गुप्तकाल साहित्यिक विकास
साहित्यिक विकास की दृष्टि से गुप्तकाल बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इस काल में संस्कृत को आधिकारिक भाषा स्वीकार किया गया और गुप्त नरेशों ने अपने अभिलेखों को संस्कृत में उत्कीर्ण करवाया। गुप्तकाल को श्रेष्ठ कवियों का काल माना जाता है। कुछ कवियों की कोई कृति प्राप्त नहीं है, किंतु अभिलेखों से उनके संबंध में सूचनाएँ मिलती हैं। ऐसे कवियों में हरिषेण, वीरसेन शैव, वत्सभट्टि और वासुल आदि महत्त्वपूर्ण हैं। महादंडनायक ध्रुवभूति का पुत्र हरिषेण, समुद्रगुप्त के समय में संधिविग्रहिक, कुमारामात्य और महादंडनायक के पद पर कार्यरत था। प्रयाग-प्रशस्ति उसकी सरल अलंकारिक शैली और काव्य-कुशलता का प्रमाण है। उसके छंद कालिदास की शैली की स्मृति दिलाते हैं। यह प्रशस्ति चंपू शैली (गद्य-पद्य मिश्रित) का एक अनोखा उदाहरण है। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में संधिविग्रहिक और अमात्य के पद पर कार्यरत वीरसेन शैव की काव्य-शैली का उत्कृष्ट उदाहरण उदयगिरि गुफा की दीवार पर उत्कीर्ण लेख है। लेख से प्रतीत होता है कि वह व्याकरण, न्याय और राजनीति का ज्ञाता था (शब्दार्थन्यायलोकाः कविः पाटलिपुत्रकः)। मंदसौर के स्तंभ-लेख के श्लोक वत्सभट्टि की काव्य-शैली के उत्तम उदाहरण हैं। वासुल द्वारा यशोधर्मन के काल में रचित मंदसौर प्रशस्ति के नौ श्लोक अत्यंत रोचक, सरस और हृदयग्राही शैली में हैं, जो उसकी काव्य-प्रतिभा के प्रमाण हैं।
साहित्यिक ग्रंथ
साहित्यिक ग्रंथों से जिन कवियों के संबंध में सूचना मिलती है, उनमें कालिदास, भारवि, भट्टि, मातृगुप्त, शूद्रक, विशाखदत्त, भास, भर्तृश्रेष्ठ और विष्णुशर्मा आदि उल्लेखनीय हैं। संस्कृत साहित्य के महान् कवि कालिदास की सात महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं—‘मालविकाग्निमित्रम्’, ‘विक्रमोर्वशीयम्’, ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’, ‘ऋतुसंहार’, ‘कुमारसंभव’, ‘मेघदूत’ और ‘रघुवंश’। उन्होंने अग्निमित्र और मालविका की प्रणय-कथा पर आधारित मालविकाग्निमित्रम् सम्राट पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय-कथा पर आधारित विक्रमोर्वशीयम् दुष्यंत और शकुंतला की प्रणय-कथा पर आधारित अभिज्ञानशाकुंतलम् नाटक लिखा। कालिदास के नाटकों की प्रमुख विशेषता यह है कि उनके नाटकों में उच्च वर्णों के पात्र संस्कृत बोलते हैं, जबकि निम्न वर्णों के चरित्र और सभी वर्णों की स्त्रियाँ प्राकृत भाषा का प्रयोग करती हैं। भाषा का यह द्वैध रूप तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक असमानता का द्योतक है। कालिदास को ‘भारत का शेक्सपियर’ कहा जाता है।
रघुवंश उन्नीस सर्गों का महाकाव्य है, जिसमें राम के पूर्वजों का वर्णन और उनका गुणगान है। कुमारसंभव में सत्रह सर्ग हैं, जिसमें प्रकृति-चित्रण और कार्तिकेय के जन्म की कथा वर्णित है। ऋतुसंहार में षड्ऋतु वर्णन और मेघदूत में विरही यक्ष और उसकी प्रियतमा का वियोग-वर्णन है।
भारवि द्वारा रचित महाकाव्य ‘किरातार्जुनीयम्’ महाभारत के वनपर्व पर आधारित है, जिसमें अठारह सर्ग हैं। वे अपने अर्थ-गौरव के लिए प्रसिद्ध हैं (भारवेरर्थगौरवम्)। शूद्रक के ‘मृच्छकटिकम्’ में नायक चारुदत्त, नायिका वसंतसेना, राजा, ब्राह्मण, जुआरी, व्यापारी, वेश्या और धूर्त दास का वर्णन है। भट्टि द्वारा रचित ‘भट्टिकाव्य’ का वास्तविक नाम ‘रावणवध’ है। इस ग्रंथ को व्याकरण का ज्ञाता और अलंकार शास्त्र का मर्मज्ञ ही समझ सकता है। रामायण की कथा पर आधारित भट्टिकाव्य को पंचमहाकाव्यों (कुमारसंभव, रघुवंश, किरातार्जुनीय, शिशुपालवध और नैषधचरित) के समान महत्त्वपूर्ण माना जाता है। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ से पता चलता है कि मातृगुप्त ने भरत के नाट्यशास्त्र पर कोई टीका लिखी थी। ‘हस्तिपक’ नाम से प्रसिद्ध भर्तृश्रेष्ठ ने ‘हयग्रीववध’ काव्य की रचना की थी।
विशाखदत्त ने दो ऐतिहासिक नाटकों की रचना की—‘मुद्राराक्षस’ और ‘देवीचंद्रगुप्तम्’। मुद्राराक्षस में चंद्रगुप्त मौर्य के मगध के सिंहासन पर बैठने की कथा का वर्णन है। देवीचंद्रगुप्तम् अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है, किंतु इसके कुछ अंश रामचंद्र और गुणचंद्र द्वारा रचित ‘नाट्यदर्पण’ में मिलते हैं, जिसमें चंद्रगुप्त द्वितीय द्वारा शकराज का वध कर रामगुप्त की पत्नी ध्रुवस्वामिनी से विवाह कर सम्राट बनने की कथा का वर्णन है।
भास के ‘स्वप्नवासवदत्तम्’ में महाराज उदयन और वासवदत्ता की प्रेमकथा वर्णित है, जबकि ‘प्रतिज्ञायौगंधरायणम्’ में वत्सराज उदयन द्वारा अपने मंत्री यौगंधरायण की सहायता से अवंति की राजकुमारी वासवदत्ता को उज्जयिनी से लेकर भागने की कथा है। एक अन्य नाटक चारुदत्तम् का नायक चारुदत्त मूलतः भास की कल्पना है।
चंद्रगोमिन् नामक बंगाली बौद्ध भिक्षु ने ‘चंद्रव्याकरण’ लिखा, जो बहुत लोकप्रिय हुआ और महायान बौद्धों द्वारा अपनाया गया। अमरसिंह ने ‘अमरकोष’ नामक संस्कृत के प्रमाणित कोश की रचना की। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से प्रभावित होकर कामंदक ने राजनीति पर ‘नीतिसार’ नामक ग्रंथ लिखा। वात्स्यायन ने ‘कामसूत्र’ में काम-जीवन के सभी पक्षों का वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण किया है। विष्णुशर्मा द्वारा रचित ‘पंचतंत्र’ की गणना विश्व के सर्वाधिक प्रचलित कथा-संग्रहों में की जाती है। इसमें लोकप्रिय और मनोहर कहानियों का संग्रह है। यह ग्रंथ पाँच भागों में विभाजित है—मित्रभेद, मित्रलाभ, संधिविग्रह, लब्धप्रनाश, और अपरीक्षितकारित्व। सोलहवीं शताब्दी के अंत तक इस ग्रंथ का अनुवाद यूनानी, लैटिन, स्पेनिश, जर्मन और अंग्रेजी भाषाओं में किया जा चुका था, जो इसकी लोकप्रियता का प्रमाण है। विश्व की लगभग 50 भाषाओं में इसके 250 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
धार्मिक एवं दार्शनिक ग्रंथ
धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथों की रचना की दृष्टि से गुप्तकाल वस्तुतः एक सीमाचिह्न है। इसी काल में पुराणों के वर्तमान स्वरूप का संकलन हुआ और वे हिंदुओं के प्रमाणिक धार्मिक ग्रंथ बने। इनमें ऐतिहासिक परंपराओं का उल्लेख मिलता है। वस्तुतः, पुराणों की रचना चारणों ने आरंभ की थी, किंतु ब्राह्मणों के हाथ में आने के बाद इनका लेखन संस्कृत में हुआ और इनकी ब्राह्मणवादी व्याख्या कर इनमें ब्राह्मण धर्म के अनुष्ठानों, रीति-रिवाजों और परंपराओं को समाहित कर इनका पुनर्लेखन किया गया। धर्मशास्त्रों को लोकप्रिय बनाने और उनमें नवीनता लाने के लिए ब्राह्मण धर्मशास्त्रों में संशोधन और परिवर्तन किए गए। गुप्तकाल में ही याज्ञवल्क्य, नारद, कात्यायन, पाराशर और बृहस्पति की स्मृतियाँ लिखी गईं। इनमें ‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इस स्मृति में आचार, व्यवहार, और प्रायश्चित आदि का उल्लेख है। इसी काल में अनेक स्मृतियों और सूत्रों पर भाष्य लिखे गए। इसी समय ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ दोनों महान् गाथा-काव्यों को अंतिम रूप से संकलित किया गया।
संभवतः सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व और उत्तर मीमांसा (वेदांत) की महत्त्वपूर्ण कृतियों की रचना इसी काल में हुई। इस काल में बौद्ध दर्शन पर भी ग्रंथों की रचना की गई। बौद्ध ग्रंथ पहले पालि में लिखे जाते थे, किंतु इस समय संस्कृत का व्यापक प्रयोग आरंभ हुआ। महायान धर्म के प्रख्यात विद्वान् असंग ने ‘प्रकरणार्यवाचा’, ‘महायानसूत्रालंकार’, ‘वज्रघण्टिका टीका’, ‘महायानसंपरिग्रह’, ‘सप्तदशभूमिशास्त्र’ और ‘महायानाभिधर्म’, ‘संगीतशास्त्र’ जैसे ग्रंथों की रचना की। वसुबंधु ने मीमांसा, सांख्य, योग, वैशेषिक आदि दार्शनिक पद्धतियों का खंडन किया और बौद्ध धर्म-दर्शन को विकसित किया। ‘अभिधर्मकोश’ में बौद्ध धर्म के मौलिक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। दिङ्नाग ने बौद्ध न्याय और तर्कशास्त्र पर महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की। हीनयान (बौद्ध धर्म) शाखा के बुद्धघोष ने त्रिपिटकों पर भाष्य लिखा। उनका प्रसिद्ध ग्रंथ ‘विसुद्धिमग्ग’ है। जैन दार्शनिक आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने जैन न्याय दर्शन पर ‘न्यायावतार’ नामक तर्क-ग्रंथ लिखा। इसी समय विमलसूरि द्वारा ‘जैन रामायण ‘की रचना की गई।
गुप्तकाल में संस्कृत भाषा के अतिरिक्त प्राकृत भाषा के साहित्य को भी दरबार के बाहर संरक्षण प्राप्त था, जिसके कारण प्राकृत के कई रूपों—मथुरा के आसपास शौरसेनी, अवध और बुंदेलखंड में अर्धमागधी, बिहार में मागधी और बरार क्षेत्र में महाराष्ट्री का विकास संभव हुआ।
वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति
गुप्तकाल में अनेक वैज्ञानिक और तकनीकी ग्रंथों की रचना हुई, जिसके परिणामस्वरूप विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का विकास हुआ। मेहरौली लौह-स्तंभ लेख गुप्तकालीन धातु विज्ञान के उन्नत होने का प्रमाण है। इस काल में खगोलशास्त्र, ज्योतिष, गणित और चिकित्साशास्त्र का विकास अपने चरमोत्कर्ष पर था। वराहमिहिर, आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, आर्यभट्ट द्वितीय, भास्कराचार्य और कमलाकर जैसे प्रसिद्ध विद्वान् गुप्तकाल की गौरवपूर्ण उपलब्धियाँ थे। इसी समय ‘शून्य के सिद्धांत’ और ‘दशमलव प्रणाली’ का विकास हुआ। सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के यथार्थ कारणों की व्याख्या की गई। विज्ञान के क्षेत्र में संभवतः सर्वाधिक सारगर्भित सिद्धांत वैशेषिक विचारधारा के विद्वानों द्वारा दिया गया आणविक सिद्धांत था।
वराहमिहिर
वराहमिहिर गुप्तकाल के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री थे। उनके प्रसिद्ध ग्रंथ ‘बृहत्संहिता’, ‘पंचसिद्धान्तिका’, ‘बृहज्जातक’ और ‘लघुजातक’ हैं। बृहत्संहिता (400 श्लोक) फलित ज्योतिष का प्रमुख ग्रंथ है, जिसमें नक्षत्र विद्या, वनस्पतिशास्त्र, प्राकृतिक इतिहास और भौतिक भूगोल जैसे विषयों का वर्णन है। पंचसिद्धान्तिका में वराहमिहिर ने प्रचलित पाँच सिद्धांतों—पुलिश, रोमक, वशिष्ठ, सौर और पितामह का विस्तृत वर्णन किया है।
वस्तुतः वराहमिहिर का ज्ञान तीन भागों में विभाजित था—खगोल, भविष्यविज्ञान और वृक्षायुर्वेद। वृक्षायुर्वेद में उन्होंने बोआई, खाद बनाने की विधियाँ, जमीन का चुनाव, बीज, जलवायु, वृक्ष और समय निरीक्षण से वर्षा की आगाही आदि वृक्ष और कृषि संबंधी अनेक विषयों का विवेचन किया है। भविष्यविज्ञान और खगोल विद्या में उनके योगदान के कारण राजा चंद्रगुप्त द्वितीय ने वराहमिहिर को अपने दरबार के नौ रत्नों में स्थान दिया था।
आर्यभट्ट
आर्यभट्ट अपने समय के सबसे बड़े गणितज्ञ थे। उन्होंने तेईस वर्ष की आयु में ‘आर्यभट्टीयम्’ ग्रंथ लिखा, जिससे प्रभावित होकर राजा बुधगुप्त ने उन्हें नालंदा विश्वविद्यालय का प्रमुख बना दिया। आर्यभट्टीयम् एक संपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें रेखागणित, वर्गमूल, घनमूल के साथ-साथ खगोलशास्त्र की गणनाएँ और अंतरिक्ष से संबंधित तथ्यों का समावेश है। आज भी हिंदू पंचांग तैयार करने में इस ग्रंथ की सहायता ली जाती है।
आर्यभट्ट प्रथम खगोलशास्त्री थे, जिन्होंने बताया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती हुई सूर्य के चक्कर लगाती है। निकोलस कोपरनिकस से बहुत पहले आर्यभट्ट ने यह खोज की थी कि ‘पृथ्वी गोल है और उसकी परिधि अनुमानतः 24,835 मील है’। उन्होंने हिंदू धर्म की इस मान्यता को गलत सिद्ध किया कि राहु-केतु सूर्य और चंद्रमा को निगलते हैं, जिससे सूर्य और चंद्रग्रहण होता है। उन्होंने बताया कि चंद्रमा और सूर्य के बीच में पृथ्वी के आ जाने से पृथ्वी की छाया चंद्रमा पर पड़ती है, जिससे चंद्रग्रहण होता है। आर्यभट्ट को यह भी पता था कि चंद्रमा और अन्य ग्रह स्वयं प्रकाशमान नहीं हैं, बल्कि सूर्य की किरणें उनमें प्रतिबिंबित होती हैं। उन्होंने यह भी बताया कि पृथ्वी और अन्य ग्रह सूर्य के चारों ओर वृत्ताकार घूमते रहते हैं। आर्यभट्ट द्वारा निश्चित किया गया वर्षमान टॉल्मी की तुलना में अधिक वैज्ञानिक है। उन्होंने सिद्ध किया कि वर्ष में 366 दिन नहीं, बल्कि 365.2951 दिन होते हैं। संभवतः उन्होंने ही ‘दशमलव प्रणाली’ का विकास किया था।
विश्व गणित के इतिहास में भी आर्यभट्ट का नाम सुप्रसिद्ध है। उन्होंने सबसे पहले ‘पाई’ का मान निश्चित किया और ‘साइन’ का कोष्ठक दिया। गणित के जटिल प्रश्नों को हल करने के लिए उन्होंने समीकरणों का आविष्कार किया।
आर्यभट्ट के सिद्धांतों पर भास्कर प्रथम ने टीका लिखी। भास्कर के तीन महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं—‘महाभास्करीय’, ‘लघुभास्करीय’ और ‘भाष्य’। ब्रह्मगुप्त ने ‘ब्रह्मस्फुरटसिद्धांत’ की रचना कर बताया कि ‘प्रकृति के नियम के अनुसार समस्त वस्तुएँ पृथ्वी पर गिरती हैं, क्योंकि पृथ्वी अपने स्वभाव से ही सभी वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है।’ यह न्यूटन के सिद्धांत से पहले की गई स्थापना है। इस प्रकार आर्यभट्ट, वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त को विश्व के प्रथम खगोलशास्त्री और गणितज्ञ कहा जा सकता है।
इसके अतिरिक्त, ब्रह्मगुप्त ने ‘खंडखाद्यक’, लल्ल ने ‘लल्लसिद्धांत’, वराहमिहिर के पुत्र पृथुयशस् ने ‘होराष्टपञ्चाशिका’ और चतुर्वेद पृथुदक स्वामी, भट्टोत्पल, श्रीपति, ब्रह्मदेव आदि विद्वानों ने ज्योतिषशास्त्र के ग्रंथों पर टीकाएँ लिखीं।
चिकित्सा क्षेत्र में प्रगति
चिकित्सा के क्षेत्र में इस काल में आयुर्वेद से संबंधित कई रचनाओं का प्रणयन हुआ। नालंदा विश्वविद्यालय में ज्योतिष और आयुर्वेद का अध्ययन होता था। इत्सिंग ने उस समय भारत में प्रचलित आयुर्वेद की आठ शाखाओं का उल्लेख किया है। धन्वंतरि चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबार का प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य और चिकित्सक था, जिसे देवताओं का वैद्य बताया गया है। आयुर्वेद के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ‘नवनीतकम्’ की रचना भी गुप्तकाल में हुई, जिसमें प्राचीन आयुर्वेदिक ग्रंथों का संग्रह प्रस्तुत किया गया है। इसमें रसों, चूर्णों और तेलों आदि का वर्णन है। इस समय पशुचिकित्सा से संबंधित कई ग्रंथों की रचना हुई।
वाग्भट्ट प्रथम ने आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अष्टाङ्गसङ्ग्रह’ और ‘अष्टाङ्गहृदय’ की रचना की। अष्टाङ्गहृदय ऐसा ग्रंथ है, जिसका तिब्बती और जर्मन भाषा में अनुवाद हुआ है। वाग्भट्ट द्वितीय, जो रसायनशास्त्री थे, ने ‘रसरत्नसमुच्चय’ की रचना की।
गुप्तकालीन चिकित्सकों को शल्यशास्त्र का भी ज्ञान था। कुछ इतिहासकार दसवीं शताब्दी के रसायनशास्त्री और धातुविज्ञानी नागार्जुन को भी गुप्तकालीन मानते हैं। उन्होंने ‘रसरत्नाकर’ नामक रसग्रंथ की रचना की थी। नागार्जुन ने रस-चिकित्सा का आविष्कार किया और बताया कि सोना, चाँदी, ताँबा और लौह आदि खनिज धातुओं में प्रतिरोधक क्षमता होती है।










