लॉर्ड हेस्टिंग्स (Lord Hastings, 1813-1823)

लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813-1823) लॉर्ड मिंटो के 1813 में त्यागपत्र देने के बाद लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813-1823) […]

लॉर्ड हेस्टिंग्स: नीतियाँ और सुधार (Lord Hastings: Policies and Reforms)

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लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813-1823)

लॉर्ड मिंटो के 1813 में त्यागपत्र देने के बाद लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813-1823) भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। हेस्टिंग्स इंग्लैंड के उच्च अभिजात परिवार से संबंधित था। वह अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम में भाग ले चुका था और प्रिंस ऑफ वेल्स से उसके घनिष्ठ संबंध थे।

जहाँ वेलेजली ने सैनिक प्रभुत्व स्थापित कर फ्रांसीसियों को भारत से निकालकर अपने प्रतिद्वंद्वियों को हराया, वहीं हेस्टिंग्स ने अंग्रेजों की राजनीतिक सर्वश्रेष्ठता को स्थापित किया। वस्तुतः गवर्नर जनरल के रूप में लॉर्ड हेस्टिंग्स ने अपने महान पूर्वाधिकारी की योजना के अनुसार ही भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का ढाँचा बनाया। उनके समय में सर्वप्रथम आंग्ल-नेपाल युद्ध लड़ा गया, जिसमें गोरखे पूर्ण रूप से पराजित हुए और कंपनी की उत्तरी तथा उत्तर-पश्चिमी सीमाएँ हिमाचल तक पहुँच गईं। हेस्टिंग्स ने उत्पाती पिंडारियों का भी दमन किया और तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध में मराठों की रही-सही शक्ति को भी नष्ट कर दिया। यही नहीं, हेस्टिंग्स की साम्राज्यवादी बाढ़ में राजपूत रियासतों की स्वतंत्रता भी बह गई।

लॉर्ड हेस्टिंग्स की नीति

हेस्टिंग्स भारत आने से पहले वेलेजली की अग्रगामी और विस्तारवादी नीति का आलोचक रहा था। 1791 में उसने लॉर्ड्स सभा में टीपू के विरुद्ध विजय की नीति तथा राज्य-विस्तार की कड़ी आलोचना की थी। वह इस निश्चय के साथ भारत आया था कि हस्तक्षेप न करने की नीति पर चलेगा।

वास्तव में, हेस्टिंग्स के कार्यकाल के आरंभिक वर्षों में परिस्थितियाँ अंग्रेजों के अनुकूल थीं और हस्तक्षेप करने की नीति की आवश्यकता भी नहीं थी। नेपोलियन की लिपजिग के युद्ध (1813) में निर्णायक पराजय से फ्रांसीसी संकट समाप्त हो गया था। पंजाब के सिख शासक रणजीत सिंह से अमृतसर की संधि हो गई थी और उस दिशा से भी आक्रमण होने का कोई अंदेशा नहीं था। सतलज के पूर्व में स्थित छोटे-छोटे सिख राज्य अंग्रेजों के लिए कोई संकट उत्पन्न करने की स्थिति में नहीं थे। इसके विपरीत, वे अंग्रेजों का संरक्षण चाहते थे। मराठे पारस्परिक विवाद में उलझे हुए थे और उनकी स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे अंग्रेजों के लिए कोई संकट पैदा कर पाते। राजस्थान के राजपूत राजे इतने दुर्बल थे कि वे स्वयं अंग्रेजों का संरक्षण चाहते थे। इस समय वे मराठों के कथित अनियमित सैनिकों—पिंडारियों की लूटमार से त्रस्त थे। इस प्रकार हेस्टिंग्स को हस्तक्षेप करने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी। फिर भी, हेस्टिंग्स को हस्तक्षेप और विस्तार की नीति को क्रियान्वित करना पड़ा।

हेस्टिंग्स की प्रसारवादी नीति

कई कारणों से हेस्टिंग्स ने हस्तक्षेप और विस्तार की नीति को वेलेजली की अपेक्षा अधिक दृढ़ता से क्रियान्वित किया। एक तो, मराठा पेशवा बाजीराव अंग्रेजों के चंगुल से आजाद होने का प्रयास कर रहा था और पुनः मराठा संघ का नेतृत्व करना चाहता था। मराठा सरदार भी उस पर दबाव डाल रहे थे कि वह स्वयं को अंग्रेजों के नियंत्रण से मुक्त करे। उन्होंने पेशवा को आश्वासन दिया कि वे उसके प्रति स्वामिभक्त रहेंगे। 1814 में पेशवा ने सिंधिया, होल्कर, भोंसले से भेंट की और मराठा संघ को पुनजीवित करने का प्रयास किया। अब हेस्टिंग्स के लिए पेशवा, सिंधिया, भोंसले तथा होल्कर की बची-खुची स्वतंत्रता को समाप्त करना आवश्यक था। दूसरे, पिंडारियों की शक्ति बढ़ती जा रही थी और समस्त मध्य भारत और राजस्थान के भागों में उनका अत्याचार फैल गया था। इतना ही नहीं, अब वे ब्रिटिश क्षेत्रों में भी घुसकर लूटमार और हत्याएँ करने लगे थे। इसलिए देश में भय के वातावरण को समाप्त कर सुरक्षा स्थापित करना भी आवश्यक था। तीसरे, इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के कारण कारखानों के मालिक, पूँजीपति, व्यापारी सभी उस पर हस्तक्षेप की नीति अपनाने के लिए दबाव डाल रहे थे क्योंकि उन्हें कारखानों के लिए कच्चे माल की जरूरत थी और तैयार माल के लिए बाजार की आवश्यकता थी। चौथे, हिमालय के तराई क्षेत्रों में नेपाल के गोरखों का अतिक्रमण बढ़ता जा रहा था और उन्हें बिना युद्ध के तराई क्षेत्रों से निकालना संभव नहीं था। इसके अलावा, चूँकि हेस्टिंग्स अंग्रेजी शक्ति को सर्वश्रेष्ठ बनाना चाहता था, इसलिए शेष भारतीय रियासतों को ब्रिटिश सत्ता के अधीन करने के लिए भी हस्तक्षेप की नीति अपनानी पड़ी। यही नहीं, हेस्टिंग्स अपने पूर्वगामियों की भाँति प्रजातीय अहंकार से भी पीड़ित था। उसका मानना था कि असभ्य भारतीय समाज को सुधारने के लिए कंपनी की सभ्य सरकार को हस्तक्षेप की नीति अपनानी चाहिए।

नेपाल

शताब्दियों से काठमांडू उपत्यका के तीन अधिराज्य—काठमांडू, पाटन और भाटगाँव (वर्तमान में भक्तपुर) थे जो बाहरी खतरों से बेखबर आपस में लड़ते रहे। 1769 में गोरखा राजा पृथ्वीनारॉयण शाह ने काठमांडू उपत्यका में एक शक्तिशाली गोरखा राज्य स्थापित किया। 1773 में गोरखा सेना ने पूर्वी नेपाल पर और 1788 में सिक्किम के पश्चिमी भाग पर अधिकार कर लिया। उन्होंने 1790 में पश्चिम की ओर महाकाली नदी तक अपना अधिकार जमाया। इसके बाद सुदूर पश्चिम कुमाऊँ क्षेत्र और उसकी राजधानी अल्मोड़ा गोरखा राज्य में मिला लिए गए।

अवध पर नियंत्रण स्थापित करने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के राज्य का प्रसार भी नेपाल की तरफ होने लगा था। 1801 में अंग्रेजों ने जब गोरखपुर तथा बस्ती जिले प्राप्त किए, तो दोनों राज्यों की सीमाएँ मिल गईं। नेपाल को उत्तर में चीनी लोगों ने आगे बढ़ने से रोक दिया था, जिससे वे बंगाल तथा अवध की अनिश्चित सीमाओं का लाभ उठाकर दक्षिण की ओर बढ़ने लगे थे और गोरखपुर पर हमले करने लगे थे। बार्लो ने इसका प्रतिवाद किया था, लेकिन गोरखों ने कोई उत्तर नहीं दिया।

अंग्रेज-नेपाल युद्ध

कंपनी और नेपालियों का झगड़ा उस समय शुरू हुआ, जब गोरखों ने बस्ती के उत्तर में बुटवल तथा उसके पूरब में शिवराज जिलों पर पुनः अधिकार कर लिया, लेकिन अंग्रेजों ने बिना खुली लड़ाई के दोनों क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। गोरखों ने इस प्रक्रिया को आक्रमण माना और मई 1814 में बुटवल जिले के तीन अंग्रेज पुलिस थानों पर आक्रमण कर दिया और कई अंग्रेजों को अपना निशाना बनाया।

लॉर्ड हेस्टिंग्स ने अवध के नवाब से एक करोड़ रुपये वसूल किए और गोरखों पर तीन ओर से आक्रमण करने की योजना बनाई। पूर्व से जनरल जिलेस्पी, दक्षिण से जनरल मार्टिनडेल और पश्चिम से आक्टरलोनी ने नेपाल पर आक्रमण किया। हेस्टिंग्स ने स्वयं 34,000 की सेना का नेतृत्व किया, जबकि गोरखों के पास मात्र 12,000 सेना थी। किंतु प्रकृति ने नेपालियों का साथ दिया और 1814-15 के ब्रिटिश अभियान पूर्णतः असफल रहे। गोरखों ने अंग्रेजी सेनाओं के छक्के छुड़ा दिए। जनरल जिलेस्पी का कालंग दुर्ग पर आक्रमण विफल रहा और वह मारा गया। उसका उत्तराधिकारी मेजर जनरल मार्टिनडेल भी पराजित होकर पीछे हट गया और जैतक दुर्ग को जीतने में असफल रहा। नेपाल सरकार ने सिख राजा रणजीत सिंह और दौलतराव सिंधिया से अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा बनाने के लिए वार्ता आरंभ की, किंतु सिंधिया और रणजीत सिंह ने सहायता देने से इनकार कर दिया, जिससे गोरखे निराश हो गए। मार्च 1815 में कर्नल निकलस तथा गार्डनर ने अल्मोड़ा नगर को जीत लिया और मई 1815 में जनरल आक्टरलोनी ने मालाओं (मलान) किले को अमर सिंह थापा से छीन लिया। आगे युद्ध चलाना व्यर्थ समझकर गोरखों ने 28 नवंबर 1815 को सगौली की संधि कर ली।

सगौली की संधि

सगौली की संधि के अनुसार नेपाल सरकार ने कुमाऊँ, गढ़वाल तथा तराई का अधिकांश भाग अंग्रेजों को दे दिया और नेपाल को सिक्किम के राजा की स्वतंत्रता स्वीकार करनी पड़ी। नेपाल ने काठमांडू में अंग्रेज रेजीडेंट रखना स्वीकार किया और वचन दिया कि अंग्रेजों की स्वीकृति के बिना किसी यूरोपियन को अपनी सेवा में नहीं रखेगा।

सगौली की संधि नेपाल सरकार के प्रतिनिधियों ने की थी। नेपाल सरकार को लगा कि इससे उसकी स्वतंत्रता समाप्त हो जाएगी। इसलिए नेपाल सरकार ने संधि को अस्वीकार कर दिया, जिससे युद्ध पुनः आरंभ हो गया। डेविड आक्टरलोनी ने काठमांडू की ओर आगे बढ़कर 28 फरवरी 1816 को मकवानपुर के स्थान पर गोरखों को बुरी तरह पराजित किया। शांति-वार्ता फिर चली और अंततः नेपाल सरकार ने 1816 में सगौली की संधि को स्वीकार कर लिया।

सगौली की संधि का महत्त्व

सगौली की संधि से अंग्रेजों का नेपाल के साथ स्थायी मित्रता की शुरुआत हुई। अंग्रेजों को गढ़वाल और कुमाऊँ क्षेत्र के शिमला, मसूरी, रानीखेत, लालडौन व नैनीताल जैसे स्वास्थ्यवर्धक स्थान मिले। गोरखों ने काठमांडू में एक ब्रिटिश रेजीडेंट रखना स्वीकार किया। कंपनी ने युद्ध के लिए अवध के नवाब से एक करोड़ रुपये उधार लिए थे, इसके बदले तराई तथा रुहेलखंड के जिले नवाब को दे दिए गए। अब कंपनी की उत्तरी तथा उत्तर-पश्चिमी सीमाएँ हिमाचल तक पहुँच गईं जिससे मध्य एशिया के लिए भी मार्ग मिल गया। 10 फरवरी 1817 को एक पृथक संधि सिक्किम के राजा चोग्याल से की गई तथा तीस्ता और मेची नदियों के मध्य का प्रदेश उसे दे दिया गया। इस प्रकार कंपनी और नेपाल के बीच की सीमाएँ निश्चित हो गईं और सीमाओं पर पक्के खंभे लगा दिए गए। इस संधि का सबसे बड़ा लाभ गोरखों का अंग्रेजी सेना में भर्ती होना था। वास्तव में, युद्ध समाप्त होने से पहले ही आक्टरलोनी ने गोरखों की तीन बटालियनों को अंग्रेजी सेना में भर्ती कर लिया था। गोरखे वीर और विश्वसनीय सिद्ध हुए और ये 1857 के विद्रोह में भी राजभक्त बने रहे।

पिंडारी

नेपाल युद्ध के पश्चात हेस्टिंग्स ने पिंडारी उपद्रव को समाप्त करने का बीड़ा उठाया, जिन्होंने संपूर्ण मध्य भारत में अराजकता और आतंक फैला रखा था। एडवर्ड्स लिखता है कि पिंडारियों का उपद्रव 1805 से 1814 के वर्षों में तेजी से बढ़ा था। पिंडारी टिड्डी दलों के समान जिस प्रांत में घुस जाते, उसे उजाड़ देते थे। इतना ही नहीं, हाल में पिंडारी ब्रिटिश क्षेत्रों में भी घुसकर लूटमार करने लगे थे। 1812 में उन्होंने मिर्जापुर और शाहाबाद को लूटा था। 1815 में उन्होंने निजाम के राज्य को लूटा और उजाड़ दिया। 1816 में उन्होंने निर्दयता से उत्तरी सरकार के जिलों को लूटा। इतने विस्तृत क्षेत्र में पिंडारियों का उपद्रव अंग्रेज सहन नहीं कर सकते थे। इसलिए नेपाल युद्ध के पश्चात हेस्टिंग्स ने इस अराजकता को समाप्त करने का बीड़ा उठाया।

पिंडारी क्रूर लुटेरे थे। इनकी उत्पत्ति कब और कैसे हुई, इस संबंध में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। ‘पिंडारी’ शब्द संभवतः मराठी भाषा से आया है। ‘पिंड’ एक प्रकार की शराब थी और उसको पीने वाले ‘पिंडारी’ कहलाते थे। मराठा इतिहासकारों ने ‘पेंढारी’ नामक लुटेरों का उल्लेख किया है, जिनका उपयोग मुगलों ने मराठा राज्य में लूटमार के लिए किया था। पिंडारियों का पहला उल्लेख 1689 में मुगलों के महाराष्ट्र पर आक्रमण के समय मिलता है। शिवाजी के उत्तराधिकारियों ने उन्हें सेना का एक अंग बना लिया था और बाजीराव प्रथम के समय से ये लोग अवैतनिक रूप से मराठों की ओर से लड़ते थे और केवल लूट में हिस्सा लेते थे। बाद में ये सिंधिया, होल्कर और निजाम की सेना में सैनिक के रूप में काम करने लगे।

पिंडारियों की कोई विशेष जाति नहीं होती थी, बल्कि वे केवल लूट के बंधन में बँधे होते थे। इनके विभिन्न दल या दरें होती थीं, जैसे—सिंधिया शाही, होल्कर शाही और निजाम शाही। सिंधिया शाही दल के नेता दोस्त मुहम्मद और वासिल मुहम्मद थे, जबकि करीम खाँ, नामदार खाँ, अमीर खाँ, शाहमत खाँ, चीतू होल्कर शाही दल के नेता थे। मल्हारराव होल्कर ने इन्हें एक सुनहरा झंडा भी दिया था। 1794 में सिंधिया ने इन्हें नर्मदा घाटी में जागीर दी थी। जब मराठों की सेनाएँ छिन्न-भिन्न हुईं तो बहुत-से सिपाही भी पिंडारियों में शामिल हो गए। इससे पिंडारियों की शक्ति बहुत बढ़ गई। वे प्रशिक्षित पैदल सेना और तोपखाना भी रखने लगे थे। माल्कम ने इनको ‘मराठा शिकारियों के शिकारी कुत्तों’ की संज्ञा दी है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पिंडारी केवल लुटेरे नहीं थे, बल्कि वे देशभक्त सैनिक भी थे। उनका उद्देश्य राजनीतिक था और वे लूटमार करके अंग्रेजी राज्य का उन्मूलन करना चाहते थे। सरदेसाई का कहना है कि ये काम वे मराठा मालिकों की इच्छानुसार करते थे।

पिंडारियों का दमन

हेस्टिंग्स ने पिंडारियों के दमन के लिए कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स से अनुमति ली और राजपूतों तथा भोपाल के नवाब से सहायता का वचन लिया। उसने मराठा सरदार मल्हारराव होल्कर की संरक्षक (रीजेंट) तुलसीबाई और अमीर खाँ से गुप्त वार्ता की। उसने तुलसीबाई को संरक्षण देने का वादा करके और अमीर खाँ को टोंक का राजा बनाने का वचन देकर पिंडारियों से अलग कर दिया। उसने दौलतराव सिंधिया से नई सहायक संधि की, जिसके अनुसार उसने अंग्रेजी सेना को अपने राज्य में प्रवेश करने की अनुमति दे दी। राजस्थान के राजाओं ने भी अंग्रेजों को पिंडारियों का दमन करने में सहायता देने का वचन दिया।

ब्रिटिश इतिहासकारों का यह मत सत्य नहीं है कि पिंडारी अफगान लुटेरों तथा मराठा सरदारों से मिले हुए थे और दौलतराव सिंधिया इनका नाममात्र का सरदार था। नवीन अनुसंधानों से यह स्पष्ट हो गया है कि मराठे स्वयं पिंडारियों से परेशान थे और दौलतराव सिंधिया ने इनको दबाने के लिए स्वयं अपनी सेना भेजी थी। 1815 में सिंधिया ने पिंडारियों से एक समझौता किया था कि वे लूटमार नहीं करेंगे और उसकी दी गई भूमि से ही गुजर-बसर करेंगे। गवर्नर जनरल की परिषद के उपप्रधान एडम्स्टन का विचार था कि सिंधिया स्वयं उनसे संबंध-विच्छेद करने का इच्छुक था। किंतु लगता है कि हेस्टिंग्स सिंधिया से युद्ध करना चाहता था। 23 दिसंबर 1816 की उसकी डायरी से भी लगता है कि वह नहीं चाहता था कि सिंधिया पिंडारियों से संबंध-विच्छेद करे क्योंकि वह इसी बहाने सिंधिया और पिंडारियों दोनों का दमन करना चाहता था।

पिंडारियों को मराठों से पृथक करने के बाद हेस्टिंग्स ने अपने दोहरे उद्देश्य को पूरा करने के लिए 1,13,000 की विशाल सेना और 300 तोपें एकत्र कीं। इस सेना को दो भागों में बाँटा गया। पहले भाग उत्तरी कमान की अगुआई स्वयं हेस्टिंग्स ने की और दूसरे भाग दक्षिणी सेना की कमान जनरल सर थॉमस हिसलोप ने सँभाली। 1817 के अंत तक पिंडारी चंबल नदी के पार तक खदेड़ दिए गए तथा जनवरी 1818 तक उनका संगठन छिन्न-भिन्न कर दिया गया। हेस्टिंग्स ने यह घोषणा की कि जो पिंडारी आत्मसमर्पण कर देगा, उसे क्षमा कर दिया जाएगा। करीम खाँ और नामदार खाँ ने आत्मसमर्पण कर दिया। करीम खाँ को गोरखपुर में और नामदार खाँ को भोपाल के पास जागीरें दे दी गईं। वासिल मुहम्मद ने सिंधिया के यहाँ शरण ली और उसने उसे अंग्रेजों को सौंप दिया। जेल में उसने आत्महत्या कर ली। पिंडारियों का एक नेता चीतू को असीरगढ़ के जंगलों में हिंसक पशुओं ने मार दिया। इस तरह 1824 तक पिंडारियों का लगभग सफाया हो गया। डफ के अनुसार उनकी कुछ टुकड़ियाँ दक्कन में पेशवा से युद्ध समाप्त होने तक दिखाई देती रहीं।

हेस्टिंग्स की मराठा नीति

हेस्टिंग्स का उद्देश्य अंग्रेजों को भारत में सर्वश्रेष्ठ शक्ति बनाने का था। मराठा संघ को नष्ट करने के लिए सिंधिया, भोंसले और होल्कर का दमन आवश्यक था। वेलेजली ने मराठा संघ को नष्ट करके अंग्रेजों को भारत की सर्वोच्च सत्ता बनाने का प्रयास किया था। अपने इस प्रयास में वह लगभग सफल भी हो गया था, लेकिन लेक की असफलता से घबड़ाकर संचालकों ने वेलेजली को वापस बुला लिया था। अब हेस्टिंग्स ने वेलेजली के कार्य को पूरा करने का बीड़ा उठाया और वह मराठा संघ को समाप्त करके अंग्रेजों को भारत की सर्वोच्च सत्ता बनाने में सफल रहा।

आंग्ल-मराठा युद्ध

वास्तव में, पिंडारियों के दमन के साथ ही आंग्ल-मराठा युद्ध भी आरंभ हो गया था। मराठों में बरार का भोंसले सबसे निर्बल था। 22 मई 1816 को राघोजी भोंसले की मृत्यु हो गई तो उसका दुर्बल पुत्र परसोजी गद्दी पर बैठा। राजमाता बकाबाई और राजा के चचेरे भाई अप्पा साहब के बीच राजा के सरपरस्त बनने पर झगड़ा था क्योंकि अप्पा साहब अपने को परसोजी का उत्तराधिकारी मानते थे। अप्पा साहब अंग्रेजों की सहायता चाहते थे, इसलिए उन्होंने ब्रिटिश रेजीडेंट जेंकिन्स के सहयोग से 17 मई 1816 को अंग्रेजों से नागपुर की संधि कर ली। इस संधि के अनुसार नागपुर में 7.5 लाख रुपये वार्षिक व्यय पर अंग्रेजी सेना रख दी गई। अब भोंसले के विदेशी मामले भी कंपनी के अधीन हो गए। इस प्रकार एक सामरिक महत्त्व का नगर नागपुर कंपनी के अधीन हो गया।

पेशवा बाजीराव बैसीन की संधि से बहुत परेशान था। कंपनी ने पेशवा को 7 जुलाई 1812 को एक नए ‘6 धाराओं के प्रतिज्ञा-पत्र’ पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य किया जिससे दक्षिणी जागीरदारों को उनकी जागीरें पुनः मिल गईं। 1814 में पेशवा ने बड़ौदा के गायकवाड से, जो अंग्रेजों के संरक्षण में था, अपने अधीन मानते हुए कर के रूप में लगभग एक करोड़ रुपये की माँग की। गायकवाड ने उल्टी माँग प्रस्तुत कर दी। कंपनी के कहने पर गायकवाड ने अपने दूत गंगाधर शास्त्री को पूना भेजा। लौटते समय नासिक में पेशवा के प्रधानमंत्री त्र्यंबकजी के आदेश पर गंगाधर का वध कर दिया गया। ब्रिटिश रेजीडेंट एल्फिन्स्टन ने पेशवा से त्र्यंबकजी की माँग की। पेशवा ने त्र्यंबकजी को पकड़कर अंग्रेजों को सौंप दिया, किंतु त्र्यंबकजी अक्टूबर 1816 में थाना जेल से भाग निकला। हेस्टिंग्स के आदेश पर एल्फिन्स्टन ने 7 मई 1817 को पेशवा से कहा कि एक माह के अंदर त्र्यंबकजी को पेश करो तथा रॉयगढ़, सिंहगढ़ तथा पुरंदर के दुर्ग भी जमानत के रूप में हमारे हवाले कर दो। अभी पेशवा कुछ सोच पाता कि कर्नल स्मिथ ने पूना का घेरा डाल दिया और दुर्ग पर अधिकार कर लिया। अंततः 13 जून 1817 को पेशवा ने हथियार डाल दिए और एक नई संधि पर हस्ताक्षर किए।

सितंबर 1817 में लॉर्ड हेस्टिंग्स एक विशाल सेना लेकर कानपुर पहुँचा और सिंधिया को एक संधि करने को कहा और विलंब करने पर युद्ध की धमकी दी। अंत में सिंधिया ने एक अपमानजनक संधि स्वीकार की, जिसके अनुसार महाराजा ने 5000 सैनिक पिंडारियों के विरुद्ध अभियान के लिए देना स्वीकार किया। सिंधिया ने स्वीकार किया कि पिंडारियों के अभियान के दौरान असीरगढ़ तथा हिंडिया के दुर्गों में अंग्रेजी सेना रहेगी जो अभियान के बाद लौटा दिए जाएँगे। पिंडारियों को दी गई जमीन उसके वास्तविक स्वामियों को लौटा दी जाएगी। इसके अलावा, 1805 की संधि के अनुसार राजस्थान की शेष रियासतों से कंपनी के बातचीत करने पर जो रोक थी, वह समाप्त हो गई।

इस प्रकार बाह्य रूप से सिंधिया अभी भी स्वतंत्र था और कंपनी से उसके संबंध मित्रवत थे, लेकिन उसकी स्थिति दयनीय हो गई थी। मराठों ने एक बार फिर पेशवा के अधीन मिलकर अंग्रेजों से टक्कर लेने की सोची। पेशवा के सैनिकों ने पूना रेजीडेंसी पर आक्रमण करके उसे जला दिया। अंग्रेजी सेना ने 5 नवंबर 1817 को किर्की के स्थान पर पेशवा की सेना को हरा दिया और 17 नवंबर को स्मिथ ने पूना पर अधिकार कर लिया। पेशवा 1 जनवरी 1818 को कोरेगाँव और 20 फरवरी 1818 को आष्टी में पराजित होने के बाद 3 जून 1818 को माल्कम के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।

नागपुर के अप्पा साहब ने भी, जो परसोजी की हत्या करके गद्दी पर बैठा था, 26 नवंबर 1817 को अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया। लेकिन सीताबल्डी के स्थान पर पराजित हो गया। इंदौर से आई होल्कर की सेना को अंग्रेजों ने महीदपुर के युद्ध में पराजित कर दिया।

हेस्टिंग्स के राजनीतिक निर्णय

हेस्टिंग्स ने मराठा समस्या का अंतिम समाधान करते हुए बाजीराव को गद्दी से उतार कर 18 लाख रुपये वार्षिक पेंशन देकर कानपुर के समीप बिठूर भेज दिया। पेशवा के राज्य से एक छोटा-सा सातारा का राज्य निर्माण किया गया, जिसे शिवाजी के वंशज प्रताप सिंह को दे दिया गया। शेष प्रदेश बंबई प्रेसीडेंसी में मिला लिए गए। होल्कर ने 6 जनवरी 1818 को मंदसौर की संधि से खानदेश सहित नर्मदा नदी के पार का समस्त क्षेत्र कंपनी को दे दिया। उसने न केवल अमीर खाँ की स्वतंत्रता स्वीकार की, बल्कि राजपूत रियासतों पर से अपना अधिकार छोड़ दिया। उसने सहायक सेना रखने तथा अपने विदेशी मामले कंपनी के अधीन करना स्वीकार कर लिया। शासक चूँकि 11 वर्ष का अल्पवयस्क था, इसलिए तांतिया जोग को मुख्यमंत्री बनाया गया और इंदौर राजधानी बनाई गई।

इसी प्रकार भोंसले की संधि भी बहुत कठोर थी। नर्मदा के उत्तर के उसके प्रदेश छीन लिए गए और अप्पा साहब भोंसले के लाहौर भाग जाने के कारण अल्पवयस्क राघोजी बापूसाहब को नागपुर की गद्दी पर बैठाया गया। ब्रिटिश रेजीडेंट ने बरार का शासन संभाल लिया।

सिंधिया ने जून 1818 की नई संधि के अनुसार अजमेर अंग्रेजों को तथा इस्लामनगर भोपाल के नवाब को दे दिया। उसने स्वयं राजस्थान के प्रभुत्व का त्याग कर दिया और अपने अधीनस्थ राजाओं के बीच कंपनी की मध्यस्थता स्वीकार कर ली। गायकवाड से भी नवीन सहायक संधि की गई और उससे अहमदाबाद का एक भाग ले लिया गया। इस प्रकार मराठा युद्ध से हेस्टिंग्स के उद्देश्य, आकांक्षाएँ तथा स्वप्न साकार हो गए। मराठा शक्ति भी नष्ट हो गई और कंपनी को एक विस्तृत प्रदेश मिल गया।

हेस्टिंग्स के राजपूत रियासतों से संबंध

हेस्टिंग्स ने राजस्थान के राजपूत राज्यों पर भी ब्रिटिश आधिपत्य स्थापित किया। 18वीं शताब्दी से राजस्थान अव्यवस्था तथा अशांति का शिकार था। राजपूत रियासतें चिरकाल से अंग्रेजों के साथ रक्षात्मक संधियाँ करना चाहती थीं क्योंकि वे मराठों, पिंडारियों और पठानों के आक्रमणों के शिकार हो रहे थे। वेलेजली ने अपनी विस्तारवादी तथा अग्रगामी नीति के अंतर्गत मराठों का राजपूत राज्यों पर समस्त प्रभाव और दावा समाप्त कर दिया था, लेकिन वेलेजली की नीति को संचालकों ने त्याग दिया। उनके आदेश पर कॉर्नवालिस ने राजपूत राज्यों से अंग्रेजी संरक्षण हटा लिया और होल्कर व सिंधिया के दावों, जो इन राजपूत राजाओं पर थे, को स्वीकार कर लिया था।

हेस्टिंग्स का उद्देश्य यह था कि राजपूत राजाओं से संधियाँ करके होल्कर व सिंधिया पर नियंत्रण किया जा सकेगा। इससे उत्तर में सिखों को रोकने में भी सहायता मिलती। वह राजपूत रियासतों को अपना प्राकृतिक मित्र तथा मराठों को प्राकृतिक शत्रु मानता था। उसने संचालकों से ‘रक्षात्मक तथा आक्रामक’ संधियों को करने की अनुमति प्राप्त कर ली। 1817 में जब उसने सिंधिया से संधि की तो राजपूत राज्यों पर दावे की धारा को निरस्त कर दिया।

हेस्टिंग्स ने प्रारंभ में राजस्थान के तीन बड़े राज्यों—जोधपुर, जयपुर तथा उदयपुर से संधियों के विषय में बातचीत की। इसके बाद अन्य छोटी-छोटी रियासतों, जैसे—कोटा, बूँदी, करौली, बीकानेर, जैसलमेर तथा बाँसवाड़ा, डूंगरपुर तथा प्रतापगढ़, जो उदयपुर वंश से ही थीं, सबके साथ संधियाँ की गईं और कंपनी के प्रभाव के अंतर्गत लाया गया। मेटकॉफ ने मारवाड़ को विश्वास दिलाया कि कंपनी की उनके आंतरिक मामलों तथा अधीनस्थ रजवाड़ों से उनके संबंधों में हस्तक्षेप करने की कोई इच्छा नहीं है। अंत में जोधपुर से 6 जनवरी 1818 को संधि हो गई। इस संधि का आधार शाश्वत मित्रता, रक्षात्मक संधि, संरक्षण तथा अधीनस्थ सहयोग था। इसके अनुसार राज्य को 1500 घुड़सवारों की एक सेना कंपनी की सेवा के लिए देनी होगी। आवश्यकता पड़ने पर समस्त सेना तक देनी होगी। इसके अलावा रियासत कंपनी को एक लाख आठ हजार रुपये वार्षिक कर के रूप में देगी। उदयपुर ने ‘सर्वश्रेष्ठता तथा अधीनस्थ सहयोग’ आदि शब्दों पर आपत्ति की तो मेटकॉफ ने यह संदेह दूर कर दिया तथा 13 जनवरी 1818 को उदयपुर से भी संधि हो गई। महाराणा को कोई सेना नहीं देनी थी, किंतु अगले पाँच वर्षों तक अपनी आय का 1/4 भाग तथा बाद में 3/8 भाग कंपनी को देना था। जयपुर के महाराजा ने भी अंत में संधि को स्वीकार कर लिया। मेटकॉफ ने उसे धमकी दी कि यदि वह संधि नहीं करेगा तो वह उसके अधीनस्थ रजवाड़ों से सीधी संधि कर लेगा, इसलिए उसने भी 2 अप्रैल 1818 को नई संधि कर ली। इसी आधार पर 1818 में कोटा, बूँदी, किशनगढ़, बीकानेर, जैसलमेर, सिरोही, प्रतापगढ़, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा से संधियाँ की गईं।

इस प्रकार राजपूत राज्यों ने रक्षा के लिए अपनी स्वतंत्रता का बलिदान कर दिया और ब्रिटिश आधिपत्य को स्वीकार कर लिया। वास्तव में, हेस्टिंग्स की राजपूत रियासतों से संधियाँ बहुत कठोर थीं जबकि इन राज्यों ने कंपनी का कभी विरोध भी नहीं किया था। कर्नल टॉड ने राजपूत राजाओं की प्राचीन स्वतंत्रता के पुनर्स्थापन के लिए प्रयत्न किए और कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने भी आज्ञापत्र बना लिए थे, जिनमें इन संधियों को त्यागने और शर्तों को छोड़ने की बात कही गई थी, किंतु इस विषय में कुछ किया नहीं गया। इस प्रकार साम्राज्यवाद की बाढ़ में राजपूत रियासतों की स्वतंत्रता बह गई।

मुगल सम्राट की मान्यता का अंत

यद्यपि कंपनी भारत में सर्वश्रेष्ठ बन चुकी थी, लेकिन बाह्य आडंबर तथा सम्मान मुगल सम्राट का ही बना रहा था। मुगल दरबार की प्रक्रिया के अनुसार गवर्नर जनरल जो पत्र मुगल सम्राट को लिखता था, वह एक अर्जदाश्त (पिटीशन) कही जाती थी और सम्राट कंपनी के लिए ‘हमारा विशेष कृपापात्र सेवक’, ‘आदरणीय पुत्र’ इत्यादि शब्दों का प्रयोग करता था। गवर्नर जनरल की मुद्रा में भी ‘सम्राट का भृत्य’ शब्द लिखे जाते थे। हेस्टिंग्स का मानना था कि अब कंपनी भारत में सर्वोच्च शक्ति बन चुकी थी, इसलिए मुगल सम्राट के बाह्य आडंबर को समाप्त करना आवश्यक था। वैसे भी मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय 1803 में ही ब्रिटिश नियंत्रण में आ चुका था और 1806 में अपनी मृत्यु तक वह कंपनी का पेंशनर बना रहा था। जब हेस्टिंग्स दिल्ली आया, तब उसने सम्राट से भेंट करना तब तक अस्वीकार कर दिया जब तक कि पुराना शिष्टाचार इत्यादि समाप्त न कर दिया जाए और दोनों बराबरी की अवस्था में न मिलें। हेस्टिंग्स के विरोध का परिणाम यह हुआ कि उसका उत्तराधिकारी एमहर्स्ट 1827 में सम्राट से बराबरी के आधार पर मिला।

शाहआलम द्वितीय के उत्तराधिकारी अकबर द्वितीय (1806-1837) को लॉर्ड हेस्टिंग्स ने यह आदेश दिया कि वह ऐसा कोई समारोह न करे जिसमें कंपनी के ऊपर उसकी सत्ता का प्रदर्शन हो। इस प्रकार हेस्टिंग्स ने मुगल सम्राट की नाममात्र की प्रतिष्ठा को भी नष्ट कर दिया।

मालवा और बुंदेलखंड

हेस्टिंग्स ने मालवा के राजाओं से संधियाँ करने का उत्तरदायित्व माल्कम को सौंपा था। माल्कम ने भोपाल से रक्षा और अधीन मित्रता की संधि की। टोंक के नवाब अमीर खाँ के दामाद गफूर खाँ ने होल्कर की सेना के विरुद्ध माल्कम की सहायता की थी। इसके पुरस्कार के रूप में उसे जोरा का राज्य दे दिया गया। धार तथा अन्य छोटे-छोटे राज्यों ने भी कंपनी की अधीनता स्वीकार कर ली। कच्छ और मुल्तान राज्यों पर भी कंपनी का आधिपत्य स्थापित किया गया।

लॉर्ड हेस्टिंग्स के प्रशासनिक सुधार

लॉर्ड हेस्टिंग्स एक महान विजेता होने के साथ-साथ एक योग्य प्रशासक भी था। उसके शासनकाल में भूराजस्व, न्याय, राजस्व और शिक्षा के क्षेत्र में कई महत्त्वपूर्ण सुधार हुए। सौभाग्य से उसे सर जॉन माल्कम, सर थॉमस मुनरो, माउंट स्टुअर्ट एल्फिन्स्टन, जेंकिन्स और चार्ल्स मेटकॉफ जैसे कई प्रतिभाशाली अधिकारियों का सहयोग प्राप्त हुआ था।

भूराजस्व प्रणाली

थॉमस मुनरो ने मद्रास के गवर्नर के रूप में मालाबार, कन्नड़, कोयंबटूर, मदुरै और डिंडीगुल में रैयतवारी भूराजस्व प्रणाली लागू की। इस प्रणाली के अंतर्गत कृषकों को भूमि का स्वामी माना गया और सरकार ने सीधे उनके साथ राजस्व का निर्धारण किया। एल्फिन्स्टन ने बंबई प्रेसीडेंसी के गवर्नर के रूप में उन क्षेत्रों में भूराजस्व व्यवस्था की जो पेशवा से प्राप्त हुए थे। उसने रैयतवारी और महालवारी के सम्मिश्रण से इस क्षेत्र में भूराजस्व की व्यवस्था की। भूमि के सर्वेक्षण के पश्चात प्रत्येक कृषक का लगान निश्चित किया गया, लेकिन भूराजस्व संग्रह के लिए संपूर्ण गाँव को इकाई माना गया। गाँव के भूराजस्व संग्रह का उत्तरदायित्व पाटिल (मुखिया) को सौंप दिया गया। मध्य भारत के पुनर्निर्माण का कार्य सर जॉन माल्कम ने किया और सैकड़ों छोटे-छोटे राज्यों की सीमाओं और दावों का निपटारा किया।

बंगाल टीनेंसी ऐक्ट

बंगाल के कृषकों के अधिकारों की रक्षा के लिए 1822 ई. में बंगाल काश्तकारी अधिनियम (बंगाल टीनेंसी ऐक्ट) पारित किया गया। इस कानून में यह व्यवस्था की गई कि यदि किसान अपना निश्चित किराया देता रहे तो उसे उनकी जमीनों से बेदखल नहीं किया जा सकता। इसके अलावा, किराए में वृद्धि भी केवल विशेष परिस्थितियों में ही की जा सकती थी।

न्यायिक क्षेत्र में सुधार

1814 में हेस्टिंग्स ने न्यायिक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सुधार किए। प्रत्येक थाने में एक मुंसिफ नियुक्त किया गया जो 64 रुपये तक के मुकदमे सुन सकता था। लेकिन उसके निर्णयों को दीवानी अदालत द्वारा पुष्ट किया जाना आवश्यक था। मुंसिफों के निर्णयों के विरुद्ध अपील दीवानी अदालत सुनती थी। आवश्यकता के अनुसार जिलों या नगरों में सदर अमीन नियुक्त किए गए जो 150 रुपये तक के मुकदमों को सुन सकते थे। लेकिन वे ऐसे मुकदमे नहीं सुन सकते थे जिनमें प्रतिवादी कोई अंग्रेज, यूरोपियन या अमेरिकन हो।

अदालतों पर काम का बोझ कम करने के लिए हेस्टिंग्स ने कुछ मामलों में अपील का अधिकार समाप्त कर दिया और कुछ मामलों में केवल एक अपील का अधिकार दिया गया। इसका अर्थ था कि दीवानी अदालत के निर्णय के विरुद्ध केवल प्रांतीय अदालत में अपील की जा सकती थी। इसी प्रकार जो मुकदमे प्रांतीय अदालतों में आरंभ हुए थे, उनकी अपीलें सदर दीवानी अदालत में की जा सकती थीं। रजिस्ट्रारों के अधिकारों में वृद्धि कर दी गई। 1815 ई. में एक आदेश के द्वारा जजों की अर्हताओं को निश्चित किया गया। इसके अलावा, हेस्टिंग्स ने बंगाल में न्यायाधीशों तथा दंडनायकों (मजिस्ट्रेटों) की पृथकता समाप्त कर दी जिससे कलेक्टरों को ही दंडनायकों का कार्य करने की अनुमति मिल गई।

शिक्षा के क्षेत्र में सुधार

शिक्षा के क्षेत्र में 1813 के चार्टर में भारत में शिक्षा पर एक लाख रुपये वार्षिक व्यय करने का प्रावधान किया गया था, लेकिन इस संबंध में निर्देशों के अभाव में इस दिशा में कुछ नहीं किया जा सका। फिर भी, हेस्टिंग्स ने शिक्षा के प्रसार में विशेष रुचि ली और कलकत्ता के निकट कई वर्नाक्युलर स्कूल खोले गए। अंग्रेजी शिक्षा के प्रोत्साहन के लिए कलकत्ता में एक कॉलेज खोला गया।

लॉर्ड हेस्टिंग्स द्वारा सेंसरशिप का अंत

लॉर्ड हेस्टिंग्स के कार्यकाल की एक महत्त्वपूर्ण घटना सेंसरशिप को समाप्त करना था। यह मूलतः प्रेस पर ‘अनावश्यक’ प्रतिबंध लगाने के विरुद्ध था। किंतु उसने एहतियात के लिए समाचार पत्रों के लिए कुछ दिशा-निर्देश जारी किए। हेस्टिंग्स की नीतियों के परिणामस्वरूप अनेक नए समाचार-पत्र सामने आए। भारत का पहला वर्नाक्युलर समाचार पत्र ‘समाचार दर्पण’ 1818 में शुरू किया गया था। यद्यपि कुछ विद्वानों के अनुसार ‘बंगाल गजट’ इस पत्रिका से पहले भी गंगाधर भट्टाचार्य द्वारा प्रकाशित किया गया था। हेस्टिंग्स के ही काल में सीरमपुर के मिशनरियों ने ‘समाचार-भूषण’ नामक पहला देसी भाषा में समाचार-पत्र (बंगाली) निकाला। कुछ वर्ष बाद राजा राममोहन रॉय ने भारत में राष्ट्रीय प्रेस की शुरुआत की। उन्होंने 1821 में ‘संवाद कौमुदी’ प्रकाशित किया। यद्यपि हेस्टिंग्स ने प्रेस की स्वतंत्रता पर से सरकारी नियंत्रण हटा लिया, किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रेस पूर्ण रूप से स्वतंत्र था।

हेस्टिंग्स का त्यागपत्र

हेस्टिंग्स ने 1821 में अपने पद से त्यागपत्र दे दिया क्योंकि एक ब्रिटिश कंपनी ‘पामर एंड कंपनी’ में उसकी भूमिका संदिग्ध थी। 1814 में इस कंपनी ने हैदराबाद में बैंक की स्थापना की थी। कुछ समय बाद हेस्टिंग्स का एक संबंधी विलियम रम्बोल्ड इस कंपनी का अंशधारक बन गया। इस बैंक ने गवर्नर जनरल की अनुमति लिए बिना निजाम को ऋण दे दिया, जो 1796 के एक ब्रिटिश कानून का उल्लंघन था। इस कानून के अनुसार भारत के राजाओं और नवाबों को बिना गवर्नर जनरल की अनुमति के ऋण नहीं दिया जा सकता था। हालांकि बाद में कंपनी ने हेस्टिंग्स से अनुमति प्राप्त कर ली, किंतु नए रेजीडेंट ने इस पर आपत्ति की और हेस्टिंग्स की अनुमति को निरस्त कर दिया। संचालकों ने हेस्टिंग्स पर आरोप लगाया कि सारे मामले में वह शामिल था। अतः हेस्टिंग्स ने 1821 में त्यागपत्र दे दिया, लेकिन भारत से वह 1823 ई. में जा पाया।

हेस्टिंग्स का चरित्र एवं मूल्यांकन

लॉर्ड हेस्टिंग्स की गणना भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के निर्माताओं में की जाती है। यद्यपि अधिकांश राज्यों पर वेलेजली ने ही कब्जा किया था, किंतु लॉर्ड हेस्टिंग्स ने साम्राज्यवाद की सीमाएँ बढ़ाकर शेष भारतीय राज्यों को भी ब्रिटिश अधीनता में लाने में सफल रहा। उसने मराठों को अंतिम रूप से पराजित करके मराठा संघ को नष्ट कर दिया और संघ का प्रतीक पेशवा पद को समाप्त कर दिया। अब सिंधिया, होल्कर, गायकवाड, भोंसले सभी अंग्रेजों के अधीन हो गए। राजस्थान के सभी राजपूत राज्यों ने भी कंपनी की अधीनता स्वीकार कर ली। अब केवल पंजाब और सिंध को छोड़कर संपूर्ण भारत पर कंपनी की सत्ता स्थापित हो गई थी। इस प्रकार हेस्टिंग्स ने उन भारतीय शक्तियों का नाश कर दिया जो मुगल साम्राज्य के पतन के बाद उठी थीं अथवा पुनर्जनन हुई थीं तथा राजनीतिक प्रधानता के लिए संघर्ष कर रही थीं। एक योग्य प्रशासक के रूप में उसने अपने प्रशासनिक सुधारों द्वारा भारत के विशाल भूभाग पर शांति और व्यवस्था स्थापित की।

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