रामगुप्त की ऐतिहासिकता (Historicity of Ramgupta)

रामगुप्त की ऐतिहासिकता

गुप्त अभिलेखों में उल्लिखित वंश-तालिका में समुद्रगुप्त के बाद चंद्रगुप्त द्वितीय का नाम मिलता है, इसलिए पहले इतिहासकारों का विचार था कि समुद्रगुप्त के बाद यही गुप्त साम्राज्य का उत्तराधिकारी हुआ था। किंतु नवीन पुरातात्त्विक और साहित्यिक प्रमाणों के प्रकाश में आने के बाद कुछ इतिहासकार मानने लगे हैं कि समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त के बीच रामगुप्त नामक शासक ने कुछ समय तक शासन किया था। सर्वप्रथम राखालदास बनजी ने 1924 ई. में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के ‘मनीन्द्र चंद्र नंदी व्याख्यानमाला’ में रामगुप्त की ऐतिहासिकता की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया था। इसके बाद अनंत सदाशिव अल्तेकर, डी.आर. भंडारकर, विन्टरनित्ज, वासुदेव विष्णु मिराशी आदि इतिहासकारों ने इस संबंध में व्यापक छानबीन की और रामगुप्त नामक शासक की ऐतिहासिकता को सिद्ध करने का प्रयास किया है।

रामगुप्त के इतिहास का निर्माण

विभिन्न स्रोतों से पता चलता है कि ‘समुद्रगुप्त के दो पुत्र थे- रामगुप्त तथा चंद्रगुप्त। रामगुप्त बड़ा होने के कारण पिता की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठा, लेकिन वह निर्बल एवं कायर था। उसका विवाह ध्रुवदेवी के साथ हुआ था, किंतु पति के नपुंसक और निर्बल होने के कारण वह उससे संतुष्ट नहीं थी। रामगुप्त की दुर्बलता का लाभ उठाकर शकराज ने गुप्त-साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। हिमालय की उपत्यका में युद्ध हुआ, जिसमें रामगुप्त पराजित हो गया। शकराज ने उससे उसकी पत्नी ध्रुवदेवी की माँग की जिसे क्लीव रामगुप्त ने राज्य और प्रजाहित में स्वीकार कर लिया। किंतु उसके छोटे भाई चंद्रगुप्त द्वितीय को यह माँग अपने कुल की प्रतिष्ठा के विरुद्ध लगी और उसने ध्रुवदेवी का वेश धारण कर शकराज के शिविर में जाकर उसकी हत्या कर दी। तत्पश्चात् उसने अपने बड़े भाई रामगुप्त की भी हत्या कर दी और उसकी पत्नी ध्रुवदेवी से विवाह कर गुप्तवंश का शासक बन बैठा।’ इस ऐतिहासिक घटना की सूचना साहित्यिक और पुरातात्त्विक दोनों ही स्रोतों से मिलती है।

रामगुप्त की ऐतिहासिकता के साहित्यिक स्रोत

देवीचंद्रगुप्तम्

सर्वप्रथम विशाखदत्तकृत देवीचंद्रगुप्तम् नामक नाटक से रामगुप्त का अस्तित्व प्रकाश में आया। यद्यपि यह ग्रंथ अपने मूलरूप में उपलब्ध नहीं है, किंतु इसके कुछ उद्धरण रामचंद्र-गुणचंद्रकृत नाट्यदर्पण जैसे अनेक ग्रंथों में मिलते हैं। इन उद्धरणों की ओर सर्वप्रथम सिलवां लेवी ने इतिहासकारों का ध्यान आकर्षित किया था। इस नाटक का नायक गुप्तवंशी चंद्रगुप्त द्वितीय था। यह ग्रंथ संभवतः चंद्रगुप्त द्वितीय के ही काल में लिखा गया था, इसलिए इसके उद्धरण ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं।

देवीचंद्रगुप्तम् के अनुसार रामगुप्त अपने कुल के लिए कलंक था (पत्युः क्लीवजनोचितेन चरितेनानेनपुंसः सतः)। शकराज ने उसे पराजित कर उसकी भार्या ध्रुवदेवी (ध्रुवस्वामिनी) की माँग की। रामगुप्त प्रजा-हित में ध्रुवदेवी को भेंट करने के लिए तैयार हो गया (प्रकृतिनामाश्वासनाय शकस्य ध्रुवदेवीं संप्रदानेऽयुपगते)। किंतु कनिष्ठ भ्राता चंद्रगुप्त ने ध्रुवदेवी का कृत्रिम-वेश धारण कर शकराज के शिविर में जाकर उसकी हत्या कर दी। इसके बाद वह उन्मत्त जीवन व्यतीत करने लगा और इसी रूप में उसने रामगुप्त को मार डाला तथा ध्रुवदेवी से विवाह कर स्वयं सिंहासनारूढ़ हो गया।

हर्षचरित

बाण के हर्षचरित में भी इस कथा का निर्देश यह लिखकर किया गया है कि दूसरे की पत्नी के प्रति कामुक शकपति कामिनी-वेशधारी चंद्रगुप्त के द्वारा मार डाला गया- ‘अरिपुरे च परकलत्रं कामुकं कामिनीवेशगुप्तः चंद्रगुप्तः शकपतिं अशातयत्।’ बाणभट्ट ने जिस प्रसंग में इस घटना का उल्लेख किया है, उससे इस घटना की सत्यता पर संदेह नहीं किया जा सकता है।

काव्यमीमांसा

दसवीं शताब्दी में रचित राजशेखर की ‘काव्यमीमांसा’ में इस घटना का उल्लेख मिलता है जिसमें रामगुप्त को शर्मगुप्त एवं शकाधिपति को खसाधिपति कहा गया है। श्लोक के अनुसार ‘शर्मगुप्त नामक राजा पराजित हो जाने के कारण अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी को खसाधिपति को समर्पित करने के लिए तैयार हो गया था। उसी हिमालय पर्वत में कार्तिकेय ने अपने शत्रुओं का संहार किया जिससे नगर-वधुएं उसके यश का गान करने लगीं।’ यहाँ कार्तिकेय से तात्पर्य चंद्रगुप्त से ही है-

दत्वा रुद्धगतिः खसाधिपतये देवीं ध्रुवस्वामिनीम्,

यस्मात्खंडित साहसो निववृते श्रीशर्मगुप्तो नृपः।

तस्मिन्नेव हिमालये गुरुगुहाकोणक्वणित्किन्नरे,

गीयन्ते तव कार्तिकेय! नगरस्त्रीणां गणैः कीर्तयः।।

श्रृंगारप्रकाश

“देवीचंद्रगुप्तम्” के कुछ उद्धरण ग्यारहवीं शताब्दी के लेखक भोज की रचना ‘श्रृंगारप्रकाश’ में मिलते हैं, जैसे- स्त्री का प्रछन्न वेश धारण कर चंद्रगुप्त शकपति की हत्या के अभिप्राय से शत्रु के सैन्य-शिविर अलिपुर में पहुँचा (स्त्रीवेषनिह्नतः चंद्रगुप्तः शत्रो स्कन्धावारं अलिपुरं शकपतिवधायागमत्)। ‘श्रृंगारप्रकाश’ के उद्धरण से देवीचंद्रगुप्तम् के साक्ष्य की पुष्टि होती है।

हर्षचरित टीका

‘हर्षचरित’ के टीकाकार शंकरार्य ने लिखा है कि ‘शकों का आचार्य शकाधिपति, जो चंद्रगुप्त के भाई की पत्नी ध्रुवदेवी पर अनुसक्त था, स्त्रीवेशधारी नवयुवकों को साथ लेकर सुंदरी का रूप धारण किये हुए चंद्रगुप्त के द्वारा मार डाला गया (शकानामाचर्यः शकाधिपतिः चंद्रगुप्तभातृजायां ध्रुवदेवीं प्रार्थयमानः चंद्रगुप्तेन ध्रुवदेवीवेषधारिणा स्त्रीवेषजनपरिवृत्तेन व्यापादिः)। यहाँ शंकरार्य ने रामगुप्त के प्रतिद्वंद्वी शकराज को शकों का आचार्य एवं शकों का अधिपति दोनों कहा है।

अभिनवभारती

‘देवीचंद्रगुप्तम्’ का एक लघु उद्धरण अभिनवगुप्त रचित ‘अभिनवभारती’ में भी मिलता है- ‘जिस प्रकार ‘देवीचंद्रगुप्तम्’ में माधवसेना को संबोधित करते हुए चंद्रगुप्त ने कहा, ‘हे सुमुखि! नीलकमल की शोभा को धारण करने वाले तेरे दोनों नेत्रों को आनंदसूचक आँसुओं से किसने आपूरित कर दिये? तेरे पुलकित अंग-प्रत्यंग में पसीने की बूँदों को किसने झलका दिया है? तुम्हारे उभरे नितंब किस कारण इस समय अधिक उन्नत हो गये हैं? क्या कारण है कि बिना किसी के स्पर्श के ही तुम्हारे कटि-सूत्र (नीवी के बंधन) शिथिल हो गये हैं?’ यही उद्धरण ‘नाट्यदर्पण’ और भोज के ‘श्रृंगारप्रकाश’ में भी मिलता है। इससे स्पष्ट है कि ‘देवीचंद्रगुप्तम्’ के उद्धरण अपने मूलरूप में दिये गये हैं।

नाटक-लक्षण-रत्नकोश

सागरनंदी द्वारा विरचित इस ग्रंथ को प्रकाश में लाने का श्रेय सिलवां लेवी को है। इस ग्रंथ में प्राप्त होने वाले उद्धरण से चंद्रगुप्त द्वारा नकली पागलपन का स्वांग रचने की संपुष्टि होती है।

आयुर्वेद-दीपिका टीका

इस ग्रंथ की रचना बारहवीं शताब्दी में चक्रपाणि ने की थी। यह चरक संहिता की टीका के रूप में है। इसमें चंद्रगुप्त द्वारा कपटवेश धारण कर दोनों हत्याओं की ओर संकेत किया गया है- ध्रुवदेवी का कपटरूप धारण कर शकराज की हत्या और उन्मत्त का स्वांग रचकर रामगुप्त का वध। यह उल्लेख ‘देवीचंद्रगुप्तम्’ पर आधारित प्रतीत होता है।

मजमल-उत-तवारीख

बारहवीं सदी में अब्दुलहसन अली (1126 ई.) ने फारसी में ‘मजमल-उत-तवारीख’ लिखा जो ‘देवीचंद्रगुप्तम्’ जैसी किसी संस्कृत रचना के अरबी भाषा में अनुदित ग्रंथ का फारसी अनुवाद लगता है। इसमें रव्वाल और बार्कमारीस नामक दो भाइयों की कथा है जो ‘देवीचंद्रगुप्तम्’ के रामगुप्त और चंद्रगुप्त की कथा से मिलती-जुलती है। लगता है कि ‘मजमल-उत-तवारीख’ के लेखक ने इस कथा में ‘देवीचंद्रगुप्तम्’ के कथानक के प्रमुख अंगों का निरूपण किया है।

राजावली

रामगुप्त कथानक का अस्त-व्यस्त उल्लेख मृत्युंजय पण्डित की रचना ‘राजावली’ (1808 ई.) में मिलता है। इसमें इंद्रप्रस्थ के मयूर राजवंश के एक शासक राजपाल को कुमायूँ के शकराज ने पराजित किया था। बाद में विक्रमादित्य ने शकराज को पराजित कर अपना राज्याभिषेक करवाया। राजपाल की तुलना मजमल-उत-तवारीख के रामगुप्त (रव्वाल) से और विक्रमादित्य की तुलना चंद्रगुप्त विक्रमादित्य (बार्कमारीस) से की जा सकती है।

रामगुप्त की ऐतिहासिकता के पुरातात्त्विक स्रोत 

रामगुप्त की ऐतिहासिक कथा का निर्देश मात्रा प्राचीन काव्य-साहित्य में ही नहीं, शिलालेखों में भी उपलब्ध है। यद्यपि रामगुप्त का कोई अभिलेख नहीं मिला है, किंतु राष्ट्रकूट वंश के संजन, काम्बे तथा सांगली अभिलेखों में ‘देवीचंद्रगुप्तम्’ की कथा की ओर संकेत किया गया है।

संजन लेख

राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष के 871 ई. के संजन ताम्रपात्र में ‘देवीचंद्रगुप्तम्’ की कथा का निर्देश किया गया है जिसके अनुसार ‘कलियुग में एक दानी गुप्त नरेश ने भाई की हत्या कर उसके राज्य एवं भार्या का अपहरण किया था तथा एक लाख की संख्या के स्थान पर एक करोड़ की संख्या का उल्लेख किया था-

हत्वाभ्रातरमेव राज्यमहरद्देवीं च दीनस्तथा।

लक्षं कोटिमलेखयन्किल कलौदाता सा गुप्तान्वयः।।

इस श्लोक में चंद्रगुप्त द्वितीय की ओर संकेत किया गया है, जिसने अपने अग्रज की हत्या कर उसकी भार्या और राज्य दोनों को छीन लिया था।

खम्भात लेख

शक संवत् 852 (930 ई.) के खम्भात ताम्रलेख में राष्ट्रकूट नरेश गोविंद चतुर्थ की तुलना किसी अन्य साहसांक नामक प्रसिद्ध शासक से की गई है। लेख के अनुसार राष्ट्रकूट नरेश गोविंद चतुर्थ और साहसांक केवल दानशीलता और साहस में समान थे, बुरे कर्मों में नहीं; क्योंकि गोविंद ने सामर्थ्य होने के बाद भी न तो अपने अग्रज के साथ निर्दयता का व्यवहार किया, न बंधु-स्त्रीगमन किया और न शौचाशौच के भेद को भूलकर पैशाच्य को अंगीकृत किया-

सामर्थ्ये सति निंदिता प्रविर्हिता नैवाग्रजे क्रूरता बंधुस्त्रीगमनादिभिः कुचरितैरावर्ज्जितं नायशः।

शौचाशौचपरांगमुखं न च भिया पैशाच्यमंगीकृतम् त्यागेनासमसाहसैश्च भुवने यः साहसांकोऽभवत्।।

खंभात लेख के ‘साहसांक’ को चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ही माना जाता है। ‘काव्यमीमांसा’ में भी विक्रमादित्य को ‘साहसांक’ कहा गया है।

सांगली लेख

शक संवत् 855 (933 ई.) के इस अभिलेख में भी राष्ट्रकूट शासक गोविंद चतुर्थ को ‘साहसांक’ कहा गया है और खंभात के लेख का श्लोक उद्धृत किया गया है, जिसमें राष्ट्रकूट नरेश के प्रतिद्वंद्वी ‘साहसांक’ का तात्पर्य चंद्रगुप्त द्वितीय से ही है।

बिलसद स्तंभ-लेख

इस लेख से ‘देवीचंद्रगुप्तम्’ की प्रमुख नारीपात्र ध्रुवदेवी की ऐतिहासिकता प्रमाणित होती है। इसमें कुमारगुप्त प्रथम को चंद्रगुप्त द्वितीय की पत्नी ध्रुवदेवी से उत्पन्न पुत्र कहा गया है (महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्तपुत्रस्य महादेव्यां ध्रुवदेव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्तस्य)।

वैशाली का लेख

वैशाली लेख में ध्रुवदेवी को ध्रुवस्वामिनी कहा गया है जो चंद्रगुप्त की पत्नी और गोविंदगुप्त की माता थी (महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्तपत्नी महाराज श्रीगोविंदगुप्तमाता महादेवी ध्रुवस्वामिनी)। राजशेखर की ‘काव्यमीमांसा’ में भी ध्रुवदेवी को ‘ध्रुवस्वामिनी’ कहा गया है।

जैन प्रतिमाएँ

आधुनिक विदिशा के पास दुर्जनपुर गाँव से 1969 ई. में तीन जैन प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं। इनमें से पहली मूर्ति आठवें जैन तीर्थंकर चंद्रप्रभ की और दूसरी नवें जैन तीर्थंकर पुष्पदंत की है। तीसरी मूर्ति खंडित अवस्था में है, जो संभवतः आचार्य चंद्रप्रभ की है। इन प्रतिमाओं के निर्माण में गुप्तों की प्रतिमा-निर्माण शैली का प्रयोग किया गया है। प्रतिमाओं की चरण-चौकी पर गुप्तलिपि में लेख उत्कीर्ण है, जिनमें ‘महाराजाधिराज रामगुप्त’ नामक राजा का नामोल्लेख है। यह शासक गुप्तवंशी रामगुप्त प्रतीत होता है जो जैनमतावलंबी था। लगता है कि जैन मत का पोषक होने के कारण ही राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष के लेखों में रामगुप्त के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए चंद्रगुप्त की निंदा की गई है।

मौद्रिक साक्ष्य

इसके अलावा रामगुप्त नामक शासक की कुछ ताम्र-मुद्राएँ भी मालवा के भिलसा और एरण से प्राप्त हुई हैं जिनसे रामगुप्त की ऐतिहासिकता प्रमाणित होती है। मुद्राशास्त्री परमेश्वरीलाल गुप्ता को भिलसा से छः ऐसी मुद्राएँ मिली हैं जिनमें से एक पर शासक का पूरा नाम ‘रामगुप्त’ तथा शेष पर नाम के कुछ अक्षर ‘राम’, ‘मगु’, ‘गुत’ आदि पठनीय हैं। इन मुद्राओं को गुप्त महोदय ने रामगुप्त से संबंधित किया है। इन पर सिंह की आकृति है, लिपि गुप्तकालीन है और भार-माप में भी ये मुद्राएँ चंद्रगुप्त द्वितीय के ताम्र-मुद्राओं से मिलती-जुलती हैं। ध्रुवदेवी की वैशाली-मुद्रा पर भी सिंह की आकृति उत्कीर्ण है। इससे रामगुप्त गुप्तवंशी शासक प्रतीत होता है।

रामगुप्त की ऐतिहासिकता (Historicity of Ramgupta)
रामगुप्त की मुद्राएँ

प्रो. कृष्णदत्त बाजपेयी को एरण से रामगुप्त की कुछ मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं जिन पर सिंह तथा गरुड़ की आकृतियों का अंकन है। मुद्राओं पर शासक के नाम के राम, रामगु, मगुप्त जैसे अक्षर अवशिष्ट हैं। इन मुद्राओं की लिपि गुप्तकालीन है। सिक्कों पर गरुड़ का अंकन रामगुप्त की ऐतिहासिकता का सबल प्रमाण है क्योंकि गरुड़ गुप्तवंश का राजकीय चिन्ह था। रामगुप्त द्वारा गरुड़ध्वज का प्रयोग इस तथ्य का प्रमाण है कि वह गुप्तवंशी शासक था।

कुछ इतिहासकार इन मुद्राओं के रामगुप्त को गुप्त शासक न मानकर मालवा का स्थानीय शासक मानते हैं, किंतु रामगुप्त को काल्पनिक मानकर उसकी ऐतिहासिकता का विरोध करना तर्कसंगत नहीं है।

युद्ध-स्थान

रामगुप्त और शकराज के मध्य युद्ध कहाँ हुआ था, इस संबंध में निर्णायक रूप से कुछ कह पाना संभव नहीं है क्योंकि हर्षचरित के अनुसार शकराज ‘अरिपुर’ में मारा गया था, जबकि भोज के ‘शृंगारप्रकाश’ में ‘अलिपुर’ में। ‘मजमल-उत-तवारीख’ से भी पता चलता है कि युद्ध किसी पहाड़ी पर हुआ था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार पंजाब के कांगड़ा जिले में अलिपुर नामक एक पहाड़ी किला है और इसी स्थान पर रामगुप्त और शकों के साथ युद्ध हुआ था। ‘काव्यमीमांसा’ में युद्ध का स्थान ‘कार्तिकेयनगर’ बताया गया है जिसकी पहचान भंडारकर ने अल्मोड़ा जिले के आधुनिक बैजनाथ गाँव से किया है जिसका नाम आज भी कार्तिकेयनगर है। कार्तिकेयनगर वस्तुतः प्रयाग-प्रशस्ति का कर्त्तपुर (कतुरियाराज) है जो समुद्रगुप्त का प्रत्यन्त राज्य था।

शकपति की पहचान

शकराज की पहचान भी विवादग्रस्त है। राखालदास बनर्जी, आर.एन. दंडेकर, दशरथ शर्मा जैसे इतिहासकार शकराज की पहचान दैवपुत्रषाहि-षाहानुषाहि जैसे किसी उत्तरवर्ती कुषाण नरेश के रूप में करते हैं। किंतु अल्तेकर के अनुसार आरंभिक गुप्तकाल में शक और कुषाण दोनों विद्यमान थे और रामगुप्त का शक प्रतिद्वंद्वी कोई शक शासक ही रहा होगा। स्रोतों से पता चलता है कि चौथी शताब्दी ई. में पश्चिमी भारत में शक-सत्ता का उत्थान हो रहा था, इसलिए अधिक संभावना यही है कि रामगुप्त का प्रतिद्वंद्वी कोई शक शासक ही रहा होगा। चंद्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि गुहालेख तथा उसकी रजत मुद्राओं से पता चलता है कि उसने पश्चिमी भारत के शकों का उन्मूलन किया था। संभवतः चंद्रगुप्त का यह अभियान ध्रुवदेवी की माँग का बदला लेने के लिए ही किया गया था।

ऐतिहासिकता की समीक्षा

कुछ इतिहासकार रामगुप्त की ऐतिहासिकता पर विश्वास नहीं करते हैं। सिलवां लेवी के अनुसार रामगुप्त उपाख्यान ऐतिहासिक यथार्थ से कोसों दूर है। स्मिथ का मानना है कि देवीचंद्रगुप्तम् का वर्णन कलंकपूर्ण कथामात्रा है, जिसे ऐतिहासिक नहीं माना जा सकता है। रायचौधरी के अनुसार देवीचंद्रगुप्तम् जैसे नाटकों को किसी ऐतिहासिक निष्कर्ष का आधार बनाना उचित नहीं है। रमेशचंद्र मजूमदार भी रामगुप्त की ऐतिहासिकता को सन्दिग्ध मानते हैं।

रामगुप्त की ऐतिहासिकता का विरोध करने वाले इन विद्वानों के अनुसार रामगुप्त का न तो कोई लेख मिला है और न ही कोई स्वर्ण या रजत मुद्रा। साहित्यिक प्रमाण भी परस्पर विरोधी हैं। गुप्तवंशीय लेखों में चंद्रगुप्त को समुद्रगुप्त को ‘तत्परिगृहीत’ कहा गया है। इससे लगता है कि वह अपने पिता द्वारा उत्तराधिकारी नियुक्त किया गया था।

किंतु गुप्तलेखों में रामगुप्त का उल्लेख न मिलने का कारण यह है कि इनमें मात्रा मूलवंश का ही नाम मिलता है। रामगुप्त के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए रामगुप्त के भाई या उसके वंशजों के लेखों में उसका नाम नहीं मिलता है। अब तो रामगुप्त के लेख भी मिल गये हैं। जहाँ तक रामगुप्त के स्वर्ण तथा रजत मुद्राओं की अनुपस्थिति का प्रश्न है, संभवतः इसका कारण रामगुप्त का अल्पकालीन शासन था, इसलिए उसे स्वर्ण और रजत मुद्रा के प्रचलन का अवसर नहीं मिला। अल्तेकर जैसे विद्वान् मानते हैं कि काच नामक शासक के सिक्के वस्तुतः रामगुप्त के ही सिक्के हैं। काव्यमीमांसा को छोड़कर सभी साहित्यिक प्रमाण विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। इतिहासकारों ने स्मृतियों के आधार पर चंद्रगुप्त द्वारा रामगुप्त की हत्या और उसकी भार्या ध्रुवदेवी से विवाह को भी शास्त्रसंगत माना है। गुप्तकालीन रचना नारद स्मृति के अनुसार पाँच परिस्थितियों में स्त्री पुनर्विवाह कर सकती है- पति का पता न होने, मृत हो जाने, संन्यास ग्रहण कर लेने, क्लीव हो जाने एवं समाज बहिष्कृत हो जाने पर-

नष्टे मृते प्रवजिते च क्लीवे पतिते पतौ।

पंचस्वापत्सुनारीणां पतिरन्यो विधीयते।।

देवीचंद्रगुप्तम् के अनुसार रामगुप्त का आचरण क्लीवजनोचित था, इसलिए चंद्रगुप्त का ध्रुवदेवी के साथ विवाह शास्त्रसंगत और न्यायोचित था। लेखों में प्रयुक्त ‘तत्परिगृहीत’ और ‘तत्पादानुध्यात’ जैसे शब्द मात्र सम्राट के प्रति निष्ठा के सूचक हैं और इनका प्रयोग कभी-कभी सामंत भी करते थे।

इस प्रकार अब रामगुप्त की ऐतिहासिकता को असंदिग्ध रूप से स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। एरण लेख से पता चलता है कि समुद्रगुप्त के कई पुत्र (मुदिता-बहुपुत्र-पौत्र) थे। रामगुप्त समुद्रगुप्त का बड़ा पुत्र था, जो चंद्रगुप्त द्वितीय के पहले कुछ समय तक शासन किया था।

रामगुप्त को कायर और क्लीव मानकर उसके व्यक्तित्व का मूल्यांकन करना उचित नहीं है। संभवतः वह समुद्रगुप्त की भीषण रक्तपात की नीति की स्वाभाविक प्रतिक्रिया का शिकार हो गया। उसकी परिस्थितियाँ निंदनीय थी, न कि पुरुषरूप में वह स्वयं। वह महत्त्वाकांक्षी चंद्रगुप्त द्वितीय की कूटनीति का शिकार हो गया और विशाखदत्त ने जानबूझ कर उसके चरित्र को कमजोर और निर्बल सिद्ध किया ताकि चंद्रगुप्त के अनुचित कार्यों का औचित्य सिद्ध किया जा सके। श्रीराम गोयल का अनुमान है कि रामगुप्त अपने पिता के समय में पूर्वी मालवा का शासक था। समुद्रगुप्त की मृत्यु के बाद चंद्रगुप्त ने साम्राज्य के शेष भाग पर अधिकार कर लिया और रामगुप्त मात्र मालवा का ही शासक रह गया। इसी समय शकों ने रामगुप्त पर आक्रमण किया, जिसका लाभ उठाते हुए चंद्रगुप्त ने पूर्वी मालवा पर आक्रमण कर दिया और रामगुप्त को मारकर चंद्रगुप्त संपूर्ण गुप्त साम्राज्य का स्वामी बन बैठा।

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