया के खिलाफ जहर उगलने लगे। सितंबर, 1938 को नूरेम्बर्ग में नाजी पार्टी की रैली में भाषण देते हुए हिटलर ने कहा कि, ‘पैंतीस लाख जर्मनों पर चेक लोग घोर अत्याचार कर रहे है। सुडटेन जर्मनों को अन्य जातियों की तरह आत्मनिर्णय का अधिकार मिलना चाहिए। यदि सुडेटन जर्मन अपनी ताकत से अपना अधिकार प्राप्त नहीं कर सकते, तो हम उनकी मदद करने को तैयार हैं।’ हिटलर के भाषण से प्रोत्साहित सुडेटेन-जर्मन उपद्रव पर उतारू हो गये, लेकिन चेक सरकार भी दृढ़ता के साथ इस पार्थक्यवादी आंदोलन का दमन करने लगी। इसका परिणाम हुआ कि सीमांत में सैनिक गतिविधियों तेजी हो गईं और लगने लगा कि अब युद्ध छिड़ जायेगा। स्थिति बिगड़ती देखकर इंग्लैंड के प्रधानमंत्री चेंबरलेन ने हस्तक्षेप करके चेकोस्लोवाकिया और जर्मनी के बीच एक समझौता करा दिया, जिसे इतिहास में ‘म्यूनिख समझौता’ के नाम से जाना जाता है।
म्यूनिख समझौते के अनुसार सुडेटेनलैंड पर जर्मनी का अधिकार मान लिया गया। इंग्लैंड और फ्रांस ने चेकोस्लोवाकिया की नई सीमाओं की रक्षा का आश्वासन दिया। हिटलर ने भी वचन दिया कि सुडेटेनलैंड यूरोप में उसका अंतिम सीमा विस्तार है। इसके अतिरिक्त, चेंबरलेन और हिटलर ने एक संयुक्त घोषणा पर हस्ताक्षर किये, जिसमें कहा गया था कि जर्मनी और ब्रिटेन एक-दूसरे के खिलाफ कभी युद्ध नहीं करेंगे। चेंबरलेन अपनी सफलता पर खुश होकर इंग्लैंड चला गया और म्यूनिख समझौता अविलंब लागू हो गया।
चेकोस्लोवाकिया को छोड़कर म्यूनिख समझौते का सर्वत्र स्वागत हुआ। ऐसा लगा कि युद्ध के बादल छंट गये और भविष्य में यूरोपीय राष्ट्र शांतिपूर्वक सहयोग करते रहेंगे। लंदन में चेंबरलेन ने भाषण देते हुए बड़े गर्व से कहा, ‘यह दूसरा अवसर है जब हम लोग बर्लिन से प्रतिष्ठायुक्त शांति लेकर लौटे हैं, यह हम लोगों के समय की शांति है।’ किंतु यह शांति नहीं, चेकोस्लोवाकिया के साथ विश्वासघात था और तुष्टिकरण की नीति की चरम सीमा थी। किसी भी कीमत पर संतुष्ट करने की यह नीति बहुत घातक सिद्ध हुई।
म्यूनिख समझौते से हिटलर की प्यास बुझने के बजाय और बढ़ गई। इंग्लैंड और फ्रांस की तुष्टीकरण की नीतियों का परिणाम हुआ कि मार्च, 1939 को हिटलर ने चेक राष्ट्रपति को जर्मनी बुलाकर पिस्तौल की नोंक पर चेकोस्लोवाकिया को जर्मन साम्राज्य में मिलाने के घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर करवा लिया। इस प्रकार देखते-देखते हिटलर ने समूचे चेकोस्लोवाकिया को हड़प लिया और यूरोप के राजनीतिज्ञ देखते रह गये। इंग्लैंड और फ्रांस ने समझ लिया था कि यह जर्मनी की जीत और उनकी पराजय है।
मेमल पर अधिकार
वर्साय संधि के द्वारा मेमेल बंदरगाह पर लिथुआनिया का अधिकार हो गया था। हिटलर इस बंदरगाह पर भी अधिकार करना चाहता था, क्योंकि यहाँ भी जर्मन जाति बड़ी संख्या में निवास करती थी। इस समय हिटलर अपने शक्ति की पराकाष्ठा पर था। उसने लिथुआनिया को डरा-धमकाकर 1 मार्च, 1939 को मेमल के बंदरगाह पर अधिकार कर लिया।
पोलैंड के साथ संबंध-विच्छेद
हिटलर ने पोलैंड पर दोषारोपण किया कि वह जर्मन अल्पसंख्यकों पर अत्याचार कर रहा है। उसने पोलैंड के समक्ष डांजिग और गालियारे से संबंधित कुछ माँगें रखी, लेकिन पोलैंड ने उसकी माँग को मानने से इनकार कर दिया। इस पर उसने पोलैंड के साथ की गई 1934 की अनाक्रमण संधि को रद्द कर दिया। अब हिटलर ने डांजिग के जर्मनों को भड़काना शुरू किया और सीमांत पर सैनिक गतिविधियाँ भी शुरू कर दी, जिससे लगा कि हिटलर पोलैंड पर आक्रमण करने वाला है।
रूस के साथ संधि
हिटलर ने पोलैंड पर आक्रमण करने का निश्चय तो कर लिया, लेकिन अभी इसमें कई खतरे थे। पोलैंड को इंग्लैंड और फ्रांस ने गारंटी दी थी कि यदि उस पर जर्मन आक्रमण हुआ, तो वे उसकी रक्षा करेंगे। उसकी आक्रामक सैन्य-नीति और आस्ट्रिया, चेकोस्लावाकिया तथा मेमल पर अधिकार से मित्रराष्ट्र सतर्क हो चुके थे। यद्यपि हिटलर को युद्ध का भय नहीं था, लेकिन वह नहीं चाहता था कि जर्मनी को एक साथ दो मोर्चों पर लड़ना पड़े। उसने परिस्थिति का आकलन किया और तुरंत 23 अगस्त, 1939 ई. में रूस से एक अनाक्रमण समझौता कर लिया और एक-दूसरे पर आक्रमण न करने का वादा किया। इस संधि की गुप्त धारा में जर्मनी और रूस ने पोलैंड को आपस में बाँटे लेने की व्यवस्था भी की थी।
इस समझौते की बड़ी आलोचना की गई है, किंतु इतना निश्चित था कि रूस ने फ्रांस और इंग्लैंड की तुष्टीकरण की नीति से क्षुब्ध होकर ही यह व्यवहारिक कदम उठाया था। जिस प्रकार चेकोस्लावाकिया को मित्रराष्ट्रों ने उनके भाग्य पर छोड़ दिया था, उससे रूस का भरोसा टूट गया था। हिटलर ने रूस से संधि कर अपना पलड़ा भारी कर लिया और पोलैंड पर आक्रमण करने की तैयारी में जुट गया, जिसकी पृष्ठभूमि उसने पोलैंड से डांजिग माँगकर पहले ही तैयार कर दी थी।
पोलैंड पर आक्रमण और द्वितीय विश्वयुद्ध का आरंभ
हिटलर की डांजिग की माँग से स्पष्ट था कि वह पोलैंड को हड़पना चाहता है। रूस के साथ की गई संधि से हिटलर का हौसला बुलंद था। अब उसने पोलिश सरकार पर आरोप लगाया कि वह पोल जर्मनों के साथ अत्याचारपूर्ण व्यवहार कर रही है। पोलैंड में ‘जर्मनी पर अत्याचार’ की कहानियाँ जर्मन अखबारों में विस्तार से छपने लगीं। सुडेटेनलैंड की कहानी डांजिग में भी दुहराई जाने लगी। स्थिति बिगड़ते देख चेंबरलेन ने एक बार फिर फिर हिटलर से बातचीत की। उसने बर्लिन स्थिति ब्रिटिश राजदूत सर हंडरसन के माघ्यम से हिटलर के समक्ष एक प्रस्ताव रखा कि डांजिग का प्रश्न पौलैंड और जर्मनी वार्ता द्वारा हल कर लें। लेकिन हिटलर ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। हिटलर ने स्पष्ट रूप से घोषणा की कि, ‘डांजिग और गलियारे का प्रश्न हल होकर रहेगा और हल करना पड़ेगा।’ हिटलर ने हंडरसन से यहाँ तक कह दिया कि डांजिग को लेकर यदि युद्ध भी छिड़ जाए तो वह उसके लिए भी तैयार है।
इसके बाद पोलैंड के प्रश्न पर समझौता करने के अनेक प्रयास हुए, लेकिन हिटलर कहाँ मानने वाला था। जर्मन सेना ने पोल जर्मनों को मुक्त करने के बहाने 01 सितंबर, 1939 को पोलैंड पर अपना आक्रमण करके द्वितीय विश्वयुद्ध को आरंभ कर दिया।
ब्रिटेन और फ्रांस ने पोलैंड की रक्षा का वचन दिया था। जिस समय हिटलर ने आक्रमण शुरू किया, उसी समय उनको भी युद्ध में कूद जाना चाहिए था। लेकिन मुसोलिनी के हस्तक्षेप के कारण ब्रिटेन और फ्रांस तत्काल युद्ध की घोषणा नहीं कर सके। उनका कहना था कि यदि अभी भी पोलैंड से जर्मन सेना वापस लौट जाये, तो वे युद्ध घोषित नहीं करेंगे।
ब्रिटिश सरकार ने 3 सितंबर को जर्मन सेना को पोलैंड से वापस बुलाने की चेतावनी दी और जब जर्मन सेना वापस नहीं लौटी तो ब्रिटेन ने युद्ध की घोषणा कर दी। उसके कुछ ही देर बाद फ्रांस भी युद्ध में कूछ प़ड़ा और विश्व एक अनंत अंधकार में डूब गया। लेकिन महायुद्ध में हिटलर का तंत्र लड़खड़ा गया और आरंभिक सफलता के बाद मित्र देशों की शक्ति के सामने जर्मनी पराजित होने लगा। 1945 में जब विजयी सेनाएँ बर्लिन पहुँची तब तक हिटलर अपने बंकर में आत्महत्या कर चुका था।
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